Monday, 9 October 2017

हिंदू जीवन पद्धति अपनाए अमेरिका


स्टीफन पैडोक, एक अच्छा खासा व्यवसायी था। संपन्नता इतनी कि अन्य संसाधनों की बात तो दूर उसके पास अपने हवाई जहाज तक थे। लेकिन उसने अमेरिका के शहर लासवेगास में एक समारोह में गोलियों की बरसात कर 58 लोगों की जान ले ली और 515 को जख्मी कर दिया और बाद में आत्महत्या कर ली। इस घटना के पीछे के असली कारण शायद ही दुनिया के सामने आपाएं परंतु आज अमेरिका बेवाच, अकल्पनीय हिंसक व स्वच्छंद यौन संबंधों से युक्त हालीवुड की फिल्मों, एकल सामाजिक जीवन के चलते जिस अपसंस्कृति का केंद्र बन चुका है उससे समाज में अवसाद, तनाव, असुरक्षा की भावना खतरनाक स्तर पहुंच गई है। इतने खतरनाक स्तर पर कि पिछले चार सालों में ही इस तरह की गोलीबारी की घटना में 2300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। देश में हर दूसरे-तीसरे दिन स्टीफन पैडोक जैसे मानसिक रोगी इन समस्याओं को और गहरा देते हैं। पूरे दुष्चक्र से बचने के लिए अमेरिका को हिंदू जीवन पद्धति को अपनाना श्रेयस्कर विकल्प हो सकता है।
अमेरिका या किसी पश्चिमी देश से लौट कर भारतीय यह बात बड़े गर्व से बताते हैं कि वहां बच्चों, बेरोजगारों व वृद्धों का दायित्व सरकारें वहन करती हैं। सामान्य बुद्धि से देखा जाए तो यह व्यवस्था अच्छी लगती है और तर्क दिया जा सकता है कि इससे सामाजिक  सुरक्षा सुनिश्चित होती है। लेकिन गहनता से विचार किया जाए तो अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों की बहुत सी समस्याओं का मूल ही यह कथित सामाजिक सुरक्षा है। इससे माँ-बाप में बच्चों के प्रति जिम्मेवारी का एहसास कम हो जाता है। बच्चे बड़े होकर यह जान कर अपने अभिभावकों के प्रति बेमुख हो जाते हैं कि उनका लालन-पालन सरकारी खर्च से हुआ है। इस भावना से होश संभालते ही किशोरों में अलगाव की भावना पनपती है और वे परिवार से अलग रहना शुरू कर देते हैं। कुछ समय बाद माता-पिता के वृद्ध होने पर उन्हें वृद्धाश्रमों में शरण लेनी पड़ती है या सरकारी खर्च पर बकाया जीवन यापन करना पड़ता है।
अमेरिका के पास साधन है सुख नहीं, नाच-गाना है पर संस्कृति नहीं,
लोगों की भीड़ है परंतु परिवार नहीं, हथियार हैं परंतु सुरक्षा नहीं।
उसको यह सारी सुविधाएं संयुक्त परिवार से ही मिल सकती है।
परिवार जो सभी आयुवर्ग के लोगों की सुरक्षा छतरी है वहां कमजोर है। बच्चे सरकारी जिम्मेवारी, युवावस्था स्वच्छंद और बुढ़ापा एकांगीग्रस्त है। तीनों अवस्थाएं अपने को असुरक्षित मानती हैं और अवसादग्रस्त हो जाती हैं। सुरक्षा के लिए तीनों पीढिय़ों को हथियारों की आवश्यकता पड़ती है और यही हथियार स्टीफन पैडोक जैसे मनोरोगियों को हत्याकांडों के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन सामाजिक जीवन में सुरक्षा की भावना हथियारों से कम और संयुक्त परिवारों से अधिक पनपती है जो हिंदू जीवन पद्धति की दुनिया को अनमोल देन है। संयुक्त परिवारों में युवा पीढ़ी अपने वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी का दायित्व उठाते हैं। उस पुरानी पीढ़ी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं जिसने बचपन में उन्हें की थी, उन्हें शिक्षित किया और इस योग्य बनाया कि वह भविष्य की सारी जिम्मेवारियां उठा सके। इसके बदले वृद्ध माता-पिता उस युवा पीढ़ी की संतानों को संस्कारित करने का अहम काम करते हैं। परिवार की परंपरा, रितीरिवाज, सामाजिक व्यवहार, अच्छे-बुुरे की पहचान यही लोग अपनी तीसरी पीढ़ी को कराते हैं। हमारी पारिवारिक परंपरा में तीनों पीढिय़ों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है। कोई एकांगीपन का शिकार नहीं और न ही कोई तनाव या अवसादग्रस्त। क्योंकि परिवार में जब कभी तनाव या झगड़ा होता है तो सभी मिल बैठ कर इसे सुलझाने का प्रयास करते हैं।
एकल परिवार में आरंभ में पति-पत्नी की अधिक खर्च करने और कम काम करने की सुविधा जरूर मिल जाती है और नये लड़के इसमें अपना लाभ देखकर प्रसन्न होते हैं पर कुछ ही दिनों में उन्हें अपनी भूल प्रतीत होने लगती हैं। पत्नी गर्भवती होती हैं, शरीर में कितने ही तरह के विकार उठ खड़े होते हैं, काम कम और आराम अधिक करने की इच्छा होती है। उस समय किसी सहायक की जरूरत पड़ती है पर एकाकी गृहस्थ में तो सब कुछ स्वयं ही करना पड़ेगा। प्रसव काल में कष्ट बहुत होता है। उस समय भी गहरी सहानुभूति वाला कुटुंबी आवश्यक लगता है। प्रसूति काल में लवण के रागी की तरह चारपाई पकड़ लेनी पड़ती है और हर घड़ी सहायता की इच्छा रहती है। बच्चा एक पूरे गृहस्थ के बराबर काम लेकर आता है। हर घड़ी निगरानी, सफाई, सेवा की जरूरत पड़ती है। अस्वस्थ होने पर वह रोता-चिल्लाता बहुत है। कई बार तो नींद हराम कर देता है। उसे सँभालते हुए घर के दूसरे भोजन बनाने आदि के काम जो समय पर पूरा होना चाहते हैं-मुश्किल पड़ते है। बच्चे बढ़ते जाते हैं, समस्या भी बढ़ती जाती है। संयुक्त कुटुंब में यह सब पता भी नहीं चलता। कोई कुछ कर जाता हैं, कोई कुछ सँभाल लेता है। हारी-बीमारी, असमर्थता, दुर्घटना, लड़ाई-झगड़ा आदि अवसरों पर संयुक्त कुटुंब का लाभ प्रतीत होता है, जब एक की विपत्ति में दूसरे सब उठ खड़े होते है और अपने-अपने ढंग से सहायता करके बोझ हलका करते हैं। विवाह-शादियों में एक बारगी बहुत खर्च करना पड़ता है। एक व्यक्ति के लिए उतनी बचत कठिन पड़ती है पर कुटुंब की मिली-जुली पूँजी और आर्थिक स्थिति में वह पहिया भी लुढ़कता रहता है। विधवा को आर्थिक संकट और विधुरों को गृह-व्यवस्था की कठिनाई नहीं पड़तीं, वे भी उसी खाँचे में समा जाते हैं और निर्वाह क्रम किसी प्रकार चलता ही रहता है। परित्यक्यें और पति विमुक्त महिलायें अपने बच्चों समेत मैके चली जाती हैं और उस परिवार का भी गुजारा उसी श्रृंखला में बँधकर होने लगता है। संयुक्त परिवार प्रणाली ही है, जिसमें अयोग्य, असमर्थ, पागल, दुर्गुणी भी खप जाते हैं। एकाकी होते तो उन्हें भीख मिलना और जीवित-रहना भी कठिन पड़ता।
संयुक्त परिवार प्रथा में सब सदस्यों का उपार्जन एक जगह एकत्रित होता है और उस सम्मिलित पूँजी से बड़े व्यवसाय आसानी से आरंभ हो जाते हैं। नौकर महंगे पड़ते हैं, ईमानदार भी नहीं होते, दिन रात जुटे भी नहीं रहते, अधिक लाभ में उतनी दिलचस्पी भी नहीं होती, इसलिए नौकरों की अपेक्षा घर के आदमी सदा अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं। भारत में संयुक्त परिवार को एक सहकारी समिति की भांति होते हैं जहां सभी सदस्य अपने दायित्वों का पालन करने में स्वेच्छापूर्वक मजबूर होते हैं। परिवारिक जीवन से लेकर सामाजिक, आर्थिक, व्यवसायिक, आर्थिक सुरक्षा परिवार में ही मिल जाती है जबकि अमेरिका का समाज इन सर्वसुलभ सुरक्षा से वंचित है। अमेरिका अगर युगों प्रमाणित इसी हिंदू जीवन पद्धति को अपनाए तो वह अपनी बहुत सी समस्याओं से पार पा सकता है। अमेरिका के पास साधन है परंतु सुख नहीं, नाच-गाना है परंतु संस्कृति नहीं, लोगों की भीड़ है परंतु परिवार नहीं, हथियार हैं परंतु सुरक्षा नहीं। उसको यह सारी सुविधाएं संयुक्त परिवार से ही मिल सकती है।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

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