आश्विन मास शुरू होते ही भारत भर में शुरु हो जाती है कुछ अलग तरह की गतिविधियां। कोई पंथ या मजहब का बंधन नहीं न ही जातिगत वर्जनाएं या अमीर-गरीब का भेदभाव, योग्यता केवल अभिनय कला और भगवान
श्रीराम के प्रति अटूट श्रद्धा जिनमें यह कला होती है एकत्रित होना शुरू कर देते हैं ऐसे स्थानों पर जहां वो रात को मंचित होने वाली राम के जीवन वृतांत की रिहर्सल कर सकें। पुराने ट्रंक, अलमारियां खंगाल कर शुरू हो जाती है तलाश रंग-बिरंगे वस्त्रों, नकली के अस्त्र-शस्त्रों, मुखौटों की। अधिकारी हो या व्यापारी, दुकानदार हो या सफाई कर्मचारी, अमीर और गरीब समाज के हर वर्ग से आए कलाकार हर तरह के भेदभुला कर जुट जाते हैं रामचरित मानस की चौपाईयों में सिर खपाने और उन्हें कंठस्थ करने। समय है रामलीला का, जिसकी तैयारी सारा भारत कर रहा है। जिस तरह श्रीराम सभी के हैं, किसी के लिए भगवान हैं तो किसी के लिए आदर्श शासक और पूर्वज तो इकबाल की नजरों में इमाम-ए-हिंद। राम नाम देश को जोड़ता है तो उनकी जीवनलीला भी स्वभाविक तौर पर इस देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोती है।
पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
रामलीला की शुरूआत कब और कैसे हुई? इसका कोई प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रभावशाली चरित्र पर कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे गए, लेकिन दो ग्रंथ प्रमुख हैं। जिनमें पहला ग्रंथ महर्षि वाल्मीकि द्वारा 'रामायण' जिसमें 24 हजार श्लोक, 500 उपखण्ड, तथा सात कांड है और दूसरा ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित है जिसका नाम 'श्री रामचरित मानस' है, जिसमें 9388 चौपाइयां, 1172 दोहे और 108 छंद हैं। राम के जन्म की तारीख को लेकर विद्वानों और इतिहासकारों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। हालांकि वेद और रामायण में विभिन्न आकाशीय और खगोलीय स्थितियों के जिक्र के मुताबिक आधुनिक विज्ञान की मदद से इन तारीकों को प्रमाणिक करने की कोशिश की गई है।
इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑफ वेदास की निदेशक सरोज बाला के मुताबिक, वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम के जन्म का जो वर्णन किया गया है कि उस जन्मतिथि के अनुसार 10 जनवरी 5114 बीसी अब इसे चंद्र कैलेंडर में परिवर्तित कर वो चैत्र मास का शुक्ल पक्ष का नवमी निकला।
कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि श्रीराम का जन्म 7323 ईसा पूर्व हुआ था, कुछ वैज्ञानिक शोधकर्ताओं अनुसार राम का जन्म महर्षि वाल्मीकि द्वारा बताए गए ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर अनुसार 4 दिसंबर 7323 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9340 वर्ष पूर्व हुआ था। शोधकर्ता डॉ. पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी।
इसी तरह समुद्र से लेकर हिमालय तक प्रख्यात रामलीला का आदि प्रवर्तक कौन है, इस पर कोई निश्चित मत नहीं है। कईयों का मानना है कि त्रेता युग में श्रीरामचंद्र के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने 14 वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। धीरे-धीरे इसमें भगवान श्रीराम के जीवन के प्रसंग जुड़ते गए और इसी के माध्यम से पूरी दुनिया में रामकथा का प्रचलन हुआ।
रामलीला के प्रमाण लगभग ग्यारहवीं शताब्दी में मिलते हैं। पहले यह महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य 'रामायण' की पौराणिक कथा पर आधारित था, लेकिन आज जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य 'रामचरितमानस' की कहानी और संवादों पर आधारित है। रामलीला का मंचन तुलसीदास के शिष्यों ने 16वीं सदी में सबसे पहले किया था। उस समय के काशी नरेश ने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस को पूरा करने के बाद रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया था। तभी से देशभर में रामलीला का प्रचलन शुरू हुआ।
कुछ मानते हैं कि रामलीला के प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर मोहल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। बताया जाता है कि स्वर्गारोहण के बाद तुलसीदास जी मेघा भगत के स्वप्न में आए और उन्हें रामचरितमानस का मंचन करने की प्रेरणा दी। बनारस की चित्रकूट रामलीला उन्हीं की शुरू की हुई मानी जाती है।
भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' में नाटक की उत्पत्ति के संदर्भ में लिखा गया है। 'नाट्यशास्त्र' की उत्पत्ति 500 ई.पू. 100 ई. के बीच मानी जाती है। भारत भर में गली-गली, गांव-गांव में होने वाली रामलीला को इसी लोकनाट्य रूपों की एक शैली के रूप में स्वीकारा गया है। दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया था। इस शिलालेख की तिथि 907 ई. है। थाई नरेश बोरमत्रयी (ब्रह्मत्रयी) लोकनाथ की राजभवन नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई. है। बर्मा के राजा ने 1767 ई. में स्याम (थाईलैड) पर आक्रमण किया था। युद्ध में स्याम पराजित हो गया। विजेता सम्राट अन्य बहुमूल्य सामग्रियों के साथ रामलीला कलाकारों को भी बर्मा ले गया। बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने लगा। माइकेल साइमंस ने बर्मा के राजभवन में रामनाटक 1794 ई. में देखा था।
परंपरा और शैलियाँ
राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर वास्तव में कितनी विविध शैलियों वाली है, इसका खुलासा इन्दुजा अवस्थी ने अपने शोध-प्रबंध 'रामलीला : परंपरा और शैलियाँ' में बड़े विस्तार से किया है। इस शोध प्रबंध की विशेषता यह है कि यह शोध पुस्तकालयों में बैठकर न लिखा जाकर विषय के अनुरूप (रामलीला) मैदानों में घूम-घूम कर लिखा गया है। रामकथा तो ख्ख्यात कथा है, किंतु जिस प्रकार वह भारत भर की विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्त हुई है तो उस भाषा, उस स्थान और उस समाज की कुछ निजी विशिष्टताएँ भी उसमें अनायास ही समाहित हो गई हैं - रंगनाथ रामायण और कृतिवास या भावार्थ रामायण और असमिया रामायण की मूल कथा एक होते हुए भी अपने-अपने भाषा-भाषी समाज की 'रामकथाएँ' बन गई हैं।
दुनिया भर में रामलीला
राम की लीला अपने देश भारत में ही नहीं, बल्कि बाली, जावा, श्रीलंका जैसे देशों में प्राचीनकाल से ही किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। आज रामलीला का मंचन नेपाल, थाईलैंड, लाओस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा, सूरीनाम, मॉरीशस में भी होता है। थाईलैंड में रामायण को रामाकिआन कहते हैं।
देश की सबसे पुरानी रामलीलाएं
रामलीला हिमालय से समुद्र तक, कच्छ से कोहिमा तक हर जगह आयोजित होती हैं। यह पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोती है और सामाजिक वातावरण को समरसता की सुगंध से साराबोर कर जाती है। देश में बहुत सी रामलीलाएं हैं जो दस-बीस साल से नहीं बल्कि पांच-पांच शताब्दियों से मंचित की जा रही हैं।
काशी, चित्रकूट और अवध की रामलीला- माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरूआती रामलीला का मंचन (काशी, चित्रकूट और अवध) रामचरित मानस की कहानी और संवादों पर किया। माना जाता है कि ये रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 80 वर्ष से भी बड़ी उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरित्रमानस 16 वीं शताब्दी में रामचरित्र मानस लिखी थी।
लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला- लगभग 500 साल का इतिहास समेटे यह रामलीला मुगलकाल में शुरू हुई और नवाबी दौर में खूब फली-फूली। ऐशबाग के बारे में कहा जाता है कि पहली रामलीला खुद गोस्वामी तुलसीदास ने यहां देखी थी।
बनारस में रामनगर की रामलीला- साल 1783 में रामनगर में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यहां न तो बिजली की रोशनी और न ही लाउडस्पीकर, साधारण से मंच और खुले आसमान के नीचे होती है रामलीला। 234 साल पुरानी रामनगर की रामलीला पेट्रोमेक्स और मशाल की रोशनी में अपनी आवाज के दम पर होती है। बीच-बीच में खास घटनाओं के समय आतिशबाजी जरूर देखने को मिलती है। इसके लिए करीब 4 किमी के दायरे में एक दर्जन कच्चे और पक्के मंच बनाए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका और रामबाग को दर्शाया जाता है।
चित्रकूट की रामलीला- चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी माने जाने वाली रामलीला का मंचन होता है। माना जाता है कि ये रामलीला 475 साल पहले शुरू हुई थी। कहा जाता है चित्रकूट के घाट पर ही गोस्वामी तुलसीदास जी को अपने आराध्य के दर्शन हुए थे। जिसके बाद उन्होंने श्री रामचरित मानस लिखी थी।
गाजीपुर की रामलीला- 5 सौ साल पुरानी रामलीला अब भी हर साल आयोजित की जाती है। इसकी खासियत ये है कि यहां की रामलीला खानाबदोश है। रामलीला मंचन हर दिन अलग जगह पर होता है और राक्षस का वध होने पर वहीं पुतला दहन भी किया जाता है।
गोरखपुर में रामलीला- गोरखपुर में रामलीला की शुरुआत अतिप्राचीन है, लेकिन समिति बनाकर इसकी शुरुआत 1858 में हुई। तब गोरखपुर का पूरा परिवेश गांव का था। संस्कृति व संस्कारों के प्रति लोगों का गहरा लगाव था और अन्य जरूरी कार्यो की भांति इस क्षेत्र में भी वे समय देते थे। देखा जाए तो गोरखपुर में रामलीला का लिखित इतिहास 167 वर्ष पुराना है।
कुमायूं की रामलीला- कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमश: 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ।
होशंगाबाद की रामलीला- करीब 125 साल पुरानी परम्परा होशंगाबाद के सेठानीघाट में आज भी निभाई जा रही है। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक त्रिवेणी बन चुकी इस रामलीला की शुरूआत वर्ष 1870 के आस-पास सेठ नन्हेलाल रईस ने की थी। हालांकि वर्ष 1885 से इसका नियमित मंचन शुरू हुआ, जो अब तक जारी है।
सोहागपुर की रामलीला- सोहागपुर के शोभापुर में रामलीला का इतिहास करीब 160 साल पुराना है। सन 1866 से शुरू हुई रामलीला मंचन की परंपरा को स्थानीय कलाकार अब तक जिंदा रखे हुए हैं। इतने लंबे अंतराल में कभी ऐसा कोई वर्ष नहीं रहा जब गांव में रामलीला का मंचन न किया गया हो।
पीलीभीत की रामलीला- मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के मेला का बीसलपुर नगर में 155 वर्ष से भी अधिक पुराना गौरवमयी इतिहास है। दूर दराज से हजारों की संख्या में मेलार्थी लीलाओं का आंनद लेने आते हैं। रामलीला महोत्सव की आधारशिला डेढ़ सौ वर्ष पूर्व रखी गयी थी। मेला मंच पर नहीं होता है, बल्कि रामनगर (वाराणसी) के मेला की तरह बड़े मैदान में होता है।
फतेहगढ़ की रामलीला- 150 साल पुरानी रामलीला को अंग्रेजों का भी सहयोग मिलता रहा है। तब यह परेड ग्राउंड में होती थी। 20 साल पहले सेना की छावनी बन जाने के बाद आयोजन सब्जी मंडी में होने लगा है।
दिल्ली की रामलीला- दिल्ली की सबसे पुराने रामलीला है परेड ग्राउंड की रामलीला। जो 95 से 100 साल पुरानी है।
डेरा गाजी खां की उर्दू में रामलीला
इक दिन आना पड़ेगा काल के गाल में,
इस रुखे ताबा पे होगी मुर्दानी छाई हुई,
तेरी शान होगी वक्त की ठोकर से ठुकराई हुई।'
'तूने ही मेरे लिए छोड़ा भाई प्यारा वतन,
लात मारी ऐश पर, छोड़े सभी साथी, सजन,
हाय! जब मैं अवध में जाऊंगा इस भाई बिन,
क्या कहूंगा मर गया लंका में भाई बेकफन?'
ऊपर लिखी ये पंक्तियां सुनने में भले ही किसी शेरो-शायरी का हिस्सा लगें लेकिन ज्यादातर लोग ये जानकर हैरान होंगे कि ये रामलीला के संवाद हैं। जी हां, ये रामलीला अवधी या हिंदी नहीं बल्कि खालिस उर्दू वाली है। दिल्ली से सटे फरीदाबाद और पलवल में ऐसी रामलीलाओं का मंचन दशकों से जारी है।
फरीदाबाद में यह रामलीला एनएच-एक, सेक्टर-15 में होती है। विभाजन के समय पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आई हिंदू आबादी को फरीदाबाद में बसाया गया था। उन्हीं के साथ आई ये उर्दू वाली रामलीला। विभाजन को 70 साल पूरे हो गए लेकिन यहां की रामलीलाओं का अंदाज ज्यादा नहीं बदला है। रामलीला के आयोजक बताते हैं कि उनके पूर्वज बंटवारे से पहले पाकिस्तान में उर्दू शब्दों की बहुलता वाले संवाद ही रामलीला में सुनाया करते थे। विभाजन की त्रासदी में लाखों लोग इधर से उधर हुए। घर-बार छूट गए लेकिन उन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत नहीं छोड़ी। भारत आने पर यहां भी वो सिलसिला शुरू हो गया।
रामलीला के निर्देशक विश्वबंधु शर्मा कहते हैं कि हमारे पूर्वज पाकिस्तान के कोहाट एवं डेरा इस्माइल खान से आए थे। वहां भी रामलीला होती थी। अधिकतर लोग उर्दू पढ़ते और अच्छी तरह समझते थे। हम अक्सर रामलीला का मंचन करने से पूर्व कव्वाली करवाते हैं। यहीं के सेक्टर-15 में होने वाली रामलीला के निर्देशक अनिल चावला ने बताया कि जवाहर नगर कैंप पलवल में लोग पाकिस्तान के डेरा गाजी खान से आए थे। वहां के लखीराम, टेकचंद और जेठाराम रामलीला की पटकथा अपने साथ भारत ले आए।
सैफ के पूर्वजों ने शुरू करवाई दिन की रामलीला
देश भर में रामलीलाएं रात में होती हैं लेकिन गुडग़ांव के पास पटौदी कस्बे में दिन में भी मंचन होता है। इस रामलीला को फिल्म अभिनेता सैफ अली खान के पूर्वज मोहम्मद मुमताज अली खान उर्फ मुट्टन मियां ने 1902 में शुरू करवाया था। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर भी देखते हैं। रामलीला शुरू होने से पहले और बाद में लगभग 50 पात्रों की सवारी निकलती है। मंचन दोपहर 3 बजे से शाम को 6 बजे तक होता है।
गुरमुखी में रामलीला
कानपुर। अंगद ठेठ पंजाबी में रावण को समझाता है :-'मेरे चरणी पैके तैनूं की मिलनै साईं
तूं ओस्स राम ते गोड्डी लग्ग
जेसने पूरी दुनिया तारनी ए'
श्री रामलीला मित्र सोसाइटी गोविंद नगर रामलीला मैदान में बीते 70 वर्षों से रामलीला का मंचन गुरमुखी में किया जाता है। बिना व्यास पीठ के होने वाली यह लीला पूरी तरह एक नाटकीय प्रंसग पर आधारित होती है। रामलीला के मुख्य सचिव प्रवीन चोपड़ा बताते है कि भारत की आजादी के समय बहुत सारे लोग पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से कानपुर आए थे। उन्होंने 1952 में आपसी प्रेम सद्भाव के साथ रामलीला के मंचन के लिए आपस में ही एक टीम बनाई थी। रामलीला के मंचन में कुछ अलग करने के लिए रामलीला के मंचन की शुरूआत पंजाबी भाषा में की गई। शहरवासियों द्वारा लगातार पसंद किए जाने पर यह परंपरा लगातार बनी रही।
पंजाब में रामलीला
ऐसा समझा जाता है कि लव-कुश की धरती पंजाब में रामलीला पौराणिक काल से होती आई है। लव-कुश ने जिस तरह रामदरबार में रामकथा का वृतांत सुनाया वह रामलीला का ही स्वरूप कहा जा सकता है। सदियों तक विदेशियों के हमले सहने के बावजूद भी देश के इस सीमांत राज्य में रामनाम की गंगा बहती रही।
राज्य में रामलीला का लिखित आंशिक इतिहास नेमचंद जैन की पुस्तक 'पंजाब में नाटक की सदी' में मिलता है। वे बताते हैं कि नागा बाबा भगवतदास ने पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमांत प्रदेश (पाकिस्तान का सूबा-ए-सरहद) में इसका मंचन किया। पुस्तक अनुसार, हिंदू-सिख, मुस्लिम जनता ने इसके लिए खूब दिल खोल कर दान किया। यहां तक कि ब्लूचिस्तान में डाकुओं ने भी रामलीला के मंचन में सहयोग किया।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने साहित्य में रामकथा को अत्यंत महत्त्व दिया। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में दशहरा पर्व खूब धूमधाम से मनाया जाता था और खुद महाराजा इसमें हाथी-घोड़ों पर सवार हो कर हिस्सा लेते थे। प्रदेश में मुगलकाल में भी रामकथा व किसी न किसी रूप में रामलीला होने के प्रमाण मिल जाते हैं। देश में राजा-रजवाड़ों के समय महाराजा पटियाला, महाराजा कपूरथला, नाभा, फरीदकोट, जींद, हांसी के महाराजा तथा नवाबों ने भी रामलीला आयोजनों को प्रोत्साहन दिया।
- राकेश सैन
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Good efforts and views
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