दिल्ली में औरंग•ोब मार्ग का नाम बदलने की चर्चा मात्र से देश का बुद्धिजीवी भड़क जाता है। टीवी स्क्रीनों पर चर्चाएं चलती हैं, औरंग•ोब को देवदूत की भांति पेश किया जाता है। उनकी बनावटी अच्छाइयां बताई जाती हैं और दर्शकों को समझाया जाता है कि उस मु$गल शासन में देश कितना सुखी था। मैं समझता हूं कि देश का दुर्भाग्य है यह। देश एक तरफ जहां अपने महबूब नेता, पूजनीय गुरु, अतुलनीय शूरवीर, विश्व के एकमात्र सरबंसदानी, महान विद्वान्, लेखक, मानवताधर्मी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की 350वीं जयंती मना रहा है तो दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जो हमारे गुरुओं पर घोर अत्याचार करने वाले औरंग•ोब के महिमामंडन में लगा है।
एक समय ऐसा लगने लगा कि निरंतर विदेशी हमलों, विदेशियों से लंबे संघर्ष ने भारतीय जनमानस को मानो थका दिया। बहुत से लोगों ने यह भी मानना शुरू कर दिया कि यही विदेशी हमलावर हमारे स्थाई भाग्यविधाता बन चुके हैं। हमें इन्हीं के रहमो-कर्मों पर निर्भर रहना है। जैसा कि अतीत में भी होता आया है, देश को इसी निराशा भाव से निकालने के लिए संत शक्ति आगे आई। भारत के मध्यकालीन कालखण्ड में भक्ति आंदोलन के नाम से ऐसी परिवर्तन की आंधी चली जिसने जनमानस को झिंझोड़ कर रख दिया।
उत्तर भारत में दस गुरु परंपरा इसी आंदोलन की महत्त्वपूर्ण देन है। सिख गुरु परंपरा की महत्ता अनेक दृष्टियों से स्वयंसिद्ध है। इसी संक्रमण काल में भारत में संत समाज की एक ऐसी जमात सक्रिय हुई, जिसने देश में घूम-घूम कर लोगों में साहस बढ़ाया। सिख गुरु परंपरा इसी प्रयोग का सफल परिणाम था। प्रथम गुरु श्री नानक देव जी से लेकर दशम् गुरु श्री गोबिंद सिंह जी तक लगभग सभी गुरुओं ने जनसामान्य का मनोबल बढ़ाने के लिए और अन्याय के खिलाफ लडऩे की उनकी क्षमता को पुनर्जागृत करने के लिए देश के चप्पे-चप्पे का भ्रमण किया। संकट की इस घड़ी में सारे देश को एक होना था। अपने समस्त मतभेद भुलाने की बात सशक्त तरीके से समाज के सामने रखते हुए, गुरु नानक देव जी तो अपने इन अभियानों में बगदाद तक हो आए। श्री गुरु तेग बहादुर ने भी सुदूर असम तक की यात्रा की। दशम् गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म बिहार में पाटलीपुत्र नामक स्थान पर हुआ। उनका कर्मक्षेत्र आज का पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बना और उनका ज्योतिजोत समाना या महाप्रयाण का स्थान सुदूर दक्षिण में नांदेड़ महाराष्ट्र था।
भक्तिकाल में विभिन्न संतजनों के प्रयासों से देश में स्वतंत्रता के प्रति अलख जगने लगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी अमर रचना रामचरितमानस में 'पराधीन सपनेहु सुख नाहिंÓ का संदेश दे कर देश की जनता को विदेशी $गुलामी के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया। दक्षिण में समर्थ गुरु रामदास जी ने शिवाजी के रूप में स्वतंत्रता व हिंदू अभिमान की ऐसी अग्निशिखा प्रज्वलित की जिसने पूरे मु$गल राज्य को स्वाह करके रख दिया। मराठों, बुंदेलखंडियों, राजपुताना के असंख्य शूरवीरों, सिखों, जाटों ने समय-समय पर विदेशी शासकों के खिलाफ सफल संघर्ष किया।
देश का दुर्भाग्य यह भी है कि हमारे इतिहासकार विदेशी हमलों के इस काल को $गुलामी काल कहते आए हैं, वास्तव में यह भारतीयों का संघर्षकाल था। दुनिया के इतिहास में न•ार दौड़ाएं तो देखेंगे कि विदेशी हमलावरों का जितना सफल हमने प्रतिकार किया और इतने हमलों के बावजूद अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने संस्कारों को बचाए रखने में सफलता हासिल की उतना कोई नहीं कर पाया। मिस्र, अरब, यूनान सहित अनेक सभ्यताएं विदेशी हमलों के 100-1500 सालों में ही पराभूत हो गईं, परंतु हम भारतीयों ने 1200 सालों तक विदेशी हमले झेले। सफल संघर्ष किया, कभी हारे तो कभी जीते। गिरे तो संभले भी। कभी अपमानजनक दौर आया तो कभी गौरवशाली परंतु हमने न तो पूरी तरह से विदेशियों की ईन मानी और न ही लडऩा छोड़ा। कोई इन इतिहासकारों को बताए कि गुलाम उसे कहा जाता है जब कोई व्यक्ति अपनी पराधीनता के खिलाफ संघर्ष करना ही छोड़ दे। शारीरिक निर्बलता या मजबूरी के चलते स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति पराधीन तो हो सकता है परंतु अगर वह पराधीनता के खिलाफ निरंतर संघर्ष करता रहता है तो उसे $गुलाम नहीं कहा जा सकता। इसी तरह भारतीय अपनी विभिन्न कम•ाोरियों के चलते पराधीन तो होते रहे परंतु $गुलाम नहीं बने। हमारा संघर्ष बताता है कि हमने विदेशी आक्रांताओं को कभी चैन से नहीं बैठने दिया। हर सदी में, हर विदेशी सत्ता के खिलाफ विभिन्न रूपों में हमारा स्वतंत्रता संघर्ष जारी रहा। पंजाब में हमारे परमप्रिय गुरुओं के नेतृत्व में विदेशी सत्ता के खिलाफ चला संघर्ष इसकी जीवंत मिसाल है।
प्रश्न है कि हमारा जननायक कौन हैं? गुरु तेग बहादुर और गुरु गोबिंद सिंह हैं या फिर औरंग•ोब और बाबर हैं ? महाराणा प्रताप हैं या फिर अकबर हैं ? बुद्धिजीवियों व सेकुलर दलों के आचरण से लगता है कि वह वोटों के लालच में औरंग•ोब और इब्राहिम लोधी को जननायक बनाने पर आमादा है। लेकिन देश का जनमानस श्री गुरु गोबिंद सिंह जी जैसे महापुरुषों को ही अपना आदर्श मानता है। देश की माटी से कटे बुद्धिजीवी इस तथ्य को जितना जल्दी समझें उनके लिए उतना ही श्रेयस्कर होगा।
- राकेश सैन
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