दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में चुनाव सदाबाहार त्यौहार बन चुके हैं। वर्तमान में भी हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ गुजरात विधानसभा चुनावों की गहमागहमी चल रही है। गुजरात में पिछले 22 सालों सत्ता से बाहर चली आरही कांग्रेस पार्टी एक तो वापसी के लिए प्रयासरत है दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य होने के कारण इस चुनाव को अत्यंत गंभीरता से ले रही है ताकि यहां जीत दर्ज करवा कर राष्ट्रीय राजनीति में भी मोदी लहर को कम किया जा सके। एक राजनीतिक दल होने के चलते कांग्रेस इस तरह के प्रयास करती है तो इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है परंतु अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए जिस तरीके से वह राजनीतिक कुप्रथाओं को संस्थागत रूप देती दिखाई दे रही है वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम जो भी हों परंतु जिस तरीके से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी ने राजनीति में जातिवाद को संस्थागत रूप देने का प्रयत्न किया है उसके लिए यह सदैव याद किए जाते रहेंगे। कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार व वंशवाद को पहले ही सत्यापित कर संस्थागत रूप दे चुकी है और अब जातिवाद पर भी 'ओके' की मुहर चस्पा करती दिख रही है।
करीब 32 साल बाद गुजरात में चुनाव एक बार फिर जातिगत समीकरणों के आधार पर लड़े जा रहे हैं। 1985 में कांग्रेस नेता माधवसिंह सोलंकी ने क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम को साधकर 149 सीटें जीती थीं। देश की राजनीति में जाति का प्रयोग कोई नई बात नहीं है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, दक्षिण में द्रविड़ अस्मिता की राजनीति करने वाले दल जाति की ही राजनीति करते रहे हैं। कांग्रेस-भाजपा और यहां तक कि वामपंथी दल भी जाति को ध्यान में रख कर राजनीति तय करते रहे हैं। टिकटों से निर्धारण से लेकर मंत्रीमंडल के गठन और राजनीतिक जिम्मेदारियां तक बांटते समय जाति समीकरण ध्यान में रखे जाते हैं परंतु अभी तक यह पर्दे के पीछे होता रहा है।जातिवादी राजनीति सांप्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता, गरीबी हटाओ, विकास आदि लोकलुभावन नारों के मुखौटों तले होती रही है परंतु अबकी बार गुजरात में कांग्रेस पार्टी की आस केवल और केवल जातिगत आधार पर टिकी नजर आरही है। सारे मुखौटे उतर गए और सबके सामने आगया जातिवाद का नंगा चेहरा। लोकतंत्र के लिए अशुभ तो यह है कि पार्टी के नेता अपने जातिवाद को विभिन्न वर्गों का सरकार के प्रति आक्रोश बता कर जाति की राजनीति को संस्थागत रूप देते दिखाई दे रहे हैं।
बताते हैं कि गुजरात में पाटीदार समाज 83 सीट पर प्रभुत्व रखता है। पाटीदारों के अलावा ठाकोर समाज 35 तथा दलित समाज 62 सीट पर सीधा असर रखते हैं। इसके बाद ठाकोर और दलित समुदाय प्रभावशाली स्थिति में हैं। इसलिए कांग्रेस जातिवादी नेताओं पर दांव लगा रही है। चुनावी विश्लेषणों की माने तो पाटीदार समाज के नेताओं को कांग्रेस 45 सीटें देने को तैयार है। इसके अलावा दलित समुदाय की अगुवाई वाले नेताओं को भी 45 सीट मिलने की उम्मीद है। गुजरात में 16 प्रतिशत सर्वण वोट हैं। जिसमें से 20 सीटों पर ब्राह्मण मतदाता भी निर्णायक भूमिका में हैं। इनके अलावा आदिवासी समुदाय 34 तथा कोली समाज 18 सीट पर प्रभुत्व रखता है। इनको लेकर भी अंदरखाने राजनीतिक दल सामाजिक नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। कांग्रेस जातिगत आंदोलनों को समर्थन देकर इनका साथ जुटाने की कोशिश में है। ओबीसी आंदोलन के बड़े नेता अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस में शामिल भी हो चुके हैं। चाहे यह बात दीगर है कि अल्पेश साल 2008 में कांग्रेस की टिकट पर स्थानीय निकाय के चुनाव लड़ चुके हैं। पटेल आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल भले ही अभी कांग्रेस के साथ नहीं हैं, लेकिन वे अपने भाषणों में बीजेपी को सबक सिखाने की अपील करते हैं। अहमदाबाद में राहुल गांधी के साथ मुलाकात के उनके सीसीटीवी फुटेज भी चर्चा में रहे हैं। कांग्रेस की पाटीदारों को साथ लाने की कोशिश इससे भी समझी जा सकती है कि पार्टी के बड़े पाटीदार नेता और हाईकोर्ट के वकील बाबूभाई मांगूकिया ने पाटीदार आंदोलन के कई नेताओं के केस भी लड़े हैं। कुल मिलाकर यहां बिल्कुल वैसा ही जाति आधारित चुनाव हो रहा है जैसा उत्तर प्रदेश में होता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस और सपा-बसपा जैसे दलों के बीच का भेद खत्म होता दिख रहा है।
गुजरात में नरेंद्र मोदी पर पूरे समय कांग्रेस द्वारा हमले होते रहे। उन्हें मौत का सौदागर तक बताया गया, लेकिन, कोई नुस्खा कारगर नहीं हुआ। इस बीच नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन केंद्र की राजनीति में स्थापित हो गए। कांग्रेस ने सोचा कि इस बार मुकाबला प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय रुपानी से होगा, जो मोदी की बनिस्बत कद्दावर व मजबूत नहीं है। कांग्रेस ने गुजरात के विकास माडल पर व्यंग्य कर चुनावी अभियान की शुरुआत की लेकिन, उसके शुरुआती कदम ही डगमगा गए। कांग्रेस के विकास के मुद्दे की नरेन्द्र मोदी ने हवा निकाल दी। इतना ही नहीं, इस मुद्दे पर वह कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उन्होंने राज्य में सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन कर, रो-रो फेरी सेवा शुरू कर विकास के मुद्दे पर कांग्रेस को बैकफुट पर कर दिया। कांग्रेस ने 'विकास पगला गया' का जोरशोर से उठाया अपना नारा आज लगभग वापिस ले लिया और अब उसका पूरा जोर हार्दिक पटेल, अल्पेश व जिग्नेश के रूप में जातिवादी समीकरण पर लगा हुआ है। उक्त तीनों चेहरे राज्य में पाटीदार, दलित व पिछड़ा वर्गों के जातिवादी चेहरे हैं जो अपने-अपने वर्गों के आरक्षण के लिए संघर्षरत रहे हैं। कांग्रेस चाहे अभी तक बताने में असफल रही है कि वह इन तीनों विरोधाभासी वर्गों को एक साथ आरक्षण कैसे देगी परंतु इसके बावजूद केवल और केवल जातिवाद की ही विसात बिछाई जा रही है।
कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल पाटीदार, ठाकोर और दलित समुदाय के नेताओं की खुशामद में जुट गया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भारत सिंह सोलंकी ने कहा कि हार्दिक पटेल जिस सीट से चाहें, टिकट दिया जाएगा। ये नए नेता स्वयं कांग्रेस में आते तो कोई बात नहीं थी, लेकिन कांग्रेस जैसी सबसे पुरानी और सर्वाधिक समय तक शासन करने वाली पार्टी का इन नेताओं के स्वागत में बिछ जाना विचित्र ही है। गुजरात के पाटीदार आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाथ बताया जा रहा था। अब ऐसा लग रहा है कि ये आशंकाएं पूरी तरह निराधार नहीं थीं।
लोगों को स्मरण होगा कि देश अभी आजाद हुआ ही था कि जीप घोटाला और मुंदड़ा प्रकरण सामने आगए। भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के यह पहले मामले थे परंतु इन पर सख्ती दिखाने की बजाय तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह कहते हुए जाने अनजाने में ही भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देते हुए कहा कि देश का पैसा देश में ही है, बाहर तो नहीं गया। भ्रष्टाचार को इस तरह सत्यापित करने का असर देशवासियों ने देख लिया कि किस प्रकार बोफोर्स, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2-जी, कोलगेट, अगस्ता वैस्टलैंड हैलीकॉप्टर जैसे अंतहीन महाघोटाले हमारे सामने आए। नेहरू जी के दावे के विपरीत भ्रष्टाचार से कमाया पैसा देश के बाहर भी जाने लगा और विदेशी बैंक भारतीय नेताओं, उद्योगपतियों व नौकरशाहों के कालेधन से पट गए। ऊपर से नीचे तक सारी व्यवस्था इतनी कलुषित हो गई कि आज भ्रष्टाचार देश की नस-नस में बसा दिख रहा है।
कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हाल ही में अमेरिका के बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी आफ कैलेफोर्निया में भाषण देते हुए वंशवाद का औचित्य समझा कर राजनीति की इस बुराई को संस्थागत रूप देने का प्रयास किया। इसके बाद पूरा कांग्रेसी तंत्र कभी पृथ्वीराज कपूर के खानदान तो कभी अमिताभ बच्चन के परिवारों का हवाला दे कर वंशवाद को तर्कसंगत ठहराने में जुट गया। आज वैसी ही गलती गुजरात चुनावों में दोहराई जा रही है जब जातिवादी राजनीति को चुनावों का केंद्रबिंदू बनाया जा रहा है। देर सवेर देशवासियों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है।
राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
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