Friday, 6 October 2017

शल्य और विदुर का अंतर भुलाते बुद्धिजीवी

वर्तमान युग हल्कापन गुण प्रधान बनता जा रहा है। अध्यापकों को सिखाया जाता है पाठ्यक्रम को हल्का रखो जोविद्यार्थियों को समझ आसके। पत्रकारों को संपादक बताते हैं कि भाषा के साथ-साथ विषयों का वजन कम करो ताकि आम पाठक को बात समझ आसके। हल्केपन के तराजू में बौद्धिकता के बाट घटाते घटाते हमारी समझ अब मनों और पंसेरियों के बाद किलोग्रामों या ग्रामों में भी तोलने लायक हो चुकी है। इसका ताजा उदाहरण है पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का ताजा प्रकरण। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा द्वारा केंद्र सरकार की आर्थिक आलोचना को 'शल्यवाद' कहा वैसे ही हमारे राजनेताओं व बुद्धिजीवियों ने महाभारत के पात्र महाराजा शल्य को लेकर अपने अल्पज्ञान का प्रदर्शन शुरू कर दिया। शल्य को विदुर और शल्य नीति को विदुरनीति के समकक्ष तोलने की होड़ मच गई। इस विषय पर विभ्रमित बुद्धिजीवियों की बातें सुन कर मन करता है अपने या सामने वाले के बाल नोच लूं। 

पहले जान पहचान करते हैं नकुल-सहदेव के मामा शल्य से। शल्य, माद्रा (मद्रदेश) के राजा को दुर्योधन ने छल द्वारा अपनी ओर से युद्ध करने के लिए राजी कर लिया। उन्होने कर्ण का सारथी बनना स्वीकार किया और कर्ण की मृत्यु के पश्चात युद्ध के अंतिम दिन कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन युधिष्ठिर के हाथों मारे गए। वे कर्ण के सारथी तो बन गये किन्तु उन्होने युधिष्ठिर को यह भी वचन दे दिया कि वे कर्ण को सदा हतोत्साहित करते रहेंगे। अपने ही पक्ष को हतोत्साहित करने की नीति को शल्यवाद कहते हैं। शल्य चाहे सत्य वचन कहते, परंतु उनका नीतिगत लक्ष्य था इस सत्य से अपने ही रथी कर्ण को हतोत्साहित करना। मोदी ने सिन्हा की नीति को शल्यवाद बता कर कोई गलती नहीं की।

महाभारत में इसी तरह के दूसरे पात्र हैं विदुर। जो सत्य और अप्रिय वचन बोलते हैं परंतु उनका हित रहता है धृतराष्ट्र,कौरवों और हस्तिनापुर का कल्याण। वचन करने में शल्य और विदुर एक धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं पंरतु उनका नीतिगत लक्ष्य विलग है। शल्य जिस सच्चाई से अपने पक्ष को हतोत्साहित करते हैं वहीं विदुर उचित मार्गदर्शन। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा की नीति को शल्यवाद बता कर प्रधानमंत्री ने कोई गलती नहीं की परंतु उचित तो यह होता जब श्री सिन्हा विदुरनीति का पालन करते। विदुर सत्य बोलने से कभी कतराते नहीं थे चाहे वह दुर्योधन, धृतराष्ट्र और भीष्म तक को कितना भी अप्रिय लगे। वास्तव में राजा के मंत्रियों व सहयोगियों का सच्चा धर्म भी यही है। इसके बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
अर्थ कि  मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से हित की बात न कहकर  प्रिय बोलते हैं तो उस राज्य, व्यक्ति के शरीर एवं धर्म इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है। यशवंत सिन्हा ने चाहे देश की अर्थव्यवस्था के बारे में अप्रिय बोल कर सच्चे धर्म का पालन किया परंतु उनका दृष्टिकोण शल्य वाला रहा। अगर विदुर वाला होता तो वह इन परिस्थितियों से निकलने का मार्ग भी बताते परंतु उनका सारा अर्थशास्त्र ज्ञान विरोधियों द्वारा बोली जा रही भाषा और वित्तमंत्री अरुण जेतली की निजी आलोचना तक ही सीमित रहा। इनमें तथ्य व विशेषज्ञता ढूंढने वालों को निराशा ही हाथ लगी।

शल्यवाद और विदुरनीति के भ्रम में पूरा समाज ही नहीं हमारे बुद्धिजीवी भी दिखाई दे रहे हैं। सिन्हा के शल्यवाद पर वरिष्ठ पत्रकार पंकज पचौरी ने ट्वीट कर पूछा है 'शल्य के अलावा महाभारत में दो पात्र और हैं, दुर्योधन और दुशासन। यशवंत सिन्हा उनके बारे में जानते हैं क्या?' इसी तरह वरिष्ठ स्तंभकार वेद प्रकाश वैदिक ने 'कई शल्य चाहिए मोदी को सफलता के लिए' शीर्षक से 'दैनिक भास्कर' में पूरा लेख लिख मारा है। पचौरी साहिब नहीं जानते कि मोदी ने यशवंत सिन्हा को शल्य नहीं कहा बल्कि उनकी नीतियों को शल्यवाद कहा है। बारीकी से सोचें तो इन दोनों बातों में जमीन आसमान का अंतर है। लगता है कि भ्रमित मानसिकता के चलते या फिर मोदी विरोध के चलते वह आज भाजपा नीत केंद्र सरकार को कौरव सेना ठहराने का प्रयास कर रहे हैं। इसी तरह भारतीय वांगमय के प्रकांड पंडित माने जाने वाले स्तंभकार वेद प्रकाश वैदिक अगर 'आम आदमी पार्टी' के वाचाल प्रवक्ताओं या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तरह 'शल्यवाद और विदुरनीति' में अंतर नहीं कर पा रहे हैं तो यह अत्यंत गंभीर विषय है। राजनेताओं को तो माफ किया जा सकता है परंतु श्री वैदिक जैसे विद्वानों की गलती अक्षम्य है। श्री वैदिक अगर अपने लेख में लिखते कि 'कई विदुर चाहिएं मोदी को सफलता के लिए' तो उनकी बात समझ आती। अगर श्री वैदिक से यह चूक अज्ञानतावश हुई है तो भी यह पत्रकारिता के प्रति गंभीर अपराध है और अगर चूक जानबूझ कर की गई है तो यह उनको आत्मविश्लेषण का अवसर उपलब्ध करवाती है कि उन्हें भविष्य में लेखन कार्य जारी रखना चाहिए या नहीं।

शल्य व शल्यवाद कभी भी भारतीयों का आदर्श नहीं हो सकता। विदुर व विदुर नीति सदैव हमारे लिए आदरणीय रहेगी। रही बात मोदी की तो उन्होंने सिन्हा की नीति को 'शल्यवाद' बता कर इसकी उचित व्याख्या की है। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि मोदी ने सिन्हा को शल्य बताया और इस आधार पर कोई भाजपा में दुर्योधन व दुशासन तलाशना शुरू कर दे। तथ्यों की अनदेखी कर बौद्धिक बेईमानी का क्रम खत्म होना चाहिए।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

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