'सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:' मंत्रोच्चार के साथ भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र के 71वे सम्मेलन में महासभा अपने भाषण का समापन किया उससे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के साथ-साथ आतंकवाद भयावहता के खिलाफ हमारी वैश्विक प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है। श्रीमती स्वराज ने जहां दुनिया को आतंकवाद के खिलाफ ईमानदारी से एकजुट होकर लडऩे का आह्वान किया वहीं पाकिस्तान को परामर्श दिया कि वह आतंक पर निवेश करने की बजाय इस धन का प्रयोग अपने लोगों के हित के लिए करे। इससे साफ है कि हम केवल अपने देश भारत को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया और यहां तक कि आतंकवाद की जननी कहे जाने वाले देश पाकिस्तान उपाख्य 'टेरेरिस्तान' को भी इस बीमारी से मुक्त देखना चाहते हैं।
भारत ने आतंकवाद को केवल अपने लोगों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक बताया और विश्व समुदाय से ठीक ही पूछा है कि अगर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् आतंकवादियों को प्रतिबंधित सूची में डालने पर सहमत नहीं हो सकती तो फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय आतंकवाद की समस्या का कैसे मुकाबला करेगा? याद रहे कि जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर, दुर्दांत आतंकी हाफिज सईद को प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में डालने के संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों पर हमारा ही पड़ौसी देश चीन निषेध शक्ति (वीटो पावर) प्रयोग कर चुका है। वही चीन जिसके पाकिस्तान के साथ आर्थिक हित जुड़े हैं और वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में इतना खो हो चुका है कि आतंकियों तक को पराश्रय देने में नहीं झिझक रहा। ऐसे में भारत के प्रश्न बिलकुल उचित हैं कि अगर हम अपने शत्रु को परिभाषित ही नहीं कर सकते तो फिर मिलकर कैसे लड़ सकते हैं? अगर हम अच्छे आतंकवादियों और बुरे आतंकवादियों में अंतर करना जारी रखते हैं तो आपस में एकजुट कैसे हो सकते हैं? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने पर सहमति नहीं बना पाती है तो फिर आतंकवाद के प्रति हमारी थोथी चिंता का अर्थ ही क्या है?
भारत 70 वें दशक से पाक प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है। पहले उसने पंजाब में स्थानीय असंतोष का लाभ उठा कर आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया और यहां से परास्त होने के बाद कश्मीर में दखल देना शुरु कर दिया। 1990 के बाद तो देश में रह-रह कर आतंकी हमले होते रहे जिनमें अभी तक हजारों निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और अरबों रुपयों की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। देश के जो संसाधन विकास पर लगने थे वे आतंकवाद से लडऩे में व्यय हुए। इस बीच मुंबई बम विस्फोट, ताज होटल पर हुआ आतंकी हमला और संसद पर हुए हमलों ने तो देश को हिला कर रख दिया।
आतंकवाद को देखने का यह दोहरा दृष्टिकोण ही है कि पूरी दुनिया अमेरिका में हुए 9/11 के हमले से पहले मानवता के समक्ष पैदा हुई नई वैश्विक चुनौती आतंकवाद को स्थानीय देशों की कानून व्यवस्था की समस्या ही मानती रही। और तो और हमारे यहां आतंकवाद फैलाने वालों को इसके अभिभावकदेश स्वतंत्रता सेनानी भी बताते रहे हैं। तभी तो पाकिस्तान सहित बहुत से पश्चिमी देशों में आज भी खालिस्तानी व जिहादी आतंकी संगठन अपनी गतिविधियों का संचालन कर रहे हैं और इस काम के लिए उन्होंने अपने कार्यालय तक खोले हुए हैं। बहुत से पश्चिमी देशों में भारत से भगौड़े हुए आतंकियों को राजनीतिक शरण मिली हुई है। कुछ बड़ी शक्तियों पर तो अपने हथियार बेचने व शीत युद्ध में एक दूसरे को परास्त करने के लिए आतंकवाद को प्रोत्साहन देने तक के आरोप लगे। इसके बीच भारत की आवाज को अनसुना किया जाता रहा। भारत ने 1996 में भी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक संधि (सीसीआईटी) का प्रस्ताव दिया था लेकिन दो दशक बाद भी संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद की परिभाषा पर सहमत नहीं हो सका है। आतंकवाद पर यह दुनिया की दुविधा नहीं तो और क्या है?
वर्तमान समय में दुनिया का कोई देश इसकी आग से अछूता नहीं, यहां तक कि इसका जनक पाकिस्तान भी कई बार खुद अपनी लगाई आग में झुलसता रहा है। दुनिया हर आतंकी घटना के बाद निंदा व खण्डन-मंडन तो करती है, इसके खिलाफ आपस में मिल कर लडऩे के संकल्प भी जताए जाते हैं परंतु इसके बावजूद भी आतंकवाद अभी तक परिभाषित नहीं हो पाया। जब हम मानवता के लिए पैदा हुए नए दुश्मन को परिभाषित ही नहीं कर पाए, उसको पहचान ही नहीं पाए तो उसके खिलाफ मिल कर लड़ेंगे कैसे? इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि हम दोगलापन छोड़ें, दुनिया में 'गुड जेरोरिज्म-बैड टेरोरिज्म' कुछ नहीं। आतंकवाद केवल आतंकवाद है और उसके पर शून्य सहनशीलता (जीरो टोलरेंस) की नीति अपना कर निपटा जा सकता है।
अमेरिका सहित लगभग पूरी दुनिया के देशों की पाकिस्तान के प्रति नीति भी समझ से बाहर है। श्रीमती स्वराज के शब्दों में 'टेरेरिस्तान' कहे जाने वाले देश के नागरिक दुनिया के किसी भी हिस्से में होने वाली आतंकी गतिविधि में संलिप्त पाए जाते हैं। भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान व बंगलादेश प्रत्यक्ष रूप से पाक पोषित आतंकवाद का सामना कर रहे हैं परंतु इसके बावजूद पाकिस्तान को लाइन पर नहीं लाया जा रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को धमकाने व पीठ थपथपाने के काम एक साथ करता आया है। पाकिस्तान को सैनिक साजो सामान व आर्थिक मदद सबसे अधिक अमेरिका से मिलती है और यह सभी जानते हैं कि वहां की सेना और गुप्तचर संस्था आईएसआई के माध्यम से इसका प्रत्यक्ष लाभ आतंकी संगठनों को मिलता है, इसके बाद भी बिना किसी सावधानी के पाक का वित्त व सामरिक रूप से लालन पालन किया जा रहा है। ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के नाम आतंकियों की सूची में डाले जाने का बावजूद चीन तो पाकिस्तान को आतंकवाद पीडि़त राष्ट्र ही बताता आरहा है।
आतंकवाद पर इन दोहरे मापदंडों को देख कर मुंबई के वे गुंडे याद आते हैं जिनको उनकी जाति या धर्म के कारण अपने समाज से समर्थन मिल जाता है। दुनिया को समझना चाहिए कि आतंकवाद वह भस्मासुर है जो सामने वाले के साथ-साथ जन्मदाता को भी जला डालता है और उसकी आग से वे भी नहीं बचते जो इसे केवल कुछेक लोगों की समस्या मानते हैं। आज का भस्मासुर वैश्विक आतंकवाद है जिसका पूरी मानवता को एकजुट हो कर सामना करना होगा।
यह हमारी संस्कृति रही है कि हमने केवल अपनी ही नहीं बल्कि समूचे ब्रह्मंड के मंगल की कामना की है परंतु जिस तरीके से पृथ्वी के संसाधनों की लूट से प्रकृति रौद्र रूप धारण करती जा रही है और विश्व के दोमुंहेपन से आतंकवाद फैल रहा है उसके प्रति भारतीय चिंता को विश्व के सामने बड़ी सफलतापूर्वक पेश किया है विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324
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