Sunday, 23 February 2020

स्वच्छता अभियान के प्रणेता संत गाडगे बाबा

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स्वच्छता अभियान और सामाजिक समरसता को अपने जीवन का आधार बना लेने वाले बाबा गाडगे का जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेठगाँव में 23 फ़रवरी 1876 को हुआ । हालांकि संतों -महात्माओं की जाति को कभी भी भारत में नहीं पूछा गया है “जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान” की परम्परा भारत की सदैव से रही हैं, इसीलिए बाबा के भक्तों में सभी वर्गों के लोग थे।  गाडगे बाबा बाल्यकाल से ही समाजिक जीवन में घटित हो रही घटनाओं को बहुत बारीकी से देखते थे, बचपन में बकरी चराने जाते तो कहीं-कहीं बैठ कर अपने सारे साथियों को कितना ही ज्ञान दे जाते इसका उनका भी भान न होता था ।
दलित - पिछड़ा समाज और विशेषत: धोबी-समाज में व्याप्त धार्मिक कर्मकांड आदि की प्रवृति का अधिक प्रचलन था जिस कारण आर्थिक रूप से अन्य पिछड़ी-दलित जातियों की तुलना में ये अधिक सम्पन्न होने के बावजूद भी ये अधिक दयनीय स्थिति में रहने को मजबूर थे। बच्चे के जन्म से लेकर अपने वृद्धों के मृत्यु संस्कार तक जाति-भोज और दान - दक्षिणा देने में ही उनकी बहुत सी संपत्ति का वो नुक़सान कर लेते थे और गांव के साहूकारों के क़र्ज़दार भी बन जाते थे । इन सब से मुक्ति की आवाज़ को बुलंद करने का कार्य बाबा गाडगे ने किया, लोगों में विद्यमान शराब और तमाम बुरे व्यस्नों से मुक्ति की बात बाबा ने की, क्योंकि शराब पीने के कारण से उनके पिता की मृत्यु भी हुई थी जिस कारण उनको अपने मामा के यह रहना पड़ा। बाबा पढ़े - लिखे नहीं थे परंतु शिक्षा के महत्व को वो बख़ूबी जानते थे इसीलिए समाज में सभी पढ़े इसके लिए उन्होंने 24 शिक्षण संस्थाए और 14 छात्रावासों का निर्माण कराया । उनके परिनिर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने 12 विद्यालयों और 12 छात्रावासों का निर्माण किया। संत गाडगे का बाबा साहब भीमराव राम जी आंबेडकर जी के प्रति बहुत प्रेम था इसी का परिणाम था की वे अपने सारे शिक्षण संस्थानों की देख रेख उनके के कंधे पर सौंप देते थे । बाबा का डॉ. आंबेडकर से और उनके आंदोलनों से बड़ा लगाव था इसी का परिणाम था की वो उन्हें समय-समय पर आंदोलन के लिए सहायता करते थे। वह आध्यात्मिक पुरुष थे उनकी ज़ुबान पर सदैव “गोपाला ,गोपाला” रहता था परंतु वे “थोथे आडंबरवाद” कतई पक्षधर न थे । बाबा गाडगे ही थे जिन्होंने बाबा साहब आंबेडकर को “केलाराम मंदिर प्रवेश” के आंदोलन को चलाने की बात की थी ये गाडगे ही थे जिन्होंने कहा की आंबेडकर अगर आप “पंथ” परिवर्तन करना ही चाहते हो तो ऐसा पंथ ,धर्म स्वीकार करना जो देशज हो उसकी जड़ें भारत में विद्यमान हो इसी का परिणाम था । बाबा साहेब ने बौद्ध मत को स्वीकार किया जो हिंदू सनातन धर्म का ही एक हिस्सा है। बाबा इस बात को जानते थे की वंचित समाज का हिंदू आस्थाओं में अटूट विश्वास है।
महाराष्ट्र में विट्ठल भगवान का बड़ा दार्शनिक देवस्थान हैं सभी वहां जाते हैं वंचित भी पैदल चल कर “परिक्रमा” कर के भगवान विट्ठल के दर्शन हेतु जाते थे , परंतु उनके रुकने खाने - नहाने के लिए कोई धर्मशाला वहां नहीं थी जिसमें ये वे रूक सकें इस कारण उनको बारिश और ठंड में भी बाहर खुले में ही रहना पड़ता था। बाबा ने तमाम देवस्थानों के समीप धर्मशालाओं का निर्माण कराया । गाडगे बाबा इन धर्मशालाओं में किसी प्रकार के भेद की अनुमति नहीं देते थे ये सभी के लिए थे। बाबा ने अपने सम्पूर्ण जीवन में सूचिता, स्वच्छता, शिक्षा आदि की बात की, बाबा अपने सामाजिक कार्यक्रमों से पूर्व सुबह ही उस क्षेत्र की सफ़ाई स्वयं करते थे ये सब देख अन्य समाज में लोग भी उनके इस अभियान के साथ जुड़ जाते थे । बाबा स्वच्छता को व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा मानते थे। बाबा के स्वच्छता के अभियान और उनके मनोभाव को पूर्ण करने हेतु 2000-01 में महाराष्ट्र सरकार ने उनके सम्मान में “संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” प्रारंभ किया, इसके साथ ही 26 जनवरी की राजपथ परेड में गाडगे जी झांकी भी निकली गई ।
बाबा ने अपने पूरे जीवन में स्वच्छता और सामाजिक समरसता को लेकर काम किया सामाजिक समरसता का विचार समाज में नियम बनाने वाले सवर्ण समाज के व्यवहार और आचरण में बदलाव के साथ जुड़ा था इसी को ठीक करने का प्रयास बाबा अपनी सभाओं में करते थे सामूहिक भोज अथवा सहभोज आदि की बात बाबा करते थे और इनका आयोजन भी बिना प्रत्यक्ष लड़ाई से समाज का मन बदले और समाज में समरसता आए इसकी बात बाबा ने सदेव की हैं । सभी समाजों में सम्पर्क, संवाद और नितांत बंधुत्व भाव का निर्माण ये ही बाबा का मुख्य विचार था ।

Wednesday, 19 February 2020

शिवरात्रि का सन्देश, सन्युक्त परिवार व समरस समाज



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने हाल ही में एक जगह अपने प्रबोधन में कहा है कि शिक्षित समाज में तलाक की प्रवृति अधिक देखने को मिल रही है। हमारी शिक्षा पद्धति समाज को स्वावलम्बी तो बना रही है परन्तु कहीं न कहीं घरों में प्रेम, सहिष्णुता, सहनशीलता और समरसता खोती जा रही है। हाल ही में एक समाचार सुनने को मिला कि शादी के तीसरे दिन ही पति-पत्नी में तलाक हो गया। कारण बताया कि नवब्याहताओं को एक-दूसरे की आदतें पसन्द नहीं आईं। दोनों के निजी अहं इतने भारी पड़ गए कि सात दिनों का रिश्ता सात दिन भी नहीं चल पाया। सन्तान द्वारा वृद्ध माता-पिता के साथ दुर्रव्यवहार की घटनाएं आज किसी को चौंकाती नहीं, क्योंकि ये घर-घर की कहानी हो चुकी। अभी चण्डीगढ़ में एक महिला ने प्रेम सम्बन्धों में अन्धी हो कर अपने दो दूधमुंहे बच्चों की हत्या कर दी। माता भी कुमाता हो गई। सामाजिक स्तर पर भी देखने को मिलता है कि जातिवाद व छूआछूत के चलते किस तरह अत्याचारों की घटनाएं देखने,सुनने व पढऩे को मिलती रहती हैं। आज महाशिवरात्रि है जो सन्देश देती है कि हम किस तरह परिवार, हमारे परिवार किस तरह मोहल्ले व मोहल्ले किस भान्ति नगर और देश-प्रदेश के साथ मिलजुल कर रह सकते हैं।

बहुत शिक्षाप्रद है भगवान शिव का परिवार। परिवार में जितने सदस्य उतनी रुचियां, सभी की अलग-अलग प्रकृति, विभिन्न प्रकार के व्यवहार परन्तु इनके बावजूद सभी का एक छत के नीचे रहना समाज को बहुत कुछ सिखाता है। देखें तो शिव परिवार में शामिल हैं माँ पार्वती, विनायक जी, भगवान कार्तिकेय, शिव के गले में फनियर नाग, जटा में गंगा व चन्द्रदेव, गणेश जी का वाहन मूषक, कार्तिकेय का वाहन म्यूर, शिव का वाहन नन्दी, पार्वती का वाहन सिंह। इनमें प्राकृतिक रूप से सांप दुश्मन है चूहे का तो मोर की शत्रुता है भुजंग से। इसी तरह सिंह का आहार है बैल, तो शिव की जटा में अग्निपुंज चन्द्रदेव व गंगा विभिन्न तासीर के हैं। इतने विरोधाभास के बाद भी सभी न केवल एक परिवार के सदस्य हैं बल्कि कभी सुनने में नहीं आया कि इस परिवार में कभी फूट पड़ी हो। एक दूसरे के दुश्मन होते हुए आपस में मिलजुल कर रहते हैं। परिवार में रहन-सहन और खानपान में काफी विषमता होने के बावजूद भी सभी प्रेम, एकता और भाईचारे की भावना से रहते हैं। सामाजिक तौर पर देखें तो परिवारों में भी यह जरूरी है अलग-अलग विचारों, अभिरूचियों, स्वाभावों के बावजूद हम लोग हिलमिल कर रहें अपनी सोच दूसरों पर न थोपी जाये और सबसे खास बात यह कि मुखिया और अन्य बड़े सदस्यों के गले में गरल थामें रखने का धीरज और सबको साथ लेकर चलने की आदत हो तभी संयुक्त परिवार चल सकते हैं। शिव परिवार के विभिन्न विचारों वाले मोतियों को एक माला में पिरोते हैं भगवान शिव जैसे मजबूत सूत्रधार। शिव जिनकी अपनी निजी महत्त्वाकांक्षा नहीं, परिवार की रुचि ही उनको मन भाती है। वो दूसरे के लिए विष पीने को तैयार हैं, स्वभाव इतना सरल कि भस्मासुर तक को वरदान दे दे और क्रोध इतना कि तीसरा नेत्र खोले तो तीन लोक भस्मीभूत हो जाएं। शिव अपने परिवार के सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवाते हैं परन्तु खुद मृगचरम में जीवन व्यतीत करते, रूखा-सूखा खा कर गुजारा करते हैं। मीठे फल परिवार को और भांग, धतूरा व आक का सेवन खुद करते हैं। परिवार के सदस्यों की इतनी चिन्ता की अपनी शादी में रूठ जाने पर नन्दी बैल की भी लिलावरी करते दिखते हैं। परिवार के मुखिया को शिव की भान्ति जीवन जीने की कला आनी चाहिए। वह अपने परिवार की इच्छा पर अपनी इच्छा हावी न होने दे, संकट आए तो उससे निपटने को तैयार रहे और सभी की सुने-माने परन्तु व्यवहार धर्मानुसार करे।

शिव परिवार हमारे परिवार तक ही सीमित नहीं होना चाहिए वरन हमारे देश में विभिन्न धर्मों, पन्थों, सम्प्रदायों, जाति और विविधताओं के बीच एकता व सन्तुलन शिव परिवार की तरह जरूरी है। समाज में अलग-अलग आस्थाओं, विभिन्न रुचियों, स्वभाव, गुण-दोष के लोग निवास करते हैं। हमें किसी पर अपनी मर्जी या विचार थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिए बल्कि इन विविधताओं को प्रेम के धागे में पिरो कर एक ऐसे कण्ठाहार का निर्माण करना चाहिए जो देश व समाज की शोभा बढ़ाए। सर्वमान्य और सर्वोचित निर्णय ठण्डे दिमाग से ही लिये जा सकते हैं, यह शिव परिवार बताता है। महाशिव के मस्तक पर चन्द्रमा और गंगा का होना इस बात का संकेत है कि मस्तिष्क को सदा शीतल रखो। चन्द्रमा और गंगाजल दोनों में असीम शीतलता है। घर हमेशां ठण्डे दिमाग से ही चलते हैं। गणेश जी के शरीर से बड़ा सिर बताता है कि शक्ति से बुद्धि बड़ी, उनके बड़े कान कहते हैं कि सुनने की शक्ति विकसित करो।

सन्युक्त परिवार भारतीय संस्कृति के आधार हैं। संस्कृति का विकास पुस्तकें पढऩे या शिक्षा के पाठ्यक्रमों से नहीं बल्कि परिवारों में होता है। बच्चे को जीवन जीने का ढंग दादा-दादी की वह सरल-सुन्दर कहानियां सिखाती हैं जो रात के समय एक ही खाट पर सोते हुए सुनाई जाती हैं। होली-दीवाली के दिन घर में होने वाली चहल-पहल व पकने वाले पकवान, होने वाले पूजा-पाठ को देख कर बच्चे रामायण व महाभारत की कथाएं कब कण्ठस्थ कर जाते हैं पता भी नहीं चलता। परिवार ही वह जगह है जहां व्यक्ति को जीवन जीने की हर सुविधा, अवसर व साधन मिलते हैं। हमारे समाज में जो सामाजिक आचार-विहार प्रचलित है, जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं वह संयुक्त परिवारों की ही देन है।

आजकल महंगाई व आर्थिक परेशानी का रोना लगभग हर परिवार में रोया जाता है परन्तु भारतीय अर्थशास्त्र कहता है कि सन्युक्त परिवार में रह कर हम इन परेशानियों से आसानी से पार पा सकते हैं। अकसर कहा जाता है कि चाहे चार व्यक्तियों की खाना बने या छह का रसोई का खर्च लगभग वही रहता है परन्तु अगर छह लोगों की अलग-अलग रसोई चले तो कुल मिला कर खर्च डेढ़ से दो गुना तक हो जाता है। सन्युक्त परिवारों में देखने में आता है कि परिवार का कोई सदस्य इतना धन अर्जित नहीं कर पाता जितना कि दूसरे परन्तु सांझे चूल्हे के चलते उसके बच्चे भी पल जाते हैं और उसका जीवन आसानी से कट  जाता है। ऐसे परिवार में महिलाएं व बच्चे भी एकल व बिखरे परिवारों की तुलना में अधिक सुरक्षा महसूस करते हैं। मानव को भावनात्मक सुरक्षा भी सांझे परिवारों में ही मिलती है। एकल परिवारों में जहां कामकाजी माओं के बच्चे मातृत्व प्रेम से अतृप्त रह जाते हैं वहीं सांझे परिवार में बूआ-दादी, चाची-ताई के रूप में बच्चे को एक से अधिक माओं का प्यार नसीब होता है।

इन सब बातों के इतर यह भी व्यहारिक बात भी है कि परिवार बढ़ जाने पर इन्सान क्या करे ? तो सरल तरीका है कि परिवार का विस्तार हो। ज्ञात रहे कि विभाजन व विस्तार ऊपर से चाहे एक दिखें परन्तु इनमें जमीन आसमान का अन्तर है। यह व्यवहारिक है कि परिवार में दूसरी या तीसरी पीढ़ी का एकसाथ रहना मुश्किल हो जाता है और निवास के साथ-साथ व्यवसाय की दृष्टि से भी अलग सोचना पड़ता है परन्तु यह काम प्रेम व स्नेह के आधार पर हो न कि झगड़े के। झगड़ा कर परिवार से अलग होना विभाजन है और प्रेम से विलग होना विस्तार। विभाजन परिवार में ही दुश्मनी के बीज बोता है और विस्तार के बाद अलग होने के बाद भी उस परिवार के सदस्यों में एकात्मता बनी रहती है। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि जहां प्यार है वहीं सुख-शान्ति है और जहां शान्ति है वहीं समृद्धि। इसी तरह सन्युक्त परिवार हमारी उन्नति और हमारा विकास समाज के विकास और इसी तरह समाज का उत्थान देश के ऊंचा उठने से जुड़ा है। शिवरात्रि आपके परिवार में एकता, प्रेम, स्नेह, त्याग की भावना का संचार करे और आपका कुटुम्ब समाज व देश की उन्नति का पथप्रदर्शक बने इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, हर-हर महादेव।
- राकेश सैन
सम्पर्क - 77106-55605

Monday, 17 February 2020

एमपी के बाद पंजाब कांग्रेस में यादवी घमासान



मध्य प्रदेश के बाद अब पंजाब में भी यादवी संघर्ष की शिकार होती नजर आने लगी है। मध्य प्रदेश में मुख्यमन्त्री श्री कमल नाथ के खिलाफ जहां सिंधिया राजघराने के चश्मोचिराग ने दुंदुभी बजा रखी है तो पंजाब में पटियाला शाही खानदान के कुंवर साहिब को अपने ही सिपहसालार से चुनौती मिली है। पंजाब में चल रही कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार के खिलाफ कांग्रेस के ही विधायक व भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान स. परगट सिंह ने चेकपोस्ट तोडऩे की तीव्रता वाला गोल दाग दिया। स. परगट सिंह ने शराब और खनन माफिया का मुद्दा उठाते हुए अपनी ही सरकार पर धावा बोला है। उन्होंने कांग्रेस सरकार की नाकामियों को खुले तौर पर उजागर करते हुए न सिर्फ मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को जानकारी दी, बल्कि उन्हें चुनावी घोषणापत्र में जनता से किए वादे भी याद दिलाए। उन्होंने कैप्टन को भेजे पत्र की एक प्रति कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी भेजी है। वहीं, परगट सिंह का कहना है कि उनके द्वारा मुख्यमन्त्री और पार्टी अध्यक्ष को भेजा गया पत्र पार्टी का अन्दरूनी मामला है। यह पत्र भी आन्तरिक ही था, लेकिन यह किसी तरह मीडिया में लीक हो गया है या कह दें कि कर दिया गया। परगट सिंह ने मुख्यमन्त्री को भेजे पत्र में लिखा है कि वे दिसम्बर 2019 में भी पत्र लिख चुके हैं। उसमें उन्होंने उस समय भी नशे के खिलाफ राज्य सरकार की विफलता का मामला उठाया था। दूसरी ओर पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ व मुख्यमन्त्री के बीच मनमुटाव एक बार फिर उजागर हो गए हैं।

अपने नए पत्र में परगट सिंह ने कहा है कि सरकार राज्य में शराब और खनन माफिया पर लगाम कसने में असफल रही है। माफिया राज ठीक उसी तरह चल रहा है, जैसे पहले चल रहा था। राज्य में भ्रष्टाचार पर भी अन्कुश नहीं लगाया जा सका। उन्होंने कैप्टन को चुनाव घोषणापत्र में जनता के किए वादों की याद भी दिलाई और कहा कि जनता से किए वादे पूरे नहीं हो सके हैं। विधायक परगट सिंह द्वारा अपनी सरकार पर लगाए गए आरोप अप्रत्याशित भी नहीं हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में तलवन्डी साबो में प्रचार अभियान के दौरान कैप्टन अमरिन्दर सिंह गुटका साहिब (धर्मग्रन्थ) की सौगन्ध लेते हुए सरकार आने पर चार सप्ताह के भीतर राज्य से नशा, भ्रष्टाचार, अवैध खनन माफिया, शराब माफिया को पूरी तरह समाप्त करने का संकल्प लिया था परन्तु उनके वायदों का परिणाम क्या निकला उसका पटाक्षेप खुद उनके ही सहयोगी कर रहे हैं।

मुख्यमन्त्री की नीतियों का खुला विरोध करने व सरकार पर जनता की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने का आरोप लगाने वाले स. परगट सिंह कांग्रेस के पहले विधायक नहीं हैं। उनसे पहले स. सुरजीत धीमान, स. रणदीप सिंह, स. निर्मल सिंह, स. हरदयाल कंबोज, श्री मदन लाल जलालपुर, स. राजिन्दर सिंह और यूथ कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे विधायक स. राजा वडिंग़ भी सरकार के कामकाज पर सवाल उठा चुके हैं। वैसे स. परगट सिंह को पूर्व मंत्री स. नवजोत सिंह सिद्धू का करीबी साथी माना जाता है। सिद्धू बीते साल जुलाई में कैप्टन अमरिन्दर सिंह के मनमुटाव के चलते मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे चुके हैं। केवल इतना ही नहीं राज्यसभा सदस्य व पूर्व पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष स. प्रताप सिंह बाजवा सार्वजनिक तौर पर कैप्टन अमरिन्दर सिंह को हटाने की मांग कर चुके हैं।
तथ्यों का सिंहावलोकन किया जाए तो कांग्रेस सरकार की असफलताओं को लेकर स. परगट सिंह की स्वीकारोक्ति गलत भी नजर नहीं आरही। राज्य में राजस्व बढ़ाने के लिए वित्तमन्त्री स. मनप्रीत सिंह बादल के पास कोई सुदृढ़ योजना दिखाई नहीं दे रही। राज्य में सरकारी भर्तियों पर अघोषित रोक लगी है। देश में शराब की खपत में पंजाब पहले स्थान पर है परन्तु इससे प्राप्त होने वाला राजस्व पिछले तीन सालों में 5 हजार करोड़ से आगे बढ़ नहीं पाया है। एक अनुमान के अनुसार, कराधान की चोरी के चलते ही राज्य को हर साल 1200 करोड़ का नुक्सान उठाना पड़ रहा है। कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने सरकार में आने से पूर्व निगम बना कर शराब के व्यवसाय को नियन्त्रित करने का वायदा किया था परन्तु इस दिशा में कुछ नहीं किया गया। भारत का अन्न का कटोरा कहलाने वाला पंजाब पिछले काफी समय से कृषि संकट से दोचार होता आरहा है। पिछले 17 सालों में 11659 किसानों द्वारा की गई आत्महत्या का आंकड़ा अपने आप में यह बताने में सक्षम है कि यहां कृषि व कृषक कहां खड़ा है। कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आने से पहले किसानों का सारा ऋण माफ करने का वायदा किया था परन्तु माफी के नाम पर केवल 5000 करोड़ ही किसानों को मिला। किसान ठगा सा महसूस कर निरन्तर परेशानियों में घिरता जा रहा है।

राज्य में खनन माफिया का अंकुश लगाने का दावा करने वाली कैप्टन सरकार ने सत्ता में आने के बाद राज्य को 7 क्षेत्रों में विभक्त किया और 600 करोड़ रूपये राजस्व का लक्ष्य निर्धारित किया। आज सच्चाई यह है कि राज्य में खनन न केवल पहले की तरह बरकरार है बल्कि सुरसा के मुंह की भान्ति बढ़ता जा रहा है और सरकार एक सौ करोड़ का राजस्व भी नहीं जुटा पाई। खनन नीति की तरह परिवहन नीति, केबल अंतरताना नीति भी किसी तरह सफल नहीं हो पाई। भ्रष्टाचार यथावत जारी है और लोगों को सड़क, पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं से दो चार होना पड़ रहा है। विगत अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल के दौरान राज्य में मूलभूत ढांचागत विकास की गति भी मधम पड़ चुकी है।
राज्य की विगत शिअद-भाजपा गठजोड़ के नेतृत्व वाली स. प्रकाश सिंह बादल सरकार के खिलाफ नशा और राज्य में हुई धार्मिक ग्रन्थों से बेअदबियों की मुद्दे पर सत्ता में आई कांग्रेस सरकार इन मोर्चों पर शून्य प्रदर्शन ही कर पाई है। अभी तक बेअदबी की घटनाओं की सच्चाई सामने नहीं आपाई और नशे का तो हाल यह है कि 'उड़ता पंजाब' अब लोटपोट होता भी नजर आने लगा है। नशे पर रोक के नाम पर शुरूआत में कांग्रेस सरकार ने कुछ करने का प्रयास किया परन्तु कैप्टन सरकार की सारी बहादुरी छोटे-मोटे नशेडिय़ों को पकडऩे में ही खप गई। नशे के तालाब के मगर आज भी खुले में विचरन करते दिख रहे हैं।

पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह पर पहले भी यह आरोप लगते रहे हैं कि उनका जनसाधारण तो दूर अपने विधायकों के भी सीधा सम्पर्क नहीं है। यहां तक कि राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष तक को वे मिलने का समय तक नहीं देते। राज्य में विद्युत उत्पादन कंपनियों के साथ हुए समझौतों व ताप विद्युतगृहों को लेकर पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ ने 9 फरवरी को तलवन्डी साबो जिला बठिण्डा के वनांवाली गांव जाकर लोगों की समस्याएं सुनीं। उन्होंने लोगों को विश्वास दिलवाया कि वे लोगों की समस्याओं को मुख्यमन्त्री तक पहुंचाएंगे। उन्होंने इसके लिए मुख्यमन्त्री कार्यालय से मिलने का समय मांगा परन्तु तीन दिन बीत जाने के बाद भी कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपने प्रदेशाध्यक्ष को दर्शन देना उचित नहीं समझा। राजनीति के जानकार बताते हैं कि कांग्रेस सरकार महंगी बिजली के मोर्चे पर निरन्तर घिरती जा रही है। इसको लेकर कांग्रेस अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ भी कई उन अधिकारियों पर नजला झाड़ चुके हैं जो मुख्यमन्त्री के नजदीकी माने जाते हैं। सम्भव है कि इन चहेते दरबारियों पर हुए चौधरी सुनील कुमार जाखड़ के शाब्दिक हमलों ने मुख्यमन्त्री को कुछ ज्यादा ही विचलित कर दिया हो और उन्होंने इसका बदला अपने चिरपरिचत अन्दाज में ले लिया। फिलहाल इस घटना को लेकर पंजाब प्रदेश कांग्रेस में खूब चर्चा का दौर जारी है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
ग्राम व डाकखाना लिदड़ां
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

Wednesday, 12 February 2020

AAP Victory will be lead to appeasement policy

'आप' की जीत तुष्टिकरण का पुन: गर्भाधान

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में शानदार तरीके से जीत प्राप्त की है। चुनाव परिणामों के विश्लेषणों में कोई इसे कोई विकास तो कोई कुशल रणनीति की सफलता बता रहा है, परन्तु विजयोल्लास में लोकतन्त्र के सम्मुख फिर से खड़े हुए तुष्टिकरण की राजनीति के उस खतरे की या तो अनदेखी की जा रही है या उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया, जिसे देश में 2014 के बाद मरा हुआ समझ लिया गया। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में जिस तरीके से एक समुदाय विशेष ने खुद को संकुचित कछुए की भान्ति भाजपा विरोध की धुरी पर समेट लिया उससे आशंका बलवति हो गई है कि इससे देश में अल्पसंख्क तुष्टिकरण की राजनीति का नए सिरे से गर्भाधान हो सकता है। विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक भाषण में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के प्रतीक बने शाहीन बाग को संयोग नहीं बल्कि प्रयोग बताया था और उसी का दुष्परिणाम हो सकता है अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति का पुनर्जन्म।

विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि शाहीन बाग से भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। जिस तरह से मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी को छप्परफाड़ जीत मिली है, उससे साफ है कि अल्पसंख्यक वर्ग धर्म के नाम पर एकजुट हुआ है। मुस्लिम बहुल सात सीटों पर 'आप' का आंकड़ा देखेंगे तो किसी भी सीट पर उसे 50-52 प्रतिशत से कम मत नहीं मिले। इनमें ओखला में 'आप' को 74.1 प्रतिशत, मटियामहल में 75.96, चान्दनी चौक में 65.92, बाबरपुर में 59.39, बल्लीमारान  64.65, सीलमपुर में 56.05 और मुस्तफाबाद में 53.2 प्रतिशत मत मिले हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक -2019 के विरोध में जिस तरह से भ्रमित हो अल्पसंख्यक समाज पूरे देश में सड़कों पर उतरा उससे इन चुनाव परिणामों को इस समाज की राष्ट्रव्यापी सोच का नमूना कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
भारतीय जनता पार्टी व हिन्दुत्व-विरोधी ताकतों ने 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से जो भी चुनाव हुए, उनके परिणामों को केवल और केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की। यही कारण है कि मोहल्ला या ग्राम या वार्ड स्तर पर भी अगर कहीं भाजपा हारती है तो इसको राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व की पराजय बताया जाने लगता है। भाजपा की हर शिकस्त को राष्ट्रवादी विचारधारा, नेतृत्व और संगठन की पराजय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती रही है। यही दिल्ली के जनादेश आने के बाद हो रहा दिखता है। राजनीति में कई दशकों का आधिपत्य तोड़कर भाजपा ने जब से अपनी विचारधारा और संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया, तभी से हाशिये की ताकतें एकजुटता के साथ इसकी हर विफलता को अपनी सफलता बताने की कोशिश करती रही है। ये वहीं ताकते हैं जो राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाने को उत्सुक रहती हैं। अतीत की भान्ति कल को यही मानसिकता एकजुट हुए अल्पसंख्यक समाज को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देती दिखाई दे सकती है।
तुष्टिकरण की राजनीति के चलते देश ने क्या खोया और हमें कितना नुक्सान हुआ उसका शायद ही कभी अनुमान लगाया जा सके। असल में तुष्टिकरण की राजनीति वह आग है जिसे बुझाने के लिए डाला गया पानी घी का काम करता है। देश में मुस्लिम लीग के जन्म के साथ ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की परम्परा शुरू हो गई। अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए उनकी जितनी उचित-अनुचित बातें मानी जाती उनकी ख्वाहिशों की सूची और सुरसा के मुंह की भान्ति और बड़ी होती जाती। विभाजन से पूर्व कोई मांग पूरी होने पर मुस्लिम लीगी अकसर कहते थे कि 'ये उनकी 'लीस्ट' डिमाण्ड है 'लास्ट' नहीं, लेकिन हमारा नेतृत्व निरन्तर उनके समक्ष झुकता जाता। इस खतरनाक प्रवृति का परिणाम यह हुआ कि छोटी-छोटी चीजें व सुविधाएं मांगते-मांगते मुस्लिम लीग ने एक दिन बंटवारा मांग लिया और अपनी लाश पर पाकिस्तान बनने का दम्भ भरने वाले भारतीय कर्णाधारों ने देश का एक अभिन्न हिस्सा थाली में रख कर इन लीगियों को सौंप दिया। इतना होने के बाद भी दुर्भाग्यवश या कह लें कि सत्ता के लोभवश परन्तु विभाजन के बाद भी तुष्टिकरण के रोग का उपचार नहीं हो पाया बल्कि खाज से कोढ़ और आगे बढ़ता-बढ़ता नासूर का रूप धारण कर गया। अयोध्या में राम मन्दिर का अन्ध विरोध, शाहबानो प्रकरण, तीन तलाक जैसी सामाजिक कुरीतियों की बेशर्म वकालत, घुसपैठियों को संरक्षण, हिन्दू आतंकवाद के मनगढ़न्त जुमले, एक वर्ग विशेष के खुराफाती लोगों की धमाचौकड़ी की अनदेखी, सन्विधान की भावना के विपरीत अल्पसंख्यक आरक्षण की बार-बार की जाने वाली कोशिशों सहित अनेक असंख्यों उदाहरण हैं जिनको तुष्टिकरण की राजनीति की श्रेणी में रखा जा सकता है।
असल में तुष्टिकरण की इस राजनीति से देश इतना उकता गया कि नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही 'सबका साथ-सबका विकास' का नारा दिया तो पूरे देश ने उसे हाथों हाथ लिया। तीन तलाक, रमा मन्दिर, जम्मू-कश्मीर में धारा 370, 35-ए का उन्मूलन, पड़ौस के इस्लामिक गणराज्यों पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने में छूट देने के आदि कदमों ने आशा जगाई थी कि देश की राजनीति अब राष्ट्रहित को सम्मुख रख कर चलना सीख लेगी। देश अभी तुष्टिकरण की शब्दावली भूलने का प्रयास कर ही रहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में भ्रमित हो भारतीय समाज के एक वर्ग ने जैसे अपने आप को लामबंद किया उससे एक बार पुन: आशंका हो गई है कि मृत समझे जाने वाली इस राजनीतिक बुराई का एक बार फिर से गर्भाधान हो गया है। इसके  खतरे से निपटने के लिए देश के समाज को सदैव अपने आँख-कान खुले रखने होंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां,
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

'आप' की जीत तुष्टिकरण का पुन: गर्भाधान

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में शानदार तरीके से जीत प्राप्त की है। चुनाव परिणामों के विश्लेषणों में कोई इसे कोई विकास तो कोई कुशल रणनीति की सफलता बता रहा है, परन्तु विजयोल्लास में लोकतन्त्र के सम्मुख फिर से खड़े हुए तुष्टिकरण की राजनीति के उस खतरे की या तो अनदेखी की जा रही है या उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया, जिसे देश में 2014 के बाद मरा हुआ समझ लिया गया। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में जिस तरीके से एक समुदाय विशेष ने खुद को संकुचित कछुए की भान्ति भाजपा विरोध की धुरी पर समेट लिया उससे आशंका बलवति हो गई है कि इससे देश में अल्पसंख्क तुष्टिकरण की राजनीति का नए सिरे से गर्भाधान हो सकता है। विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक भाषण में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के प्रतीक बने शाहीन बाग को संयोग नहीं बल्कि प्रयोग बताया था और उसी का दुष्परिणाम हो सकता है अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति का पुनर्जन्म।

विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि शाहीन बाग से भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। जिस तरह से मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी को छप्परफाड़ जीत मिली है, उससे साफ है कि अल्पसंख्यक वर्ग धर्म के नाम पर एकजुट हुआ है। मुस्लिम बहुल सात सीटों पर 'आप' का आंकड़ा देखेंगे तो किसी भी सीट पर उसे 50-52 प्रतिशत से कम मत नहीं मिले। इनमें ओखला में 'आप' को 74.1 प्रतिशत, मटियामहल में 75.96, चान्दनी चौक में 65.92, बाबरपुर में 59.39, बल्लीमारान  64.65, सीलमपुर में 56.05 और मुस्तफाबाद में 53.2 प्रतिशत मत मिले हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक -2019 के विरोध में जिस तरह से भ्रमित हो अल्पसंख्यक समाज पूरे देश में सड़कों पर उतरा उससे इन चुनाव परिणामों को इस समाज की राष्ट्रव्यापी सोच का नमूना कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगा।

भारतीय जनता पार्टी व हिन्दुत्व-विरोधी ताकतों ने 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से जो भी चुनाव हुए, उनके परिणामों को केवल और केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की। यही कारण है कि मोहल्ला या ग्राम या वार्ड स्तर पर भी अगर कहीं भाजपा हारती है तो इसको राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व की पराजय बताया जाने लगता है। भाजपा की हर शिकस्त को राष्ट्रवादी विचारधारा, नेतृत्व और संगठन की पराजय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती रही है। यही दिल्ली के जनादेश आने के बाद हो रहा दिखता है। राजनीति में कई दशकों का आधिपत्य तोड़कर भाजपा ने जब से अपनी विचारधारा और संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया, तभी से हाशिये की ताकतें एकजुटता के साथ इसकी हर विफलता को अपनी सफलता बताने की कोशिश करती रही है। ये वहीं ताकते हैं जो राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाने को उत्सुक रहती हैं। अतीत की भान्ति कल को यही मानसिकता एकजुट हुए अल्पसंख्यक समाज को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देती दिखाई दे सकती है।

तुष्टिकरण की राजनीति के चलते देश ने क्या खोया और हमें कितना नुक्सान हुआ उसका शायद ही कभी अनुमान लगाया जा सके। असल में तुष्टिकरण की राजनीति वह आग है जिसे बुझाने के लिए डाला गया पानी घी का काम करता है। देश में मुस्लिम लीग के जन्म के साथ ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की परम्परा शुरू हो गई। अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए उनकी जितनी उचित-अनुचित बातें मानी जाती उनकी ख्वाहिशों की सूची और सुरसा के मुंह की भान्ति और बड़ी होती जाती। विभाजन से पूर्व कोई मांग पूरी होने पर मुस्लिम लीगी अकसर कहते थे कि 'ये उनकी 'लीस्ट' डिमाण्ड है 'लास्ट' नहीं', लेकिन हमारा नेतृत्व निरन्तर उनके समक्ष झुकता जाता। इस खतरनाक प्रवृति का परिणाम यह हुआ कि छोटी-छोटी चीजें व सुविधाएं मांगते-मांगते मुस्लिम लीग ने एक दिन बंटवारा मांग लिया और अपनी लाश पर पाकिस्तान बनने का दम्भ भरने वाले भारतीय कर्णाधारों ने देश का एक अभिन्न हिस्सा थाली में रख कर इन लीगियों को सौंप दिया। इतना होने के बाद भी दुर्भाग्यवश या कह लें कि सत्ता के लोभवश परन्तु विभाजन के बाद भी तुष्टिकरण के रोग का उपचार नहीं हो पाया बल्कि खाज से कोढ़ और आगे बढ़ता-बढ़ता नासूर का रूप धारण कर गया। अयोध्या में राम मन्दिर का अन्ध विरोध, शाहबानो प्रकरण, तीन तलाक जैसी सामाजिक कुरीतियों की बेशर्म वकालत, घुसपैठियों को संरक्षण, हिन्दू आतंकवाद के मनगढ़न्त जुमले, एक वर्ग विशेष के खुराफाती लोगों की धमाचौकड़ी की अनदेखी, सन्विधान की भावना के विपरीत अल्पसंख्यक आरक्षण की बार-बार की जाने वाली कोशिशों सहित अनेक असंख्यों उदाहरण हैं जिनको तुष्टिकरण की राजनीति की श्रेणी में रखा जा सकता है।

असल में तुष्टिकरण की इस राजनीति से देश इतना उकता गया कि नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही 'सबका साथ-सबका विकास' का नारा दिया तो पूरे देश ने उसे हाथों हाथ लिया। तीन तलाक, रमा मन्दिर, जम्मू-कश्मीर में धारा 370, 35-ए का उन्मूलन, पड़ौस के इस्लामिक गणराज्यों पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने में छूट देने के आदि कदमों ने आशा जगाई थी कि देश की राजनीति अब राष्ट्रहित को सम्मुख रख कर चलना सीख लेगी। देश अभी तुष्टिकरण की शब्दावली भूलने का प्रयास कर ही रहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में भ्रमित हो भारतीय समाज के एक वर्ग ने जैसे अपने आप को लामबंद किया उससे एक बार पुन: आशंका हो गई है कि मृत समझे जाने वाली इस राजनीतिक बुराई का एक बार फिर से गर्भाधान हो गया है। इसके  खतरे से निपटने के लिए देश के समाज को सदैव अपने आँख-कान खुले रखने होंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Friday, 7 February 2020

Corona Virus Vs Lailah Illilah

कोरोना वायरस बनाम 'ला इलाहा इल्लल्लाह'

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ किए जा रहे प्रदर्शनों में कुछ स्थानों पर 'पाकिस्तान से नाता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह' के मतान्ध नारे सुनने को मिले। दूसरी ओर चीन में फैले कोरोना वायरस  के बाद पूरी दुनिया के देशों ने अपने नागरिकों को वहां से निकालना शुरू कर दिया है, सिवाय पाकिस्तान के। पाकिस्तानी स्वास्थ्य मन्त्री का कहना है कि चीन उनका घनिष्ठ मित्र है और वे अपने छात्रों को वहां से निकाल कर दुनिया को ये सन्देश नहीं देना चाहते कि कोरोना वारयस के चलते चीन की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहा है कि चीन के वुहान नगर में फसे पाकिस्तानी विद्यार्थी वहां से निकलने को छटपटा रहे और उनके परिजन अपनों की कुशलता के लिए आतुर हो इमरान खान सरकार को कोस रहे हैं। इस घटना से पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोडऩे वाले मुट्ठीभर भारतीय मुसलमानों की आन्खें खुलनी चाहिएं कि जो देश अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं, अपने ही हमवतनों व हमधर्मियों को मौत के आगोश में तड़पता हुआ छोड़ देता है वो उनका कितना सगा हो सकता है? खुद चीनी सरकार ने स्वीकार किया है कि कोरोना वायरस उनके यहां महामारी का रूप धारण कर गया। वहां इस महामारी में मरने वालों की संख्या 636 हो गई। इस वायरस के अबतक कुल 31 हजार से अधिक मामले सामने आ चुके और गुरुवार 6 फरवरी को एक दिन में 73 लोगों की मौत हो गई। वायरस के प्रसार पर रोक लगाने के लिए दो दर्जन से ज्यादा विदेशी वायुसेवाओं ने चीन के लिए अपनी उड़ानें बन्द या सीमित कर दीं। कई देशों ने चीन से लगती अपनी सीमाएं भी सील कर दी हैं। इतना होने के बाद भी अगर पाकिस्तान मानता है कि चीन में स्थिति गम्भीर नहीं है तो उनके आकलन पर या तो अफसोस व्यक्त किया जा सकता है या इसे लापरवाही की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। फिलहाल पाकिस्तानी अभिभावक अपने बच्चों को लेकर चिन्तित हैं और वहां की सरकार के समक्ष भारत की अपने नागरिकों के प्रति सन्वदेनशीलता का उदाहरण रख रहे हैं। आश्चर्य है कि भारत के कुछ लोग उसी पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोडऩे को आतुर दिख रहे हैं जिसे अपने लोगों की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं। इस तरह के नारे लगाने वालों की यह गलती लगभग वैसी ही है जैसी कि पाकिस्तान के निर्माण के समय भारत छोड़ कर नई-नई इस्लामिक जन्नत में गए मुसलमानों ने की और आज दूसरी श्रेणी के नागरिक बन कर अपनी ऐतिहासिक गलती पर पछता रहे हैं।

भारत के मुसलमान ठीक ही गर्व से यह बात कहते हैं कि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्नाह के द्विराष्ट्र सिद्धान्त को नकारते हुए भारत को अपना वतन स्वीकार किया, लेकिन उन्हें इसका गर्व करने के साथ-साथ अल्लाह ताअला का धन्यवाद भी करना चाहिए कि वे धर्म के नाम पर बने उस देश में जाने से बच गए जहां भारत से गए मुसलमानों को आज भी मुहाजिर कहा जाता है। उर्दू के मुहाजिर शब्द का हिन्दी में अर्थ है, अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में निवास करने वाला। कहने का भाव कि पाकिस्तानी मुसलमान आज भी भारत से गए उत्तर प्रदेश व बिहारी मुसलमानों को स्वीकार करने को तैयार नहीं। ये लोग भारत में अपना सार घर-बार छोड़कर पाकिस्तान आए थे लेकिन पाकिस्तान में इन उर्दूभाषी लोगों को मुहाजिर कहा गया। ये जिस हालत में आए थे आज भी उसी हालत में कराची की मैली-कुचैली गलियों में जीवन बिता रहे हैं। लगभग 50 प्रतिशत मुहाजिर अत्यन्त गरीबी की हालात में सिन्ध व खास कर कराची में रहते हैं। 72 साल बीत जाने बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। गरीबी से जूझते ये लोग बड़ी संख्या में कराची के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कॉलोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी इलाकों में रहते हैं। साल 2001 के सरकारी आँकड़ों के अनुसार पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 16.5 करोड़ है जिसमें मुहाजिरों की संख्या लगभग आठ प्रतिशत है। पाकिस्तान में रह रहे पंजाबी मुसलमानों की प्रताडऩा झेलते-झेलते ये लोग इतने परेशान हैं कि पाकिस्तान से अलग होने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो रहे हैं। इन मुहाजिरों की मनोदशा व पीड़ा को मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने यूं अपने शब्दों में पिरोया है:-

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।।
कहानी का ये हिस्सा आजतक सबसे छुपाया है।
कि हम मिट्टी की खातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमजोर चाहत में।
पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आए हैं।।
अकीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी।
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है।
वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफा में याद आता है।
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं।।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे।
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।।
हमें सूरज की किरनें इसलिए तकलीफ देती हैं।
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं।।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मजहब।
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं।।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की।
किसी शायर ने लिखा था जो सेहरा छोड़ आए हैं।।

यह गजल केवल साहित्य की पंक्तियां भर नहीं बल्कि पछतावा है, पीड़ा और व्यथा है भारतीय मुसलमानों की उस पीढ़ी को जो अपनी जड़ों से कट कर1947 मेें पाकिस्तान से 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का रिश्ता जोड़ बैठी। इस तरह की भड़काऊ नारे लगाने वालों को स्मरण रहना चाहिए कि पूरी दुनिया में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां इस्लाम के सभी 72 फिरके एक साथ अमन से रहते और विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं अन्यथा यह सौभाग्य किसी इस्लामिक देश को भी प्राप्त नहीं है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां,
जालन्धर।
सम्पर्क :- 77106-55605

कोरोना वायरस बनाम 'ला इलाहा इल्लल्लाह'

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ किए जा रहे प्रदर्शनों में कुछ स्थानों पर 'पाकिस्तान से नाता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह' के मतान्ध नारे सुनने को मिले। दूसरी ओर चीन में फैले कोरोना वायरस  के बाद पूरी दुनिया के देशों ने अपने नागरिकों को वहां से निकालना शुरू कर दिया है, सिवाय पाकिस्तान के। पाकिस्तानी स्वास्थ्य मन्त्री का कहना है कि चीन उनका घनिष्ठ मित्र है और वे अपने छात्रों को वहां से निकाल कर दुनिया को ये सन्देश नहीं देना चाहते कि कोरोना वारयस के चलते चीन की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहा है कि चीन के वुहान नगर में फसे पाकिस्तानी विद्यार्थी वहां से निकलने को छटपटा रहे और उनके परिजन अपनों की कुशलता के लिए आतुर हो इमरान खान सरकार को कोस रहे हैं। इस घटना से पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोडऩे वाले मुट्ठीभर भारतीय मुसलमानों की आन्खें खुलनी चाहिएं कि जो देश अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं, अपने ही हमवतनों व हमधर्मियों को मौत के आगोश में तड़पता हुआ छोड़ देता है वो उनका कितना सगा हो सकता है? खुद चीनी सरकार ने स्वीकार किया है कि कोरोना वायरस उनके यहां महामारी का रूप धारण कर गया। वहां इस महामारी में मरने वालों की संख्या 636 हो गई। इस वायरस के अबतक कुल 31 हजार से अधिक मामले सामने आ चुके और गुरुवार 6 फरवरी को एक दिन में 73 लोगों की मौत हो गई। वायरस के प्रसार पर रोक लगाने के लिए दो दर्जन से ज्यादा विदेशी वायुसेवाओं ने चीन के लिए अपनी उड़ानें बन्द या सीमित कर दीं। कई देशों ने चीन से लगती अपनी सीमाएं भी सील कर दी हैं। इतना होने के बाद भी अगर पाकिस्तान मानता है कि चीन में स्थिति गम्भीर नहीं है तो उनके आकलन पर या तो अफसोस व्यक्त किया जा सकता है या इसे लापरवाही की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। फिलहाल पाकिस्तानी अभिभावक अपने बच्चों को लेकर चिन्तित हैं और वहां की सरकार के समक्ष भारत की अपने नागरिकों के प्रति सन्वदेनशीलता का उदाहरण रख रहे हैं। आश्चर्य है कि भारत के कुछ लोग उसी पाकिस्तान के साथ 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का नाता जोडऩे को आतुर दिख रहे हैं जिसे अपने लोगों की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं। इस तरह के नारे लगाने वालों की यह गलती लगभग वैसी ही है जैसी कि पाकिस्तान के निर्माण के समय भारत छोड़ कर नई-नई इस्लामिक जन्नत में गए मुसलमानों ने की और आज दूसरी श्रेणी के नागरिक बन कर अपनी ऐतिहासिक गलती पर पछता रहे हैं।

भारत के मुसलमान ठीक ही गर्व से यह बात कहते हैं कि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्नाह के द्विराष्ट्र सिद्धान्त को नकारते हुए भारत को अपना वतन स्वीकार किया, लेकिन उन्हें इसका गर्व करने के साथ-साथ अल्लाह ताअला का धन्यवाद भी करना चाहिए कि वे धर्म के नाम पर बने उस देश में जाने से बच गए जहां भारत से गए मुसलमानों को आज भी मुहाजिर कहा जाता है। उर्दू के मुहाजिर शब्द का हिन्दी में अर्थ है, अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में निवास करने वाला। कहने का भाव कि पाकिस्तानी मुसलमान आज भी भारत से गए उत्तर प्रदेश व बिहारी मुसलमानों को स्वीकार करने को तैयार नहीं। ये लोग भारत में अपना सार घर-बार छोड़कर पाकिस्तान आए थे लेकिन पाकिस्तान में इन उर्दूभाषी लोगों को मुहाजिर कहा गया। ये जिस हालत में आए थे आज भी उसी हालत में कराची की मैली-कुचैली गलियों में जीवन बिता रहे हैं। लगभग 50 प्रतिशत मुहाजिर अत्यन्त गरीबी की हालात में सिन्ध व खास कर कराची में रहते हैं। 72 साल बीत जाने बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। गरीबी से जूझते ये लोग बड़ी संख्या में कराची के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कॉलोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी इलाकों में रहते हैं। साल 2001 के सरकारी आँकड़ों के अनुसार पाकिस्तान की जनसंख्या लगभग 16.5 करोड़ है जिसमें मुहाजिरों की संख्या लगभग आठ प्रतिशत है। पाकिस्तान में रह रहे पंजाबी मुसलमानों की प्रताडऩा झेलते-झेलते ये लोग इतने परेशान हैं कि पाकिस्तान से अलग होने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो रहे हैं। इन मुहाजिरों की मनोदशा व पीड़ा को मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने यूं अपने शब्दों में पिरोया है:-

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।।
कहानी का ये हिस्सा आजतक सबसे छुपाया है।
कि हम मिट्टी की खातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमजोर चाहत में।
पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आए हैं।।
अकीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी।
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है।
वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफा में याद आता है।
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं।।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे।
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।।
हमें सूरज की किरनें इसलिए तकलीफ देती हैं।
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं।।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मजहब।
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं।।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की।
किसी शायर ने लिखा था जो सेहरा छोड़ आए हैं।।

यह गजल केवल साहित्य की पंक्तियां भर नहीं बल्कि पछतावा है, पीड़ा और व्यथा है भारतीय मुसलमानों की उस पीढ़ी को जो अपनी जड़ों से कट कर1947 मेें पाकिस्तान से 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का रिश्ता जोड़ बैठी। इस तरह की भड़काऊ नारे लगाने वालों को स्मरण रहना चाहिए कि पूरी दुनिया में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां इस्लाम के सभी 72 फिरके एक साथ अमन से रहते और विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं अन्यथा यह सौभाग्य किसी इस्लामिक देश को भी प्राप्त नहीं है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Wednesday, 5 February 2020

Brue Riyang, Church should Apologize

ब्रू-रियांग, चर्च को माफी मांगनी चाहिए

जलियांवाला बाग नरसन्हार के 100 वीं वर्षगांठ पर एंग्लिकन चर्च के सबसे वरिष्ठ पादरी और केन्टबरी के आर्चबिशप जस्टिन वेल्बी ने यहां हुए नरसन्हार के लिए माफी मांगी। कुछ समय पहले पोप फ्रान्सिस ने अमेरिका और लैटिन अमेरिका में अपनी यात्रा के दौरान उपनिवेश काल में अमेरिका में मूल निवासियों पर किए अत्याचारों में रोमन कैथोलिक चर्च की भूमिका के लिए माफी मांगी। उन्होंने कहा, कुछ लोगों की यह बात सही है कि पोप जब उपनिवेशवाद की बात करते हैं तो चर्च की करतूतों को नजरन्दाज कर देते हैं, लेकिन मैं बहुत खेदपूर्वक आप से कह रहा हूं कि ईश्वर के नाम पर अमेरिका के मूलनिवासियों के खिलाफ कई गम्भीर पाप किए गए। मैं विनम्रतापूर्वक माफी मांगता हूं। इससे पहले लैटिन अमेरिका के बोलिविया में भी पोप ने इसी तरह माफी मांगी थी। देश के उत्तर पूर्व में पिछले लगभग दो दशकों से अधिक समय से चली आरही ब्रू-रियांग की समस्या सुलझ गई। 16 जनवरी को नई दिल्ली में केंद्र सरकार, त्रिपुरा और मिजोरम सरकार तथा ब्रू-रियांग प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार लगभग 34000 ब्रू शरणार्थियों को त्रिपुरा में ही बसाया जाएगा। उन्हें सीधे सरकारी तन्त्र से जोड़कर राशन, यातायात, शिक्षा आदि की सुविधा प्रदान कर उनके पुनर्वास में सहायता प्रदान की जाएगी। इस समस्या के हल होने से देशवासियों विशेषकर कई सालों से निर्वासित हो कर राहत कैम्पों में जीवन व्यतीत कर रहे हजारों लोगों ने राहत की सांस ली है परन्तु प्रश्न पैदा होता है कि क्या चर्च कभी रियांग जनजाति पर हुए अत्याचारों के लिए माफी मांगेगा ? अगर चर्च सदाश्यता दिखाती है तो यह केवल उत्तर-पूर्व ही नहीं बल्कि देशभर में सामाजिक व साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने की दिशा में मीलपत्थर साबित होगी।
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के मूल निवासी वैष्णव रियांग समुदाय जो मुख्यत: त्रिपुरा, मिजोरम, असम तथा बांग्लादेश के चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र में रहते हैं धर्मांतरणवादी चर्च की नीतियों से पीडि़त रहे हैं। मिजोरम में इसाई मिजो बहुसंख्यक हैं अत: अपना सर्वाधिपत्य स्थापित करने के लिए सभी को ईसाई बनाना चाहते हैं। रियांग अपनी संस्कृति के उपासक तथा धर्म में अटूट विश्वास रखने वाले, अत: वे इसाईकरण के लिए तैयार नहीं हुए। दोनों की संस्कृति, भाषा, वेशभूषा तथा मान्यताओं में अंतर होने के कारण मिजो ने रियांग को ब्रू नाम दिया और यह जनधारणा विकसित की कि ब्रू यहाँ के मूल निवासी नहीं हंै। मिजोकरण, ईसाईकरण तथा चर्च प्रायोजित धर्मपरिवर्तन को स्वीकार न करने के कारण मिजो इनके खिलाफ रहते रहे हैं और दोनों में तनाव रहता है। सुनियोजित भेदभावपूर्ण नीति का प्रयोग कर रियांग लोगों को न केवल अलग-थलग कर दिया गया, बल्कि उन्हें जंगलों से लकड़ी व राशन से भी वंचित कर दिया और बच्चों को स्कूलों से बाहर रखा। मीजो के रूप में राज्य प्रायोजित हिन्सा का परिणाम यह रहा कि रियांग को मिजोरम से विस्थापित होकर त्रिपुरा तथा अन्य राज्यों में शिविरों में शरण लेनी पड़ी।
ब्रू और मिजो के बीच संघर्ष का पुराना इतिहास रहा है। 1990 के दशक में रियांग ने अपने ऐतिहासिक उत्पीडऩ और राजनीतिक बहिष्कार को व्यक्त करते हुए, अपनी तीन मांगे रखीं-ऑल इंडिया रेडियो आइजॉल में रियांग-ब्रू कार्यक्रम शामिल करना, सरकारी सेवाओं में आरक्षण व विधानसभा में प्रतिनिधियों का नामान्कन और रियांग-ब्रू के लिए एक स्वायत्त जिला परिषद् (एडीसी) का निर्माण, लेकिन एडीसी के लिए उनकी माँग अनसुनी हो गई। वर्ष 1995 में ब्रू समुदाय द्वारा स्वायत्त जिला परिषद् की माँग और चुनावों में भागीदारी के अन्य मुद्दों पर ब्रू और मिजो के बीच तनाव हो गया। सितम्बर 1997 में, ब्रू नैशनल यूनियन (बीएनयू) ने मिजोरम के पश्चिमी पट्टी में सन्विधान की छठी अनुसूची के अनुसार रियांग के लिए उसी स्वायत्त जिला परिषद् की माँग करने के लिए एक प्रस्ताव रखा। इसके खिलाफ मिजो की प्रतिक्रिया ने बड़े पैमाने पर हिन्सा को भड़का दिया। सरकार ने उनकी माँगों को दबाने के लिए उनके खिलाफ बड़े पैमाने पर हिन्सा की। मिजो, नौकरशाही, पुलिस और अन्य शक्तिशाली समूह रियांगों को स्थायी रूप से नष्ट करने को आतुर थे। आपसी झड़प के बाद 'यंग मिजो एसोसिएशन' तथा 'मिजो स्टूडेंट्स एसोसिएशन' ने यह माँग रखी कि ब्रू लोगों के नाम राज्य की मतदाता सूची से हटाए जाएं क्योंकि वे मूल रूप से मिजोरम के निवासी नहीं हैं। इसके बाद ब्रू समुदाय द्वारा समर्थित समूह ब्रू नेशनल लिब्रेशन फ्रन्ट तथा एक राजनीतिक संगठन के नेतृत्व में वर्ष 1997 में मिजो से हिन्सक संघर्ष हुआ। परिणामत: वर्ष 1997 में नस्ली तनाव के कारण ब्रू-रियांग समाज को मिजोरम छोड़कर त्रिपुरा में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा। इन शरणार्थियों को उत्तरी त्रिपुरा के कंचनपुर में अस्थायी कैम्पों में रखा गया था। उस समय लगभग 37000 ब्रू लोगों को मिजोरम छोडऩा पड़ा।
वर्ष 1997 में विस्थापित के बाद से ही भारत सरकार ब्रू-रियांग परिवारों के स्थायी पुनर्वास के प्रयास करती रही है, लेकिन समस्या का कोई हल नहीं निकला। 3 जुलाई, 2018 को ब्रू-रियांग समुदाय के प्रतिनिधियों, त्रिपुरा और मिजोरम की राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार के बीच इस समुदाय के पुनर्वास के लिये एक समझौता किया गया था, जिसके बाद ब्रू-रियांग परिवारों को दी जाने वाली सहायता में बढ़ोतरी की गई। इस समझौते के तहत 5260 ब्रू परिवारों के 32876 लोगों के लिए 435 करोड़ रुपए का राहत पैकेज दिया गया। बच्चों की पढ़ाई के लिये एकलव्य स्कूल भी प्रस्तावित किये गए। ब्रू परिवारों को मिजोरम में जाति एवं निवास प्रमाणपत्र के साथ वोट डालने का भी अधिकार दिया जाना था। इस समझौते के बाद वर्ष 2018-19 में 328 परिवारों के 1369 लोगों को त्रिपुरा से मिजोरम वापस लाया गया, परन्तु यह समझौता पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सका क्योंकि अधिकतर ब्रू परिवारों ने मिजोरम वापस जाने से इनकार कर दिया। लेकिन इस साल 16 जनवरी को ब्रू-रियांग समझौते ने दो दशकों पुराने शरणार्थी संकट को समाप्त कर दिया, जिसके कारण मिजोरम में 34000 से अधिक शरणार्थियों को मदद और राहत मिली है। मोदी सरकार ब्रू-रियांग परिवारों को पक्के निवास, सभी सरकारी सुविधाएं, मकान बनाने के लिए धनराशि व एक निर्धारित धनराशि सावधि के रूप में बैंकों में जमा करवाने जा रही है।
देश के उत्तर-पूर्व इलाकों में चर्च का जबरदस्त प्रभाव है और इस पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि वह गाहे-बगाहे वहां साम, दाम, दण्ड, भेद जैसे सभी तरह के तरीके अपना कर जनजातीय समाज का धर्मांतरण करवाती रही है। चर्च की धर्मांतरणवादी नीति के चलते ही ब्रू-रियांग जनजाति के हजारों लोगों को दो-अढ़ाई दशकों से अपने घरों से दूर अस्थाई शिविरों में रहना पड़ा। अब विस्थापितों के लिए घोषित समझौते से उन्हें भौतिक रूप से तो राहत मिली है परन्तु मानसिक रूप से तभी उनके जख्मों पर मरहम लगेगी जब चर्च अपनी गलती के लिए क्षमायाचना करे और भविष्य में ऐसी गलती से तौबा करे। चर्च अगर ऐसा कर पाती है तो सूर्योदय के इलाके पूर्वोत्तर में शांति व साम्प्रदायिक सौहार्द के नए युग की शुरुआत होगी।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपओ लिदड़ां,
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

ब्रू-रियांग, चर्च को माफी मांगनी चाहिए

जलियांवाला बाग नरसन्हार के 100 वीं वर्षगांठ पर एंग्लिकन चर्च के सबसे वरिष्ठ पादरी और केन्टबरी के आर्चबिशप जस्टिन वेल्बी ने यहां हुए नरसन्हार के लिए माफी मांगी। कुछ समय पहले पोप फ्रान्सिस ने अमेरिका और लैटिन अमेरिका में अपनी यात्रा के दौरान उपनिवेश काल में अमेरिका में मूल निवासियों पर किए अत्याचारों में रोमन कैथोलिक चर्च की भूमिका के लिए माफी मांगी। उन्होंने कहा, कुछ लोगों की यह बात सही है कि पोप जब उपनिवेशवाद की बात करते हैं तो चर्च की करतूतों को नजरन्दाज कर देते हैं, लेकिन मैं बहुत खेदपूर्वक आप से कह रहा हूं कि ईश्वर के नाम पर अमेरिका के मूलनिवासियों के खिलाफ कई गम्भीर पाप किए गए। मैं विनम्रतापूर्वक माफी मांगता हूं। इससे पहले लैटिन अमेरिका के बोलिविया में भी पोप ने इसी तरह माफी मांगी थी। देश के उत्तर पूर्व में पिछले लगभग दो दशकों से अधिक समय से चली आरही ब्रू-रियांग की समस्या सुलझ गई। 16 जनवरी को नई दिल्ली में केंद्र सरकार, त्रिपुरा और मिजोरम सरकार तथा ब्रू-रियांग प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार लगभग 34000 ब्रू शरणार्थियों को त्रिपुरा में ही बसाया जाएगा। उन्हें सीधे सरकारी तन्त्र से जोड़कर राशन, यातायात, शिक्षा आदि की सुविधा प्रदान कर उनके पुनर्वास में सहायता प्रदान की जाएगी। इस समस्या के हल होने से देशवासियों विशेषकर कई सालों से निर्वासित हो कर राहत कैम्पों में जीवन व्यतीत कर रहे हजारों लोगों ने राहत की सांस ली है परन्तु प्रश्न पैदा होता है कि क्या चर्च कभी रियांग जनजाति पर हुए अत्याचारों के लिए माफी मांगेगा ? अगर चर्च सदाश्यता दिखाती है तो यह केवल उत्तर-पूर्व ही नहीं बल्कि देशभर में सामाजिक व साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने की दिशा में मीलपत्थर साबित होगी।
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के मूल निवासी वैष्णव रियांग समुदाय जो मुख्यत: त्रिपुरा, मिजोरम, असम तथा बांग्लादेश के चटगाँव पहाड़ी क्षेत्र में रहते हैं धर्मांतरणवादी चर्च की नीतियों से पीडि़त रहे हैं। मिजोरम में इसाई मिजो बहुसंख्यक हैं अत: अपना सर्वाधिपत्य स्थापित करने के लिए सभी को ईसाई बनाना चाहते हैं। रियांग अपनी संस्कृति के उपासक तथा धर्म में अटूट विश्वास रखने वाले, अत: वे इसाईकरण के लिए तैयार नहीं हुए। दोनों की संस्कृति, भाषा, वेशभूषा तथा मान्यताओं में अंतर होने के कारण मिजो ने रियांग को ब्रू नाम दिया और यह जनधारणा विकसित की कि ब्रू यहाँ के मूल निवासी नहीं हंै। मिजोकरण, ईसाईकरण तथा चर्च प्रायोजित धर्मपरिवर्तन को स्वीकार न करने के कारण मिजो इनके खिलाफ रहते रहे हैं और दोनों में तनाव रहता है। सुनियोजित भेदभावपूर्ण नीति का प्रयोग कर रियांग लोगों को न केवल अलग-थलग कर दिया गया, बल्कि उन्हें जंगलों से लकड़ी व राशन से भी वंचित कर दिया और बच्चों को स्कूलों से बाहर रखा। मीजो के रूप में राज्य प्रायोजित हिन्सा का परिणाम यह रहा कि रियांग को मिजोरम से विस्थापित होकर त्रिपुरा तथा अन्य राज्यों में शिविरों में शरण लेनी पड़ी।
ब्रू और मिजो के बीच संघर्ष का पुराना इतिहास रहा है। 1990 के दशक में रियांग ने अपने ऐतिहासिक उत्पीडऩ और राजनीतिक बहिष्कार को व्यक्त करते हुए, अपनी तीन मांगे रखीं-ऑल इंडिया रेडियो आइजॉल में रियांग-ब्रू कार्यक्रम शामिल करना, सरकारी सेवाओं में आरक्षण व विधानसभा में प्रतिनिधियों का नामान्कन और रियांग-ब्रू के लिए एक स्वायत्त जिला परिषद् (एडीसी) का निर्माण, लेकिन एडीसी के लिए उनकी माँग अनसुनी हो गई। वर्ष 1995 में ब्रू समुदाय द्वारा स्वायत्त जिला परिषद् की माँग और चुनावों में भागीदारी के अन्य मुद्दों पर ब्रू और मिजो के बीच तनाव हो गया। सितम्बर 1997 में, ब्रू नैशनल यूनियन (बीएनयू) ने मिजोरम के पश्चिमी पट्टी में सन्विधान की छठी अनुसूची के अनुसार रियांग के लिए उसी स्वायत्त जिला परिषद् की माँग करने के लिए एक प्रस्ताव रखा। इसके खिलाफ मिजो की प्रतिक्रिया ने बड़े पैमाने पर हिन्सा को भड़का दिया। सरकार ने उनकी माँगों को दबाने के लिए उनके खिलाफ बड़े पैमाने पर हिन्सा की। मिजो, नौकरशाही, पुलिस और अन्य शक्तिशाली समूह रियांगों को स्थायी रूप से नष्ट करने को आतुर थे। आपसी झड़प के बाद 'यंग मिजो एसोसिएशन' तथा 'मिजो स्टूडेंट्स एसोसिएशन' ने यह माँग रखी कि ब्रू लोगों के नाम राज्य की मतदाता सूची से हटाए जाएं क्योंकि वे मूल रूप से मिजोरम के निवासी नहीं हैं। इसके बाद ब्रू समुदाय द्वारा समर्थित समूह ब्रू नेशनल लिब्रेशन फ्रन्ट तथा एक राजनीतिक संगठन के नेतृत्व में वर्ष 1997 में मिजो से हिन्सक संघर्ष हुआ। परिणामत: वर्ष 1997 में नस्ली तनाव के कारण ब्रू-रियांग समाज को मिजोरम छोड़कर त्रिपुरा में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा। इन शरणार्थियों को उत्तरी त्रिपुरा के कंचनपुर में अस्थायी कैम्पों में रखा गया था। उस समय लगभग 37000 ब्रू लोगों को मिजोरम छोडऩा पड़ा।
वर्ष 1997 में विस्थापित के बाद से ही भारत सरकार ब्रू-रियांग परिवारों के स्थायी पुनर्वास के प्रयास करती रही है, लेकिन समस्या का कोई हल नहीं निकला। 3 जुलाई, 2018 को ब्रू-रियांग समुदाय के प्रतिनिधियों, त्रिपुरा और मिजोरम की राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार के बीच इस समुदाय के पुनर्वास के लिये एक समझौता किया गया था, जिसके बाद ब्रू-रियांग परिवारों को दी जाने वाली सहायता में बढ़ोतरी की गई। इस समझौते के तहत 5260 ब्रू परिवारों के 32876 लोगों के लिए 435 करोड़ रुपए का राहत पैकेज दिया गया। बच्चों की पढ़ाई के लिये एकलव्य स्कूल भी प्रस्तावित किये गए। ब्रू परिवारों को मिजोरम में जाति एवं निवास प्रमाणपत्र के साथ वोट डालने का भी अधिकार दिया जाना था। इस समझौते के बाद वर्ष 2018-19 में 328 परिवारों के 1369 लोगों को त्रिपुरा से मिजोरम वापस लाया गया, परन्तु यह समझौता पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सका क्योंकि अधिकतर ब्रू परिवारों ने मिजोरम वापस जाने से इनकार कर दिया। लेकिन इस साल 16 जनवरी को ब्रू-रियांग समझौते ने दो दशकों पुराने शरणार्थी संकट को समाप्त कर दिया, जिसके कारण मिजोरम में 34000 से अधिक शरणार्थियों को मदद और राहत मिली है। मोदी सरकार ब्रू-रियांग परिवारों को पक्के निवास, सभी सरकारी सुविधाएं, मकान बनाने के लिए धनराशि व एक निर्धारित धनराशि सावधि के रूप में बैंकों में जमा करवाने जा रही है।
देश के उत्तर-पूर्व इलाकों में चर्च का जबरदस्त प्रभाव है और इस पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि वह गाहे-बगाहे वहां साम, दाम, दण्ड, भेद जैसे सभी तरह के तरीके अपना कर जनजातीय समाज का धर्मांतरण करवाती रही है। चर्च की धर्मांतरणवादी नीति के चलते ही ब्रू-रियांग जनजाति के हजारों लोगों को दो-अढ़ाई दशकों से अपने घरों से दूर अस्थाई शिविरों में रहना पड़ा। अब विस्थापितों के लिए घोषित समझौते से उन्हें भौतिक रूप से तो राहत मिली है परन्तु मानसिक रूप से तभी उनके जख्मों पर मरहम लगेगी जब चर्च अपनी गलती के लिए क्षमायाचना करे और भविष्य में ऐसी गलती से तौबा करे। चर्च अगर ऐसा कर पाती है तो सूर्योदय के इलाके पूर्वोत्तर में शांति व साम्प्रदायिक सौहार्द के नए युग की शुरुआत होगी।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपओ लिदड़ां,
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

Saturday, 1 February 2020

Gidda-Bhangra under Talibani Attack

गिद्दे-भंगड़े पर तालिबानी त्यौरियां
'मेहन्दी.. मेहन्दी.. मेहन्दी.. नच्चां मैं अम्बाले मेरी धमक जलन्धर पैन्दी', पंचनद क्षेत्र के लोकनृत्य गिद्दे-भंगड़े की लोकप्रियता वर्तमान में इस कदर आसमान छू रही हैं कि इनके बिना आज पंजाब तो क्या भारत भर में शायद ही शादी विवाह सम्पन्न होते होंगे। लेकिन गिद्दे-भंगड़े की जन्मभूमि में ही इसपर तालिबानी त्यौरियां चढ़ी दिख रही हैं जिसकी तपिश समाज ने अभी महसूस नहीं की। 'नचणु कुदण मन का चाउ' का सन्देश देने वाले सिख गुरुओं की पावन नगरी अमृतसर से कट्टरपन्थियों की जिद्द के चलते गिद्दा-भंगड़ा डालने वाली प्रतिमाएं हटाई जा रही हैं। कुछ कट्टरपन्थियों ने यह कहते हुए इन प्रतिमाओं को खण्डित कर दिया कि हरिमन्दिर साहिब के मार्ग पर इस तरह की अश्लीलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। राज्य के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने तालिबानी मानसिकता के आगे घुटने टेकते हुए इन प्रतिमाओं को हटाने के आदेश दिए और इनका पालन होना भी शुरु हो चुका है।  

वर्ष 2016 में तत्कालीन शिरोमणि अकाली दल बादल-भारतीय जनता पार्टी गठबन्धन सरकार ने अमृतसर स्थित हरिमन्दिर साहिब के पास विरासती गलियारे का परियोजना लागू की थी। इसके तहत जहां नगर का सौंदर्यीकरण किया गया वहीं पंजाब की परम्परा को दर्शाते प्रतिमाएं स्थापित की गईं। इनमें भंगड़ा-गिद्दा डालते हुए युवक-युवतियों को भी प्रदर्शित किया गया। कठमुल्लावादी संगठनों का मत है कि गुरुद्वारे को जाने वाले मार्ग पर इस प्रकार की प्रतिमाएं सहन नहीं और इससे युवा पीढ़ी पथभ्रष्ट हो रही है, इसके स्थान पर गुरु साहिबान से जुड़े उपदेशों को प्रदर्शित किया जाना चाहिए। गत सरकार का उद्देश्य इस गलियारे के माध्यम से राज्य में पर्यटन व संस्कृति को प्रोत्साहन देना रहा। सरकार का प्रयास असफल भी नहीं गया क्योंकि अमृतसर में आने वाले भारतीय व विदेशी पर्यटक इस गलियारे में जरूर भ्रमण करते हैं। इसके चलते नगर में पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है परन्तु बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं पर तोप चलाने जैसी सोच के चलते सरकार ने इन प्रतिमाओं को हटाने की कार्रवाई शुरू कर दी है और इन प्रतिमाओं को पर्यटन विभाग को सौंपा जा रहा है।

गिद्दा-भंगड़ा पंजाब की युगों पुरानी प्राचीन धरोहर रहा। माना जाता है कि महाभारत काल से ही इस भू-भाग पर महिला-पुरुष मण्डल बना कर ढोल की थाप पर नाचते हैं और बोलियां डालते हैं। महिलाओं के नाच को गिद्दा व पुरुषों के नाच को भंगड़ा कहा जाता है। दरअसल गिद्दा-भंगड़ा केवल लोकनाच ही नहीं बल्कि पंजाबी संस्कृति की झलक है जिसमें समस्त जीवन का लोकाचार छिपा है। गिद्दे-भंगड़े की बोलियां सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन के हर क्षेत्र को छूता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गिद्दा-भंगड़ा पंजाबी संस्कृति का महाकोष है जिसके जरिए कोई भी देश के इस स्मृद्ध क्षेत्र में सदियों से पनपी संस्कृति के बारे जान सकता है। एक जीवन्त कला के कारण बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक में गिद्दे-भंगड़े की धूम है लेकिन अब यही अमीर विरासत पर तालिबानी त्यौरियां चढ़ती दिख रही हैं। देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए पंजाब में तो गिद्दा-भंगड़ा लगभग लुप्त हो गया और अब भारतीय पंजाब में भी इस पौराणिक गंधर्वकला पौंगापन्थियों के निशाने पर है।

वैसे पंजाब में तालिबानी वायरस का यहां की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर पर कोई नया हमला नहीं, बल्कि राज्य आतंकवाद के दौर में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं देख चुका है। राज्य में आतंकवाद के काले दौर में उग्रवादियों ने फिल्म स्टार धर्मेन्द्र के चचेरे भाई पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार विरेंद्र की 6, दिसम्बर 1988 को गोलियां मार कर हत्या कर दी। इसी साल आतंकियों ने 8 मार्च को पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला को भी गोलियों से भून दिया जब वो एक गांव में अपना कार्यक्रम (अखाड़ा) पेश करने गए। चमकीला व वरिन्द्र पर भी आतंकियों ने इसी तरह अश्लीलता फैलाने के आरोप लगाए थे। अभी हाल ही में हिन्दी भाषा को लेकर दिए ब्यान को लेकर सदाबाहार पंजाबी गायक गुरदास मान भी इन कट्टरपन्थियों की शाब्दिक चान्दमारी झेल रहे हैं। वे जहां भी जाते हैं उनका घेराव किया जाता है। पंजाबी संस्कृति के सेवक को गद्दार बता कर उन्हें अपमानित किया जाता है। गुरदास मान का अपराध केवल इतना है कि भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की हां में हां मिलाते हुए उन्होंने कह दिया कि देश की एक भाषा अवश्य होनी चाहिए। उनका भाव था कि पूरे देश में एक ऐसी भाषा अवश्य हो जिसमें पूरे देशवासी आपस में सन्वाद कर सकें लेकिन कट्टरपन्थियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि गुरदास मान पंजाबी की बजाय हिन्दी लागू करने का समर्थन कर रहे हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 1960 के दशक में पंजाब में हिन्दी-पंजाबी को लेकर विवाद हो चुका है और कट्टरपन्थी लोग गाहे-बगाहे आज भी इस विवाद को चिंगारी लगाने का प्रयास करते रहते हैं।
पंजाब की संस्कृति स्वभाव से ही रंगों, नृत्य, हंसी-खुशी, गीत-संगीत, खुलदिली का गुण धारण किए हुए है। यहां के लोगों ने हर नए विचार व आचार-व्यवहार को खुले मन से स्वीकार किया है। इन्हीं गुणों के चलते पंजाब की पूरे देश ही नहीं बल्कि विश्व में अपनी विशेष पहचान है। अपनी वाणी में श्री गुरु नानक देव जी ने भी 'नचणु कुदण मन का चाउ' अर्थात नाचना-कूदना मन का चाव का सन्देश दिया परन्तु एक कुण्ठित सोच गुरु के इन आदेशों का भी उल्लंघन करती हुई दिखाई दे रही है। हैरानी की बात है कि इस दकियानूसी सोच को पंजाबी मीडिया के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिल रहा है। पंजाब सरकार ने तो मानो इसके सामने समर्पण ही कर दिया है। 19 जनवरी को कुछ कट्टरपन्थी लोगों ने अमृतसर के विरासती गलियारे में लगी गिद्दा-भंगड़ा डालने वाली प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त कर दिया। पुलिस ने इनके खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज किया और चण्डीगढ़ में गिरफ्तारी भी हुई परन्तु मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह अब न केवल इन प्रतिमाओं को हटाना शुरु करवा दिया बल्कि उनके खिलाफ केस भी वापिस लेने की बात कही है। पंजाबी समाज के एक वर्ग में घर कर रही तालिबानी मानसिकता वास्तव में ही चिन्ता का विषय होना चाहिए परन्तु पूरे मामले का दुखद पहलू यह भी है कि खतरनाक घटना पर समाज के बाकी हिस्से ने भी मौन धारण किया हुआ है। गिद्दे और भंगड़े को अपनी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया लगता है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ा,
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

गिद्दे-भंगड़े पर तालिबानी त्यौरियां

'मेहन्दी.. मेहन्दी.. मेहन्दी.. नच्चां मैं अम्बाले मेरी धमक जलन्धर पैन्दी', पंचनद क्षेत्र के लोकनृत्य गिद्दे-भंगड़े की लोकप्रियता वर्तमान में इस कदर आसमान छू रही हैं कि इनके बिना आज पंजाब तो क्या भारत भर में शायद ही शादी विवाह सम्पन्न होते होंगे। लेकिन गिद्दे-भंगड़े की जन्मभूमि में ही इसपर तालिबानी त्यौरियां चढ़ी दिख रही हैं जिसकी तपिश समाज ने अभी महसूस नहीं की। 'नचणु कुदण मन का चाउ' का सन्देश देने वाले सिख गुरुओं की पावन नगरी अमृतसर से कट्टरपन्थियों की जिद्द के चलते गिद्दा-भंगड़ा डालने वाली प्रतिमाएं हटाई जा रही हैं। कुछ कट्टरपन्थियों ने यह कहते हुए इन प्रतिमाओं को खण्डित कर दिया कि हरिमन्दिर साहिब के मार्ग पर इस तरह की अश्लीलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। राज्य के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने तालिबानी मानसिकता के आगे घुटने टेकते हुए इन प्रतिमाओं को हटाने के आदेश दिए और इनका पालन होना भी शुरु हो चुका है।  

वर्ष 2016 में तत्कालीन शिरोमणि अकाली दल बादल-भारतीय जनता पार्टी गठबन्धन सरकार ने अमृतसर स्थित हरिमन्दिर साहिब के पास विरासती गलियारे का परियोजना लागू की थी। इसके तहत जहां नगर का सौंदर्यीकरण किया गया वहीं पंजाब की परम्परा को दर्शाते प्रतिमाएं स्थापित की गईं। इनमें भंगड़ा-गिद्दा डालते हुए युवक-युवतियों को भी प्रदर्शित किया गया। कठमुल्लावादी संगठनों का मत है कि गुरुद्वारे को जाने वाले मार्ग पर इस प्रकार की प्रतिमाएं सहन नहीं और इससे युवा पीढ़ी पथभ्रष्ट हो रही है, इसके स्थान पर गुरु साहिबान से जुड़े उपदेशों को प्रदर्शित किया जाना चाहिए। गत सरकार का उद्देश्य इस गलियारे के माध्यम से राज्य में पर्यटन व संस्कृति को प्रोत्साहन देना रहा। सरकार का प्रयास असफल भी नहीं गया क्योंकि अमृतसर में आने वाले भारतीय व विदेशी पर्यटक इस गलियारे में जरूर भ्रमण करते हैं। इसके चलते नगर में पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है परन्तु बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं पर तोप चलाने जैसी सोच के चलते सरकार ने इन प्रतिमाओं को हटाने की कार्रवाई शुरू कर दी है और इन प्रतिमाओं को पर्यटन विभाग को सौंपा जा रहा है।

गिद्दा-भंगड़ा पंजाब की युगों पुरानी प्राचीन धरोहर रहा। माना जाता है कि महाभारत काल से ही इस भू-भाग पर महिला-पुरुष मण्डल बना कर ढोल की थाप पर नाचते हैं और बोलियां डालते हैं। महिलाओं के नाच को गिद्दा व पुरुषों के नाच को भंगड़ा कहा जाता है। दरअसल गिद्दा-भंगड़ा केवल लोकनाच ही नहीं बल्कि पंजाबी संस्कृति की झलक है जिसमें समस्त जीवन का लोकाचार छिपा है। गिद्दे-भंगड़े की बोलियां सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन के हर क्षेत्र को छूता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गिद्दा-भंगड़ा पंजाबी संस्कृति का महाकोष है जिसके जरिए कोई भी देश के इस स्मृद्ध क्षेत्र में सदियों से पनपी संस्कृति के बारे जान सकता है। एक जीवन्त कला के कारण बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक में गिद्दे-भंगड़े की धूम है लेकिन अब यही अमीर विरासत पर तालिबानी त्यौरियां चढ़ती दिख रही हैं। देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए पंजाब में तो गिद्दा-भंगड़ा लगभग लुप्त हो गया और अब भारतीय पंजाब में भी इस पौराणिक गंधर्वकला पौंगापन्थियों के निशाने पर है।

वैसे पंजाब में तालिबानी वायरस का यहां की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर पर कोई नया हमला नहीं, बल्कि राज्य आतंकवाद के दौर में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं देख चुका है। राज्य में आतंकवाद के काले दौर में उग्रवादियों ने फिल्म स्टार धर्मेन्द्र के चचेरे भाई पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार विरेंद्र की 6, दिसम्बर 1988 को गोलियां मार कर हत्या कर दी। इसी साल आतंकियों ने 8 मार्च को पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला को भी गोलियों से भून दिया जब वो एक गांव में अपना कार्यक्रम (अखाड़ा) पेश करने गए। चमकीला व वरिन्द्र पर भी आतंकियों ने इसी तरह अश्लीलता फैलाने के आरोप लगाए थे। अभी हाल ही में हिन्दी भाषा को लेकर दिए ब्यान को लेकर सदाबाहार पंजाबी गायक गुरदास मान भी इन कट्टरपन्थियों की शाब्दिक चान्दमारी झेल रहे हैं। वे जहां भी जाते हैं उनका घेराव किया जाता है। पंजाबी संस्कृति के सेवक को गद्दार बता कर उन्हें अपमानित किया जाता है। गुरदास मान का अपराध केवल इतना है कि भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की हां में हां मिलाते हुए उन्होंने कह दिया कि देश की एक भाषा अवश्य होनी चाहिए। उनका भाव था कि पूरे देश में एक ऐसी भाषा अवश्य हो जिसमें पूरे देशवासी आपस में सन्वाद कर सकें लेकिन कट्टरपन्थियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि गुरदास मान पंजाबी की बजाय हिन्दी लागू करने का समर्थन कर रहे हैं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 1960 के दशक में पंजाब में हिन्दी-पंजाबी को लेकर विवाद हो चुका है और कट्टरपन्थी लोग गाहे-बगाहे आज भी इस विवाद को चिंगारी लगाने का प्रयास करते रहते हैं।

पंजाब की संस्कृति स्वभाव से ही रंगों, नृत्य, हंसी-खुशी, गीत-संगीत, खुलदिली का गुण धारण किए हुए है। यहां के लोगों ने हर नए विचार व आचार-व्यवहार को खुले मन से स्वीकार किया है। इन्हीं गुणों के चलते पंजाब की पूरे देश ही नहीं बल्कि विश्व में अपनी विशेष पहचान है। अपनी वाणी में श्री गुरु नानक देव जी ने भी 'नचणु कुदण मन का चाउ' अर्थात नाचना-कूदना मन का चाव का सन्देश दिया परन्तु एक कुण्ठित सोच गुरु के इन आदेशों का भी उल्लंघन करती हुई दिखाई दे रही है। हैरानी की बात है कि इस दकियानूसी सोच को पंजाबी मीडिया के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिल रहा है। पंजाब सरकार ने तो मानो इसके सामने समर्पण ही कर दिया है। 19 जनवरी को कुछ कट्टरपन्थी लोगों ने अमृतसर के विरासती गलियारे में लगी गिद्दा-भंगड़ा डालने वाली प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त कर दिया। पुलिस ने इनके खिलाफ आपराधिक मामला भी दर्ज किया और चण्डीगढ़ में गिरफ्तारी भी हुई परन्तु मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह अब न केवल इन प्रतिमाओं को हटाना शुरु करवा दिया बल्कि उनके खिलाफ केस भी वापिस लेने की बात कही है। पंजाबी समाज के एक वर्ग में घर कर रही तालिबानी मानसिकता वास्तव में ही चिन्ता का विषय होना चाहिए परन्तु पूरे मामले का दुखद पहलू यह भी है कि खतरनाक घटना पर समाज के बाकी हिस्से ने भी मौन धारण किया हुआ है। गिद्दे और भंगड़े को अपनी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया लगता है।

- राकेश सैन
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