Monday, 21 February 2022

साम्प्रदायिकता के लाञ्छन के बीच देश में बढ़ा साम्प्रदायिक सौहार्द


वामपन्थी विचारकों द्वारा हिन्दुत्व को लेकर भारत के प्रति विचार किसी से छिपे नहीं, परन्तु इसमें दो राय नहीं कि ऐसा करते समय वे तथ्यों से अधिक अपने पूर्वाग्रहों को प्राथमिकता देना नहीं भूलते। वैसे तो इस तरह की कोशिश पहले भी होती रही हैं परन्तु पिछले सात सालों के दौरान इस तरह के प्रयासों में तेजी देखने को मिल रही है। तमाम तरह के दुष्प्रचारों के बीच देश की स्थिति बताती है कि यहां पिछले पांच सालों में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति में सुधार हुआ है। केवल दंगे ही कम नहीं हुए बल्कि दंगाइयों, फसादियों को सजा दिए जाने की दर में भी सुधार हुआ है। देश के कई उन हिस्सों में भी साम्प्रदायिक टकराव लगभग समाप्त हो गया जो कभी संवेदनशील माने जाते रहे हैं। परन्तु इसके बावजूद भारत के खिलाफ दुष्प्रचार जारी है।

दुनिया के जाने-माने वामपन्थी चिन्तक नॉम चोमस्की ने भारत में कथित इस्लामोफोबिया बढऩे को लेकर चिन्ता जताते हुए मोदी सरकार पर धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को खत्म करने का आरोप लगाया है। चोम्सकी ने ‘भारत में नफरत भरे भाषण और हिंसा को लेकर खराब होती स्थिति’ पर एक विशेष चर्चा के दौरान ये बातें कहीं। भारत में साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर अमेरिका के प्रवासी संगठनों ने एक महीने में ये तीसरी बार चर्चा आयोजित की। इसमें चोमस्की ने कहा, ‘‘इस्लामोफोबिया का प्रभाव पूरे पश्चिम में बढ़ रहा है और भारत में अपना सबसे घातक रूप ले रहा है, जहां नरेन्द्र मोदी की सरकार भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रही है और वे हिन्दू राष्ट्र बना रहे हैं।’’ उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की भी बात की। इसी चर्चा में सामाजिक कार्यकर्ता वामपन्थी विचारक हर्ष मन्दर ने अपने वीडियो सन्देश में कहा, ‘‘भारत आज खुद को भय और घृणा के एक भयावह अन्धेरे और हिंसा में पाता है।’’ चर्चा का आयोजन 17 संगठनों ने किया था। दूसरी तरफ देश की जानी-मानी वामपन्थी लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धति रॉय ने ‘द वायर’ के लिए करण थापर को दिए साक्षात्कार में मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा है। अरुन्धति ने कहा है कि हिन्दू राष्ट्रवाद की सोच विभाजनकारी है और देश की जनता इसे कामयाब नहीं होने देगी। उन्होंने देश में हिंसा बढऩे के भी आरोप लगाए। उक्त वामपन्थी विषवमन ने अन्तार्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी हैं जिससे दुनिया भर में भारत की छवि को आघात लगा है और विदेश मन्त्रालय को वक्तव्य जारी कर इसका खण्डन करना पड़ा है।

इस वामपन्थी दुष्प्रचार के विपरीत तथ्य कुछ और ही दृश्य प्रस्तुत करते हैं। राज्यसभा में गृह मन्त्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में देश में न केवल साम्प्रदायिक दंगों में कमी आई है, बल्कि पहले की तुलना में ज्यादा संख्या में दंगाईयों को सजा भी मिली है। आज से करीब तीन से चार साल पहले केवल 2 से 3 प्रतिशत लोगों को ही अदालत से सजा मिल पाती थी। वहीं, अब यह संख्या बढक़र 10 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई है। इन आंकड़ों के अनुसार, देश में पिछले 5 साल में 3,399 दंगे हुए। साल 2020 में देश में दंगों के कुल 857 मामले दर्ज हुई, जिसमें सिर्फ दिल्ली में ही 520 (61 प्रतिशत) मामले दर्ज किए गए। यदि दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर दंगे नहीं होते तो 5 साल में देश में सबसे कम दंगों का रिकार्ड होता। वहीं, 2020 से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, गोवा, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणीपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम, त्रिपुरा समेत कुछ केन्द्र शासित प्रदेशों में एक भी दंगों के मामले सामने नहीं आए। पिछले 5 साल में दंगों के सबसे अधिक मामले बिहार से आए। वहां 721 मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा दिल्ली में 521, हरियाणा में 421 और महाराष्ट्र में दंगों के 295 मामले दर्ज हुए। इनमें गिरफ्तार हुए आरोपियों की संख्या भी बढ़ी है। 2016 में दंगों के मामले में 1.42 प्रतिशत लोगों की गिरफ्तारी हुई। वहीं, 2017 में 2.44 प्रतिशत, 2018 में 4.08 प्रतिशत, 2019 में 13.80 प्रतिशत और 2020 में गिरफ्तार किए गए आरोपियों में से 11.10 प्रतिशत दोषियों को न्यायालय से सजा मिल चुकी है।
देश पर धरातल की सच्चाई प्रदर्शित करते यह आंकड़े वास्तव में उत्सावद्र्धक हैं और नई उम्मीद भी पैदा करते हैं। हिंसा और साम्प्रदायिक तनाव का असर केवल सामाजिक तौर पर नहीं ंपड़ता बल्कि इससे देश की अर्थव्यवस्था व विकास भी प्रभावित होता है। कोई निवेशक चाहे वो अपने देश का हो या विदेशी हिंसाग्रस्त क्षेत्र में पूंजीनिवेश करने का खतरा मोल नहीं रहता। इसका सीधा असर देश के विकास व रोजगार पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की दृष्टि से किसी समय उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में इस तरह के टकराव कम होने का ही असर है कि अतीत में बिमारू राज्यों में शामिल किए जाने वाले इन राज्यों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती दिख रही है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था में सुधार का पैमाना यह भी है कि देश के सम्पन्न कहे जाने वाले राज्यों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा इत्यादि में इन्हीं प्रदेशों के श्रमिकों की संख्या अधिक रहती है परन्तु पिछले कुछ समय से यहां से मजदूरों की आवक में कमी देखने को मिली है। पंजाब में कृषि से लेकर उद्योग चलाने के लिए उत्तर प्रदेश व बिहार की श्रम शक्ति की जरूरत पड़ती है परन्तु अब इसकी कमी महसूस की जाने लगी है। स्वभाविक है कि जब हिंसा, अपराध कम होंगे व साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित होगा तो देश का विकास होगा ही।

देश की जमीन से उखड़े वामपन्थी विचारकों को सोचना चाहिए कि उनका दुष्प्रचार किस तरह न केवल भारत की छवि धुमिल करने का काम करता है बल्कि विकास में भी बाधा पैदा करता है। विकास में आई रुकावट उसी गरीब को भारी पड़ती है जिसके कल्याण की झण्डाबरदारी वामपन्थी करते आए हैं। देश में कहीं साम्प्रदायिकता की आग फैलती है तो उसके खिलाफ आवाज उठाना, समस्या का समाधान करना हर नागरिक का दायित्व है। इसके लिए व्यवस्था की कमी को भी आगे लाया जाना ही चाहिए परन्तु ऐसा करते समय न केवल दुराग्रहों से बचना चाहिए बल्कि तथ्यों की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां
जालंधर।
संपर्क - 77106-55605

Friday, 18 February 2022

खालिस्तानियों से संबंधों पर पहले भी घिर चुके हैं केजरीवाल

आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता और जाने-माने कवि कुमार विश्वास ने बुधवार को कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उन्होंने कहा, मैंने 2017 के पंजाब चुनाव के दौरान केजरीवाल से कहा था कि हाशिए के तत्वों, अलगाववादियों और खालिस्तानी आंदोलन से जुड़े लोगों का समर्थन न लें। जब उन्होंने केजरीवाल को खालिस्तानियों से दूरी बनाए रखने की चेतावनी दी थी, तो आप के पूर्व नेता ने कहा, एक दिन, केजरीवाल ने उनसे कहा वो या तो एक सूबे के सीएम बनेंगे या स्वतन्त्र राष्ट्र (खालिस्तान) के पहले पीएम। केजरीवाल व आम आदमी पार्टी का खालिस्तान से संबंध कोई नया खुलासा नहीं बल्कि समय-समय पर केजरीवाल का विवादित चेहरा उजागर होता रहा है।
अक्तूबर 2018 को रिपब्लिक टीवी ने अपने चैनल पर एक स्टिंग ऑपरेशन दिखाया है जिसमें आतंकी संगठन दल खालसा के लीडर ने दावा किया है कि उनके ग्रुप ने आम आदमी पार्टी के लिए पंजाब में कैम्पेनिंग की थी और साथ ही उनको फंडिंग भी की। ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी 6 जून से दो दिन पहले 4 जून, 2018 को पंजाब पुलिस के हाथ बड़ी सफलता लगी थी। पुलिस ने नवांशहर में तीन आतंकियों को गिरफ्तार कर उनसे हथियार भी बरामद किए थे। इन आतंकियों का प्रतिबंधित आंतकवादी संगठन इंटरनेशनल सिख यूथ फैडरेशन से सीधा संबंध था। पुलिस सूत्रों के मुताबिक आतंकी संगठन को पाकिस्तान से समर्थन हासिल था। गिरफ्तार आतंकी जगरूप, गुरमेल और गुरदयाल सिंह से पूछताछ में खुलासा हुआ था कि देश की संप्रभुता और शांति को नुकसान पहुंचाने की उनकी बड़ी साजिश थी, लेकिन सबसे हैरत करने वाली बात इस नेटवर्क का मुखिया गुरदयाल सिंह का आम आदमी पार्टी से कनेक्शन होना था।
गिरफ्तार तीनों आतंकी पाकिस्तान के कनेक्शन में था और तीनों को आईएसआई ने प्रशिक्षण देकर पंजाब में आतंकवादी हमले करने तथा ‘पंथ विरोधी व्यक्तियों’ को निशाना बनाने का कार्य सौंपा गया था। इतना ही नहीं पाकिस्तान में मौजूद भगौड़े आतंकी लखबीर रोडे ने पंजाब से लगे प्रांतों में भी तबाही का संदेश दिया था। भारत में गुरदयाल सिंह इस आंतकवादी गिरोह का मुखिया था और जर्मनी के बलबीर सिंह संधू ने लखबीर सिंह रोडे से उसकी मुलाकात करवाई थी। रोडे इस समय लाहौर के छावनी क्षेत्र में आईएसआई द्वारा मुहैया करवाये गये सुरक्षित घर में रह रहा है। गुरदयाल 6-7 वर्षों से धार्मिक जत्थों के साथ पाकिस्तान की यात्रा करते समय कई बार रोडे को मिला था। गुरदयाल ने नवंबर, 2016 के अपने अंतिम पाकिस्तानी दौरे के दौरान जगरूप सिंह के लिए वीजे का प्रबंध किया और वह एक जत्थे के साथ लाहौर गया। 12 से 21 नवंबर, 2016 तक लाहौर में ठहरने के दौरान बलबीर सिंह द्वारा जगरूप ने रोडे एवं हरमीत से मुलाकात की थी। आतंकी गुरदयाल सिंह ने चुनावों में गढ़शंकर के गांव रोडमाजरा में ‘आप’ नेताओं के साथ प्रचार किया था और स्टेज साझा किया था। जब गुरदयाल सिंह को पकड़ा गया तो ‘आप’ के स्थानीय नेता उसकी पैरवी करने उसके समर्थन में पहुंचे थे।


केजरीवाल ने गिल को नहीं दी श्रद्धांजलि
26 मई 2017 को पंजाब में आतंकवाद का खात्मा करने वाले पूर्व डीजीपी ‘सुपरकॉप’ केपीएस गिल का निधन हो गया था। उनके निधन के बाद सभी पार्टियों के नेताओं ने उनको श्रद्धांजलि दी, लेकिन जिस एक पार्टी ने गिल को याद करने तक की जरूरत नहीं समझी वो थी आम आदमी पार्टी। केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के किसी भी नेता ने न तो ट्विटर न ही किसी और जरिए से केपीएस गिल को श्रद्धांजलि दी। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने इसे लेकर सवाल भी उठाया है और इसका कारण पूछा था। उन्होंने लिखा था कि- बीजेपी और कांग्रेस ने केपीएस गिल को श्रद्धांजलि देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अकाली दल चुप रही यह बात समझ में आती है, लेकिन आम आदमी पार्टी के नेताओं ने अपने मुंह बंद क्यों कर रखे हैं ?


गिल ने किया था केजरीवाल का पर्दाफाश
2017 के पंजाब चुनाव से ठीक पहले केपीएस गिल ने ही आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की पोल खोली थी। उन्होंने कहा था कि अगर पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो राज्य में आतंकवाद की वापसी से कोई नहीं रोक पाएगा। उन्होंने राज्य में अपने सूत्रों के हवाले से दावा किया था कि आम आदमी पार्टी और खालिस्तानी आतंकी संगठनों के बीच बेहद करीबी रिश्ते हैं। पंजाब में दोबारा मजबूत होने के लिए ये संगठन मौके की तलाश में हैं और आम आदमी पार्टी इसके लिए उनकी मददगार बनने को राजी हुई है।


आतंकी के घर पर रुके थे केजरीवाल
एक और वाकया इसी से जुड़ा हुआ है। पंजाब चुनाव प्रचार के वक्त भी केजरीवाल हथियार डाल चुके एक आतंकवादी के घर पर रुके थे, जिसके बाद इसे लेकर काफी विवाद खड़ा हुआ था। चुनाव प्रचार से पहले फंड जुटाने के लिए आम आदमी पार्टी के कई नेता यूरोपीय देशों के दौरे पर गए थे। इनमें से कुछ की तस्वीरें सामने भी आई थीं। माना जा रहा है कि केजरीवाल की चुप्पी इसी कारण से थी। विगत विधानसभा चुनावों के दौरान 30 जनवरी, 2016 को अरविंद केजरीवाल खालिस्तान कमांडो फोर्स (केसीएफ) के पूर्व आतंकी गुरविंदर सिंह की कोठी में रात गुजारकर आरोपों में घिर गए थे। पुलिस रिकार्ड के अनुसार खालिस्तान कमांडो फोर्स का सक्रिय आतंकी रहा है। उसने हिंदू-सिख दंगे भडक़ाने के लिए मंदिरों में गायों की पूंछें काटकर फेंक दी थी। इस घटना के बाद मोगा सिटी पुलिस ने उसके खिलाफ 15 मई 2008 को धार्मिक भावनाओं को भडक़ाने का मामला दर्ज किया। गुरविंदर ने बाघापुराना में एक पुजारी की हत्या करने के साथ-साथ एक व्यक्ति की हत्या का प्रयास किया था। 9 जुलाई 1997 को थाना बाघापुराना पुलिस ने उसके खिलाफ हत्या और हत्या के प्रयास की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया। इसके बाद उसने 20 दिसंबर 2011 को अमृतसर में एक व्यक्ति से मारपीट की, जिस पर अमृतसर सिटी पुलिस ने उसे नामजद किया। इसके अलावा भी वह विवादों में रहा। सुबूतों और गवाहों के अभाव में बाद में वह सभी मामलों में बरी हो गया और इंग्लैंड चला गया और वहीं से पंजाब में अपने साथियों के साथ विभिन्न गतिविधियों को अंजाम देता आ रहा है।


केजरीवाल व भिंडरांवाले के पोस्टर
खालिस्तान के दुर्दांत आतंकी जरनैल सिंह भिंडरांवाले के साथ पोस्टर को लेकर भी विवादों में रहे हैं केजरीवाल। भिंडरांवाले का 12 फरवरी 2016 को जन्मदिन मनाया जाना था जिसको लेकर केजरीवाल की कथित अपील जारी की गई थी। बाद में पार्टी ने इससे पल्ला झाड़ लिया था।


Rakesh Sain

Jallandhar.

Mob 77106-55605

Sunday, 13 February 2022

1984 ਦੇ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗੇ - ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦਰਮਿਆਨ ਨਹੁੰ-ਮਾਂਸ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਨਿਭਾਇਆ ਗਿਆ

ਨਵੰਬਰ ਮਹੀਨਾ ਆਉਦੇ ਹੀ ਦੇਸ਼ ਵਾਸੀਆਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ’ਤੇ ਲੱਗੇ ਉਹ ਜ਼ਖ਼ਮ ਅੱਲ੍ਹੇ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਜੋ 1984 ਦੇ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗਿਆਂ ਦੇ ਚਲਦਿਆਂ ਮਿਲੇ। ਪੂਰਾ ਦੇਸ਼ ਇਸ ਨਰਸੰਘਾਰ ਤਂੋ ਦੁਖੀ ਹੈ ਅਤੇ ਪੀੜਤਾਂ ਪ੍ਰਤੀ ਪੂਰੀ ਹਮਦਰਦੀ ਰੱਖਦਾ ਹੋਇਆ ਦੋਸ਼ੀਆਂ ਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਮਿਲਦਿਆਂ ਦੇਖਣ ਦਾ ਬੇਸਬਰੀ ਨਾਲ ਇੰਤਜ਼ਾਰ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਪਰੰਤੂ ਦੇਖਣ ਵਿਚ ਆਇਆ ਹੈ ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੰਗਿਆਂ ਦੀ ਆੜ ਹੇਠ ਸਿਰ ਚੁੱਕਣ ਲਗਦੀਆਂ ਹਨ ਉਹ ਤਾਕਤਾਂ ਜੋ ਜ਼ਹਿਰ ਦੀ ਖੇਤੀ ਕਰਕੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਵੱਖਵਾਦ ਦੀ ਫਸਲ ਕੱਟਣਾ ਚਾਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਦੰਗਿਆਂ ਦੀ ਆੜ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਵਿਰੋਧੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਆਰੋਪ ਅਨੁਸਾਰ, ਕਾਂਗਰਸ ਪਾਰਟੀ ਵੱਲੋਂ ਕਰਵਾਏ ਗਏ ਦੰਗਿਆਂ ਨੂੰ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਸਮਾਜ ਵਿਚਕਾਰ ਟਕਰਾਅ ਬਣਾ ਕੇ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਤਾਕਤਾਂ ਦਾ ਉਦੇਸ਼ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਇਨਸਾਫ ਦਿਲਵਾਉਣਾ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਸਮਾਜ ਅੰਦਰ ਵੰਡ ਪਾਉਣਾ ਜ਼ਿਆਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਪਰੰਤੂ ਤਸਵੀਰ ਦਾ ਦੂਸਰਾ ਪਹਿਲੂ ਵੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਉੱਪਰ ਅੱਜਤੀਕ ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਧਿਆਨ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਦੰਗਿਆਂ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਸਮਾਜ ਨੇ ਅੱਗੇ ਵਧ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸਿੱਖ ਭਰਾਵਾਂ ਦੀ ਜਾਨ-ਮਾਲ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕੀਤੀ ਅਤੇ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਘਰਾਂ ਵਿਚ ਆਸਰਾ ਦਿੱਤਾ। ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਇਹ ਵਿਵਹਾਰ ਕੇਵਲ ਦਿੱਲੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਹਿੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਵੀ ਦੇਖਣ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ। ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ’ਤੇ ਮੰਨੇ-ਪ੍ਰਮੰਨੇ ਚਿੰਤਕ ਸ਼੍ਰੀ ਅਮਰਦੀਪ ਜੌਲੀ ਵੱਲੋਂ ਲਿਖੀ ਅਤੇ ਅਕਾਸ਼ਵਾਣੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਨ ਜਲੰਧਰ ਵੱਲੋਂ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਪੁਸਤਕ ‘ਇਨਸਾਨੀਅਤ ਜਿੰਦਾ ਹੈ’ ਸਾਹਮਣੇ ਆਈ ਹੈ। ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਅੰਦਰ ਲੇਖਕ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਹਿੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਸਿੱਖ ਭਰਾਵਾਂ ਦੇ ਅਨੁਭਵ ਸਾਂਝੇ ਕੀਤੇ ਹਨ ਜੋ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤ ਹਨ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਵਿਚ ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਭਰਾਵਾਂ ਨੇ ਆਪਣੀ ਜਾਨਾਂ ਦੀ ਵੀ ਬਾਜ਼ੀ ਲਗਾ ਦਿੱਤੀ। ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪੰਜਾਬ ਅੰਦਰ ਅੱਤਵਾਦ ਸਮੇਂ ਵੀ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਸਮਾਜ ਵਿਚਕਾਰ ਸਦੀਆਂ ਤੋਂ ਚਲਿਆ ਆ ਰਿਹਾ ਨਹੁੰ-ਮਾਂਸ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਕਾਇਮ ਰਿਹਾ, ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ 1984 ਦੇ ਦੰਗਿਆਂ ਦੇ ਬੁਰੇ ਸਮੇਂ ਦੌਰਾਨ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਨੇ ਨਵੀਆਂ ਸ਼ਿਖਰਾਂ ਛੂਹੀਆਂ।
ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤਾਂ ਲਈ ਲੜਨ ਵਾਲੇ ਸੁਪਰੀਮ ਕੋਰਟ ਦੇ ਸੀਨੀਅਰ ਵਕੀਲ ਅਤੇ ਸਾਬਕਾ ਵਿਧਾਇਕ ਐਡਵੋਕੇਟ ਐਚ.ਐਸ. ਫੂਲਕਾ ‘ਦ ਇੰਡੀਅਨ ਐਕਸਪ੍ਰੈਸ’ ਵਿਚ 19 ਅਗਸਤ, 2018 ਨੂੰ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਰਿਪੋਰਟ ਵਿਚ ਸ਼੍ਰੀ ਅਟਲ ਬਿਹਾਰੀ ਵਾਜਪਈ ਬਾਰੇ ਦਸਦੇ ਹਨ ਕਿ ‘‘ ਸਾਬਕਾ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਅਤੇ ਭਾਜਪਾ ਦੇ ਨੇਤਾ ਸ਼੍ਰੀ ਅਟਲ ਬਿਹਾਰੀ ਵਾਜਪਈ ਉਸ ਵੇਲੇ ਦਿੱਲੀ ਦੇ ਸਾਂਸਦ ਸਨ। ਸਾਬਕਾ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਸ਼੍ਰੀਮਤੀ ਇੰਦਰਾ ਗਾਂਧੀ ਦੀ ਕਾਇਰਤਾਪੂਰਨ ਹੱਤਿਆ ਤੋਂ ਬਾਅਦ 1 ਨਵੰਬਰ, 1984 ਨੂੰ ਜਦੋਂ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗੇ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਏ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸਿਹਤ ਖਰਾਬ ਸੀ ਅਤੇ ਉਹ ਆਪਣੇ ਘਰ ’ਚ ਹੀ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਘਰ ਸਾਹਮਣੇ ਇਕ ਟੈਕਸੀ ਸਟੈਂਡ ਸੀ, ਜਿੱਥੇ ਸਿੱਖ ਡਰਾਈਵਰ ਵੀ ਸਨ। ਦੰਗਾਈਆਂ ਨੇ ਸਿੱਖ ਡਰਾਈਵਰਾਂ ’ਤੇ ਹਮਲਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਸ਼ੋਰ ਸੁਣ ਕੇ ਵਾਜਪਈ ਜੀ ਬਾਹਰ ਆਏ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਿੱਖ ਡਰਾਈਵਰਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਇਆ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਘਰ ਆਸਰਾ ਦਿੱਤਾ।’’
ਐਡਵੋਕੇਟ ਫੂਲਕਾ ਅੱਗੇ ਲਿਖਦੇ ਹਨ ਕਿ ‘‘ ਉਸ ਸਮੇਂ ਦੀ ਸੱਤਾਧਾਰੀ ਪਾਰਟੀ ਕਾਂਗਰਸ ਨੇ ਸੰਸਦ ਵਿਚ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਕੇਵਲ 600 ਦੱਸੀ ਤਾਂ ਵਾਜਪਈ ਜੀ ਨੇ ਇਸਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕੀਤਾ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ 16 ਨਵੰਬਰ, 1984 ਨੂੰ ਸੰਸਦ ਵਿਚ ਦੰਗਿਆਂ ਵਿਚ ਹੋਈ ਮੋਤਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 2700 ਦੱਸੀ। ਇਹ ਅੰਕੜੇ ਭਾਜਪਾ ਨੇਤਾ ਅਤੇ ਸਾਬਕਾ ਮੁੱਖ ਮੰਤਰੀ ਰਹੇ ਸ਼੍ਰੀ ਮਦਨ ਲਾਲ ਖੁਰਾਨਾ ਨੇ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤਾਂ ਦੇ ਘਰ-ਘਰ ਅਤੇ ਰਾਹਤ ਕੈਂਪਾਂ ਵਿਚ ਜਾ ਕੇ ਜੁਟਾਏ ਸਨ। ਇਸ ਤੇ ਕਾਂਗਰਸ ਨੇ ਵਾਜਪਈ ਜੀ ਨੂੰ ਦੇਸ਼ ਦਾ ਗੱਦਾਰ ਗਰਦਾਨਿਆ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਮੈਨੰੂ ਕੋਈ ਕੁਝ ਵੀ ਕਹੇ, ਕੋਈ ਫਰਕ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ। ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਅਹੂਜਾ ਸੰਮਤੀ ਦੀ ਰਿਪੋਰਟ ਵਿਚ ਵੀ ਇਹ ਅੰਕੜੇ ਸਹੀ ਮਿਲੇ, ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਦੰਗੇ ਵਿਚ ਮਾਰੇ ਗਏ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 2733 ਦੱਸੀ।’’
ਐਡਵੋਕੇਟ ਫੂਲਕਾ ਅਨੁਸਾਰ, ‘‘ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਬਨਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਮੈਂ ਵਾਜਪਈ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਕਾਂਗਰਸ ਪਾਰਟੀ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਆਪਣੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਕੇਸਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਸੁਝਾਅ ਦੇਣ ਤੇ ਵਾਜਪਈ ਜੀ ਨੇ ਨਾਨਾਵਟੀ ਆਯੋਗ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ ਅਤੇ ਬੰਦ ਹੋ ਚੁਕੇ ਕੇਸ ਦੁਬਾਰਾ ਖੁਲ੍ਹਵਾਏ। ਵਾਜਪਈ ਜੀ ਵੱਲੋਂ ਸੰਸਦ ਵਿਚ ਰਖੀ ਗਈ ਮਿ੍ਰਤਕਾਂ ਦੀ ਸੂਚੀ ਇਸ ਆਯੋਗ ਨੂੰ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਥਾਵਾਂ ਤੇ ਬਹੁਤ ਕੰਮ ਆਈ।’’
ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉੱਘੇ ਪੱਤਰਕਾਰ ਅਤੇ ਲੇਖਕ ਸ. ਖੁਸ਼ਵੰਤ ਸਿੰਘ ਪਬਲਿਕ ਏਸ਼ੀਆ ਦੇ 16 ਨਵੰਬਰ, 1989 ਅੰਕ ਵਿਚ ਲਿਖਦੇ ਹਨ ਕਿ ‘‘ ਇਹ ਕਾਂਗਰੇਸ (ਆਈ) ਦੇ ਨੇਤਾ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ 1984 ਵਿਚ ਭੀੜ ਨੂੰ ਭੜਕਾਇਆ ਜਿਸ
ਵਿਚ 3000 ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਗਏ। ਮੈਂ ਆਰ.ਐਸ.ਐਸ. ਅਤੇ ਬੀ.ਜੇ.ਪੀ. ਨੂੰ ਇਹ ਕ੍ਰੈਡਿਟ ਦੇਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਬੇਸਹਾਰਾ ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਦਾ ਹੌਂਸਲਾ ਦਿਖਾਇਆ।’’
‘ਇਨਸਾਨੀਅਤ ਜਿੰਦਾ ਹੈ’ ਪੁਸਤਕ ਵਿਚ ਲੇਖਕ ਨੇ ਲਗਭਗ ਦੋ ਦਰਜਨ ਉਹਨਾਂ ਦੰਗਾ ਪੀੜਤਾਂ ਦੇ ਸਾਕਸ਼ਾਤਕਾਰ ਵੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕੀਤੇ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜਾਨ-ਮਾਲ ਦੀ ਰਾਖੀ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਗਵਾਂਢੀਆਂ, ਆਰ.ਐਸ.ਐਸ. ਦੇ ਸ੍ਵਯੰਸੇਵਕਾਂ ਅਤੇ ਹਿੰਦੂ ਸਮਾਜ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਕੀਤੀ। ਹਿੰਦੂ ਅਤੇ ਸਿੱਖ ਸਮਾਜ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸਿਕ ਪਿਛੋਕੜ ਇਕ ਹੈ ਅਤੇ ਪੁਰਖਿਆਂ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਇਤਿਹਾਸ, ਸੱਭਿਆਚਾਰ, ਰਿਤੀ-ਰਿਵਾਜ, ਸਮਾਜਿਕ ਤਾਣਾ-ਬਾਣਾ ਸਾਂਝਾ ਹੈ। ਦੋਨਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਰੋਟੀ-ਬੇਟੀ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੋਨਾਂ ਸਮਾਜਾਂ ਦੀ ਕਮਜੋਰੀ-ਤਾਕਤ ਇਕੋ-ਜਿਹੀ ਹੈ। ਇਕ ਵਿਦਵਾਨ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰ, ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਸਮਾਜ ਵਿਚਕਾਰ ਗਰਭਨਾਲ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਹੈ। ਗਰਭਨਾਲ ਦੇ ਰਾਹੀਂ ਮਾਂ ਨਾਲ ਬੱਚਾ ਜੁੜਿਆ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਮਾਂ ਬੀਤਣ ਦੇ ਬਾਅਦ ਗਰਭਨਾਲ ਕੱਟੀ ਵੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਪਰੰਤੂ ਦੋਨਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਰਿਸ਼ਤਾ ਕਦੇ ਖਤਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਇਸ ਰਿਸ਼ਤੇ ਦੀ ਤੁਲਨਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਰਿਸ਼ਤੇ ਨਾਲ ਕੀਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ।
ਇਹ ਕੇਵਲ ਕਹਿਣ ਦੀਆਂ ਹੀ ਗੱਲਾਂ ਨਹੀਂ ਹਨ ਬਲਕਿ ਇਤਹਾਸਿਕ ਸੱਚਾਈ ਹੈ ਕਿ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਧਾੜਵੀਆਂ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ, ਪੰਜਾਬ ਅੰਦਰ ਅੱਤਵਾਦ ਅਤੇ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗਿਆਂ ਦਾ ਸੰਤਾਪ ਦੋਨਾਂ ਪੰਜਾਬੀ ਸਮਾਜ ਨੇ ਮਿਲ ਜੁਲ ਕੇ ਮਿਲਜੁਲ ਕੇ ਹੰਡਾਇਆ। ਹਰ ਦੰਗਾ ਆਪਣੇ ਪਿੱਛੇ ਸਮਾਜ ਅੰਦਰ ਤਰੇੜਾਂ ਛੱਡ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਸਮਾਜ ਹਿਤੈਸ਼ੀ ਤਾਕਤਾਂ ਇਹਨਾਂ ਦਰਾਰਾਂ ਨੂੰ ਭਰਨ ਵਿਚ ਅਤੇ ਸਮਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਤਾਕਤਾਂ ਇਸ ਪਾੜ ਨੂੰ ਖਾਈ ਬਨਾਉਣ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਜੇਕਰ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਸਮੇਂ ਸਿਰ ਇਨਸਾਫ ਨਾ ਮਿਲੇ ਤਾਂ ਸਮਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਤਾਕਤਾਂ ਦਾ ਕੰਮ ਸੁਖਾਲਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੁਖੀ ਸਮਾਜ ਉਹਨਾਂ ਪਿੱਛੇ ਲੱਗ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। 1984 ਦੇ ਦੰਗਿਆਂ ਨੂੰ ਲਗਭਗ ਚਾਰ ਦਹਾਕੇ ਹੋ ਚੁਕੇ ਹਨ ਪਰੰਤੂ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਨਿਆ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਪਾਇਆ ਹੈ। ਸਾਡੀ ਨਿਆ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਜਿੰਮੇਵਾਰੀ ਬਣਦੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਦੇਸ਼ਵਾਸੀਆਂ ਦੇ ਉਹਨਾਂ ਜਖਮਾਂ ਤੇ ਮਲ੍ਹਮ ਲਗਾਉਣ ਦੀ ਗੰਭੀਰ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰੇ ਜੋ ਅੱਜ ਵੀ ਅਲ੍ਹੇ ਹਨ। ਜਿਆਦਾ ਦੇਰੀ ਨਾਲ ਇਹਨਾਂ ਜਖਮਾਂ ਵਿਚ ਵੱਖਵਾਦੀ ਕੀੜੇ ਪੈ ਸਕਦੇ ਹਨ ਜੋ ਨਾ ਕੇਵਲ ਇਹਨਾਂ ਪੀੜਤਾਂ ਲਈ ਬਲਕਿ ਸਮੂਚੇ ਦੇਸ਼ ਲਈ ਵੀ ਖਤਰਨਾਕ ਸਾਬਿਤ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ।
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Mahi Rani, Ashok Beniwal Jnv and 4 others
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कृषि कानूनों की वापसी, सीता वनवास सा निर्णय

सीता के निरपराध और अधिकांश अयोध्या वासियों के अपनी महारानी के समर्थन में होने के बावजूद केवल एक ‘जिद्दी और वाचाल’ नागरिक की हठधर्मिता के चलते श्रीराम ने जिस तरह वैदेही वनवास का निर्णय लिया लगभग वैसी ही बेबसी तीन कृषि सुधार कानूनों को वापस लेते समय प्रधानमन्त्री के चरित्र में झलकती नजर आई। प्रधानमन्त्री ने कहा कि ‘‘चाहे देश के अधिकांश किसानों, कृषि पण्डितों के समर्थन के बावजूद भी किसानों का एक छोटा सा वर्ग इन कानूनों का विरोध कर रहा है, हमारे लिए हर किसान महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए हम इन कानूनों को वापिस ले रहे हैं।’’ सीतात्याग के समय भी बहुत से मन्त्रियों ने उस मुंहफट नागरिक की अनदेखी करने, उसे दण्ड देने की सलाह दी परन्तु इन्हें दरकिनार कर तत्कालीन सत्ता ने राजधर्म का पालन किया और अब कृषि कानूनों के सन्दर्भ में भी राजहठ या राजदण्ड की नीति का नहीं बल्कि सत्ताधर्म जनित जिम्मेवारी का पालन होते देश ने देखा।किसान आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या रही, कौन इसके आगे या पीछे रहा, क्या घटनाएं हुईं आदि विषयों पर चर्चा करना पानी बिलौने जैसा होगा परन्तु समूचे प्रकरण को देखते कुछ बातें सामने आई हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो भविष्य में ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है। पहला कि हमें अपने लोकतन्त्र को और विस्तृत बनाना होगा और इसमें जनभागेदारी बढ़ानी होगी। चाहे भारत जैसे विशाल जनसंख्या व बड़े भू-भाग वाले देश में अप्रत्यक्ष लोकतन्त्रीय प्रणाली को अपनाया गया है, जिसके अनुसार जनता अपने प्रतिनिधि चुन कर विधान मण्डलों में भेजती है। यही जनप्रतिनिधि कानून बनाने का काम करते हैं। याने जनता सांसदों व विधायकों के माध्यम से व्यवस्था का सञ्चालन करती है। लेकिन अब इस प्रक्रिया में प्रत्यक्ष जनता को भी किसी न किसी रूप में शामिल करना होगा। जिस तरह नई शिक्षा नीति लाने से पहले देश में विशाल स्तर पर इसको लेकर चर्चाएं, गोष्ठियां हुईं, शिक्षाविदों से विमर्श किया गया उसी तरह आम जन से जुड़ी दीर्घकालिक नीतियां बनाते समय इस पर जनदेवता के विचार जानने होंगे। शिक्षा नीति पर हुए व्यापक स्तर पर विचार-विमर्श का सकारात्मक परिणाम यह निकला कि सरकार शिक्षा के क्षेत्र में हुए बहुत बड़े बदलाव को आसानी से लागू कर पाई। सूचना तकनॉलोजी के युग में जनाकांक्षाएं जानने का यह काम अधिक मुश्किल भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में काम किया हो रहा, सरकारें बहुत से कानूनों के प्रारूप संसद की वेबसाइटों पर रखती भी रही हैं परन्तु इस काम को और अधिक विस्तृत करना होगा और इसे धरातल तक ले जाना होगा। अगर कृषि कानूनों को लेकर इस विधि को अपनाया गया होता तो हो सकता है कि सरकार जो तीन कृषि सुधार कानून लेकर आई उससे अधिक गुणवत्ता वाले कानून अस्तित्व में आते। ऐसा होता तो न तो किसानों का लम्बा आन्दोलन चलता और न ही सरकार को अप्रिय कदम उठाने को विवश होना पड़ता। देश में कृषि सुधार के प्रयासों को यूं झटका भी न लगता।दूसरा देश-समाज के सभी घटकों में जिम्मेदारी का भाव भरना होगा। इस किसान आन्दोलन के दौरान लगभग हर पक्ष में इसका अभाव दिखाई दिया। यहां तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालय भी इस आन्दोलन में अधिक प्रशंसनीय भूमिका निभाने में सफल नहीं हो पाया। कृषि कानून विरोधी आन्दोलन का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यालाय ने चाहे प्रारम्भ में तेजी दिखाई और कृषि विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री अनिल घनवन्त, अशोक गुलाटी, प्रमोद जोशी व भुपिन्द्र सिंह मान की समिति गठित की। इस साल 11 जनवरी को गठित इस समिति के तीन सदस्यों ने तेजी से अपना काम निपटाया और 19 मार्च को अपनी लिफाफा बन्द रिपोर्ट न्यायालय को सौम्प दी परन्तु देश की सबसे बड़ी पञ्चायत इस रिपोर्ट को पढऩे तक का समय नहीं निकाल पाई। रोचक बात है कि हमारे पञ्चपरमेश्वरों को दिवाली के पटाखों जैसे समाज के विवेक पर आधारित मुद्दों पर सुनवाई करने के लिए हर साल समय मिल जाता है परन्तु उनके पास किसान आन्दोलन जैसे ज्वलन्त मुद्दे के लिए समय नहीं है। अगर अदालत ने पहले जैसी सक्रियता बाद में भी दिखाई होती तो शायद किसानों के हित में लाए गए कानूनों का अन्त यूं न होता।किसान आन्दोलन को लेकर देश में जिस तरह हुड़दंगबाजी और हिंसा हुई उसने बाबा साहिब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के उस परामर्श को पुन: चर्चा में ला दिया है जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वतन्त्रता के बाद हमें अपने विरोध के साधनों व तरीकों को बदलना होगा। संविधान सभा में धन्यवाद सन्देश देते समय डॉ. साहिब ने कहा था कि ‘‘अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सभी असंवैधानिक तरीकों का दामन छोडऩा होगा। इसका अर्थ है कि हमें क्रान्ति के खूनी रास्ते को त्यागना होगा। हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को भी त्याग देना चाहिए। जब अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक तरीके उपलब्ध ही नहीं थे तब तो अंसवैधानिक तरीके अपनाने का औचित्य था। परन्तु जहां संवैधानिक तरीके खुले हों तब इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ नहीं हैं।’’ अच्छा होता कि कृषि कानूनों पर संसद में ही चर्चा होती और आन्दोलन जरूरी भी हो तो इसके सञ्चालकों को इसकी जिम्मेवारी उठानी होगी। मगर किसान आन्दोलन में देखने को मिला कि आन्दोलनकारियों ने न केवल 26 जनवरी, 2021 को लाल किले को अपवित्र किया बल्कि तरह-तरह की आपराधिक घटनाओं को भी अन्जाम दिया और इसके सञ्चालक न केवल अपनी जिम्मेवारी से बचते रहे बल्कि सरकार को दोषी ठहराते रहे। कृषि कानूनों की वापसी कृषि सुधारों पर पूर्ण विराम नहीं होना चाहिए। यह न तो किसी पक्ष की जय है और न ही पराजय बल्कि इससे ऊपर उठ कर कर्तव्यपालन है। दिवंगत प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता की पंक्तियों के साथ विराम चाहूंगा -

क्या हार में क्या जीत में, किञ्चित नहीं भयभीत मैं।
संघर्ष पथ पर जो मिले।यह भी सही वह भी सही।
लघुता न अब मेरी छुओ। तुम हो महान बने रहो।
अपने हृदय की वेदना। मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
चाहे हृदय को ताप दो।चाहे मुझे अभिशाप दो।
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से, किन्तु भागूँगा नहीं।

- राकेश सैन
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धर्म प्रचार के अधिकार की मनमाफिक व्याख्या



देश के संवेदनशील सीमान्त राज्य पंजाब व इसके आसपास क्षेत्रों में उच्च स्तर पर हो रहे धर्मपरिवर्तन पर चिन्ता जताते हुए सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने उत्तर भारत में धर्मान्तरण पर रोक लगाने की मांग की है। जत्थेदार के अनुसार, ईसाई मिशनरी के लोग सीमावर्ती क्षेत्रों में लालच देकर हिन्दू-सिखों का धर्म बदल रहे हैं जिस पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए। वैसे तो पंजाब में 1834 में ही जॉन लॉरी व विलियम रीड नामक ईसाई मिशनरियों के प्रवेश के बाद से ही धर्मांतरण का दुष्चक्र जारी है परन्तु इन दिनों इसमें में आई तेजी ने यकायक धर्मगुरुओं के साथ-साथ समाज शास्त्रियों व सामरिक विशेषज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के इन आरोपों के बदले चर्च का कोई आधिकारिक ब्यान तो नहीं आया है परन्तु ऐसे अवसरों पर मिशनरियों का एक ही रटा-रटाया जवाब होता है कि देश का संविधान उन्हें धर्म के प्रचार की अनुमति देता है और वे उसी के अनुसार देश में प्रभु ईसा के सन्देशों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। असल में धर्म प्रचार के अधिकार की आड़ में अभी तक ऐसा झूठ पेश किया जाता रहा है जिसकी हमारा संविधान व न्याय व्यवस्था कतई अनुमति नहीं देते। संविधान सभा में हुई चर्चाओं व सर्वोच्च न्यायालय के समय-समय पर आए निर्णयों में यह साफ निर्देश है कि धर्म के प्रचार का अधिकार किसी को कहीं भी धर्मांतरण की अनुमति नहीं देता।

संविधान सभा में ‘धर्म स्वातन्त्रय’ अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद पर हुई बहस में एक मुद्दा था कि ‘धर्म के प्रचार’ का अधिकार देना उचित होगा या नहीं। संविधान का वर्तमान अनुच्छेद 25 संविधान प्रारूप में अनुच्छेद क्रमांक 19 पर रखा गया जिस पर 3 व 6 दिसम्बर, 1948 को विस्तृत बहस हुई। इस बहस में प्रो. के.टी. शाह, सर्वश्री तजामुल हुसैन, लोकनाथ मिश्रा, एच.वी. कॉमथ, मो. इस्माइल साहिब, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा, एल. कृष्णास्वामी भारती, के. सन्थानम, रोहिणी कुमार चौधरी, टी.टी. कृष्णामचारी व के.एम. मुंशी सहित 11 सदस्यों ने हिस्सा लिया। धर्म के प्रचार के अधिकार का विरोध करते हुए तजामुल हुसैन ने कहा कि- ‘‘मैं समझता हूं कि धर्म एक व्यक्ति तथा रचनाकार के बीच एक निजी मामला है। मेरा धर्म मेरा और आपका धर्म आपका विश्वास है। आप मेरे धर्म में हस्तक्षेप क्यों करें ? मैं भी आपके धर्म में दखलन्दाजी क्यों करूं ?’’ मतान्तरण को देश विभाजन का कारण बताते हुए लोकनाथ मिश्रा ने कहा- ‘‘संविधान प्रारूप का अनुच्छेद 13 (वर्तमान 19) यदि स्वतन्त्रता का घोषणापत्र है तो अनुच्छेद 19 (वर्तमान 25) हिन्दुओं के सर्वनाश का घोषणापत्र। मैने सभी संवैधानिक पूर्वनिर्णयों का अध्ययन व उनका चिन्तन किया है। मुझे धर्म से सम्बन्धित मौलिक अधिकार में कहीं भी ‘प्रचार’ शब्द नहीं मिला।’’ उन्होंने स्पष्ट कहना था कि हर व्यक्ति को जैसा वह जीना चाहता है वैसा उसे जीने दो परन्तु उसे अपनी संख्या बढ़ाने की कोशिश मत करने दो। यह दीर्घकाल में बहुमत को निगलने वाला उपाय है।
संविधान सभा के वरिष्ठ सदस्य प्रो. के.टी. शाह ‘प्रचार’ के विरोधी तो नहीं थे परन्तु वे चाहते थे कि इसका दुरुपयोग न हो। वे मानते थे कि चिकित्सक, नर्स, अनाथालयों व बालगृहों के सञ्चालक, अध्यापक या संरक्षक अपने प्रभाव का प्रयोग कर प्रभावित लोगों का धर्मांतरण करवाते हैं तो यह अनुचित होगा जिसे रोका जाना चाहिए।
संसदीय प्रणाली के ज्ञाता व वामपन्थी झुकाव वाले प्रकाण्ड विद्वान एच.वी.कॉमथ ने विचार किया कि भारत के सनातन जीवन मूल्यों के बारे में नागरिकों को प्रशिक्षण दिया जाए। उन्होंने कहा कि-‘‘युगों से भारत आध्यात्मिक अनुशासन व आध्यात्मिक उपदेश की एक निश्चित पद्धति के लिए कटिबद्ध है, जो संसार में ‘योग’ के नाम से जानी जाती है। महायोगी अरविन्द ने बार-बार कहा है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता ‘योग’ के अनुशासन द्वारा चेतना के रुपान्तरण की है। मानवता को उच्च स्तर तक उठाना है।’’ इसी तरह रोहिणी कुमार चौधरी ने ईसाई मिशनरियों से आग्रह किया कि वह अन्य धर्मों पर कीचड़ न उछालें। समिति के अन्य सदस्य एल. कृष्णास्वामी भारतीप, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा ने प्रचार का समर्थन तो किया परन्तु उनका उद्देश्य था कि प्रचार के माध्यम से एक धर्म दूसरे की विशेषताओं को जानें, ताकि वे परस्पर कुछ न कुछ सीख सकें, पर प्रचार का अर्थ धर्मांतरण किसी भी सूरत में नहीं लिया जा सकता। इसके बावजूद देखने में आ रहा है कि चर्च प्रचार के शब्द की मनमाफिक व्याख्या करती है और इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानती है।
केवल संविधान सभा ही नहीं बल्कि समय-समय पर न्यायालयों ने भी धर्मांतरण को गलत बताया है। साल 1968 में मध्य-प्रदेश सरकार ने ‘म.प्र. धर्म स्वातन्त्रय अधिनियम’ तथा उड़ीसा सरकार ने इसी तरह का अधिनियम पारित करते हुए धर्मांतरण पर रोक लगाई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने रेवरेण्ड स्टैनिस्लास बनाम म. प्र. (1977) 2-एस.सी.आर. 616, में उपरोक्त अधिनियमों के प्रावधानों को संवैधानिक रूप से सही ठहराया। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 25 के तहत धर्म स्वातन्त्र्य अधिकार की व्याख्या करते हुए ‘धर्म प्रचार के अधिकार’ की व्याख्या सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर अपना निर्णय दिया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘यह अनुच्छेद किसी अन्य व्यक्ति को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का अधिकार नहीं देता, बल्कि रिलीजन तत्वों को प्रकट करते हुए उसके प्रचार या प्रसार करने की आज्ञा देता है। अनुच्छेद 25(1) अन्त:करण की आजादी की गारण्टी प्रत्येक नागरिक को देता है, जो अवधारित करता है कि दूसरे व्यक्ति को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का कोई मूल अधिकार नहीं है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो वह सभी नागरिकों को दिए गए ‘अन्त:करण की स्वतन्त्रता’ के मौलिक अधिकार का हनन करेगा।’’
देश में मतान्तरण का गन्दा खेल खेल रहे ईसाई मजहब के प्रचारकों को उक्त सन्दर्भों से सीख ले कर न केवल आत्मविश्लेषण करना बल्कि धर्मांतरण के असंवैधानिक कृत्यों को तुरन्त बन्द करना चाहिए। देश में धर्म प्रचार व धार्मिक स्वातन्त्र्य के अधिकार की मनमाफिक व्याख्या स्वीकार्य नहीं है।

- राकेश सैन
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बेअदबी के आरोपियों की हत्याएं, आक्रोश या पर्दादारी ?



श्री गुरु ग्रन्थ साहिब इस देश के प्राण हैं और इनकी शिक्षाएं तो पंजाब निवासियों के गुणसूत्रों (डी.एन.ए.) में रची बसी हैं। आस्थावान लोग इन्हें जिन्दा गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इतना सम्मान होने के बावजूद इनके अपमान की घटनाएं भी पंजाब में ही अधिक होती आई हैं। अक्तूबर, 2015 में तो इस तरह की घटनाओं की मानो बाढ़ सी ही आ गई थी और इसके लगभग छह साल बाद सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थल श्री हरिमन्दिर साहिब व कपूरथला में हुई इस तरह की घटनाओं ने सभी के मनों को झिञ्झोड़ कर रख दिया है। ये घटनाएं किसी मनोरोगियों की करतूत हैं या किसी का षड्यन्त्र इस पर आभी राज कायम है परन्तु इन घटनाओं के बाद जिस तरह आरोपियों की तालिबानी शैली में हत्या कर दी जाती है उससे हर किसी के मन में एक सवाल पैदा होना शुरू हो चुका है कि आरोपियों की हत्या लोगों का आक्रोश है या किसी की पर्दादारी ? आखिर कौन है जो यह नहीं चाहता कि सच्चाई सामने आए ? आरोपियों की तत्काल हत्या कर जाञ्च के सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र माने जाने वाले व्यक्ति को क्यों खत्म कर दिया जाता है ? इन घटनाओं के बाद हर तरफ से निष्पक्ष जाञ्च की मांग होती है परन्तु जब आरोपी को ही खत्म कर दिया जाए तो इन घटनाओं को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी कैसे हो ? क्या भीड़ तन्त्र का न्याय हमारे लोकतन्त्र के मुख को मलिन नहीं करता ?

पंजाब में हाल ही में हुई बेअदबी की घटनाओं में एक बात साञ्झी है कि दोनों के आरोपियों की लोगों ने ही हत्या कर दी। दो महीने पहले सिंघू सीमा पर चल रहे कथित किसान आन्दोलन के दौरान भी निहंगों ने इसी तरह के आरोप लगा कर एक वञ्चित वर्ग के व्यक्ति को काट कर बैरीअर पर लटका दिया था। आरोपियों की इस तरह की जाने वाली हत्याएं सन्देह तो पैदा करती ही हैं कि आखिर इनके पीछे का रहस्य क्या है ? आखिर सबूत क्यों मिटा दिए जाते हैं ?
पूरी बात जानने के लिए पाठकों को पंजाब की सामाजिक परिस्थितियों के बारे जानना आवश्यक है। राज्य में होने वाली बेअदबी की घटनाएं केवल राजनीति को ही प्रभावित नहीं करतीं बल्कि राज्य में आतंकवाद के दौर से ही सक्रिय अलगाववादी तत्व इसे अवसर के रूप में लेते हैं। इन समाज विरोधी तत्वों द्वारा इन्हीं घटनाओं को आधार बना कर युवाओं के कोमल दिल-दिमाग में साम्प्रदायिक विष भरा जाता है। उन्हें देश के खिलाफ उकसाया जाता है। पंजाब देश का वह सीमान्त राज्य है जो देश विभाजन के समय सर्वाधिक प्रभावित हुआ, बण्टवारे से पहले देखने में आता था कि समाज को तोडऩे के लिए पाकिस्तान की मांग करने वाले मुस्लिम लीग के लोग इसी तरह की शरारतें किया करते थे। लीग के लोग ही सूअर मार कर मस्जिदों के बाहर फिंकवा देते और इसकी आड़ में खूब साम्प्रदायिक विषवमन होता जो अन्तत: न केवल देश के विभाजन का ही नहीं बल्कि इतिहास में हुए सबसे बड़े नरसंहारों में एक का कारण बना। बेअदबी की घटनाओं से लोगों के मनों में सन्देह पैदा होने लगा है कि पंजाब की अलगाववादी शक्तियां कहीं मुस्लिम लीग का खेल तो नहीं खेल रहीं ? समाज में दरार पैदा करने के लिए क्या ये घटनाएं अलगाववादियों की ही तो करतूत नहीं हैं? शायद इसीलिए तो बेअदबी के आरोपियों की हत्याएं तो नहीं हो रहीं कि कहीं सच्चाई सामने न आ पाए ? कल्पना करें कि अगर मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के अन्य आरोपियों की तरह कसाब को भी मार दिया जाता तो क्या पाकिस्तान की सच्चाई से पर्दा हट पाता ? क्या इसकी अलग-अलग व्याख्याएं व मनमाफिक विश्लेषण नहीं होने थे ?
दूसरी ओर गुस्साई हुई जुनूनी भीड़ से जिम्मेवार व्यवहार की क्या अपेक्षा की जाए जब संविधानिक पदों पर बैठे लोग ही तालिबानी मानसिकता की पीठ थपथपाना शुरू कर दें। श्री हरिमन्दिर साहिब व कपूरथला में हुई बेअदबी की घटनाओं के बाद कांग्रेस के पंजाब प्रदेश अध्यक्ष व पार्टी के मुंहफट नवरत्नों में सर्वश्रेष्ठ नवजोत सिंह सिद्धू ने इस तरह के आरोपियों को सरेआम चौक पर फांसी देने की वकालत की है। एक समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि बेअदबी के आरोपियों को चौक में फांसी पर लटका देना चाहिए। बड़े मीयां तो बड़े मीयां, छोटे मीयां सुभान अल्लाह वाली कहावत राज्य के मुख्यमन्त्री स. चरणजीत सिंह चन्नी पर पूरी तरह फिट बैठती दिख रही है, गैर-जिम्मेवाराना व्यवाहर के मामले में उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू से भी आगे निकलते हुए बिना जाञ्ज ही घोषित कर दिया कि इन घटनाओं के पीछे केन्द्रीय एजेञ्सियों का हाथ है। ऐसा बोलते समय लगा कि मुख्यमन्त्री या तो मामले की गम्भीरता से अनभिज्ञ थे या अपने शब्दों के महत्त्व को नहीं पहचानते। उन्हें मालूम होना चाहिए कि वो किसी गली-मोहल्ला स्तर के नेता नहीं बल्कि एक राज्य के संविधानिक मुखिया हैं। स. चन्नी ने जिस समय इन घटनाओं के पीछे केन्द्र की एजेञ्सियों का हाथ सूंघ लिया उस समय तक पुलिस आरोपियों के नाम तक पता नहीं कर पाई थी। उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनकी यह गैर-जिम्मेवाराना ब्यानबाजी राज्य का साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ सकती है और ऐसा करके वे देशविरोधी शक्तियों के हाथों में ही खेलते दिखाई दे रहे हैं।
देश में कानून का शासन है, किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह कानून अपने हाथों में ले। धार्मिक आस्था आहत होने से आक्रोश पैदा होना स्वभाविक है परन्तु जोश में होश का होना जरूरी है। कानून की दृष्टि में किसी धर्म या धर्मग्रन्थ का अपमान करना और इसके आरोपियों की हत्या करना दोनो संगीन अपराध है। आरोपियों की हत्या करने वालों को भी समझना चाहिए कि अपनी हरकतों से वे आखिर किसकी मदद कर रहे हैं ?

- राकेश सैन
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पंजाब में आतंकवाद और वाजपेयी जी का साहस

पूर्व प्रधानमन्त्री एवं उच्च कोटि के कविहृदय दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी जी का भाषण कौशल, वाकपटुता, कुशल राजनेता व विश्व स्तर के कूटनीतिज्ञ होने के गुण से तो सभी परिचित हैं परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि उनमें अदम्य साहस व शूरवीरता के गुण भी विद्यमान थे। पंजाब में जब आतंकवाद का काला दौर चल रहा था तो वाजपेयी जी ने आतंकवादियों द्वारा राज्य की उद्यौगिक नगरी बटाला की की गई नाकाबन्दी तुड़वा कर ऐसे शौर्य का प्रदर्शन किया जिसके आज भी पंजाब के लोग कायल हैं। उन्होंने केवल नाकाबन्दी ही नहीं तुड़वाई बल्कि खुंखार आतंकवादी सन्त जरनैल सिंह भिण्डरांवाला के गढ़ में जाकर सिंहनाद किया कि भारत के लोग इन भाड़े की बन्दूकों से डरने वाले नहीं हैं।

1980 का दशक पंजाब के लिए डरावना और भयानक था। भय के मारे लोग शाम के पांच बजे ही घरों में बन्द हो जाते। राज्य सरकारें बेबस थीं, पुलिस लाचार। उद्योग व व्यापार ठप्प हो गये थे। कोई दिन ऐसा नहीं जाता था जिस दिन यहां कोई आतंकी घटना न हो। आतंकी भिण्डरांवाले के सूरमाओं द्वारा आम लोगों को बसों-गाडिय़ों से उतार कर गोलियों से भूना जा रहा था। जगह-जगह मासूम नागरिकों जिनमें बच्चे, बूढ़े, बीमार और महिलाएं भी शामिल थीं, की जान ली जा रही थी। उन्हीं दिनों की बात है जब 6 मार्च, 1986 को आतंकियों ने पंजाब के औद्योगिक शहर बटाला के सभी 16 प्रवेश मार्गों की नाकेबन्दी करके शहर को बन्धक बना कर लोगों का अन्दर-बाहर आना-जाना भी बन्द कर दिया। यह नाकाबन्दी लगभग वैसी ही थी जैसी कि हाल ही में दिल्ली की सिंघू सीमा पर कथित किसानों द्वारा की गई थी। शहर की सीमा पर हथियारबन्द गुण्डे दनदना रहे थे और पुलिस बेबस। शहर में दूध, सब्जी व जरूरी सामान की आपूर्ति रोक दी गई। पूरे शहर में18 दिन कफ्र्यू लगा रहा। शहर में आवश्यक खाद्य वस्तुओं का अभाव हो गया। भूख से व्याकुल बच्चे दूध के लिए तरसने लगे। न मरीजों को दवाई मिल रही थी, न सब्जी, न राशन और न ही मवेशियों के लिए चारा तथा अन्य सामान।
नाकाबन्दी के दौरान आतंकवादियों ने भारी लूटमार भी की। इस दौरान वहां अन्य वस्तुओं के साथ ही 14 कारखानों और 34 दुकानों को लूटने के अलावा 20 बन्दूकें भी लूटी गईं और 18 लाख रुपए से अधिक की सम्पत्ति नष्ट की गर्ई। नाकाबन्दी खुलवाने के लिए बनाई गई शान्ति समिति में भी यह मामला बार-बार उठा परन्तु इसमें शामिल बटाला क्षेत्र के तीन मन्त्री और अन्य नेता भी यह नाकाबन्दी समाप्त नहीं करवा सके। लोगों में हाहाकार मचा हुआ था। केन्द्र में उस समय श्री राजीव गान्धी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार थी जबकि पंजाब में स. सुरजीत सिंह बरनाला मुख्यमन्त्री थे।
पंजाब केसरी के सम्पादक श्री विजय चोपड़ा के लेख अनुसार, उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य स. दरबारा सिंह को फोन किया। उन्होंने चोपड़ा जी को कहा कि वह बात करके अगले दिन बताएंगे। उनकी बात सुन कर लगा कि बात बन जाएगी परन्तु जब उनकी ओर से कोई सन्तोषजनक उत्तर न मिला तभी भाजपा के वरिष्ठï नेता श्री कृष्णलाल शर्मा से सम्पर्क किया गया और कहा कि यदि अटल जी बटाला आ जाएं तो यह ‘नाकेबन्दी’ खुल सकती है। अटल जी उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। काम तो कठिन था, पर उन्होंने प्रयास किया। श्री चोपड़ा के अनुसार, भाजपा नेता डॉ. बलदेव प्रकाश से सम्पर्क किया गया और श्री वाजपेयी को फोन द्वारा सारे घटनाक्रम और हालात की गम्भीरता के बारे में बताया गया। एक दिन श्री कृष्णलाल शर्मा ने बताया कि श्री वाजपेयी जी आने के लिए राजी हो गए हैं। केवल चोपड़ा जी ही नहीं, बल्कि पंजाब के कई नेताओं ने भी इस ओर प्रयास किया जो सफल रहा। अटल जी के बटाला आने के समाचार से पंजाब के राज्यपाल और सरकार पर बहुत दबाव पड़ा। पंजाब सरकार तुरन्त हरकत में आई और श्री वाजपेयी तथा उनके साथ दिल्ली से आने वाले भाजपा नेता श्री केदारनाथ साहनी एवं पंजाब के कुछ भाजपा नेताओं को भारी सुरक्षा प्रबन्धों में बटाला पहुंचाने की व्यवस्था की गई।
अमृतसर से बटाला जाने के दो रास्ते हैं। पहला अमृतसर से सीधा बटाला जाता है और दूसरा खालिस्तानी आतंकियों के गढ़ के रूप में बदनाम मेहता चौक से बटाला जाता है। यह कहने के बावजूद कि अमृतसर से सीधे बटाला जाना ही सुरक्षित है, अटल जी ने कहा,‘चाहे जो भी हो, मैं तो उस रास्ते से ही जाऊंगा जहां आतंकवादी अपना डेरा लगाए हुए हैं।’ वाजपेयी जी का मानना था कि जो नाकाबन्दी किए बैठे हैं आखिर वे भी तो अपने ही लोग हैं। जान हथेली पर रख कर अटल जी मेहता चौक के रास्ते ही 25 मार्च,1986 को बटाला पहुंचे और लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए किला मण्डी बटाला के प्रांगण में एक विशाल रैली को सम्बोधित किया जिसे सुनने हजारों लोग पहुंचे। इसके साथ ही उन्होंने सभी पक्षों के साथ बैठकें करके आतंकियों की नाकेबन्दी समाप्त करवा दी जिससे बटाला वासियों के साथ-साथ पूरे पंजाब के लोगों ने राहत की सांस ली। शायद पंजाब के इन्हीं हालात को देख कर उनका कवि हृदय विवहल हो उठा और जिससे दर्दनाक कविता निकली कि -
दूध में दरार पड़ गई
खून क्यों सफेद हो गया ?
भेद में अभेद खो गया।
बण्ट गये शहीद, गीत कट गए।
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गन्ध।
टूट गये नानक के छन्द
सतलुज सहम उठी।
व्यथित सी बितस्ता है।
वसन्त से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर।
गले लगने लगे हैं गैर।
खुदकुशी का रास्ता।
तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

- राकेश सैन
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विरोध के नाम पर ‘पागलपन’





राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री शरद पवार ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पटाक्षेप किया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा सरकारों में वह और स. मनमोहन सिंह नहीं चाहते थे कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विद्वेष पाला जाए। उस समय कुछ लोगों द्वारा मोदी के खिलाफ राजनीतिक बदले की कार्रवाईयां हुईं। जिस दल के लोग सत्ता में रहते हुए मोदी के विरुद्ध राजनीतिक बदलाखोरी की कार्रवाईयां करते रहे वे आज विपक्ष में आकर पागलपन की सीमा तक उनका विरोध करते दिख रहे हैं। पंजाब में उनकी सुरक्षा को लेकर हुई चूक की घटना ने साबित कर दिया है कि इन लोगों को सत्ता के लिए मोदी या किसी की भी जान को संकट में डालना पड़े तो उन्हें गुरेज नहीं।

आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेन्ध के बेहद गम्भीर मामले में जब जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, चूक पर गम्भीर चर्चा कर भविष्य में ऐसा न हो इसके कदम उठाए जाने चाहिए तो ऐसे समय में छिछली राजनीति देखने को मिल रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी इस प्रकरण पर खेद भी जता रहे हैं और साथ ही सुरक्षा में किसी तरह की खामी से इन्कार करते हुए सारी जिम्मेदारी केन्द्रीय एजेंसियों पर थोप रहे हैं। कोई पूछे कि यदि कहीं कुछ हुआ ही नहीं तो फिर मामले की जांच के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन क्यों किया गया है ? उनके रवैये से यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आखिर उनकी यह समिति दूध का दूध और पानी का पानी करने में समर्थ होगी या नहीं ? चन्नी केवल यही नहीं कह रहे कि छोटी सी बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है, बल्कि ऐसे अजीबो गरीब बयान भी दे रहे हैं कि प्रधानमन्त्री को जिस क्षेत्र में जाना था, वह तो सीमा सुरक्षा बल के दायरे में है। क्या इससे अधिक हास्यस्पद बात और हो सकती है ? केन्द्रीय बल को सीमावर्ती 50 किलोमीटर के दायरे में केवल तलाशी लेने और सन्दिग्धों की गिरफ्तारी का अधिकार दिया गया है। उसका विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से कोई सरोकार नहीं। यह भी छिपा नहीं कि पंजाब सरकार बल के अधिकार बढ़ाने का विरोध भी कर रही है। कई कांग्रेसी नेता इसे लेकर खुशी जता रहा है कि प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमन्त्री को अपनी ताकत दिखा दी, तो कोई यह ज्ञान बाण्ट रहा है कि अपनी रैली में कम भीड़ जुटने के कारण से मोदी स्वयं ही लौट गए। युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी प्रधानमन्त्री से पूछ रहे हैं ‘मोदी जी, हाऊ इ•ा द जोश ?’
इस किस्म के ये कांग्रेसी नेता अपनी ही पार्टी के कुछ सुलझे हुए जिम्मेवार नेताओं के संयत बयानों की अनदेखी कर यही साबित कर रहे हैं कि ये पार्टी वैचारिक रूप से किस तरह बिखरी हुई है। साफ है कि प्रधानमन्त्री की सुरक्षा से खिलवाड़ पर छिछले बयान दे रहे कांग्रेसी मामले की गम्भीरता को समझने से इनकार कर रहे हैं। यह उसी दल के नेता हैं जिसने श्रीमती इन्दिरा गान्धी, श्री राजीव गान्धी व स. बेअन्त सिंह के रूप में अनेक वरिष्ठ नेता आतंकियों के हाथों खोए हैं। पंजाब की कांग्रेस सरकार व इस दल को आभास होना चाहिए कि पुलिस की ढिलाई से सडक़ पर आ धमके प्रदर्शनकारियों के कारण प्रधानमन्त्री का काफिला एक फ्लाईओवर पर करीब 15-20 मिनट तक फंसा रहा। पाकिस्तानी सीमा के निकट सुरक्षा और तस्करी की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील इलाके में ऐसा होना अकल्पनीय ही नहीं, शर्मनाक और चिन्तनीय भी है। ऊपर से कांग्रेसी नेताओं के स्तरहीन ब्यान और इसी तरह की राजनीति अशोभनीय भी है। ठीक है कि लोकतन्त्र में विपक्ष का काम विरोध करना भी है परन्तु केवल विरोध के लिए विरोध और इसके लिए प्रधानमन्त्री की सुरक्षा से समझौते को उचित ठहराया जा सकता है? विरोध के नाम पर ये पागलपन नहीं तो क्या है ?
कांग्रेस की हालत पर श्री शरद पवार ने ही पिछले साल 10 सितम्बर को एक मीडिया समूह के कार्यक्रम में कहानी सुनाई। कहानी अनुसार, ‘उत्तर प्रदेश के जिमींदारों के पास काफी जमीन और बड़ी हवेलियां थीं। भूमि नियन्त्रण अधिनियम से जमीन कम हो गई, हवेलियां बनी रहीं लेकिन उनकी मरम्मत की क्षमता जिमींदारों की नहीं रही। हजारों एकड़ से सिमटकर उनकी जमीन 15-20 एकड़ रह गई। एक बार जिमींदार सुबह उठा, उसने आसपास के हरेभरे खेतों को देखा और कहा कि सारी जमीन जो है, वो हमारी खानदानी है।’ यही हालत कांग्रेस की है, किसी समय केन्द्र के साथ-साथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी राज्यों उसकी सरकारें थीं जो अब कुछ राज्यों तक सिमट गई। पार्टी लोकसभा में विपक्षी नेता के पद को भी तरस रही है परन्तु लगता है वह दिल से स्वीकार नहीं पाई है कि उसके सुख भरे दिन बीत चुके। वह येन केन प्रकारेण दोबारा सत्ता हासिल करना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी सीमा तक जाना पड़े वह मौका नहीं छोड़ती। संसद से सडक़ तक को अवरुद्ध कर मोदी सरकार के लिए असुखद स्थिति पैदा करने का प्रयास करती है। केवल विरोध के लिए विरोध कितना उचित है ? जिस आर्थिक सुधारों का ढिण्ढोरा पीट कर वह अपनी पीठ थपथपाती नहीं अघाती जब मोदी सरकार उन्हीं सुधारों को आगे बढ़ाती है तो उसका विरोध क्यों किया जाता है ? क्यों उन कानूनों का विरोध करती है जिसे बनाने का वायदा अपने चुनावी घोषणापत्रों में करती है ? देश की सुरक्षा, विदेश नीति, सुरक्षा सेनाओं, आतंकवाद जैसे सर्वमान्य माने जाने वाले मुद्दों पर देश का मनोबल तोडऩे वाला दृष्टिकोण क्यों पेश करती है? जब संवैधानिक तरीकों से काम नहीं चलता तो क्या प्रधानमन्त्री की सुरक्षा तक को दांव पर लगा दिया जाना चाहिए ? विरोध का यह कौन सा तरीका है ? अगर ये विपक्ष का विरोध है तो फिर पागलपन किसे कहते हैं ?
संविधान सभा में सदस्यों का आभार व्यक्त करते हुए बाबा साहिब भीमराव रामजी आम्बेडकर ने कहा था कि - स्वतन्त्रता के बाद हमें आन्दोलन और प्रदर्शन जैसे असंवैधानिक तरीके त्याग देने चाहिएं। जब देश को संवैधानिक अधिकार नहीं थे तब उक्त तरीकों की सार्थकता थी परन्तु अब हमारे हाथ में मताधिकार, संसद, विधान मण्डलों के रूप में संवैधानिक तरीके हैं और अपनी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए इन्हीं का सहारा लेना चाहिए। शाहीनबाग और किसान आन्दोलन पर बाबा साहिब से मिलती जुलती राय सर्वोच्च न्यायालय भी व्यक्त कर चुका है कि अपनी बात रखने का हर किसी को अधिकार है परन्तु इसके लिए सडक़ों को नहीं रोका जा सकता। सडक़ें-रेल मार्ग आवागमन के लिए हैं न कि आन्दोलन के लिए। एक साल तक चले किसान आन्दोलन से देश को कितना नुक्सान उठाना पड़ा और भारत की छवि पर इसका क्या प्रभाव पड़ा इस पर पहले ही बहुत कुछ लिखा व कहा जा चुका है। पिछले सप्ताह ही पंजाब के खन्ना जिले में नौकरी मांग रहे आन्दोलनकारी युवाओं के बीच रोगी-वाहिनी फंस गई। उसमें सवार महिला लाख अनुनय-विनय करती रही परन्तु युवाओं ने रास्ता नहीं दिया जिससे उस महिला का एक साल का बच्चा ईलाज के अभाव में संसार छोड़ गया। विरोध के नाम पर यह पागलपन नहीं तो क्या है ? क्या सत्ता की कुर्सियां, सरकारी नौकरियां मानव जीवन से भी अधिक कीमती हो गईं ?



- राकेश सैन
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पंजाब : केजरीवाल ने अपने पैर पीछे क्यों खींचे ?




सांसद श्री भगवंत मान को पंजाब में आम आदमी पार्टी का मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित किए जाने के बाद राजनीतिक गलियारों में प्रश्न पूछा जा रहा है कि पार्टी के सर्वेसर्वा दिल्ली के मुख्यमन्त्री श्री अरविन्द केजरीवाल ने इस राज्य में अपने पैर पीछे क्यों खींच लिए ? पिछले तीन-चार महीनों से पंजाब की दिवारें इस नारे के साथ पाट दी गईं कि ‘इक मौका-केजरीवाल नूं’ तो यकायक नया नारा क्यों दे दिया कि ‘इक मौका-भगवंत मान नूं ?’

पंजाब की राजनीतिक परिस्थितियों का सिंहावलोकन करने पर सामने आएगा कि राज्य में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता का खजाना सिकुड़ता सा नजर आ रहा है। पिछले विधानसभा चुनावों से पहले आम आदमी पार्टी पंजाब में आन्धी की तरह आई। राज्य के बड़े राजनीतिक चेहरों के साथ-साथ दूसरे दलों के असन्तुष्टों, युवाओं, विदेशों में बड़ी संख्या में रह रहे अनिवासी भारतीयों, यहां तक कि सिविल सोसाइटी व बुद्धिजीवी वर्ग ने भी दिल्ली की इस सनसनी को हाथों-हाथ लिया। विगत चुनावों में तत्कालीन अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ वाली सरकार के खिलाफ जनाक्रोश भी काफी था जिसको चलते लग रहा था कि आम आदमी पार्टी बाजी मार जाएगी। श्री केजरीवाल भी दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य को छोड़ पंजाब जैसे पूर्ण प्रान्त को अपनी राजनीति का केन्द्र बनाने को ललायित दिखे। नारा दिया गया कि ‘केजरीवाल-केजरीवाल सारा पंजाब तेरे नाल।’ इस दावे का आधार भी था क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में पंजाब से आम आदमी पार्टी के चार सांसदों ने पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। परन्तु इस सारी कवायद का परिणाम निकला वही ढाक के तीन पात, राज्य की 117 विधानसभा सीटों में 100 सीटों का दावा करने वाली दिल्ली की इस पार्टी को मात्र 20 सीटों पर संतोष करना पड़ा। केजरीवाल के नारे को लेकर पंजाब के लोग उपहास में कहने लगे ‘केजरीवाल-केजरीवाल एह की होया तेरे नाल।’
पंजाब में पिछले पांच सालों में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक ताकत कमजोर हुई है। विगत विधानसभा चुनावों के बाद बड़े-बड़े चेहरे पार्टी को छोड़ गए। इस दौरान राज्य में हुए आधा दर्जन विधानसभा उपचुनावों में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानतें तक नहीं बचा पाए। 2019 के लोकसभा चुनावों में लोकसभा सांसदों की संख्या चार से घट कर केवल एक रह गई और श्री भगवंत मान ही पार्टी की थोड़ी बहुत इज्जत बचा पाए। ग्रामीण व निकाय चुनावों में भी पार्टी फिसड्डी रही। केवल इतना ही नहीं, पार्टी के 20 विधायकों में भी पार्टी नेतृत्व को लेकर असन्तोष पनपने लगा और पांच सालों में आधा दर्जन विधायक आम आदमी पार्टी को छोड़ गए। केवल इतना ही नहीं कुछ दिन पहले फिरोजपुर (ग्रामीण) विधानसभा क्षेत्र के आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार ने ही पार्टी छोड़ दी। देश के इतिहास में शायद यह पहली बार सुनने को मिला कि किसी उम्मीदवार ने भाग-दौड़ करके किसी पार्टी की टिकट प्राप्त की हो और मतदान की तारीख की घोषणा होते ही पार्टी छोड़ दी हो। यह सब आम आदमी पार्टी की गिरती साख व लोकप्रियता की निशानियां बताई जा रही हैं।
अब पंजाब को एक बार फिर जीतने की मंशा से निकले श्री केजरीवाल ने तीन-चार महीने पहले रैलियां, रोड शो और विभिन्न वर्गों के साथ बैठकें आयोजित करनी शुरू कर दीं परन्तु ये आयोजन उनके पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान किए गए कार्यक्रमों के मुकाबले फीके दिखे। शायद यही कारण है कि श्री केजरीवाल ने अब अपने पैर खींच कर श्री भगवंत मान को आगे कर दिया है।
श्री भगवंत मान को मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित करने के लिए चाहे श्री केजरीवाल ने चिर-परिचित राजनीतिक स्टण्ट किया और लोकमत से नाम घोषित करने का दावा किया परन्तु वे इस मोर्चे पर भी गच्चा खा गए और उन्होने स्वयं स्वीकार कर लिया कि पंजाब में पार्टी की ताकत पहले जैसी नहीं रही। पंजाब के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेण्ट एण्ड कम्यूनिकेशन के निदेशक डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं कि इस बार विधानसभा चुनाव में पाँच पार्टियों की लड़ाई है। हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता कम हुई है क्योंकि भगवंत मान को मुख्यमन्त्री बनाने के लिए केवल 21 लाख लोगों ने वोट डाले जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए 36.62 लाख लोगों ने वोट किया था, जो कुल मतों का 23.28 प्रतिशत था। अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ी होती तो 36 लाख से ज़्यादा लोगों को मुख्यमन्त्री के नाम पर मुहर लगाने के लिए हुए वोट में हिस्सा लेना चाहिए था। ज्ञात रहे कि श्री मान को 21 लाख लोगों द्वारा पसन्द किए जाने का आंकड़ा भी खुद केजरीवाल का ही है, किसी निष्पक्ष एजेंसी का नहीं। अगर इस आंकड़े को सही भी मान लें तो इसमें वर्गीकरण किया जाना सम्भव नहीं कि फोन के माध्यम से अपना मत रखने वाले लोग पंजाब के ही थे या किसी दूसरे राज्य के भी। फिलहाल श्री केजरीवाल का 21 लाख का स्वघोषित आंकड़ा भी बताता है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता घटी है।
श्री केजरीवाल चाहे श्री भगवंत मान को अपनी व लोगों की पसन्द बता रहे हैं परन्तु सच्चाई अलग ही सामने आई है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, मान न मान, केजरीवाल की मजबूरी बन गए थे भगवंत मान वाली हालत बन गई थी। किसी बड़े चेहरे की तलाश में पूरी जोड़तोड़ के बाद ही अन्त में सांसद भगवंत मान को मुख्यमन्त्री का चेहरा बनाया गया। बॉलीवुड कलाकार सोनू सूद से लेकर दुबई के होटल कारोबारी एसपीएस ओबेरॉय और किसान नेता बलबीर राजेवाल के नाम मुख्यमन्त्री चेहरे के लिए चले। चर्चा यही रही कि आम आदमी पार्टी और इनके बीच बात नहीं बनी और आखिर में भगवंत मान को आगे करना पड़ा। पंजाब का मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा दिल्ली वाले नेताओं की भी चर्चा में रही लेकिन पंजाबी किसी बाहरी नेता को स्वीकार नहीं करते। इसलिए यह विकल्प पिट गया। हर तरह की कोशिशों के बीच चुनाव सिर पर आ गए तो श्री केजरीवाल की मजबूरी बन गई कि श्री मान के नाम की घोषणा कर दे। कहीं चोकोणीय तो कहीं पांच कोणीय चुनाव होने के कारण पंजाब की राजनीति प्याज के छिलके जैसी होती जा रही है जिसमें कोई दल छाती ठोक कर अपनी जीत का दावा नहीं कर सकता। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा, बीजेपी से नाता तोड़ कर अकाली दल और बीएसपी गठबन्धन मैदान में है। वही पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबन्धन किया है। इतना ही नहीं किसान आन्दोलन में शामिल रहे 22 संगठन भी संयुक्त समाज मोर्चा के मंच पर चुनाव लड़ रहा है। ऐसी अनिश्चितता के दौर में केजरीवाल ने अपना राजनीतिक भविष्य दांव पर लगाना उचित नहीं समझा और पंजाब से अपने पैर वापिस खींच लिए। पंजाब में आम आदमी पार्टी के लोग अब ‘इक मौका केजरीवाल नूं’ का नारा भुला कर ‘इक मौका भगवन्त मान नूं’ का नया नारा याद कर रहे हैं।

- राकेश सैन
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