Wednesday, 28 February 2018

मुल्तान की विरहा में जलते प्रह्लाद



फागोत्सव में वीतराग गा त्यौहार को बेरंग करना मेरा उद्देश्य नहीं। परंतु अपनी माटी, अपने लोगों से बिछुडऩे की जलन वही जानते हैं जो इस पीड़ा से गुजरते हैं। भक्त प्रह्लाद पहाड़ी से गिरा कर भी जिनके धर्म को डिगाया नहीं जा सका, नारायण के प्रति विश्वास को हाथी के पांव तले भी कुचला नहीं जा सका और न ही पाप की अग्नि उनके तप को जला सकी परंतु आज वो अपनी जन्मभूमि मुल्तान की विरहा की आग में जलने को विवश हैं। वही मुल्तान जिसे पुराणों में कश्यप नगरी बताया गया और आज पाकिस्तानी पंजाब का हिस्सा है। जिस समय पूरी दुनिया सच्चाई की जीत के प्रतीक होली पर्व को मना रही होगी उस समय प्रह्लाद की भक्ति की साक्षी धरा, नरसिंह अवतार के रूप में भगवान विष्णु की अवतारस्थली मुल्तान पर सन्नाटा पसरा होगा। जब से देश का विभाजन हुआ है हर साल होली पर प्रह्लाद आकर पूछते हैं क्यों छीन लिया गया उनकी जन्मभूमि को ? किसको सिंहासन की इतनी भूख थी जिसने भारत जैसे जीवंत राष्ट्र की छाती पर विभाजन रेखा खींच दी ? वह होली कब आएगी जब देश के हर प्रह्लाद को कामरूप से कसूर तक बिना रोक टोक आने जाने की छूट होगी?

नजर दौड़ाते हैं प्रह्लाद की जन्मभूमि मुल्तान के इतिहास पर। यह कभी प्रह्लाद की राजधानी था और उन्होंने ही यहां भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया। मुल्तान वास्तव में संस्कृत के शब्द मूलस्थान का परिवर्तित रूप है, वह सामरिक स्थान जो दक्षिण एशिया व इरान की सीमा के चलते सैन्य दृष्टि से संवेदनशील था। यहां माली वंश के लोगों ने भी शासन किया और अलक्षेंद्र (सिकंदर) को यहीं पर भारतीय राजाओं के साथ युद्ध के दौरान छाती में तीर लगा जो उसकी मृत्यु का कारण बना। समय-समय पर इस नगरी पर अनेक हमलावरों ने आक्रमण किए। इस्लामिक लुटेरों ने प्रह्लाद के मंदिर को भी कई बार क्षतिग्रस्त किया और इसके पास भी हजरत बहाउद्दीन जकारिया का मकबरा बना दिया गया। इतिहासकार डॉ. ए.एन. खान के हिसाब से जब ये इलाका दोबारा सिक्खों के अधिकार में आया तो सिख शासकों ने 1810 के दशक में यहाँ फिर से मंदिर बनवाया।

मगर जब एलेग्जेंडर बर्निस इस इलाके में 1831 में आये तो उन्होंने वर्णन किया कि ये मंदिर फिर से टूटे फूटे हाल में है और इसकी छत नहीं है। कुछ साल बाद जब 1849 में अंग्रेजों ने मूल राज पर आक्रमण किया तो ब्रिटिश गोला किले के बारूद के भण्डार पर जा गिरा और पूरा किला बुरी तरह नष्ट हो गया था। बहाउद्दीन जकारिया और उसके बेटों के मकबरे और मंदिर के अलावा लगभग सब जल गया था। एलेग्जेंडर कनिंघम ने 1853 में इस मंदिर के बारे में लिखा कि ये एक ईंटों के चबूतरे पर काफी नक्काशीदार लकड़ी के खम्भों वाला मंदिर था। इसके बाद महंत बावलराम दास ने जनता से जुटाए 11,000 रुपये से इसे 1861 में फिर से बनवाया। उसके बाद 1872 में प्रह्लादपुरी के महंत ने ठाकुर फतेह चंद टकसालिया और मुल्तान के अन्य हिन्दुओं की मदद से फिर से बनवाया। सन 1881 में इसके गुम्बद और बगल के मस्जिद के गुम्बद की उंचाई को लेकर हिन्दुओं-मुसलमानों में विवाद हुआ जिसके बाद दंगे भड़क उठे। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में दंगे रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ नहीं किया। इस तरह इलाके के 22 मंदिर उस दंगे की भेंट चढ़ गए। मगर मुल्तान के हिन्दुओं ने ये मंदिर फिर से बनवा दिया। ऐसा ही 1947 तक चलता रहा जब इस्लाम के नाम पर बंटवारे में पाकिस्तान हथियाए जाने के बाद ज्यादातर हिन्दुओं को वहां से भागना पड़ा। बाबा नारायण दास बत्रा वहां से आते समय वहां के भगवान नरसिंह की प्रतिमा ले आये। अब वो प्रतिमा हरिद्वार में है। टूटी फूटी, जीर्णावस्था में मंदिर वहां बचा है। सन 1992 के दंगे में ये मंदिर पूरी तरह तोड़ दिया गया। अब वहां मंदिर का सिर्फ अवशेष बचा है। सन 2006 में बहाउद्दीन जकारिया के उर्स के मौके पर सरकार ने इस मंदिर के अवशेष में वजू की जगह बनाने की इजाजत दे दी। इसपर कुछ सरकारी संगठनों ने आपत्ति दर्ज करवाई और अदालत से स्थगन ले लिया, जो अभी तक जारी है। 

किसी ने ठीक ही कहा है 'हिंदू भाव जब जब भूले आई विपद महान-धरती खोई भाई बिछुड़े छिन गए धर्मस्थान'। आखिर क्या है वह हिंदू भाव, जिसके बारे कम्यूनिस्ट चीन का गुप्तचर विभाग कहता है कि हिंदुत्व न हो तो वह भारत के कई टुकड़े कर सकता है। कुछ लोग हिंदुत्व को केवल पूजा-पाठ, कर्मकांड व रिति-रिवाज से जोड़ते हैं तो कईयों के लिए यह सत्ता शिखर पर चढऩे-उतरने की सीढ़ी और बहुतों के लिए हेय का विषय। परंतु युगों से धरती के इस भू-भाग पर जो संस्कृति विकसित हुई है उसका नाम है हिंदुत्व। यह कोरी भावना नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या है। हिंदुत्व इस देश की संस्कृति है और पूरे देश की सांझी विरासत, जो इस देश को भावनात्मक सूत्र में पिरोती है, संगठित करती है। इतिहास साक्षी है कि देश के जिस-जिस भू-भाग पर हिंदू भाव अर्थात संस्कृति कमजोर हुई कालातीत में वह भाग भारत से अलग हो गया। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांगलादेश, म्यांमार सहित अनेकों उदाहरण हैं कि हम वहां पर अपनी संस्कृति की रक्षा नहीं कर पाए और परिणामस्वरूप हम खुद असुरक्षित हो गए, पलायन करना पड़ा।

वर्तमान में भी अपनी संस्कृति के समक्ष कई चुनौतियां हैं। आत्मविस्मृति, आत्मनिंदा आज अपने भारतीय समाज में ट्यूमर की भांति पैदा हो चुके हैं। समाज अपनी जड़ों से कट रहा है और मूल से उखड़ा हुआ समाज आत्मनिंदा से ग्रसित हो ही जाता है। वर्तमान की सबसे बड़ी संस्कृति केवल और केवल धनार्जन बन चुकी है जो गलत भी नहीं क्योंकि धन के बिना कुछ संभव नहीं, लेकिन केवल धन-संपदा से ही कोई समाज व राष्ट्र पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं रह पाता। हम क्यों भूलते हैं कि कभी हिंदू बाहुल्य रहा मुल्तान दुनिया का एकमात्र वह स्थान है जिसकी मिट्टी भी पंसारियों के मर्तबानों में रख कर बेची जाती रही है। पाकिस्तान से पलायन कर भारत आने वाले हिंदू-सिख व्यापारी, धनाढ्य और बड़े-बड़े जिमींदार थे। अगर केवल धन से सुरक्षा होती तो उन्हें वहां से क्यों भागना पड़ता। जब तक हम अपनी संस्कृति व सांस्कृतिक मूल्यों का पालन नहीं करते राष्ट्र समाज के रूप में सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। सांस्कृतिक पर्व होली में सभी रंग एक ही रंग में भस्मीभूत हो एकता के सूत्र, संगठन के रूप में एकजुट होने का संदेश देते हैं। एकता और संगठन ही हमारी संस्कृति, हमारी ताकत है।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा
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Monday, 26 February 2018

कांग्रेस की देहरी तक पहुंची बैंक घोटालों की आंच

आग, अपने घर लगे तो आंच और दूसरों के यहां लगे तो बसंतर। देश में नित नए उजागर हो रहे बैंक फर्जीवाड़े जिसको कांग्रेस बसंतर समझती आरही थी अब उसे खुद को तपिश देने लगी है और इसकी आंच कांग्रेस की देहरी तक पहुंच रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी की पत्नी अनीता सिंघवी के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री व पार्टी के वरिष्ठ नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह के दामाद का नाम बैंक घोटाले से जुड़ा है। आरोप है कि कैप्टन के दामाद से जुड़ी एक कंपनी ने ओरियंटल बैंक आफ कामर्स के साथ लगभग दो सौ करोड़ रूपये का घोटाला किया है। सीबीआई ने कई लोगों पर केस भी दर्ज किया है। हास्यस्पद बात है कि कांग्रेस कार्यालय ने इस कथित घोटाले के लिए भी ट्वीट कर मोदी सरकार को जिम्मेवार ठहराया परंतु बाद में सच्चाई पता चलने पर अपने ट्वीट को हटाना पड़ा। अब भारतीय जनता पार्टी और अकाली दल सहित अनेक दलों ने कांग्रेस पार्टी से जवाब मांगा है कि आखिर किसकी शह पर राबर्ट वाड्रा के बाद कांग्रेस से जुड़े दूसरे दामाद पर दरियादिली दिखाई गई। पूरे मामले पर कैप्टन अमरिंदर सिंह की सफाई और भी मनोरंजक रही कि आरोपी कंपनी में उनके दामाद की हिस्सेदारी केवल 12.5 प्रतिशत है, इसलिए इस पर अनावश्यक राजनीति नहीं होनी चाहिए।

काबिलेजिक्र है कि 22 फरवरी को सिम्भावली शुगर्स लिमिटेड, उसके अध्यक्ष गुरमीत सिंह मान, उप प्रबंध निदेशक गुरपाल सिंह एवं अन्य के खिलाफ 97.85 करोड़ रुपये की कथित बैंक धोखाधड़ी मामले में मामला दर्ज किया है। गुरपाल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दामाद हैं। ओरियंटल बैंक आफ कामर्स ने नवंबर 2017 में सीबीआई से शिकायत की थी। हालांकि, एजेंसी ने इस साल 22 फरवरी को आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज किया। इस मामले में सीबीआई ने कुल 8 ठिकानों पर छापेमारे की है। उनमें एक उत्तर प्रदेश के हापुड़, एक नोएडा और 6 ठिकाने दिल्ली के हैं। गाजियाबाग सिम्भौली शुगर्स लिमटेड देश की सबसे बड़ी चीनी मिलों में से एक है, आरोप है कि ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स से चीनी मिल के नाम पर दो ऋण लिए गए थे जिसमें एक 97.85 करोड़ और दूसरा 110 करोड़ रुपए का है। 97.85 करोड़ के ऋण को साल 2015 में ही घपला घोषित किया गया था, वहीं पुराने ऋण को चुकाने के नाम पर 110 करोड़ रुपए का उद्योगिक ऋण लिया गया था। ऋण की राशि रिजर्व बैंक की एक योजना के तहत कंपनी को दी गई थी। जिसमें 5762 गन्ने के किसानों को वित्तीय सहायता दी जानी थी। लेकिन कंपनी ने लोन की राशि को बैंक से अपने निजी प्रयोग के लिए गलत ढंग से स्थानांतरित करा लिया। इससे पहले नीरव मोदी, विजय माल्या, ललित मोदी सहित अनेक लोगों को विगत कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे की सरकार के समय बिना वापसी की गारंटी के नियमों को ताक पर रख कर भारी भरकम लोन दिए गए, इस पर भी कांग्रेस पर कई अंगुलियां उठ रही हैं।

बैंक घोटालों व एनपीए को लेकर देश में खूब राजनीति हो रही है लेकिन इससे समस्या का समाधान निकलने वाला नहीं है। बैंकों का तेजी से बढ़ता एनपीए आज एक ऐसा रोग बन चुका है जिसका ईलाज बड़े से बड़े आर्थिक वैद्य के पास भी फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि एनपीए के इस अंधकार से रोशनी कब और कैसे मिलेगी? इस पर सरकार और रिजर्व बैंक भी चिंता जता चुके हैं। इसके साथ ही समय-समय पर नियम-कानून भी बनते रहे हैं, लेकिन सभी नियम-कानून फाइलों में दबे रह गए। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि एनपीए पर जवाबदेही तय क्यों नहीं हो रही? एनपीए जैसा गंभीर आर्थिक अपराध आज राजनीतिक मुद्दा बन गया है। सरकार और विपक्ष दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर इस समस्या से आंख चुराने की कोशिश कर रहे हैं। बैंक डिफाल्टरों का मुद्दा समय-समय पर संसद से सड़क तक चर्चा का विषय बनता रहा है। बैंकों पर एनपीए का दबाव आर्थिक स्थिति को चाट रहा है, बावजूद इसके बैंक खुद के पैसे वसूलने में असहाय नजर आ रहे हैं। एनपीए के बोझ तले कराह रहे बैंक क्या खुद इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? अगर किसी बड़े उद्योगपति को कर्ज बैंक ने दिया है तो उसे वसूलने के लिए सरकार, सुप्रीम कोर्ट और रिजर्व बैंक को क्यों दखल देना पड़ रहा है? आखिर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? एनपीए को लेकर सरकार ने भी कुछ बड़े कदम तो उठाए हैं। केंद्र सरकार ने एनपीए के खिलाफ 'द एनफोर्समेंट ऑफ सिक्युरिटी इंटरेस्ट एंड रिकवरी ऑफ डेब्ट्स लॉस एंड मिसलेनियस प्रोविजंस' नाम का विधेयक सरकार ने संसद के दोनों सदनों से पास करवाया था। जिसमें न सिर्फ सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों को और अधिकार दिए गए, बल्कि इस महत्त्वपूर्ण संशोधन की बदौलत एनपीए से जुड़े मामलों का निपटारा भी जल्द से जल्द हो सकेगा। लेकिन यह कानून आने के बाद भी परिणाम उत्साहजनक नहीं दिखाई पड़े।

वित्त मंत्री अरुण जेतली ने ठीक ही पूछा है कि ऋण देने व उगाही में बैंकों का आंतरिक तंत्र क्यों असफल हो रहा है। बैंक व वित्तीय संस्थान इस बात का विश्लेषण करें कि तीन स्तरीय लेखाजोखा होने, आंतरिक सतर्कता तंत्र होने के बावजूद भी क्यों कोई नीरव मोदी जैसा ठग बैंक का पासवर्ड प्रयोग करता रहा, क्यों आंख मूंद कर ऋण संबंधी सहमती पत्र जारी किए जाते रहे। अगर बैंक में भ्रष्ट अधिकारी या तंत्र विकसित हो गया तो क्यों उच्चाधिकारी सोए रहे। ठीक है कि सभी बैंक रिजर्व बैंक आफ इंडिया और आरबीआई वित्त मंत्रालय के अधीन है और मंत्रालय की ही जिम्मेवारी हैं परंतु मंत्रालय का काम बैंक की हर शाखा की चौकीदारी करना तो नहीं हो सकती? यह काम तो मोटे वेतन व लंबे चौड़े भत्ते लेने अधिकारियों को करने होंगे। इन सभी के बीच सुखद समाचार है कि केंद्र सरकार ने देश में आर्थिक अपराधों से निपटने में सख्ती बरतने के संकेत दिए हैं। बैंकों के घोटाले दशकों की आर्थिक अव्यवस्था के परिणाम हैं और स्वभाविक है इसे दुरुस्त करना केवल सरकार की ही जिम्मेवारी नहीं। सरकार, विपक्ष, बैंक और जनता के संयुक्त सहयोग से ही बैंकों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। विपक्ष इस गंभीर मुद्दे पर राजनीति करने की बजाय सरकार का सहयोग करे तो यह न केवल देश बल्कि खुद उसके लिए भी लाभप्रद होगा।

राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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Sunday, 25 February 2018

भारतीय अर्थचिंतन, संयुक्त परिवार-संपन्नता का द्वार

साधारण बुद्धि कहती है सांझे परिवार से दूर रहो अकेले जीयो-घी पीयो। मैं, मेरे बच्चे और मेरा नाथा बाकियों का फोड़ माथा। कमाऊं मैं मौज उड़ाएं सभी, इससे अच्छा मैं अपने बच्चों के लिए क्यों न जोड़ूं। बस यहीं गलती हो रही है, ताजा विश्लेषण बताते हैं कि एकल परिवार आर्थिक मंदी का शिकार हो रहे हैं जबकि संयुक्त परिवार संपन्नता का द्वार बनते जा रहे हैं। यह संयुक्त परिवारिक व्यवस्था ही थी जिसके चलते भारत ने संपन्नता के चरम को छूआ था।

'ए न्यू पैराडाइम आफ डिवेल्पमेंट-सुमंगलम्' पुस्तक के लेखक, प्रसिद्ध चिंतक व अर्थशास्त्री डा. बजरंग लाल गुप्ता बताते हैं कि यह परिवार का भाव ही है जो व्यक्ति को आर्थिक रूप से अनुशासित करता है। अपने देश में सरकार की छोटी-बड़ी बचत की योजनाओं में निवेश करने वाले लगभग 70 प्रतिशत लोग संयुक्त परिवारों से ही संबंधित हैं। देखने में आता है कि एकल और विभाजित परिवार आर्थिक रूप से स्वच्छंद हो जाता है और कई बार उसे नए घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक धन भी खर्च करना पड़ता है। केवल इतना ही नहीं एकल परिवार के ऊपर से किसी बड़े बुजुर्ग का अंकुश हटने से उसके सदस्यों का स्वभाव खर्चालू हो जाता है। दूसरी ओर संयुक्त परिवार का भाव आर्थिक रूप से मितव्यता सिखलाता है, परिवार के मुखिया का फिजूलखर्ची पर अंकुश रहता है। सामान्यत: हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि वह अपने बच्चों व भावी पीढ़ी के लिए कुछ छोड़ कर जाए। इसके लिए वह बचत का सहारा लेता है जो सांझे परिवार में ज्यादा संभव है। संयुक्त परिवार में सदस्यों के प्रति दायित्वों की पूर्ति के  लिए परिवार के मुखिया को बचत करनी अनिवार्य हो जाती है। बचत का भाव निवेश करने को प्रोत्साहित करता है और निवेश से उद्यमशीलता का गुण विकसित होता है। यही कारण है कि बड़े-बुजुर्ग अपने आशीर्वाद में 'दूधो नहाओ-पूतो फलो' की कामना करते हैं जिसका अर्थ है कि आपका परिवार फले-फूले और आर्थिक रूप से संपन्न हो। अपने आसपास भी हम जिन संपन्न परिवारों को देखते हैं तो उसकी संपन्नता के पीछे कहीं न कहीं उसकी परिवारिक एकता के जरूर दर्शन होते हैं।

हमारी परिवारिक प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता है घरेलु उत्पादन और उसमें निवेश। माता-बहनों की रसोई किसी छोटे-मोटे कारखाने व औषधालय से कम नहीं है। रसोई में दो-तीन समय का खाना बनने के साथ-साथ पापड़, बडिय़ां, पकौड़े-गुलगुले, कचौरी, मिठाई जैसे गरिष्ठ खाद्य पदार्थ (फास्टफूड), अचार-मुरब्बे, चटनी सहित अनेक तरह का सामान सामान्यत: बनाया जाता है। इसी तरह छोटी-मोटी बीमारियों का ईलाज रसोई के सामान व सामान्य मसालों से हो जाता है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार यह खाद्य पदार्थ देश के सकल घरेलु उत्पादन का 37 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा बनते हैं। अर्थात विदेशों में लोग इन खाद्य पदार्थों को डिब्बाबंद पदार्थों के रूप में खरीदते हैं जिससे उनके सकल घरेलु उत्पादन का आकार हमसे बड़ा नजर आता है। लेकिन संयुक्त परिवारों में यह काम घरों में हो संभव हो जाता है। संयुक्त परिवारों के माध्यम से हम सामान्य घरों में करोड़ों-अरबों रूपयों की बचत करते हैं। दूसरी ओर एक परिवारों में देखा जाए तो उसे यह सुविधा नहीं मिल पाती और बाजार का सहारा लेना पड़ता है जो आर्थिक बोझ साबित होता है।

एक सामान्य सी बात है कि अविभाजित दस सदस्यों के परिवार का खर्च विभाजित पांच-पांच सदस्यों के दो परिवारों से कम से कम 25 से 30 प्रतिशत तक कम होता है। कहने का भाव कि दस सदस्यों के परिवार का खर्च जितना होगा पांच-पांच सदस्यों के दो परिवारों का खर्च उससे 25 से 30 प्रतिशत अधिक होगा। अपने यहां सामान्य तौर पर कहा जाता है कि एक रसोई में पांच-छह लोगों के खाने में आठ-दस लोग भोजन कर सकते हैं। यह सत्य भी है। पांच-पांच सदस्यों के विभाजित परिवारों को दो सिलेंडर, लगभग दोगुने राशन, इतनी ही सब्जी, डबल बिजली मीटर का रेंट, डबल मनोरंजन के साधनों का बोझ, डबल परिवहन का खर्च वहन करना पड़ता है। संयुक्त परिवार में सांझे तौर पर बहुत से काम निकल जाते हैं और सदस्यों के मिलजुल कर काम करने की आदत से परिवार के सामान्य काम-काज के लिए नौकर की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस प्रकार संयुक्त परिवार में रह कर हम अपने घर का खर्च कम कर महंगाई का बड़ी आसानी से मुकाबला कर सकते हैं और बचे हुए धन को भविष्य के लिए संरक्षित कर सकते हैं।

संयुक्त परिवार प्रणाली हमारी सामाजिक एकता ही नहीं बल्कि आर्थिक संपन्नता का भी आधार है। तभी देखने में आता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने विज्ञापनों में संयुक्त परिवार व्यवस्था पर प्रहार करती दिखती हैं, उन्हें मालूम है कि अगर परिवार संयुक्त रहे तो उनके फिजूल के उत्पादन कौन खरीदेगा। घर में ही अगर केवड़े के स्वाद वाली लस्सी, शीतल शिकंजवीं, दही-मट्ठा मिल जाए तो विषैले कोल्ड डिं्रक्स को कौन मूंह लगाएगा। जीवन में अगर संपन्नता चाहिए, आर्थिक सुरक्षा चाहिए तो हमें पुन: परिवार प्रणाली को मजबूत करना होगा फिर से संयुक्त परिवारों की ओर लौटना होगा।

राकेश सैन
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भारतीय अर्थचिंतन, ममत्व में समत्व


मुनि क्षमासागर जी महाराज के अनुसार- चिडिय़ा के सामने पूरा खेत खुला है, परंतु वह जरूरत के दो दाने ही चुगती है। उसी से अपना व परिवार का पालन-पोषण करती और वर्षा ऋतु के लिए बचा कर भी रखती है। वह खेत पर बोझ नहीं डालती, दो दानों के बदले फसलों से शत्रु कीटों का नाश कर उसकी रक्षा करती है। यही है ममत्व में समत्व यानि ममता में समता और साथ में भारतीय आर्थिक चिंतन भी। ब्रिटिश इंडिया कंपनी व उसके बाद बर्तानवी सरकार की शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था के चलते देश की आर्थिकता में गरीबों की भूमिका शुन्य हो गई। इसका समाधान जवाहर लाल नेहरू ने समाजवादी अर्थचिंतन के रूप में स्वीकार किया। इंदिरा गांधी ने माक्र्सवाद से प्रभावित हो 1969 में बैंकों का सरकारीकरण कर दिया, लेकिन नई व्यवस्था के दूसरी तरह के विपरीत परिणाम निकले। सरकारीकरन में श्रम संस्कृति की जगह राजनीति संस्कृति व यूनियनबाजी ने ले ली, सार्वजनिक संस्थानों में लूट-खसूट बढ़ी और बड़े लोगों के प्रभाव से उनके कद मुताबिक ही घोटाले होने लगे। देश में नीरव मोदी से लेकर ललित मोदी, हर्षद मेहता से लेकर विजय माल्या जैसे आर्थिक भस्मासुर पैदा हुए, जिन्होंने जिन वित्तीय संस्थाओं से आर्थिक पोषण प्राप्त किया उन्हीं को बर्बाद भी किया। आज पूंजीवाद और माक्र्सवाद दोनो ही समय की परीक्षा में रहे असफल विद्यार्थियों की तरह सिर झुकाए खड़े दिख रहे हैं, तो क्यों न उस अर्थ चिंतन को पुन: व्यवहार में लाया जाए जो युगों से प्रमाणिक है। जिसके बल पर भारत कभी सोने की चिडिय़ा बना, भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में 52 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी जा पहुंची। वह व्यवस्था जो मानववादी, प्रकृति हितैषी व पूरे विश्व के लिए मंगलकारी है।

महर्षि याज्ञवलक्य कहते हैं -अर्थशास्त्र बलवत् धर्मशास्त्र इति स्थिति अर्थात अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र में अगर टकराव हो तो नीतिशास्त्र को अधिमान दिया जाना चाहिए। यही बात कौटिल्य ने भी 2500 साल पहले लिखे अपने ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में कही। इसी परंपरा को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आगे बढ़ाते हुए कहा कि ''मैं अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र में विभाजक रेखा मान कर नहीं चलता। जो शास्त्र एसा करता है वह अनैतिक और उससे भी आगे कहें तो पापपूर्ण है।''
'ए न्यू पैराडाइम आफ डिवेल्पमेंट-सुमंगलम्' पुस्तक के लेखक, प्रसिद्ध चिंतक व अर्थशास्त्री डा. बजरंग लाल गुप्ता बताते हैं कि भारतीय चिंतन में अर्थ साधन है साध्य नहीं, खाना जीने के लिए है जीवन खाने के लिए नहीं। शास्त्र कहते हैं कि अगर कोई पड़ौसी भूखा है और आप पेट भर कर सोते हैं तो आपका पकवान विष्ठा के समान है। हमारे यहां उपभोग को वर्जित नहीं बल्कि संयमित, सीमित और सदाचारी माना गया है। जीवन के चार पुरुषार्थों की शृंखला धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में धर्म को नेतृत्व दिया गया है। इनकी क्रमश: व्याख्या करें तो धर्मानुसार अर्जन (कमाई) करते हुए काम सेवन अर्थात उपभोग करके ही मोक्ष अर्थात जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। जब अर्थ प्रणाली इसी चिंतन पर चली देश दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बना और इसको विस्मृत करने के बाद गरीबी, आर्थिक असमानता, शोषण, लूट-खसूट, भ्रष्टाचार, घोटालों, रिश्वतखोरी ने हमारे समाज में अपने पैर जमा लिए।

हाल ही में आई वैश्विक मंदी के कारणों की मिमांसा की गई तो बहुत से कारणों में एक कारण सामने आया कि मंदी का कारण अत्यधिक उपभोगवाद था। उपभोगवाद में हर देश अधिक से अधिक उत्पादन करता है। इसके लिए संसाधनों का बेरहमी से उपयोग किया जाता है। तैयार माल की खपत के लिए अनावश्यक वस्तुओं की बनावटी जरूरत पैदा की जाती है, जैसे कोल्ड डिं्रक्स, चिप्स व पॉपकार्न व इसी तरह की विलासिता की वस्तुएं। कई बार इसके लिए चलने वाली स्पर्धा दो देशों के बीच टकराव का कारण भी बन जाती है। यह व्यवस्था समाज के लिए घातक है क्योंकि वह निर्मम कंपनियों के लिए समाज केवल बाजार बन जाता है। दूसरे शब्दों में यह व्यवस्था न तो प्रकृति और न ही समाज के कल्याण मेंहै। दूसरी ओर भारतीय चिंतन संयमित, सीमित व सदाचारी उपभोग में विश्वास करता है। इसमें प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं बल्कि दोहन किया जाता है। कबीर जी के शब्दों में - साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। पंूंजीवादी व्यवस्था में संसाधनों का मालिक व्यक्ति और समाजवादी व्यवस्था में सरकार, परंतु भारतीय दर्शन ईश्वर को दुनिया का मालिक मान कर व्यक्ति को उसका न्यासी बताती है। गांधी जी ने इसी व्यवस्था को ट्रस्टीशिप कहा है जो संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण पर जोर देती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में अंत्योदय यानि विकास की पंक्ति में अंतिम स्थान पर खड़े व्यक्ति के तक विकास का लाभ पहुंचाना। वे कहते थे कि अगर विकास केवल कुछ लोगों तक सीमित हो जाए तो उसका कोई अर्थ नहीं है।

भारतीय अर्थ चिंतन को पुनर्जीवित करने व समाज में पुन: स्थापित करने के तीन मार्ग हैं। पहला इसको पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि देश में इस दृष्टिकोण से ओतप्रोत प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी, उद्योगपति, व्यवसायी पैदा हों। दूसरा सरकारी स्तर पर इसके प्रयास हों। तीसरा और सबसे रोचक मार्ग कि स्वदेशी चिंतन के अनुरूप आज भी बहुत से कामधंधे चलते हैं उनको मान्यता दी जाए। समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़े। केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता को अगर कल्याणकारी व्यवस्था, भ्रष्टाचार मुक्त शासनप्रणाली, प्रकृति हितैषी विकास चाहिए तो उसके लिए अर्थ का भारतीय चिंतन एच्छिक नहीं बल्कि अनिवार्य है। पूंजीवाद,साम्यवाद, मिश्रित प्रणाली जैसी व्यवस्थाएं कल्याणकारी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही हैं। इनसे आर्थिक अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, संसाधनों के वितरण में असमानता पैदा हुई हैं। अब समय है कि हम अपनी जड़ों की तलाश करें और वैचारिक भटकाव के मार्ग से खुद को अलग करें। खुद का विकास करते हुए समाज, देश व अंतत: पूरी मानवता के विकास का मार्ग प्रशस्त करें। यही ममत्व में समत्व की भावना है और यही भारतीयता भी।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
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Saturday, 24 February 2018

अतिथि देवो भव:

देश में दूसरे राष्ट्रध्यक्षों का आना और अपने देश के नेताओं का वहां जाना सामान्य कूटनीतिक व्यवहार है। भारत की संस्कृति अतिथि को देवस्वरूप मान कर उसका सम्मान करती है परंतु महाभारत का वकासुर प्रसंग बताता है कि मेहमान का मेजबान के प्रति संबंध भी निरापद नहीं है। अतिथि का भी धर्म निर्धारित किया गया है कि वह मेजबान के संकट का निराकरण और उसके कल्याण की कामना करे। सभी जानते हैं कि किस तरह चक्रानगरी में पांडव अपने शरणदाता ब्राह्मण परिवार का संकट अपने सिर पर लेते हैं। माता कुंती ब्राह्मण परिवार के बेटे की जगह भीम को वकासुर के पास भेजती हैं भोजन का छकड़ा लेकर। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो भारत के सात दिन के दौरे पर आए, वे हमारे देवस्वरूप अतिथि रहे परंतु उन्हें यह जरूर आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि वे अतिथि धर्म का कितना पालन कर रहे हैं। उनकी यात्रा की परिणति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत और दोनों देशों के बीच छह समझौतों के साथ हुई। इन समझौतों में उच्च शिक्षा, ऊर्जा और खेलकूद आदि क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने की बात कही गई है। लेकिन इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने उन्हें यह भी साफ शब्दों में कह दिया कि भारत को तोडऩे और हिंसा करने वाले बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। धर्म का दुरुपयोग राजनीतिक उद्देश्यों की खातिर नहीं होना चाहिए। इससे पहले पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी उन्हें अलगाववाद को प्रोत्साहन न देने को कहा और वहां शरण लिए हुए 9 अपराधियों की सूची सौंपी। ट्रुडो चाहे महसूस करें या नहीं परंतु शालीन नागरिक होते हुए भारतीयों को यह बात कचोटती रहेगी कि उन्हें पहली बार किसी मेहमान को इस तरह अतिथि धर्म समझाना पड़ा हो।
जस्टिन ट्रुडो कनाडा के लोकप्रिय प्रधानमंत्री व उदारवादी नेता हैं, अपने देश में रहने वाले खालिस्तानी अलगाववादियों के साथ उनके संबंध किसे से छिपे नहीं। यहां तक कि उनके मंत्रीमंडल में शामिल कुछ मंत्रियों पर भी भारत विरोध को प्रोत्साहन देने के आरोप लगते रहे हैं। ट्रुडू की लिबरल पार्टी के कई नेताओं और मंत्रियों के बारे में माना जाता है कि खालिस्तानी आंदोलन से उनका करीबी रिश्ता है। यह खालिस्तानी तत्वों को मिली छूट का ही प्रमाण है कि वहां के लगभग 9 गुरुद्वारों में भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों का प्रवेश वर्जित है। अनेकों गुरुद्वारे धर्मप्रचार की जगह खालिस्तानी तत्त्वों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के अड्डे बन चुके हैं। इन धर्मस्थलों में भारत विरोधी दुष्प्रचार होता है और देश को तोडऩे के मनसूबे गढ़े जाते हैं। ऐसा नहीं कि कनाडा सरकार इनसे अनभिज्ञ है बल्कि जानबूझ कर इन अपराधियों के प्रति आंखें बंद किए हुए है। खालिस्तानी तत्वों को मिली छूट की बानगी यहीं से देखने को मिल जाती है कि जस्टिन ट्रुडो के भारत दौरे के में भी जसपाल अटवाल अपराधियों को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया जाता है। ऐसा करते हुए ट्रुडो यह भी भूल जाते हैं कि वे दो दिन पहले ही वे अमृतसर स्थित श्री हरिमंदिर साहिब की पावन हाजिरी में भारत की एकता-अखण्डता का सम्मान करने का वायदा करके आए हैं। कनाडा में लाखों सिख बसे हैं, उनके पास वोट और नोट की ताकत भी है। इसी ताकत और इसी मदद का हवाला देकर जसपाल अटवाल जैसे तत्त्व अपना उल्लू सीधा करते हैं, राजनीतिक पैठ बनाते हैं या राजनीतिक संरक्षण हासिल करते हैं। लिबरल पार्टी के नेताओं और मंत्रियों को देशभक्त सिख समाज और अटवाल जैसे अपराधियों के बीच अंतर सीखना होगा। इस मामले में भारत ने इशारों ही इशारों में भी सख्त संदेश दिया है जो उचित भी है। ट्रुडो के दौरे के दौरान उन्हें उचित सम्मान न मिलने की शिकायतें भी सुनने को मिलीं परंतु इसके लिए भारत को जिम्मेवार नहीं ठहराया जाना चाहिए। कोई भी देश नहीं चाहेगा कि जिस देश के राष्ट्राध्यक्ष को उसकी एकता-अखण्डता और कानून-व्यवस्था की चिंता नहीं उसको ज्यादा भाव दिया जाए।
खालिस्तान आतंकवाद भारत के सीने पर वह घाव है जिसने तीन दशकों तक यहां के लोगों को तड़पाया, आज भी यदाकदा इन जख्मों के रिसने की वेदना झेलनी पड़ जाती है। इस आतंकवाद ने 30000 से अधिक कीमती जानों को लील लिया और अरबों रुपयों का नुक्सान हुआ। विकास की यात्रा में भारत का उत्तरी हिस्सा तीन दशकों थमा रहा था इसी आतंकवाद के कारण। इसीने दुनिया भर में भारतीय सिखों की पहचान को संदिग्ध किया। आज चाहे भारत की धरती पर इस आतंकवाद की आंच मद्धम पड़ गई परंतु कनाडा साहित कई पश्चिमी देशों में आज भी इसको या तो धधकाने का प्रयास हो रहा है या इसकी तपिश के प्रति भारतीय चिंताओं की अनदेखी हो रही है। कनाडा भारत का मित्र देश है परंतु यह मैत्रीभाव धरातल पर दिखाई भी देना चाहिए। बगल में छुरी दबा कर गलबहियां डालने वालों को भारत अच्छी तरह पहचानने लगा है। कनाडा अगर भारत के साथ सही अर्थों में मित्रता और सहयोग चाहता है तो उन्हें अपने यहां चल रही भारत विरोधी हर गतिविधि को सख्ती से रोकना होगा। ट्रुडो को यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद व अलगाववाद वह भस्मासुर है जो पैदा करने वालों और शरण देने वालों को भी नष्ट कर सकता है। कल को यही जसपाल अटवाल जैसे अलगाववादी कनाडा में भी अलग राष्ट्र की मांग करनी शुरु कर कानून व्यवस्था को चुनौती देने लगें तो तब ट्रुडो क्या करेंगे?
राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Thursday, 22 February 2018

जनरल रावत के ब्यान पर राजनीतिक चिल्लपों क्यों ?

आश्चर्य है कि सेक्युलरवादी यह शिकायत करते रहते हैं कि सरकार का विरोध करने वालों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि देश की चिंता करने वालों को भाजपा और आरएसएस का एजेंट करार दे दिया जाता है। आज जनरल रावत को भी इसी आधार पर संघ और भाजपा का एजेंट बताया जाने लगा है। 


सेना प्रमुख बिपिन रावत ने असम में बढ़ रही बंगलादेशी घुसपैठ को लेकर वहां के राजनीतिक दल ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को लेकर जो ब्यान दिया है उस पर सियासी चिल्लपों की नहीं बल्कि उसे सही संदर्भ में समझते हुए गहन चिंतन और कार्रवाई करने की आवश्यकता है। जनरल ने देश के सीमावर्ती राज्य असम में बदल रही जनसांख्यिकी, बढ़ रहे आतंकवाद, कानून-व्यवस्था को लेकर पैदा हो रही चुनौती के मद्देनजर अपनी चिंता जताने का प्रयास किया है। इसको राजनीतिक चश्मे से देखना उतना ही अनैतिक व खतरनाक  है जितना कि देश के पूर्वोत्तर में बंगलादेशी घुसपैठियों की अनदेखी करना।

मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने 2005 में ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की नींव डाली। इसी दल को लेकर सेना प्रमुख ने 21 फरवरी को बयान दिया कि असम में एआईयूडीएफ नाम की एक पार्टी है। अगर आप देखेंगे तो वह बीजेपी के मुकाबले बेहद तेजी से बढ़ी है। यह पार्टी 'मुस्लिमों के हित' में काम करने का दावा करती है। अजमल की पार्टी असम के 5 राजनैतिक दलों में सबसे युवा है। गठन के सिर्फ 6 महीने बाद, 2006 में पार्टी ने 10 सीटों जीतीं। 2011 में विधानसभा में पार्टी के 18 सदस्य हो गए, इसी चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 5 सीट हासिल हुई थीं। 2016 के असम विधानसभा चुनाव में ने 126 सीटों में से 13 सीटों पर जीत दर्ज की। इस चुनाव में उसने 13 प्रतिशत मत प्राप्त किए। वर्तमान में पार्टी के लोकसभा में तीन सदस्य हैं। इसके नेता बदरुद्दीन अजमल असम की धुबरी सीट से लोकसभा सांसद हैं। अजमल असम राज्य जामिया-उलेमा-ए-हिन्द के प्रमुख व दारूल उलूम देवबंद के सदस्य भी हैं। 2016 में चुनावी शपथपत्र में अजमल ने 54 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की थी। लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार, इसमें परिवार की संपत्ति जोडऩे पर यह आंकड़ा 200 करोड़ को पार कर जाता है। 2016-17 में भाजपा को कुल 290.22 करोड़ रुपये का कॉर्पोरेट चंदा प्राप्त हुआ। अजमल का परिवार एशिया का सबसे अमीर गैर-सरकारी संगठन मरकज-उल मारिस चलाता है। इसके अलावा परिवार के पास एशिया का सबसे बड़ा चैरिटेबल अस्पताल- 500 बिस्तर का हाजी अब्दुल माजिद स्मृति अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र भी है।

मौलाना अजमल की इन उपलब्धियों से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, परंतु उन पर सबसे गंभीर आरोप यह लगते हैं कि वे बंगलादेशी घुसपैठियों को शरण देते हैं। उन्हें भारतीय नागरिकता दिलवाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग कर उनका आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर कार्ड जैसे सरकारी दस्तावेज उपलब्ध करवाने में सहायता करते हैं। इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर घुसपैठिए भारतीय नागरिक होने का दावा पेश करते हैं। चाहे मौलाना इन आरोपों को नकारते रहे हैं परंतु धरातल की सच्चाई चिंता पैदा करती है। इन घुसपैठियों के कारण केवल असम ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत की जनसांख्यिकी में परिवर्तन हुआ है। भारत सरकार के सीमा प्रबंधन कार्यदल की वर्ष 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं। असम में जिन तीन जिलों में जातीय संघर्ष चल रहा है, सबसे पहले कोकराझार जिले पर नजर डाले। 2001-2011 में यहां जनसंख्या में वृद्धि दर 5.19 प्रतिशत  रही और 2001 के जनगणना के अनुसार इस जिले में मुस्लिमों की संख्या बढ़कर लगभग 20 प्रतिशत हो गई है। अगर हम असम मुस्लिम जनंसख्या में वृद्धि दर को देखे तो बंगलादेश से सटे जिलो में यह सबसे अधिक है जिसके पीछे बंगलादेशी घुसपैठ मुख्य कारण है। धुबड़ी जिला भी बंगलादेश के सीमा से सटा हुआ है। 1971 में यहां मुस्लिम जनसंख्या 64.46 प्रतिशत थी जो 1991 में बढ़कर 70.45 और 2001 में 75 प्रतिशत हो गई। कमोबेश यही हाल 2004 में बने चिरांग जिले का भी है। जनसंख्या की बढ़ोतरी का अनुपात देखकर यह साफ प्रतीत होता है कि यह जनसंख्या में सहज हुई वृद्धि नहीं है अपितु यह बंग्लादेशी घुसपैठ का नतीजा है। इतने सारे विदेशी लोग किसी राजनीतिक संरक्षण के घुसपैठ नहीं कर सकते और न ही यहां अपना अड्डा बना सकते। स्वभाविक है कि यह एक खतरनाक राजनीतिक सौदा है इसके लिए देश चाहे जाए भाड़ में, केवल वोट दो और भारत की नागरिकता ले लो। इसके लिए केवल मौलाना की पार्टी को ही जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि सेक्युलरिज्म की राजनीति करने वाले वामपंथी, कांग्रेस, समाजवादी दलों के वह नेता भी बराबर के कसूरवार हैं जो आज जनरल रावत के ब्यान को केवल भाजपा व गैर-भाजपा या हिंदू-मुसलमान की तुला में तोलने कोशिश कर रहे हैं। अंतर केवल इतना मौलाना की एआयूडीएफ घुसपैठियों को शरण देने व दिलवाने में बाकी दलों से आगे हो सकती है। बंगलादेशी घुसपैठियों और मौलाना की पार्टी साथ-साथ हो रही बढौत्री को लेकर जनरल रावत ने इस पार्टी का उल्लेख किया है न कि किसी और कारण से। रावत का उद्देश्य इलाके में बंगलादेशियों की घुसपैठ की समस्या को उजागर करना है कि कि किसी दल विशेष के साथ पक्षपात करना। आश्चर्य है कि सेक्युलरवादी यह शिकायत करते रहते हैं कि सरकार का विरोध करने वालों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि देश की चिंता करने वालों को भाजपा और आरएसएस का एजेंट करार दे दिया जाता है। आज जनरल रावत को भी इसी आधार पर संघ और भाजपा का एजेंट बताया जाने लगा है। 

वैसे जनरल रावत पहले सैनिक अधिकारी नहीं है जिन्होंने असम में बंगलादेशी घुसपैठियों पर चिंता जताई हो। 8 नवंबर, 1998 में राज्यपाल लेफ्टीनेंट जनरल एस.के. सिन्हा ने देश के राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में भी इसकी चेतावनी दी गई है। जनरल सिन्हा अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ क्रमांक 1 से 18 तक में बताते हैं कि किस प्रकार असम के सीमांत जिलों का जानसांख्यिक परिवर्तन हो रहा है, बंगलादेशी घुसपैठिए किस प्रकार अवैध गतिविधियों में लिप्त हो कानून-व्यवस्था, देश की एकता-अखण्डता के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। जनरल रावत ने गुप्तचर एजेंसियों के हवाले से देश को चेताया है न कि किसी दल विशेष पर अंगुली उठाई या किसी को प्रोत्साहन दिया। भारतीय सेना राजनीति से सदैव अलिप्त रही है और यही कारण है कि जनरल रावत ने बेबाकी से अपनी बात कही है न कि राजनीतिक नफा नुक्सान देख कर। यूं तो असम में स्थानीय निवासियों की पहचान का काम बड़ी तेजी से चल रहा है परंतु जनरल की चिंता बताती है कि इसमें तेजी लाने की आवश्यकता है। पूरे मुद्दे पर राजनीतिक दलों से आग्रह ही किया जा सकता है कि वह सेना को राजनीति में न घसीटें और राष्ट्रीय हितों पर तो कम से कम हमारा एकमत होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि जनरल बिपिन रावत के एआईयूडीएफ बनाम भाजपा संबंधी ब्यान पर चिल्लपों मचाने की बजाय चिंतन किया जाए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी, 
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Tuesday, 20 February 2018

बैंक घोटाला, एक अंगुली सरकार तो चार कांग्रेस पर उठीं

हाल ही में पंजाब नैशनल बैंक में हुए 11400  करोड़ रूपये के घोटाले ने देश का ध्यान इस ओर खींचा है कि इस तकनीकी युग में भी हमारी बैंकिंग प्रणाली किस तरह लचर, भ्रष्ट, बड़े लोगों की जी हजूरी करने वाली बनी हुई है। सामान्य नागरिकों से चेक पर हस्ताक्षर में थोड़ा-बहुत अंतर होने पर तरह-तरह की मीन मेख निकालने वाले बैंक अधिकारी किस तरह एक हीरा व्यापारी नीरव मोदी व उसके रिश्तेदार मेहुल चौकसी को करदाताओं के गाढ़े खून पसीने की कमाई चोरी का माल समझ कर लाठियों के गज के हिसाब से लुटाते रहे, यह अपने आप में एक शर्मनाक सच्चाई है। मामले को लेकर स्वभाविक रूप से राजनीति भी खूब हो रही है, दूसरी ओर इस चुनौती को अगर अवसर के रूप में लिया जाए तो देश के खजाने में चले आरहे एक बहुत बड़े सुराख को भरने का एतिहासिक काम संभव हो सकता है। बैंकों के सरकारीकरण के कुछ समय के बाद से चले आरहे लूटखसूट के क्रम को बंद कर बैंकिंग प्रणाली की ओवरहॉलिंग की जा सकती है। उक्त घोटाले से जुड़े अब तक जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे बैंकिंग व्यवस्था की विश्वसनीयता की पोल खोलते हैं। 

बैंकों की सबसे बड़ी समस्या है इसमें राजनीतिक व प्रभावशाली लोगों का हस्तक्षेप और बढ़ती गैर संपादित संपति (एनपीए)। वह समय भी था जब बैंकों में क्लर्क तक की भर्ती स्थानीय स्तर के अधिकारी कर लिया करते थे। नियुक्तियां किस आधार पर होती थीं वह सभी जानते हैं। दसवीं या प्रेप (प्लस टू प्रणाली से पहले की व्यवस्था) करने के बाद सामान्य घरों के लोग बड़े साहबों व नेताओं के घरों के चक्कर काटना शुरु कर देते थे कि बेटे-बेटी को बैंक में नौकरी लगवाने के लिए। यह एक छोटी उदाहरण है, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप ऊपर तक था और आज भी है। इसी के चलते नीरव जैसे लोगों को सभी तरह के नियम-कानून ताक पर रख कर ऋण पर ऋण दिए जाते रहे हैं। बैंक भर्ती बोर्ड के गठन के बाद निचले स्तर पर तो भर्ती प्रक्रिया में कुछ पारदर्शिता आई है परंतु अभी ऊपरी स्तर पर प्रभावशाली लोगों की दखलंदाजी का क्रम यूं ही चल रहा है। बैंकों के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति, प्रतिनियुक्ति, पदोन्नति, स्थानांतरण आदि बहुत से काम राजनीतिक प्रभाव में ही होते हैं। बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं का प्रशासनिक ढांचा दुरुस्त किए बिना इनकी प्रणाली सुधारनी बड़ी मुश्किल होगी।

बैंकों की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है बढ़ता एनपीए जिसके चालू वित्तीय वर्ष में ही 9.5 लाख करोड़ रूपये होने की आशंका जताई जा रही है। देखने वाली बात तो यह है कि 11400 करोड़ रूपये के घोटाले पर तो खूब हायतौबा मच रही है, जो मचनी भी चाहिए परंतु इतनी बड़ी ब्लाक हो चुकी बैंकों की राशि पर गौर नहीं किया जा रहा। विपक्ष में रहते हुए सरकार से नीरव मोदी की फरारी का प्रश्न पूछने का कांग्रेस सहित पूरे देश को अधिकार है परंतु देश में सर्वाधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए कि उनकी सरकारों के कार्यकाल के दौरान एनपीए इतना कैसे बढ़ गया? सात फरवरी को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सदन को बताया कि वे बैंकों की एनपीए कांग्रेस के पाप का नतीजा है और देश इसके लिए कभी माफ नहीं करेगा। पुरानी सरकारों ने ऐसी नीति बनाई जिसमें बैंकों पर दबाव बनाये जाते थे, चहेतों को ऋण दिलाया गया। बैंक से गया पैसा कभी वापस नहीं आया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने एनपीए को छिपाया, आंकड़े गलत दिये। उसने अपने कार्यकाल में अग्रिम ऋण पर 36 प्रतिशत एनपीए होने की बात कही, नई सरकार ने जांच की तो यह 82 प्रतिशत निकला। कांग्रेस ने इसे छिपाया क्योंकि उसमें उसके हित थे।

आज नीरव मोदी को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सरकार पर एक अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियां उनकी खुद की पार्टी व विगत सरकारों पर स्वत: उठ जाती हैं। इलाहाबाद बैंक के स्वतंत्र निदेशक दिनेश दुबे ने 2013 में नीरव मोदी के बिजनेस पार्टनर मेहुल चौकसी की कंपनी गीतांजलि जेम्स को लोन अस्वीकृत करने के लिए असहमति पत्र भेजा था। जब इलाहाबाद बैंक के बोर्ड और आरबीआई से भी नोट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली और कार्रवाई नहीं हुई तो दिनेश ने बोर्ड से इस्तीफा दे दिया। अब उनकी पहचान ऐसे सचेतक (विसल ब्लोअर) के तौर पर हो रही है जिसकी चेतावनी पर ध्यान दिया जाता तो बैंक यह सबसे बड़ा घोटाला होने से बच सकता था। एक पत्रकार के तौर पर दिनेश दुबे को यूपीए सरकार में इलाहाबाद बैंक के बोर्ड में नियुक्त किया गया था। राजस्थान के बूंदी में वह कांग्रेस से जुड़े रहे थे। दूसरी ओर आयकर विभाग ने इस घोटाले को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी अनीता सिंघवी को नोटिस जारी किया है। उन पर संदेह है कि उनका नीरव मोदी के साथ व्यापारिक लेनदेन था। भाजपा ने आरोप लगाया कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को मेहुल चौकसी की गलत हरकतों की जानकारी वर्ष 2015 से ही थी। कर्नाटक सरकार ने अदालतों में चौकसी से संबंधित मामलों में कहा है कि वह 'आदतन अपराधी'  है और देश छोड़कर भाग सकता है। उसकी सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से जांच होनी चाहिए लेकिन राज्य सरकार ने किसी भी केंद्रीय एजेंसी से संपर्क नहीं किया। इतने गंभीर मामले की जांच स्थानीय पुलिस को ही करते रहने दी। राजनीतिक आरोप अपनी जगह हैं परंतु समय की मांग है कि अगर नए भारत के सपने को साकार करना है और देश को आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित करना है तो यह काम बिना आर्थिक अनुशासन के संभव नहीं है। उक्त घोटाले ने देश व सरकार के समक्ष चुनौती पेश करने के साथ-साथ एक अवसर भी दिया है सुधार का। घोटालेबाजों को पकड़ कर नए घपलों की पूरी तरह नसबंदी करने का समय आगया है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
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Friday, 16 February 2018

जेएनयू विवाद, विद्यार्थी हैं कक्षा में क्यों जाएं

लेख का शीर्षक जितना चौंकाने वाला है उतना ही विस्मयकारी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की शिकायत हैकि उन्हें कक्षा की चारदिवारी में क्यों बांधा जा रहा है। विद्यालय जो शिक्षा के मंदिर, ज्ञान और विज्ञान के अनुसंधान केंद्र माने जाते हैं वह इन विद्यार्थियों की नजरों में बंदिश हैं। आजकल इसी तरह की अटपटी बातों को लेकर देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शामिल जेएनयू एक बार फिर चर्चा में है। फिर एक बार आजादी के नारे गूंज रहे हैं, अंतर इतना है कि पहले भारत से आजादी मांगी गई थी अब कक्षाओं से मांगी जा रही है। पहले भारत के टुकड़े करने की मन्नत मानी गई थी अब शिक्षक और शिक्षार्थियों की मर्यादाओं को टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है।

बीते गुरुवार 15 फरवरी को जेएनयू के हजारों छात्र विश्वविद्यालय प्रशासनिक भवन के सामने सुबह से देर रात तक नारे लगाते रहे। यह विरोध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के उस निर्णय के विरुद्ध है जिसमें छात्रों को 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य रूप से पूरा करने को कहा गया है। इसको लेकर विद्यार्थियों ने खूब प्रदर्शन किया। चाहे प्रदर्शनकारी आरोपों को नकारते हैं परंतु बताया जाता है कि उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति एम. जगदीश कुमार सहित अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को पूरे प्रदर्शन के दौरान भवन से बाहर नहीं निकलने दिया। इस मानवीय मांग की भी अनदेखी कर दी गई कि कुछ अधिकारी आयुजनिक बीमारियों से पीडि़त हैं। प्रदर्शनकारी कुलपति से मांगों को लेकर मिलने की बात कह रहे थे तो दूसरी तरफ रजिस्ट्रार डॉ. प्रमोद कुमार ने पहले भीड़ हटाने की शर्त रखी। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि जेएनयू में पहले इस तरह के नियम नहीं रहे हैं। छात्र और शिक्षक एक संजीदा माहौल में पठन-पाठन करते रहे हैं। कुलपति यहां के 'ओपन नॉलेज फ्लो' अर्थात मुक्त ज्ञान प्रवाह की संस्कृति को नष्ट कर छात्रों को कक्षा के भीतर कैद रखने का षड्यंत्र कर रहे हैं।

वैसे मुक्त ज्ञान प्रवाह से किसी को कोई आपत्ति नहीं, बशर्ते इसको सही अर्थों में लागू किया जाए। परंतु यहां का तो मंजर ही निराला लगता है। राजस्थान से विधायक ज्ञानदेव अहूजा की मानी जाए तो यहां हर रोज सफाई सेवकों को हजारों की संख्या में प्रयुक्त निरोध, शराब की खाली बोतलें, बीड़-सिग्रेटों के टुकड़े व पैकेट, हड्डियों के टुकड़े मिलते हैं। कहने का भाव कि कई विद्यार्थियों के मुक्त ज्ञान प्रवाह में शराब, शबाव और कबाब का खूब दौर चलता है। यहां अकसर आरोप लगता है कि कुछ नेता किस्म के युवा किसी न किसी तरह विश्वविद्यालय में प्रवेश पा लेते हैं और दस-पंद्रह सालों तक जानबूझ कर फेल हो कर यहां जमे रहते हैं। छात्रावासों में राजनीतिक दलों के कार्यालय की तरह काम चलता है। जनता के गाढ़े खून-पसीने की कमाई सब्सिडी के रूप में इन मुक्त ज्ञान के साधकों पर स्वाह की जाती है। जब जिन छात्रों को पास होने की चिंता नहीं, करियर बनाने व आगे बढऩे का कोई बोझ नहीं तो आखिर वो क्यों जाएंगे कक्षा में फालतू में समय बर्बाद करने। इसी तरह के नेता किस्म के विद्यार्थी बाकी विद्यार्थियों को भी बहकाते हैं और उनका जीवन बर्बाद करते हैं। 

यह पहला मौका नहीं है जब छात्रों ने कुलपति के फैसले के विरोध किया हो। 9 फरवरी, 2016 को विश्वविद्यालय परिसर में लगे देशविरोधी नारों के बाद पूरे देश में इस बात की जरूरत महसूस की गई कि युवाओं में देशभक्ति की भावना का संचार करने, सेना के प्रति सम्मान पैदा करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल निरंजन सिंह की अगुवाई में आठ सैनिकों ने कुलपति से मुलाकात कर माहौल बदलने की मांग की थी। इसको लेकर यहां के परिसर में टैंक लगाने की मांग की बात चली तो वामपंथी संगठनों व इस सोच के बुद्धिजीवियों ने इसका खूब विरोध किया।  

जेएनयू छात्र संघ की वर्तमान उपाध्यक्ष सिमॉन जोया खान को तो इस बात से भी आपत्ति है कि परिसर में राष्ट्रवादी गतिविधियां बढ़ रही हैं। वे कहती हैं कि आज के माहौल में सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने के देशद्रोह ठहरा दिया जाता है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से जेएनयू को राष्ट्रवादी गतिविधियां बढ़ी हैं। वो कहती हैं, जेएनयू में पिछले साल पहली बार करगिल विजय दिवस मनाया गया, विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार से रंगभवन तक 2200 फीट के झंडे के साथ तिरंगा मार्च निकाला गया। वे कहती हैं कि कक्षाओं के बाहर खुले में पठन-पाठन का आयोजन हो रहा है। इससे पहले जेएनयू में कभी भी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और रिसर्च कोर्स में कक्षाएं अनिवार्य नहीं रही हैं। बावजूद इसके विश्वविद्यालय रैंक के मामले में अग्रणी रहा है। रोचक बात है कि इस तरह सोचने वालों में केवल युवा छात्र ही नहीं बल्कि परिपक्व बौद्धिक योग्यता वाले कुछ अध्यापक भी हैं जो इन विद्यार्थियों को सही भी बता रहे हैं।

अब सोचने वाली बात है कि किसी देश के किसी भी हिस्से में सेना के प्रति सम्मान पैदा करने के प्रयास में टैंक स्थापित करना, सेना के गौरवशाली इतिहास से जुड़ा करगिल विजय दिवस मनाना और तिरंगा यात्रा निकालना आपत्तिजनक कैसे हो गया? कक्षाओं में उपस्थिति सुनिश्चित करना विद्यार्थी स्वतंत्रता पर प्रहार किस आधार पर माना जाए? विद्यार्थी अगर कक्षा में न जाएं तो उसका अध्ययनस्थल कहां होना चाहिए? विश्वविद्यालय में अनुशासन लाना किसी की स्वतंत्रता में बाधा कैसे कहा जाए? विश्वविद्यालय के प्रशासनिक निर्णयों पर विद्यार्थियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार किसने दिया? विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने भी प्रेस विज्ञप्ति में छात्रों के आंदोलन को अवैध बताया है और कहा है कि प्रदर्शनकारी विश्वविद्यालय के नियमों और प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रदर्शन कर दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं। आखिर वह कौन सी सोच है जो हमारे ही युवाओं को अपने ही देश के खिलाफ भड़का रही है और पैर पर कुल्हाड़ी मारने को प्रोत्साहित कर रही है। समय की मांग है कि इस विकृत सोच के जिम्मेवार लोगों को समाज के सामने लाना ही होगा।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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Wednesday, 14 February 2018

चन्नी चाचा की चवन्नी

लोकजीवन में देश के विभिन्न हिस्सों में अतीत में चली कांग्रेसी सरकारों को लेकर अनेक रोचक किस्से प्रचलन में है। कहा जाता है कि हरियाणा में एक कांग्रेसी मंत्री की सिफारिश पर रोडवेज में कंडक्टर रख लिया गया और वो स्वभाविक रूप से गलत टिकटें काटने लगा। फ्लाइंट स्कवैड ने उसे पकड़ लिया और जब मंत्री महोदय को इसकी जानकारी दी गई तो उन्होंने अजीबो गरीब आदेश देते हुए कहा- भाई वो टिकट काट नहीं सकता तो फाड़ तो सकता है। ऐसा करो उसे टिकट चैकिंग के काम पर लगा दो। उक्त बात कितनी सच्ची है यह कोई नहीं जानता परंतु अब कुछ ऐसा रोचक केस पंजाब में सामने आया है जिसने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाए हैं। राज्य के तकनीकी शिक्षा मंत्री चरनजीत सिंह चन्नी ने चवन्नी उछाल कर पता कर लिया कि कौन अध्यापक अधिक योग्य है और उसको अध्यापक तैनात कर दिया। मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक चाचा चन्नी और उनकी चवन्नी छाए हुए हैं।

पूरी घटना इस प्रकार है, दो पॉलीटेक्नीक महाविद्यालयों के अध्यापकों ने पटियाला के आईटीआई में तैनाती का आवेदन दिया था। मामला विभाग के मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के पास पहुंचा। उन्होंने मीडिया के सामने सिक्का उछाल कर फैसला किया कि किस अध्यापक को वहां तैनात किया जाएगा। रोचक बात है कि इससे दोनों अध्यापक संतुष्ट भी हो गए। इस फैसले के पीछे मंत्री महोदय का तर्क है कि ऐसी तैनातियों के लिए पैसे-रुपए, सिफारिशों का चलन रहा है, पर उन्होंने इसकी परवाह किए बगैर मीडिया के सामने सिक्का उछाल कर पारदर्शी ढंग से दोनों अध्यापकों की किस्मत का फैसला करना उचित समझा। प्रश्न उठता है कि क्या इसे उचित प्रशासनिक तरीका कहा जा सकता है। चरनजीत सिंह चन्नी की बात गलत भी नहीं है कि लाभ वाले पदों और सुविधाजनक जगहों पर तैनाती पाने के लिए बहुत-से लोग रसूखदार लोगों तक पहुंच बनाने, उनकी सिफारिश लगवाने, पैसे तक खर्च करने से परहेज नहीं करते। राजनीतिक लोगों पर तैनातियों के जरिए पैसे कमाने के आरोप भी आम हैं। आजकल जब बहुत सारे प्रतिष्ठित स्कूलों में दाखिले के लिए डोनेशन और सिफारिशें की जाती हैं, कुछ स्कूल लॉटरी प्रणाली के जरिए दाखिले की प्रक्रिया पूरी करते हैं। इस तरह सिक्का उछाल कर तैनाती करने का फैसला प्रथम दृष्टया अनुचित नहीं कहा जा सकता। पर एक अच्छे प्रशासक के लिए ऐसे फैसले करना हमेशा उचित नहीं कहा जा सकता। नियुक्तियों, तैनातियों, स्थानातंरण आदि के मामले में अभ्यर्थियों की योग्यता, कार्यकुशलता, वरिष्ठता आदि के आधार पर फैसले किए जाने का नियम है। कैबिनेट मंत्री चन्नी के इस कदम से यह बात भी साफ होती है कि हमारी सरकारें अभी तक स्थानांतरण व नियुक्तियों संबंधी कोई स्पष्ट नीतियां नहीं बना पाई हैं। नीतियों की अस्पष्टता का ही परिणाम है कि इसके लिए सरकारी कर्मचारियों को रसूखदार लोगों के यहां पानी भरना पड़ता है। इसी से भयभीत हो सरकारी बाबू बड़े लोगों के हर उचित-अनुचित काम करने को तत्पर रहते हैं और जनसाधारण अपने वैध कामों के लिए भी दफ्तरों में भटकने को मजबूर होता है। हमारे राजनेता इसी का लाभ उठा कर ईमानदार अधिकारियों को धमकाने व प्रभावित करने का प्रयास करते हैं और कई राजनेताओं के लिए तो स्थानांतरण व बदलियां अच्छा खासा उद्योग बन चुकी हैं।

दो अभ्यर्थी होने के कारण चन्नी ने फैसला चवन्नी से कर लिया परंतु क्या अधिक उम्मीदवार होते तो चवन्नी फार्मूला काम आता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर काम योग्यता के आधार पर पारदर्शिता से होना चाहिए। सरकार के हर फैसले संविधान की कसौटी पर खरे उतरने चाहिएं व तर्क पर आधारित होने चाहिएं। उचित होता कि चन्नी अगर अपने इस फैसले के लिए कोई परीक्षा या साक्षात्कार लेते, अध्यापकों का रिकार्ड भी देखा जा सकता था। दूसरी तरफ देखा जाए तो अच्छा ही हुआ कि देशवासियों का ध्यान इस ओर गया कि किस तरह आज भी हमारी सरकारें नीतिगत अस्पष्टता के अभाव में काम कर रही हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र व पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था के लिए इस समस्या का निराकरण करना अत्यावश्यक है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Monday, 12 February 2018

स्वयंसेवकों ने दो दिनों तक पाकिस्तानी फौज रोके रखी


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने कहा है कि उनके स्वयंसेवक देश की रक्षा के लिए तैयार हैं। देश को जरूरत पड़ी और संविधान इजाजत दे तो तीन दिनों में ही वे सेना के रूप में मातृभूमि की रक्षा के लिए तैयार हो जाएंगे। हमें संघ और संगठन की नहीं, बल्कि देश की चिंता है। उन्होंने 11 फरवरी रविवार को मुजफ्फरपुर के जिला स्कूल मैदान में आयोजित स्वयंसेवकों के खुले सम्मेलन और पटना शाखा मैदान में स्वयंसेवकों को संबोधित किया। डा. भागवत के इस देशभक्ति से ओतप्रोत वकतव्य पर संघ के  इतिहास से अनजान या उसकी अनदेखी करने वाले व इस देश की माटी से कटे लोगों ने विवाद पैदा करने का प्रयास किया। परंतु इतिहास के जानकार जानते हैं कि संघ प्रम्मुख के इस कथन में न तो अतिशयोक्ति थी न ही अहंकार। डा. भागवत बोल रहे थे संघ के गौरवशाली पराक्रम के बल पर जिसका प्रदर्शन स्वयंसेवकों ने जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के दौरान किया। इतिहास साक्षी है कि संघ के दो सौ स्वयंसेवकों ने मात्र एक दिन के सैन्य प्रशिक्षण के बल पर ऐसी क्षमता हासिल कर ली कि उन्होंने महाराजा हरि सिंह की सेना के साथ मिल कर पाकिस्तानी फौज को दो दिनों तक रोके रखा। इस युद्ध में स्वयंसेवकों ने प्रशिक्षित सैनिकों के समान जो पराक्रम दिखाया वह केवल संघ ही नहीं बल्कि देश के सैन्य इतिहास का गौरवशाली अध्याय है।

अपनी पुस्तक 'व्यथित जम्मू-कश्मीर' में प्रसिद्ध देश के विख्यात लेखक नरेंद्र सहगल बताते हैं कि पाकिस्तान ने विभाजन के तत्काल बाद से ही कश्मीर में गड़बड़ी शुरू कर दी थी। 15 अगस्त, यानि पाकिस्तान की आजादी के अगले दिन ही श्रीनगर की सरकारी ईमारतों पर स्थानीय रियासत के झंडे उतार कर पाकिस्तानी झंडे फहरा दिए गए। कश्मीर में सुबह शाखाओं में इसकी चर्चा हुई तो प्रात: दस बजे तक पांच हजार स्वयंसेवक व हिंदू समाज के लोग एकत्रित हुए और भारत माता की जय के नारों के बीच इन झंडों को उतार कर आग के हवाले कर दिया। इससे कश्मीर के राजा हरि सिंह को अपार प्रसन्नता हुई और स्थानीय लोगों में उत्साह पनप गया। 

समय बीतने पर संघ के दो प्रचारक हरीश भनोट व मंगलसेन गुप्तचर के रूप में कबाईली बन कर पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गए। इन्होंने पाकिस्तानी सेना की कश्मीर हमले की योजना से संबंधित बहुत सी जानकारी वहां के संघ प्रमुख श्री बलराज मधोक को दी। उन्होंने यह जानकारी महाराजा हरि सिंह को दी। महाराजा हरि सिंह ने श्री मधोक से दो सौ तरुण स्वयंसेवकों की मांग की। रात को दो बजे इन स्वयंसेवकों को सूचना हुई और सुबह 6 बजे सभी स्वयंसेवक श्रीनगर के आर्य समाज मंदिर में एकत्रित हुए। दैनिक प्रार्थना के बाद महाराजा की सेना इन स्वयंसेवकों को ट्रकों में सवार कर अपनी छावनी में ले गई। वहां पर शाम तक इन्हें राइफल व छोटे-मोटे हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया गया। शाम तक ही यह स्वयंसेवक सेना के साथ मोर्चे पर पहुंच गए और दो दिन तक पाकिस्तानी सेना को तब तक रोके रखा जब तक भारतीय सेना कश्मीर के मोर्चे पर नहीं पहुंच गई।

कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के समय वायु सेना से हथियारों के बक्से ऐसे स्थान पर गिर गए जो पाकिस्तानी रेंज के अंदर आते थे। इसके लिए सेना के अधिकारी ने कोटली शाखा के नगर कार्यवाह व पंजाब नैशनल बैंक में प्रबंधक की नौकरी करने वाले चंद्रप्रकाश से संपर्क किया। वे अपने साथ सात अन्य स्वयंसेवकों को लेकर उस नाले में पहुंच गए जहां हथियारों के बक्से पड़े थे। इन्होंने बक्से उठाए परंतु पाकिस्तानी सेना को इसकी भनक लग गई और उसने अंधाधुंध फायरिंग कर दी। इस फायरिंग में स्वयं चंद्रप्रकाश व उनके साथी वेदप्रकाश घायल हो गए परंतु बाकी साथियों ने 6 हथियारों के बक्से सेना के पास पहुंचा दिए। हथियार पहुंचाने के बाद अपने घायल साथियों को वापिस लाने के प्रयास में दो और स्वयंसेवक पाकिस्तानी गोलीबारी का शिकार हो कर शहीद हो गए। बाद में पूरे कोटली नगर में पूरी शानोशौकत के साथ इन चारों शहीद स्वयंसेवकों का अंतिम संस्कार किया गया। बताया जाता है कि उनके अंतिम संस्कार में कोटली के निवासियों के साथ-साथ भारी संख्या में सैनिकों व सैनिक अधिकारियों ने भी हिस्सा लिया था।

उस समय कश्मीर में हवाई पट्टियों की हालत ऐसी न थी कि वहां हवाई जहाज उतर सकें। वहां मजदूरों की उपलब्धता भी नहीं थी। ऐसे में सैंकड़ों स्वयंसेवकों ने सेना के साथ मिल कर रातों रात हवाई पट्यिां बना दीं व पुरानी रिपेयर कर दीं। रोचक बात यह रही कि यह स्वयंसेवक अपने साथ अपना खाना और निर्माण कार्य के लिए सामग्री भी लेकर पहुंचे थे। दिन रात लग कर इन्होंने हवाई पट्टियों को चालू कर दिया। इन्हीं पट्टियों पर उतरी भारतीय सेना अभी पूरे कश्मीर में तिरंगा झंडा फहराती जा रही थी कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बढ़ती हुई भारतीय सेना को रुक जाने का आदेश दे दिया। परिणाम यह हुआ कि एक तिहाई कश्मीर आज भी भारत से बाहर रह गया और हमारे लिए सिरदर्द बना हुआ है। अगर कुछ घंटे भारतीय सेना को न रोका जाता तो आज पूरा कश्मीर भारत का हिस्सा होना था और न ही कश्मीर में आतंकवाद होना था। लेकिन दुर्भाग्य है कि देश को उपहारस्वरूप कश्मीर समस्या देने वाले नेहरू के वंशज राहुल गांधी व उनके दरबारी संघ प्रमुख की गर्वोक्ति को आज भारतीय सेना व तिरंगे का अपमान बता रहे हैं। इतिहास के प्रति जानकारी के अभाव में संघ को गांधी हत्या से जोड़ कर विवादों में फंसे राहुल गांधी अदालतों का चक्कर काट रहे हैं और उनके वकील ही बताते हैं कि उनके पास इन आरोपों से संबंधित कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। संघ विरोधियों को देश का इतिहास और राष्ट्रभक्ति का अध्याय पुन: पढऩे की आवश्यकता है।
राकेश सैन
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Sunday, 11 February 2018

क्या चर्च का भाजपा के खिलाफ फतवा राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं?

चर्च का नाम सुनते ही ध्यान में आते हैं सच्चाई के लिए सूली पर चढ़े प्रभु ईसा मसीह, मन की गहराई तक उतर जाने वाली शांति और मानवता का संदेश देती बाईबल परंतु आजकल की चर्च का अर्थ केवल इतना ही सबकुछ नहीं है। चर्च पर धन बल के सहारे गरीबों का धर्म खरीदने के आरोप तो ब्रिटिश काल से लगते रहे परंतु अब चर्च राजनीति में भी उतर आई है। मनपसंद प्रत्याशियों को वोट देना, किसके पक्ष में मतदान करना और किसका बहिष्कार इसका फैसला भी चर्च करती है। अंतर केवल इतना है कि अगर एसा ही काम मठ-मंदिर करे तो उसका हल्ला मच जाता है परंतु चर्च की राजनीति उसकी घंटियों के शोर में दब गई है। पूर्वोत्तर में तीन राज्यों की विधानसभाओं के लिए इसी महीने मतदान होना है। इसको लेकर नागालैंड की बैपटिस्ट चर्च ने एक खुला पत्र लिख कर कहा है कि लोग भाजपा का विरोध करें क्योंकि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक शाखा है। लोगों को संघ का भय दिखाया जा रहा है परंतु असलीयत यह है कि चर्च पूर्वोत्तर में देश की बढ़ रही रुचि व केंद्र सरकार द्वारा दिए जा रहे ध्यान से चिंतित है। चर्च अभी तक गलत दावा करती आरही है कि इस इलाके में लगभग सारी आबादी इसाई बन चुकी है, जबकि सच्चाई यह है कि यहां का समाज आज भी कबीलों में बंटा और अपनी उस आस्थाओं से जुड़ा है जो वृहत हिंदू समाज का ही अंग हैं। सच्चाई सामने आने और जमीन दरकने की आशंका से चर्च चिंतित है और पूरा प्रयास है कि भाजपा जैसा कोई राष्ट्रवादी दल इस इलाके में प्रवेश न कर सके। चर्च की विदेशी धन पर चल रही दुकानदारी यूं ही चलती रहे।

पुराणों में नागभूमि के नाम से वर्णित नगालैंड में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और विचारधाराओं के बजाय आदिवासियों, गांवों और व्यक्तिगत मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते हैं। परंतु अबकी बार बैपटिस्ट चर्च की तरफ से कहा गया है कि अनुयायी पैसे और विकास की बात के नाम पर ईसाई सिद्धांतों और श्रद्धा को उन लोगों के हाथों में न सौंपे जो यीशु मसीह के दिल को घायल करने की फिराक में रहते हैं। राज्य में बैप्टिस्ट चर्चों की सर्वोच्च संस्था नागालैंड बैपटिस्ट चर्च परिषद् ने नगालैंड की सभी पार्टियों के अध्यक्षों के नाम एक खुला खत लिखा है कि भाजपा सरकार में अल्पसंख्य समुदायों के लिए में सबसे बुरा अनुभव किया है। एनबीसीसी के प्रवक्ता ने कहा-हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी के सत्ता में रहने की वजह से हिंदुत्व का आंदोलन अभूतपूर्व तरीके से मजबूत और आक्रामक हुआ है। प्रभु जरूर रो रहे होंगे जब नगा नेता उन लोगों के पीछे गए जो भारत में हमारी जमीन पर ईसाई धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। चर्च के नेता ईसाई बाहुल्य तीन राज्यों मेघालय, नगालैंड और मिजोरम में बीजेपी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लेकर सावधान हैं। नागालैंड में  बीजेपी ने नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पीपल्स पार्टी (एनडीपीपी) के साथ गठजोड़ किया है।

अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान देश के वनवासी व गिरीवासी इलाकों में इसाई मिशनरियों को खूब प्रोत्साहन दिया और भारतीयों के प्रवेश पर रोक लगा दी। इसका असर यह हुआ कि यहां चर्च ने बड़ी तेजी से अपने पांव पसारे परंतु पूरी ताकत झोंकने के बाद भी इन इलाकों को पूरी तरह क्रॉस की छाया के नीचे नहीं ला पाई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार नगालैंड की जनसंख्या 88 प्रतिशत इसाई, 9 प्रतिशत हिंदू और 2 प्रतिशत मुस्लिम है। लेकिन सच्चाई यह है कि नगा समाज अंगामी, आओ, चखेसंग, चांग, दिमासा कचारी, खियमनिंगान, कोनयाक, लोथा, फोम, पोचुरी, रेंगमा, संगतम, सूमी, इंचुंगेर, कुकी और जेलियांग आदि जातियों में विभक्त है और अपने कबिलाई रितिरिवाजों का पालन करते हैं। ये रितिरिवाज वृहत हिंदू धर्म के अंग माने जाते हैं। लेकिन पूर्वोत्तर की राजनीति व प्रशासनिक व्यवस्था में चर्च का अत्यधिक हस्तक्षेप होने के कारण क्रिसमस वाले दिन अपने घर के बाहर तारे व क्रॉस से सजावट करने वाले हर परिवार को इसाई मान लिया जाता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि हिंदू समाज सभी धर्मों का पालन करने वाला है और करोड़ों लोग हिंदू होने के बावजूद क्रिसमस सहित अन्य धर्मों के समारोह भी मनाते हैं। परंतु चर्च ने इसका अर्थ उन्हें इसाई होने में निकाल लिया है। चर्च को लगने लगा है कि कहीं चुनावों के जरिए इस क्षेत्र में राष्ट्रवादी दल के मजबूत होने से उसका झूठ दुनिया के सामने आ सकता है और शायद यही कारण है कि चर्च आज भाजपा व आरएसएस के खिलाफ इस तरह अलोकतांत्रिक फतवा जारी कर रही है।

चर्च का डरना स्वभाविक भी है क्योंकि नगालैंड 1 दिसंबर, 1963 को देश का 16वां राज्य बना परंतु संघ ने इससे पहले ही वहां अपना काम शुरू कर दिया था। नगालैंड के गवर्नर पद्मनाभ आचार्य ने वहां भारत मेरा घर के नाम से अभियान शुरू किया था। आचार्य आरएसएस से जुड़े हुए थे। आरएसएस को इस इलाके में लोगों ने 90 के दशक से अहमियत देनी शुरू की थी। आज लोग संघ को मानने लगे हैं। पहले तो उन्हें संघ के बारे में पता ही नहीं था, लेकिन अब लोगों को ये अंदाजा है कि आरएसएस लोगों और समाज के भले के लिए काम कर रहा है। लोगों का हम पर भरोसा बढ़ रहा है। हम समाज को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। चर्च की इस अलोकतांत्रिक हरकत पर देश के सेक्युलर तानेबाने ने न जाने क्यों मुंह में दही जमा लिया है। क्या यह धर्म का राजनीति में हस्तक्षेप नहीं? गुजरात विधानसभा चुनाव में भी गांधीनगर के आर्च बिशप थॉमस मैकवान ने चिट्ठी लिखकर ईसाई समुदाय से अपील की थी कि वे 'राष्ट्रवादी ताकतों' को हराने के लिए मतदान करें। चर्च का इस तरह निरंतर राजनीति में हस्तक्षेप स्पष्ट तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय एवं चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन है और इसे सख्ती से रोका जाना चाहिए। 
राकेश सैन
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Saturday, 10 February 2018

मुहाजिरों की हालत देखें भारत से आजादी मांगने वाले

जन्नत की हकीकत सामने आरही है, दीन पर आधारित वह जन्नत जिसका सपना किसी समय मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को दिखाया। इसी हसीन ख्वाब में आकर जिन लोगों ने अपने ही मादरे वतन हिंदुस्तान के खिलाफ तलवारें उठाईं, अपने ही पुरखों की भूमि को खुद के ही निर्दोष हिंदू-सिख बंधुओं के खून से सींचा अब वे पछता रहे हैं। आज उनके दिलों में आक्रोश वैसा ही है परंतु नारे बदल रहे हैं। 'हर हाल में लेंगे पाकिस्तान' का नारा अब 'हमें पाकिस्तान से बचाओ' और 'हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान' का नारा अब 'फ्री कराची' में बदल चुका है। मुहाजिर अपनी जन्नत पाकिस्तान से दुखी हैं, वही मुहाजिर जिन्होंने भारत को छोड़ कर पाकिस्तान को अपना खुदा की धरती माना और मारकाट मचाते हुए यहां से विदा हुए। आज वे दुखी हैं, पाकिस्तान के रूप में जन्नत मिले को 70 साल हो गए परंतु अभी तक वहां के लोगों ने उन्हें हमवतन नहीं माना। उनकी पहचान है मुहाजिर यानि अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में रहने वाला। पाकिस्तानी मानते हैं कि इन मुहाजिरों का अपना देश भारत है और वह दूसरे वतन में आए हुए हैं। अमेरिका में 15 जनवरी को आयोजित मार्टिन किंग लूथर दिवस पर 'फ्री कराची' नाम का अभियान शुरू किया गया जिसमें मुहाजिरों के  अधिकारों की आवाज उठाई गई है। भारत से आजादी मांगने और भारत के टुकड़े करने वाले नए युग के मुस्लिम लीगियों व जेएनयू के वामपंथियों को इन मुहाजिरों की हालत जरूर देखनी चाहिए।
अमेरिका में चले इस अभियान में वॉशिंगटन शहर में 100 टैक्सियों के ऊपर फ्री कराची लिखे हुए बैनर और पोस्टर लगाए गए हैं। बैनर पर लिखा है-पाकिस्तान के मुहाजिरों को बचाएं। ये टैक्सियां शहर भर के अहम इलाकों जैसे व्हाइट हाउस, अमरीकी कांग्रेस और विदेश मंत्रालय समेत सांसदों और सीनेटरों के दफ़्तरों के आसपास गश्त लगाती रहती हैं। अमरीका में रहने वाले कुछ पाकिस्तानी मुहाजिर लोग इस मुहिम में शामिल हैं। फ्री कराची मुहिम के प्रवक्ता नदीम नुसरत इस अभियान के बारे में कहते हैं, इसका उद्देश्य यह है कि दुनिया को कराची में और सिंध के दूसरे इलाकों में रहने वाले शांतिप्रिय मुहाजिरों के हालात के बारे में जानकारी दी जाए, जिन्हें पाकिस्तान के सैन्य और सुरक्षा बल प्रताडि़त कर रहे हैं। अमरीकी कांग्रेस की विदेशी मामलों की समिति की बैठक में भी इस मुहिम के प्रतिनिधि शामिल हुए और कराची में मुहाजिरों के साथ अत्याचारों के बारे में बयान दर्ज कराए। अमरीकी कांग्रेस की प्रतिनिधि सभा की विदेश मामलों की समिति के एक सदस्य डेना रोरबाकर ने भी कराची में रहने वाले मुहाजिरों के पक्ष में बात की। डेना रोरबाकर ने कहा, हमें उन सभी गुटों की मदद करनी चाहिए जिन्हे पाकिस्तान में प्रताडि़त किया जा रहा है। हमें बलोचों और मुहाजिरों की मदद करनी चाहिए। 
अभियान के कर्ताधर्ता नदीम नुसरत बताते हैं कि सन 1992 से अब तक पाकिस्तान के सिंध प्रांत में 22 हजार उर्दू बोलने वाले मुहाजिरों को सुरक्षा बलों ने मौत के घाट उतारा है। उनका कहना है कि सन 2013 से अब तक मुहाजिरों की सैकड़ों लाशें सड़कों पर फेंकी हुई मिली हैं जिनको प्रताडि़त करके मार डाला गया था। कराची शहर में प्रतिबंधित गुटों के लोग खुले आम नफरत की सोच का प्रचार करते हैं और सुरक्षा बल उनको सुरक्षा भी प्रदान करते हैं, वहीं मुहाजिरों की मुख्य राजनीतिक पार्टी मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट या एमक्यूएम पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। कराची में करीब डेढ़ करोड़ लोग रहते हैं और इनमें सबसे बड़ी संख्या मुहाजिरों की है। कराची शहर से ही पाकिस्तान को 70 प्रतिशत राजस्व मिलता है, लेकिन सरकारों द्वारा मुहाजिरों के साथ भेदभाव किया जाता है। मुहाजिरों को न तो पुलिस में और न ही अर्ध-सैन्य बलों में नौकरी मिलती है। कराची में मुहाजिरों को सुरक्षा बल अगवा कर लेते हैं और फिरौती देने के बाद रिहा करते हैं और जो न दे सकें उनको या तो फर्जी केस में फंसा दिया जाता है या बेरहमी से मार दिया जाता है।
यह अभियान निराधार व राजनीतिक नहीं, दुनिया में मानवाधिकारों पर नजर रखने वाली एमनेस्टी इंटरनैशनल भी पाकिस्तान में मुहाजिरों व बलोचों पर चिंता जता चुकी है। अमेरिका के सांसद ब्रैंड शर्मन ने पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन पर अपनी चिंता जाहिर की है। पिछले एक साल में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति, एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यमून राइट वाच और विदेश विभाग की रिपोर्ट में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर पाकिस्तान और उसमें भी सिंध में लोगों के लापता होने पर गंभीर चिंता जताई गई है। शर्मन ने कहा है कि इस तरह से मानवाधिकारों के उल्लंघन को अनुत्तरित नहीं किया जा सकता। ऐसे ही पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हजारों बलूच नागरिकों के लापता होने की समस्या गंभीर बनी हुई है। पिछले कई वर्षों से उनका कुछ अता-पता नहीं लग रहा। इसके पीछे पाक सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ बताया जा रहा है। पाकिस्तान में न तो अल्पसंख्यक हिंदू-इसाई सुरक्षित हैं और न ही अहमदीया व शीया मुसलमान। इनको न तो समान अवसर मिले हैं और आस्था को आधार बना कर अत्याचार भी होते रहते हैं। फ्री कराची अभियान से आंखें खुल जानी चाहिएं उन वामपंथियों व नव मुस्लिम लीगियों विशेषकर कश्मीरियों की जो उस भारत से आजादी की मांग करते हैं जहां दुनिया की सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्र व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं। हंस कर लिया है पाकिस्तान और लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान नारे लगाने वाले आज रो-रो कर कह रहे हैं उस डाली को कभी न काटो जिस पर तुम पले बढ़े हो। 
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Friday, 9 February 2018

राहुल गांधी को 'बॉस' बताना कितना लोकतांत्रिक

कांग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि राहुल गांधी अब उनके भी बॉस हैं। पार्टी की संसदीय दल की बैठक में उन्होंने अपनी भूमिका को लेकर तमाम शंकाओं और अफवाहों पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की। उन्होंने कहा, ''हमारे पास नए कांग्रेस अध्यक्ष हैं और मैं आपकी व खुद अपनी ओर से उन्हें शुभकामनाएं देती हूं। राहुल गांधी अब मेरे भी बॉस हैं। इस बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।'' इस ब्यान के बाद प्रश्न उठना स्वभाविक है कि एक लोकतांत्रिक देश में किसी लोकतांत्रिक दल के अध्यक्ष को सार्वजनिक रूप से 'बॉस' कहा जाना आखिर कितना लोकतांत्रिक है?

अंग्रेजी के बॉस शब्द के हिंदी में मालिक, शासक, हाकिम और स्वामी सहित कई इसी तरह की भावना लिए अर्थ हैं। रोचक बात है कि चाहे आज बहुत से नेताओं पर उक्त व्याख्या स्टीक बैठ सकती है परंतु हर कोई सार्वजनिक रूप से अपने आप को बॉस कहलवाने से गुरेज करेगा। लेकिन सोनिया गांधी ने राहुल को कांग्रेस का अध्यक्ष कहने की बजाय बॉस कह कर पार्टी की अब तक की स्वामी और दासत्व वाली मानसिकता पर पहली बार ठप्पा लगा दिया लगता है। लोकतंत्र जनता की जनता के लिए और जनता के लिए प्रणाली एक सर्वमान्य परिभाषा है और नेताओं को जनसेवक माना जाता है परंतु सोनिया गांधी ने जो संदेश दिया है वह जनतंत्र के बिलकुल विपरीत है। बॉस किसी कंपनी में हो सकते हैं परंतु राजनीतिक दल में उनके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

इटली की मूल नागरिक होने के चलते हिंदी का अल्पज्ञान होने के कारण सोनिया गांधी गुजरात चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मत का सौदागर' कहने की बजाय 'मौत का सौदागर' कह गईं परंतु अंग्रेजी भाषा में तो वो पूर्ण रूप से पारंगत हैं। यह नहीं माना जा सकता कि वे बॉस शब्द का सही अर्थ नहीं जानती होंगी। क्या सोनिया गांधी की इस गलती को कांग्रेस की स्वीकारोक्ति मान लिया जाए कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी नेतृत्व भाव से नहीं बल्कि स्वामी और सेवक भाव से चलती है। कांग्रेस पर अकसर विरोधी आरोप लगाते रहे हैं कि दल पर एक परिवार विशेष का कब्जा है और उक्त परिवार निजी कंपनी के तौर पर इसका संचालन करता रहा है। याद करें कांग्रेस के संस्थापक ब्रिटिश अधिकारी एओ ह्यूम की हैसीयत किसी मालिक से कम न थी। स्वतंत्रता के उपरांत देश की 15 कांग्रेस कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने को मंजूरी दी और 3 ने किसी के पक्ष में भी मतदान नहीं किया, परंतु पार्टी के तत्कालिक किसी मालिक ने पं. जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया। नेहरू के बाद पार्टी उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के हाथों में आगई। साल 1977 में आपात्काल खत्म होने के बाद कांगेस की बदहाली शुरू हुई। इसी दौर में चुनाव आयोग ने गाय बछड़े के चिन्ह को भी जब्त कर लिया। रायबरेली में करारी हार के बाद सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के हालात देखकर पार्टी प्रमुख इन्दिरा गांधी काफी परेशान हो गईं। श्रीमती गांधी ने उसी वक्त कांग्रेस (आई) अर्थात कांग्रेस (इंदिरा) की स्थापना की और एक तरह से पार्टी अपने नाम करवा ली। इंदिरा के बाद राजीव और उनके बाद सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष, याने उन्हीं के शब्दों में कहा जाए तो 'बॉस' बनीं। यह सोनिया गांधी का स्वामी भाव ही था कि उन्होंने दिवंगत होने के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी के शव को कांग्रेस मुख्यालय में नहीं घुसने दिया। कारण था कि सोनिया व केसरी के बीच वैचारिक मतभेद पैदा हो गए थे।

साल 2002 में कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आए तो मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने या बनाए गए। सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह अपने दस सालों के कार्यकाल के दौरान गांधी परिवार के इसी एहसान के बोझ तले दबे नजर आए। राहुल गांधी ने तो मनमोहन सरकार द्वारा पारित अध्यादेश तक फाड़ डाला, लेकिन मनमोहन सिंह सहित किसी भी कांग्रेसी नेता में इसहरकत की निंदा करने की हिम्मत न हुई। मनमोहन सिंह सरकार पर लगने वाले सबसे बड़े आरोपों में यही भी था कि उनकी सरकार की बागडोर दस जनपथ रोड निवासियों के हाथ में थी। आरोप यहां तक लगे कि प्रधानमंत्री कार्यालय की फाइलें यहीं से फाइनल होकर जाती थीं। दस साल चली यूपीए सरकार में सोनिया गांधी की भूमिका किसी राजमाता जितनी प्रभावी थी। इस कार्यकाल में सोनिया के नेतृत्व में गठित नैशनल एडवाइजरी काउंसिल पीएमओ से भी अधिक शक्तिशाली संस्था बन चुकी थी। याने पूरी तरह उस समय कांग्रेस के साथ-साथ पूरी सरकार की बॉस सोनिया गांधी ही थीं। वर्तमान में भी चाहे कांग्रेस के अध्यक्ष सोनिया के ही पुत्र राहुल गांधी बन चुके हैं परंतु कांग्रेस में तो सोनिया की भूमिका आज भी राजमाता जैसी ही दिखती है। कांग्रेसी नेता कुलदेवी उन्हीं को ही मानते हैं और यही कारण रहा होगा कि सोनिया को कहना पड़ा कि उनके बॉस भी राहुल गांधी हैं।

कांग्रेस की आखिर कैसी अलोकतांत्रिक मानसिकता है, कभी राहुल गांधी अमेरिका में जाकर बड़े गर्व के साथ कह आते हैं कि भारत में तो परिवारवाद ही चलता है। अब सोनिया गांधी पार्टी को बताती हैं कि उनके याने कांग्रेस के साथ-साथ खुद सोनिया के बॉस भी राहुल गांधी हैं। लगता है कि कसूर केवल गांधी-नेहरू परिवार का ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं व निचले स्तर के नेताओं का भी है जो दासत्व स्वीकार कर चुके हैं। अगर ऐसा न होता तो हाल ही में पार्टी के आंतरिक चुनाव के समय केवल अपना नामांकन दाखिल करने पर तहसीन पूनावाला की इस कदर अपमानजनक विदाई व लानत मलानत न होती। 'बॉस' कांग्रेस व इसके नेताओं के राजनीतिक ध्येयवाक्य हो सकता है, इस देश का नहीं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और शनै-शनै सबसे सफल गणतंत्र होने की दिशा में बढ़ रहा है। कांग्रेस ने अगर अपना रवैया, लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण और राजनीतिक शब्दावली नहीं सुधारी तो शीघ्र ही वह पूरी तरह से राजनीतिक हाशिए पर धकेली जा सकती है। इसके लिए कोई और नहीं बल्कि वह खुद कांग्रेसी ही जिम्मेवार होंगे।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Thursday, 8 February 2018

रेणुका चौधरी को शूर्पनखा किसने बताया ?

कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर मान-सम्मान की जंग लडऩे का एलान किया है। गुजरात चुनाव के दौरान मणिशंकर अय्यर के घर पूर्व पाकिस्तानी मंत्री और मनमोहन सिंह के बीच हुई जीमनवार का विषय उठाने को भी को कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री का अपमान बताते हुए जंग छेड़ी थी हालांकि यह अलग बात है कि दो-तीन दिनों बाद ही मनमोहन जंग-ए-मैदान में अकेले नजर आए। कांग्रेस ने अब वैसी ही जंग का ऐलान कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा सदस्य रेणुका चौधरी को लेकर फिर से कर दिया है। पार्टी ने मांग की है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूर्व केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी से माफी मांगनी चाहिए। असल में मोदी ने राज्यसभा में 7 फरवरी को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर अपनी बात रखते हुए विपक्ष पर निशाना साधा। एक समय ऐसा आया जब माहौल गर्म भी हो गया, लेकिन मोदी ने उस माहौल को भी तंज मार कर ठंडा कर दिया। प्रधानमंत्री की बात पर कांग्रेस की रेणुका चौधरी ने बहुत जोर से ठहाका लगाया। इस पर सभापति वेंकैया नायडू गुस्सा हो गए। उन्होंने रेणुका को कहा कि यह व्यवहार संसदीय नहीं कहा जा सकता। लेकिन, प्रधानमंत्री ने यह कह कर सबको हंसाया 'सभापति जी, आप रेणुका जी को कुछ नहीं कहें। रामायण सीरियल के बाद पहली बार ऐसी हंसी सुनी है।' रोचक बात है कि मोदी ने रामायण के किसी पात्र का नाम नहीं लिया परंतु कांग्रेस ने स्वत: ही इसका अर्थ शूर्पनखा या रावण से लगा लिया। रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी, जिसमें रेणुका चौधरी व रावण की बहन शूर्पनखा को मिला कर प्रस्तुत किया जाने लगा। केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजु ने भी सोशल मीडिया में इसी तरह का विवादित फोटो डाल दिया, जिससे कांग्रेस को हमला करने का अवसर मिल गया। प्रश्न उठता है कि जब मोदी ने रामायण के किसी पात्र का नाम नहीं लिया तो कांग्रेस किस आधार पर उस हंसी की उदाहरण का अर्थ शूर्पनखा या रावण की हंसी से लगा रही है, रामायण में अनेकों पात्र हैं जो समय-समय पर हंसे व मुस्कुराए। क्या कांग्रेस खुद ही अपनी नेता को शूर्पनखा या रावण नहीं बता रही है?

जिसने रामायण पढ़ी या रामलीला व टीवी पर देखी होगी जानता है कि बाल रूप में राम व चार पुत्रों को पा कर तीनो माताएं व राजा दशरथ कितने मुस्कुराए। राम की बाल लीलाओं पर दशरथ कितनी ही बार ठहाके लगाते हैं। मिथिला की वाटिका में राम-सीता मिलन के समय दोनो मंद-मुंद मुस्कुराए और मन ही मन परस्पर चाहने भी लगे। राम को देख शबरी किस कदर अपने आप को भूला बैठी। इस तरह और भी अनेकों अवसर आए जब रामायण के चरित्रों को मुस्कुराने व ठहाके लगाने का अवसर मिला, लेकिन क्या कारण है कि कांग्रेस को केवल शूर्पनखा और रावण के ठहाके ही याद रहे। लगता है कि असल में कांग्रेस की अंतात्र्मा भी मान रही है कि संसद में रेणुका चौधरी का व्यवहार सीता और शबरी की तरह शालीन नहीं था। यही कारण है कि सभापति वैंकेयानायडू को उन्हें सख्ती से टोकना पड़ा। मोदी के इस ब्यान को महिलाओं का अपमान बताने वाली रेणुका चौधरी ने इसके खिलाफ संसद में विशेषाधिकार लाने की बात कही है परंतु वे व उनकी पार्टी भूल रही हैं कि समाज में सम्मान पाने के लिए खुदका व्यवहार भी शालीन होना चाहिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान लोकसभा में प्रधानमंत्री के अभिभाषण के दौरान शुरू से अंत तक हल्ला कर कांग्रेस ने आखिर किसी संसदीय मर्यादा का पालन किया? क्या संसद का नेता प्रधानमंत्री किसी दल का नेता होता है? क्या कांग्रेस का व्यवहार संसद की राजनीति को सड़क की राजनीति में परिवर्तित करता नहीं दिख रहा?

प्रताडि़त महिला होने का दिखावा कर सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रही कांग्रेस नेत्री रेणुका चौधरी का खुद का रिकार्ड देखा जाए तो बहुत से अवसर ऐसे आए हैं जब वे बोलने के मामले में विवादों में रहीं। उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत जिस टीडीपी से हुई लेकिन साल 1998 का दौर था जब रेणुका को किनारे कर दिया गया। इस दौरान के दो बयानों ने काफी सुर्खियां बंटोरीं, उन्होंने चंद्रबाबू नायडू को बस स्टैंड के पास खड़ा जेबकतरा बताया। इस ब्यान के कुछ समय पहले ही रेणुका ने राज्यसभा सांसद जयप्रदा को बिंबो कहा था जिसका एक अर्थ कमअक्ल खूबसूरत औरत भी है। साल 2011 में रेणुका ने कहा था, मैं तो अपने पति को धोती में देखना चाहती हूं। लेकिन वो धोती पहनते नहीं। अब चूंकि मैं स्वास्थ्य मंत्री रह चुकी हूं तो मेरे पास ये तथ्य हैं कि धोती से प्रजनन क्षमता बढ़ती है। रेणुका के इस बयान पर जमकर हंगामा हुआ था। वर्णननीय है कि रेणुका यूपीए सरकार में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री भी रह चुकी है। साल 2015 में एयर इंडिया की एक फ्लाइट केवल इस कारण समय पर उड़ान नहीं भर पाई, क्योंकि रेणुका चौधरी खरीददारी करने में व्यस्त थीं।

असल में सरकार के खिलाफ हर आवश्यक व अनावश्यक छोटे-बड़े विषय को जीवन मरन का प्रश्न बनाने वाली कांग्रेस केवल विरोध के लिए विरोध व संसद ठप करने को ही विपक्ष का काम मान बैठी है। यही कारण है कि वह विपक्ष के रूप में भी असफल दिखने लगी है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान विभिन्न सरकारी योजनाओं पर अपनी वैकल्पिक योजनाएं, सरकारी योजनाओं का तथ्यात्मक खामियां निकालने, नए सुझाव, सरकार की कमियां पेश कर वह सरकार को सफलतापूर्वक घेर सकती थी परंतु शोर शराबे के चलते कांग्रेस ने यह मौका गंवा दिया लगता है। कीचड़ की राजनीति करने वाले दलों को स्मरण रखना चाहिए कि ऐसा करते समय हाथ उनके भी गंदे होते हैं और कुछ छींटे तो उनके दामन पर भी पड़ते ही हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
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जड़ें तलाशता समाज

( 'डाकोत ब्राह्मण कुलीन वंश परंपरा' पुस्तक की समीक्षा, यह पुस्तक असम के जिला होजाई के निवासी श्री बृजमोहन भार्गव जी ने समीक्षा हेतु भेजी है। संपर्क नंबर-087219-89264)


किसी विद्वान ने ठीक कहा है कि विदेशी आक्रांताओं द्वारा भारत में की गई आर्थिक लूट तो आंशिक है। देवों के लिए भी दुर्लभ इस सस्यश्यामल भारतभूमि में इतनी क्षमता है कि कुछ ही समय में वह इसकी क्षतिपूर्ति कर सकती है परंतु विदेशियों ने इसकी संस्कृति पर प्रहार कर जिस तरह से यहां के समाज को जड़विहीन करने का प्रयास किया है उसकी भरपाई करने में काफी समय लगेगा। श्री बृजमोहन भार्गव जी की पुस्तक 'डाकोत ब्राह्मण कुलीन वंश परंपरा' का नीर-क्षीर यही निकल कर सामने आता है कि हिंदू समाज का प्रतिष्ठित अंग डाकोत समाज अपनी जड़ों से जुडऩे को व्याकुल है। अपनी पहचान के लिए व्याकुल दिखता है। देववैद्य धन्वंतरी की पुत्री सावित्री व महान् ऋषि डग की संतान डाकोत समाज वास्तव में भगवान शिव की भांति विषपान कर सृष्टि को अमृतपान कराने वाला नीलकंठ समाज है। डाकोत बंधु दंड के देवता शनि, राहु-केतु के नाम से कठोर से कठोर दान के रूप में समाज का भार अपने सिर लेकर उसे निर्भय करते हैं। विष पी कर आशीष देने वाला डकोत समाज नीलकंठ कहलाने का ही हकदार है।

देश में लगभग एक हजार साल तक चले पराधीनता के दौर में हिंदू समाज आत्मविस्मृति का शिकार हुआ। सभी जानते हैं कि आत्मविस्मृत समाज या व्यक्ति किसी भी भ्रांति का शिकार हो सकता है, उसे आसानी से बहकाया और पथभ्रष्ट किया जा सकता है। हमारे साथ ऐसा हुआ भी, हमें जातियों में विभक्त, जातिगत शत्रु समाज बताया जाने लगा और शनै शनै हम इस भ्रांति को सत्य मानने भी लगे। लेकिन यह सच्चाई नहीं है, जैसा कि इस पुस्तक में ही बताया गया है कि हमारी वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी न कि जन्म पर। इस व्यवस्था में कोई ऊंच-नीच या बंधन न था। स्वयं ऋषि डग व माता सावित्री (भडली) का संबंध बताता है कि जातिबंधन कठोर न थे। मुख से निकले वचनों को पूरा किया जाना धर्म था परंतु हम अपनी इस गौरवशाली परंपरा को विस्मृत कर बैठे। आत्मविस्मृत समाज को विदेशियों ने जातियों, उपजातियों में विभक्त करने का प्रयास किया और वे अपने इस षड्यंत्र में काफी सीमा तक सफल भी रहे। लेकिन देश में भक्तिकाल के दौरान हमारे यहां अवतार लेने वाली संत परंपरा ने समाज को इस आत्मविस्मृति से निकालने का प्रयास किया। गुरु गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी ने हिंदू समाज को मंत्र दिया : -

हिन्दव:सोदरा: सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत्।
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता।।

भाव कि सब हिन्दू भाई है, कोई भी हिन्दू पतित नहीं है। हिंदुओं की रक्षा मेरी दीक्षा है, समानता यही मेरा मंत्र है। अपनी पुस्तक के माध्यम से आत्मविस्मृत और जड़ों को भुला बैठे हिंदू समाज के एक वशिष्ठ अंग डाकोत समाज को उनकी गौरवशाली जड़ों से जोडऩे का काम किया है श्री बृजमोहन भार्गव जी ने। पुस्तक में संग्रहित व अन्वेषित सामग्री पठनीय व ज्ञानवद्र्धक है। इसमें दिए तथ्यों पर वाद-विवाद और भाषाई शुद्धता की गुंजाइश है परंतु यह निरापद है कि डाकोत समाज का एक गौरवशाली अतीत व कुलीन वंश परंपरा रही है। पुस्तक के रूप में हुए इस अग्निहौत्र के मुख्य यजमान चाहे श्री बृजमोहन भार्गव हैं परंतु इसके सहयोगी डा. चंद्रदेव ठाकुर, डा. श्यामसुंदर भार्गव, श्री नवनीत कुमार भार्गव, श्री रमेश कुमार भार्गव, श्री मुकेश कुमार भार्गव सहित वह सभी लोग साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने किसी भी रूप में न्यूनाधिक सामग्री आहूत की है। आशा है कि लेखक भार्गव जी का यह जामवंत प्रयास आत्ममुग्ध व आत्मविस्मृत हिंदू समाज को जगाने में उसी तरह सफल होगा जैसे ऋक्षराज की हुंकार पर हनुमानजी ने सौ योजन समुद्र को एक ही छलांग में लांघ लिया। इसी तरह के प्रयासों से ही हिंदू समाज का पुनर्जागरण होगा और भारतमाता पुन: विश्वगुरु के पद पर आसीन होगी। एसी कामना के साथ इस पुस्तक के लिए कोटि-कोटि साधुवाद।

- राकेश सैन
संपादक 'पथिक संदेश' एवं स्तंभकार
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर, पंजाब।

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...