पहले इस देश ने अभिमन्यू की मौत पर असभ्य कौरवों का नृत्य देखा और अब मानवीय मौतों पर शर्मनाक 'वोटपुरी कथक' देखने को विवश है। भारत दुनिया का इकलौता देश बनता जा रहा है जहां मानवीय त्रासदियों व आतंकवाद सरीखी गंभीर घटनाओं पर भी 'राजनीतिक नकलिए' मीडिया की थाप पर ताताथईया करते दिखाई देते हैं। शुक्रवार को मुंबई में परेल और एलफिंस्टन रोड स्टेशनों को जोडऩे वाले ओवरब्रिज पर सबसे व्यस्त समय में बारिश के चलते लोग रुक गए थे। वहां एक साथ चार ट्रेनें आर्इं और उनसे निकले लोग पुल के सहारे इधर से उधर जाने की कोशिश करने लगे। इस बीच किसी अफवाह ने भगदड़ की शक्ल ले ली और करीब दो दर्जन लोगों की जान चली गई। इस घटना से सबक सीखने, भूल सुधार करने, इनसे बचने की बजाय हमारे राजनीतिक दल रुझे हुए हैं आरोप-प्रत्यारोपों के भोंडे प्रदर्शन में।
देखा जाए तो केवल यही एकमात्र घटना नहीं, अतीत में भी ऐसा होता रहा है और तो और खूनी आतंकवाद की घटनाएं भी हमारे राजनीतिज्ञों को फागोत्सव का आनंद प्रदान करती रही हैं। अभी मुंबई में पददलित होकर मरे लोगों की लाशों को घरों तक भी नहीं पहुंचाया गया था कि हमारे नेताओं ने तमाशा शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में भाजपा के हाथों नंबर एक से पटखनी खा कर पिछले दो वर्षों से तिलमिला रही शिवसेना ने इसके लिए केंद्र सरकार को लताड़ लगाई और लोगों को बताने में देर नहीं की कि उनके दो सांसदों ने कुछ समय पहले ही रेल मंत्री को पत्र लिख कर यहां नए पुल का निर्माण करने को कहा था। कांग्रेस पार्टी इस रेल पुल को 106 साल पुराना बताते हुए यह भूल गई कि तीन साल पहले जब उसने केंद्र की सत्ता छोड़ी थी तो उस समय यह पुल 103 साल पुराना रहा होगा और तब उनके रेल मंत्री ने इसकी सार क्यों नहीं ली। राष्ट्रवादी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने रेल मंत्री पियूष गोयल को उस अस्पताल में जाने से रोका जहां घायलों का इलाज चल रहा था। इसी तरह सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भी अपनी गलती से सीखने की बजाय पूर्ववर्ती सरकारों को कोसती नजर आई। माना कि विरोधी दल होने के नाते सरकार की खामियों से पर्दा उठाना और अपनी सरकार का बचाव करना इन दलों का काम है परंतु तस्वीर का शर्मनाक पहलू यह रहा कि किसी भी पक्ष ने समस्या की तह तक जाना और इसका समाधान पेश नहीं किया।
इस घटना में 22 लोगों की मौत अव्यवस्था की अनदेखी का एक और प्रमाण ही है। एलफिंस्टन ब्रिज नाम से चर्चित इस फुटओवर ब्रिज से आने-जाने वाले लोगों की संख्या प्रति मिनट दो सौ से अधिक होती थी। चूंकि अंग्रेजों के जमाने में बना यह पुल संकरा भी था इसलिए सुबह-शाम आपाधापी की स्थिति रहती थी। हादसा केवल इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि बारिश के कारण तमाम लोग पुल पर ही रुक गए थे, बल्कि इसलिए भी हुआ कि भगदड़ से बचने के लिए किसी तरह के सुरक्षा प्रबंध और यहां तक कि कोई पुलिसकर्मी भी नहीं था। शायद यही कारण है कि यह कहा जा रहा है कि यह तो होना ही था।
निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो एलफिंस्टन ब्रिज का हादसा महज एक दुर्घटना नहीं, बल्कि चरमराते शहरी ढांचे की घातक उपेक्षा की शर्मनाक उदाहरण भी है। हमारे महानगर एक ओर आबादी के बोझ से दबे जा रहे हैं और दूसरी ओर उनका ढांचा अपर्याप्त भी साबित हो रहा है, लेकिन उसे सुधारने-संवारने के लिए कोई ठोस काम नहीं हो रहा है। अतिक्रमण, जाम, गंदगी, प्रदूषण के साथ सार्वजनिक स्थलों में अराजकता की हद तक व्यवस्था के बीच भागम-भाग बड़े शहरों की पहचान बनती जा रही है। मुंबई की लोकल ट्रेनों, महानगरों के रेलवे स्टेशनों, हमारे बाजारों में जिस तरीके से मानवीय भीड़ व यातायात बढ़ रहा है उससे हमारा मूलभूत ढांचा चरमराने लगा है। केवल रेलवे को ही क्यों लें, सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाएं व उनसे होने वाली मौतें क्या कम हैं? इन परिस्थितियों में क्या हम नागरिक के रूप में अपने दायित्वों का सही तरीके से पालन करते हैं? यातायात सहित हर तरह के नियमों को तोडऩा हम स्टेटस सिंबल बना चुके हैं और इन सबको रोकने वाली प्रशासनिक प्रणाली राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार की शिकार है। अब हर उस जगह ऐसा होने लगा है जहां भारी भीड़ होती है। हालात इसलिए और बिगड़ रहे हैं, क्योंकि भगदड़ के कारण होने वाले हादसों के बेलगाम सिलसिले के बाद भी भीड़ प्रबंधन के तौर-तरीके अमल में नहीं लाए जा रहे हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी दुर्घटना के लिए केवल एक पक्ष जिम्मेवार नहीं होता। उसके प्रत्यक्ष कारणों में एक आध तत्व दिखाई दे सकते हैं परंतु पृष्ठभूमि में वह सभी कारण विद्यमान रहते हैं जो उसके लिए उत्तरदायी होते हैं। उदाहरण के लिए मुंबई की उक्त घटना के प्रत्यक्ष कारणों में रेलवे प्रशासन की लापरवाही जिम्मेवार है। अगर समय रहते रेलवे के पुल को वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप बनाया होता तो यह हादसा नहीं होता। अगर रेलवे पुल पर पुलिस कर्मचारी भीड़ का संचालन करता तो शायद हादसे की आशंका कम हो जाती परंतु अप्रत्यक्ष कारणों में वह लोग भी तो जिम्मेवार हैं जो केवल बरसात से बचने के लिए पुल के आसपास इस तरह एकत्रित हो गए कि पुल से चढऩे उतरने वालों का मार्ग अवरुद्ध हो गया। अकसर देखा जाता है कि रेल यात्री इस तरह के पुलों व इनकी सीढिय़ों पर अपना सामान रख कर बैठ जाते हैं। हटने को कहने पर झगड़ा करते हैं। रेल के डिब्बों में सामान रास्ते में रख कर अव्यवस्था फैलाते हैं। आवश्यकता व अनुमति से अधिक सामान लेकर सफर करते हैं। आखिर हम नागरिक के रूप में अपना दायित्व कब समझेंगे।
देश को खुशी होती अगर 6 दशक से भी अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी कल की घटना पर अपने प्रशासनिक सुझाव देती, अपने रेल मंत्रियों को सामने लाती जो बताते कि अतीत में वे किस तरह इस तरह की परिस्थितियों से निपटते रहे। लोकतंत्र के लिए गौरव का पल होता जब सत्ताधारी भाजपा अपनी गलती का एहसास करती और सरकार रेलवे के ढांचागत सुधार की कोई योजना पेश करती या अगर इस तरह की योजना पर काम कर रही है तो उसकी जानकारी जनता को देती। शिव सेना के दो सांसद जो अपने पत्रों का जिक्र कर रहे थे वे जनता को बताते कि उन्हें विभिन्न विषयों पर अब तक लोगों से जितने पत्र या सुझाव मिले हैं उन पर उन्होंने कितनी तत्परता दिखाई। किसी भी तरह की दुर्घटना दुखद है परंतु यह हमें अवसर भी प्रदान करती हैं कि हम अपनी व्यवस्था में सुधार कैसे करें। किसी भी तरह की त्रासदी शोक मनाने व सीखने का मौका तो है परंतु आरोप-प्रत्यारोपों से राजनीतिक उत्सव मनाने का तो कतई नहीं।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324
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