Monday, 21 August 2017

गरिमा पर आंच

इस माह जहां देश के निवर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की विदाई गरिमामयी वातावरण में हुई वहीं उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी की रुख्सत के समय शहनाईयों की जगह विवादों की धुन आरोप-प्रत्यारोप के नगाड़े बजते दिखे। उनके  ब्यान ने जहां अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी वहीं तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को 'काग राग' छेडऩे का अवसर प्रदान किया। पूरे प्रकरण में देश की कितनी छिछालेदारी हुई इसका आकलन अभी नहीं गया है। श्री अंसारी ने  अल्पसंख्यकों को लेकर जो अपने पद की गरिमा के विरुद्ध ब्यान दिया उसे देश में पसंद नहीं किया गया।

आईये देखते हैं कि श्री अंसारी के ब्यानों में कितनी सच्चाई है और कितना और कुछ। पिछले साल 26 अप्रैल को दिल्ली में 'फिक्र' नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए उन्होंने कहा ''भारत में बड़ी संख्या में रहने वाले मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अनुभव आदर्श के रूप में दूसरों (अन्य देशों) के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं।'' दूसरी ओर अभी 10 अगस्त को राज्यसभा टीवी में अपने साक्षात्कार दौरान उन्होंने कह दिया ''भारतीय मुस्लिम समुदाय में घबराहट और असुरक्षा का भाव है। देश के अलग-अलग हिस्सों से मुझे ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं।'' आश्चर्य होता है कि ये दोनों वाक्य एक ही व्यक्ति ने कहे हैं। मात्र सवा साल में परिस्थितियों में ऐसा क्या बदलाव आया कि उपराष्ट्रपति की राय एकदम पलट गई! दोनों मौकों पर केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। देश की परिस्थितियों में भी इतने कम समय में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।

उपराष्ट्रपति बनने से पूर्व अंसारी अपने वामपंथी झुकाव और बेबाकी के लिए जाने जाते रहे थे। अब, जबकि वे उपराष्ट्रपति के रूप में दो कार्यकालों के दस वर्ष भोग चुके हैं, अंसारी फिर बेबाकी के रास्ते पर चलने के लिए आतुर नजर आ रहे हैं। कार्यकाल के अन्तिम दिनों में लगातार तीन बार मुस्लिम समुदाय के असुरक्षा के भाव की बात उठा कर उन्होंने देश की राजनीति में हलचल मचा दी। उनका भाषण राजनीतिक ज्यादा लग रहा था। नतीजा यह हुआ कि देखते-देखते पक्ष में और जवाबी हमले शुरू हो गए। उनकी इसी बेबाकी के चलते प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा कि ''अब वो संवैधानिक बंधनों से मुक्त हैं और अपने मूल रूप में लौट सकते हैं।''

देश में अल्पसंख्यकों का मुद्दा सदैव संवेदनशील रहा है और जब-जब तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले दल विपक्ष में होते हैं तो इसकी संवेदनशीलता और बढ़ जाती है। ये दल व एक ही तरह का दृष्टिकोण रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी व लेखकों की मेंढक पंचायत अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले किसी भी अपराध को सीधा-सीधा राजनीति, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से जोड़ कर इतनी चीख चिंघाड़ मचाते हैं कि अपने देश तक को निर्वस्त्र करने में नहीं झिझकते। श्री अंसारी के ब्यान के बाद भी ऐसा ही हुआ, दुनिया में यह संदेश गया कि हमारे यहां अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं। संवैधानिक पद पर आसीन  व्यक्ति द्वारा कही गई बात का अधिक असर रहता है, दुष्प्रचार को हथियार मिलता है चाहे, वह सच्चाई से मीलों दूर ही क्यों न हो। इस प्रकरण से यह भी पता चलता है कि देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किस-किस तरह की मानसिकता के लोगों को प्रोत्साहित किया जाता रहा है।

श्री अंसारी अपने आचरण से कई बार विवादों में घिरे हैं। लोकपाल विधेयक के समय जिस तरह उन्होंने तत्कालीन सत्ताधारी दल का मर्यादा के प्रतिकूल बचाव किया था उससे वह आलोचनाओं में घिरे। वे अल्पसंख्यकों की बात करते हैं परंतु दूसरों की भावनाओं के प्रति उनका कितना सम्मान है इसका उदाहरण है कि एक दो धार्मिक अवसरों पर उन्होंने तिलक लगवाने व आरती करने से भी इंकार कर दिया था। चलो इसके लिए उन्हें माफ किया जा सकता है परंतु देशवासियों को यह बात लंबे समय तक सालती रहेगी कि किस तरह उन्होंने अपने पद की गरिमा को कम किया। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि उनका ब्यान राजनीतिक था। सेवानिवृति के बाद राजनीति में सक्रिय होना या न होना उनकी निजी इच्छा है परंतु अपनी आकांक्षाओं के लिए यूं झूठ का तूफान मचा देना कहां तक न्यायोचित है?                          
- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

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