आज ईद है, सबको मुबारक। कोई कहता है ईद केवल इस्लाम से जुड़ा मुसलमानों का ही त्यौहार है तो वह इतिहास से नावाकिफ है। इस्लाम का संबंध हिंदू समाज के ब्राह्मण समाज से भी है जो योद्धा बन कर हुसैन साहिब के साथ कंधे से कंधा मिला कर करबला की लड़ाई लड़े और अपना जीवन बलिदान दिया। इतिहास में वे हुसैनी ब्राह्मण के नाम से विख्यात हुए। असल में इस्लाम व हिंदुत्व में इतनी समानताएं व आपसी सौहार्द है जिसे एक साजिश के तहत छिपाया गया। 1857 में जब हिंदू- और मुसलमानों ने मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई लड़ी तो अंग्रेजों को समझ आगई कि इस एकजुट शक्ति से निपटना असंभव है। इसी शक्ति को विभाजित करने के लिए अंग्रेजों ने ऐसे झूठे इतिहास गढ़े और आजादी के बाद वामपंथियों ने इस झूठ को इतना बिलोया कि इस्लाम को कासिम, गजनी, गौरी, बाबर जैसे हमलावरों के साथ जोड़ दिया। इससे समाज में इस्लाम के प्रति संशय बढऩे लगा और मुसलमानों के एक वर्ग में भी यह गलत धारणा बैठ गई कि वे इस देश के शासक वर्ग हैं। इनका परिणाम निकला देश का विभाजन और अनेकों दंगे। लेकिन सच्चाई कुछ और है, न तो हिंदू मुसलमान का और न ही मुसलमान हिंदू का दुश्मन है। इस्लाम व हिंदुत्व में अनेकों समानताएं है परस्पर लेन देन है जिसको आज तक नजरंदाज किया जाता रहा है। आज ईद के मौके पर जरूरत है दोनो धर्मों के परस्पर स्नेह का स्मरण करने की।
इस्लाम के सबसे पवित्र कहे जाने वाला करबला का युद्ध सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि एक वर्ग के ब्राह्मणों के लिए भी बहुत मायने रखता है। हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हैं। 1938 में लिखी गई पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ मुहियाल्स' के अनुसार कर्बला के युद्ध के समय 1400 ब्राह्मण उस समय बगदाद में रहते थे। जब करबला का युद्ध हुआ तो इन लोगों ने याजिद के खिलाफ युद्ध में इमाम हुसैन का साथ दिया था। करीब 125 हुसैनी ब्राह्मणों का परिवार पुणे में रहता है, कुछ दिल्ली में रहते हैं और ये हर साल मुहर्रम भी मनाते हैं।
एक मान्यता के अनुसार राहब सिध दत्त के कोई संतान नहीं थी और वो हुसैन इब्न अली के पास गया. उसने कहा कि उसे संतान चाहिए। इमाम हुसैन ने जवाब दिया कि वो ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसकी किस्मत में संतान नहीं है। ऐसा सुनकर दत्त काफी दुखी हुए और रोने लगे। उसका दुख देखकर हुसैन ने उसे एक बेटा होने का वरदान दिया। ऐसा होते देख किसी ने हुसैन को कहा कि वो अल्लाह की मर्जी के खिलाफ जा रहे हैं। ऐसा सुनने पर हुसैन ने फिर कहा कि दत्त को एक और बेटा होगा। ऐसा करते- करते हुसैन दत्त को 7 बेटों का वरदान दे चुके थे। कहा जाता है कि इमाम, उनके परिवार, 72 अनुयायियों के साथ दत्त के 7 बेटे भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे।
एक मान्यता है कि जिस जगह दत्त रहते थे उसे दायर- अल- हिंडिया कहा जाता था यानी भारतीय क्वार्टर। मौजूदा समय में ये ईराक की अल-हिंडिया डिस्ट्रिक्ट कहलाती है। वैसे तो बंटवारे के पहले वाले भारत में हुसैनी ब्राह्मण लाहौर में रहते थे, लेकिन अब उनका एक अहम गढ़ माना जाता है पुष्कर को। अजमेर की दरगाह में जहां मोइनुद्दीन चिश्ती ने अपनी आखिरी सांसे ली थीं वहां अब भी कई लोग मिल जाएंगे जो खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहेंगे। कहा जाता है कि हुसैनी ब्राह्मणों को इमाम हुसैन से मोहब्बत थी। इतनी मोहब्बत कि जब उन्हें इमाम की शहादत के बारे में पता चला तो अमीर मुख्तार के साथ मिलकर हुसैनी ब्राह्मणों ने हुसैन का बदला लिया था। राहिब सिध दत्त पैगंबर का अहसान नहीं भूले थे और इसलिए जब उन्हें पता चला कि याजिद की फौज इमाम का सिर काटकर कूफा शहर ले जा रही है तो अपने जत्थे के साथ वो गए और लड़ाई में इमाम हुसैन का सिर ले आए। इमाम का सिर लेने जब यजीदी फौज वापस आई तो दत्त ने अपने एक बेटे का सिर काटकर दे दिया। फौज चिल्लाई कि ये इमाम का सिर नहीं है और इमाम का सिर बचाने के लिए दत्त ने एक- एक कर अपने सभी बेटों का सिर काटकर दे दिया। हालांकि, ये कुर्बानी काम न आई और बाद में दत्त ब्राह्मणों को अमीर मुख्तार का साथ लेकर इमाम हुसैन का बदला लेना पड़ा। दत्त या मोहियाल ब्राह्मणों के इतिहास में लिखा है कि ये पुराने जमाने में ब्राह्मण दान लेकर अपनी आजीविका चलाते थे। इस दौरान कुछ लोगों को ये अच्छा नहीं लगा तो वो सैनिक बन गए। इन्हीं को मोहियाल कहा गया। मोहि यानी जमीन और आल यानी मालिक। ये लोग योद्धा थे और अपनी जमीन के मालिक।
बकरीद का त्यौहार हिजरी के आखिरी महीने ज़ु अल-हज्जा में मनाया जाता है। पूरी दुनिया के मुसलमान इस महीने में मक्का सऊदी अरब में एकत्रित होकर हज मनाते है। ईद उल अजहा भी इसी दिन मनाई जाती है। वास्तव में यह हज की एक अंशीय अदायगी और मुसलमानों के भाव का दिन है। दुनिया भर के मुसलमानों का एक समूह मक्का में हज करता है बाकी मुसलमानों के अंतरराष्ट्रीय भाव का दिन बन जाता है। ईद उल अजहा का अक्षरश। अर्थ त्याग वाली ईद है।
ईद के चांद को देख कर एक बार सल्लाह- ए वाहे वसल्लम हजरत मोहम्मद साहिब ने कहा था- 'हे अल्लाह इसे अमन का चांद बना दो।' इस्लाम में मानव जीवन को दो भागों में बांटा गया है, एक मौत से पहले और दूसरा मौत के बाद। मौत से पहले का संदेह है कि इंसान अल्लाह के बताए मार्ग पर चले और मौत के बाद उसे खुशियां मिलती हैं। रोजा और ईद इसी का प्रतीक है। रोजा का अर्थ है संघर्ष और शिद्दत और ईद का अर्थ है हर्षोल्लास। इस्लाम में कहा गया है कि अकेले उल्लास मनाना उचित नहीं, जब तक उसमें पड़ौसी शामिल न हो। ईद एक तरह से इसी सौहार्द व भाईचारे का भी प्रतीक है। कहा जाता है कि जंग से मुक्ति के बाद मोहम्मद साहिब ने ईद मनाना शुरू किया था। कितनी समानता है ईद और दीवाली में। दीवाली भी राम और रावण के संघर्ष के प्रतीक पर्व दशहरा मनाने के बाद शांति व संपन्नता का संदेश लेकर आती है और ईद का भी यही संदेश है कि संघर्ष के बाद कैसे अमन कायम रखा जाए।
देश- दुनिया में आज कोरोना का संकट छाया हुआ है और इसके चलते एक चर्चा यह भी छिड़ी है कि ऐसे में जानवरों का मांस खाया जाए या नहीं। ईद के दिन बकरे या किसी जानवर की कुर्बानी देने का रिवाज है। जैसा कि सभी जानते हैं कि कोरोना व इसके जैसी ही कई बीमारियां जानवरों के मांस से ही इंसानों मेें आई है। आज जरूरत महसूस की जाने लगी है इको फ्रेंडली ईद की, जिसमें प्रतीकात्मक तौर पर कुर्बानी दी जाती है बकरे या अन्य जानवरों के बने केक की या अन्य तरह से कुर्बानी की रस्म निभाई जाती है। इससे ईद भी मन जाती है और जानवरों के साथ-साथ इंसानों की भी जान बच जाती है। आधुनिक युग सुधारवादी युग है, जब इको होली व इको दीवाली मनाई जा सकती है तो इको ईद मनाने में क्या बुराई है। खुशी की बात है कि इस्लामिक जगत में यह परंपरा शुरू भी हो चुकी है और जरूरत है इसको प्रोत्साहन देने की। आओ हम ईद के संदेश को स्वीकार करते हुए इसे अमन व शांति का पर्व मनाएं।
राकेश सैन
स. 77106-55605
No comments:
Post a Comment