Tuesday, 30 January 2018

दुश्मनी के नखलिस्तान

खेलों को यूं ही नहीं दिलों को जोडऩे वाला कहा गया। अतीत में बहुत से ऐसे अवसर आए हैं जहां खेलों ने दो देशों के बीच के कूटनीतिक रिश्तों को सुखद बनाया है।
नखलिस्तान, जानलेवा मारुथल के बीच वे स्थान कहलाते हैं जो अपने आसपास की कठोर प्रकृति के विपरीत जीवन दायिनी हरियाली लिए रहते हैं। यह वह स्थान है जहां रक्तपिपासु रेगिस्तान की यात्रा से विचलित यात्रियों को पीने का पानी मिलता है। भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी के नखलिस्तान भी कभी कभार देखने को मिल जाते हैं। जो एहसास करवाते हैं कि अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ, जीवन शेष है। नफरत के सूरज ने चाहे लाख लपटें उगली हों, चाहे कत्लोगारत की हजारों आंधियां झूली हों परंतु एकता के कमल अभी भी पूरी तरह कुम्हलाए नहीं। बात करते हैं भारत-पाकिस्तान के बीच हुए अंडर-19 क्रिकेट मैच की जब एक पाकिस्तानी खिलाड़ी  ने हमारे होनहार क्रिकेटर शुभमन के पैरों में झुक कर खुले हुए बूट के फीते बांधे। घटना चाहे छोटी है, पर संदेश बड़ा है। किसी और देश के खिलाड़ी ने ऐसा किया होता तो शायद किसी का ध्यान भी नहीं जाता परंतु उस पाकिस्तानी खिलाड़ी ने विनम्रता दिखाई है जिसके खिलाड़ी अहंकार व अनुशासनहीनता के कारण अधिक जाने जाते हैं। इससे भी आगे जाते हुए इस खिलाड़ी ने भारत जैसे उस चिरप्रतिद्वंद्वी देश के खिलाड़ी के प्रति विनम्रता दिखाई है जिसको लेकर अक्सर पाक खिलाड़ी दोगुने आक्रामक हो जाते हैं। युवा पाकिस्तानी खिलाड़ी ने न केवल श्रेष्ठ खेल भावना का प्रदर्शन किया बल्कि  करोड़ों लोगों का दिल जीतने में भी सफलता हासिल की है।

भारत की अंडर-19 क्रिकेट टीम ने भले ही पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को सेमीफाइनल मुकाबले में हरा दिया हो, लेकिन मंगलवार को मैच के दौरान कुछ ऐसा हुआ जिसकी वजह से एक पाकिस्तानी क्रिकेटर ने हर भारतीयों का दिल जीत लिया। दरअसल, मैच के दौरान भारत की ओर से जिताऊ पारी खेलने वाले बल्लेबाज शुभमान गिल के जूते का फीता खुल गया था, जिसे एक पाकिस्तानी क्रिकेटर ने बांधा। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में भले ही कड़वाहट हो, लेकिन सेमीफाइनल मैच के दौरान हुए इस घटना ने दोनों देशों के रिश्तों में मिठास पैदा करने वाला काम किया। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए अंडर-19 क्रिकेट के सेमीफाइनल मुकाबले में भारत ने 203 रनों से शानदार जीत हासिल की। टीम इंडिया की ओर से मैच जिताऊ पारी खेलते हुए शुभमान गिल ने नाबाद 102 रन बनाए।

दुश्मनी की दिवार बालू की बनी होती है जो मित्रता की एक चोट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। निसंदेह पाकिस्तानी खिलाड़ी ने इस कमजोर दिवार पर अपने छोटे से प्रयास से दमदार प्रहार किया है।

वैसे खेलों को यूं ही नहीं दिलों को जोडऩे वाला कहा गया। अतीत में बहुत से ऐसे अवसर आए हैं जहां खेलों ने दो देशों के बीच के कूटनीतिक रिश्तों को सुखद बनाया है। भारत और पाकिस्तान के बीच वर्तमान में कूटनीतिक रिश्ते अवरुद्ध हैं और आरोप प्रत्यारोपों की लड़ाई जोरों पर है। ऐसे समय में पाकिस्तानी खिलाड़ी ने एक तरह से दोनों देशों के बीच की कटुता को काफी कम करने का काम किया है। वैसे कहा जाता है कि दुश्मनी की दिवार बालू की बनी होती है जो मित्रता की एक चोट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। निसंदेह पाकिस्तानी खिलाड़ी ने इस कमजोर दिवार पर अपने छोटे से प्रयास से दमदार प्रहार किया है। हम इस दिवार के गिरने की कामना करते हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Monday, 29 January 2018

बेगमपुरा और परम्वैभव, दो शब्द एक अर्थ




पिछली सदी के क्रांतिकारी विचारक आचार्य रजनीश ओशो ने ऋषि-मुनियों, गुरुओं व महापुरुषों से सुसज्जित भारतीय तारामंडल में  संत रविदास जी को ध्रुव तारा बताया। धु्रव तारा यानि स्थिरप्रज्ञता, मार्गदर्शन और भक्ति का संगम। गुरु रविदास जी जिस समय पैदा हुए देश में विदेशियों का शासन था, राजनीतिक व आध्यात्मिक अस्थिरता चारों ओर व्याप्त थी। पीडि़त समाज में भक्ति का स्थान तरह-तरह के कर्मकांडों ने ले लिया। ऐसे में समाज के लिए ध्रुवतारा बन कर आए रविदास जी। अपनी शिक्षाओं में गुरुजी ने जहां पराधीनता को पाप बताया वहीं ऐसे राज्य बेगमपुरा की कल्पना की जो अन्न-धन, समरसता से संपन्न हो। किसी को अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश न होना पड़े। अपने महापुरुषों की इसी भावना को मूर्तरूप प्रदान करने को पिछली सदी में एक आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसे आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से जाना जाता है। संघ के संस्थापकों ने अपने सम्मुख इन्हीं लक्ष्यों पूर्ण स्वराज्य और परम्वैभ प्राप्ति का लक्ष्य रखा। कहने का भाव कि बेगमपुरा और परम्वैभव शाब्दिक रूप से भिन्न दिखते हों परंतु इनका अर्थ एक ही है। गुरु रविदास जी व इन जैसे अनेकों महारुपुषों के आदर्शों की पूर्ति के लिए ही निरंतर साधनारत है संघ।

गुरु रविदास जी से पूर्व उनके गुरु रामानंद जी के बारे जानना जरूरी है। 14वीं सदी में देश विदेशी आक्रांताओं से पददलित था। ऐसे समय में एक ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ स्वामी रामानंद जी का जिन्होंने समाज में समरसता को स्थापित करने के लिए राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया। उन्होंने अपने यहां निगुर्ण व सगुण दोनों भक्ति की धाराओं को स्थान दिया। उन्होंने संत रविदास के साथ-साथ अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सैन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इनमें कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की। स्वामी रामानंद ने गुरुमंत्र दिया 'जात-पात पूछे ना कोई-हरि को भजै सो हरी का होई।' उन्होंने 'सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मता:' का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के मार्ग में समान स्थान दिया। यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही यौगिक शक्ति से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया। तुगलक ने हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य स्वामी रामानंदाचार्च ने ही प्रारंभ किया। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था।

रामानंद जी इस बात से चिंतित थे कि हिंदू समाज का एक वर्ग को वंचित है वह बड़ी तेजी से इस्लाम की ओर आकर्षित हो रहा है। इस क्रम को रोकने व स्वजनों को मुख्यधारा में बनाए रखने के उनके उद्देश्य की पूर्ति की गुरु रविदास जी ने। गुरू रविदास जी का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ। उनके पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। अत्यंत दीन-हीन दशा में रहते हुए भी वे ईश्वर भक्ति में लगे रहते और उनकी पूरे देश में फैल गई। इसी से प्रभावित हो कर मेवाड़ की रानी मीरा उनकी शिष्या बनी। गुरु रविदास जी देश की पराधीन से बहुत दुखी थे और अपने शिष्यों को संदेश देते थे कि -

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत।।

रैदास जी विनम्र भाव से कहते है की हे मित्र, इस संसार में किसी की गुलामी स्वीकारना, उसके अधीन रहना सबसे बड़ा पाप है इसलिए मनुष्य को कभी गुलाम बन कर नहीं रहना चाहिए तथा जो गुलाम होते है उनसे कोई प्रेम भी नही करता। एक खुशहाल समाज की कल्पना करते हुए वे कहते थे कि - 

ऐसा चाहू राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।।

रैदास जी ऐसे समाज में ऐसी शासन व्यवस्था चाहते है जहाँ सबको भोजन मिले, कोई भी भूखा न सोये और जहाँ छोटे-बड़े की कोई भावना न रहे। सभी मनुष्य समान हो और प्रसन्न रहे इसी में रैदास भी प्रसन्न है। देश के समस्त महापुरुषों के प्रति सम्मान भाव रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपनी स्थापना के समय इन दोनों लक्ष्यों पूर्ण स्वराज्य और परम्वैभव को ही अपने सम्मुख रखा। संघ के एकातमस्रोत्म में अन्य महापुरुषों की भांति गुरु रविदास जी महाराज का नाम प्रतिदिन बड़े आदर के साथ लिया जाता है। संघ की प्रार्थना  में प्रतिदिन ईश्वर से मांगा जाता है कि - 

परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं। 
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥ 

अर्थात ईश्वर की कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संगठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हों। गुरु रविदास जी महाराज की जयंती पर आओ हम अपने देश, समाज को आगे ले जाते हुए एक सज्जन शक्ति का विकास कर मानवता का भला करने का संकल्प लें।
राकेश सैन
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Friday, 26 January 2018

चीनी दादागिरी और भारत की सुरक्षा छतरी

अबकी बार लीक से हट कर गणतंत्र दिवस पर दस देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाना वह भी सभी दक्षिण एशियाई देश और सभी राष्ट्राध्यक्षों का आना क्या इसका इशारा नहीं है कि चीन की दादागिरी के खिलाफ भारत एशिया में सुरक्षा छतरी बन कर उभर रहा है? यूं तो चीन के व्यवहार से अमेरिका सहित दुनिया के बहुत से लोग किसी न किसी रूप में पीडि़त हैं, पंरतु खुद चीन के एक एशियाई महाशक्ति होने के चलते इस महाद्वीप व विशेषकर उसके पड़ौसी देश अधिक परेशान हैं। इनमें अभी तक भारत भी शामिल रहा है। जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे लगता है कि इन पीडि़त देशों को एक सुरक्षा छतरी की आवश्यकता है जिसकी आपूर्ति भारत अपनी बदली हुई छवि व नीति से करने के प्रयास में है।
हरियाणवी कहावत है कि सिर पर छत्र को बनाए रखने के लिए पैर के छित्तर को मजबूत करना पड़ता है। डोकलाम विवाद के बाद दुनिया को लगने लगा है कि भारत के पैर का छित्तर अब मजबूत है। भारत ने इस मोर्चे पर जिस तरीके से शौर्य, संयम और कूटनयन गुणों का प्रदर्शन किया उससे हिमालय पर तुफान की तरह चढ़ कर आए चीन को आंधी बन कर वापिस लौटना पड़ा। चीन की वापसी ने उसकी भारत पर 1962 की चली आरही मनोवैज्ञानिक हैंकड़बाजी को भी लगभग समाप्त कर दिया। दुनिया में भी इसका सकारात्मक संदेश गया और चीन पीडि़तों को लगने लगा कि भारत उन्हें सुरक्षा छतरी उपलब्ध करवा सकता है। नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसियान देशों के साथ जो द्विपक्षीय वार्ताएं कीं उनमें यों तो ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, आपदा-राहत जैसे मुद्दे उठे, पर जो मुद््दा सबसे ज्यादा छाया रहा वह था समुद्री सुरक्षा सहयोग का। चाहे किसी ने भी चीन का नाम नहीं लिया, पर दक्षिण चीन सागर विवाद की पृष्ठभूमि में समुद्री सुरक्षा सहयोग पर जोर देने से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन देशों के भारत के नजदीक आने का असली कारण चीन की दादागिरी ही है। चीन की दक्षिण चीन सागर में दिखाई जाने वाली अकड़ से उक्त आसियान देश, भारत और जापान के अलावा आस्ट्रेलिया, अमेरिका समेत पश्चिमी देश भी अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन का मामला उठाते रहते हैं। आसियान देशों व भारत के दिल्ली घोषणापत्र में 1982 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मंजूर किए गए समुद्र संबंधी कानूनों, अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन और अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन द्वारा संस्तुत मानकों और व्यवहारों के मुताबिक मतभेदों तथा विवादों के निपटारे की वकालत की गई है। यह सभी बातें इशारा करती हैं कि एशिया के छोटे-छोटे विकसित व विकासशील देश चीन के खिलाफ भारत को एक शक्ति मानते हुए एक सुरक्षा छतरी के रूप में स्वीकार कर रहे हैं।

अब डोकलाम विवाद और इरान में बनी चाबाहार बंदरगाह से इन देशों का विश्वास एक बार फिर भारत पर बनता दिख रहा है। एशिया में चीन के पास पाकिस्तान को छोड़ कर कोई विश्वसनीय मित्र नहीं बचा। तो दूसरी ओर भारत एशिया के नेतृत्व के रूप में उभरा है। इसके पीछे बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियां व अमेरिका और भारत की बढ़ी नजदीकियां भी बहुत बड़ा कारण हैं। डोकलाम में अपनी असफलता पर चीन इतना बौखलाया हुआ है कि बार-बार फिर डोकलाम दोहराने की चेतावनी देता है और मीडिया में खबरें भी उछालता है। लेकिन इस मोर्चे पर सफलता ने भारत के कद को बढ़ाया है और चीन को मनोवैज्ञानिक पराजय मिली है।


चीन की स्थिति आज ही ऐसी नहीं, हिंसक वामपंथी विचारधारा और माओ जैसे नेताओं से दुखी एशिया के देशों के साथ-साथ विश्व के कई देशों ने भारत की स्वतंत्रता का स्वागत भी इसीलिए किया था कि भारत उन्हें सुरक्षा छतरी प्रदान करेगा। भारत दमनकारी चीन पर अंकुश रखेगा। इसके लिए भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता थाली में परोस कर दी गई परंतु हमारे अति आदर्शवादी नेतृत्व ने चीन का समर्थन कर दिया। केवल इतना ही नहीं परमाणु ऊजा आपूर्ति समूह (एनएसजी) की सदस्यता भी भारत को देने का प्रस्ताव किया गया परंतु स्वप्नलोक में विचरन कर रहे हमारे राजनेताओं ने इससे भी इंकार कर दिया। आज हम इसी दूरदर्शिता विहीन नीतियों का खमियाजा भुगतने को विवश हैं और संयुक्त राष्ट्र की स्थाई सीट के साथ-साथ एनएसजी की सदस्यता के लिए अपना समय, धन व ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। दूसरी ओर चीन के तिब्बत पर साम्राज्यवादी हमले के समय दुनिया को उम्मीद थी कि भारत इसका प्रतिरोध करेगा। इस निर्णायक घड़ी में हमने तिब्बत से निर्वासित धर्मगुरु दलाई लामा को शरण देने का पराक्रम तो अवश्य किया परंतु साथ में ही दुनिया में अध्यात्म की महाशक्ति के रूप में विख्यात तिब्बत पर चीन का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इन सभी गलतियों से उन देशों के विश्वास को आघात लगा जो भारत को चीन की दादागिरी के खिलाफ मजबूत सुरक्षा कवच के रूप में देख रहे थे। रही सही कसर 1962 के चीनी हमले ने पूरी कर दी जिसमें चीन ने न केवल हमारे जवानों के खून से होली खेली बल्कि हजारों वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर भी कब्जा कर लिया। इस पराजय से कई दशकों तक भारतीय मन भी पराजित रहा और दुनिया को भी यह संदेश गया कि भारत जब अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो उनकी क्या करेगा। तिब्बत जो भारत-चीन के बीच सुरक्षा दिवार थी वह खुद ही हमने अपने हाथों से गिरा ली।
यही उक्त कारण रहे कि हमारी वह धाक खत्म हो गई जिसकी कि दुनिया को अपेक्षा थी, लेकिन अब डोकलाम विवाद और इरान में बनी चाबाहार बंदरगाह से इन देशों का विश्वास एक बार फिर भारत पर बनता दिख रहा है। एशिया में चीन के पास पाकिस्तान को छोड़ कर कोई विश्वसनीय मित्र नहीं बचा। तो दूसरी ओर भारत एशिया के नेतृत्व के रूप में उभरा है। इसके पीछे बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियां व अमेरिका और भारत की बढ़ी नजदीकियां भी बहुत बड़ा कारण हैं। डोकलाम में अपनी असफलता पर चीन इतना बौखलाया हुआ है कि बार-बार फिर डोकलाम दोहराने की चेतावनी देता है और मीडिया में खबरें भी उछालता है। लेकिन इस मोर्चे पर सफलता ने भारत के कद को बढ़ाया है और चीन को मनोवैज्ञानिक पराजय मिली है। भविष्य में हमें न केवल सतत् जागरुक रहना होगा बल्कि हमारे प्रति दुनिया की पैदा हो रही अपेक्षाओं पर खरे उतरने के भी प्रयास करने होंगे। भारत अगर सज्जन शक्ति के रूप में स्थापित होता है तो यह पूरी मानवता के लिए शुभ होगा। हाल ही में दावोस में आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और आत्मकेंद्रीकरण जैसे जिन वैश्विक खतरों का नरेंद्र मोदी ने जिक्र किया, उनसे निपटने का मार्ग भी भारतीय चिंतन व नेतृत्व दुनिया को दिखाएगा यह विश्वास दुनिया में पैदा होगा। 
राकेश सैन
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Wednesday, 24 January 2018

आदर्श गणतंत्र की नारद व्याख्या

देश आज अपने गणतंत्र होने की 69वीं वर्षगांठ मना रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं, नीति निर्धारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों ने देश के लिए जो सपने देखे उनकी पूर्ति करने का कार्य फलीभूत हुआ था आज के दिन। देश को कल्याणकारी लोकतंत्र व्यवस्था घोषित किया गया जिसका अर्थ है वह व्यवस्था जो जनसाधारण द्वारा जनसाधारण के कल्याण के लिए चलाई जाए। स्वतंत्रता प्राप्ति के इन सात दशकों के कार्यकाल के परिणामों पर दृष्टिपात किया जाए तो कमोबेश यह व्यवस्था न्यूनाधिक सफल होती दिखाई भी दे रही है। इस अवधि में आम आदमी का जीवन स्तर ऊंचा हुआ है, सुख-सुविधा के साधन बढ़े, शिक्षा व रोजगार के अवसर बढ़े, साक्षरता दर में आशातीत सुधार हुआ, जीवन दर में सुधार हुआ, स्वास्थ्यांक सुधरा और कुल मिला कर आम देशवासियों का जीवन स्तर सुधरा है। हमारे लिए यह भी गौरव की बात है कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा चाहे दुनिया के लिए नई हो परंतु इसकी जड़ें हमारी संस्कृति में पहले से ही विद्यमान रही हैं। अतीत का अध्ययन करें तो पाएंगे कि चाहे हमारी राज्यव्यवस्था राजतांत्रिक हो परंतु उसका उद्देश्य गणतांत्रिक और जनकल्याण ही रहा है। राजा को ईश्वर का रूप बताया गया परंतु उसका धर्म प्रजापालन ही माना गया। आदर्श गणतंत्र की जो व्याख्या जो देवर्षि नारद जी करते हैं वह किसी भी आधुनिक लोकतांत्रिक व गणतंत्र व्यवस्था के लिए आदर्श बन सकती है। धर्मराज युधिष्ठिर के सिंहासनरोहण के दौरान उन्होंने पांडव श्रेष्ठ से ऐसे प्रश्न पूछे जो आज आधुनिक युग में भी कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार बने हुए हैं।

महाभारत सभा पर्व के 'लोकपाल सभाख्यान पर्व' के अंतर्गत अध्याय 5 के अनुसार राजा के उन सभी दायित्वों का वर्णन है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत राज्याध्यक्षों के वर्तमान युग में भी निर्धारित किये गये हैं। नारद जी बोले- राजन! क्या तुम्हारा धन तुम्हारे राजकार्यों व निजी कार्यों के लिए पूरा पड़ जाता है? क्या तुम प्रजा के प्रति अपने पिता-पितामहों द्वारा व्यवहार में लायी हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदार वृत्ति का व्यवहार करते हो? क्या तुमने दूसरे राज्यों से होने वाले हमलों व राज्य के अंदर समाजकंटकों (अपराधियों) से निपटने के लिए पर्याप्त सैनिक तैनात कर रखे हैं? दुश्मन राज्यों पर तुम्हारी नजर है या नहीं? तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? तुम्हारे राज्य के किसान- मजदूर आदि श्रमजीवी मनुष्य तुमसे अज्ञात तो नहीं हैं? क्योंकि महान अभ्युदय या उन्नति में उन सब का स्नेहपूर्ण सहयोग ही कारण है। क्या तुम्हारे सभी दुर्ग धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र, शिल्पी और धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं?

भरत श्रेष्ठ! कठोर दण्ड के द्वारा तुम प्रजाजनों को अत्यन्त उद्वेग में तो नहीं डाल देते? मन्त्री लोग तुम्हारे नियमों का न्यायपूर्वक पालन करते व करवाते हैं न?  तुम अपने आश्रित कुटुम्ब के लोगों, गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों, व्यापारियों, शिल्पियों तथा दीन-दुखियों को धनधान्य देकर उन पर सदा अनुग्रह करते रहते हो न? तुमने ऐसे लोगों को तो अपने कामों पर नहीं लगा रखा है जो लोभी, चोर, शत्रु अथवा व्यावहारिक अनुभव से शून्य हों? चोरों, लोभियों, राजकुमारों या राजकुल की स्त्रियों द्वारा अथवा स्वयं तुमसे ही तुम्हारे राष्ट्र को पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है? क्या तुम्हारे राज्य के किसान संतुष्ट हैं? जल से भरे हुए बड़े-बड़े तालाब बनवाये गये हैं? केवल वर्षा के पानी के भरोसे ही तो खेती नहीं होती है? किसान का अन्न या बीज तो नष्ट नहीं होता? तुम किसान पर अनुग्रह करके उसे एक रूपया सैकड़े ब्याज पर ऋण देते हो? राजन! क्या तुम्हारे जनपद के प्रत्येक गाँव में शूरवीर, बुद्धिमान और कार्य कुशल पाँच-पाँच पंच मिल कर सुचारू रूप से जनहित के कार्य करते हुए सबका कल्याण करते हैं? क्या नगरों की रक्षा के लिये गाँवों को भी नगर के ही समान बुहत-से शूरवीरों द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है? सीमावर्ती गाँवों को भी अन्य गाँवों की भाँति सभी सुविधाएँ दी गई हैं? तुम स्त्रियों को सुरक्षा देकर संतुष्ट रखते हो न? तुम दण्डनीय अपराधियों के प्रति यमराज और पूजनीय पुरुषों के प्रति धर्मराज का-सा बर्ताव करते हो?

'लोकपाल सभाख्यान पर्व' में नारद जी द्वारा पूछे गए प्रश्नों में से इन कुछ प्रश्नों को पढ़ कर ही पाठक स्वत: अनुमान लगा सकते हैं कि महर्षि ने युगों पहले ही कल्याणकारी गणतांत्रिक व्यवस्था को युधिष्ठिर के राज्य के रूप में मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया और युधिष्ठिर का राज्यकाल साक्षी भी है कि वह किसी भी रूप में रामराज्य से कम नहीं था। नारद जी के इन सिद्धांतों पर आएं तो हर राष्ट्र को सर्वप्रथम तो धन, अन्न व श्रम संपन्न होना चाहिए। इसके लिए राजा को सतत् प्रयास करने चाहिएं। किसानों को ऋण, सिंचाई के लिए जल, बीज, खाद, यंत्र की व्यवस्था करनी चाहिए। व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य में चोरों, डाकुओं, ठगों का भय समाप्त करना चाहिए। प्रशासनिक अधिकारियों व राजा को अपने सगे-संबंधियों पर पैनी नजर रखनी चाहिए कि कहीं वह राजकीय शक्तियों का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए तो नहीं कर रहे। आवश्यकता पडऩे पर व्यापारियों का आर्थिक पोषण भी राज्य की जिम्मेवारी है। देश को बाहरी खतरों से सुरक्षित करने के लिए शक्तिाशाली सेना का गठन करना चाहिए, दुर्गों को मजबूत करना चाहिए, सीमावर्ती ग्रामों को सर्वसुविधा संपन्न करना चाहिए ताकि यहां रह रहे लोग सुरक्षपंक्ति के रूप में वहीं टिके रहें। देश के अंदर और बाहर गुप्तचरों का मजबूत जाल होना चाहिए। राज्य निराश्रित लोगों जैसे वृद्धों, बेसहारों, दिव्यांगों, परितक्य महिलाओं, विधवाओं के सम्मानपूर्वक जीवन की जिम्मेवारी राज्य को उठानी चाहिए। राजा को दुष्टों व अपराधियों के प्रति यमराज और सज्जनों के प्रति धर्मराज की जिम्मेवारी निभानी चाहिए। इस तरह हम पाएंगे कि गणतांत्रिक व्यवस्था चाहे 26 जनवरी, 1950 में हमारे देश में फलीभूत हुई परंतु यह अतीत में भी हमारे समाज में विद्यमान रही है। आज इस गणतंत्र दिवस पर आओ हम इसी प्रजातांत्रिक भावनाओं को और मजबूत कर इनमें नए आयाम स्थापित करने का प्रण लें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी हम पर भी उसी भांति गौरव करें जैसे हम आज अपने महान पूर्वजों पर करते हैं।

राकेश सैन
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Tuesday, 23 January 2018

दावोस में भारत की बात

दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक सहयोग संगठन में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बात रखते हुए जिस तरीके से भारतीय संस्कृति से जुड़े उद्धरणों से विश्व को परिचित करवाया उससे हिंदी फिल्म पूर्व और पश्चिम का गीत स्मृति पटल पर उभर आता है कि 'भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हू्ं'। अपने 50 मिनट से अधिक लंबे भाषण में मोदी भारत के हित में भारत की बात और भारतीय के रूप में ही करते दिखे।  मोदी ने दुनिया को बता दिया कि जहां जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आतंकवाद और दुनिया का आत्मकेंद्रित होना मानवता के लिए खतरनाक बन रहा है वहीं इन समस्याओं का हल नहीं निकाला गया तो भविष्य में मानवता बहुत बड़े संकट में फंस सकती है। अपने भाषण में मोदी भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ देश के सांस्कृतिक दूत के रूप में भी नजर आए। उन्होंने भारत के वर्तमान विकास, परिवर्तन, भविष्य के साथ-साथ गौरवशाली अतीत का भी खूब बखान किया।

फोरम में 23 जनवरी मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन भाषण दिया। अतीत के बहुत से नेताओं के विपरीत उन्होंने  हिंदी में दुनिया को संबोधित किया। प्रधानमंत्री ने वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए 4 जरूरतों पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि अगल वे वेल्थ के साथ वेलनेस चाहते हैं तो भारत आएं। मोदी ने कहा, तीन चुनौतियां मानव सभ्यता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। पहली जलवायु परिवर्तन है। मौसम के चर्मोत्कर्ष का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। होना ये चाहिए था कि हमें एकजुट होना था। लेकिन, हम ईमानदारी से पूछें कि क्या ऐसा हुआ? और अगर नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ। हजारों साल पहले हमारे शास्त्रों में मानव की पहचान बताई गई कि 'माता भूमि,पुत्रोहम् पृथ्विया' अर्थात हम सभी मानव धरती माता की संतान हैं। यदि हम उसकी संतान हैं तो आज मानव और प्रकृति के बीच ये जंग क्यों चल रही है। मोदी ने दूसरी चुनौती आतंकवाद व इसको लेकर किए जाने वाले भेद को बताया। तीसरी चुनौती में मोदी ने बहुत से समाज और देश आत्मकेंद्रित होते जाने को बताया।  उन्होंने कहा कि वैश्विकरण अपने नाम के विपरीत सिकुड़ता चला जा रहा है। इस तरह की सोच को हम कम खतरे के तौर पर नहीं आंक सकते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की दीवारें और खिड़कियां सभी तरह से बंद हों। मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवा मेरे घर में पूरी आजादी से आ-जा सकें। लेकिन, इस हवा से मेरे पैर उखड़ जाएं, ये मुझे मंजूर नहीं होगा। आज का भारत गांधी के इसी दर्शन और चिंतन को अपनाते हुए, पूरे आत्मविश्वास और निर्भीकता के साथ पूरे विश्व से जीवनदायिनी तरंगों का स्वागत कर रहा है।
 नरेंद्र मोदी ने 4 जरूरतों पर जोर दिया। उन्होंने कहा, सबसे जरूरी ये है कि विश्व की बड़ी ताकतों के बीच सहयोग बढ़े, प्रतिस्पर्धा दीवार बनकर ना खड़ी हो जाए, साझा चुनौतियाों का मुकाबला करने के लिए हमें अपने मतभेदों को दरकिनार कर लार्जर विजन के तहत साथ काम करना होगा। दूसरी आवश्यकता नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का पालन करना पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। हमारे चारों ओर होने वाले बदलाव अनिश्चिततताओं को जन्म दे सकते हैं। तब अंतरराष्ट्रीय कानून और नियमों का सही अर्थों में पालन जरूरी है। तीसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि विश्व के प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक संस्थानों में सुधार की जरूरत है। सहभागिता और लोकतंत्रिकरण को आज के माहौल के अनुरूप बढ़ावा देना चाहिए। चौथी महत्वपूर्ण बात ये है कि हमें विश्व की आर्थिक प्रगति में और तेजी लानी होगी। इस बारे में हाल के संकेत उत्साहजनक हैं। टेक्नोलॉजी और डिजिटल रिवोल्यूशन नए समाधानों की संभावना बढ़ाते हैं, जिससे गरीबी और बेरोजगारी का नए सिरे से मुकाबला कर सकते हैं।

उल्लेखनीय बात है कि प्रधानमंत्री ने केवल इन समस्याओं का जिक्र ही नहीं किया बल्कि इनके समाधान का वह मार्ग भी दुनिया को दिखाया जो हजारों सालों पहले हमारु ऋषि-मुनियों ने मानवता को दिया। उपनिषदों का जिक्र करते हुए उन्होंने 'सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विना वधीतमस्तु मा विद्विषावहै' का रास्ता दिखाया। जिसका भाव है कि हम सभी मिल कर आगे बढ़े, मिल कर नई ऊर्जा के साथ काम करें और हममें परस्पर द्वेष न हो। आज के दौर में जब आत्मकेंद्रित विश्व व समाज की बात की जा रही है तो यह घोष हमारा समुचित मार्गदर्शन कर सकता है। यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित भी है कि हर व्यक्ति व हर समाज परस्पर निर्भर करता है। दुनिया में कहीं भी कोई घटना-दुर्घटना  होती है तो उसका असर पूरी मानवता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए आज सीरिया व अरब देश जहां आतंकवाद की आग में सर्वाधिक जल रहे हैं तो इससे केवल यही देश नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। अपने भाषण में मोदी ने एक अन्य उपनिषद मंत्र का प्रयोग किया 'सर्वे भवन्तु सुखिन:। सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु  माश्चिददु:खभाग्भवेत्।'अर्थात केवल मेरा नहीं सभी का भला हो, सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों। सभी की भावना में मेरी सुरक्षा, मेरे हित भी निहित हैं। मेरा कल्याण सभी के कल्याण में है। वसुधैवकुटुंबकम अर्थात पूरी दुनिया मेरा परिवार है। इन सिद्धांतों को मानने वाला दुनिया में कभी आतंकवाद, प्राकृति संसाधनों के शोषण की बात सोच भी नहीं सकता।

दुनिया में जब वैश्विकरण अर्थात ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव कम हो रहा है तो उसके सामने विकल्प है वसुधैवकुटुंबकम का। दुनिया के सभी लोग धरती को अपनी जननी माने और उतना ही लें जितनी कि आवश्यकता है, जलवायु परिवर्तन से निपटने का इससे अधिक सार्थक कोई मार्ग फिलहाल तो दिखाई नहीं देता। जब दुनिया का हर व्यक्ति सहोदर भाई लगने लग जाएगा तो कौन आतंकी बन कर दूसरे की हत्या करेगा? दुनिया को अगर सुरक्षित रखना है, परस्पर मेलजोल बढ़ाना, मानवता को विकास करना है तो भारत का मार्ग ही श्रेयस्कर होगा।

राकेश सैन
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Monday, 22 January 2018

नेता जी की जयंती पर याद आए सहगल, ढिल्लों और शाहनवाज

आज पूरे देश में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 121वीं जयंती मनाई जा रही है। नेता जी ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पूरे भारत में जाति, पंथ, रंग, भाषा, क्षेत्रवाद की दिवारों को ढहा कर पूरे देश को एक राष्ट्र के सूत्र में पिरो दिया था। उन्होंने देशवासियों में एकता का जो मंत्र दिया और वह मंत्र कितना असरदायक था इसका उदाहरण है पंजाब के मूल के कर्नल गुबरख्श सिंह ढिल्लों, जनरल शाहनवाज खान व कर्नल प्रेम कुमार सहगल। आजाद हिंद सेना के इन सैनिक अधिकारियों  का जब कोर्ट मार्शल हुआ तो संप्रदायिक आधार पर अकाली दल ने कर्नल ढिल्लों व मुस्लिम लीग ने जनरल शाहनवाज खान का केस लडऩे का प्रस्ताव किया परंतु इन सैनिक अधिकारियों ने ठुकरा दिया। जनरल शाहनवाज हुसैन आज के फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के नाना थे।

मेजर जनरल शाह नवाज खान, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों और कर्नल प्रेम सहगल आजाद हिंद सेना के प्रखर अधिकारी थे। आजाद हिन्द फौज के प्रसिद्ध अधिकारी थे और इन्होंने अंग्रेज सेना के खूब छक्के छुड़ाए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर जनरल शाहनवाज खान, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों तथा कर्नल प्रेम सहगल के ऊपर अंग्रेज सरकार ने मुकद्दमा चलाया। खान एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय सेना में एक अधिकारी के रूप में कार्य किया था। युद्ध के बाद, उसे देशद्रोह के लिए दोषी ठहराया गया और ब्रिटिश भारतीय सेना द्वारा किए गए एक सार्वजनिक न्यायालय-मार्शल में मौत की सजा सुनाई गई। भारत में अशांति और विरोध के बाद भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ ने सजा को कम कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नाटकीय बदलाव आया। 15 अगस्त 1947 भारत को आजादी मिलने तक, भारतीय राजनैतिक मंच विविध जनान्दोलनों का गवाह रहा। इनमें से सबसे अहम् आन्दोलन, आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमे के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन थे। मेजर जनरल शहनवाज को मुस्लिम लीग और ले. कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लों को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लडऩे की पेशकश की, लेकिन इन देशभक्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई थी, उसी टीम को ही अपना मुकदमा पैरवी करने की मंजूरी दी। मजहबी भावनाओं से ऊपर उठकर सहगल, ढिल्लों, शहनवाज का यह फैसला सचमुच प्रशंसा के योग्य था। भारतीय इतिहास में यह मुकद्दमा 'लाल किला ट्रायल' का अहम् स्थान है। लाल किला ट्रायल के नाम से प्रसिद्ध आजाद हिन्द फौज के ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे इस नारे 'लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लों, शहनवााज' ने उस समय हिन्दुस्तान की आजादी के हक के लिए लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया था। वकील भूलाभाई देसाई इस मुकदमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते, तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते। पूरे देश में देशभक्ति का एक वार सा उठता। 15 नवम्बर 1945 से 31 दिसम्बर 1945 यानी, 57 हिन्दुस्तान की आजादी के संघर्ष में निर्णायक मोड़ था। यह मुकदमा कई मोर्चों पर हिन्दुस्तानी एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ। इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आजादी के लिए लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया। सहगल, ढिल्लों और शाहनवाज के अलावा आजाद हिन्द फौज के अनेक सैनिक जो जगह-जगह गिरफ्तार हुए थे और जिन पर सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गए। 3 जनवरी 1946 को आजाद हिन्द फौज के जांबाज सिपाहियों की रिहाई पर राईटर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका तथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने अपने अखबारों में मुकदमे के विषय में जमकर लिखा। इस तरह यह मुकदमा अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया। अंग्रेजी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने इन जवानों की उम्र कैद सजा माफ कर दी। हवा का रुख भांपकर वे समझ गए, कि अगर इनको सजा दी गई तो हिन्दुस्तानी फौज में बगावत हो जाएगी। इस दौरान ही भारतीय जलसेना में विद्रोह शुरू हो गया। मुम्बई, कराची, कोलकाता, विशाखापत्तनम आदि सब जगह विद्रोह की ज्वाला फैलते देर न लगी। इस विद्रोह को जनता का भी भरपूर समर्थन मिला। इन तीनों नायकों के जीवन पर आधारित एक फिल्म रागदेश भी बनी जो अधिक चल नहीं पाई।

- राकेश सैन
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Sunday, 21 January 2018

पंजाब कांग्रेस मेंं पतझड़ की शुरुआत

पंजाब की सत्ता में मात्र दस माह पहले सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी में समय से पहले ही पतझड़ के मौसम ने आहट दे दी लगती है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वोटें हासिल करने वाले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बेहद करीबी व राज्य के ऊर्जा मंत्री राणा गुरजीत सिंह को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ गया और पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक निजी प्रधान सचिव की नियुक्ति रद्द कर दी। राज्य की आर्थिक हालत भी खस्ता बनी हुई है और सरकार को परियोजनाओं से हाथ खड़े करने पड़ रहे हैं। किसानों के कर्जे माफ करने को लेकर बड़े ढोल बजाए गए थे परंतु उसको लेकर भी किसानों में असंतोष पैदा होना शुरू हो चुका है। 

पंजाब में दस महीने पुरानी कांग्रेस सरकार में एक झटका अमरिंदर को अपने विश्वासपात्र सुरेश कुमार के मुख्य प्रधान सचिव के पद से हटने से लगा। उन्हें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद पद छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा कि कैडर पद पर उनकी नियुक्ति अवैध और संविधान का उल्लंघन है। 1983 बैच के आईएएस कुमार अप्रैल 2016 में पंजाब के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। बीते साल मार्च में मुख्यमंत्री बनने के बाद अमरिंदर ने उन्हें फिर से नियुक्त किया था। कुमार 2002 से 2007 तक भी अमरिंदर के मुख्यमंत्री रहने के दौरान प्रधान सचिव रहे थे। सरकारी गलियारों में यह भी कानाफूसी हो रही है कि सरकार और कांग्रेस की एक मजबूत लॉबी ही कुमार की नियुक्ति के खिलाफ दायर की गई याचिका के पीछे है। शायद, यह लॉबी एक ईमानदार अफसर को राज्य सरकार के कामकाज के सिलसिले में एक तरह से सभी फैसले लेने से खुश नहीं थी। दूसरा झटका अमरिंदर सिंह ऊर्जा मंत्री के रूप में लगा, जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें राज्य के रसूखदार कैबिनेट मंत्री राणा गुरजीत सिंह का इस्तीफा मंजूर करने के लिए बाध्य किया। राणा बीते कुछ महीनों से पंजाब में कई करोड़ की बेनामी बालू खनन नीलामियों को लेकर विवादों में थे। मंत्री की भूमिका और उनके परिवार के व्यापारिक हितों को लेकर उनके सामने हितों के टकराव का मुद्दा खड़ा हुआ। उन्होंने इस महीने के शुरू में इस्तीफा दे दिया था लेकिन अमरिंदर उसे मंजूर करने में देरी कर रहे थे। राणा के मामले ने तब गंभीर रुख ले लिया जब प्रवर्तन निदेशालय ने राणा के बेटे इंदर प्रताप सिंह को रिजर्व बैंक से अनुमति लिए बगैर विदेश में एक अरब रुपये इक_ा करने पर समन जारी किया। राणा को अमरिंदर ने अपनी कैबिनेट में शामिल कर ऊर्जा व सिंचाई जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा था। वह हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहे। अमरिंदर उनका बचाव करते रहे लेकिन पार्टी आलाकमान के दखल के बाद उन्हें उनका इस्तीफा मानने पर बाध्य होना पड़ा।

दूसरी ओर आर्थिक व वायदा पूरा करने के मोर्चे पर भी कांग्रेस सरकार घिरती नजर आरही है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों से आग्रह किया है कि राज्य की आर्थिक स्थिति को देखते हुए वे किसानों का पूरा कर्जा माफ नहीं कर पाए, किसानों को मजबूरी समझते हुए अपना राज्यव्यापी संघर्ष वापिस ले लेना चाहिए। ये वही कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं जिन्होंने विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान राज्य में न जाने कैसे-कैसे बढ़ चढ़ कर वायदे किए थे। अब असलीयत से वास्ता पडऩे के बाद मात्र 10 महीने पुरानी सरकार हांफती दिखने लगी है। राज्य की खराब वित्तीय हालत और कर्ज के भार ने सरकार के हाथ खड़े करा दिए हैं। नई विकास परियाजनाएं शुरू करना तो दूर, पहले से चल रहे प्रोजेक्टों पर भी ब्रेक लगा दी गई है। विकास के कार्यों के लिए खजाना खाली पड़ा है। हालात इतने खराब चल रहे हैं कि हर महीने सरकारी अफसरों और मुलाजिमों की तनख्वाह के लिए जोड़-तोड़ से पैसों का जुगाड़ करना पड़ रहा है।

- राकेश सैन
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Saturday, 20 January 2018

क्या अकाली दल आरक्षण छोडऩे को तैयार है?

आजकल शिरोमणि अकाली दल बादल ने अभियान छेड़ा हुआ है। दल के अध्यक्ष स. सुखबीर सिंह बादल, राज्यसभा सदस्य स. सुखदेव सिंह ढींढसा, डा. दलजीत सिंह चीमा सहित अनेक वरिष्ठ नेता शिष्टमंडल के साथ केंद्रीय मंत्रियों से मिल चुके हैं। इनकी मांग है कि संविधान का अनुच्छेद 25-बी में संशोधन कर सिख धर्म को हिंदू धर्म से विलग किया जाए। इस धारा के अंतर्गत सिख, बौद्ध व जैन हिंदू धर्म के ही अंग माने जाते हैं। इसको लेकर अकाली दल के दिल्ली विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा वहां विधानसभा में भी इस विषय को उठा चुके हैं। प्रश्न उठता है कि क्या अकाली दल अपने इस अलगाववादी अभियान के परिणाम भुगतने को तैयार है? इसके लिए क्या अकाली दल उस आरक्षण को अस्वीकार करेगा जो जातिगत आधारित होने के कारण केवल हिंदू समाज के साथ रहने से ही मिल सकता है? केंद्रीय राज्यमंत्री एवं पंजाब भाजपा के अध्यक्ष श्री विजय सांपला ने अकाली दल को पहले इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने व सामाजिक सरोकारों से जुड़े संगठनों, प्रतिनिधियों व कर्मचारी संगठनों से विमर्श कर ले। पंजाब में साल 2011 की जनगणना के अनुसार 32 प्रतिशत जनसंख्या दलितों की है जिनमें अनुमानत: 25 प्रतिशत सिख हैं जिनके लिए आरक्षण व इससे मिलने वाली सुविधा जीवन मरण के प्रश्न से कम नहीं है। इतिहास बताता है कि अगर दलित सिखों से आरक्षण की सुविधा छीनी गई तो संभव है कि वे पंथ से भी दूरी बना लें।
अकाली दल की यह मांग जितनी पुरानी उतनी ही अनावश्यक और विवाद पैदा करने वाली है। भारतीय संविधान के अनुच्छेत 25-बी की व्यवस्थाओं के बावजूद आज सिख धर्म देश में स्वतंत्र धर्म के रूप में जाना जाता है। जनगणना के दौरान इसको अलग श्रेणी में रखा जाता है। सिख विद्वान स. मोहन सिंह अपनी पुस्तक डा. भीमराव अंबेडकर के पृष्ठ नंबर 54 पर लिखते हैं '14 अक्तूबर, 1949 को गृहमंत्री  स. पटेल ने संविधान सभा को बताया कि इसाई प्रतिनिधि की हां में हां मिलाते हुए सिख प्रतिनिधियों ने भी धर्म के आधार पर कोई सुविधा लेने से इंकार कर दिया। लेकिन इसके बाद दलित समाज से जुड़े सिखों के कई नेता स. पटेल सो मिले और उन्हें जाति आधारित आरक्षण की मिल रही सुविधा जारी रखने का आग्रह किया। इन दलित सिखों की मांग के दबाव में आकर बाकी सिख प्रतिनिधियों ने भी आरक्षण की मांग का यह कहते हुए समर्थन किया कि अगर इन दलित सिखों को आरक्षण की सुविधा नहीं मिलती तो वे सिख धर्म छोड़ सकते हैं  और इससे वे सिख समाज के तौर पर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक  दृष्टि से कमजोर हो जाएंगे। इस पूरे मुद्दे पर पूर्वी पंजाब के सिख विधानकारों व संविधान सभा के सदस्यों की बैठक भी स. कपूर सिंह के नेतृत्व में हुई जिसमें मजहबी, रामदासिया, कबीरपंथी, सिकलीगर व अन्य जातियों को आरक्षण देने की बात मान ली गई। उस समय संविधान सभा में अल्पसंख्यक समिति के परामर्शदाता डा. भीमराव अंबेडकर ही थे जिन्होंने सिखों को आरक्षण संबंधी स. पटेल की सलाह मान ली। इस पर सिखों को भारतीय अनुच्छेद की धारा 25-बी के तहत हिंदू धर्म के साथ संलग्न कर उन्हें अनुसूचित जाति व पिछड़ा वर्ग को मिलने वाली जातिगत आरक्षण की सुविधा दी गई।
सिख समाज व नेताओं के सम्मुख 68 साल पुराना वह यक्ष प्रश्न आज भी मुंह बाए खड़ा है कि जिसका उत्तर दिए व हल निकाले बिना आगे बढऩा बहुत कठिन है। क्या सिख समाज का दलित व पिछड़ा वर्ग आरक्षण की सुविधा छोडऩे के लिए तैयार होगा? क्या आरक्षण के लिए सिख समाज का दलित व पिछड़ा वर्ग पंथ की मुख्यधारा से तो नहीं कट जाएगा? अगर ऐसा होता है तो क्या वह सिख पंथ और कमजोर नहीं होगा जो विगत जनगणना के अनुसार पहले ही जनसंख्या के हिसाब से कम हो रहा है? क्या इससे समाज में बिखराव, अनावश्यक बहस व खींचातान पैदा नहीं होगी, समाज में अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा? दलित वर्ग से संबंधित सेवारत अधिकारियों व सरकारी कर्मचारियों का भविष्य कितना प्रभावित होगा?
दरअसल देखा जाए तो विगत विधानसभा चुनाव में पिछड़ कर तीसरे नंबर पर आने की पीड़ा अकाली दल को परेशान किए हुए है और वह अपनी खोई हुई भूमि को प्राप्त करने के लिए भावनात्मक मुद्दे उठा कर पुराने ढर्रे पर आने की चेष्टा कर रहा दिख रहा है। अकाली नेतृत्व को ज्ञात होना चाहिए कि देश की स्वतंत्रता के 70 सालों में देश में बहुत कुछ बदल चुका है। अब भावनात्मक मुद्दों व बातों से राजनीति करना संभव नहीं है। अकाली दल अपनी मांग पर पुनर्विचार करे और इसके खतरों को भांपने का प्रयास करे। यही पंजाब, सिख समाज और अंतत: देश के लिए कल्याणकारी होगा। देश में जब सिख धर्म पूरी तरह से स्वतंत्र धर्म के रूप में स्थापित है, समाज के लोग हर मोर्चे पर आगे बढ़ कर अपना व देश का विकास कर रहे हैं, देश के हर क्षेत्र में सिख समाज की धूम है तो अनावश्यक विवादों से समाज को उद्वेलित करना उचित नहीं है।
- राकेश सैन
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Friday, 19 January 2018

रामेश्वरनाथ काव को जानते हैं आप ?

क्या 20 जनवरी 2002 को दिवंगत हुए रामेश्वरनाथ काव को जानते हैं आप? नहीं! अच्छी बात है, मैं भी नहीं जानता और शायद देश के 99.99 प्रतिशत नागरिक भी नहीं जानते होंगे। यही उनका परिचय है और यही उनकी सफलता का राज। अगर हम सभी जानते होते तो आज न पाकिस्तान से बंगलादेश आजाद हो पाता, न ही पाकिस्तान के भारत पर हवाई हमले की पूर्व सूचना मिल पाती और न ही सिक्किम आज भारत का हिस्सा होता। काव वह व्यक्ति थे जिन से प्रभावित हो चीन के राष्ट्रपति ने अपनी निजी सील उपहारस्वरूप दी थी और दफ्तर पहुंचने पर खुद खड़े हो कर उनसे मिले थे। उन्होंने सिक्किम का भारत में विलय इतने गोपनीय तरीके से करवाया कि चीन को इसकी भनक तक नहीं लगी और उसके नाक के नीचे से एक राज्य निकल गया और सिक्किम भारत का 22वां राज्य बना। काव भारतीय गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनालाइसिस विंग के संस्थापक निदेशक थे। बताया जाता है कि 1982 में फ्रांस की बाहरी खुफिया एजेंसी एसडीईसीई के प्रमुख काउंट एलेक्जांड्रे द मेरेंचे से जब पूछा गया कि वो सत्तर के दशक के दुनिया के पांच सर्वश्रेष्ठ खुफिया प्रमुखों के नाम बताएं, तो उन्होंने उन पांच लोगों में काव का नाम भी लिया था। तब उन्होंने काव के बारे में कहा था, शारीरिक और मानसिक सुघड़पन का अदभुत सम्मिश्रण है ये इंसान! इसके बावजूद अपने बारे में, अपने दोस्तों के बारे में और अपनी उपलब्धियों के बारे में बात करने में इतना शर्मीला। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बंगलादेश) में पंजाबी सेना द्वारा बंगाली हिंदुओं पर किए जाने वाले नृशंस अत्याचारों से भारत सरकार विचलित थी। ऐसे समय में काव ने बंगलादेश मुक्तिवाहिनी सेना के एक लाख जवानों को इतने गुपचुप तरीके से प्रशिक्षण दिया कि दुनिया को कानो कान खबर तक नहीं हुई। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की 'लोह महिला ' की छवि के शिल्पकार थे काव।

रामेश्वरनाथ काव का जन्म 10, मई, 1918 को वाराणसी में हुआ। 1940 में उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा जिसे उस जमाने मे आईपी कहा जाता था की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें उत्तर प्रदेश काडर दिया गया। 1948 में जब इंटेलिजेंस ब्यूरो की स्थापना हुई तो उन्हें उसका सहायक निदेशक बनाया गया और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। अपने करियर की शुरुआत में ही उन्हें एक बहुत बारीक खुफिया ऑपरेशन करने का मौका मिला। 1955 में चीन की सरकार ने एयर इंडिया का एक विमान कश्मीर प्रिंसेज चार्टर किया जो हांगकांग से जकार्ता के लिए उड़ान भरने वाला था और जिसमें बैठ कर चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई बांडुंग सम्मेलन में भाग लेने जाने वाले थे, लेकिन अंतिम मौके पर एपेंडेसाइसटिस का दर्द उठने के कारण उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। वो विमान इंडोनेशिया के तट के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इसमें बैठे अधिकतर चीनी अधिकारी और पत्रकार मारे गए। काव को इस दुर्घटना की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। काव ने जांच कर पता लगाया था कि इस दुर्घटना के पीछे ताइवान का हाथ था। चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई उनकी जाँच से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने काव को अपने दफ्तर बुलाया और यादगार के तौर पर उन्हें अपनी निजी सील भेंट की जो अंत तक काव की मेज़ की शोभा बनी रही। 1968 में इंदिरा गांधी ने सीआईए और एमआई 6 की तर्ज पर भारत में भी देश के बाहर के खुफिया मामलों के लिए एक एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) बनाने का फैसला किया और काव को इसका पहला निदेशक बनाया गया।

रॉ ने अपनी उपयोगिता 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में सिद्ध करी। काव और उनके साथियों की देखरेख में एक लाख से अधिक मुक्तिवाहिनी के जवानों को भारत में प्रशिक्षण दिया गया। काव का खुफिया तंत्र इतना मजबूत था कि उन्हें इस बात तक की जानकारी थी कि किस दिन पाकिस्तान भारत पर हमला करने वाला है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति याहिया खाँ के दफ्तर के हमारे एक सोर्स से रॉ को इसकी जानकारी मिली। 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने हमला किया और भारतीय वायुसेना उस हमले के लिए पूरी तरह से तैयार थी और उसने पाकिस्तान का मुंहतोड़ जवाब दिया।

भारत में सिक्किम के विलय में भी रामेश्वर काव की जबरदस्त भूमिका रही। उन्होंने इस काम को महज चार अफसरों के सहयोग से अंजाम दिया और इस पूरे मिशन में इतनी गोपनीयता बरती गई कि उनके विभाग के नंबर दो शंकरन नायर को भी इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। सिक्किम की योजना आरएन काव की जरूर थी लेकिन तब तक इंदिरा गाँधी इस क्षेत्र की निर्विवाद नेता बन चुकी थीं। बांगलादेश की लड़ाई के बाद उनमें इतना आत्मविश्वास आ गया था कि वो सोचती थीं कि आसपास की समस्याओं को सुलझाने का जिम्मा उनका है। सिक्किम समस्या की शुरुआत तब हुई जब चोग्याल ने एक अमरीकी महिला से शादी कर ली थी और सीआईए का थोड़ा बहुत हस्तक्षेप वहाँ शुरू हो गया था। काव ने इंदिरा गाँधी को सुझाव दिया कि सिक्किम का भारत के साथ विलय कराया जा सकता है। ये एक तरह से रक्तविहीन तख्तापलट था और इस ऑपरेशन की सबसे बड़ी बात ये थी कि ये चीन की नाक के नीचे हुआ। चीन की सेनाएं सीमा पर थीं लेकिन इंदिरा गाँधी ने चीन की कोई परवाह नहीं की। काव को ही श्रेय जाता है कि उन्होंने 3000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र का भारत में विलय कराया और सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बना।

- राकेश सैन
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Thursday, 18 January 2018

पृथ्वीराज चौहान व हकीकत की 'बसंत पंचमी'

ऋतुराज बसंत, नाम लेते ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है। मन को शीतल करतीं मंद-मंद हवा, गर्म रजाई सी धूप, पेड़ों पर दिखाई देती नई-नई कोपलें, कभी फूलों पर बैठती तो कभी आसमान में दौड़ लगाती तितलियां, भंवरों का गुंजन और भी न जाने कैसे-कैसे दृश्य जो कामदेव की मादकता को भी नई ऊंचाईयां देते जान पड़ते हैं। मानो प्रकृति सबकुछ लुटा देने को व्याकुल हो उठती है। लेकिन बसंत में विस्मृति नहीं होनी चाहिए उन अंधेरियों की जो सबकुछ उड़ा देने व्याकुल थीं, उस चिलचिलाती धूप की जिसने चराचर जगत को झुलसने को मजबूर किया, उन घमंडी बिजलियों की जिसने समय-समय पर वज्राघात कर इसी धरती के सीने को छलनी किया, कफन की बर्फीली चादर की जिसने कभी शिराओं के रक्त को भी जमा दिया था। आज राष्ट्रजीवन में जब हम बसंत का अनुभव कर रहे हैं तो उन आत्माओं का स्मरण करना भी बनता है जिन्होंने इतिहास की षट ऋतुओं के आघात को सहा। बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने इस दिन छतों पर बजने वाले डीजे की कानफोड़ आवाज में भुला सा दिया है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वाद किया तो पृथ्वीराज चौहान व वीर हकीकत राय ने अपने जीवन का बलिदान दे कर आज के राष्ट्रजीवन में बसंत की नींव रखी। सद्गुरु राम सिंह जी का जन्म भी इसी दिन हुआ जिन्होंने गौरक्षा के लिए बलिदान की परंपरा को नई ऊंचाई दी।

बसंत पंचमी हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी जिसको उनके गुरु मतंग ऋषि ने वरदान दिया था कि किसी दिन भगवान खुद चल कर तेरी कुटिया पर आएंगे। जब श्रीराम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।

वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। 1192 ई. में यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।
कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23 फरवरी 1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है। हकीकत लाहौर का निवासी था। अत: पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

वसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया। गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। 

इस पर्व का संदेश है कि हर बसंत कठोर संघर्ष, बलिदान, भक्ति के मार्ग से होकर निकलता है। बसंत के पीले चावल खाने का अधिकार उन्हें ही है जो देश व समाज के लिए विषपान करना जानता हो। बसंत की शीतलता पर पहला अधिकार गुरु तेगबहादुर व उनके शिष्यों जैसी महानात्माओं को है जो धर्म की रक्षा के लिए कड़ाहे में उबलना और रुई में लिपट कर जलने की कला में परांगत हैं। हमारे राष्ट्रजीवन में में आया बसंत कभी वापिस न हो इसके लिए हमें हर परिस्थितियों का मुकाबला करने, हर तरह के बलिदान करने को तत्पर रहना होगा। यही इस बसंत का संदेश है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Wednesday, 17 January 2018

स्कूली प्रार्थना पर आपत्ति या संवैधानिक संकट को आमंत्रण


मध्य प्रदेश के निवासी विनायक शाह ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना अनिवार्य करने के आदेश को चुनौती दी है। इस पर न्यायालय ने केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है। याचिकाकर्ता का दावा है कि प्रार्थना से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में बाधा पैदा हो रही है। धार्मिक आस्था पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है और छात्रों के सोचने-समझने की प्रक्रिया में इसे बैठाया जा रहा है। याचिकाकर्ता ने इस आदेश को संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ बताया है। ज्ञात रहे कि देश में 1125 केंद्रीय विद्यालय हैं जिनमें 11 लाख से अधिक विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। तीन विद्यालय विदेशों में भी चल रहे हैं। ऊपर से तर्कसंगत आने वाली उक्त बातें वास्तव में धरातल पर भोथरी हैं। वास्तव में प्रार्थना के बहाने देश में एक ऐसे संवैधानिक संकट व व्यर्थ की लंबी बहस को निमंत्रण देने का प्रयास हो रहा है जिसे हर देशवासी को समझना बहुत जरूरी है।


वैसे तो यह पूरी तरह से न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है कि वह किस याचिका को स्वीकार करता या अस्वीकार, इस पर किंतु नहीं किया जा सकता। लेकिन उक्त याचिका विचारार्थ स्वीकृत होना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। देश क्या पूरी दुनिया में अभी तक ऐसा विश्लेषण या अनुसंधान सामने नहीं आया जिसमें बताया गया हो कि प्रार्थना करने से या किसी तरह की आस्था से व्यक्ति के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में बाधा पैदा हुई हो। इसके विपरीत कई बार मनोवैज्ञानिक विश्लेषण सामने आते रहे हैं कि प्रार्थना या आस्था व्यक्ति में सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करती है जो जीवन के कई क्षेत्रों में सफलता का कुंजी बनता है। याचिका में प्रार्थना को लेकर जताई गई आशंका याचिकाकर्ता के मन की कल्पना अधिक प्रतीत होती है।

अब बात करते हैं उस आशंकित संवैधानिक संकट की जो इसके पीछे दबे पांव चला आरहा दिखाई दे रहा है। केंद्र सरकार ने जो प्रार्थना के आदेश दिए हैं उनमें 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' व 'सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:' सहित अनेक प्रार्थनाएं हैं। इनका अर्थ है- हे मां मुझे अंधकार से प्रकाश अर्थात अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलो। दूसरे का अर्थ है-परमात्मन् आप हम दोनों गुरू और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें,हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। वैसे इन प्रार्थनाओं से किसी को आपत्ति है तो वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य ही प्रकाश अर्थात ज्ञान की प्राप्ति है। लेकिन याचिकाकर्ता को यह आपत्ति है कि यह प्रार्थनाएं उपनिषदों से ली गई हैं और संस्कृत में हैं जो एक धर्म विशेष से जुड़ी हैं। इस तरह का तर्क देते समय ध्यान रखना चाहिए कि संस्कृत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344(1) व 351 में दर्ज अनुसूचित भाषाओं में से एक है और संविधान कोई धर्मग्रंथ नहीं है। जहां तक उपनिषदों की बात है तो वह किसी धर्मविशेष से जुड़े नहीं बल्कि देश की युगों पुरानी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इनका लेखन उस समय हुआ जब हिंदू शब्द प्रचलन में नहीं था। रही बात उपनिषदों के घोषवाक्यों की तो इसको देश के हर विभाग, हर शिक्षण संस्थानों, सरकारी संस्थानों ने अपना घोषवाक्य व लोगो बनाया हुआ है। खुद सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है 'सत्यमेव जयते' जिसका संस्कृत विस्तृत रूप 'सत्यं एव जयते' है। इसका अर्थ है, कि सत्य की ही जीत होती है। यह मुण्डक उपनिषद् के मंत्र का अंश है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है -

सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम॥

अर्थात अंतत: सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। रोचक बात है कि चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य 'प्रावदा वीत्येजी' (सत्य जीतता है) का भी समान अर्थ है। सर्वोच्च न्यायालय के लोगो में ध्येय वाक्य है 'यतो धर्मस्ततो जया: अर्थात जहां धर्म है वहीं विजय है। यह श्लोक श्रीमद्भगवत गीता से लिया गया है। जहां तक शिक्षण संस्थानों की बात करें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ध्येय वाक्य है 'ज्ञान-विज्ञानं विमुक्तये अर्थात ज्ञान-विज्ञान से विमुक्ति प्राप्त होती है। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का घोषवाक्य है 'असतो मा सद् गमय' हमें असत से सत की ओर ले चलें। देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के घोषवाक्य वेदों, उपनिषदों से लिए गए हैं। 

केंद्र सरकार की हिंदी अकादमी का घोषवाक्य 'अहम् राष्ट्री संगमनी वसूनाम, डाक तार विभाग का 'अहर्निशं सेवामहे' अर्थ हम दिन रात सेवा करते हैं। सेना एयर डिफेन्स का लोगो 'आकाशेय शत्रुन जहि', नेशनल कौंसिल फॉर टीचर एजुकेशन का लोगो 'गुरु: गुरुतामो धाम:', लोकसभा का लोगो 'धर्मचक्र प्रवर्तनाय', धर्मचक्र के प्रवर्तन (आगे ले जाने) के लिए, वायु सेना का घोष 'नभ:स्पृशं दीप्तम्', सैन्य अनुसंधान केंद्र का लोगो 'बालस्य मूलं विज्ञानम्' विज्ञान ही बल का मूल (आधार) है। इसी तरह श्रम मंत्रालय का लोगो 'श्रम एव जयते'अर्थात श्रम ही विजयी होता है, दूरदर्शन का लोगो 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्', आल इंडिया रेडियो का लोगो 'सर्वजन हिताय सर्वजनसुखाय' अर्थात सबके हित के लिये, सबके सुख के लिये है। खुद लोकसभा व राज्यसभा की दीवारों पर उपनिषदों के अनेकों वाक्य अंकित किए गए हैं।

अगर याचिकाकर्ता की मांग को स्वीकार करते हुए उपनिषदों से ली गई संस्कृत भाषा की स्कूली प्रार्थना को धर्म विशेष से जोड़ कर देखा जाएगा तो कल को इसी आधार पर उक्त सभी विभागों के घोषवाक्यों पर लंबा विवाद और संवैधानिक संकट पैदा हो जाएगा। संवैधानिक संकट इसलिए क्योंकि इनमें से बहुत से विभाग कार्यपालिका के अंतर्गत आते हैं, लोकसभा और राज्यसभा विधानपालिका के तहत। संविधान निर्माताओं व नीति निर्धारकों ने लोकतंत्र के सभी अंगों के सभी विभागों को प्रेरणा देने के उद्देश्य से इन वाक्यों को उद्घोष बनाया न कि किसी धर्म या धर्मग्रंथ को प्रोत्साहन देने या हतोत्साहित करने के लिए। ज्ञात रहे देश के संविधान की प्रस्तावना में इसे धर्मनिरपेक्ष बताया गया है धर्मविमुक्त नहीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शिक्षा में सुधार के लिए करवाई गई राष्ट्रव्यापी बहस के दौरान देश के तमाम शिक्षाविदों ने नैतिक शिक्षा की जरूरत जताई है और इसी के आधार पर सरकार नैतिक मूल्य परक शिक्षा देने का कदम उठा रही है। इसका विरोध करना देश के जनमानस का विरोध है जो लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। वैसे मामला अदालत में विचाराधीन है और इस बात की पूरी संभावना है कि देश की सबसे बड़ी अदालत कुछ दिमागों की खुराफात व देश की व्यवस्था, लोकेच्छा के बीच न्याय के संघर्ष में रचनात्मक भूमिका निभाएगी।
राकेश सैन
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गणतंत्र के लिए चुनौती बनता 'गौत्रतंत्र'

26 जनवरी, 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र घोषित किया गया, जिसका आधार बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में लिखा गया वह संविधान बना जिसमें व्यस्क मताधिकार से अपने देश का राजा चुनने का अधिकार सभी नागरिकों को मिला। इस पर बोलते हुए अंबेडकर ने कहा था - मैने रानियों की नसबंदी कर दी है और भविष्य के राजा मतपेटियों से निकला करेंगे। सारांश कि बाबा साहिब या देश के नीति निर्धारक चाहते थे कि देश का नेतृत्व लोकप्रियता, क्षमता, योग्यता जैसे अन्य जनतांत्रिक गुणों की कसौटी पर खरा उतरने वाला हो। लेकिन उस समय अनुमान भी नहीं लगाया गया होगा कि एक समय देश में 'गणतंत्र' के समक्ष 'गौत्रतंत्र' चुनौती बन कर उभरेगा और कुछ खानदान व नेता पार्टी तंत्र पर कब्जा कर फिर शासन करने के पुश्तैनी अधिकार से लैस हो जाएंगे।

वैसे वंशवाद से आज दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अछूता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की राजनीति में खास परिवार से जुड़ा होना भी योग्यता का एक बड़ा मानदंड बन चुका है। जब राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहते हुए अमेरिका की यात्रा पर गए तो कोलंबिया के बर्कली विश्वविद्यालय में किसी ने उनसे एक सवाल पूछा था परिवारवाद के संदर्भ में। उन्होंने अपने उत्तर में कहा कि हिन्दुस्तान में तो परिवारवाद ही चलता है। इसके लिए उन्होंने अमिताभ बच्चन, कपूर व अंबानी खानदान और भी न जाने कई नाम गिनवा दिए। उनकी यह बात सत्य भी साबित हुई और कमोबेश इसी गुण के चलते वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए। लगता है कि भले ही हमने संविधान से राजशाही को समाप्त कर दिया हो, पर देश के सभी दलों में परिवारशाही के रंग दिखाई दे रहे हैं, अंतर इतना है कि कहीं रंग गहरा है, कहीं फीका। पर हकीकत यह है कि जनतांत्रिक भारत की राजनीति परिवाद के ग्रहण से लगातार ग्रस्त होती जा रही है। कांग्रेस पचास-साठ साल तक देश पर शासन करती रही है, इसलिए उसका परिवारवाद ज्यादा गहरा और फैला हुआ दिखता है, लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा, सपा, शिवसेना, डीएमके, अकाली दल, नैशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी सहित अन्य दल भी इसके उदाहरण बनते जा रहे हैं। आज देश में स्थिति यह है कि लगभग सभी राज्यों और सभी दलों में बहुत से चुनाव क्षेत्रों पर कुछ परिवारों का कब्जा है। वे उन्हें अपनी मल्कियत लगने लगे हैं चुनाव क्षेत्र। पिता के बाद बेटा या बेटी या पत्नी या बहन के नाम कर दी जाती है चुनाव क्षेत्र की जागीर।

पंच को परमेश्वर मानने वाले भारतीय शायद आज भूल गये हैं कि, समाज में गण की शक्ति सत्य सनातन है। भारतीय समाज ने अपने जीवन के सर्वोदय में 'सर्वे भवंतु सुखिन: व सरबत्त दा भला' के सिद्घांत का गणतंत्रीय संविधान में साक्षात्कार किया था। जब कभी एक व्यक्ति के ध्वज-दंड के चारों ओर देश की आत्मा को बाँधने का प्रबंध हुआ, अंत में असफलता ही मिली। भारत की जीवन-प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति तो विकेंद्रीकरण में थी, जिसका विकास गणराज्य के संघ में हुआ। कहीं न कहीं यह गणतंत्र पद्घति संसार को भारत की देन है। अथर्ववेद तृतीय कांड, सूक्त 4, श्लोक 2 का आदेश है- 'हे राजन्! तुझको राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुनें तथा स्वीकारें। चुने हुए व्यक्ति को वेदों ने राजा कहा। इसके विस्मरण से समाज में, देश में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं। मध्यकालीन गणराज्यों के रूप में शिवाजी के साम्राज्य का जिक्र करते हुए डा. काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'हिंदू राज्यतंत्र' में करते हुए लिखा, शिवाजी ने अतीत की ओर देखा व संविधान बनाया। तंत्र खड़ा किया, उस पर जो उन्हें उपलब्ध था, उनका नाता अतीत से जोड़ा। उन्होंने महाभारत व शुक्रनीति से प्रेरणा ली। पाया कि एक राजा को जन-हृदय का राज्य चाहिए, शासन नहीं। अपनी पुस्तक के उपसंहार में उन्होंने लिखा, किसी भी राजतंत्र की कसौटी उसके जीवंत होने व विकसित हो सकने में है। हिंदू समाज ने जैसी संवैधानिक उन्नति की, उसे प्राचीन काल का कोई राज्यतंत्र न छू सका। जब समर्थ गुरू रामदास ने गर्जना की कि 'नरदेह हा स्वाधीन, सहसा न ह्वे पराधीन' अर्थात मानव स्वतंत्र है और जोर-जबरदस्ती से उसे पराधीन नहीं किया जा सकता तब सभी वर्णों ने एकजुट हो एक गणराज्य की नींव डालने के प्रयत्न को स्वीकार किया। इसी से शिवाजी के नेतृत्व में हिंदवी साम्राज्य अस्तित्व में आया जिसका सम्राट खुद को जनता का प्रतिनिधि मान कर उसकी सेवा के लिए छत्र धारण करता था।

देश में गणतंत्र का इतिहास इससे भी प्राचीन माना जाता है। जनतांत्रिक पहचान वाले गण तथा संघ जैसे स्वतंत्र शब्द भारत में आज से लगभग पांच हजार वर्ष पहले ही प्रयोग होने लगे थे। महाभारत के शांतिपर्व में राज्यकार्य के निष्पादन के लिए बहुत से प्रजाजनों की भागीदारी का उल्लेख मिलता है, जो उस समय समाज में गणतंत्र के प्रति बढ़ते आकर्षण का संकेत देता है—'गणप्रमुख का सम्मान किया जाना चाहिए, इसलिए कि दुनियादारी के बहुत से कार्यों के लिए शेष समूह उसी के ऊपर निर्भर करता है। संघ-प्रमुखों को चाहिए कि आवश्यक गोपनीयता की रक्षा करते हुए सदस्यों के सुख-समृद्धि के लिए सभी के साथ मिलकर, दायित्व भावना के साथ कार्य करें, अन्यथा समूह का धन-वैभव नष्ट होते देर नहीं लगेगी। सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास में रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस तथा कारसीयस रुफस ने भारत के सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-वहां पर शासन की 'गणतांत्रिक प्रणाली थी, न कि राजशाही।' ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के दौरान गणतंत्र भारत में लोक प्रचलित शासन प्रणाली थी। डायडोरस सिक्युलस ने अपने ग्रंथ में भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अनेक गणतंत्रों की मौजूदगी का उल्लेख किया है। 

गणपति शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है, जिसका एक अर्थ 'गण' अर्थात नागरिक भी है। इस तरह गणपति यानी नागरिकों द्वारा परस्पर सहमति के आधार पर चुने गए प्रशासक से है। भारतीय परंपरा में गणपति को सभी देवताओं में अग्रणी, सर्वप्रथम पूज्य माना गया है। इस बात की प्रबल संभावना है कि इस शब्द की व्युत्पत्ति गणतांत्रिक राज्य में हुई हो। गणतंत्र की अवधारणा कहीं न कहीं वेदों की देन है। ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखते हैं कि गणराज्य दो तरह के होते हैं, पहला अयुध्य गणराज्य अर्थात ऐसा गणराज्य जिसमें केवल राजा ही फैसले लेते हैं, दूसरा है श्रेणी गणराज्य जिसमें हर कोई भाग ले सकता है। कौटिल्य के पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्ठाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासन व्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी। गणतंत्र हमारी एतिहासिक धरोहर भी है और देश का भविष्य भी। भारत विविधता में एकता वाला देश है जिसमें एक ही मत, वाद, विचारधारा, व्यक्ति, परिवार,दल देश का समूचित प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। मुगलों व अन्य कई विदेशी आक्रांताओं ने एकलवाद को देश पर थोंपने का प्रयास किया परंतु वे असफल रहे और आज उनका नामलेवा भी नहीं बचा। संविधान निर्माताओं ने इन्ही तथ्यों को सम्मुख रख कर देश में 'गणतांत्रिक' व्यवस्था लागू की जिसे आज 'गौत्रतांत्रिक' बीमारी लीलने को व्याकुल दिख रही है। देश की वर्तमान पीढ़ी को इस खतरे से निपटना होगा।

राकेश सैन
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Monday, 15 January 2018

संस्कृत की वैज्ञानिकता पर अमेरिकी खोजकर्ताओं की मुहर

दुनिया के वैज्ञानिकों ने देव भाषा संस्कृत की महानता को स्वीकार करना शुरु कर दिया है। एक अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ जेम्स हार्टजेल नाम के न्यूरो साइंटिस्ट के इस शोध को साइंटिफिक अमेरिकन नाम के जरनल ने प्रकाशित किया है कि अगर बच्चों को मेधावी बनाना है तो उन्हें संस्कृत पढ़ाई। संस्कृत से स्मृति बढ़ती है जो पढ़ी, सुनी व देखी वस्तुओं व बातों को सुरक्षित रखती है। न्यूरो साइंटिस्ट डॉ हार्टजेल ने अपने शोध के बाद 'द संस्कृति इफेक्ट' नाम का टर्म तैयार किया है। वह अपने रिपोर्ट में लिखते हैं कि भारतीय मान्यता यह कहती है कि वैदिक मंत्रों का लगातार उच्चारण करने और उसे याद करने की कोशिश से याददाश्त और सोच बढ़ती है। इस धारणा की जांच के लिए डॉ जेम्स और इटली के ट्रेन्टो यूनिवर्सिटी के उनके साथी ने भारत स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के डॉ तन्मय नाथ और डॉ नंदिनी चटर्जी के साथ टीम बनाई। अंग्रेजी समाचारपत्र 'द हिन्दू' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपर्ट की इस टीम ने प्रयोग के लिए 42 वॉलंटियर्स को चुना, जिनमें 21 प्रशिक्षित वैदिक पंडित (22 साल) थे। इन लोगों ने 7 सालों तक शुक्ला यजुर्वेद के उच्चारण में पारंगत हासिल की थी। ये सभी पंडित दिल्ली के एक वैदिक स्कूल के थे। जबकि एक कॉलेज के छात्रों में 21 को संस्कृत उच्चारण के लिए चुना गया। इस टीम ने इन सभी 42 प्रतिभागियों के ब्रेन की मैपिंग की। इसके लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया। नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर के पास मौजूद इस तकनीक से दिमाग के अलग अलग हिस्सों का आकार की जानकारी ली जा सकती है। टीम ने जब 21 पंडितों और 21 दूसरे वालंटियर्स के ब्रेन की मैपिंग की तो दोनों में काफी अंतर पाया गया। उन्होंने पाया कि वे छात्र जो संस्कृत उच्चारण में पारंगत थे उनके दिमाग का वो हिस्सा, जहां से याददाश्त, भावनाएं, निर्णय लेने की क्षमता नियंत्रित होती है, वो ज्यादा सघन था। इसमें ज्यादा अहम बात यह है कि दिमाग की संरचना में ये परिवर्तन तात्कालिक नहीं थे बल्कि वैज्ञानिकों के मुताबिक जो छात्र वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पारंगत थे उनमें बदलवा लंबे समय तक रहने वाले थे। इसका मतलब यह है कि संस्कृत में प्रशिक्षित छात्रों की याददाश्त, निर्णय लेने की क्षमता, अनुभूति की क्षमता लंबे समय तक कायम रहने वाली थी।

संस्कृत की विशालता व वैज्ञानिकता से भारतीय युगों से परिचित हैं परंतु दुनिया ने अब इसकी गुणवत्ता पहचाननी शुरू की है। भाषा की विशालता इतनी है कि प्रसिद्ध भारतीय चिंतक राजीव दीक्षित बताते थे कि महर्षि पाणिनी से लेकर आज तक संस्कृत लेखन में जितने शब्दों का प्रयोग किया गया है वह 102 अरब, 78 करोड़ और 50 लाख बनते हैं। संस्कृत को जिस तरीके से कंप्यूटर लैंग्वेज के उपयुक्त माना गया है उससे संभावना है कि आने वाले 100-150 सालों में इतने ही नए शब्द इसमें और जुडऩे वाले हैं। अर्थाद पूरी दुनिया की कोई भी भाषा शब्दकोष की दृष्टि से इसके आसपास बैठने का सोच भी नहीं सकती। संस्कृत ज्यादातर भारतीय और यूरोपीय भाषाओं की जननी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस भाषा को बनाया नहीं गया, बल्कि इस भाषा की खोज की गई और संवाद के माध्यम के अलावा इसके और भी मायने हैं। सद्गुरु जग्गी जी कहते हैं कि संस्कृत एक यंत्र है। यंत्र का क्या मतलब है? देखो, यह माइक्रोफोन यंत्र है। सौभाग्य से यह बोल नहीं सकता, लेकिन जो कुछ भी मैं बोल रहा हूं, उसकी यह आवाज बढ़ा देता है। अगर यह बोलने वाला यंत्र होता और मैं जो कहना चाहता, उसकी बजाय यह कुछ और कह देता तो यह मेरे लिए एक अच्छा यंत्र नहीं होता। आप किसी चीज को यंत्र तभी कह सकते हैं, जब आप उसे उस तरीके से इस्तेमाल कर पाएं जैसे आप करना चाहते हैं। संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है, जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। तो हमने कहा कि संस्कृत भाषा एक यंत्र है, महज संवाद का माध्यम नहीं। दूसरी ज्यादातर भाषाओं की रचना इसलिए हुई, क्योंकि हमें हर चीज को एक नाम देना पड़ता था। इनकी शुरुआत कुछ थोड़े से शब्दों से हुई और फिर वही शब्द जटिल होकर बढ़ते गए। लेकिन संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है, जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। हम जानते हैं कि अगर हम किसी दोलनदर्शी में कोई ध्वनि प्रवेश कराएं, तो हम देखेंगे कि हर ध्वनि के साथ एक आकृति जुड़ी है। इसी तरह हर आकृति के साथ एक ध्वनि जुड़ी है। इस अस्तित्व में हर ध्वनि किसी खास तरीके से कंपन कर रही है और खास आकृति पैदा कर रही है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर आप एसयूएन सन या एसओएन सन का उच्चारण करें, तो ये दोनों एक जैसे सुनाई देंगे, बस वर्तनी में ये अलग हैं। आप जो लिखते हैं, वह मानदंड नहीं है, मानदंड तो ध्वनि है क्योंकि आधुनिक विज्ञान यह साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व ऊर्जा की गूंज है। जहां कहीं भी कंपन है, वहां ध्वनि तो होनी ही है। इसलिए एक तरह से देखा जाय तो पूरा अस्तित्व ध्वनि है। जब आप को यह अनुभव होता है कि एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ी हुई है, तो यही ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है। अब ध्वनि और आकृति आपस में जुड़ गईं। अगर आप ध्वनि का उच्चारण करते हैं, तो दरअसल, आप आकृति की ही चर्चा कर रहे हैं, न सिर्फ अपनी समझ में, न केवल मनोवैज्ञानिक रूप से, बल्कि अस्तित्वगत रूप से भी आप आकृति को ध्वनि से जोड़ रहे हैं। अगर ध्वनि पर आपको महारत हासिल है, तो आकृति पर भी आपको महारत हासिल होगी। संस्कृत में ही एसी योग्यता है कि आप सबसे बड़ी बात सबसे कम शब्दों में कह सकते हैं। रामसेतु के बाद अमेरिकी वैज्ञानिकों ने जिस तरह संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता व सार्थकता पर मुहर लगाई है वह हमारे लिए गौरव का विषय है। इस भाषा का राष्ट्र के विकास व नई पीढ़ी के सर्वांगीण उत्थान किस तरह अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए इसकी योजना हम सबको मिल कर बनानी होगी।


राकेश सैन
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Sunday, 14 January 2018

महाराज पांडु से प्रेरणा ले न्यायपालिका

सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों सर्वश्री चेलामेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकूर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने प्रेस कान्फ्रेंस कर न्यायालय के भीतर जिन विसंगतियों पर प्रकाश डाला तो उससे स्वयंस्फूर्त स्मृति हो आई है भरतवंशी महाराजा पांडु की, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में ऐसी उदाहरण प्रस्तुत की जो दुनिया की किसी भी न्यायकि प्रणाली का आदर्श हो सकती है। सर्वाधिकार संपन्न होने के बावजूद उन्होंने ऋषि दंपति की हत्या के आरोप में स्वयं को जो सजा दिलवाई वह न्याय के इतिहास में अद्वित्तीय और शक्तियों के विकेंद्रीकरण की लाजवाब उदारण है। 

दिग्विजयी होने के बाद वे अथाह युद्धों की थकान मिटाने के लिए वे अपनी धर्मपत्नी माद्री और कुंती के साथ वनविहार को गए। एक दिन वे एक सिंह का शिकार करते-करते बहुत दूर निकल गए और अंधेरा हो गया। अचानक उन्होंने झाडिय़ों में आवाजें सुनी वहां पर शेर छिपा हुआ समझ कर आवाज की दिशा में तीर चला दिया जो ऋषि किंदम व उनकी पत्नी को लगा, जो वंशवेल वृद्धि में रत थे। महाराज पांडु के तीर से ऋषि व ऋषि पत्नी का देहांत हो गया परंतु इस घटना के बाद पांडु के जीवन का वह पक्ष उभर कर सामने आया जो विश्व की न्याय प्रणाली का आदर्श हो सकता है। ऋषि दंपति की हत्या के आरोपी पांडु, घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी वही। एक राजतंत्र के शासक होने के नाते नियम बनाने वाले, दरबार में अधिवक्ता, न्यायाधिकारी, दंडाधिकारी और उसके बाद क्षमादान केअधिकारी भी खुद पांडु ही थे। चाहते तो अपराध को छिपा सकते थे, किसी दूसरे पर आरोप लगा सकते थे, इन हत्याओं को अनजाने में हुआ अपराध बता बच कर निकल सकते थे या बचाव में तर्क गढ़ सकते थे परंतु सर्व अधिकार संपन्न होते हुए भी उन्होंने न्याय किया। हस्तिनापुर जाकर पहले सिंहासन का त्याग किया, महात्मा विदुर व भीष्मपितामह को न्यायाधिकारी मान कर उनसे पूरे मामले में न्याय करने की याचना की। विदुर व भीष्म ने उन्हें हत्या का दोषी न मान कर दुर्घटनावश हुई हत्या का दोषी माना। इस पर महाराज पांडु अपना राजपाठ प्रतिनिधि के तौर पर धृष्टराष्ट्र को सुपुर्द कर खुद पत्नियों सहित वनवास पर चले गए।

अब बात करते हैं देश की सर्वोच्च न्यायालय में हुए घटनक्रम की, तो स्वयंस मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ मीडिया जगत ने भी न्याय प्रणाली की विसंगतियों को लेकर चारों न्यायाधीशों की प्रेस कान्फ्रेंस को अभूतपूर्व बताया। विषय बेहद गंभीर है, हां समय-समय पर न्याय व्यवस्था पर कई तरह के सवाल तो उठाए जाते रहे हैं परंतु ये बातें अक्सर दूसरी तरह से कही जाती रही हैं। न्यायालय में विसंगतियों का केंद्र बिंदु ये है कि मुख्य न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों के रोस्टर का निर्णायक होता है, जिसकी जिम्मेदारी है कि तर्कसंगत सिद्धांत के आधार पर किसी पीठ को केस सौंपे जाएं। अगर प्रेस कान्फ्रेंस की भाषा पर गौर करें तो इसे आसानी से केवल वकील और न्यायाधीश ही समझ सकते हैं। मुख्य तौर पर वे सिर्फ न्यायाधीशों की पीठ की नियुक्ति का मुद्दा ही उठा रहे थे। इसके अतिरिक्त इन न्यायाधीशों ने मेमोरेंडम आफ प्रासीजर की बात करते हुए भी पीठों की नियुक्ति पर ही बात की है। एनजेएसी केस में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने जब मेमोरेंडम आफ प्रासिजर के साथ डील किया, तब इस केस में दो न्यायाधीश कैसे सुनवाई कर सकते हैं। ये बात भी न्यायाधीशों के पीठ की नियुक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, जिस पर जनता का विश्वास निर्भर करता  है। सर्वोच्च न्यायालय के एक से लेकर 26 या 31 नंबर तक जितने भी न्यायाधीश हैं, सब बराबर हैं लेकिन राष्ट्रीय महत्व के जो मामले होते हैं, तब सुनवाई कर रहे जजों की वरिष्ठता भी मायने रखती है। आखिर क्यों सर्वोच्च न्यायाल के सात सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को न्यायाधीश कर्णन केस पर फैसला लेने के लिए चुना गया? सिर्फ इसलिए, क्योंकि इस मसले पर उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश शामिल था। ठीक इसी तरह कई बड़े राष्ट्रीय मसले हैं, जिनकी सुनवाई वरिष्ठ न्यायाधीशों को एक सिद्धांत के तहत करने की जरूरत है।

इस प्रेस वार्ता में सर्वोच्च न्यायालय के दूसरे नंबर के न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर ने कहा कि हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो इस देश में लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है। इससे पहले कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश सीएस कर्णन ने बंद लिफाफे में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मामला उठाते हुए बीस न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। पर सवाल है कि क्या सचमुच स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि न्यायाधीशों को स्वनिर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा। यह गलत परंपरा की शुरुआत तो नहीं, क्योंकि जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस तरह करेंगे तो कल को यह क्रम निचले स्तर पर भी फैलेगा। इस बात में दो राय नहीं कि मतभेद न्यायाधीशों के बीच भी रहते हैं और न्यायालयों पर भी कई तरह के आरोप लगते हैं। अभी तक यह छिपे रहते हैं परंतु इस तरह की प्रेस कान्फ्रेंसों से अंदर की सारी बातें बाहर आएंगी। जो मुद्दे न्यायाधीशों को परस्पर चर्चा में उठाए जाते रहे हैं कल को वह प्रेस के माध्यम से उठाए जाने लगेंगे। इससे न्यायपालिका में बाहरी हस्तक्षेप बढ़ेगा और न्यायालयों की विश्वसनीयता भी प्रभावित होने की आशंका पैदा हो जाएगी। दूसरी तरफ इस प्रकरण को सकारात्मक दृष्टि से देखने वालों का भी दावा है कि इसमें कोई नई बात नहीं है। अमेरिका जैसे सफल लोकतांत्रिक देश में भी न्यायाधीश समय-समय पर प्रेस कान्फ्रेंस करते रहते हैं। इसका लाभ मीडिया के कामों की समीक्षा होने की प्रक्रिया शुरू होने के रूप में मिलता है। लोकतंत्र में अंतत: सभी शक्तियां जनता के हाथों में रहती हैं तो उसे न्यायिक व्यवस्था में क्या हो रहा है उसे जानने का भी अधिकार मिलना चाहिए और अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए।

इस प्रकरण में पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह के तर्क दिए जा सकते हैं परंतु भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए आदर्श स्थिति तो वही है जो भरतवंशी चक्रवर्ती सम्राट पांडु ने हमें बताई। उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया के सभी घटकों के लिए ईमानदारी, न्यायिक अधिकारी द्वारा शक्तियों का विभाजन, न्याय के लिए सबकुछ त्यागने का साहस जैसे ऐसे मानदंड स्थापित किए जो हमारी न्यायिक व्यवस्था को मौजूदा संकट से निकालने में सहयोग कर सकते हैं।


राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...