Sunday, 13 August 2017

स्वभाषा के हस्ताक्षर

''अतिथि अर्थात 'अ' जमा 'तिथि' अर्थात जिसके आने का समय निश्चित नहीं या अचानक आए वह अतिथि। हमारी संस्कृति में अतिथि को देवस्वरूप माना गया है। किसी को याद करो और वह अचानक आ धमके तो अंग्रेज उसे कहते हैं शैतान को याद किया शैतान हाजिर। हिंदी में अपनी संस्कृति जिस अतिथि को देव कहती है अंग्रेजी में वह शैतान हो जाता है।''



















प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने नए भारत निर्माण के लिए नए संकल्प लेने को कहा है। देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में स्वभाषा किस तरह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है इसका आकलन बहुत कम किया गया लगता है। अंग्रेजी सहित अधिक से अधिक विदेशी भाषाओं का अध्ययन होना चाहिए परंतु दैनिक कामकाज में स्वभाषा का ही प्रयोग हो तो कुछ ही समय में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इस शुभकार्य का श्रीगणेश हम अपनी मातृभाषा में हस्ताक्षर करने से कर सकते हैं।
स्वदेशी व विदेशी भाषा में चिंतन का अंतर इसी उदाहरण से समझा जा सकता है। हिंदी में अतिथि मेहमान को कहा जाता है। अतिथि अर्थात 'अ' जमा 'तिथि' अर्थात जिसके आने का समय निश्चित नहीं या यूं कहें कि अचानक आए वह अतिथि। हमारी संस्कृति में अतिथि को देवस्वरूप माना गया है, कहा गया है 'अतिथि देवो भव:।' किसी को याद करो और वह अचानक आ धमके तो अंग्रेज उसे कहते हैं 'थिंक एबाऊट दी डेविल एंड डेविल इज हेयर' अर्थात शैतान को याद किया शैतान हाजिर। हिंदी में अपनी संस्कृति जिस अतिथि को देव कहती है अंग्रेजी में वह शैतान हो जाता है।
आज अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को समझना जितना जरूरी है उतना पहले के कभी नहीं था। सूचना-प्रोद्योगिकी के विकास से जहां ज्ञान के भण्डार खुले हैं, सूचनाओं का आदान प्रदान तेज हुआ है वहीं हर समाज व देश के सामने अपनी संस्कृति व बचाने की चुनौती भी आई है। सूचना तकनोलोजी व दूसरंचार क्षेत्र में क्रांति ने दुनिया को एक छत के नीचे समेटने दिया है। इससे विश्व की संस्कृतियां एक दूसरे के सामने ही नहीं आई बल्कि एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास भी कर रही है। जो संस्कृति विश्व पर हावी होगी, उसी का माल बिकेगा, उसी को मानने वाला देश समृद्ध होगा। यदि पश्चिमी संस्कृति प्रभावी होगी तो दीवाली पर भी लड्डू, बर्फी, जलेबी, दीवरों की जगह चाकलेट, कुरकुरे, केक, विदेशी लाइटें, उपकरण बिकेंगे। यानी त्यौहार हमारा और सांस्कृतिक प्रदूषण से आर्थिक लाभ विदेशियों का। यह भी हो सकता है कि दीवाली, होली जैसे त्योहार हम भूल जाएं तथा हम केवल वेलेंनटाईन-डे, फ्रेंडशिप-डे व तरह-तरह के डे ही मनाते रह जाऐं।
मौलिक चिंतन व वैचारिक स्पष्टता स्वभाषा में ही संभव हैं। सपने व विचार भी स्वभाषा में ही देखे जाते हैं और भौतिक चिंतन की उपज यानि अविष्कार प्रथमत: एक सपना या विचार ही होता है। बच्चा मातृभाषा को तब से सीखने लगता है जब से वह अपनी इन्द्रियों द्वारा बाहरी संसार को जानने लगता है। अनुकरण से मातृभाषा का शिक्षण प्रारंभ होता है तथा निरन्तर पठन-पाठन और अभ्यास से पुष्ट होता है। मातृभाषा का ज्ञान केवल अक्षर ज्ञान पर आधारित नहीं होता वह तो मां की लोरी और दूध के साथ बच्चे को प्राप्त हो जाता है। भाषा ही संस्कृति की वाहक है। यदि मातृभाषा में शिक्षण होगा तो भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, शुचिता, संयम, परोपकार तथा त्याग-भावना सहज ही बालक को मिलेंगे।  
हर भाषा एक संस्कृति की उपज होती है, जब हम कोई भाषा लिखते है और पढ़ते है तो उसकी संस्कृति से भी जुड़ते हैं। अपनी संस्कृति को अपनाए बिना कोई समाज उन्नत नहीं हो सकता। राष्ट्र की पहचान व सभी तरह की गतिविधियों की संचालक उसकी संस्कृति ही हुआ करती है। उसी के अनुसार वहां की आर्थिक जरूरतें, सामाजिक व्यवहार का निर्माण होता है। अंग्रेजों ने अपना माल खपाने के लिए अपनी संस्कृति को हम पर थोपने का प्रयास किया और हमारी संस्कृति को समाप्त करने के लिए हमारी भाषाओं को नष्ट करने का रास्ता चुना। 18वीं शताब्दी तक अंग्रेजों के आने से पहले सारी शिक्षा व सभी गतिविधियों का संचालन भारतीय भाषाओं में थी। यही कारण था कि समाज में अपने संस्कार थे, उसी संस्कारों के अनुसार आर्थिक जरूरतें थीं, उनकी पूर्ति के लिए हमारे अपने ही उद्योग, व्यवसाय थे और हम आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे।
वैज्ञानिक दृष्टि से सभी उन्नत राष्ट्र जापान, रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, चीन अपनी भाषा में शिक्षा देते हैं और सामान्य जन भी इसी का प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी के अंधभक्त तर्क देते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर बच्चा विश्वभर में घूम सकता है, बाहर का ज्ञान अर्जित कर सकता है परन्तु जिसका मौलिक चिन्तन अवरूद्ध है वह बाहर के ज्ञान का भी सीमित लाभ ही उठा पाएगा। गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजी भले ही विश्व को देखने की खिड़की हो परन्तु अपने घर में जाने के लिए तो दरवाजा अर्थात स्वभाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। 
अनुसंधान की दृष्टि से भी देखें तो विदेशी भाषा अत्यंत महंगी पड़ती है और अपने देश की भाषा आर्थिक संपन्नता के मार्ग प्रशस्त करती है। भारतीय वैज्ञानिक जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर आगे आते है तो भारतीय वैज्ञानिक विरासत जो संस्कृत अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में है उससे कट जाते हैं और उसे निम्नस्तरीय मानने लगते हैं। यदि भारतीय वैज्ञानिक चाहते हैं कि राष्ट्र के लिए उपयोगी खोजें करें तो उन्हे यहां के सामान्य किसान-कारीगर से जुड़ कर करना होगा। भारतीय भाषाओं में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान को परख कर प्रामाणिक घोषित करना होगा और इसके आधार पर अपनी आगामी शोध परियोजनाएं बनानी होंगी। आज के इस प्रतियोगी युग में दो ही तरह के समाज रह जाएंगे-एक वे जो ज्ञान का उत्पादन करते हैं दूसरे वे जो उपभोग करते है। आज ज्ञान मुफ्त में नहीं मिलता, रॉयल्टी सा पेटेन्ट अधिकार के रूप में कीमत चुकानी पड़ती है। इस प्रकार ज्ञान के उत्पादक राष्ट्र अमीर होते जाएंगे और उपभोक्ता राष्ट्र गरीब होते जाऐंगे। अमरीका में विश्व के 80 प्रतिशत नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पढ़ा रहे हैं क्योंकि वह ज्ञान-उत्पादक लोगों को खरीदकर उनसे ज्ञान पैदा करवाता है और फिर मनमाने दामों पर बेचता है। 
वर्तमान समय भारत के लिए चुनौती भरा है जहां दुनिया भर के शक्तिशाली राष्ट्र भारत को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देख रहे हैं। इसकी युवा पीढ़ी को राष्ट्र निर्माण में लगाने, देश के प्रति स्वाभिमान व स्वदेश प्रेम की भावना भरने एवं अपनी संस्कृति को गहराई से समझने हेतु स्वभाषा ही महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। आज शैक्षिक व प्रशासनिक स्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला है। समाज अंग्रेजी की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहा है। यह दौड़ यकायक रुकने वाली नहीं है। इसके लिए निचले स्तर से काम आरंभ करना होगा। सबसे पहले हम सामान्य जीवन में अपनी मातृभाषा का अधिक से अधिक प्रयोग करें और आज ही स्वभाषा में हस्ताक्षर आरंभ कर भारत को भाषिक व आर्थिक साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलवाने के संघर्ष में कूदने का शंखनाद करें।
- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

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