Thursday, 28 December 2017

तीन तलाक कानून-नारी सम्मान का मोर्चा जीते, पर रण जारी

तीन तलाक विधेयक पारित हो गया, सदियों से नारी सम्मान के लिए चल रहे संघर्ष की गौरवशाली विजय के क्षण हैं। एतिहासिक जीत है और जीत का उल्लास भी लेकिन जीते मोर्चा हैं, रण नहीं। मौका हथियार अभी संभाल कर रखने का नहीं, सान पर चढ़ाने का है, जख्मों पर क्षणिक मरहम लगाने का है। मोर्चा जीत गए पर समर जारी है। तब तक रणचंडिका को जगाए रखना होगा, समरभूमि को सजाए रखना होगा जब तक अंतिम विजय न हासिल हो। जब तक भारतीय समाज में महिला को वह सम्मानजनक स्थित हासिल न हो जाए जिसके लिए पूरी दुुनिया में वह विख्यात रहा है और महर्षि मनु ने जिसको 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' और विश्वगुरु बाबा नानक ने 'सो किउ मंदा आखीऐ जितु जमहि राजान' के शब्दों में रुपांतरित किया है।

इस सफलता के बावजूद महिलाओं के सम्मान व समानता की लड़ाई पर पूर्ण विराम नहीं लगा है। हम सभी जानते हैं कि आज मादा भ्रूण हत्या के रूप में एक ऐसी सामाजिक सुरसा राक्षसी समाज के सामने मुंह बाए खड़ी है जो जितना समाधान करो उससे बड़ा रूप धारण कर लेती है। बच्चियों को जन्म से पहले मारा जा रहा है। हजारों तरह के प्रयासों व कानून के बावजूद यह समस्या थमने का नाम नहीं लेती।  सौभाग्यशाली बच्चियां जन्म भी ले लेती हैं तो आज भी समाज के बहुत बड़े हिस्से में उसके साथ भेदभाव किया जाता है। उसे लड़कों के बराबर शिक्षा सहित वह अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाई जाती जिसकी उसे भविष्य में पुरुष से अधिक आवश्यकता पडऩे वाली है। हमारी बच्चियां, महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं। शादी के समय दहेज की समस्या उसको पुरुष के मुकाबले कमतर होने का एहसास करवाती है। शादी के बाद बेटा पैदा न हो तो सारा दोष उसी का, बेटियां ज्यादा हो जाएं तो वही कसूरवार। औलाद न हो तो वह कुलघातिनी, आखिर सभी दोष क्या महिलाओं के लिए बने हैं? अगर यह अपराध है तो कोई इनके लिए पुरुषों से जवाबतलबी क्यों नहीं करता? 

कितने दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 सालों बाद भी पर्दा प्रथा जैसी बुराई का उन्मूलन नहीं हो पाया है। घर हो या बाजार, दफ्तर हो या दुकान महिला का शोषण होता है, उसे पुरुष के मुकाबले कम मजदूरी मिलती है। हलाला और चार विवाह अभी अगले मोर्चे हैं जिनको सर करना होगा। कितनी शर्मनाक प्रथा है हलाला कि अगर कोई तलाकशुदा पत्नी दोबारा अपने पति के साथ रहना चाहे तो उसे एक रात किसी गैरमर्द के साथ बितानी पड़ती है और अगले दिन उसे तलाक देकर फिर अपने पहले पति के साथ रहने का अधिकार मिलता है। सीधा-सीधा वेश्यावृति जैसा अपराध लगती है यह कुप्रथा।

उक्त कुप्रथाएं या कह लें कि इनमें से कुछ तत्कालीक व्यवस्थाएं जो आज कालबह्य हो चुकी हैं इनको ढोते रहना समझदारी नहीं हैं। जैसे पर्दा प्रथा को ही लें, भारतीय संस्कृति में इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। हमारी संस्कृति में महिलाओं को पूर्णत: स्वतंत्रता है। मैत्रयी, गार्गी, उपला, घोषा जैसी सैंकड़ों महर्षि व विदुषियां हुई हैं जो सार्वजनिक रूप से विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करती थीं, जिनके ऋचाएं आज भी वेदों-उपनिषदों में विद्यमान हैं। स्वयंवर व्यवस्था बताती है कि युवतियों को अपना पति चुनने की पूर्णत: स्वतंत्रता थी, कोई उस पर जबरदस्ती नहीं कर सकता था। हमारे परिवार मातृ प्रधान रहे हैं और आज भी निमंत्रणपत्रों में पुरुषों से पहले महिला को संबोधित करते हुए नाम लिखा जाता है। पांडवों को माता कुंती व माद्री के नाम से भी जाना जाता है। महिला को बेटी, बहन, माँ तीनों रूपों में लक्ष्मी के रूप में देखा जाता है।

लेकिन सवाल यह भी पैदा होता है कि इतना सबकुछ होते हुए महिला की आज दुर्दशा क्यों, इतनी लैंगिक असमानता क्यों? तो इनके जवाब जानने के लिए हमें इतिहास के पृष्ठों को खंगालना होगा। पर्दा प्रथा की सामाजिक बुराई हमारे समाज में विदेशियों की देन है। अरब, अफगान, तुर्क, मुगल आदि हमलावर हमारे देश में आए जो सांस्कृतिक रूप से हमसे भिन्न थे। उनके समाज में आज भी बुर्के के रूप में पर्दा प्रथा की बुराई गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। कई इस्लामिक देशों में तो इसके लिए महिलाओं को कोड़े तक पडऩे के समाचार हम अकसर सुनते हैं। इन आदिम जातियों की संगत का बुरा असर हमारे समाज पर भी पडऩा आवश्यक था और पड़ा भी। दूसरी ओर कहा जाता है कि विदेशी शासक हमारी बहन-बेटियों की तरफ बुरी नजरों से देखते थे। उस समय हमारी स्थिति ऐसी नहीं रही होगी कि हम इसका कड़ा प्रतिकार कर सकें और हमारे पूर्वजों ने महिलाओं को इसी बुरी नजरों से बचाने के लिए पर्दे का सहारा लिया होगा। कारण कुछ भी हो हमारे भारतीय समाज में आज भी पर्दा प्रथा एक शूल की भांति गड़ी हुई है जिसे हमें उखाड़ फेंकना होगा। हमें समझना होगा कि देश में विदेशी शासकों का दौर समाप्त हो चुका तो उस समय अपनी सुरक्षा के लिए अपनाए गए तत्कालीक उपायों को हम आज क्यों ढोएं?

हमें अपनी पीढ़ी को नारी समानता व सम्मान का पाठ पढ़ाना होगा, उन्हें बताना होगा कि किस तरह हमारी संस्कृति में महिला को सम्मानजनक स्थान दिया गया है। स्वामी विवेकानंद जी कहते थे कि किसी समाज को सभ्य होने के स्तर को नापने का एक यही तरीका है कि उसकी महिलाओं की स्थिति को देख लेना चाहिएं। जिस समाज में महिला अधिक सुरक्षित, सम्मानित, स्वतंत्र, शिक्षित होगी वह समाज उतना ही सभ्य कहाएगा और उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ेगा। माना कि रास्ता अभी बहुत लंबा है, बहुत दूर जाना है परंतु तीन तलाक को प्रतिबंधित करती कानून बनने की खबर यह संकेत अवश्य देती है कि हम सही मार्ग पर चल रहे हैं। जब तक मंजिल नहीं मिलती सफर और अंतिम विजय तक संघर्ष जारी रहे।
- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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