Friday, 30 March 2018

सामाजिक विभाजन का कारण न बने एससी एसटी एक्ट

भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दी गई समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। इस तस्वीर का दूसरा पहलु भी है, वंचितों व शोषितों को बचाने के लिए बनाए गए कानूनों का दुरुपयोग भी हो रहा है। समाज को जोडऩे के उद्देश्य से लाए गए कानून उसी समाज को बांटते दिखने लगे हैं। इस बात के के पक्ष में दो उदाहरण दिए जा सकते हैं। धनरूआ पुलिस ने 2017 में दो दंगाईयों को गिरफ्तार किया। इस हंगामे को कराने में मसौढ़ी की विधायक रेखा देवी के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया। इस पर विधायक ने मसौढ़ी डीएसपी सुरेंद्र कुमार पंजियार के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने की प्राथमिकी दर्ज करा दी। इससे पुलिस प्रशासन में खलबली मच गई लेकिन आरोपों की जांच की गयी, तो गलत मिले। दूसरी ओर वंचित व शोषित वर्गों पर तो हर रोज कहीं न कहीं उत्पीडऩ की खबरें सुनने व पढऩे को मिल जाती हैं। इससे साफ है कि एससी एसटी एक्ट की आवश्यकता पहले जितनी ही है परंतु जरूरत है इसका दुुरुपयोग रोकने की, जिस तरफ एक सकारात्मक कदम देश की सर्वोच्च अदालत ने उठाया है। अदालत के इस फैसले से उक्त एक्ट और मजबूत व प्रभावी बनने वाला है।

महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून के दुरुपयोग पर विचार करते हुए न्यायालय ने आदेश दिया कि इसके तहत दर्ज ऐसे मामलों में फौरन गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की पीठ ने कहा कि किसी भी लोकसेवक की गिरफ्तारी से पहले न्यूनतम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के अधिकारी द्वारा प्राथमिक जांच जरूर होनी चाहिए। लोक सेवकों के खिलाफ दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसके तहत दर्ज मामलों में सक्षम अधिकारी की अनुमति के बाद ही किसी लोक सेवक को गिरफ्तार किया जा सकता है। 1989 में इस कानून को एक खास जरूरत के कारण बनाया गया था। 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही वंचितों पर अत्याचार रुके। देश की चौथाई आबादी इन समुदायों से बनती है और आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद खराब है। इस अधिनियम के तहत अनुसूचित वर्गों के विरुद्ध किए जाने वाले नए अपराधों में जूते की माला पहनाना, उन्हें सिंचाई सुविधाओं तक जाने से रोकना या वन अधिकारों से वंचित करने रखना, मानव और पशु कंकाल को निपटाने, कब्र खोदने के लिए तथा बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति, इन वर्गों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना,जाति सूचक गाली देना,जादू-टोना अत्याचार को बढ़ावा देना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करना, चुनाव लडऩे से रोकना, महिलाओं को वस्त्र हरण करना, किसी को घर, गांव और आवास छोडऩे के लिए बाध्य करना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, यौन दुव्र्यवहार करना दंडनीय अपराध है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कानून से वंचित व शोषित समाज को सम्मान के साथ जीने में बहुत बड़ा सहारा मिला है और उत्पीडऩ की घटनाओं पर विराम लगाने में काफी मदद भी मिली परंतु वर्तमान में देखने में यह आने लगा कि यह कानून सामान्य वर्ग के लोगों के उत्पीडऩ व ब्लैकमेलिंग का हथियार भी बनने लगा। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख महाराष्ट्र के आए केस से ही साफ हो जाता है कि कुछ गलत मानसिकता के लोग इसका दुरुपयोग समाज को बांटने व लोगों को डराने में कर रहे हैं। राज्य के दो अधिकारियों ने आरक्षित वर्ग के कर्मचारी के काम पर प्रशासनिक टिप्पणी की, जिस पर कर्मचारी ने अपने वरिष्ठों पर इस एक्ट की शिकायत दर्ज करवा दी। यह केवल महाराष्ट्र का मामला नहीं, सामान्यत: सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है कि कोई अधिकारी अपने जूनियर आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनके कामकाज के बारे में कहने से भी कतराते हैं कि कहीं उसके खिलाफ इस तरह की शिकायत न कर दे। यह क्रम यूं ही चलता रहा तो हमारा प्रशासनिक ढांचा कितनी देर तक ठहर पाएगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, इस एक्ट के तहत दर्ज होने वाले 16 प्रतिशत केस आरंभ में ही बंद हो जाते हैं और 75 प्रतिशत केसों में या तो आरोपी छुट जाते हैं या बाहर ही समझौता हो जाता है। अंतत: बड़ी मुश्किल से 2.4 प्रतिशत केसों में ही किसी को सजा हो पाती है। इसके दो अर्थ निकाले जा सकते हैं, एक या तो कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपना काम सही तरीके से नहीं करतीं दूसरा कि इस तरह की अधिकतम शिकायतें झूठी होती हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है उससे इन दोनों कारणों से छुटकारा मिलने वाला है। डीएसपी स्तर के सक्षम अधिकारी द्वारा केस फाइल करने से जहां केस में तथ्यात्मक मजबूती आएगी वहीं प्रारंभिक जांच में झूठी शिकायतें स्वत: निरस्त हो जाएंगी। जहां तक आरोपी को अग्रिम जमानत देने की बात है वह उसका संवैधानिक अधिकार है। जमानत जब हत्या व बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में दी जा सकती है तो इस कानून में क्यों नहीं मिलनी चाहिए? न्यायालय के निर्णय पर बेवजह हल्ला मचाने वालों को समझना चाहिए कि किसी कानून को समाप्त नहीं किया गया बल्कि यह सामयिक सुधार का प्रयास है। हर कानून में समय-समय तत्कालिक जरूरतों के अनुसार बदलाव व सुधार हुए हैं। अदालत के इस कदम से जहां इस कानून को लेकर समाज में भय का वातावरण समाप्त होगा वहीं यह और भी प्रभावी रूप में सामने आएगा। वंचितों व शोषितों की उन सच्ची व वाजिब शिकायतों का निपटारा होगा जो आज फर्जी केसों के बीच दबी कराह रही हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Saturday, 24 March 2018

जिन्ना की बहन अल्पसंख्यकवादी राजनीति

कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने शिवभक्त लिंगायत व वीरशैव संप्रदाय को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा देने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है। योजना सफल होती है तो ये शिवभक्त हिंदू नहीं कहलवाएंगे। कहने को हर राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता, एकजुटता की बातें करता है, पर वास्तव में वोटों की खातिर पृथकतावाद का पोषण करने से किसी को गुरेज नहीं है। सवाल है कि इस दोगली नीति से भारत एक राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ सकेगा? ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों को विभाजित करने के लिए समय-समय पर ऐसे वर्गों को चिन्हित किया जिन्हें वे अपने लिए उपयोगी समझते थे। शेष समाज को उन्होंने सामान्य श्रेणी कहा। इसी में से अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद का जिन्न पैदा हुआ। साल 1891 के भारत जनगणना आयुक्त से जब पूछा गया कि हिन्दू की व्याख्या क्या है, तो उन्होंने कहा कि मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, निचली जातियां, पहाड़ी व जनजातियों आदि को निकाल कर जो बचता है उसे हिन्दू कह सकते हैं। अब तो यह सीमा भी सिकुड़ गयी है। ओबीसी के नाम पर हिन्दू जनसंख्या का एक बड़ा भाग जातिवादी पतन की पटरी पर दौड़ पड़ा है। पिछली सदी में मोहम्मद अली जिन्ना ने देश का विभाजन करवाया। आज अल्पसंख्यकवादी राजनीति के रूप में हर दल में मुस्लिम लीग और नेताओं में जिन्ना बनने की होड़ मची दिखाई दे रही है।

वैसे अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं है। स्पष्टत: संविधान निर्माताओं ने पूरे समाज को समग्र रूप में देखा। संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का विवरण धारा 29 से लेकर 30 तक और 350ए से लेकर 350बी तक शामिल है। परिभाषा के अभाव का नेताओं ने खूब राजनीतिक लाभ उठाया। इसकी मनमाफिक व्याख्या कर मनचाहे वर्गों को अल्पसंख्यक दर्जा देते रहे। अल्पसंख्यक का सुविधाजनक अर्थ करके उनके लिए विविध विशेषाधिकार, सुविधाएं, संस्थान आदि बना-बनाकर दशकों से घातक राजनीति होती रही है। देश हित में जरूरी है कि किसी समुदाय, दल या नेता को मनमानी न करने दी जाए। भारत में अल्पसंख्यक अवधारणा की जरूरत ही नहीं। ब्रिटिश भारत में कोई नस्लवादी उत्पीडऩ नहीं था। अगर था तो अल्पसंख्यक गोरे अंग्रेजों को ही विशिष्ट अधिकार हासिल थे। इससे पहले 800 साल तक मुसलमानों ने देश में शासन किया जो गिनती में चाहे अल्पसंख्यक परंतु वास्तव में शासक थे। लेकिन पश्चिमी समाज की नकल कर भारत में अल्पसंख्यक संरक्षण की अवधारणा मतिहीन होकर अपना ली गई। यह गैर-अल्पसंख्यक के विरुद्ध दोहरा अन्याय बना क्योंकि बहुसंख्यक समाज विदेशी शासन में भी और आज स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी असमानता का शिकार हो रहा है। बात केवल यहीं तक सीमित रहती तो भी खैर थी,अब तो अल्पसंख्यकवाद हिंदू समाज के विघटन का कारण भी बनने लगा है। सुविधाओं व विशेषाधिकार के लालच में समाज के विभिन्न अंग मुख्यधारा से कटने का प्रयास करते दिख रहे हैं। इसके लिए हिंदू समाज की विविधता को विभिन्नता बताया जाने लगा है और इसी आधार पर मुख्यधारा से कटने का मार्ग ढूंढा जाने लगा है। बौद्ध, जैन, सिख समाज को अल्पसंख्यक दर्जा मिलना और इसके लिए इन समाजों से ही आंदोलन होना स्पष्ट उदाहरण है कि अल्पसंख्यकवादी राजनीति मोहम्मद अली जिन्ना की छोटी बहन साबित हो रही है। कितनी त्रासदी है कि दुनिया में हिंदुत्व की पताका फहराने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती के पैरोकार आर्य समाजी, भगवान परशुराम के वंशज ब्राह्मण समाज, आनंदमार्गी, रामकृष्ण मिशन के अनुयायी भी अल्पसंख्यक दर्जे की मांग उठा चुके हैं। यह तो गनीमत है कि अदालतों व समाज हितचिंतकों ने इस विघटन को सफल नहीं होने दिया अन्यथा आज जितनी जातियां हैं उतने ही धर्म अस्तित्व में आसकते हैं। आज लिंगायत व वीरशैव समाज भी इसी कड़ी में शामिल हो गया है और दुर्भाग्य की बात है कि कुछ वोटों के लालच में अपने आप को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली कांग्रेस इस अलगाव को हवा दे रही दिख रही है। रोचक व विरोधाभासी बात तो यह है कि साल 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग को अस्वीकार कर दिया था आज उसी पार्टी की कर्नाटक सरकार ने अल्पसंख्यकवादी पत्ता खेला है। समाज में इसी बिखराव से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आरएस लोहाटी अल्पसंख्यक आयोग को बंद करने की जरूरत जता चुके हैं।

इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार अल्पसंख्यक, एक विस्तृत समाज में एक विशिष्ट सांस्कृतिक, वंशीय या जातीय समूह के रहने वालों को कह सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों में भी इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से अल्पसंख्यक वे हैं जो दूसरे देशों से किसी भी कारण से अपना देश छोड़कर आते हैं। भारत के सन्दर्भ में केवल यहूदी तथा पारसी ही इस श्रेणी में आते हैं। रोचक बात है कि यहूदी और पारसी अपने आप को अल्पसंख्यक कहलवाना पसंद नहीं करते जबकि भारत भूमि पर ही पैदा हुए विभिन्न पंथ व संप्रदाय जो व्यवहारिक रूप में हिंदू समाज के ही अंग हैं अपने को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की जुगत में हैं ताकि कुछ सरकारी सुविधाएं बटोरी जा सकें। वोटों की राजनीति अलगाव की इस आग में घी का काम कर रही है। समय की मांग है कि लिंगायत समाज के संबंध में राष्ट्रहित को ध्यान में रख कर निर्णय लिया जाना चाहिए। अन्यथा समाज का विभाजन भविष्य में राष्ट्र का विभाजन बना तो वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को आने वाली पीढिय़ां विभाजन के प्रतीक जिन्ना व मुस्लिम लीग की श्रेणी में स्थान देगी।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
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Friday, 23 March 2018

भगवान राम ने नवाब को चुकाया गोपन्ना का ऋण


भगवान अपने भक्तों की खुद रक्षा करता है। भक्त सैन की नौकरी बचाने के लिए भगवान खुद नाई बन राजा की सेवा में गए तो नरसी भक्त की बेटी का भात भी भरा। केवल इतना ही नहीं धन्ना जाट तो अपने ठाकुर से खेतों में जुताई तक करवाते रहे। भक्त और भगवान के बीच घनिष्ठ रिश्तों की परंपरा में अग्रणी नाम है भद्राचल के रामदास का जिसका ऋण खुद भगवान श्रीराम व उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने उतारा और वह भी तुगलक वंश से जुड़े नवाब अब्दुल हसन तानाशाह के दरबार में जाकर।

बात सन् 1620 की है, गोलकुंडा रियासत (वर्तमान तेलंगाना राज्य) में स्थित भद्राचल के पास गांव नेलाकोड़ापल्ली में नियोगी ब्राह्मण परिवार में गोपन्ना का जन्म हुआ। उनका परिवार रामभक्ति में निपुण था और पिता पुरोहिती का काम करते। गोपन्ना के मामा तानाशाह के दरबार में बड़े कर्मचारी थे। गोपन्ना बड़ा हो गया परंतु अभी रामभक्ति के भजन गाता फिरता था। पिता चिंतित थे और एक दिन मामा उनके यहां मिलने आए तो वे गोपन्ना को अपने साथ गोलकुंडा तानाशाह के दरबार में ले गए। मामा की सिफारिश पर तानाशाह ने गोपन्ना को भद्राचल के आसपास गांवों की तहसीलदारी सौंप दी और किसानों से राजस्व वसूलने का काम सौंपा गया।  गोपन्ना ने बड़े परिश्रम से अपना काम किया परंतु रामभक्ति उनके मन में और भी जोर मारने लगी। एक बार कुछ ग्रामीण उन्हें गांव में स्थित भगवान श्रीराम के मंदिर ले गए और बताया कि वनवास के समय श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ यहां आए और यहीं पर सुग्रीव और हनुमान जी से मिलन हुआ। इतिहास में इस स्थान को किष्किंधा बताया गया है।
गोपन्ना मंदिर में आकर खूब प्रसन्न हुए परंतु मंदिर की क्षतिग्रस्त हालत ने उन्हें दु:खी भी कर दिया। गांव वालों से जब बात की तो उन्होंने कहा कि यहां साधारण किसान इतने अमीर नहीं कि मंदिर का निर्माण करवा सकें और मुस्लिम शासन होने के कारण सरकारी सहायता की कोई आस न थी। रामभक्त गोपन्ना ने इसी गांव में अपना डेरा जमा लिया और राजस्व वसूली के साथ-साथ मंदिर के लिए दान इक्ट्ठा करने लगे। लोगों सहयोग से मंदिर का निर्माण होने लगा, लोग धन दान, अन्न दान, श्रमदान करने लगे परंतु मानो प्रभु अपने भक्तों की परीक्षा ले रहे थे। लोग गोपन्ना को भद्राचल के रामदास के नाम से जानने लगे। लेकिन मंदिर निर्माण में धन कम पड़ गया और काम रुक गया। दूर-दूर से आए शिल्पी अपने घरों को जाने लगे।  
गांव के सरपंच ने उन्हें एक सुझाव दिया कि राजस्व वसूली में मिले धन का प्रयोग मंदिर में कर लिया जाए और जब फसल आएगी तो गांव के लोग यह धन वापिस कर देंगे। थोड़ी बहुत ना नुकर के बाद गोपन्ना ने यह बात मान ली परंतु ईश्वर की करनी है कि उस साल फसल इतनी नहीं हुई कि ग्रामीण तानाशाह के हिस्से का धन लौटा सकें। धीरे-धीरे बात नवाब तानाशाह के कानों में पड़ी तो उसने गोपन्ना को गिरफ्तार करवा दिया। उस समय गोपन्ना के खाते में एक लाख रूपये निकाले गए जिसकी भरपाई गोपन्ना का गरीब परिवार नहीं कर सका। तानाशाह ने आदेश दिया कि जब तक ब्याज सहित वसूली नहीं हो जाती तब तक गोपन्ना को जेल में रखा जाए।
गोपन्ना जेल में भी भगवान की भक्ति में लीन रहते और उन्होंने जेल में रहते हुए भी तेलगु में गद्यात्मक व पद्यात्मक शैली में रामायण की रचना की। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया ब्याज लगने से कर्ज बढ़ता गया और यह राशि 6 लाख तक पहुंच गई। भद्राचल के रामदास की रिहाई की आशा की किरण धुंधली पड़ती गई लेकिन एक दिन दो अति सुंदर युवक नवाब तानाशाह के दरबार में उपस्थित हुए। एक ने अपना नाम राम और दूसरे ने लक्ष्मण और खुद को अयोध्यावासी बताया। उन्होंने गोपन्ना के कर्ज के बारे जानकारी ली और तत्काल 6 लाख सोने की मोहरें तानाशाह को सौंप दी। शुद्ध सोने की मोहरें देख कर नवाब की आंखें भी फटी की फटी रह गईं परंतु सोने की चकाचौंध में वह भगवान को नहीं पहचान पाया।
उधर गोपन्ना जेल में बंद था और तानाशाह उससे मिलने आया। तानाशाह ने गोपन्ना को सारी कथा सुनाई तो भक्त की आंखें भर आईं और कहा वे कोई और नहीं बल्कि मेरे प्रभु राम ही थे। तानाशाह ने गोपन्ना की तहसीलदारी बहाल कर दी परंतु भक्त ने इंकार कर दिया और सारी उम्र भद्राचल के राम मंदिर में जाकर रामभक्ति में जीवन गुजार दिया। 1680 में भद्राचल के रामदास राम को प्यारे हो गए परंतु उनकी भक्ति आज भी समाज को मार्ग दिखा रही है।
यहाँ के मंदिर के आविर्भाव के विषय में एक जनश्रुति वनवासियों से जुड़ी हुई है। इसके अनुसार, एक राम भक्त वनवासी महिला दम्मक्का भद्रिरेड्डीपालेम ग्राम में रहा करती थी। इस वृद्धा ने राम नामक एक लड़के को गोद लेकर उसका पालन-पोषण किया। एक दिन राम वन में गया और वापस नहीं लौटा। पुत्र को खोजते-खोजते दम्मक्का जंगल में पहुँच गई और राम-राम पुकारते हुए भटकने लगी। तभी उसे एक गुफ़ा के अंदर से आवाज आई कि माँ, मैं यहाँ हूँ। खोजने पर वहाँ सीता, राम और लक्ष्मण की प्रतिमाएँ मिलीं। उन्हें देखकर दम्मक्का भक्ति भाव से सराबोर हो गई। इतने में उसने अपने पुत्र को भी सामने खड़ा पाया। दम्मक्का ने उसी जगह पर देव प्रतिमाओं की स्थापना का संकल्प लिया और बाँस की छत बनाकर एक अस्थाई मंदिर बनाया। धीरे-धीरे स्थानीय वनवासी समुदाय भद्रगिरि या भद्राचलम नामक उस पहाड़ी पर श्रीराम की पूजा करने लगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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मो. 097797-14324

Tuesday, 20 March 2018

देश कफन गिन रहा है और कांग्रेस वोट

देश आज पूरा शोकाकुल है, दुनिया में इस्लाम का परचम फहराने निकले आईएसआईएस के आतंकियों के हाथों मारे गए 39 निर्दोष भारतीयों की मौत की आज अधिकारिक पुष्टि हुई। वैसे तो राष्ट्रव्यापी शोक का यही कारण पर्याप्त है परंतु आज देश ने उस समय राजनेताओं की अंर्तात्मा को भी मरते देखा जो संसद में श्रद्धांजलि देते समय भी शोरगुल करते रहे। बताते हुए भी दिल की नाजुक रगें टूट सी रही हैं कि आज जहां देश कफन गिन रहा है और वहीं देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी वोटों का हिसाब लगाती दिख रही है। राष्ट्रीय विपत्ती में देश एकजुट दिखाई नहीं दे रहा। चिता की लकडि़य़ों से बनी सीढ़ी के सहारे कुर्सी तक पहुंचने का खेल आज शोक की पीड़ा को बढ़ा रहा है।

राज्यसभा में देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बताया कि इराक में तीन साल पहले अगवा किए गए सभी 39 भारतीय मारे जा चुके हैं और उनके शव मिल गए हैं। यह पता नहीं चल पाया गया है कि ये लोग कब मारे गए। पंजाब, हिमाचल प्रदेश, बिहार तथा बंगाल के रहने वाले इन भारतीयों के शव इराक में मोसुल शहर के उत्तर पश्चिम में स्थित बदूश गांव से मिले हैं। एक सामूहिक कब्र से खोद कर निकाले गए इन शवों की डीएनए जांच की गई जिसके बाद इनकी पहचान हो सकी। सुषमा ने बताया ''मैंने पिछली बार इन भारतीयों के बारे में सदन में चर्चा होने पर कहा था कि जब तक ठोस सबूत नहीं मिलेगा, मैं किसी को भी मृत घोषित नहीं करूंगी। आज मैं उसी प्रतिबद्धता को पूरी कर रही हूं।'' करीब तीन साल पहले 40 भारतीय कामगारों के एक समूह को मोसुल में आतंकी संगठन आईएस ने बंधक बना लिया था। बंधक बनाए गए लोगों में कुछ बांग्लादेशी भी थे। भारतीयों में से हरजीत मसीह नामक एक व्यक्ति अपने आप को अली बता कर किसी तरह बच कर निकला था। उसने दावा किया था कि उसने अन्य भारतीयों को आईएसआईएस के लड़ाकों के हाथों मरते देखा है लेकिन सरकार ने विरोधाभासी होने के कारण उसका यह दावा खारिज कर दिया था।

इन भारतीयों को तब अपहृत किया गया था जब मोसुल पर आईएस ने कब्जा किया था। इनको पहले मोसुल में एक कपड़ा फैक्ट्री में रखा गया। हरजीत के भागने के बाद इनको बदूश गांव में बंधक रखा गया। विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह को उसी कपड़ा फैक्ट्री से पता चला जहां पहले भारतीयों को रखा गया था। बदूश में कुछ स्थानीय लोगों ने एक सामूहिक कब्र के बारे में बताया। ''डीप पेनिट्रेशन रडार'' की मदद से पता लगाया गया कि कब्र में शव हैं। इराकी अधिकारियों की मदद से शवों को खोद कर निकाला गया। जो सबूत मिले, उनमें लंबे बाल, कड़ा, पहचान पत्र और वह जूते शामिल हैं जो इराक में नहीं बने थे। सुषमा ने राज्यसभा में इन भारतीयों को लेकर अपनी बात रखी, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के हंगामे के कारण वह इस मुद्दे पर बात नहीं कह सकीं। श्रीमती स्वराज के शब्दों में कांग्रेस ने ओछी राजनीति की सारी हदें पार कर दीं। पिछले कुछ दिनों से हो रहे हंगामे को आज भी जारी रखा गया और कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में जमकर हंगामा किया। केवल इतना ही नहीं राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति मंगलवार सदन के सदस्यों के आचरण से बेहद नाराज हो गए। उन्होंने हंगामा करने वाले सदस्य को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि वे ऐसा ही करते रहेंगे तो वह खुद ही सदन से चले जाएंगे।

कांग्रेस कह रही है कि विदेश मंत्री ने इस मुद्दे पर देशवासियों को गुमराह किया और आखिरी समय तक परिवार वालों को इनके जिंदा होने का दिलासा दिया जाता रहा है। कांग्रेस पार्टी के वर्तमान व्यवहार को देख कर लगता है कि उन्होंने तथ्यों पर ध्यान देना छोड़ दिया है या झूठ बोलने की नया संकल्प लिया है। जून 2014 में जब से यह घटना हुई है उसके बाद विदेश मंत्री यही कहती रही हैं कि बिना साक्ष्य के वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकतीं और आखिर तक इन्हें बचाने का प्रयास किया जाएगा। भारतीय नियमों के अनुसार भी किसी लापता व्यक्ति की सात साल तक प्रतीक्षा की जाती है और बाद में उन्हें लाश न मिलने तक मृत मान लिया जाता है। लेकिन सुषमा स्वराज ने लीक से हटते हुए पहली बार यह कहा कि साक्ष्य मिलने तक उन्हें जीवित माना जाएगा। इसके बाद भी विदेश मंत्रालय चुप नहीं बैठा, वीके सिंह कई बार इनकी तलाश में इराक गए और वहां निजी तौर पर प्रयास कर मृतकों की पहचान करवाने में सहायता की। अनुमान लगाएं कि अगर केदं्र सरकार बिना साक्ष्य किसी को मृत घोषित कर देती और बाद में वह देश के सामने उपस्थित हो जाता तो इससे ज्यादा गैर-जिम्मेदाराना बात और क्या होती?

वैसे तो कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष संसद को काफी समय से अनावश्यक रूप से बंधक बनाए हुए हैं परंतु आज कांग्रेस के पास लोकसभा में जो व्यवहार किया वह संसदीय लोकतंत्र इतिहास को दागदार करने वाला है। देश के मारे गए 39 बेकसूर लोगों को श्रद्धांजलि देने और इस घटना की सूचना देश को देने से बड़ा कांग्रेस के पास कौन सा मुद्दा था जिसको लेकर ज्योतिर्यादित्य सिंधिया के नेतृत्व में उसके सांसद लोकसभा के वैल तक में कूद गए? 2019 के लोकसभा चुनाव को सम्मुख देख कर कांग्रेस पार्टी इतनी बदहवास हो रही है कि वह सरकार के हर कदम का विरोध करने का मन बना चुकी है और संसद का दुरुपयोग राजनीतिक प्रचार के लिए करने के प्रयास में दिख रही है। विरोध करना कांग्रेस का संवैधानिक अधिकार है परंतु क्या किसी को श्रद्धांजलि के समय भी वह अपने क्षुद्र हितों को ही प्राथमिकता देगी?

- राकेश सैन
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Monday, 19 March 2018

लिंगायत के रूप में हिंदू समाज का विभाजन

ब्रिटिश सरकार ने हिंदू समाज में विभाजन पैदा करने के लिए कम्यूनल एवार्ड योजना के तहत मुसलमानों की तरह दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव किया तो महात्मा गांधी ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि समाज का यह विभाजन अंतत: देश में विभाजन के बीज बोएगा। गांधी जी ने इसके खिलाफ सत्याग्रह किया। इस पर 26 सितंबर, 1932 को पुणे की यावरदा जेल में गांधी जी व बाबा साहिब भीमराव अंबेदकर के बीच समझौता हुआ। इस तरह हिंदू समाज के विभाजन को रोक दिया गया। गांधी जी की ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश की 5 सौ से अधिक रियासतों को एकजुट कर सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया परंतु आज वही कांग्रेस लिंगायतों के रूप में हिंदू समाज में विभाजन की रेखा खींच कर देश में बिखराव का नया बखेड़ा खड़ा करने के प्रयास में है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सिद्धारमैया सरकार ने हिंदू समाज के अभिन्न घटक लिंगायत समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला किया है और अपनी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी है। लिंगायतों में इसाई मिशनरियों द्वारा काफी समय से अलगाव के बीज बोए जा रहे थे जिसको कांग्रेस ने खाद-पानी देकर विषबेल का रूप दिया और अब इस पर विभाजन के फलों की खेती के प्रयास फलीभूत होते दिख रहे हैं। अगर अलगाव को नहीं रोका गया तो भविष्य में इस विभाजन की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हिंदू समाज अपने भीतर विभाजन कदापि स्वीकार नहीं करेगा और इस तरह के प्रयास करने वाले राजनीतिक दल में शत्रु की छवि के दर्शन करेगा। 

आओ जानें कौन हैं लिंगायत, वीरशैव संप्रदाय या लिंगायत मत, हिन्दुत्व के अंतर्गत दक्षिण भारत में प्रचलित एक मत है। इसके उपासक लिंगायत कहलाते हैं। यह शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है। ये लोग मुख्यत: पंचाचार्यगणों एवं बसव की शिक्षाओं के अनुगामी हैं। वीरशैव का शाब्दिक अर्थ है- जो शिव का परम भक्त हो। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचार-नियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों-महाराष्ट्र, आंध्र, तमिलनाडू में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में है। शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाजसुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएं विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो वचनकार कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम बासव का है जो कल्याण के 12 शताब्दी के राजा विज्जल के प्रधानमंत्री थे। वह योगी महात्मा ही न थे बल्कि कर्मठ संगठनकर्ता भी थे जिसने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की। वासव का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्रीपुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर का विरोधी था और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देता था।

वीरशैवों का संप्रदाय शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाता है। वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे शतस्थल शास्त्र कहते हैं। यह मानव की साधारण चेतना का अंगस्थल के प्रथम प्रक्रम से लिंगस्थल के सर्वोच्च क्रम पर पहुँच जाने की स्थिति का सूचक है। साधना अर्थात् आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है। वीरशैव महात्माओं की कभी कभी शरण या शिवशरण कहते हैं याने ऐसे लोग जिन्होंने शिव की शरण में अपने आपको अर्पित कर दिया है। उनकी साधना शिवयोग कहलाती है। इसमें संदेह नहीं कि वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र ओम् नम: शिवाय फूँक देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक वीरशैव में सत्यपरायणता, अहिंसा, बंधुत्वभाव जैसे उच्च नैतिक गुणों के होने की आशा की जाती है। वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। बासव ने इस संबंध में जो निदेश जारी किए थे, उनका सारांश यह है-चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता के समान समझो। 

इन शिक्षाओं से स्पष्ट होता है कि लिंगायत समाज किसी भी दृष्टि से हिंदुत्व से अलग नहीं है। अलगाववादी तर्क देते हैं कि लिंगायत वैदिक संस्कृति में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि हिंदुत्व में इसकी बाध्यता भी नहीं है। लिंगायत समाज के हिंदुत्व से अलग होने के कोई तर्क नहीं बल्कि केवल राजनीतिक चालबाजियां व हिंदुत्व को कमजोर करने की कवायद है जो कांग्रेस, इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें मिल कर इनको अंजाम दे रही है। देश में चल रही अल्पसंख्यकवाद की राजनीति ने पहले सिख पंथ, बौद्ध संप्रदाय व जैन समाज को हिंदुत्व की मुख्यधारा से अलग किया और अब लिंगायत समाज का विच्छेद करने का प्रयास हो रहा है जिसे हिंदू समाज किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेगा।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
मो. 097797-14324

Saturday, 17 March 2018

स्वर्णिमकाल का प्रतीक विक्रमी संवत

आज विक्रमी संवत 2075 का पहला दिन है, सभी को शुभकामनाएं। आज के दिन सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने देश को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से विक्रम संवत का आरम्भ हुआ था। विक्रम संवत अत्यन्त प्राचीन संवत है। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये है। आज का दिन केवल हमारी विजयगाथा का ही नहीं बल्कि आर्थिक संपन्नता का भी है। किसी नवीन संवत को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत ही है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी है, वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्य पर स्थित है।

पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतुु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।

मनाने की विधि
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि-हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं। नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

हिन्दू नर्व वर्ष
भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है, किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह विक्रम संवत ही है। आज से लगभग 2,075 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था।

नये संवत की शुरुआत
भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।
दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी, जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान् वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान् ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान् साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।

राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान
पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।

सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं की अकृतज्ञता कि सरकार ने शक संवत को स्वीकार कर लिया, लेकिन सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत को कहीं स्थान न दिया।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि, सृष्ट्यिादि, युगादि के आरंभ के साथ-साथ प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिवस से होने से यह भारतीय नववर्ष अति प्राचीन है। अरबों वर्षों की प्राचीनता इसके साथ जुड़ी हुई है। फिर उज्जैन कालगणना की सर्वसम्मत नगरी है, यही कालगणना के प्रतीक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर भी स्थित है, इसी विशिष्टता के कारण सम्राट विक्रम ने विक्रम संवत् प्रदान किया था तथा जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह ने उज्जैन में वेधशाला की स्थापना की थी। अत: उज्जयिनी की महत्ता और भारतीय नववर्ष की प्राचीनता को जन-जन तक पहुँचाने की दृष्टि से संवत् 2035 (सन् 1978 ई.) से नववर्ष की शुभकामना संदेश और नववर्ष को उत्सव का स्वरूप देते हुए भिन्न-भिन्न नगरों में भी इस उत्सव को स्थापित करने की दिशा में सतत प्रयास कर रहे हैं। संवत् 2057 (सन् 2000 ई.) से इस उत्सव को भव्य रूप में शास्त्रीय मर्यादाओं के साथ आयोजित किए जा रहे हैं।

पूर्णत: विज्ञान सम्मत है यह नव वर्ष
आकाश व अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है। ग्रह-नक्षत्र-तारों आदि के दर्शन से उनकी गति-स्थिति, युति, उदय-अस्त से हमें अपना पंचांग स्पष्ट आकाश में दिखाई देता है। अमावस-पूनम को हम स्पष्ट समझ जाते हैं। पूर्णचंद्र चित्रा नक्षत्र के निकट हो तो चैत्री पूर्णिमा, विशाखा के निकट वैशाखी पूर्णिमा, ज्येष्ठा के निकट से ज्येष्ठ की पूर्णिमा इत्यादि आकाश को पढ़ते हुए जब हम पूर्ण चंद्रमा को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के निकट देखेंगे तो यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा है और यहां से नवीन वर्ष आरंभ होने को 15 दिवस शेष है। इन 15 दिनों के पश्चात जिस दिन पूर्ण चंद्र अस्त हो तो अमावस (चैत्र मास की) स्पष्ट हो जाती है और अमांत के पश्चात प्रथम सूर्योदय ही हमारे नए वर्ष का उदय है। इस प्रकार हम बिना पंचांग और केलेंडर के प्रकृति और आकाश को पढ़कर नवीन वर्ष को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा दिव्य नववर्ष दुर्लभ है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
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'मफलर मैन' से 'माफी मैन'

लगभग चार साल पहले देश में आम आदमी की भांति 'मफलर' ओढ़ कर परंपरागत राजनीति को बदलने निकले एक क्रांतिकारी ने देशवासियों से जुबां की परिवर्तन की। लोगों में यह देख कुछ विश्वास भी पनपा कि कोई तो है जो उनके लिए बिजली के खंभों पर चढ़ सकता है। सड़कों पर धरने तो सभी लगाते हैं परंतु यह क्रांतिकारी जरूरत पड़े तो ठिठुरती धुंध भरी रात में सड़क पर बिस्तर भी लगा सकता है। लोगों का विश्वास बढ़ता गया, क्रांतिकारी ने ईमानदारी व बेईमानी के प्रमाणपत्र बांटने शुरू कर दिए। लोग इसे भी वेदवाक्य मानने लगे और ऐसा करिश्मा हुआ कि क्रांतिकारी दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने में सफल रहा, ठीक चीन में अकेले ही चुनाव लडऩे वाले किसी कम्यूनिस्ट नेता की तरह, बिल्कुल एकतरफा जीत। कुछ लोगों को क्रांतिकारी की खांसी भी खासीयत लगने लगी, लेकिन जिस जुबां पर जनता ने विश्वास किया वह लंबी होते-होते पहले बेजुबां फिर बदजुबां का सफर तय करती हुई बेलगाम हो गई। आज हालात यह है कि इसी जुबान पर अपनों ने भी फिकरा कसा कि-हम क्या उस शख्स पर थूकें जो खुद, थूक कर चाटने में माहिर है।

जी हां! सही पकड़े हो, उसी क्रांतिकारी अरविंद केजरीवाल की बात हो रही है जो दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और सिर्फ चार सालों में लोगों के लिए 'जोक मैटीरियल' और खुद अपनों के लिए 'हेट पर्सनेलिटी' बन चुके हैं। उनकी छवि ऐसे व्यक्ति की बन गई जो मकड़ी की भांति जाल बुनता है, उससे शिकार कर भूख शांत करता है, फिर उलझ कर अंतत: उस जाल को ही निगल लेता है। अरविंद ने जिन ऊंचे आदर्शों और विचारों का जाला बुनकर राजनीति के शिखर पर जाने की सोची थी, वे झूठे साबित हुए। अब पूरा लाव-लश्कर किसी भी वक्त टूटने की नौबत है। जैसे-जैसे पार्टी और उसके नेताओं की रीति-नीति के अंतर्विरोध खुल रहे हैं, उलझनें बढ़ती जा रही हैं। अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से केजरीवाल की माफी के बाद पार्टी की पंजाब यूनिट में टूट की नौबत है। दिल्ली में पहले से गदर मचा हुआ है। 20 विधायकों के सदस्यता-प्रसंग की तार्किक परिणति सामने है। मामला चल ही रहा था कि माफीनामे ने घेर लिया है।

पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अदालतों में पड़े मुकदमों को सहमति से खत्म करने का फैसला पार्टी की कानूनी टीम के साथ मिलकर किया गया है, क्योंकि इन मुकदमों की वजह से साधनों और समय की बर्बादी हो रही है। हमारे पास यों भी साधन कम हैं। बताते हैं कि जिस तरह मजीठिया मामले को सुलझाया गया है, पार्टी उसी तरह अरुण जेटली, नितिन गडकरी और शीला दीक्षित जैसे मामलों को भी सुलझाना चाहती है। यानी माफीनामों की लाइन लगेगी। पिछले साल बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना से भी एक मामले में माफी माँगी गई थी। सौरभ भारद्वाज ने पार्टी के फ़ैसले का जिक्र किया है, पर पार्टी के भीतरी स्रोत बता रहे हैं कि माफीनामे का फैसला केजरीवाल के स्तर पर किया गया है। इस मुकदमे में केजरीवाल के अलावा आशीष खेतान और संजय सिंह के नाम भी हैं। संजय की प्रतिक्रिया से लगता है कि इस फैसले की जानकारी उन्हें नहीं थी या वो इससे सहमत नहीं हैं। पंजाब से पार्टी के विधायक और विपक्ष के नेता सुखपाल सिंह खैरा ने ट्वीट किया, हमसे इस बारे में कोई चर्चा नहीं की गई। पार्टी के पंजाब प्रभारी और सांसद भगवंत मान प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं। राज्य की पूरी यूनिट में नाराजगी है, संकट इसलिए खड़ा हुआ, क्योंकि सड़क की राजनीति के फौरन बाद पार्टी ने सत्ता का दामन थाम लिया। सड़क छाप नारों, बयानों और सोशल मीडिया की कीचड़ उछाल छीछालेदर का जितना लाभ उसे मिल सकता था, वह एकबारगी और जरूरत से ज्यादा मिल गया। आम आदमी पार्टी सपनों के सौदागर की तरह आई. जनता को लगा कि उसके सपनों के नेता सामने खड़े हैं। पर यह सपना टूट रहा है। उसकी भावुक राजनीति न्याय-व्यवस्था के कठोर धरातल पर आ गई है।

मजीठिया ने अमृतसर की एक अदालत में केजरीवाल, संजय सिंह और आशीष खेतान के खिलाफ मानहानि का केस दायर किया था। इस मामले में कई पेशियां हो चुकी हैं। अगली तारीख दो अप्रैल की है, जिसमें केजरीवाल के माफीनामे को पेश किया जा सकता है। मजीठिया को उन्होंने न केवल ड्रग तस्कर बताया, बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि वे गांव-गांव और गली-गली में इस बात के पोस्टर लगाएं। अब व्यावहारिक सत्य उनके सामने है। उन्होंने आरोप लगाने में जितनी तेजी दिखाई, शायद माफी माँगने में भी वे जल्दबाजी कर रहे हैं। सच यह है कि उनके माफी माँगने के बाद पंजाब में आम आदमी पार्टी की राजनीति बुरी तरह पिट जाएगी। बिक्रम मजीठिया ने कहा है, मैंने केजरीवाल को माफ किया, पर क्या केजरीवाल के अपने उन्हें माफ कर देंगे? राजनीति में ऐसी माफियां बरसों याद रहती हैं। वैसे झुकना बडप्पन की निशानी है परंतु गोस्वामी तुलसीदास जी चालाक व मौकापरस्त लोगों के झुकने से सचेत करते कहते हैं कि बिल्ली, धनुष, सांप झुके तो सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि ये झुक कर भी घात ही करते हैं। पग-पग पर झूठ का सहारा लेने वाले केजरीवाल की माफी कितनी विश्वसनीय है यह समय बताएगा परंतु क्रांतिकारी मफलरमैन का माफी मैन बनना साबित करता है कि झूठ और आरोपों की राजनीतिक तत्काल तो कुछ लाभ दे सकती है परंतु लंबी नहीं चलती। देश के अन्य राजनेताओं को भी केजरीवाल-मजीठिया माफी प्रकरण से कुछ सबक लेना चाहिए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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जालंधर।
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Friday, 16 March 2018

चरित्र को चाक करती राजनीति

आचार्य चाणक्य ने कहा है कि दुनिया में सब तरह के भय से बड़ा बदनामी का भय होता है परंतु उस प्रवृति को क्या कहा जाए जो जानबूझ कर दूसरों को बदनाम करती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल आदतन दूसरों के मुखमलिन की प्रवृति से ग्रस्त हैं। पंजाब में विधानसभा चुनाव के दौरान केजरीवाल ने तत्कालीन अकाली दल बादल के नेता बिक्रम सिंह मजीठिया को ड्रग माफिया बताते हुए कहा था कि सरकार बनी तो मजीठिया जैसे लोगों को कॉलर पकड़ कर जेल में डालेंगे। मजीठिया केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के भाई हैं। इस पर मजीठिया ने केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का वाद दायर किया था जिस पर केजरीवाल ने अब माफी मांगी है। अपने माफीनामे में केजरीवाल ने लिखा- बीते दिनों मैंने आप पर ड्रग कारोबार में शामिल होने के आरोप लगाए थे। इन बयानों को राजनीतिक रूप दिया गया। अब मुझे यह समझ आया है कि मैंने जो आरोप आपके खिलाफ लगाए थे वह बेबुनियाद हैं। इसलिए अब इस विषय पर कोई भी राजनीति नहीं होनी चाहिए। आपके खिलाफ मैंने जो भी बयान दिए थे, उसके लिए मैं माफी मांगता हूं। इन आरोपों से आपको, परिवार को और समर्थकों के मान-सम्मान को जो ठेस पहुंची है, उसके लिए मुझे खेद है। पिछले साल अगस्त में भी उन्होंने हरियाणा के बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना को माफीनामा भेजा था। इससे पहले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से मांफी मांग चुके हैं और वित्त मंत्री अरुण जेतली पर लगाए गए आरोपों के चलते अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। विगत चुनाव दौरान कांग्रेस के साथ-साथ आम आदमी पार्टी ने मजीठिया व तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को खलनायक बताने का पूरा प्रयास किया। इसी तरह के आरोप अकाली-भाजपा सरकार की विदाई का बहुत बड़ा कारण बने। आज जहां केजरीवाल ने मजीठिया से माफी मांग ली है वहीं सत्ता में आने के एक साल बाद भी नशों के खिलाफ कुछ खास नहीं कर पाने के कारण कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी सवालों के घेरे में आगए हैं। प्रश्न पैदा होता है कि क्या उस समय विपक्ष ने प्रकाश सिंह बादल की सरकार पर नशे को प्रोत्साहन देने व मंत्रियों के शामिल होने के झूठे आरोप लगाए थे? क्या लोकतंत्र में सार्वजनिक रूप से झूठ बोलना जनता से विश्वासघात नहीं? निजी चरित्र की हत्या पर तो माफ किया जा सकता है परंतु जो लोकतंत्र की हत्या हुई उस पर क्या कहा जाए।

लोकतंत्र में विपक्ष का काम सरकार व सत्ताधारी लोगों की कमियों, नीतिगत विरोध को जनता के सामने लाना और इस आधार पर जनमत हासिल करना होता है और सत्तापक्ष का का काम अपनी उपलब्धियां गिनवाना। लेकिन यह काम करते हुए न तो झूठ बोला जा सकता है और न ही तथ्यों से छेड़छाड़ करने की अनुमति दी जा सकती। किसी के चरित्र की हत्या की अनुमति तो संविधान भी नहीं देता,इसी कारण भारतीय दंड संहिता के तहत इसे दंडनीय अपराध माना गया है। दुर्भाग्य से आज दोनों पक्षों की ओर से लोकतंत्र की आत्मा का गला घोटा जा रहा है। इसकी ताजा उदाहरण केजरीवाल हैं जिन्होंने नशा तस्करी में मजीठिया के खिलाफ सबूत होने का भी दावा किया और कहा कि सत्ता में आते ही एक सप्ताह के भीतर मजीठिया जेल के भीतर होंगे। आज उन्होंने माफी मांग कर साबित कर दिया है कि उनके आरोप व कथित सबूत केवल और केवल झूठ थे। आज चाहे केजरीवाल ने बेबस हो कर माफी मांग ली है परंतु माफी से क्या बीता समय लौटाया जा सकता है। मजीठिया ने ऊर्जा मंत्री रहते हुए सौर ऊर्जा पर प्रशंसनीय कार्य किया और राज्य के अतिरिक्त बिजली उत्पादक प्रांतों की श्रेणी में खड़ा कर दिया, लेकिन उनको लेकर फैलाए गए झूठ के चलते उनकी उपलब्धियों को विस्मृत कर दिया गया। क्या माफी मांगने से उन्हें न्याय मिल जाएगा। केजरीवाल के आरोपों को आधार बना समाचारपत्रों, सोशल मीडिया, मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर जो मजीठिया पर कीचड़ उछाला क्या उसको माफी के दो शब्द साफ कर पाएंगे।

केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं, नशों को लेकर जो दुष्प्रचार कांग्रेस ने किया क्या कांग्रेसी भी इसके लिए माफी मांगेंगे। सीमावर्ती राज्य होने के कारण पंजाब में नशा अंतरराष्ट्रीय व सामाजिक समस्या थी परंतु कांग्रेस ने इस पर खूब राजनीति की। चुनाव प्रचार के दौरान वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पवित्र पुस्तक गुटका साहिब को हाथ में लेकर कसम ली थी कि सरकार गठन के चार सप्ताह बाद ही नशे की कमर तोड़ दी जाएगी। लेकिन एक साल बीत जाने के बावजूद राज्य में नशा ज्यों का त्यों बरकरार है। राज्य में पिछले एक साल में ही 241 किलोग्राम हैरोईन, 13.266 किलोग्राम स्मैक, 91 किलोग्राम चरस बरामद हो चुकी है। राज्य के थानों में 13485 केस दर्ज करके 15353 लोगों को गिरफ्तार किया गया है परंतु सच्चाई यह भी है कि पकड़े गए अधिकतर लोग केवल नशा करने वाले हैं। बड़े सप्लायर अभी भी खुले घूम रहे हैं। भिखीविंड में नशे की ओवरडोज से मारे गए युवक के परिजनों ने पूरे गांव में शवयात्रा निकाली और सरकार को आइना दिखाते हुए बैनर भी शवयात्रा में शामिल किया गया जिसमें लिखा था -कफन बोल पड़ा, नशे से बेटों की मौत जिम्मेवार सरकार। कैप्टन सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों के ड्रग्स रैकेट में शामिल होने के आरोप साबित नहीं कर पाई। स्पष्ट है कि चुनावी फायदे के लिए नशों को लेकर इन दलों ने सत्ता पक्ष के लोगों के चरित्र को चाक करने में झिझक नहीं दिखाई। लोकतंत्र में जहां सरकार की जिम्मेवारी सुनिश्चित है वहीं विपक्षी दल भी इसकी मर्यादा से बंधे हैं, यह नहीं भूलना चाहिए। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने समाचारपत्रों को लेकर कहा था कि संशोधन या भूल सुधार प्रकाशित करना अच्छी बात है परंतु ऐसा मौका आए ही क्यों जब किसी प्रकाशक को यह करना पड़े। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कहीं न कहीं यह सिद्धांत राजनीति पर भी लागू होता है।

- राकेश सैन
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वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Thursday, 15 March 2018

मैं समय हूं ...राही मसूम रजा


मैं समय हूं ... पिछली सदी के आखिरी दशक में हर रविवार को प्रात: दस बजे दूरदर्शन पर जब यह शब्द गूंजते थे तो मानो सारे देश में सन्नाटा पसर जाता। यह पौराणिक टीवी सीरियल महाभारत के आरंभिक शब्द थे और इनको लिखने वाले थे डा. राही मसूम रजा, जिनका 15 मार्च को देहांत हो गया। डा. रजा वे साहित्यकार हैं जिन्होंने संस्कृत की महान रचना महाभारत के संवादों के इतनी सरल भाषा में ढाला कि सामान्य जन तक को गीताज्ञान तक कंठस्थ हो गया। अपनी इस उपलब्धि के कारण डा. राही को आधुनिक युग का वेद व्यास कहा जाने लगा था। डा. रजा आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु वे वास्तव में अपने शब्दों से समय के समान स्थाई बन गए। जब तक दुनिया रहेगी डा. रजा के भारतीय साहित्य सेवा के इस महान कार्य को याद किया जाता रहेगा।


डॉ. राही मासूम रजा हिंदुस्तानी भाषा के अप्रतिम साहित्यकार थे। उनकी कई कालजयी रचनाएं न सिर्फ लोगों ने खूब पढ़ी हैं बल्कि उनके रचनांशों को अनेक लोगों द्वारा कंठस्थ होने की भी कथाएं अक्सर सुनी जाती हैं। सरल-सहज भाषा शैली और कहानियों का यथार्थ चित्रण राही साहब का लेखकीय चरित्र था लेकिन जब उन्हें महाभारत जैसे पौराणिक और धार्मिक आस्थागत महत्व वाले धारावाहिक का संवाद लिखने का जिम्मा मिला तब उन्होंने धारावाहिक की मांग के हिसाब से ऐसी भाषा का हाथ पकड़ा जिसे सामान्य जन के बीच संस्कृतनिष्ठ और थोड़ी कठिन हिंदी के रूप में जाना जाता है। राही साहब ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी को भी बेहद ही सरल और सुबोध्य बनाकर महाभारत में प्रस्तुत किया था, जिसे सारे देश ने न सिर्फ समझा बल्कि उसके कई संवाद लोगों की जुबान पर भी चढ़ गए थे ।

राही साहब से जब पहली बार निर्देशक बी आर चोपड़ा ने महाभारत धारावाहिक के संवाद लिखने की पेशकश की थी तब उन्होंने समय की कमी का हवाला देते हुए संवाद लिखने से इंकार कर दिया था, लेकिन बी.आर. चोपड़ा ने एक प्रेस कान्फ्रेंस में महाभारत के संवाद लेखक के रूप में राही मासूम रजा के नाम की घोषणा पहले ही कर दी थी। राही साहब के उपन्यास सीन : 75 का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाली पूनम सक्सेना ने अपनी इस किताब से संबंधित एक अंग्रेजी लेख में इस बात का उल्लेख किया है।

बी.आर. चोपड़ा द्वारा संवाददाता सम्मेलन में संवाद लेखक के बतौर राही मासूम रजा का नाम घोषित करने के बाद संकीर्ण मानसिकता के लोगों के पत्र पर पत्र आने शुरू हो गए। वे एक मुसलमान के हिंदू धर्मग्रंथ पर आधारित धारावाहिक के संवाद लेखक होने का विरोध करते हुए लगातार लिख रहे थे कि 'क्या सभी हिंदू मर गए हैं, जो चोपड़ा ने एक मुसलमान को इसके संवाद लेखन का काम दे दिया।'  बी.आर. चोपड़ा ने ये सारे पत्र राही साहब के पास भेज दिए। इसके बाद गंगा-जमुनी तहजीब के सशक्त पैरोकार राही साहब ने चोपड़ा साहब को फोन करके कहा-मैं महाभारत लिखूंगा। मैं गंगा का पुत्र हूं। मुझसे ज़्यादा भारत की सभ्यता और संस्कृति के बारे में कौन जानता है।' इस संबंध में राही साहब ने साक्षात्कार में कहा था  'मुझे बहुत दुख हुआ। मैं हैरान था कि एक मुसलमान द्वारा पटकथा लेखन को लेकर इतना हंगामा क्यों किया जा रहा है। क्या मैं एक भारतीय नहीं हूं।'

गंगा किनारे गाजीपुर में 1927 में जन्में राही मासूम रजा अपने आपको गंगापुत्र या गंगा किनारे वाला कहा करते थे। टोपी शुक्ला, आधा गांव, नीम का पेड़ जैसे कालजयी कहानियों के रचयिता राही साहब दिल से भारतीय थे। उन्होंने न सिर्फ अपनी रचनाओं से हिंदुस्तानी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि 300 से ज्यादा फिल्मों की पटकथा और संवाद भी लिखे। राही मासूम रजा को महाभारत धारावाहिक के संवादों के लिए खासतौर पर जाना जाता है जिसके बाद से ही उन्हें आधुनिक भारत का वेदव्यास कहा जाने लगा था।


- राकेश सैन
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Wednesday, 14 March 2018

सोनिया के भोज में गोरखपुर व फूलपुर के कंकर

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से रिक्त हुई गोरखपुर और फूलपुर संसदीय सीटों के उपचुनाव में भाजपा चित हुई लेकिन कराहती कांग्रेस दिख रही है। सोनिया गांधी ने भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने व पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी का विपक्ष के नेता के रूप में नामकरण करवाने के उद्देश्य से मंगलवार को दिए गए रात्रिभोज में फूलपुर और गोरखपुर नामक कंकर पड़े दिखने लगे हैं। ऊपर से बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को मिली सफलता ने खीर में खट्टा गिराने का काम किया। उपचुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन ऐसा है कि विश्लेषण में इसका जिक्र न भी हो तो भी काम चल सकता है। मायावती, अखिलेश, लालू यादव के उभार ने कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं। उपचुनावों में भाजपा ने तो तीन सीटें ही हारीं पर कांग्रेस की रणनीति को शुरू होने से पहले ही बेअसर होती दिख रही है।

घोषित चुनाव परिणाम में गोरखपुर से भाजपा के उपेंद्र दत्त शुक्ल को सपा के प्रवीण निषाद ने 21961 और फूलपुर में भाजपा के कौशलेंद्र पटेल को सपा के नागेंद्र पटेल ने 59613 मतों से हराया। वहीं अररिया सीट पर राजद के सरफराज आलम ने 61988  मतों से जीत हासिल की है। उत्तर प्रदेश में देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खराब प्रदर्शन का दौर जारी है। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जमानत बचाने में भी विफल रहे। कांग्रेस ने गोरखपुर से सुरहिता चटर्जी करीम को और फूलपुर से मनीष मिश्रा को प्रत्याशी घोषित किया। मनीष उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महासचिव भी हैं। उनके पिता और पूर्व आईएएस अधिकारी जेएस मिश्रा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। वह नौकरी छोड़ कर इंदिरा गांधी के निजी सचिव बने थे। इसके बावजूद मनीष जमानत नहीं बचा सके। सुरहिता चटर्जी भी गोरखपुर के लोकप्रिय चेहरों में से एक हैं। उन्होंने वर्ष 2012 में गोरखपुर के मेयर का चुनाव लड़ा था। तब उन्हें एक लाख वोट मिले थे। कमोबेश लगभग ऐसा ही प्रदर्शन बिहार में दोहराया गया है जहां राष्ट्रीय जनता दल ने जीत हासिल की।

आम चुनावों में निम्नतम 44 सीटें हासिल करने व चार प्रदेशों को छोड़ पूरे देश से सिमटने वाली कांग्रेस अपने अतीत को सम्मुख रख भाजपा विरोधी गठजोड़ के नेतृत्व को जन्मसिद्ध व नैसर्गिक अधिकार मानती है। यही दावा करने के लिए 13 मार्च को सोनिया ने विपक्षीनेताओं को भोज दिया। इसमें सीपीआई (एम), सीपीआई, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, सपा, जद (एस), आरजेडी सहित 20 दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया। इसमें एनसीपी के शरद पवार, सपा के रामगोपाल यादव, बसपा के सतीशचंद्र मिश्र, राजद से मीसा भारती और तेजस्वी यादव, माकपा से मोहम्मद सलीम, द्रमुक से कनिमोझी और शरद यादव आदि शामिल हुए। सोनिया का पूरा प्रयास है कि संभावित गठजोड़ की रथी राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही बने। क्योंकि ऐसा होने से राहुल खुदबखुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन जाते हैं।

गोरखपुर व फूलपुर के चुनाव परिणाम भाजपा ही नहीं बल्कि खुद सपा व बसपा के लिए भी अप्रत्याशित हैं। बुआ-बबुआ को भी उम्मीद नहीं थी कि उन्हें ऐसी सफलता मिलेगी। वे सोनिया के भोज में शामिल हुए लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव की पराजय के बोझ में दबे हुए, पर अब रातों-रात स्थिति बदली महसूस की जाने लगी है। माया, अखिलेश व लालू को उभार के संकेत मिले हैं। अब वे शायद ही कांग्रेस की शर्तों पर गठजोड़ में अपनी भूमिका स्वीकारें। यूपी-बिहार लोकसभा में 120 सांसद भेजते हैं जहां कांग्रेस की हालत मरणासन्न है, जिसका साफ संकेत 2017 के विधानसभा चुनाव और अब उपचुनाव से काफी पहले से ही मिलता रहा है। इन राज्यों में तीन क्षेत्रीय दलों का पुनर्जन्म भाजपा के लिए कम परंतु कांग्रेस के रास्ते की बड़ी रुकावट साबित हो सकता है। स्वभाविक है कि एकाएक बदली परिस्थिति में यह दल गठजोड़ में अपनी ताजा हैसीयत के मुताबिक हिस्सा मांगेंगे जो अंतत: कांग्रेस की कीमत पर ही संभव होगा। जीत के नशे में चूर क्षत्रप कमजोर कांग्रेस की चलने देंगे यह मुश्किल बात लगती है।

यह एतिहासिक दुर्योग ही है कि वामदलों, बसपा, सपा, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस सहित दक्षिण भारत के बहुत से दलों का उभार कांग्रेस द्वारा छोड़ी गई जमीन पर ही हुआ है। जब तक कांग्रेस इंदिरा गांधी के सशक्त नेतृत्व में रही उसने तत्कालीन कुछ क्षेत्रीय दलों व वामदलों और नेताओं से राजनीतिक समझौते तो किए परंतु उन्हें अपने पर हावी कभी नहीं होने दिया। इंदिरा ने जहां विरोधियों की दाल नहीं गलने दी वहीं सहयोगियों से भी अपनी जमीन बचाए रखी परंतु आज कांग्रेस केवल पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात आदि कुछ राज्यों में ही भाजपा को सीधी टक्कर देने की हालत में है। बाकी देश में वह उन्हीं दलों पर निर्भर है जो खुद कांग्रेस की कीमत पर पले-बढ़े। फूलपुर व गोरखपुर ने इन दलों में फिर नई जान फूंक दी और अब ये कमजोर कांग्रेस के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में उतरें इस असंभव को संभव करना सोनिया गांधी के लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाली है। कांग्रेस पार्टी की कमजोरी ही केवल एक समस्या नहीं बल्कि उपलब्धियों की दृष्टि से पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की कोरी अंकतालिका भी अतिरिक्त समस्या पैदा कर रही है। यही कारण है कि उपचुनावों के परिणामों पर कांग्रेस से न तो हंसा जा रहा है और न ही रोया। चाहे यह  अंधविश्वास हो परंतु लगता है कि भोज से पहले 13 अंक का ध्यान नहीं रखा गया, चाहे अनचाहे इसे आज भी अशुभ ही माना जाता है।

- राकेश सैन
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Tuesday, 13 March 2018

एक गांव-एक ही गुरुद्वारा

वैसे यह अपने आप में आश्चर्यजनक व दु:खद तथ्य है कि तत्कालीन समाज में जातिवाद सहित अनेक कुरीतियों के खिलाफ श्री गुरु नानक देव जी ने दुनिया में शंखनाद किया आज उन्हीं के द्वारा चलाए गए पंथ में इस कुरीति जातिवाद ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। हालात यह है कि गुरुद्वारा साहिब की चारदिवारी में तो सभी एक दिखते हैं परंतु बाहर निकलते ही लोग जातियों व कई वर्गों में बंट जाते हैं। सुखद समाचार यह है कि सिखों की संसद के रूप में विख्यात शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी)ने इस बुराई के खिलाफ अभियान चलाया है, जिसके हर गांव व नगर में एक ही गुरुद्वारा साहिब की व्यवस्था सुनिश्चित की जाएगी ताकि जाति आधारित गुरुद्वारों के प्रचलन पर रोक लग सके। एसजीपीसी का यह अभियान जातिवाद की आग में झुलसते न केवल पंजाब बल्कि पूरे देश के लिए सावन की पहली फुहार जैसी राहत देने वाला है।

एसजीपीसी के प्रधान जत्थेदार गोबिंद सिंह लोंगोवाल ने छठी पातशाही गुरु हरगोबिंद साहिब और 10वीं पातशाही गुरु गोबिंद सिंह जी के चरणस्पर्श का गौरव प्राप्त ऐतिहासिक गांव चक्कर जिला लुधियाना से अभियान का शुभारंभ किया। मुहिम के तहत एक ही गांव में जात-पात के नाम पर बनाए गए अलग-अलग गुरुद्वारों को एक किया जाएगा। इस मुहिम के तहत लोगों को जागरूक किया जाएगा कि वे जातीय भेदभाव छोड़कर एक ही गुरुद्वारे की सेवा करें। इस अवसर पर गुरु साहिबान ने अमृत की दात बख्शते हुए सभी को एक ही खंडे बाटे का अमृत छका कर सिंह सजाया और जात-पात के भेदभाव को खत्म किया। इस मौके पर एक धार्मिक समारोह में गांव की पंचायत और गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को विशेष तौर पर सम्मानित किया गया। जत्थेदार गुरबचन सिंह ने कहा कि सिख धर्म में जात-पात के लिए कोई स्थान नहीं है। गुरुओं के बताए रास्ते पर चलते हुए इसका पालन करना हर सिख का फर्ज है। एसजीपीसी सदस्य गुरचरण सिंह ग्रेवाल ने सिंह साहिब और प्रधान लोंगोवाल ने इस मुहिम का स्वागत करते हुए कहा कि गांव चक्कर की आबादी 15 हजार के करीब है, लेकिन इस गांव मेंं एक ही गुरुद्वारा साहिब है। इसकी सेवा संभाल सभी समुदाय के लोग मिलजुल कर करते हैं, जो अपने आप में एकता की उदाहरण  है।

मध्यकाल में जब भारत जातिवाद सहित अनेक तरह की सामाजिक कुरीतियों से जूझ रहा था तो श्री गुरु नानक देव जी ने समाज का नेतृत्व किया और दुनिया को बताया कि मानस की जाति एक ही है। उन्होंने केवल वचनों से ही नहीं बल्कि कर्मों से भी समाज को एकजुट करने का प्रयास किया और लंगर-पंगत की ऐसी प्रथा चलाई जहां सभी वर्गों, धर्मों, संप्रदायों, जातियों के लोग एक ही पंक्ति में बैठ कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। सिख पंथ के सिद्धांतों में जातिवाद के खिलाफ विशेष आग्रह रहा है और गुरु ग्रंथ साहिब में कदम-कदम पर मानव की एकता पर जोर दिया गया है। इसी मार्ग पर चलते हुए श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की जिसमें जो पांच प्यारे सजाए गए वे उन जातियों व वर्गों से संबंधित थे जिन्हें आज भी अज्ञानतावश पिछड़ा कहा जाता है। इसी तरह गुरुओं ने पूरी मानवता को एकता के सूत्र में पिरोया परंतु यह दुर्भाग्य ही रहा कि एकता व बंधुत्व की यह बातें धीरे-धीरे श्री गुरु ग्रंथ साहिब व गुरुद्वारों की पवित्र चारदिवारी में ही सिमट कर रहने लगीं। वास्तव में पंजाबी समाज जातिवाद के दकियानूसी बंधनों में फिर जकड़ा दिखाई देने लगा। वर्तमान में हालात यह हैं कि गांवों में लगभग हर जातियों के अपने-अपने गुरुद्वारे हैं। यहां पाठ 'मानस की जाति एक पहिचानबो' का होता है परंतु एक दूसरे के गुरुद्वारों में जाने से लोग गुरेज करते हैं।

जातिवाद से परेशान हो कर वंचित जातियों के लोगों ने सिख पंथ को स्वीकार किया। रविदासी समाज, वाल्मीकि समाज, दर्जी, नाई, धोबी आदि लगभग हर कथित पिछड़ी जातियां गुरु साहिबानों की शरण में गईं परंतु धीरे-धीरे यहां पर भी इनके साथ जातिगत भेदभाव की शिकायतें सुनने को मिलने लगीं। अभी संगरूर जिले में ही एक जाट समुदाय (कथित अगड़ी जाति) के गुरुद्वारा संचालकों ने गांव के दलित सिख परिवार को गुरु ग्रंथ साहिब देने से इंकार कर दिया। यह अकेली घटना नहीं बल्कि इस तरह की अनेकों घटनाएं घट चुकी हैं। चाहे समय-समय पर एसजीपीसी व अकाल तख्त साहिब के हस्तक्षेप से मामला सुलझाया जाता है और आरोपियों को मर्यादानुसार दंडित भी किया जाता है परंतु इस तरह की शिकायतें बंद होने का नाम नहीं ले रही हैं। इन्हीं बातों से परेशान हो गांवों में गुरुओं व महापुरुषों के नाम के स्थान पर जातियों के आधार पर धर्मस्थल बनने लगे। धर्मस्थल के साथ-साथ यहां के श्मशानघाट भी जातियों के आधार पर बनने लगे। इससे समाज में जातिगत दीवारें फिर दिखने लगी हैं।

एसजीपीसी ने जो नया अभियान शुरु किया है उसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि समरस व भेदभाव रहित समाज ही सिख पंथ का सिद्धांत रहा है। सिखों की लघु संसद होने का गौरव हासिल करने वाली एसजीपीसी का यह दायित्व भी बनता है कि वह न केवल सिख धर्म का प्रचार करे बल्कि पंथ की मर्यादा का विपरीत होने वाली हर कार्रवाई का विरोध भी करे तथा समाज के सामने हल प्रस्तुत करे। वैसे यह काम काफी समय पहले शुरू किया जाना चाहिए था परंतु चलो जब जागो तभी सवेरा। इसके लिए एसपीजीसी बधाई की पात्र है और समाज का भी दायित्व बनता है कि वह इस सद्प्रयास का हर तरह सहयोग करे।

राकेश सैन
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Sunday, 11 March 2018

सोनिया गांधी मोदी को नहीं जानतीं

यह बात कितनी सच है नहीं जानता, परंतु एक बार कहीं पढऩे में आया था कि दिवंगत कलाकार राजकुमार को जब उस समय नए-नए बने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के बारे पूछा गया तो उन्होंने अपने अंदाज में जवाब दिया कि यह नाम सुना-सुना सा लगता है। यह वह दौर था जब राजकुमार का जलवा ढलान पर था जो अंत तक जारी रहा। लगभग राजकुमार की ही शैली में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कहा कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं जानती। उन्होंने कहा, 'मैं मोदी को नहीं जानती। बतौर प्रधानमंत्री उन्हें संसद में अथवा देश और दुनिया में अलग-अलग कार्यक्रमों में जरूर देखती हूं, लेकिन निजी तौर पर मैं उन्हें नहीं जानती।' निर्णय नहीं कर पा रहा हूं कि इसे सोनिया का अहंकार कहा जाए या नासमझी और अज्ञानता या फिर तीनों ही। 

सोनिया गांधी के बारे एक बात कही जाती है कि वह अपने विरोधियों को कभी माफ नहीं करतीं और विरोधी उन पर अहंकारी नेता होने के आरोप लगाते रहे हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी की पार्थिव देह को कांग्रेस कार्यालय प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी थी, कारण था कि केसरी के सोनिया से मनमुटाव थे। सोनिया के संस्कारों में पली-बढ़ी प्रियंका गांधी भी मोदी के बारे में ऐसा अहंकारमयी व्यवहार कर चुकी हैं, एक जनसभा के दौरान मोदी ने प्रियंका को बेटी बताया तो कान्वेंट स्कूलों में शिक्षित प्रियंका ने तपाक से जवाब दिया कि वह अपने पापा की बेटी है। ऐसा कहते हुए वह भूल गईं कि भारतीय संस्कृति में अपने से कम उम्र की लड़कियों के लिए बेटी शब्द ही प्रयोग किया जाता है। परंतु खानदानी अहंकार के चलते प्रियंका ने मोदी को नीचा दिखाने का प्रयास किया। 

सोनिया से यह भी पूछा जा सकता है कि जब वे मोदी को निजी तौर पर जानती नहीं तो उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान 'मौत का सौदागर' किस आधार पर ठहरा दिया। उनकी पार्टी के नेता मोदी को नए-नए विशेषण किस जानकारी के आधार पर देते रहते हैं? एक राष्ट्रीय दल की दो दशक तक अध्यक्ष व यूपीए सरकार के समय निर्णायक भूमिका निभाती रही क्या यह बताना चाहती है कि वे बिना तथ्यों की जांच किए भाषण देती हैं। जिस मोदी ने साल 2014 में कांग्रेस को उसके इतिहास की सबसे शर्मनाक पराजय का स्वाद चखाया हो और वर्तमान में केवल चार राज्यों तक जिसे समेट कर रख दिया हो उसके बारे में यह कहना कि मैं मोदी को जानती नहीं तो यह केवल अहंकार का प्रदर्शन ही माना जाएगा।

सवाल ये भी उठता है कि जब विपक्ष की सबसे बड़ी नेता ही प्रधानमंत्री मोदी को नहीं जानती हैं तो फिर विपक्ष उनके खिलाफ अभियान का संचालन कैसे करेगा। युद्ध हो या चुनाव प्रतिद्वंद्वी के बारे पूरी जानकारी रखना अनिवार्य है। बिना जानकारी के न तो दुश्मन या विरोधी को जीता जा सकता है और न ही अपना बचाव किया जा सकता। अपनी पुस्तक फ्रीडम एट मिडनाइट में लेखक लैरी कॉलीन लिखते हैं कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्नाह टीबी के मरीज थे परंतु यह बात उन्होंने गुप्त रखी। अगर कांग्रेस के नेताओं को इसकी भनक मिल जाती तो देश का बंटवारा नहीं होता क्योंकि टीबी उन दिनों में जानलेवा बीमारी थी जिसका कोई उपचार नहीं था। कॉलीन की बात सही भी साबित हुई क्योंकि पाकिस्तान बनने के एक साल कुछ दिन बाद ही 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना का देहांत हो गया। 

उक्त टीवी कार्यक्रम में सोनिया गांधी ने कहा कि कांग्रेस 2019 के आम चुनाव में केंद्र में सरकार बनाएगी परंतु सोनिया के हावभाव से लग रहा था कि अपने कहे पर खुद उन्हें ही विश्वास नहीं है। कांग्रेस देश में सिमटती जा रही है और फिलवक्त तो किसी भी राज्य में बढ़ती हुई नहीं दिख रही है। अगर यूपीए में कुछ अन्य दल जुड़ते हैं तो गठबंधन की कुछ सीटें जरूर बढ़ सकती हैं। गुजरात से कांग्रेस को अच्छे संकेत मिले हैं, लेकिन वहां भी विधानसभा चुनाव के बाद हुए एक सर्वे ने उसकी दयनीय स्थिति को उजागर कर दिया है। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 42 प्रतिशत मत मिले थे और सर्वे किया गया कि अगर आज लोकसभा चुनाव हुए तो किसे वोट देंगे, इसमें सिर्फ 35 फीसद लोगों ने कांग्रेस का नाम लिया। जबकि विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली भाजपा की तरफ 54 प्रतिशत लोगों ने रुचि दिखायी। कांग्रेस की उम्मीद अब केवल राजस्थान और मध्य प्रदेश है जिसके बारे में अभी समय से पहले कुछ कहना उचित नहीं होगा क्योंकि जिस तरीके से मोदी व अमित शाह की जोड़ी राजनीति के नए प्रयोग कर रही है लगता नहीं कि इन राज्यों में यह जोड़ी कांग्रेस की दाल गलने देगी। एक प्रश्न के उत्तर में सोनिया ने कहा कि अच्छे दिन का नारा शाइनिंग इंडिया में बदल जाएगा। ऐसा कहते हुए वे भूलती हैं कि उनका मुकाबला अटल बिहारी वाजपेयी से नहीं जो उदारवादी छवि के स्वामी थे, भाजपा आज मोदी के नेतृत्व में आगे बढ़ रही है जो अपने विरोधियों के प्रति किसी भी तरह की नरमी नहीं दिखाते। संभवत: कांग्रेस और उसके नेता मोदी और वाजपेयी के बीच के अंतर को देख भी पा रहे हों, लेकिन सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने से बच रहे हैं। कांग्रेस के लोगों में यह धारणा है कि जैसे 1998 से 2004 के बीच कुछ नहीं करने के बावजूद सत्ता पेड़ से गिरे बेर की भांति उनके हाथ में आ गई थी, वैसा ही 2019 में भी होगा। लेकिन तब से अब तक राजनीति बहुत बदल चुकी है। कांग्रेस 2004 में जिस स्थिति में थी, वहां के मुकाबले आज वह बहुत कमजोर है और अब तो सिर्फ 4 राज्यों तक सिमटकर वह क्षेत्रीय दल जैसी हो गई है। कांग्रेसियों के बारे में खुद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने बिल्कुल स्टीक टिप्पणी की थी कि पार्टी की सल्तनत चली गई परंतु कुछ लोगों की सुल्तानियत नहीं गई। यह बात किसी और पर नहीं परंतु सोनिया गांधी पर तो लागू होती दिख ही रही है। सोनिया गांधी अगर कांग्रेस की गाड़ी को दोबारा पटरी पर लाना चाहती हैं तो उन्हें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा क्योंकि देश की जनता अहंकारी नेता या दल को स्वीकार नहीं करती।

- राकेश सैन
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Wednesday, 7 March 2018

लेनिन का चित्र स्वीकार्य है चरित्र नहीं

त्रिपुरा में वामपंथ का 25 साल पुराना गढ़ ध्वस्त होते ही बेलोनिया नगर में लोगों ने साम्यवाद के दूसरे सबसे बड़े नेता रहे लेनिन की प्रतिमा को ध्वस्त कर दिया। वैसे लोकतंत्र में किसी भी तरह के विध्वंस को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता परंतु देखने वाली बात है कि लोगों में लेनिन के प्रति ऐसी क्या नाराजगी थी कि वामपंथी बेडिय़ां खुलने के 48 घंटों के भीतर ही महानायक का अस्थिप्रवाह कर दिया। त्रिपुरा में चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद आनंद में डूबे लोगों की वीडियो देखें तो वहां दोगुना उत्साह नजर आया। भाजपा कार्यकर्ता अपनी सरकार के आने को लेकर उत्साहित थे तो जनसामान्य वामपंथ के खात्मे का उत्सव मनाते दिखे। प्रतिमाओं के खण्डन का समर्थन नहीं किया जा सकता परंतु यह एक विचारधारा के प्रतीकात्मक अंत का संदेश है। बंगला फिल्म निर्माता सत्यजीत रे की फिल्म 'हीरक राजार देशे' में लोग 'डोरी धोरे मारो तान-राजा होबे खान खान' (रस्सी खींचो और राजा की मूर्ति जमींदोज कर दो) के नारे लगाते हुए एक तानाशाह शासक की मूर्ति को गिराकर उसका प्रतीकात्मक अंत करते हैं। लगता है कि बंगलाभाषी त्रिपुरा भी इन पंक्तियों का अर्थ समझ गया है। यह भारत का संदेश है कि लेनिन चित्र के रूप में तो स्वीकार्य है परंतु चरित्र के रूप में कभी स्वीकारे नहीं जा सकते।

 22 अप्रैल, 1870 को रूस में जन्मे ब्लादिमीर इलीइच लेनिन को मजदूरों का नेता और शिक्षक माना जाता है, लेकिन सच यह है कि दुनिया भर में इसके समर्थक मजदूरों की बात कर सत्ता हथियाने का ही कार्य करते हैं। बंगाल की दुर्दशा, त्रिपुरा का पिछड़ापन व केरल की हिंसा बताती है कि वाममंथी विचारधारा लोगों को समान रूप से गरीब बनाना जानती है, संपन्न नहीं। लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ में पहले समाजवादी राज्य की स्थापना हुई थी। अभी तक उसने मजदूरों को यह बताया कि शोषण-उत्पीडऩ और बंधनों से मुक्त होकर हक मांगना है, लेकिन जब मजदूरों के कंधे पर चढ़कर लेनिन सत्ता में आए तब वे बदल गए। उन दिनों रूस में जारशाही का निरंकुश शासन था। मजदूर तथा किसान भयंकर शोषण और उत्पीडऩ के शिकार थे। जार ने लेनिन के भाई को फांसी पर चढ़ा दिया और बहन को कैद कर लिया जिससे वे जार से दुश्मनी रखने लगे। कार्ल माक्र्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स की रचनाओं से उनका परिचय हुआ। लेनिन ने अपना दर्शन खुद गढ़ा और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'क्या करेंÓ में उन्होंने सर्वहारा वर्ग की नए ढंग की क्रांतिकारी पार्टी के सांगठनिक उसूलों को प्रस्तुत किया। क्रांति के अपने सिद्धांत को लेनिन ने अक्टूबर क्रांति के जरिए साकार कर दिखाया। इसमें हजारों मजदूरों का खून बहा। मजदूरों के नेतृत्व में आखिरकार लेनिन ने सत्ता परिवर्तन कर दिया, लेकिन इसके बाद मजदूरों को भूल गए। 21 जनवरी 1924 को लेनिन का निधन हो गया। लेनिन के बाद जोसेफ स्टालिन ने उनके काम को आगे बढ़ाया। उन्होंने ही माक्र्सवादी विचारधारा को माक्र्सवाद-लेनिनवाद का नाम दिया।

दुनिया का इतिहास बताता है कि माक्र्सवाद व लेनिनवाद ने दुनिया को मजदूरों की क्रांति के नाम पर कुछ नहीं बल्कि हिंसा व खूनखराबा ही दिया। वर्तमान संदर्भ में माक्र्सवाद के आर्थिक सिद्धांत पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके क्योंकि इसका सबसे बड़ा पुरोधा चीन भी आज पूंजीवाद की राह पर चल रहा है। इसी लेनिन की प्रतिमा का गिराना कम्युनिस्ट निजाम के प्रतीकात्मक खात्मे को भी दिखाता है, जिसने सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए हिंसा को औजार की तरह इस्तेमाल किया। ऐसे में जब उनके तानाशाही शासन का अंत होता है, तो उससे जुड़े प्रतीकों पर भी हमले होते हैं। यह रूस के विभाजन के समय भी हुआ जब स्टालिन की प्रतिमा गिराई गई और लोगों ने यूक्रेन में लेनिन की प्रतिमा को हथौड़ों से खण्ड-खण्ड कर डाला।

यह भी कहा जा सकता है कि रूस व यूक्रेन के विपरीत भारत में लोकतंत्र है और मतों से सत्ता परिवर्तन होता है परंतु यह देखने में भी आया है कि वामपंथी दल भले ही लोकतांत्रिक माध्यम से सत्ता हासिल करते हैं। लेकिन बाद में वे हिंसा को संस्थागत स्वरूप देकर व लोहावरण ओढ़ कर लोकतंत्र को कमजोर कर देते हैं। एक खास विचारधारा से लैस सेना तैयार करते हैं, जो अपनी तानाशाही की गतिविधियों को बौद्धिक दृष्टिकोण उपलब्ध कराते हैं। इसके लिए शिक्षा व बौद्धिक संस्थानों पर कब्जे किए जाते हैं और लोगों पर विचारों को थोपने की प्रक्रिया शुरू होती है। अपने विरोधियों की हत्याएं की जाती हैं जैसा कि केरल व त्रिपुरा में होता रहा है। त्रिपुरा में एक दशक बीत जाने के बावजूद भी लापता हुए 5 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की लाशों को तलाशा नहीं जा सका है। बंगाल में भी हिंसा व दमन का लगभग तीन दशकों से अधिक समय तक चक्र चला। थानों व सरकारी दफ्तरों को माक्र्सवादी पार्टी के कार्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया। 1970 में सेनबारी हत्याकांड, 79 में मरीचझंपी नरसंहार, आनंदमार्गी साधुओं को जिंदा जलाया जाना , 2000 में ननूर हत्याकांड और 2007 में नंदीग्राम फायरिंग लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई वामपंथी सरकार का विभत्स चेहरे को दर्शाती हैं। सेनबारी में जुल्म की एक घटना के तहत एक मां को अपने बेटे के खून से सना चावल खाने को मजबूर किया गया था। लेकिन कम्यूनिस्ट बुद्धिजीवियों का भी कोई जवाब नहीं माओ, स्टालिन, पोलपोट जैसे दुनिया के क्रूर हत्यारों व तानाशाहों को जिस असरदार तरीके से महान बताया गया उससे इनके पाप आसानी से छिप गए। लेनिन इसी हिंसात्मक विचार में विश्वास करते थे और त्रिपुरा में कम्युनिस्ट निजाम इसी का प्रचार-प्रसार करता था। त्रिपुरा चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद लोग यह कहते सुने गए कि उन्होंने दो दशकों बाद स्वतंत्रता का मुंह देखा है। 25 साल तक रक्तपिपासु वामपंथी विचारधारा को झेल रहे समाज ने हिंसा व अत्याचार की प्रतीक किसी प्रतिमा को ध्वस्त कर दिया हो तो उसे एकाएक आदर्शवाद नहीं समझाया जा सकता। हां चित्र के रूप में लेनिन स्वीकृत हो सकते हैं परंतु चरित्र के रूप में कदापि नहीं।

- राकेश सैन
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Monday, 5 March 2018

वंचितों-दलितों को पुजारी बनाने वाले शंकराचार्य जी

 'सदाशिव समारम्भाम् शंकराचार्य मध्यमाम् अस्मद् आचार्य पर्यन्ताम् वंदे गुरु परम्पराम्' अर्थात भगवान शिव से आरंभ हुई गुरु शिष्य परंपरा जिसको आदि गुरु शंकराचार्य जी ने वर्तमान पीढ़ी तक पहुंचाया उस परंपरा को मैं प्रणाम करता हूं। भारतीय संस्कृति में गुरु का अत्यंत महत्त्व है और भगवान शंकर से आरंभ हुई इस परंपरा को जिस शंकराचार्य जी ने अगली पीढ़ी तक पहुंचाया उस महान आत्मा के पंरपरागत वंशज शंकराचार्य जयेंंद्र सरस्वती जी विगत बुधवार गोलोकगमन कर गए। वे 83 साल के थे और 22 मार्च, 1954 को चंद्रशेखेंद्र सरस्वती स्वामीगल ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, जिसके बाद वो 69वें मठप्रमुख बने थे। जयेंद्र सरस्वती जी के जीवन की महानता का परिचय केवल इतना सीमित नहीं बल्कि उन्होंने एक ऐसा परिवर्तनकारी कदम उठाया जिससे हिंदू समाज के वंचित वर्ग जिसे अज्ञानतावश दलित भी कहते हैं को पुजारी बनाने का अधिकार मिला। अर्थात अज्ञानतावश जिन स्थानों पर वंचितों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था वहां उन्होंने इन अपेक्षित हिंदुओं को पुजारी बनाने का साहस दिखाया। इसके अतिरिक्त जयेंद्र सरस्वती जी ने समाज में सेवा प्रकल्प शुरु किए और अपने आप को कभी मंदिरों व मठों की चारदिवारियों में कैद करके नहीं रखा बल्कि सेवा बस्तियों में विचरन करते रहते थे।

क्रांतिकारी विचारों के स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी ने हिंदू समाज में कालबाह्य रूढिय़ां और मान्यताएं बदलीं एवं वे संन्यासी हुए जिन्होंने अनुसूचित जाति के युवाओं को मंदिरों में अर्चक बनाने के लिए दीक्षित एवं प्रशिक्षित किया। आज दक्षिण के हजारों मंदिरों में ये पुजारी वैदिक कर्मकांड करते हुए मिलते हैं। गरीब, कमजोर तथा विशेषकर दलित बस्तियों में छोटे से छोटे मंदिर के श्रीगणेश के लिए यदि उन्हें आमंत्रण दिया जाता था तो वे बड़े चाव से वहां जाते थे। स्वामी जी ने रूढि़वादी परंपराओं को तोड़ा और मठ की गतिवधियों का विस्तार समाज कल्याण, खासकर दलितों के शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कार्यों तक किया। उन्होंने मठ को एक नई दिशा दी। पहले मठ सिर्फ आध्यात्मिक कार्यों तक सीमित होता था। उन्होंने धार्मिक संस्थानों को सामाजिक कार्यों से जोड़ा। यही कारण है कि वो देशभर में लोकप्रिय हुए। उनका आंदोलन समाज के सबसे निचले स्तर पर खड़े लोगों को मदद पहुंचाने के लिए था। पहले मठ कांचीपुरम और राज्य के भीतर तक सीमित था। वो इसे उत्तर-पूर्वी राज्यों तक ले गए। वहां उन्होंने स्कूल और अस्पताल शुरू किए। उन्होंने मठ को समाज से जोड़ा, सार्वजनिक मामलों में रुचि ली और दूसरे धर्मों के नेताओं से भी अच्छे संबंध स्थापित किए। 

दुर्भाग्य से स्वामी जी चर्चा में तब आए जब तमिलनाडु पुलिस ने उन्हें हैदराबाद में 11 नवंबर, 2004 को गिरफ्तार कर लिया। उनपर कांची मठ के प्रबंधक शंकररमण की हत्या का आरोप था। शंकररमण की हत्या 3 सितंबर, 2004 को मंदिर परिसर में कर दी गई थी। स्वामी जी को पुलिस ने शक के आधार पर गिरफ्तार किया था क्योंकि शंकरारमन उनके खिलाफ अभियान चला रहे थे। इसके बाद कनिष्ठ स्वामी विजेंद्र सरस्वती को 22 अन्य लोगों के साथ मामले में गिरफ्तार किया गया। मामले की सुनवाई 2009 में शुरू हुई, जिसमें न्यायालय में 189 गवाहों को प्रस्तुत किया गया था। पुदुचेरी न्यायालय ने सभी आरोपियों को 13 नवंबर, 2013 को बरी कर दिया। पूरे प्रकरण के पीछे तमिलनाडू की मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता का हाथ बताया गया। 

शंकर नेत्रालय शृंखला को लेकर उनके सेवा कार्यों के चलते उन्हें याद किया जाता रहेगा। उनके द्वारा स्थापित शंकर नेत्रालय चेन्नई  लाभ-निरपेक्ष नेत्र चिकित्सालय है। इस चिकित्सालय में पूरे भारत से तथा विश्व भर से लोग आंखों से सम्बन्धित समस्याओं की चिकित्सा के लिये आते हैं। इस नेत्रालय में 1000 कर्मचारी कार्यरत हैं। इसमें प्रतिदिन 1200 रोगियों का इलाज होता है और 100 शल्यकर्म प्रतिदिन होती है। इसका वार्षिक राजस्व लगभग 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर है। शंकर नेत्रालय ने अनेकों प्रसिद्ध नेत्र-चिकित्सक पैदा किये हैं जिनमें मुम्बई के आदित्य ज्योति नेत्र अस्पताल के संस्थापक डॉ एस नटराजन भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त सेवा बस्तियों में अनेक तरह से सेवा प्रकल्प शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी ने आरंभ किए जो सफलतापूर्वक चल रहे हैं। उन्होंने समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण आदि अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़ कर सेवा की। स्वामी जी अपने सद्कार्यों को लेकर सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे।

राकेश सैन
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Sunday, 4 March 2018

'लाल सलाम' को आखिरी सलाम

कार्ल माक्र्स व लेनिन के बाद वामपंथ के सबसे बड़े नायक माओ से-तुंग मानते थे कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' उनके इसी ध्येय वाक्य को सत्य साबित करने के लिए आज जहां माओवादी व नक्सली आतंकी जगह-जगह रक्तपात करते हैं वहीं कथिततौर पर लोकतंत्र की समर्थक कहे जाने वाली पार्टियां भी माओ के उक्त विचार से सहमत रही हैं। यही कारण है कि देश में सीपीआई और सीपीआई (एम) कहने को तो चुनाव जीत कर सत्ता में आती परंतु वह अपने विरोधियों के साथ माओवादी सिद्धांतों के अनुसार ही व्यवहार करती रही हैं। 2 मार्च को होली के दिन देश के सुरक्षा बलों ने 12 नक्सलियों का सफाया कर दिया। अगले दिन मतदाताओं ने त्रिपुरा में 25 सालों से चली आरही वामपंथी सरकार को मतों की ताकत से धाराशाही कर इस देश की धरती पर बुलेट और बैलेट दोनों तरीकों से माक्र्सवाद के परास्त होने का संदेश दे दिया है। केवल केरल को छोड़ दें तो पूरे देश ने 'लाल सलाम' को आखिरी सलाम कर दिया है। 

किसी समय पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाला और भारत में फैशन व प्रगतिशालता का पर्याय बना वामपंथ आज अंतिम सांस लेेने को विवश है। इसके कारणों पर चर्चा करें तो इसके लिए खुद वामपंथी ही अधिक जिम्मेवार दिखते हैं। माक्र्सवादियों के भारत के प्रति दृष्टिकोणा की झलक कार्ल माक्र्स के लेखों से ही मिल जाती है। 22 जुलाई, 1853 के लेख में माक्र्स ने कहा था, ''भारतीय समाज का कोई इतिहास ही नहीं है। जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में निरंतर आक्रांताओं का इतिहास है जिन्होंने अपने साम्राज्य उस निष्क्रिय और अपरिवर्तनीय समाज के ऊपर बिना विरोध के बनाए। अत: प्रश्न यह नहीं है कि क्या इंग्लैंड को भारत को जीतने का अधिकार था, बल्कि हम इनमें से किसको वरीयता दें, कि भारत को तुर्क जीतें, फारसी जीतें या रूसी जीतें, या उनके स्थान पर ब्रिटेन।'' माक्र्स ने भारत को कभी एक राष्ट्र नहीं माना और उनकी ये धारणाएं वामपंथियों की नीति-निर्धारक हैं। सर्वहारा की निरंकुशता स्थापित करने का उद्देश्य रखने वाले वामपंथियों के मस्तिष्क में राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का विरोध करना उनका परम उद्देश्य है। सबसे ताजा उदाहरण हैं, जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारे, सीताराम येचुरी द्वारा भारतीय सेनाध्यक्ष के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां।

वामपंथियों पर कई तरह के गंभीर आरोप हैं जिनका उन्हें देश को कभी न कभी ईमानदारी से उत्तर देना होगा। राष्ट्र के हर महत्त्वपूर्ण मोड़ पर वामपंथी मस्तिष्क की प्रतिक्रिया राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं बल्कि एकदम विरुद्ध रही हैं। गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जापान के प्रधानमंत्री 'तोजो का कुत्ता' वामपंथियों ने कहा। मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग की वकालत वामपंथी करते थे। अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे। कम्युनिस्ट सदैव से अंतरराष्ट्रीयता का नारा लगाते रहे हैं और इसकी आड़ में अपने ही देश का विरोध करते रहे। वामपंथियों ने गांधीजी को खलनायक और देश का विभाजन करने वाले जिन्ना को नायक की उपाधि दे दी थी। खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के लिए लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की। वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता को उभारने की एवं आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई।

1962 में जब देश चीन के धोखे से सन्न था और हमलावर से जूझ रहा था तो वामपंथियों पर आरोप लगे कि वे भारत में रहते हुए भी चीनी सेना का समर्थन करते रहे। भारत की भूमि पर चीन के लिए धनसंग्रह किया गया, चीन के हमले व धोखेबाजी को सर्वहारा वर्ग की क्रांति बताने का प्रयास हुआ। अपनी प्रकृति के अनुसार, वामपंथी इस देश की मिट्टी से जुड़े व राष्ट्र के पुनर्जागरण में लगे संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जानी दुश्मन मानते रहे। वामपंथी नेता वृंदा करात व प्रकाश करात के लेखों में चीन को भारतीयों का हितैषी बताया जाता रहा जबकि संघ को अमेरिका व पूंजीपतियों के गठजोड़ का हिस्सा होने के आरोप लगाए जाते रहे। अपनी ही इस जड़ विचारधारा के प्रति अंधविश्वासी वामपंथी वैचारिक विरोधियों के प्रति कितने असहिष्णु हैं इसका उदाहरण केरल व त्रिपुरा में संघ व भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएं हैं। पिछले एक दशक में दोनों राज्यों में डेढ़ सौ से अधिक राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यकर्ता वामपंथ की बलिवेदी पर बलिदान दे चुके हैं। वामपंथियों पर आरोपों की फेरहिस्त काफी लंबी है परंतु सार संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि देश की संस्कृति व विचार के विपरीत यह विचारधारा लगभग आठ दशकों तक इस देश में जिंदा रह पाई यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। विदेशी मूल की वामपंथी विचारधारा का पराभूत होना तो निश्चित था परंतु उसका इतना लंबा चलना भी कोई कम विस्मयकारी नहीं है।

त्रिपुरा में बताया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार की गरीबी व सादगी को मुखौटा बना कर देश को गुमराह किया जाता रहा और इस इलाके को भी गरीबी की जड़ों में जकड़ दिया गया। वहां हालत यह है कि खुद माणिक सरकार का निर्वाचन क्षेत्र बिजली, सड़क व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित बताया जा रहा है। कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाले वामपंथियों की सरकारों ने त्रिपुरा में अभी चौथा वेतन आयोग तक लागू नहीं किया है जबकि पूरे देश में सातवें आयोग की मांग की जाने लगी है। त्रिपुरा में वामपंथियों की हार पर पार्टी के नेताओं ने इसे धनबल की जीत बताया है। उनकी यह समीक्षा उतनी ही भोथरी है जितनी कि भारत जैसे सनातन राष्ट्र के प्रति उनकी विचारधारा। देश आज लाल सलाम को आखिरी सलाम कह रहा है तो इसके लिए कोई और नहीं बल्कि खुद वामपंथ ही जिम्मेवार है जो भारत में रहने वालों को भारतीयता से तोडऩे का प्रयास करता है।

- राकेश सैन
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कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...