Saturday, 23 December 2017

साहिबजादों का बलिदान दिवस 'राष्ट्रीय बाल दिवस' घोषित हो


आज मानवता धार्मिक कट्टरता व आतंकवाद से ग्रस्त है। भारत सदियों से इन समस्याओं से जूझता आया है परंतु भारत के लालों ने शूरवीरता, धर्मरक्षा, निर्भयता ऐसे-ऐसे कारनामे कर दिखाए हैं जो पूरी दुनिया के लिए अचंभित करने वाले हैं। इन लाखों-करोड़ों वीरों की बलिदानी परंपरा में दो नाम ऐसे भी हैं जिन्होंने मात्र 5 और 7 साल की आयु में धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता, आतंकवाद के खिलाफ स्वधर्मरक्षा, मानवता की आवाज उठाई। इन सिंहशावकों के नाम हैं गुरु गोबिंदसिंह जी के छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी (7 वर्ष) एवं फतेह सिंह जी (5 वर्ष)। जिस शूरवीरता, निर्भयता व परिपक्व विचारधारा पर दृढ़ रह कर इन बाल भुजंगियों ने न केवल अत्याचारों के सम्मुख झुकने से इंकार कर दिया बल्कि अपने जवाब से सरहिंद के नवाब को ऐसा निरुत्तर कर दिया कि वह अपने ही दरबार में बगले झांकने लगा। 26 दिसंबर 1705 को इन महान आत्माओं ने भारतीय शौर्य, आत्मा की अमरता, सभी धर्मों व आस्थाओं का सम्मान करने की भारतीय परंपरा को नया आयाम दिया जो पूरी दुनिया में बेमिसाल है। भारतीय बच्चों के लिए फतेह सिंह व जोरावर सिंह से अधिक प्रेरक कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता। मेरा सुझाव है कि क्यों न 26 दिसंबर को राष्ट्रीय बाल दिवस घोषित किया जाए।

बलिदान की पूरी कहानी यूं है, कि उस समय देश में मुगलों का शासन था और पंजाब का गवर्नर था वजीर खां जो कट्टरपंथी और दूसरे धर्मों से नफरत करने वाला था। गुरु गोबिंद सिंह जी का धर्म व देश की रक्षा के लिए विदेशी शासकों से युद्ध चल रहा था। सरसा नदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी परिवार जुदा हो रहा था, तो एक ओर जहां बड़े साहिबजादे गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ न कोई सैनिक था और न ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते। अचानक रास्ते में उन्हें गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं। माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोबिंद सिंह की माता और छोटे साहिबजादों के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की। यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि यहां गंगू जैसे गद्दारों की कभी कमी नहीं रही।

खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया। रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने जोर से जयकारा लगा 'जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल'।

यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली। दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि 'हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं'। वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए कहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने 'जपुजी साहिब' का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज भी आई।

ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादों के कुछ श्वास अभी बाकी थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया। उधर दूसरी ओर साहिबदाजों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने श्वास त्याग दिए।

गुरुपुत्रों का यह बलिदान केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के इतिहास में अद्वित्तीय है। धार्मिक असहिष्णुता, अत्याचार, आतंकवाद के खिलाफ यह दिन भारतीय बच्चों के आंदोलन का शंखनाद है। गुरु साहिब के चारों साहिबजादों से बढ़ कर भारतीय समाज व विशेषकर बच्चों के लिए आदर्श कौन हो सकता है? वर्तमान में हर साल 14 नवंबर को बालदिवस मनाया जाता है जो पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन है। कहते हैं कि नेहरू जी को बच्चे चाचा के नाम से पुकारते थे और उन्हीं की याद में इस दिन को बालदिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरु जी देश के पहले प्रधानमंत्री व आधुनिक भारत के निर्माता तो हैं परंतु हमारे बच्चों के लिए आदर्श तो गुरुपुत्र ही हो सकते हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो 097797-14324

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