शिक्षक और विद्यार्थी के बीच क्या रिश्ता है इसकी दो उदाहरण देना चाहता हूं। कोई बच्चा सो रहा है, अचानक जरूरत पडऩे पर उसकी माँ बाजार में सामान लेने निकलती है। पहले वह सास को उस बच्चे का ध्यान रखने को कहती है, मन नहीं मानता तो ननद और पति को भी कहती है कि ''उठ जाए तो बच्चे को संभाल लेना।'' वह थैला उठाए खरीददारी के लिए निकल तो पड़ी, परंतु मन बच्चे में ही उलझा है कि कहीं जग गया तो रोने न लगे। वह दुकानदार से झगड़ती है कि पहले वह उसे सामान दे क्योंकि वो अपने बच्चे को सोता हुआ छोड़ कर आई है। घर पहुंचने पर पता चलता है कि बच्चा अभी सो रहा है तो वह सुख का सांस लेती है। लेकिन अगली ही सुबह वह अपने बच्चे को पाठशाला के लिए तैयार करती है। बच्चा पाठशाला जाने से इंकार करता है तो उसे समझाती है, जिद्द करने पर उसको चांटा भी मारती है। रोते हुए अपने बच्चे को अध्यापक के पास छोड़ कर आती है और संतोष का अनुभव करती है। यह वही माँ है जो अपने बच्चे को लेकर अपनी सास, ननद और पति पर भी विश्वास नहीं करती परंतु एक अध्यापक पर उसे पूरा विश्वास है जो खून के रिश्ते में उस परिवार का कोई नहीं लगता। माँ-बाप के इसी विश्वास का नाम है अध्यापक।
अब करते हैं बच्चे की बात, एक कक्षा में जरूरत से अधिक बच्चे थे। चूकवश अध्यापक में बच्चे की कापी चेक करते समय गलत सवाल-जवाब पर भी सही का निशान लगा दिया। घर में आकर जब उस बच्चे की माँ ने कापी चेक की तो बच्चे से बोली, ''इस सवाल का जवाब तो गलत है, तुम्हारी टीचर ने ठीक कैसे कर दिया?'' इस पर बच्चे ने जवाब दिया ''नहीं, मेरी टीचर गलत नहीं कर सकती। उसने ठीक किया है तो इस सवाल का यही जवाब ठीक होगा।'' बच्चे के इस विश्वास का नाम है अध्यापक। बच्चा जिसकी कोख से जन्मा है, जिससे सारा दिन प्यार पाता है, अपनी सारी जरूरतें पूरी करता है, जिसके आंचल में लिपट कर रात को सोता है उसे उस माँ से अधिक अपनी टीचर पर विश्वास है। जो अध्यापक माँ-बाप और अपने विद्यार्थी के इन विश्वासों पर खरा उतरता है वही आदर्श शिक्षक है।
चाणक्य ने कहा है कि 'शिक्षक और सम्राट के भाग्य में सुख नहीं है।' सम्राट का सुख निहित है जनता के सुख में। जनता सुखी है तो राष्ट्र सुरक्षित है। राष्ट्र सुरक्षित है तो स्वधर्म, संस्कृति, परंपराएं, कलाएं सुरक्षित हैं। संपूर्ण सुरक्षा उन्नति का मार्ग है। उन्नति केवल आर्थिक या भौतिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक भी। आध्यात्मिक उन्नति मोक्ष का मार्ग है जो भारतीय परंपरा अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। इसीलिए अपनी प्रजा को भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक रूप से संपन्न किए बिना जो शासक अपने निजी सुखों की तलाश करता है वह नरक का अधिकारी है। न तो उसके हाथों राष्ट्र सुरक्षित है और राष्ट्र असुरक्षित है तो राजा और राजपरिवार कैसे सुरक्षित रह सकता है। राजा को सुख चाहिए तो वह पहले अपनी प्रजा को सुखी करे।
अध्यापक के संदर्भ में भी कौटिल्य ने यही कहा है। अध्यापक एक अर्थ में गुरु अपने छात्र को ज्ञान के गर्भ में धारण करता है। वह अपनी ज्ञान की अग्नि में छात्र रूपी समिधा को प्रज्ज्वलित कर अज्ञान का अंधकार दूर करता है। विद्यार्थी के सर्वांगीण उत्थान में ही अध्यापक का सच्चा सुख है। उदाहरण के लिए उस अध्यापक के सुख की कल्पना करें जिन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या उन जैसे अन्य महापुरुषों को शिक्षा दी होगी। क्या वैसी खुशी पूरा कुबेर का खजाना खर्च करके भी खरीदी जा सकती है ? बगदादी या ओसामा बिन लादेन जैसे दैत्यों के अस्तित्व के पीछे कहीं न कहीं किसी अध्यापक की असफलता भी है जो उनमें मानवीय संवेदन पैदा न कर पाया। चिकित्सक की गलती चिता में भस्म हो जाती है, इंजीनियर की चूक फाईलों में दब जाती है, परंतु अध्यापक गलती करता है तो पूरा राष्ट्र उसे भुगतता है। अध्यापक सफल होता है तो वह राष्ट्र उन्नति करता है। अध्यापक अपना कर्म पहचानें, अपनी शक्ति को जानें, अपने धर्म से साक्षात्कार करें यही गुरु पूर्णिमा का संदेश है। अंत में एक अह्वान के साथ अपनी कलम को विराम देना चाहूंगा 'उतिष्ठ गुरुजन: उतिष्ठ भारत:।'
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 09779-14324
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