Friday, 11 May 2018

महिषासुर पूजन के पीछे चर्च !

जेएनयू व हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रकरण में सामने आया कि शक्ति की प्रतीक माँ दुर्गा के उपासक वंचित व वनवासी समाज को अब महिषासुर के साथ जोड़ा जाने लगा है। कौन है इस षड्यंत्र के जनक इसका उत्तर इसी बात से मिल जाता है कि बिहार और झारखण्ड में एक जनजाति ने अपना इतिहास असुरों के साथ जोडऩा शुरू किया। कुछ ही सालों बाद उस जनजाति को भारी संख्या में इसाईयत में मतांतरित कर दिया गया। प्रश्न उठना स्वभावि है कि क्या महिषासुर पूजा के पीछे चर्च है ?

महिषासुर व माँ दुर्गा को लेकर जेएनयू सहित अनेक वामपंथी हलकों में आपत्तीजनक बातें बोली जाती हैं जिनका जिक्र करना उचित नहीं। सबसे पहले इस तरह का आपत्तिजनक लेख अप्रैल 2011 में वामपंथियों की पुस्तक 'यादव संदेश' में छपा और जेएनयू के दीवारों पर इसे चिपकाया गया। बाद में इसी साल दुर्गा पूजा के अवसर पर चर्च की पत्रिका 'फारवर्ड प्रेस' में इस लेख का पुर्नप्रकाशन हुआ और इसमें महिषासुर को यादवों का पूर्वज बताया गया। यादवों ने इसका खूब विरोध किया।

असल में वामपंथी बुद्धिजीवी देवी देवताओं को आर्य जाति के हमलावर व उन्हें वंचित समाज के हत्यारे बताने के प्रयास में हैं। ये दावा करते हैं कि हिंदू त्यौहार हैं वे वंचित वर्ग के नरसंहार के प्रतीक हैं। इनके अनुसार वंचित समाज को इन असुरों की पूजा करनी चाहिए। स्पष्ट है कि यह हिंदू समाज को बांटने व उसकी आस्था को लेकर किंतु करने की कुचेष्टा है। इस षड्यंत्र का आधार भारत पर आर्यों के उस कथित हमले के सिद्धांत को बनाया गया है जिसको लेकर अब इस सिद्धांत के जनक खुद वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर का विश्वास डगमगाने लगा है। जिन आर्यों को वामपंथी विदेशी हमलावर बताते आरहे थे उनको लेकर अब कहा जाने लगा है कि आर्य जैसी कोई जाति नहीं थी, बल्कि वे भाषा समूह थे। आर्यों का भारत पर हमला नहीं बल्कि विस्तृत पलायन हुआ था। स्वभाविक है कि जब भारत पर आर्य हमले का सिद्धांत ही दम तोड़ रहा है तो देश के पौराणिक इतिहास की चर्च के इशारे पर वामपंथियों की पुर्नव्याख्या हिंदू समाज को तोडऩे का षड्यंत्र नहीं तो और क्या हो सकती है ? 2014 के  बाद खुद जेएनयू में महिषासुर पूजन बंद हो गया क्योंकि इसके आयोजक महिषासुर महिमामंडन के पीछे तर्क नहीं दे पाए।

वास्तविकता यह है कि दुर्गा स्तुति की परंपरा जनजाति समाज से ही निकली हुई मानी जाती है। आरंभ में माँ दुर्गा अभिरा नामक पशुपालक घूमंतु जनजाति की कुलदेवी थी। जनजाति समाज में माँ दुर्गा को लेकर अनेक तरह की पौराणिक व दंतकथाएं प्रचलित हैं। जहां तक झारखण्ड में पाई जाने वाली असुर जनजाति की बात करें तो इस पर विस्तार से अध्ययन हो चुका है। सन् 1928 में जॉन बापटिस्ट पॉपकिंस ने 15 खण्डों में असुर और मुंडा जनजाति के इतिहास व दंतकथाओं का संकलन किया था। 1963 में एंथ्रोपोलॉजिस्ट और इतिहासकार केके लेउवा ने 'द असुर' नामक पुस्तक प्रकाशित की थी। 'बुलेटिन आफ बिहार ट्राइबल रिसर्च इंस्टीच्यूट' और 'असुर एंड देयर डांसर' का प्रकाशन हुआ परंतु किसी में भी न तो किसी हिंदू जनजाति को और न ही वंचित वर्ग को महिषासुर के साथ जोड़ा गया। इसके विपरीत इन एतिहासिक अध्ययनों में वंचितों व झारखण्ड की असुर जनजाति को चंडी, सूर्य, धरती माई का उपासक बताया गया है।

प्रश्न उठता है कि वनवासी, वंचित वर्ग, जनजाति समाज क्यों इस तरह षड्यंत्र का शिकार हो जाता है? इसका उत्तर है कि आजादी के छह दशक से अधिक का समय बीतने के बाद भी विदेशी आक्रमणों के कारण सदियों से उपेक्षित व प्रताडि़त इन वर्गों के इतिहास लेखन का कार्य हुआ ही नहीं है। एतिहासिक पहचान न होने से हिंदू समाज के इस वर्ग में खालीपन पैदा हो गया है जिसे अब वामपंथी व चर्च अपने तरीके से भरना चाहते हैं और हर तरीके से हिंदू समाज का मतांतरण करने को बाजिद चर्च इस क्षेत्र में अपना खेल खेल रहा है। इतिहासकारों व विद्यार्थी वर्ग से आग्रह है कि वे दलित, वंचित समाज, पिछड़ा वर्ग, जनजाति समाज के तथ्यात्मक इतिहास लेखन का कार्य करे। यह समय की मांग है और इससे बड़ी समाज व धर्म की कोई सेवा हो नहीं सकती। 

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 09779-14324

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