Wednesday, 29 November 2017

राहुल को बौना करते खुद के रणनीतिकार

यह हास्य-विनोद का विषय कतई नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय नेता के बौना होने की घटना समझाने का प्रयास भर है कि एक बार हरियाणवी ताऊ गाड़ी में बैठ कर कहीं जा रहे थे। पैसेंजर गाड़ी थी बहुत धीरे-धीरे चल रही थी, यात्री खिझे हुए थे। एक जगह बीच रास्ते गाड़ी रुकी तो किसी ने बताया इंजन के आगे भैंस का कटड़ा आगया। गाड़ी चली तो कुछ ही मील की दूरी पर एक अन्य भैंस का कटड़ा इंजन के नीचे आकर कट गया और थोड़ी ही देर बाद यही दुर्घटना तीसरी बार घटी। इस बार ताऊ से बोले बिना रहा नहीं गया और हरियाणवी फुलझड़ी छोड़ दी कि ''इंजन तै आच्छा तो कटड़ा सै जो हर टेशन पे पहले पहुंचता है। ससुरे इंजन नै हटा कै गाड्डी में कटड़े नै जोड़ क्यूं नहीं देते।'' आज गुजरात कांग्रेस की हालत इसी गाड़ी जैसी दिखने लगी है जिसके इंजन तो राहुल गांधी हैं परंतु चर्चा ज्यादा हार्दिक पटेल व दूसरे जातिवादी नेताओं की है। इंजन समेत कांग्रेसी गाड़ी तीन जातिवादी नेताओं के पीछे-पीछे रेंगती दिख रही है। कांग्रेस के ही रणनीतिकारों ने अपने राष्ट्रीय नेता को दो-तीन जातिवादी नेताओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया महसूस होने लगा है।
राज्य में पिछले कई सालों से चल रहे जातिवादी आंदोलनों के बीच हार्दिक पटेल, जिग्नेश मवानी, अल्पेश ठाकोर आदि युवा पाटीदार, दलित वंचित व पिछड़ा वर्ग के नेताओं के रूप में उभर कर सामने आए हैं। तीनों के आरक्षण को लेकर परस्पर विपरीत हित हैं इसके बावजूद ये कांग्रेस के साथ एकमंच पर खड़े दिखते हैं। इन्हें एकसाथ साधने पर कांग्रेस के रणनीतिकार इसे बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं जो गलत भी नहीं है। परंतु अपनी इस सफलता को बड़ा करके दिखाने के चक्कर में इन स्थानीय नेताओं का इतना गुणगान कर चुके हैं कि आज उनके खुद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल ही इनके सामने बौने नजर आने लगे हैं। तभी तो हार्दिक पटेल कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल को समय देते हैं, राजनीतिक समझौते की रूपरेखा तय करने का अल्टीमेटम देते हैं। कांग्रेस के रणनीतिकार हार्दिक एंड पार्टी के कार्यक्रम के अनुसार राहुल का कार्यक्रम तय करते हैं। यहां तक कि कांग्रेस के टिकट वितरण में राष्ट्रीय नेताओं की भी इतनी नहीं चली जितनी कि इस त्रिमूर्ति की।
इन जाति पंचायत के नेताओं को लेकर कांग्रेस के रणनीतिकार इतने अतिउत्साह में है कि कांग्रेस के प्रादेशिक नेता तो बिलकुल पर्दे से गायब हो चुके हैं। पर्दे के पीछे रहने वाले अहमद पटेल को छोड़ कर आखिर कितने लोगों ने सुन है गुजरात कांग्रेस कमेटी के वरिष्ठतम नेता शक्ति सिंह गोहिल, माधव सिंह सोलंकी, अर्जुन मोडवानी, सिद्धार्थ पटेल का नाम। जातिवादी नेताओं पर कांग्रेस इतना आसक्त हो चुकी है कि उसने अपने परंपरागत साथी व संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा के सहयोगी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) तक को घास नहीं डाली। पार्टी के कितने ही विधायक कांग्रेस को छोड़ चुके हैं और प्रदेश अध्यक्ष रहे शंकर सिंह वघेला भी अलग रास्ता चुन चुके हैं। जब प्रदेश स्तर के नेताओं की इतनी बेकद्री हो रही है तो जिला व मंडल स्तर के तो कहने ही क्या। ये जातिवादी नेता भी सीधे राहुल गांधी से बात करते हैं और राहुल अपने नेताओं से ज्यादा इस तिकड़ी पर न केवल विश्वास करते दिख रहे हैं बल्कि कहीं न कहीं निर्भर भी नजर आने लगे हैं। कांग्रेस यहां लगभग वही गलती कर रही है जो भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐन मौके पर किरण बेदी को पार्टी की कमान सौंप कर की थी। किरण बेदी से स्थानीय भाजपाईयों में ऐसी निराशा व हताशा ऊपजी कि सत्ता की सशक्त दावेदार भाजपा उसी दिल्ली में तीन सीटों पर सिमट गई जहां कुछ समय पहले ही लोकसभा की सभी सातों की सातों सीटें जीती थीं। कांग्रेस को भाजपा के दिल्ली प्रकरण से सीख लेने की जरूरत है।
हाल ही में पाकिस्तानी अदालत द्वारा कुख्यात आतंकी हाफिज सईद के रिहा होने पर न जाने किस सलाहकार ने राहुल गांधी को 'हगप्लोमेसी'फेल होने का ट्वीट करने की सलाह दी। ट्वीट से राहुल ने यह संदेश दिया कि मोदी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से गले मिलते आए हैं, अंग्रेजी में कहें तो हग करते रह गए और पाकिस्तान ने आतंकी को रिहा कर दिया। कोई पूछे कि पाकिस्तानी अदालत की पुश्तैनी कमजोरी मोदी सरकार की असफलता कैसे हो गई ? सईद को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकी घोषित किए जाने के बाद गिरफ्तार किया गया था। उसकी रिहाई को किसी की असफलता कहें तो यह संयुक्त राष्ट्र यानि विश्व समुदाय की असफलता है न कि केवल भारत की। पूरी दुनिया की देशों की सरकारों में सत्तारूढ़ व विपक्षी दलों ने इस रिहाई की निंदा की है और आतंकवाद से सर्वाधिक पीडि़त भारत ही है जहां विपक्ष इस अंतरराष्ट्रीय असफलता का प्रयोग एक राज्य के चुनाव में अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए करता दिखाई दे रहा है। राहुल की टिप्पणी से क्या संदेश गया विश्व बिरादरी में, यही न कि भारत में आतंकवाद पर सर्वानुमति नहीं और ऐसे में भविष्य में आतंकवाद के मुद्दे पर हमारी बात कौन गंभीरता से सुनेगा? राहुल के नीतिकार इस बात को भूल गए कि उनके उपाध्यक्ष को गुजरात की नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति करनी है। राहुल के ट्वीट चाहे पार्टी के कार्यकर्ताओं ने खूब वाहवाही की परंतु इसका गलत संदेश गया, अब लोगों का पूछना स्वभाविक है कि आतंकी की रिहाई पर जब देश आहत था तो राहुल ताली क्यों पीट रहे थे? कांग्रेस को यह विवाद महंगा पड़ सकता है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पर कांग्रेस से सवाल मांग चुके हैं। अगर यह चुनावी मुद्दा बना तो कांग्रेस को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
वर्तमान युग सोशल मीडिया का है जहां क्षणिक आवेश व सोच की वार्ताएं हावी होती हैं लेकिन राजनीति, कूटनीति दूरदृष्टि के बिना संभव नहीं। राहुल गांधी अभी युवा नेता हैं और उन्हें राजनीति में दूर तक जाना है। अगर वे राजनीति-राष्ट्रनीति में अंतर न कर पाए और  किसी घटना को देखने के दृष्टिकोण में विस्तार नहीं कर पाए तो उनका मार्ग कदम दर कदम कंटकों से भरता जाएगा। रणनीतिकार व परामर्शदाता हर राजनेता के लिए अत्यवश्यक हैं परंतु बागडोर उस नेता को खुद ही संभालनी होती है क्योंकि जनता के प्रति जवाबदेह भी वह खुद ही होता है कोई मित्रमंडली नहीं। कांग्रेस एक्सप्रेस धीमी गति से चले या द्रुतगामी हो इसकी जिम्मेवारी व श्रेय पार्टी के इंजन राहुल गांधी को ही मिलनी चाहिए न कि किसी किसी कटड़े को।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

दुनिया को 'दारुल अमन' घोषित करें मुस्लिम धर्मगुरु

मिस्र में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर से पूरी दुनिया को हिला दिया। यह हमला भारत के मुंबई आतंकी हमले की 9वीं बरसी  कीपूर्व संध्या पर हुआ जिसमें 305 लोग मारे गए। हमला सूफी मस्जिद पर हुआ जो इस्लाम की उदारवादी शाखा मानी जाती है। सेना की वर्दी में आए आतंकियों ने अल आरिश शहर की अल रावदा मस्जिद के बाहर पहले तो बम विस्फोट किए फिर भागते हुए लोगों पर मशीनगनों से गोलियां बरसाईं। जाहिर है कि उक्त लोग बड़े स्तर पर नरसंहार करने के उद्देश्य से आए थे और वे सफल भी रहे। चाहे अभी तक इस हमले की जिम्मेवारी किसी आतंकी संगठन ने नहीं ली परंतु हमले की रणनीति को देख कर लगता है कि यह करतूत आईएस या उससे जुड़े किसी संगठन की ही है। आईएस और इसके ही गौत्र वाले अल कायदा, तालिबान, जैश जैसे असंख्यों संगठन जो इस्लाम की कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा के समर्थक हैं और इस्साम की सेवा के नाम पर यह सब करने का दावा करते हैं। इन संगठनों व आतंकियों ने पूरी दुनिया में इस्लाम को आतंकवाद का प्राय बना कर रख दिया है तो ऐसे में उचित समय आगया है कि मुस्लिम विद्वान व धर्मगुरु मिल कर पूरी दुनिया को ही दारुल अमन घोषित करे ताकि इन संगठनों की इस्लाम सेवा की आड़ में पूरी की जा रही अपनी राजनीतिक व आर्थिक महत्वाकांक्षा का पर्दाफाश किया जा सके। 

ताजा आतंकी हमले का एक खास पहलू यह है कि एक ऐसी मसजिद में आए लोगों को निशाना बनाया गया जो सूफी मसजिद कही जाती है। मिस्र में ईसाइयों पर कई आतंकी हमले हो चुके हैं। इस साल मई में मध्य मिस्र में कुछ बंदूकधारी हमलावरों ने ईसाइयों को ले जा रही एक बस को बमों से उड़ा दिया था, जिसमें अ_ाईस लोग मारे गए थे। फिर, अप्रैल में उत्तरी शहर एलेक्जेंड्रिया में एक चर्च के नजदीक हुए दो फिदायीन हमलों में छियालीस लोग मारे गए थे। लेकिन अब सूफी भी आतंकियों के निशाने पर आ गए हैं। केवल इतना ही नहीं, इस्लाम के नाम भारत के रूप में हिंदू, म्यांमार में बौद्ध यानि हर धर्म इस्लाम की कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा की जद में है।

 इस्लामिक समाजशास्त्र समूचे विश्व को मात्र दो भागों में विभक्त करता है, पहला है दारुल हरब अर्थात् युद्ध का क्षेत्र, गैर मुसलमानों का देश। वह क्षेत्र जहां के लोगों ने अभी इस्लाम को कबूल नहीं किया। जहां लोगों को मतांतरित करने के उद्देश्य से संघर्ष चल रहा है। दूसराहै दारुल इस्लाम अर्थात शांति का क्षेत्र अर्थात जहां के लोग इस्लाम को कबूल कर चुके हैं। सारे संसार को दारुल इस्लाम में तब्दील करना इस्लाम का घोषित उद्देश्य है। जहां अभी इस्लाम की राज्यसत्ता स्थापित नहीं हुई उस दारुल हरब क्षेत्र के लोगों को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर संघर्षरत रहने का आदेश दिया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि गैर इस्लामिक मुल्क में रह रहे मुसलमान वहां के मूल समाज, मूल संस्कृति और स्थानीय परंपराओं के साथ तालमेल बिठाते हुए शांति के साथ नहीं रह सकते। वे तो दारुल इस्लाम के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहेंगे। गैर मुस्लिम देशों को अपने मजहब में किसी भी तरीके से सम्मिलित करना और फिर उसे अपने मिल्लत (मुस्लिम जगत) में शामिल कर लेना मजहबी कार्य और अल्लाह का हुकुम माना जाता है। जिहाद की संकल्पना भी इस्लाम का एक आवश्यक हिस्सा है। इस्लामिक विद्वान बताते हैं कि जिहाद मानव को आंतरिक बुराईयों के खिलाफ संघर्ष करने, सामाजिक बुराईयों के खिलाफ जागरुक करने का काम करता है परंतु कट्टरपंथी इस शब्द का गलत इस्तेमाल करते रहे हैं और कर भी रहे हैं। कट्टरपंथियों के लिए जिहाद का अर्थ संघर्ष के लिए प्रोत्साहन देना और इस्लाम की रक्षा के लिए गैर इस्लामिक जनता से टकराना है। आज का आतंकवाद भी जिहाद के नाम पर चल रहा है।

दुनिया के अब तक के लगभग सभी पंथों के चिंतन में यह स्वीकार किया गया है कि परमात्मा की योजनानुसार संसार का उद्धार करने हेतु समय-समय पर ईश दूत, पैगंबर और अवतारों का आविर्भाव होता है। इस संदर्भ में हजरत मुहम्मद भी एक महापुरुष एवं अवतार थे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक 'प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार' में इस्लाम का लघु परंतु संपूर्ण परिचय इस तरह दिया है, 'इस्लाम एक अकेले मस्तिष्क की रचना है और एक ही वाक्य में उसे अभिव्यक्त कर दिया गया है। इस्लाम ने केवल दो ही विकल्प छोड़े हैं-इस्लाम को कबूल कर लो या इस्लाम की अधीनता स्वीकार कर लो।' इसी सिद्धांत की पैदाइश है दारुल हरब और दारुल इस्लाम का चिंतन। यदि इस इस्लामिक साम्राज्य के जुनून को हटाकर दारुल इस्लाम (शांति क्षेत्र) और जिहाद (कुर्बानी का आह्वान) चिंतन को भूल मजहबी धरातल तक ही सीमित रखा जाए तो यही चिंतन मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। परंतु दारुल हरब (संघर्ष का क्षेत्र) की कल्पना मजहबी उन्माद को जन्म देकर उपरोक्त दोनों शब्दों की आध्यात्मिक पवित्रता को जड़ से समाप्त कर देती है। अत: इस्लाम के उलेमाओं, धर्मगुरुओं एवं विद्वानों को समस्त मानवता की भलाई के लिए पैगंबर हजरत मुहम्मद साहिब के उन उपदेशों और पवित्र कुरान की उन आयतों को उजागर करना चाहिए जिनमें सह अस्तित्व, गरीब की मदद, असहाय को सहारा, शोषितों का उत्थान, बराबरी के हक और नमाज का आध्यात्मिक संदेश दर्ज है। मुस्लिम समाज के मजहबी रहनुमाओं द्वारा ऐसा रचनात्मक रुख अपनाने से इस्लाम की वे नकारात्मक परिभाषाएं दम तोड़ देंगी, जिनकी कोख से युद्ध पिपासा, साम्राज्यवादी आकांक्षा, सत्तालोलुपता और वासना जैसी राक्षसी वृत्ति जन्म लेती है। समय आगया है कि मुस्लिम धर्मगुरु केवल मुस्लिम इलाकों को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को दारुल अमन अर्थात अमन की धरती घोषित करें। आज के समय इस्लाम की और अंतत: मानवता की यह सबसे बड़ी सेवा होगी। इसी तरह ही आतंकवाद को इस्लाम व जिहाद से अलग-थलग किया जा सकेगा।

- राकेश सैन
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Tuesday, 28 November 2017

गीता के प्रशंसक नेहरू जी

गीता जयंती (30 नवंबर, 2017) पर हार्दिक शुभकामनाएं

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कुछ लोगों को सुनने में उतना ही अटपटा लग सकता है जितना मुझे लिखने में कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी भी गीता के प्रशंसकों में से एक थे। नेहरू जी के बारे अकसर कहा जाता है कि वे नास्तिक व जन्म से भारतीय व मन से युरोपीय थे। कुछ लोग यहां तक कहते हैं कि वे अपने आप को दुर्घटनावश हिंदू (एक्सीडेंटल हिंदू) मानते थे। इस तरह के दावे व तथ्य अपनी जगह पर हैं परंतु एक सच्चाई यह भी है कि नेहरू जी गीता के प्रशंसकों में से एक थे चाहे उनका दृष्टिकोण भिन्न रहा हो। गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसके संदेश को हमारे अनेक नेताओं व क्रांतिकारियों ने आजादी के आंदोलन के दौरान भरपूर महत्व दिया था। ऐसे राष्ट्रीय नेताओं में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे और जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह, राजगरु, सुखदेव, आजाद सहित अनेक महापुरुष शामिल हैं। 

नेहरू जी ने अनेक किताबें लिखी, जिनके पीछे उनका विराट और गहन अध्ययन था। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्हें लंबे समय तक अंग्रेजों की जेलों में रहने का मौका मिला था। लंबी सजाओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और लिखा। भारत की आत्मा को खोजने और उसे पहचानने और आत्मसात करने का गंभीर प्रयास पंडित नेहरू ने किया था। वे भारत की अतीत ऐतिहासिकता से बेहद प्रभावित थे। विस्तृत इतिहास की समुद्र जैसी गहराइयों में उन्होंने कितनी ही बार गोते लगाये। भारत की आत्मा को पहचानने के प्रयासों में उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, गीता जैसे ग्रंथों और रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों का विश्लेषण-परक अध्ययन किया। साथ में ही उन्होंने इन बुनियादी ग्रंथों के ऊपर भारतीय और विदेशी विद्वानों की टिप्पणियां भी पढ़ीं और उन्हें आत्मसात भी किया। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंदुस्तान की कहानी' में वे एक जगह लिखते हैं 'पिछली बातों के लिये अंधी-भक्ति बुरी होती है, साथ ही उनके लिए नफÞरत भी उतनी ही बुरी है। इसकी वजह यह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। वर्तमान का और भविष्य का लाजमी तौर से भूतकाल से जन्म होता है और उन पर उसकी गहरी छाप होती है। इसको भूल जाने के मानी हैं इमारत को बिना बुनियाद के खड़ा करना और कौमी तरक्ककी जड़ को ही काट देना। यूं नेहरू जी ने पूरा-साहित्य और पुराणों आदि का बहुत गहराई से अध्ययन किया था अत: वे वेदों के स्वाभाविक प्रशंसक थे। वेदों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि 'शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग था। वेद शब्द की व्युत्पत्ति व्युद धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय की जानकारी को इक_ा कर देना था। उनमें बहुत सी चीजें मिली-जुली हैं। स्तुतियां हैं और बड़ी ऊंची प्रकृति संबंधी कविताएं हैं। उनमें मूर्तिपूजा नहीं है। देवताओं के मंदिरों की चर्चाएं नहीं हैं जो जीवनी-शक्ति और जिंदगी के लिये इकरार उनमें समाया हुआ है वह गैर मामूली है। महाभारत के बारे में नेहरूजी लिखते हैं-'महाकाव्य की हैसियत से रामायण एक बहुत बड़ा ग्रंथ जरूर है और उससे लोगों को बहुत चाव है लेकिन यह महाभारत है जो दरअसल दुनिया की सबसे खास पुस्तकों में से एक है। यह एक विराट कृति है। परंपराओं और कथाओं का और हिंदुस्तान की कदीमी राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का यह एक विश्वकोष है। महाभारत में हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर जोर देने की बहुत निश्चित कोशिश की गई है। महाभारत एक ऐसा बेशकीमती भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की अनमोल चीजें मिल सकती हैं। यह रंगबिरंगी घनी और गुदगुदाती जिंदगी से भरपूर है। इस मामले में यह हिंदुस्तानी विचारधारा के दूसरे पहलुओं से हटकर है जिसमें तपस्या और जिंदगी से इंकार पर जोर दिया गया है। महाभारत की शिक्षा का सार यदि एक जुमले में कहा जाए तो है- 'दूसरे के लिए तू ऐसी बात न कर जो खुद तुझे अपने लिए पसंद न हो'। भगवत गीता के बारे में नेहरू एक प्रसिद्ध विदेशी विद्वान विलियम बांडहॅबोल्ट के विचारों को उधृत करते हुये कहते हैं 'यह सबसे सुंदर और अकेला दार्शनिक काव्य है जो किसी भी जानी हुई भाषा में नहीं मिलता है।' बौद्धकाल से पहले जब इसकी रचना हुई तब से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव नहीं घटा है और आज भी इसके लिये पहले जैसा आकर्षण बना हुआ है। दरअसल गीता का संदेश किसी संप्रदाय या जाति के लिये नहीं है। क्या ब्राह्मण, क्या वंचित जाति, सभी के लिये है। गीता में कहा गया है कि सभी रास्ते मुझ तक आते हैं। इसी तरह उपनिषदों के संबंध में नेहरू लिखते हैं कि 'ये छानबीन की, मानसिक साहस की और सत्य की खोज के उत्साह की भावना से भरपूर हैं।' यह सही है कि यह सत्य की खोज मौजूदा जमाने के विज्ञान के प्रयोग के तरीकों से नहीं हुई है। फिर भी जो तरीका अपनाया गया है उसमें वैज्ञानिक तरीके का एक अंश है। इन दोनों का मूल एक ही बताया गया है। उपनिषदों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें सच्चाई पर बड़ा जोर दिया गया है। सच्चाई की सदा जीत होती है झूठ की नहीं। सच्चाई के रास्ते से ही हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। उपनिषदों की यह प्रार्थना मशहूर है 'असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, अंधकार की ओर से प्रकाश की ओर मुझे ले चल, मृत्यु से मुझे अमृत्व की ओर ले चल।' उपनिषदों में एक सवाल है जिसका बहुत अनोखा लेकिन मार्के का जवाब दिया गया है। सवाल यह है कि यह विश्व क्या है? यह कहां से उत्पन्न होता है? और कहां जाता है? इसका उत्तर है-स्वतंत्रता से इसका जन्म होता है। स्वतंत्रता पर ही यह टिका है और स्वतंत्रता में ही वह लय हो जाता है। सारे संसार में ऐसी कोई रचना नहीं है जिसका पढऩा इतना उपयोगी, इतना ऊंचा उठाने वाला हो जितना उपनिषदों का है। वे सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज हैं। प्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक शोपेनहावर के विचारों को उद्धृत करते हुए नेहरू कहते हैं कि उपनिषदों के हरएक शब्द से गहरे मौलिक और ऊंचे विचार उठते हैं और इन सब पर एक ऊंची पवित्र उत्सुक भावना छाई हुई है। सारे संसार में कोई ऐसी रचना नहीं जिसका पढऩा इतना उपयोगी हो जितना उपनिषदों का। ये सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज है। उपनिषदों के पढऩे से मेरी जिंदगी को शांति मिलती है। यही मेरे मौत के समय भी शांति देगा। रामायण के संबंध में नेहरूजी प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार मिशले के विचारों को उद्धृत करते हुए कहते हैं 'रामायण मेरे मन का महाकाव्य है। हिंद महासागर जैसा विस्तृत मंगलमय सूर्य के प्रकाश से चमकता हुआ, जिसमें देवीय संगीत है और जहां कोई बेसुरापन नहीं है। वहां एक गहरी शांति का राज्य है और कशमकश के बीच भी वहां बेहद मिठास और भाईचारा है। जो सभी जिंदा चीज पर छाया हुआ है। रामायण मोहब्बत, दया, क्षमा का अपार समुंदर है। नेहरूजी संस्कृत भाषा के बड़े प्रशंसक थे। संस्कृत के संबंध में वे लिखते हैं कि वह 'अद्भुत रूप से संपन्न, हरी-भरी और फूलों से लदी हुई भाषा है। फिर भी वह नियमों से बंधी हुई है और 2600 वर्ष पहले व्याकरण का जो चैखटा, पाणिनि ने इसके लिए तैयार कर दिया, वो उसी के भीतर ही चल रही है। ये फैली खूब, संपन्न हुई। भरी-पूरी और अलंकृत बनी लेकिन अपने मूल को पकड़े रही। संस्कृत के संबंध में नेहरू जी एक यूरोपीय विद्वान सर विलियम जोन्स के विचारों को उद्धृत करते हैं। जोन्स ने 1884 में कहा था संस्कृत भाषा चाहे जितनी पुरानी हो उसका गठन अद्भुत है। यूनानी भाषा के मुकाबले में अधिक परिपूर्ण, लातीनी के मुकाबले में ज्यादा संपन्न और दोनों के मुकाबले में यह कहीं ज्यादा परिष्कृत है।

आज की राजनीति पूरी तरह विभाजनकारी हो चुकी है, हमारे राजनेता अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म, जाति,समाज, परिवार, व्यक्ति और यहां तक कि हमारी सोच तक को बांटना चाहते हैं। इसी के चलते हमने अपने महापुरुषों को भी बांट लिया है। अतीत के महापुरुषों, राजनेताओं के कार्यों की समीक्षा उन पर टीकाटिप्पणी की जा सकती है परंतु जरूरत है उनके जीवन को समग्रता से देखने की। नेहरू जी का भारतीयता व धर्म प्रेम किसी से कम या अधिक नहीं हो सकता।

- राकेश सैन
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आम आदमी पार्टी : शिशुमौत का भय

यह लिखते हुए मेरे हाथ जल जाएं कि परिवर्तन व अलग तरह की राजनीति का संकल्प लेकर उतरी आम आदमी पार्टी पर शिशुकाल में ही मौत का साया मंडराने लगा है। दुख होता है कि अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रोडक्ट 'आप' देश के राजनीतिक पटल पर आंधी की तरह छाई और अब तुफान की तरह वापिसी करती दिख रही है। वह आंदोलन जिसने यूपीए की मनमोहन सरकार के कुशासन से उपजे जनाक्रोश को राष्ट्रीय अभिव्यक्ति दी। हजारों लोग रामलीला मैदान में दिन-रात जुटे, करोड़ों लोगों ने रात-रात भर जागकर आंदोलन की लाइव कवरेज इस बात पर मन मसोसते हुए देखी कि काश मैं भी रामलीला मैदान में जा पाता। पांच सालों में पार्टी एक्सीलेटर से वेंटीलेटर पर पहुंच गई है। पार्टी दिल्ली में सत्तारूढ़ दल के रूप में और पंजाब में विपक्ष में रहते हुए करिश्मा करना तो दूर, सामान्य संवैधानिक जिम्मेवारी निभाने में भी असमर्थ दिख रही है। 

पार्टी ने हाल ही में नई दिल्ली अपना पांचवां स्थापना दिवस मनाया। जन्मदिवस समारोह में शोकसभा सा नजारा दिखा, क्योंकि कल तक  जिस रामलीला मैदान में अरविंद केजरीवाल की रैलियों में पैर रखने को भी जगह नहीं मिलती थी वहीं पांचवीं वर्षगांठ पर वालंटियरों के अभाव में पूरा मैदान भां-भां कर रहा था। अवसर था आत्मविश्लेषण का परंतु सभी नेताओं ने एक दूसरे को नीचा दिखाने की ओछी कोशिश की। कविहृदय कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री व पार्टी में सर्वेसर्वा केजरीवाल पर तंज कसते हुए कहा कि 'अगर चंद्रगुप्त को अहंकार हो जाए तो चाणक्य का फर्ज है कि वह उसे वापस भेज दे।' कुमार विश्वास के चंद्रगुप्त कौन है और कौन कौटिल्य यह बताने की आवश्यकता नहीं। वाचालपन की पर्याय बनी 'आप' में कुमार विश्वास के इस आरोपों को प्रत्युत्तर न मिले यह तो संभव ही नहीं। उन्हें जवाब मिला भी और वह भी गोपाल राय नामक उस नेता से जिनको एक अवसर पर रालेगन आश्रम में बैठक के दौरान समाज सेवी अन्ना हजारे 'बाहर जाने' अंग्रेजी में कहें तो 'गेट आऊट' तक कह चुके हैं। गोपाल ने कहा, 'मीरजाफर अभी अंदर है, उसे बाहर निकालने की जरूरत है।' पार्टी में कुमार विश्वास को भाजपा-आरएसएस का आदमी कई बार सार्वजनिक मंचों पर घोषित किया जा चुका है और स्वभाविक है कि मीरजाफर की उपाधि उन्हीं को दी गई। विवाद का ताजा मामला दिल्ली में राज्यसभा की सीट को लेकर बताया जा रहा है, जिस पर विश्वास सार्वजनिक रूप से आरोप लगा चुके हैं कि उन्हें पार्टी के ही लोग राज्यसभा जाने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। कुमार विश्वास लोकसभा चुनाव में अमेठी से कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाथों हुई करारी पराजय की कीमत राज्यसभा की सदस्यता के रूप में वसूलना चाहते हैं। कल को प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, मयंक गांधी, कपिल मिश्रा की पंक्ति में कुमार विश्वास भी खड़े दिखाई दें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दिल्ली में सत्तारूढ़ दल के रूप में आम आदमी पार्टी की सरकार की कार्यप्रणाली की निंदा में बहुत कुछ कहा जा सकता है, इसको दोहराने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो केवल एक उदाहरण देना ही काफी है कि आजकल दिल्ली उच्च न्यायालय व देश के सर्वोच्च न्यायालय का अधिकतर समय केजरीवाल सरकार को फटकारने में ही जाया हो रहा है। केजरीवाल के पीछे न वैसी भीड़ है न उनका वह नायकत्व बचा है। आम आदमी पार्टी इतनी जल्दी अपना नूर खो देगी, यह किसने सोचा था।

दिल्ली के बाद पार्टी के दूसरे गढ़ पंजाब की बात करते हैं जहां पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ी आम आदमी पार्टी व सहयोगी दल को 21 सीटों के साथ विपक्षी दल बनने का गौरव हासिल हुआ। पार्टी में अंतर्कलह इतना बढ़ा कि विपक्ष के नेता एडवोकेट एचएस फूलका ने चार-पांच महीने बाद ही अपना पद छोड़ दिया। इसके बाद सुखपाल सिंह खैहरा को विपक्ष का नेता बनाया गया जो कांग्रेस छोड़ कर 'आप' में शामिल हुए थे। निवर्तमान अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर नशे को संरक्षण व प्रोत्साहन देने के आरोप लगाने वाली 'आप' के विधायक व विपक्ष के नेता सुखपाल सिंह खैहरा को ही फाजिल्का की अदालत ने नशा तस्करों से संबंध रखने के आरोप में समन किया हुआ है। पंजाब के सीमावर्ती जिले फाजिल्का पुलिस ने पिछले साल एक बहुत बड़े अंतरराष्ट्रीय तस्कर गिरोह को गिरफ्तार किया था जिसके आरोपियों के साथ खैहरा के संबंध होने के आरोप हैं। पुलिस मामले की जांच कर रही है। इसको लेकर स्थानीय अदालत उनके खिलाफ अपराधिक दंड संहिता (सीआरपीसी) की धारा 319 के तहत समन जारी किया है। निचली अदालत के समन को निरस्त करने की खैहरा की अपील पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय यह कहते हुए खारिज कर चुका है कि केस से जुड़े साक्ष्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती। अर्थात उच्च न्यायालय को भी लगता है कि मामला गंभीर है। कहने का भाव कि विपक्ष में रहते हुए भी यहां आम आदमी पार्टी विरोधियों से बुरी तरह घिरी हुई व रक्षात्मक दिखाई दे रही है।

पंजाब विधानसभा चुनावों में पूर्व खालिस्तानी आतंकियों की मदद के आरोपों के चलते औंधे मुंह गिरी आप ने इस गलती से कुछ नहीं सीखा। राज्य में हाल ही में हुई आतंकी गतिविधियों के आरोप में पुलिस ने भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक जगतार सिंह जग्गी जौहल के रूप में कई लोगों को गिरफ्तार किया है। जग्गी जौहल को लेकर ब्रिटेन स्थित अलगाववादी संगठन होहल्ला मचा रहे हैं तो आम आदमी पार्टी ने भी इस शोरगुल में अपना सुर मिला दिया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सांसद भगवंत सिंह मान ने मानवाधिकार की दुहाई दे कर जौहल की रिहाई के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी है। आतंकवाद का समर्थन करने व पार्टी के विधायक खैहरा के नशे के आरोप में घिरने के बाद पार्टी की खूब किरकिरी हो रही है और विभिन्न दलों को छोड़ कर अपने उज्जवल राजनीतिक भविष्य के लिए आम आदमी पार्टी में  आए नेताओं ने घरवापसी शुरू कर दी है। विपक्ष के नेता खैहरा के संकट में पड़ते ही उनके पद पर उनके ही साथियों ने नजरें गड़ा दी हैं और एक आध नेता को छोड़ कर बाकी विधायकों ने खैहरा को किस्मत के सहारे छोड़ दिया है। कहने का भाव कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों रूप में पार्टी अभी तक तो जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरती दिखाई नहीं दे रही। मात्र पांच सालों में तेजी से उभरे एक राजनीतिक दल का इस तरह अल्पायु में अवसान होता है तो यह अध्याय भारतीय राजनीति के इतिहास में दु:खद घटना के रूप में याद किया जाएगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फामिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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मो. 097797-14324

Sunday, 26 November 2017

धन के वश होते धन्वंतरि

एक छोटा सा प्रसंग है, आज के चिकित्सक सुनें तो। सौराष्ट्र के बढ़वाना राज्य के झंडू भट्ट नेकदिल और अनुभवी वैद्य थे। एक बार महाराज ठाकुर साहब बाल सिंह बहुत बीमार पड़ गए। किसी भी वैद्य से फर्क न पड़ते देख ठाकुर जी की चिकित्सा के लिए जामनगर से झंडू भट्ट को बुलाया गया। 3 महीने बाद एक दिन ठाकुर साहब ने भट्ट से कहा कि आप औषधि और उपचार आदि का बिल क्यों नहीं देते हैं? भट्ट ने हंसते हुए कहा कि ऐसी जल्दी भी क्या है? आप अच्छे हो जाएं फिर आप जो कुछ देंगे मुझे स्वीकार होगा। एक दिन ठाकुर जी स्वर्ग सिधार गए। उनके अंतिम संस्कार के बाद भट्ट जी बिना किसी से कुछ कहे-सुने अपने घर लौट आए। बाद में राज्य की ओर से भट्ट जी को 2 हजार रुपए का एक चैक भेजा गया। भट्ट जी ने वह लौटाते हुए राज्य अधिकारी को लिखा, 'ठाकुर साहब थोड़े दिन के मेहमान हैं। वैद्य का धर्म निभाते हुए मैं उनकी सेवा करता रहा लेकिन जो रोगी मेरे हाथों से स्वस्थ नहीं होता मैं उसका पैसा नहीं लिया करता।' लेकिन धनवंतरि की इस पावन धरा पर आज कुछ ऐसे अस्पताल भी हैं जिनका हाथ मरीज की नब्ज पर और नजरें जेब पर टिकी रहती हैं।
भारतीय संस्कृति में चिकित्सा व शिक्षा को जनसेवा का साधन माना जाता रहा है। ईश्वर के बाद किसी न्यायाधीश के पास ही मौत देने का अधिकार है परंतु जीवन बचाने का दैवीय कार्य केवल चिकित्सक ही कर सकता है। दर्द के मारे राम-राम चिल्लाते मरीज के सामने जब चिकित्सक आता है तो वह मरीज ईश्वर को यह समझ कर पुकारना बंद कर देता है कि सफेद कपड़ों में हाथ में स्कैथोस्कोप लिए स्वयं ईश्वर उसके सम्मुख उपस्थित हो चुका है। अपनी संस्कृति जहां चिकित्सक को जीवन रक्षक ईश्वर का दर्जा देती है वही उसे जनकल्याण, रुग्णों की निस्वार्थ सेवा का दायित्व भी सौंपती है। ऋग्वेद चिकित्सक को आदेश देता है -

युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्णति।
अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति।।

अर्थात - हे अश्वनी कुमारो! आपके दिव्य रथ स्वास्थ्य-सेवा चक्र का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है। चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याणकारी होना चाहिये। उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समादान हेतु तत्पर। लेकिन हरियाणा के गुरुग्राम के अस्पताल फोर्टिस ने सात साल की एक डेंगू की मरीज बच्ची के इलाज का सोलह लाख रुपए का बिल उसके परिजनों को देने के बाद नहीं लगता कि आज का चिकित्सक गाय की भांति आप तृण और घासफूस खा कर भी समाज को अमृत तुल्य दूध दे रहा है अर्थात गाय की भांति सेवा कर रहा है। यह केवल गुरुग्राम की ही नहीं बल्कि पूरे देश की कहानी बन चुकी है। जब से साहूकारों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में पैर रखा या फिर यूं कह लें कि स्वास्थ्य सेवाओं का अंध निजीकरण हुआ मरीजों का शोषण तब से शुरु हुआ और आज यह अपने चरम पर पहुंच गया है। लचर कानूनी व्यवस्था, विज्ञापनों के लालची मीडिया, अस्पताल संचालकों की ऊंची पहुंच के चलते साधारण मरीज व उसके परिजन इन धनकुबेरों के आगे बेबस होने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते। वैसे खुशी की बात यह है कि फोर्टिस का उक्त मामला मीडिया की सक्रियता से ही प्रकाश में आया है परंतु इस तरह की घटनाएं आज सामान्य हो चुकी हैं जो सामने नहीं आ पाती। प्राईवेट अस्पतालों को राजनीतिकों, पूंजीपतियों और अन्य ताकतवर लोगों का संरक्षण होने से उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत किसी सामान्य नागरिक की कैसे हो सकती है। फोर्टिस अस्पताल के ताजा मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जरूर संज्ञान लिया है और उसने सभी प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र भेज कर अस्पतालों पर कड़ी नजर रखने के निर्देश दिए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की ओर से जारी पत्र में कहा गया है कि चिकित्सीय संस्थाओं द्वारा की जाने वाली गड़बडिय़ों से न केवल मरीज की स्थिति बल्कि स्वास्थ्य देखभाल और उपचार लागत में जवाबदेही को लेकर भी चिंताएं पैदा होती हैं। पत्र में क्लीनिकल संस्थापन (पंजीकरण और नियमन) अधिनियम, 2010 का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने को कहा गया है, लेकिन सवाल पैदा होता है कि सरकारें तभी ही क्यों सक्रिय होती हैं जब इस तरह की घटनाएं घट जाएं। अस्पतालों के नियंत्रण, इन पर नजर रखने की प्रणाली आखिर प्रभावशाली क्यों नहीं है?

दुखद तथ्य यह है कि इन अस्पतालों के खिलाफ शिकायतों की कोई प्रभावशाली और निष्पक्ष व्यवस्था नहीं है। ले-देकर पीडि़त व्यक्ति के पास उपभोक्ता फोरमों का सहारा होता है। इन फोरमों की हालत यह है कि वहां शिकायतों का निपटारा लंबे समय तक नहीं हो पाता। ज्यादातर फोरमों में सदस्यों की नियुक्ति भी समयानुसार नहीं होती। ये सारी परिस्थितियां अस्पतालों के पक्ष में जाती हैं, जिसका फायदा वे उठाते रहते हैं। ऐसे में कानूनों और नियमों का पालन कौन कराएगा। हजारों मामलों में इक्का-दुक्का लोग ही न्यायालय जाने की हिम्मत जुटा पाते हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, जिस तरह वे चिकित्सा-व्यवस्था को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ रही हैं और स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं, उसी का नतीजा है कि निजी अस्पताल बेलगाम होते जा रहे हैं। वे सोचते हैं कि सरकारें कुछ भी करें, मरीजों के पास उनकी तरफ रुख करनेके अलावा कोई चारा नहीं है।

दूसरी तरफ देखा जाए चिकित्सा शिक्षा के साथ-साथ समूची शिक्षा प्रणाली के महंगी होने के कारण समाजसेवा, जनकल्याण, सामाजिक जिम्मेवारी, लोकलाज, धर्म और ईमानदारी जैसे शब्द अपनी सार्थकता गंवा चुके हैं। जब कोई युवा पचास हजार का प्रोस्पेक्टस खरीद, करोड़ रूपये के करीब कैपिटेशन, लाखों की पाठ्यक्रम की व अन्य अनाप-शनाप फीसें भर कर डाक्टर की डिग्री हासिल करता है। इसके बाद करोड़ों खर्च कर फाइव स्टार होटलनुमा अस्पताल खोलता है और लाखों रूपये स्टाफ के वेतन पर खर्च करता है तो उससे इंसानीयत की उम्मीद करना ही बेमानी हो जाता है। वास्तव में व्यापारियों के हाथों में सिमटती जा रही शिक्षा पद्धति देश में डाक्टर के रूप में कसाई, कमीशनखोर इंजीनियर, भ्रष्ट नौकरशाह पैदा कर रही है। ऊपर से चिकित्सा के क्षेत्र में आए मुनाफाखोरों, राजनेताओं के गठजोड़ ने हालत को और भी गंभीर कर दिया है। इस सारे दुष्चक्र के बीच पिस रहा आम नागरिक है।

पिछले दिनों रिश्तेदार के देहांत पर उनके घर जाना हुआ तो वहां किसी ने बताया कि उन्होंने बाईपास सर्जरी करवाई। तीन साल हो गए कोई आराम नहीं आया, चौबीस घंटे सर्जरी का दर्द सहना पड़ता है और हर रोज मुट्ठी भर कर गोलियां खानी पड़ती हैं। ईलाज के चक्कर में सारे घर की आर्थिकता चौपट हो गई। कोई डाक्टर के पास जाने से अच्छा है लकड़ों में ही चला जाए। मेरा मानना है कि आज के चिकित्सक व चिकित्सा प्रणाली की बहुत बड़ी असफलता है यह विचार जब कोई मरीज डाक्टर की बजाय आराम के लिए मौत को गले लगाना बेहतर समझने लगे। यह भी ठीक है कि सभी डाक्टर एक जैसे नहीं है और आज भी परमार्थ की भावना का समूलनाश नहीं हुआ है। आवश्यकता है व्यवसायिकता व परमार्थ में संतुलन बैठाने की और कोई ऐसा मध्यमार्ग खोजने की जिससे डाक्टर का भरणपोषण भी सम्मानजनक हो और मरीज को चुभे भी नहीं।

       - राकेश सैन
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Thursday, 23 November 2017

लो अब 'मूडीज' का अर्थ भी 'मोदी' हो गया

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में सीधा सिद्धांत काम करता रहा है कि जो नमस्ते करे उसे बिस्कुल खिलाओ और कोई ऐसी बात करे जो उसे रुचिकर न हो तो उसे लांछित करो। अपने विरोधियों व आलोचकों का 'मोदी भक्त' कह कर उपहास उड़ाने वाली सोनिया गांधी की पार्टी ने 'भक्तों' में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी 'मूडीज' का नाम भी जोड़ दिया है। आर्थिक हालात में सुधार पर भारत की रेटिंग बढ़ाने के बाद कांग्रेस के लिए 'मूडीज' का अर्थ भी मोदी हो गया है। मूडीज द्वारा भारत की रेटिंग में सुधार का यह कदम विश्व बैंक द्वारा भारत को कारोबार सुगमता के मामले में 30 पायदान ऊपर उठाकर शीर्ष 100 देशों में शामिल करने के कुछ ही सप्ताह बाद आया है। रोचक बात है कि उक्त अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने 13 सालों बाद भारत को लेकर अपना मूंह खोला है और सभी जानते हैं कि उस समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ की ही सरकार सत्तारूढ़ थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व वित्तमंत्री अरुण जेतली के नेतृत्व में भारत को मिली इस आंशिक उपलब्धि से कांग्रेस तिलमिलाई हुई है, इसके प्रवक्ता इन रिपोर्टों को नकार रहे हैं। संयुक्त प्रगतिशील सरकार में वित्तमंत्री रह चुके पी.चिदंबरम का अर्थज्ञान ज्वार पर है जो हर समाचारपत्रों से लेकर चैनलों को यह समझाने में जुटे हैं कि देश के आर्थिक हालात अब भी बद से बदतर हैं।

विगत दिनों अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी 'मूडीज' ने भारत की रेटिंग एक पायदान ऊपर उठाते हुए 'बीएए-2' कर दी है। रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि भारत में लगातार आर्थिक और संस्थागत सुधारों से वृद्धि संभावनाएं बेहतर हुई हैं। इस पर कांग्रेस मूडीज और नरेंद्र मोदी सरकार दोनों पर हमलावर हो गई है। भारत की वित्तीय साख में सुधार को देश की जमीनी सच्चाई से दूर बताते हुए कांग्रेस ने कहा कि मोदी सरकार विदेशी रेटिंग एजेंसियों की रिपोर्ट की आड़ में देश का मूड नहीं समझ पा रही है। रिपोर्ट आते ही कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव शुक्ला ने संवाददाताओं से कहा कि देश में चुनावों से पहले किसी विदेशी एजेंसी की क्रेडिट रेटिंग जारी हो जाती है, लेकिन अब तक किसी भारतीय एजेंसी की कोई रेटिंग नहीं आई है जो देश की वास्तविक आर्थिक स्थिति को उजागर कर सके। अगर इन रेटिंग रिपोर्टों को सही मान भी लिया जाए तो आर्थिक विकास दर और सकल घरेलू उत्पाद में लगातार गिरावट क्यों आ रही है।

वैसे विधवा विलाप करने से पहले कांग्रेस को आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि उक्त अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां उसके नेतृत्व वाली  'मौनमोहन' सरकार के कार्यकाल के दौरान मौन क्यों रहीं जिसका नेतृत्व खुद विश्व स्तर के अर्थशास्त्री स. मनमोहन सिंह कर रहे थे। वाजपेयी सरकार के समय भी 'मूडीज' ने भारत को कबाड़ा अर्थव्यवस्था से क्रमोन्नत कर ऊपर का पायदान दिया था। इसका अर्थ है कि वाजपेयी सरकार को विरासत में कांग्रेस व कांग्रेस के प्रभाव वाले तरह-तरह के गठजोड़ों की सरकारों से कबाड़ अर्थव्यवस्था मिली परंतु उन्होंने परिश्रम व विद्वता से इसमें सुधार किया। इसके विपरीत दूसरी ओर, साल 2004 में बनी मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को सुधरती हुई अर्थव्यवस्था विरासत में मिली। अगले दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकारें रहीं परंतु अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इस काल में भारत की रेटिंग में कोई सुधार नहीं किया। दावा तो यह किया जा रहा है कि मनमोहन सरकार में सकल घरेलू उत्पादन की दर 7 प्रतिशत से अधिक थी परंतु फिर क्या कारण है कि 'मूडीज' मनमोहन की इस उपलब्धि पर मौन रही। अब केंद्र में राजग की सरकार है तो 'मूडीज' ने नोटबंदी, जीएसटी, मौद्रिक नीति की रूपरेखा, बैंकों की गैर-निष्पादित राशि का निपटान और अर्थव्यवस्था के ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों को औपचारिक तंत्र के दायरे में लाने के प्रयासों जैसे कड़े कदमों व इससे पैदा हुई सामयिक मंदी के बावजूद भारत की रेटिंग में सुधार कर दिया।

स्मरण रहे कि वाजपेयी व मोदी की सरकारों में मनमोहन सिंह, पी.चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी जैसे मंझे हुए अर्थशास्त्री भी नहीं रहे। खुद मोदी कह चुके हैं कि उन्होंने अपने जीवन में अभी तक विश्व की ईमारत भी नहीं देखी परंतु इसके बावजूद देश की आर्थिक छवि सुधर रही है तो इसका दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर स्वागत होना चाहिए न कि इतना अंध विरोध कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को भी 'भक्तों' की श्रेणी में डाल दिया जाए। सभी जानते हैं कि गुजरात चुनाव से पहले आई इस तरह की सकारात्मक रिपोर्टें कांग्रेस का जायका बिगाडऩे वाली हैं परंतु क्या चुनाव जीतना ही किसी राजनीतिक दल का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए, इसके बारे में नया सबक सीखने की बारी कांग्रेस की है। देश की इस उपलब्धि पर मनमोहन सिंह ने कहा है कि इस रेटिंग से यह साबित नहीं होता कि सबकुछ अच्छा हो गया है। ये वो ही मनमोहन हैं जो मौनी बाबा बन कर अपने दस सालों के कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचारियों, दलालों, घोटालेबाजों, कमीशनखोरों का 'मन' मोहते रहे हैं। वैश्विक संस्थाओं द्वारा रेटिंग बढ़ाने से दुनिया में भारत की साख बढ़ी है। इससे निवेशकों का विश्वास बढ़ेगा और भारतीय कंपनियों की देनदारी को लेकर विश्वसनीयता में भी इजाफा होगा। स्वभाविक है बढ़ा निवेश अंतरराष्ट्रीय व्यापार में संतुलन लाएगा, रुपया मजबूत होगा और नए रोजगार के अवसर पैदा होंगे। इन सभी तथ्यों का असर देश के सकल घरेलू उत्पादन पर पड़ेगा जो स्वभाविक रूप से बढ़ेगी। आखिर नई नौकरियों व जीडीपी को लेकर ही तो कांग्रेस की मोदी सरकार के प्रति नाराजगी है और जब उसकी यही परेशानी दूर हो रही है तो इस पर इतना क्रंदन ठीक नहीं। लोकतंत्र में विरोधी दलों का काम सरकार की कमियों को जनता के सामने लाना है परंतु केवल विरोध के लिए विरोध करना और कमियों के नाम पर असत्य बोल कर देश को बहकाना किसी भी तरीके से जनतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।
राकेश सैन
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Tuesday, 21 November 2017

ब्रिटेनमुक्त अंतरराष्ट्रीय न्यायालय, भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत

भारतीयों को असभ्य व पिछड़ा मान कर क्लबों व रेस्टहाऊसों में 'इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट एलाऊड' के बोर्ड चस्पा करने वाले अंग्रेजों के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) हेग में चले आरहे लगभग पौनी सदी के अधिपत्य को उन्हीं 'काले भारतीयों' ने तोड़ दिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक एक ब्रिटेन का एक न्यायाधीश हमेशा आईसीजे के 15 न्यायाधीशों में शामिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय अदालत को भारत ने ब्रिटेनमुक्त कर दिया और जज के चुनाव के दौरान ये बाजी ब्रिटेन से जीत ली है। इसे डोकलाम विवाद, ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद का मुद्दा शामिल करवाने जैसी भारत की एक और बड़ी कूटनीतिक जीत मानी जा रही है जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बधाई दी है।
आईसीजे से ब्रिटेन की अनुपस्थिति की अहमियत कोर्ट के साथ दुनिया में ब्रिटेन के प्रभुत्व को लेकर भी है। अदालत में हर तीन सालों में 15 में से पांच जजों के पद पर चुनाव होता है। ब्रिटेन के जज सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड को इस चुनाव में अगले नो सालों के कार्यकाल के लिए दोबारा निर्वाचित होने की उम्मीद थी। लेकिन इस बार यूएन में लेबनान के पूर्व राजदूत डॉ. नवाफ सलाम ने भी अपनी दावेदारी कर दी। ऐसे में अब पांच पदों के लिए पांच की जगह छह उम्मीदवार दावेदारी कर रहे थे। यूएन में लंबा समय बिताने वाले डॉ. सलाम ने अपने संबंधों के दम पर एशिया के लिए रिजर्व स्लॉट पर कब्जा जमा लिया, ऐसे में भारत के दलवीर भंडारी को उन सीटों पर अपनी दावेदारी करनी पड़ी जो सामान्यत: यूरोपीय जजों के लिए खाली रहती है। ये ब्रिटेन को चुनौती देना था, पांच में से चार सीटों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति होने के बाद दलवीर भंडारी और सर क्रिस्टोफर ग्रीनवुड आमने-सामने थे। भंडारी को सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा का समर्थन हासिल था तो वहीं ग्रीनवुड को यूएन सुरक्षा समिति से समर्थन मिल रहा था, परंतु रेस में जीतने वाले को दोनों संस्थाओं की जरूरत थी। ऐसे में कई बार मतदान होने के बाद भी कोई फैसला नहीं निकल सका। भारत सरकार ने इस मामले में भारी मेहनत की और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सहारा लिया।

ब्रिटेन सरकार भी कूटनीतिक जोर लगाने में पीछे नहीं रही और प्रयास किया गया कि यूएनए का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाए, जिसमें वीटो पावर पाले पांच देश भी शामिल हों जिसका एक सदस्य खुद ब्रिटेन भी है। यूएनए के कई देशों में सुरक्षा समिति, के पास बहुत ज़्यादा ताकत को लेकर नाराजगी चली आरही है। आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, मानवाधिकार सहित अनेक मुद्दों को लेकर यूएन महासभा के बहुत से देश सुरक्षा परिषद् के स्थाई देशों के दोहरे मापदंडों से खिझे हुए हैं और इसकी पूरी संभावना थी कि संयुक्त अधिवेशन में ब्रिटेन के हार का सामना करना पड़ता जो उसके लिए बहुत बड़ी नामोशी होनी थी। दूसरी ओर आर्थिक मंदी से गुजर रहे ब्रिटेन ने ऐन मौके पर यह प्रयास छोड़ दिया क्योंकि उसे भारत के साथ संघर्ष में आर्थिक नुक्सान दिख रहा था। किसी दूसरे दौर में ब्रिटेन ने अपनी ताकत के बल पर भारत का सामना किया होता तो उसकी चल सकती थी परंतु अब अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में आर्थिक, सामरिक व कूटनीतिक दृष्टि से भारत पहले जैसा नहीं रहा। इसी के चलते ब्रिटेन ने पीछे हटने का फैसला किया ताकि एक अल्पाविधी नुकसान के बदले में लंबे दौर के आर्थिक नुकसान को बचाया जा सके।

भारत की इस जीत को विकासशील देशों की विकसित देशों पर जीत के रूप में भी देखा जा रहा है। निश्चित रूप से अब विकासशील देशों को इस जीत के बाद भारत के रूप में नया नेतृत्व और उत्साह मिलेगा और वे विकसित देशों के सम्मुख अपनी बात को और भी प्रबलता से रख पाएंगे। देश के लिए गौरव की बात है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति व कूटनीति में भारत अमीर देशों को टक्कर देने की स्थिति में पहुंच गया है। अब देखना यह है कि राजनीतिक रूप से बुरी तरह बंटे खुद भारत के अंतर सरकार की इस जीत को कैसे लिया जाता है।

राकेश सैन
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वामपंथियों का नया देवता, लंपट खिलजी

अत्याचारी व धर्मांध मुगल शासक औरंगजेब को 'जिंदा पीर' व अकबर को 'दी ग्रेट अकबर' लिखते आरहे देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों व सेक्यूलरों ने लंपट अलाउद्दीन खिलजी के रूप में अपना नया देवता ढूंढ लिया है। लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती पर पैदा हुए विवाद में नया सुर मिलाते हुए देश के बुद्धिजीवियों ने कहना शुरु कर दिया है कि अगर पूरी फिल्म में किसी से अन्याय हुआ है तो वह है अलाउद्दीन खिलजी, जो वास्तव में महान शासक, किसान व मजदूर हितैषी, बाजार व्यवस्था को सुचारु बनाने वाला और भी न जाने कैसे-कैसे सुधार करने वाला था। 
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर नजफ हैदर दावा करते हैं कि बाजार से संबंधित अलाउद्दीन ख़िलजी की नीतियां बहुत मशहूर हैं। उन्होंने न सिर्फ बाजार को नियंत्रित किया था बल्कि चीजों के दाम भी तय कर दिए थे। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एप्लाइड सांइसेज में प्रकाशित इतिहास की प्रध्यापिका रुचि सोलंकी और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन के प्रध्यापक डॉक्टर मनोज कुमार शर्मा के एक लेख के मुताबिक अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दौर में हर चीज के दाम तय कर दिए थे। एक उच्च नस्ल का घोड़ा 120 टके में बिकता था, दुधारू भैंस 6 टके में और दुधारू गाय 4 टके में बिकती थी। गेंहूं, चावल, ज्वार आदि के दाम भी निश्चित कर दिए थे। तय दाम से अधिक पर बेचने पर सख्त कार्रवाई की जाती थी। उस जमाने के इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी (1285-1357) के मुताबिक खिलजी ने दिल्ली में बहुखंडीय बाजार संरचना स्थापित की थी जिसमें अलग-अलग चीजों के लिए अलग-अलग बाजार थे।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के अध्यक्ष और मध्यकालीन भारत के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर सैयद अली नदीम रजावी कहते हैं खिलजी वंश से पहले दिल्ली पर शासन करने वाले सुल्तान जिनमें इल्तुतमिश, बलबन और रजिया सुल्तान भी शामिल हैं अपनी सरकार में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं करते थे। सिर्फ तुर्कों को ही अहम पद दिए जाते थे, लेकिन जलालउद्दीन खिलजी ने हिंदुस्तानी लोगों को भी शासन में शामिल करने का सिलसिला शुरू हुआ। इसे खिलजी क्रांति भी कहा जाता है। प्रोफेसर रजावी कहते हैं, जिस गंगा-जमनी तहजीब के लिए हिंदुस्तान मशहूर है और जिसे बाद में अकबर ने आगे बढ़ाया उसकी शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी ने ही की। खिलजी के सबसे बड़े कामों में से एक कृषि सुधार थे जो उन्होंने किए थे। खिलजी ने दिल्ली सल्तनत के दायरे में आने वाले इलाके की जमीनों का सर्वेक्षण करवाकर उन्हें खलीसा व्यवस्था में लिया था। प्रोफेसर साहिब कृषि व्यवस्था में सुधार व भारत को मंगोलों के हमलों से रक्षा के लिए खिलजी के प्रति कृत-कृत भाव रखते हैं।

वामपंथी इतिहासकार गलत नहीं हैं, खिलजी ने बाजार व्यवस्था, कृषि व्यवस्था में सुधार के अनेकों काम किए परंतु इतिहासकार इस तथ्य को छिपाते हैं कि इन सुधारों का उद्देश्य जनकल्याण नहीं बल्कि भारत पर विजय प्राप्त करना था जो एक बड़ी विशाल सेना के बिना संभव नहीं था। खिलजी इतनी बड़ी सेना को पूरा वेतन दे नहीं पाता था और सैनिकों को लाभ देने के लिए उसने बाजार को नियंत्रित किया। इसमें उसकी महानता कम और तत्कालिक आवश्यकता अधिक झलकती है। रही बात जमीन सुधारों की तो इतिहास में शायद ही ऐसा कोई शासक रहा होगा जिसने उस समय आय के सबसे बड़े स्रोत कृषि व भू-व्यवस्था में सुधार के प्रयास न किए हों।
वास्तव में अलाउद्दीन खिलजी को क्रूरता और वासना का दूसरा नाम कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने उचित ही कहा है कि जिस तरह से आज के एकतरफा लंपट प्रेमी असफल होने पर युवतियों पर तेजाब फेंकते हैं लगभग उसी प्रवृति का मालिक था खिलजी। उसने चितौड़ की रानी पद्मावती के साथ लगभग वैसा ही व्यवहार किया परंतु सती पद्मिनी ने मौत को गले लगाया और उसकी वासना को स्वीकार नहीं किया। खिलजी ने अपने सगे चाचा, जो कि उसका ससुर भी था की पवित्र माह रमजान में निर्दयतापूर्ण हत्या कर दी। केवल इतना ही नहीं उसके कटे सर के साथ परेड भी की। वो हिन्दुओं का परम शत्रु था और गर्व से कहता था कि मैंने हिन्दुओं का बुरी तरह से मानमर्दन किया है और वो चूहों की भांति अपने बिलों में घुस गए हैं। दक्षिण में देवगिरि का यादव साम्राज्य हो या गुजरात का गुर्जर राज, उसके आक्रमणों में केवल अपना राज्य बढ़ाने की ही मंशा नहीं थी बल्कि उसने मंदिरों को पददलित किया, देव प्रतिमाओं को अपमानित किया; हजारों की संख्या में निरपराध हिन्दू नागरिकों का जनसंहार किया। युद्ध के नियमों को तो वैसे कभी किसी विदेशी हमलावरने नहीं माना, पर गुजरात के राजा कर्णदेव बघेला पर आक्रमण करते समय सारी मर्यादाएं भूलते हुए रात में आक्रमण किया। सोते हुए आम लोगों को क्रूरतापूर्वक मारा गया। इसी युद्ध में राजा कर्णदेव की सुन्दर पत्नी कमलादेवी भी भागते हुए पकड़ ली गयी जिसके साथ बाद में दुर्रव्यवहार किया गया। महमूद गजनवी द्वारा तोड़ा गया सोमनाथ मंदिर, जिसे हिन्दुओं ने फिर से उसी शान के साथ खड़ा कर लिया था, को फिर से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया और मंदिर की मूर्तियों को अलाउद्दीन ने अपने सिंहासन की सीढिय़ों में लगवा दिया।

हिन्दुओं को लेकर खिलजी की सोच का अंदाज केवल इस एक बात से लगाया जा सकता है कि उसके द्वारा नियुक्त प्रधान काजी का मानना था कि यदि कोई मुसलमान थूकने की इच्छा व्यक्त करता है तो हिन्दू को आगे बढ़कर अपना मुँह हाजिर करना चाहिए। खिलजी ने कमलादेवी की शह पर राजा कर्णदेव से हुयी उसकी बेटी देवलदेवी को भी देवगिरि को हराकर अपहृत करा लिया, बलात् धर्मपरिवर्तन कर उसका विवाह अपने बेटे खिज्रखां से कर दिया। वही खिज्रखां जिसके नाम पर, हजारों सखियों संग रानी पद्मिनी के जौहर के बाद, 30000 राजपूतों का कत्लेआम कर, चित्तौड़ के किले का नाम खिज्राबाद कर दिया था खिलजी ने। अपने सेनापति मलिक काफूर के साथ समलैंगिक संबंध रखने वाले व धर्म के नाम पर अत्याचार करने वाले किसी लंपट शासक को 'साम्राज्यवादी इतिहासकार' ही महान बता सकते हैं कोई ईमानदार इतिहासवेत्ता नहीं।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदां,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Monday, 20 November 2017

कांग्रेस को महंगी पड़ेगी राहुल की ताजपोशी

कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति की 20 नवंबर को संपन्न हुई बैठक में पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने संबंधी प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अनुमोदित कर दिया। पार्टी के संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया 19 दिसंबर को पूरी कर ली जाएगी जिसमें राहुल का अध्यक्ष बनना तय है। आंकड़ा शास्त्रियों के लिए राहुल के अध्यक्ष बनने की तारीख 19 दिसंबर, 2017 हो सकती है परंतु राजनीति के विद्यार्थी उनकी ताजपोशी की तारीख 19 जून, 1970 ही बताएंगे जिस दिन उनका जन्म हुआ। इस देश ने एक तरफ दुष्यंत व शकुंतला के पुत्र कुरुश्रेष्ठ चक्रवर्ती महाराजा भरत द्वारा अपने अयोग्य पुत्रों की बजाय भरद्वाज पुत्र भूमन्यू को राजपाट सौंपते देखा तो एक दौर ऐसा भी आया कि इसी धरती पर औरंगजेब ने सिंहासन के लिए अपने भाईयों की हत्या की व पिता को बंदी बनाया। राहुल की ताजपोशी की तैयारी में जुटी कांग्रेस भी आज भरतवंशियों की परंपरा को छोड़ मुगलिया संस्कृति का अनुसरन करती दिख रही है, जब सभी कसौटियों को ताक पर रख कर केवल गांधी वंशबेल के पुष्प होने की योग्यता रखने वाले नेता को गद्दी सौंपी जा रही है। देश की राजनीतिक परिस्थितियां बताती हैं कि कांग्रेस को राहुल की अध्यक्षता महंगी पड़ सकती हैं।

राहुल के अध्यक्ष बनने से पार्टी पर नेतृत्व की दृष्टि से वैसे भी कोई अंतर नहीं पडऩे वाला क्योंकि उपाध्यक्ष रहते हुए वे पिछले चार सालों से पार्टी के शीर्ष पर ही चले आरहे हैं। पार्टी के हर निर्णय पर अंतिम मुहर उन्हीं की लगती है। इसी पद के आवेश में वे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा पारित अध्यादेश की प्रति भरी कान्फ्रेंस में फाडऩे का पराक्रम कर चुके हैं। लगभग 132 साल पुराना देश का राजनीतिक दल आज सबसे खराब दौर से गुजर रहा है। राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी आम चुनाव को मिला कर 27 से अधिक चुनाव हार चुकी है। मध्य प्रदेश के प्रशांत नामक एक युवक ने कांग्रेस की इस उपलब्धि को 'गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड' में शामिल करने का आवेदन किया है। गुजरात में उनकी सभाओं में उमड़ रही भीड़ व सोशल मीडिया में राहुल की बढ़ी सक्रियता से अति उत्साह में आए कांग्रेसियों को चाहे लगे कि उनमें बदलाव आरहा है परंतु ऐसे मौके पर जब देश में 2019 के आम चुनाव दरवाजे पर आने वाले हैं पार्टी की कमान ऐसे नेता को नहीं सौंपी जानी चाहिए जिनको अपनी योग्यता अभी साबित करनी हो। देश के आम चुनाव इतने आम नहीं होंगे,देश की आंतरिक व बाह्य परिस्थितियों के चलते पूरी दुनिया की इन पर नजरें होंगी। ये चुनाव सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से अधिक उस कांग्रेस पार्टी की अग्निपरीक्षा लेंगे जो अपने इतिहास के न्यूनतम 46 सांसदों के साथ अभी भी भाजपा के बाद दूसरा बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा कर सकती है।

वर्तमान में कांग्रेस व एआईडीएमके के सांसद लगभग बराबर-बराबर हैं। दिल्ली, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना की विधानसभाएं कांग्रेस मुक्त हैं। देश का राजनीतिक भविष्य तय करने वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 7 विधायक हैं जो अपना दल जैसे स्थानीय राजनीतिक दल से भी 4 कम हैं। बिहार में लालू प्रसाद यादव की छाया से कांग्रेस बाहर निकलने की स्थिति में नहीं है। बंगाल में कांग्रेस टीएमसी, सीपीआई (एम) और भाजपा के बाद अंतिम स्थान पर पहुंच चुकी है। तामिलनाडू में डीएमके कांग्रेस पर पूरी तरह हावी है। स्वभाविक है कि कांग्रेस आम चुनाव अपने बलबूते पर नहीं लड़ पाएगी और उसे बिहार की तर्ज पर भाजपा के खिलाफ महागठजोड़ बनाना पड़ेगा। इस महागठजोड़ के संभावित सहयोगी होंगे मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, मायावती, लालू प्रसाद यादव, ममता बैनर्जी, शरद यादव, स्टालिन जैसे महत्वाकांक्षी क्षत्रप जिनको एकसाथ लाना, साथ-साथ रख पाना और इनका नेतृत्व करना कुशल से कुशल नेता के लिए भी टेढी खीर साबित हो सकता है। अपने को राजनीति का धुरंधर मानने वाले ये क्षेत्रीय नेता राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानें इस पर कम से कम आज तो विश्वास नहीं किया जा सकता और कांग्रेस किसी ओर को चेहरा बनाए वह उसे स्वीकार नहीं होगा। दूसरी ओर अपने सहयोगी दलों अकाली दल बादल, शिवसेना, जनता दल (यू) पर हावी भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नेता के सामने बिना कोई ठोस चेहरे के विपक्ष का चुनावी मैदान में उतरना लगभग टीम इंडिया और केन्या की टीम के बीच खेले जाने वाले ऐसे क्रिकेट मैच जैसा होगा जिसके परिणाम का अनुमान मैच की पहली बाल पर ही लगाया जा सकता है।

कांग्रेस हितैषी माने जाने वाली जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर जोया हसन ने अपने लेख में लिखा है कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी नेहरू-गांधी परिवार बन चुका है,जिसमें अब चुनाव जिताने का आकर्षण नहीं बचा। पार्टी जितना गांधी परिवार के निकट जाएगी उतना ही जनता और अंतत: सत्ता से दूर होती जाएगी। समय है कि कांग्रेस अपनी 132 वर्षीय एतिहासिक व 60 वर्षों के प्रशासनिक अनुभवों का दोहन करे और अपने भीतर छिपी प्रतिभाओं को सामने लाए और देश को एक ऐसा कुशल नेतृत्व प्रदान करे जो बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट कर न केवल उसका नेतृत्व कर सके बल्कि सत्तापक्ष को मजबूत चुनौती भी प्रदान कर सके। देश में लोकतंत्र की सफलता के लिए विपक्ष का मजबूत होना अति जरूरी है जिसकी सबसे बड़ी जिम्मेवारी वर्तमान में कांग्रेस पार्टी की है।
- राकेश सैन
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Sunday, 12 November 2017

खिचड़ी से बुद्धिजीवियों का पेटदर्द जारी

शुक्र करो केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर बादल ने स्पष्ट कर दिया कि खिचड़ी राष्ट्रीय आहार नहीं बनने जा रही है, अन्यथा कितने ही बुद्धिजीवियों ने एवार्ड लौटा देने थे और हजारों टन अखबारी कागज खिचड़ी निंदक चिंतन में रंगे जाते। राष्ट्रीय खाद्य मेले में ऐसी खिचड़ी पकी कि कईयों का अभी तक पेट दु:ख रहा है, विशेषकर अंग्रेजी मीडिया कब से नाक पर हाथ धरे हुए है, छि: यह भी कोई खाना है? खाओ तो बीफ खाओ, मटन बिरयानी जीमो और घासफूस ही खाते हो तो पिज्जा, समोसा,बालूस्याही गिट लो खिचड़ी खा कर क्यों देश के सेक्युलरिजम को खतरे में डाल रहे हो? कभी कहते हो हिंदी-कभी आपका वंदेमातरम् आजाता है तो कभी आपका योग, देश को आखिर चैन से बैठने दोगे कि नहीं? खिचड़ी किसी समय ऊखल-मूसल से पिटती थी आज उस पर कलम से तीर छोड़े जा रहे हैं व निरीह खाजे पर टीवी चैनल बरस रहे हैं।

कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर खबर उड़ी कि नरेंद्र मोदी सरकार 'नाचीज' खिचड़ी को 'राष्ट्रीय आहार' बनाने जा रही है। बस फिर क्या था, देखते देखते सोशल मीडिया पर कहीं गर्मागर्म बहस चल पड़ी, कहीं व्यंग्य-बाणों की बौछार हुई तो कहीं चुटीली फब्तियां कसी गईं। कहीं गुस्से तो कहीं मजाकिया अंदाज में सियासी बड़बोलेपन के साथ लोगों को अपनी तरफ खींचने का माहौल जारी हो गया जो अब तक बरकरार है। सरकार ने तो स्पष्टीकरण दे दिया परंतु खिचड़ी पर अभी तक विषवमन इस कदर हो रहा है कि साधारण व्यक्ति तो क्या मरीज भी सोचने लगा है कि इसको खाऊं या फेंक दूं। दुनिया में बड़े-बड़े घोटालों का पटाक्षेप करके वैश्विक पत्रकारिता का दम भरने वाली न्यूज एजेंसी बीबीसी लंदन ने इस पर राष्ट्रीय चर्चा करवाई। सोशल मीडिया के माध्यम से हुई चर्चा में हिस्सा लेते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने इसमें सियासी मकसद सूंघ लिया। उन्होंने इसे राष्ट्रगान से जुड़े विवाद के साथ जोड़ कर देखा। उमर अब्दुल्लाह ने अपने ट्वीट में लिखा कि जब भी कोई इसे (खिचड़ी) खाता नजर आए तो क्या हमें खड़ा होना होगा? क्या सिनेमा देखने से पहले इसे (खिचड़ी) खाना जरूरी है? क्या पसंद (खिचड़ी) न आए तो इस नापसंद को राष्ट्रविरोधी माना जाएगा? एक राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचारपत्र में नेशनल डिश करार देने के लिए मटन बिरयानी, मटन कोशा (बंगाली व्यंजन), पराठा-बीफ और मोमोज से लेकर यखनी पुलाव, ढोकला तथा आलू परांठा तक के नाम सुझाए गए। कहा गया कि 'एक डिश के रूप में खिचड़ी इतनी सीधी-सपाट है इसे भारत में जारी व्यंजन की परंपरा का नुमाइंदा नहीं बनाया जा सकता।' किसी एक व्यंजन को 'नेशनल डिश' बताकर शासकीय मशीनरी के जरिए उसका प्रचार-प्रसार करने से भारत की विविधता में समायी समृद्धि की हानि होती है। एक वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेश पंत ने लिखा बीजेपी ने पहले 'एक भाषा'(हिंदी) का प्रचार किया और अब एक 'डिश' का प्रचार कर रही है और ऐसा करके भारत की संस्कृतियों पर दबदबा कायम करना चाहती है, उसका इरादा भारत के विचार को 'उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू' परंपरा का पर्याय बनाने का है। दलित चिंतक शांतनु डेविड ने लेख में कहा है कि 'दरअसल खिचड़ी का एक रूप सामिष(मांसयुक्त) होता है। उत्तर भारत का अवधी खिचड़ा और दक्षिण भारत का हैदराबादी हलीम इसी श्रेणी में आते हैं। 

बुद्धिजीवी चाहे जिस तरह के मर्जी शब्दों की जुगाली करे परंतु साधारण भारतीय जानता है कि खिचड़ी ही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो केवल हिमालय से हिंद महासागर तक ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में थोड़े बहुत क्षेत्रीय बदलाव के साथ खाया जाता है। मकरसंक्रांति व पोंगल त्यौहार तो जुड़े ही खिचड़ी से हैं। खिचड़ी संस्कृत के खिच्चा शब्द से बना है जिसका अर्थ है दाल और चावल का मिश्रण। वैसे खिचड़ी में दाल-चावल के साथ-साथ सब्जियां, स्वाद अनुसार मसाले, घी, चीनी, दही, दूध कुछ भी मिलाया जा सकता है। यही हमारे राष्ट्रीय समाज का प्रतिनिधित्व भी करती है कि यहां हर तरह के मत, संप्रदाय, भाषा, प्रांत के लोग हैं परंतु सभी को मिला कर खिचड़ी संस्कृति का निर्माण होता है जिस पर राष्ट्रवाद का घी इसे पुष्ट करता है। खिचड़ी भारत का समानार्थी शब्द सा लगता है और विविधता में एकता का प्रतीक है। यह युगों से हमारे देश में प्रचलित है जिसका जिक्र सिकंदर सहित देश में समय-समय पर विदेशी हमलावरों के साथ विद्वानों के ग्रंथों में भी मिलता है। लेकिन कुछ लोगों विशेषकर वामपंथियों को चिढ़ है भारत के एक राष्ट्र के सिद्धांत से। वे कहते हैं कि भारत कई राष्ट्रीयताओं का मिश्रण है, यहां केवल अंग्रेज व मुगल ही बाहर से नहीं आए बल्कि आर्य भी उसी तरह विदेशी हैं। इसी कारण जब भी राष्ट्रीय एकता की बात चलती वामपंथी बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर निकल पड़ते हैं कलम-दवात व माइक लेकर। चिंता की बात तो यह है कि आज की युवा पीढ़ी भी राष्ट्रीयता के मर्म से अनभिज्ञ है। 1987 से 1997 के बीच पैदा लोगों के बीच राष्ट्रीय पहचान का इजहार करने वाली चीजें बहुत कम होती गई हैं। यह वर्ग खेल या फिर मनोरंजन की चीजों तक सिमट आया है, क्रिकेट पर जीत कोल्डड्रिंक्स की बोतल में आए उछाल की तरह देशभक्ति की भावना का ज्वार तो लाती है परंतु कोई खिलाड़ी अगले मैच में न चले तो यही राष्ट्रभक्ति लानत मलानत में बदल जाती है। देश में राष्ट्रीयता की भावनाएं क्षेत्रीय या सांस्कृतिक व पंथिक भावनाओं की तुलना में कमजोर भी हुई हैं। यही वजह है जो भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाला कोई प्रतीक पेश किया जाता है तो उसको लेकर इतना शोर-शराबा होता है, इतनी आवेग भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं।

 खिचड़ी न केवल स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है वहीं सुपाच्य व पौष्टिक भी। मरीजों, वृद्धों, बच्चों के लिए यह रामबाण दवा है तो गरिष्ठ पदार्थों से बनी खिचड़ी युवाओं के लिए शक्तिवद्र्धक। भारत में जहां कुपोषण की समस्या 21 वीं सदी में भी बनी हुई है वहां खिचड़ी जैसा सस्ता, सरल, सर्वसुलभ, सुरक्षित शाकाहारी खाद्य पदार्थ इस समस्या से काफी हद तक छुटकारा दिलवा सकता है। देश में आज जब फास्ट-फूड, जंक फूड, मांसाहार के खतरे व इससे पैदा होने वाली बीमारियां महामारी का रूप लेने लगी हैं तो नई नस्ल को बताना जरूरी हो गया है कि खाद्य पदार्थों की दृष्टि से भारत किसी से पीछे नहीं है। अगर किसी खाद्य पदार्थ के नाम से देश एकजुट होता है तो इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?

- राकेश सैन
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Friday, 10 November 2017

फिल्म पद्मावती, जलवों और जौहर में अंतर जरूरी

संजय लीला भंसाली की नई फिल्म पद्मावती की काफी चर्चा है। भंसाली हिंदी फिल्म जगत के बहुचर्चित व विख्यात निर्माता हैं। बाजीराव मस्तानी जैसी एतिहासिक फिल्मों के साथ-साथ उन्होंने अनेक ऐसी फिल्में बनाई हैं जो हिंदी फिल्म इतिहास गौरवशाली पन्ने हैं, लेकिन उनकी आने वाली फिल्म पद्मावती को लेकर जो कहने सुनने में मिल रहा है उस पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उन्हें जौहर व जलवों के बीच अंतर करना सीखना होगा। उनकी नई फिल्म में चितौडग़ढ़ की महारानी पद्मावती को लेकर न केवल राजपूत समाज बल्कि पूरा देश आशंकित है कि उनकी गरिमा को लेकर इस तरह के दृश्य फिल्म में फिल्माए गए हैं जो न तो इतिहास से मेल खाते और न ही महारानी के चरित्र से। अपने उच्च चरित्र, अस्मिता की रक्षा आदि गुणों के लिए 16000 महिलाओं के साथ जौहर करने वाली रानी पद्मावती को भारतीय समाज सीता, द्रौपदी, रानी अहिल्या, अनुसुया जैसी प्रात: वंदनीय महिलाओं की श्रेणी में रखता है और ऐसी महिला की शान के खिलाफ कुछ भी सुनने को कोई तैयार नहीं होगा जो इतिहास के भी खिलाफ हो। रानी पद्मावती का इतिहास केवल जौहर ही नहीं बल्कि गोरा-बादल के अदम्य साहस, देशभक्ति, स्वामी भक्ति का भी इतिहास है जो हर भारतीय की नसों में जोश बन कर दौड़ता है।

इतिहासकार बताते हैं कि रानी पदमिनी के पिता गंधर्वसेन और माता चंपावती थीं। गंधर्वसेन सिंहल प्रान्त के राजा थे।  पदमिनी बचपन से ही बहुत सुंदर थी और बड़ी होने पर उसके पिता ने उसका स्वयंवर आयोजित किया। राजा रावल रतन सिंह ने स्वयंवर जीत कर पदमिनी से विवाह कर लिया। राजा रावल रतन सिंह एक अच्छे शासक और पति होने के अलावा कला के संरक्षक भी थे। उनके दरबार में कई प्रतिभाशाली लोग थे जिनमे से राघव चेतन संगीतकार भी एक था। वह दुष्ट जादूगर भी था और जब उसने अपने काला जादू की कला को राजघराने पर ही अजमाना चाहा तो रतन सिंह ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। नाराज हो कर वह दिल्ली चला गया जहां उसने सुल्तान अलाउदीन खिलजी को राजा रतन सिंह के खिलाफ भड़काया और रानी पद्मावती की सुंदरता का बखान किया। पदमिनी की सुन्दरता का बखान किया जिसे सुनकर खिलजी की वासना जाग उठी। अपनी राजधानी पहुचने के तुरंत बात उसने अपनी सेना को चित्तौड़ पर आक्रमण करने को कहा क्योंकि उसका सपना उस सुन्दरी को अपने हरम में रखना था।

बैचैनी से चित्तौड़ पहुंचने के बाद अलाउदीन को किला भारी रक्षण में दिखा। वह रानी की एक झलक पाने के लिए सुल्तान बेताब हो गया और उसने राजा रतन सिंह को ये कहकर भेजा कि वो रानी पदमिनी को अपनी बहन समान मानता है और उससे मिलना चाहता है। सुल्तान की बात सुनते ही रतन सिंह ने उसके रोष से बचने और अपना राज्य बचाने के लिए उसकी बात से सहमत हो गया। रानी पदमिनी अलाउदीन को कांच में अपना चेहरा दिखाने के लिए राजी हो गयी। जब अलाउदीन को ये खबर पता चली कि रानी पदमिनी उससे मिलने को तैयार हो गयी है वो अपने चुनिन्दा योद्धाओं के साथ सावधानी से किले में प्रवेश कर गया। रानी पदमिनी के को कांच के प्रतिबिंब में जब अलाउदीन खिलजी ने देखा तो उसने सोच लिया कि रानी पदमिनी को अपनी बनाकर रहेगा। वापस अपने शिविर में लौटते वक्त अलाउदीन कुछ समय के लिए रतन सिंह के साथ चल रहा था। खिलजी ने मौका देखकर रतन सिंह को बंदी बना लिया और पदमिनी की मांग करने लगा। हालांकि कुछ विद्वान यह कहते हुए कांच में दर्शन दीदार के प्रसंग को गलत बताते हैं कि उस समय कांच का अविष्कार ही नहीं हुआ था।

राजपूत सेनापति गोरा और बादल ने अपने राजा को मुक्त करवाने के लिए खिलजी को संदेश भेजा कि अगली सुबह पदमिनी को सुल्तान को सौंप दिया जाएगा। भोर होते ही 150 पालकियां किले से खिलजी के शिविर की तरफ रवाना की। उन पालकियों में न ही उनकी रानी और न ही दासियां थी और अचानक से उसमे से पूरी तरह से सशस्त्र सैनिक निकले और रतन सिंह को छुड़ा लिया और खिलजी के अस्तबल से घोड़े चुराकर तेजी से घोड़ों पर पर किले की ओर भाग गये। गोरा इस मुठभेड़ में बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये जबकि बादल, रतन सिंह को सुरक्षित किले में पहुंचा दिया। जब सुल्तान को पता चला कि उसके योजना नाकाम हो गयी, सुल्तान ने गुस्से में आकर अपनी सेना को चित्तौड़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। किले की घेराबंदी के कारण खाद्य आपूर्ति धीरे धीरे समाप्त हो गयी। अंत में रतन सिंह ने द्वार खोलने का आदेश दिया और उसके सैनिको से लड़ते हुए रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हो गये। इस पर रानी पद्मावती ने 16000 रानियों, सखियों के साथ जौहर कर लिया। दुनिया के इतिहास में यह पहली व आखिरी घटना है जब महिलाओं ने अपनी आबरू बचाने के लिए इतना बड़ा बलिदान दिया हो। आज अभिव्यक्ति के नाम पर इस तरह की महान महिला को फिल्मी पर्दे पर नाचते हुए दिखाना या खिलजी की कल्पना का सहारा लेकर उसके साथ प्रेमप्रसंगों में लिप्त दिखाना एक आदर्श पर पूजनीय महिला का सरासर अपमान है। यह ठीक है कि बिना नाच गाने व केवल नीरस एतिहासिक घटना के आधार पर फिल्मों का निर्माण संभव नहीं है परंतु जौहर व जलवों में अंतर तो करना ही होगा।

- राकेश सैन
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Thursday, 9 November 2017

आईएसआई, आतंकी और गैंगस्टरों का नया गठजोड़



भारत में आतंकवाद फैलाने को लेकर पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी इंटर सर्विस इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। आईएसआई अब अपने प्रशिक्षित आतंकियों के जरिए नहीं बल्कि हमारे ही उन युवाओं के जरिए आतंक फैलाने के प्रयास में है जो किसी कारण अपराध की दुनिया में कदम रख चुके हैं। उनकी नजरें पंजाब में फैले लगभग 500 उन युवाओं पर है जो किसी न किसी रूप से राज्य में नए-नए पैदा हुए गैंगों से जुड़े हैं। इन युवाओं को लामबंद कर रहे हैं युरोपीय देशों में बैठे खालिस्तानी अलगाववादी जो अपराध में धर्म का छोंक लगा कर मामले की गंभीरता को बढ़ा रहे हैं। इस बात का पटाक्षेप किसी और ने नहीं बल्कि खुद राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किया है। आईएसआई की नई रणनीति उसके लिए ज्यादा कारगर, कम खर्चीली और बदनामी के खतरे से मुक्त साबित हो रही है। जल्द ही इस नई नीति की काट नहीं तलाशी गई तो आने वाला समय खतरनाक साबित हो सकता है और ऐसा समय आसकता है जब आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में दोनों ओर से मरने वाले भारतीय होंगे और लक्ष्य पूर्ति होगी पाकिस्तान की, वह भी बिना किसी बदनामी के भय के।
पंजाब में पिछले लगभग डेढ़-दो वर्षों से एक वर्ग के लोगों की हत्याएं जारी हैं। इस शृंखला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत सह-संघचालक ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा, संघ कार्यकर्ता रविंद्र गोसाईं, राष्ट्रीय सिख संगत के प्रदेश अध्यक्ष स. रुल्दा सिंह, कुछ स्थानीय हिंदू संगठनों के कार्यकर्ता अमित शर्मा, विपिन शर्मा, पादरी सुल्तान मसीह सहित लगभग एक दर्जन लोगों की हत्याएं की जा चुकी हैं। राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व पंजाब पुलिस के महानिदेशक सुरेश अरोड़ा ने इन हत्याओं का पटाक्षेप करते हुए स्वीकार किया कि राज्य में हुई इन लक्षित हत्याओं के पीछे पाक की आईएसआई का हाथ था। इंग्लैंड से आतंकियों ने भाड़े के हत्यारों के जरिए ये कत्ल करवाए। पुलिस ने इन मामलों में 4 लोगों को संलिप्त पाया है, जिनमें से एक पहले से ही केंद्रीय जेल नाभा में बंद है।  

पुलिस के महानिदेशक सुरेश अरोड़ा ने बताया कि इंग्लैंड से आए जिम्मी जट्ट उसके साथी जगतार सिंह जौहल उर्फ जग्गी ने लुधियाना के गैंगस्टर गुगनी मेहरबान से मिलकर आईएसआई के इशारे पर सभी हत्याएं करवाईं। आईएसआई ने आर्थिक मदद भी दी। इंग्लैंड से जिम्मी जट्ट ने जम्मू के रास्ते हथियार उपलब्ध करवाए और नाभा जेल में बंद गैंगस्टर गुगनी मेहरबान ने हत्यारे उपलब्ध कराए। पहली हत्या जगदीश गगनेजा की हुई। फिर हिंदू संगठन के नेता अमित शर्मा, खन्ना में दुर्गा दास गुप्ता, आरएसएस कार्यकर्ता रविंदर गोसाईं, पास्टर सुल्तान मसीह और डेरा प्रेमी बाप-बेटे को मारा गया। 11महीने पहले ही पुलिस को पता चल गया था ब्रिगेडियर गगनेजा की हत्या के पीछे जिम्मी का हाथ है, बस उसके भारत लौटने का था इंतजार। बरगाड़ी (जिला फरीदकोट) में गुरु ग्रंथ साहिब के बेअदगी कांड में सीबीआई के मुख्य गवाह गुरदेव सिंह की जब गांव बुर्ज जवाहरसिंहवाला में 13 जून 2016 को हत्या की गई तो इस मामले में जांच के लिए डीआईजी रणबीर सिंह खटड़ा के नेतृत्व में विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित किया गया। एसआईटी के हाथ जम्मू के गाड़ीगड़ निवासी त्रिलोक सिंह लाडी लगा। लाडी से जब पूछताछ हुई तो पहली बार इंगलैंड में बैठे जिम्मी जट्ट का नाम सामने आया, जिसके कहने पर लाडी ने पंजाब के दो भाड़े के हत्यारों को हथियार उपलब्ध करवाए थे। पुलिस के सामने गगनेजा हत्याकांड पूरी तरह साफ हो गया, मगर हत्या करवाने वाला जिम्मी इंगलैंड में बैठा था और हत्यारे अज्ञात थे। जिम्मी को काबू करना था, इसलिए पूरा मामला गुप्त रखा गया। इस बात से अनजान जिम्मी इसी महीने जब इंगलैंड से भारत वापस लौटा तो उसे इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे दिल्ली से काबू कर लिया गया। इसके बाद जगतार सिंह जग्गी निवासी इंग्लैंड को काबू किया गया है। इनसे पूछताछ के बाद नाभा जेल में बंद गैंगस्टर गुगनी मेहरबान का नाम सामने आया। 

राज्य में गिरफ्तारियों व नए-नए खुलासों का क्रम जारी है परंतु इन सभी घटनाओं का सार संक्षेप एक ही है कि विदेशों में बैठे खालिस्तानी आतंकी व आईएसआई मिल कर पंजाब के अपराधी तत्वों का प्रयोग अपने घृणित उद्देश्यों की खातिर करना चाहते हैं। पिछली सदी के अंत में पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद लगभग समाप्त होने के बावजूद आईएसआई अपने यहां शरण लिए बब्बर खालसा, खालिस्तानी लिब्रेशन फोर्स जैसे आतंकी संगठनों के सरगनाओं के माध्यम से भारत में आतंकवाद फैलाने के प्रयास करती रही है। समय-समय पर होने वाली गिरफ्तारियां साक्षी हैं कि खालिस्तानी संगठन आईएसआई व हाफिज सईद के भरी दबाव में हैं। 

दूसरी ओर युरोपीय देशों में खालिस्तानी तत्व वहां मिल रही आंशिक राजनीतिक सफलता से उत्साहित और वे पंजाब में पुराने दिन लौटाने के प्रयास में हैं। इसके लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया जा रहा है। भड़काऊ सामग्री से युवाओं के मनों में विष घोला जा रहा है। पुलिस की नजरें एक हजार से भी अधिक सोशल मीडिया एकाउंट्स पर है जिनकी जांच जारी है। आशंका है कि जानकारी छिपा कर गलत नामों से इन सोशल मीडिया एकाउंट्स को चलाया जा रहा है। 

राज्य में हालात को नियंत्रण से बाहर होने देने से रोकने के लिए सरकार महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ आर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट (मकोका) की तर्ज पर पंजाब कंट्रोल ऑफ आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट(पकोका) लाने की तैयारी में है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि मसांत तक नया कानून अस्तित्व में आजाएगा। यह बताना रोचक है कि विगत अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की सरकार ने भी पकोक का प्रस्ताव किया था परंतु उस समय कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर ने ही यह कह कर विरोध किया था कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। अगर उस समय राजनीति न की गई होती तो आज शायद हालात इतने खराब नहीं होते जितने कि अब दिखाई दे रहे हैं। चलो देर आए दुरुस्त आए परंतु राज्य में बढ़ रही हिंसा व आतंक की आहट से निपटने के लिए नया कानून अपरिहार्य ही लगता है और विधानसभा में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत होने से इसके लागू होने में कोई संदेह भी नहीं है।

देश का सीमांत राज्य हिंसा और आतंकवाद के चलते एक बार फिर चर्चा में है और पाकिस्तान इस चिंगारी को सुलगाने के प्रयास में है। यह घटनाएं बताती हैं कि आईएसआई ने आतंकियों को प्रशिक्षित करने की बजाय अपराधी तत्वों को अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बनाना शुरु कर दिया है। सुपारी देकर हत्याएं करवाई जा रही हैं जो पाकिस्तान के लिए अपने आतंकी भेजने से सस्ती व अंतरराष्ट्रीय समाज में बदनामी के भय से सुरक्षित भी है। हमारी सरकारों के साथ-साथ गुप्तचर एजेंसियों, राजनीतिक दलों व समाज के संबंधित घटकों को सतत् जागरुकता बरतनी होगी।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Wednesday, 8 November 2017

अमेरिका में हिंदुत्व को बदनाम करती पाठ्यपुस्तकें

Controvercial Picture in American Text books
Hindu Organisations Protesting in America

अमेरिका के विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्तकों की बानगी देखिए। एक चित्र में दिखाया जाता है इस्लाम के मक्का मदीना की भव्य ईमारत, मिस्र सभ्यता के लिए एक भव्य प्रतिमा, ईसाईयत के लिए भव्य प्राचीन ईमारत और पारसी धर्म के लिए एक हंसते हुए बच्चे के साथ ज्ञान की प्रतीक पुस्तक की। इसी के साथ दूसरी तस्वीर भी दिखती है, ऊपर लिखा है हिंदू और भारतीय सभ्यता और नीचे है गंदगी से सनी नालियों के आसपास बैठी गायें, गंदी बस्ती, गोबर के बट्ठल उठाए दो बच्चे और बंदरों के बीच एक श्रमिक और भी न जाने क्या-क्या ? केवल यही दो चित्र ही काफी है हालात ब्यान करने को कि किस तरह अमेरिका जैसे सभ्य समाज में जानबूझ कर हिंदुत्व व भारतीयता को जानबूझ कर बदनाम किया जा रहा है। इसके परिणाम घातक निकल रहे हैं, न केवल भारतीय बच्चों में अपने धर्म व देश के प्रति आत्मनिंदा व घृणा बढ़ रही है बल्कि दूसरे बच्चों में भारतीय बच्चों के प्रति नस्लीय हेय भावना। इसको बदलने की मांग को लेकर भारतीय समाज काफी समय से संघर्ष कर रहा है परंतु वहां पर वामपंथी, जिहादी, ईसाई मिशनरी, अलकायदावादी दलित संगठन, खालिस्तानी लॉबी इस दुषप्रचार को बनाए रखने का प्रयास कर रही है और संघर्ष छेड़े हुए है। दोनों पक्ष अपने-अपने प्रयासों के लिए संघर्षरत हैं परंतु संभावना है कि अमेरिकी सरकार अपने पाठ्यक्रमों की त्रुटि सुधारने जा रही है।


लगता है कि अमेरिका में हिंदू धर्म और समाज की दोषपूर्ण छवि दिखाने को लेकर छिड़ा एक दोतरफा आंदोलन अपने अंतिम दौर में पहुंच गया है। कैलिफोर्निया स्टेट बोर्ड ऑफ एजुकेशन स्कूलों के लिए अगले साल से नया पाठ्यक्रम लाने जा रहा है। इतिहास और सामाजिक विज्ञान के विषयों को लेकर हर 10 साल में बदलाव की यह प्रक्रिया होती है। नए पाठ्यक्रम में क्या नए बदलाव करने हैं, इसके लिए बोर्ड का इन्स्ट्रक्शनल क्वॉलिटी कमीशन सिफारिश करता है। पुराने पाठ्यक्रम में दक्षिण एशिया के इतिहास से संबंधित पुस्तकें भी हैं। इन पुस्तकों में हिंदू धर्म और हिंदू समाज को गलत, भ्रामक तरीके से दिखाए जाने को लेकर वहां के कुछ संगठनों ने 2005-06 से आंदोलन छेड़ा हुआ है। 'हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन', 'ओबेरॉय फाउंडेशन' और 'हिंदू एजुकेशन फ़ाउंडेशन' नाम के ये संगठन पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग कर रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि मौजूदा पाठ्यक्रम में हिंदू धर्म से संबंधित पुस्तकें पुरानी, अशुद्ध और घिसी-पिटी हैं जिनमें भारतीयों और हिंदुओं की छवि गलत तरीके से पेश की गई है। यह पुस्तकें 19वीं सदी के औपनिवेशिक दौर के भारत को चित्रित करती हैं। स्कूलों में दी जा रही गलत जानकारी के चलते भारतीय बच्चों से स्कूलों में गलत व्यवहार किया जाता है और उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन संगठनों ने एक ऑनलाइन याचिका दायर कर लोगों से समर्थन मांगा था। याचिका में कहा गया था, 'नए ड्राफ़्ट में संवेदनाहीन ढंग से हिंदू देवी-देवताओं को हास्यास्पद तरीके से दिखाया गया है जिससे उनका गलत चरित्र चित्रण हो रहा है। भारत की प्राचीन सभ्यता की उपेक्षा करने के लिए किताबों में आधुनिक दौर की उन तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है जिनमें झोपड़-पट्टियां और कचरा खाती गाय दिख रही हैं। वहीं, दूसरी प्राचीन संस्कृतियों और धर्मों के बारे में संवेदनशील, सकारात्मक और सौंदर्यपूर्ण ढंग से बताया जाता है।' इन संगठनों के कई सालों से चल रहे इस आंदोलन का प्रभाव यह हुआ कि पिछले साल कैलिफोर्निया एजुकेशन बोर्ड अपने नए पाठ्यक्रम में हिंदू धर्म से संबंधित विषय सूची में कुछ बदलाव करने को राजी हो गया। हालांकि संगठन के मुताबिक ये बदलाव नाकाफी हैं, लिहाजा उनका विरोध जारी है।

इस पूरे मामले में दूसरा पक्ष है वामपंथी विचार से प्रेरित साउथ एशियन हिस्ट्रीज फॉर ऑल (साहफा) नामक संगठन का। अध्यापकों, छात्रों और समुदायों के सदस्यों वाले इस संगठन में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के सभी धार्मिक समाजों के लोग शामिल हैं। ईश्वर को नहीं मानने वाले यानी नास्तिक भी इस संगठन का हिस्सा हैं। साहफा के मुताबिक हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे संगठनों के विरोध का एक प्रमुख कारण हिंदू धर्म में जातिवाद है। साहफा का यह भी कहना है कि हिंदू संगठन नए पाठ्यक्रम में धार्मिक एजेंडा चलाना चाह रहे हैं। इनमें 'पौराणिक सरस्वती नदी को सिंधु घाटी की सभ्यता का हिस्सा बताना, भारत में इस्लाम की शुरुआत इस उपमहाद्वीप पर (मुस्लिम शासकों की) जीत के रूप में दिखाना शामिल है। साहफा का दावा है कि हिंदू संगठन पाठ्यक्रम से उन शब्दों को हटवाना चाहते हैं जो भारत की जातिवादी व्यवस्था की तरफ ध्यान खींचते हैं। इनमें जातिवाद की उत्पत्ति के अलावा जाति के नाम पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ  संघर्ष और दलित शब्द हटाने जैसी मांगें शामिल हैं। 

अमेरिका में कैलिफोर्निया और टेक्सास के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबों के बाजार का खासा प्रभाव है। इन राज्यों का पाठ्यक्रम देश के बाकी राज्यों के लिए मानक तय करता है। यही वजह है कि साहफा और हिंदू संगठन अपनी-अपनी मांगों को लेकर सालों से प्रदर्शन कर रहे हैं। अब यह तय होने वाला है कि दोनों तरफ के इस संघर्ष का परिणाम क्या होगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Tuesday, 7 November 2017

काले धन पर प्रहार व न्यू इंडिया की ओर मजबूत कदम रहा नोटबंदी

नोटबंदी जैसा साहसिक फैसला काले धन की खतरनाक बीमारी से दूर करने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार के संकल्प को दर्शाता है। हम भारतीयों को, भ्रष्टाचार और काले धन के संबंध में चलता है के रवैये के साथ रहने के लिए मजबूर किया गया था और इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव विशेष रूप से मध्यम वर्ग और समाज के निचले तबकों को भुगतना पड़ा था। भ्रष्टाचार और काले धन के अभिशाप को जड़ से उखाड़ फेंकने का लंबे समय से हमारे समाज के बड़े हिस्से की यह एक हार्दिक इच्छा थी जो मई 2014 में संपन्न हुए आम चुनाव में लोगों के फैसले में प्रकट हुई थी।

मई 2014 में जिम्मेदारी ग्रहण करने के तुरंत बाद, इस सरकार ने काले धन पर एसआईटी का गठन करके काले धन के खतरे से निपटने की लोगों की इच्छा को पूरा करने का फैसला किया। इस सरकार ने काले धन के खिलाफ लड़ाई के उद्देश्य को पूरा करने के लिए विगत तीन वर्षों में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए और कानून के पूर्व प्रावधानों को अच्छी तरह से समझते हुए इसे नियोजित तरीके से लागू किया। 
आरबीआई ने अपने वार्षिक रिपोर्ट में सूचित किया है कि 30.6.2017 तक 15.28 लाख करोड़ रुपये के अनुमानित मूल्य के निर्दिष्ट बैंक नोट्स (एसबीएन) वापस जमा किए गए हैं। 8 नवंबर, 2016 को बकाया एसबीएन 15.44 लाख करोड़ रुपये के मूल्य के थे। 8 नवंबर, 2016 को डिमोनेटाईजेशन के वक्त कुल 17.77 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा चलन में थी। डिमोनेटाईजेशन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य भारत को एक कम नकदी वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील करना था और इस तरह से व्यवस्था में से काले धन के प्रवाह को भी कम करना था। आधार स्थितियों से परिसंचरण में मुद्रा में कमी दर्शाती है कि इस निर्दिष्ट उद्देश्य को पूरा करने में सफलता प्राप्त हुई है। सितंबर, 2017 को समाप्त हुए आधे साल के लिए प्रचलन में मुद्रा का प्रकाशित आंकड़ा 5.89 लाख करोड़ रुपये है। हमें व्यवस्था में से अतिरिक्त मुद्रा क्यों हटानी चाहिए? हमें नकद लेन-देन में कटौती क्यों करनी चाहिए? यह सामान्य ज्ञान है कि नकदी गुमनाम होती है। जब विमुद्रीकरण लागू किया गया था, तो इसका एक उद्देश्य अर्थव्यवस्था में नकदी जमा रखने वालों की पहचान भी करना था। औपचारिक बैंकिंग प्रणाली में 15.28 लाख करोड़ रुपये की वापसी के बाद अब अर्थव्यवस्था में नकदी रखने वाले लगभग सभी धारकों की पहचान हो गई है। अब कोई गुमनाम नहीं है। इस इनफ्लो से, विभिन्न अनुमानों के आधार पर संदिग्ध लेन-देन में शामिल होने वाली राशि 1.6 लाख करोड़ रुपये से लेकर 1.7 लाख करोड़ रुपये तक की है। अब यह कर प्रशासन और अन्य प्रवर्तन एजेंसियों के ऊपर है कि वे बड़े डाटा विश्लेषण का प्रयोग कर संदिग्ध लेन-देन पर शिकंजा कसें। इस दिशा में पहले ही कदम उठाये जाने शुरू हो गए हैं। 2016-17 के दौरान बैंकों द्वारा दर्ज संदेहास्पद ट्रांजेक्शन के रिपोर्टों की संख्या 2015-16 के 61,361 से बढ़कर 2016-17 में 3,61,214 हो गई है; वित्तीय संस्थाओं के लिए इसी अवधि के दौरान 40,333 से 94,836 की वृद्धि हुई है और सेबी के साथ पंजीकृत मध्यस्थों के लिए 4,579 से 16,953 की वृद्धि दर्ज की गई है। डाटा विश्लेषण के आधार पर, आयकर विभाग द्वारा 2015-16 की तुलना में जब्त नकदी 2016-17 में दोगुनी हो गई है; विभाग द्वारा खोज और जब्ती के दौरान 15,497 करोड़ की अघोषित आय की स्वीकारोक्ति हुई है जो 2015-16 के दौरान अघोषित आय की स्वीकारोक्ति से 38 प्रतिशत अधिक है; 2016-17 में सर्वेक्षणों के दौरान 13,716 करोड़ रुपये की अघोषित आय की पहचान की गई है जो 2015-16 की तुलना में 41 प्रतिशत अधिक है। अघोषित आय की स्वीकारोक्ति और अघोषित आय की पहचान को मिलाकर 9, 213 करोड़ रुपये की राशि प्राप्त हुई जो संदिग्ध ट्रांजेक्शन में शामिल राशि का लगभग 18त्न है। जनवरी 31, 2017 को शुरू हुए ऑपरेशन क्लीन मनी से इस प्रक्रिया ओ और गति मिलेगी। 
मुद्रा के साथ गुमनामी को हटाने की प्रक्रिया के फलस्वरूप उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए हैं। 56 लाख नए व्यक्तिगत करदाताओं ने 5 अगस्त, 2017 तक अपने रिटर्न दाखिल किये जो इस श्रेणी के लिए वापसी दाखिल करने की आखिरी तारीख थी; पिछले साल यह संख्या लगभग 22 लाख थी। गैर-कॉरपोरेट करदाताओं द्वारा 1 अप्रैल से 5 अगस्त 2017 में इसी अवधि के दौरान 2016 की तुलना में 34.25त्न ज्यादा स्वयं-मूल्यांकन कर (कर दाताओं द्वारा स्वैच्छिक भुगतान) का भुगतान किया गया। कर आधार में वृद्धि और अघोषित आय को औपचारिक अर्थव्यवस्था में वापस लाने के साथ-साथ चालू वित्त वर्ष के दौरान गैर-कॉर्पोरेट करदाताओं द्वारा अग्रिम कर के रूप में भुगतान की गई राशि भी 1 अप्रैल से 5 अगस्त के बीच 42त्न बढ़ी है। डिमोनेटाईजेशन अवधि के दौरान एकत्र किए गए आंकड़ों के चलते एकत्रित सुरागों से 2.97 लाख संदिग्ध शेल कंपनियों की पहचान की गई। इन कंपनियों को वैधानिक नोटिस जारी करने और कानून के तहत प्रक्रियाओं का अनुपालन करने के पश्चात् 2.24 लाख कंपनियों को रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज से डि-रजिस्टर किया गया है। इन बंद कंपनियों से बैंक खातों के संचालन को रोकने के लिए कानून के तहत और कार्रवाई भी की गई है। इनके बैंक खातों को फ्रीज करने और उनके निदेशकों को किसी भी कंपनी के बोर्ड में होने से रोकने के लिए भी कार्रवाई की जा रही है। ऐसी कंपनियों के बैंक खातों के शुरुआती विश्लेषण में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। 
2.97 लाख बंद कंपनियों में से 28,088 कम्पनी से संबद्ध 49,910 बैंक अकाउंट्स से पता चलता है कि इन कंपनियों ने 9 नवंबर 2016 से आरओसी द्वारा बंद किये जाने तक 10,200 करोड़ रुपये की डिपाजिट और निकासी की है। इनमें से कई कंपनियों के 100 से अधिक बैंक खाते हैं - एक कंपनी के पास तो 2,134 बैंक खाते हैं। इसके साथ ही, आयकर विभाग ने 1150 से अधिक शेल कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की है, जिसका उपयोग 22,000 से ज्यादा लाभार्थियों द्वारा 13,300 करोड़ रूपए से अधिक की राशि को व्हाईट करने के लिए एक टूल के तौर पर किया गया। डिमोनेटाईजेशन के बाद, सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों में एक ग्रेडेड सर्विलांस मेजऱ अपनाया है। इस पैमाने को एक्सचेंजों द्वारा 800 से अधिक प्रतिभूतियों में शुरू किया गया है। निष्क्रिय और निलंबित कंपनियां कई बार हेराफेरी करनेवालों के लिए एक पनाहगाह के रूप में उपयोग में आती है। ऐसी 450 कंपनियों को एक्सचेंज से डिलिस्ट किया गया गया है और इनके प्रमोटरों के अकाउंट्स को भी फ्रीज किया गया है, साथ ही उन्हें सूचीबद्ध कंपनियों के निदेशक होने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। भूतपूर्व क्षेत्रीय एक्सचेंजों में सूचीबद्ध लगभग 800 कंपनियों का पता नहीं चल पाया है और इन्हें गायब होने वाली कंपनियों के रूप में घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। डिमोनेटाईजेशन बचत के वित्तीयकरण में तेजी को प्रेरित करने के रूप में प्रतीत होता है। समानांतर रूप में, त्रस्ञ्ज को लागू किये जाने से अर्थव्यवस्था और अधिक फॉर्मलाईजेशन की ओर शिफ्ट हुई है। बदलावों का संकेत देने वाले कुछ पैरामीटर्स निम्नलिखित हैं
कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट ने अतिरिक्त वित्तीय बचत और ब्याज दर में कमी के संचरण का लाभ देना शुरू किया है। 2016-17 में 1.78 लाख करोड़ रुपये के कॉरपोरेट बॉण्ड मार्केट जारी हुए हैं, सालाना तौर पर 78,000 करो? रुपये की वृद्धि हुई है। पब्लिक और राइट्स इश्यूज के चलते प्राथमिक बाजार वृद्धि में आये उछाल से यह प्रवृत्ति और आगे बढ़ी है। 2015-16 के दौरान 24,054 करोड़ रुपये की इक्विटी जुटाने के लिए 87 पब्लिक और राइट्स इश्यूज थे जबकि 2017-18 के पहले 6 महीने में ही 28,319 करोड़ रुपये के 99 ऐसे इश्यूज मौजूद हैं। 2016-17 के दौरान म्युचुअल फंडों में शुद्ध निवेश 2015-16 की तुलना में 155 प्रतिशत बढ़ कर 3.43 लाख करोड़ तक पहुंच गया, नवंबर 2016 से जून 2017 के दौरान म्यूचुअल फंडों में शुद्ध निवेश 1.7 लाख करोड़ रुपये था जो कि इससे पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान 9,160 करोड़ रुपये था।
लाइफ इंश्योरेंस कंपनियों द्वारा प्रीमियम कलेक्ट करने में नवंबर 2016 में दुगुनी वृद्धि हुई है, जनवरी 2017 के दौरान संचयी संग्रह में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई। प्रीमियम कलेक्शन में सितम्बर 2017 में इसी अवधि की तुलना में 21त्न की ग्रोथ देखने को मिली है। कम नकदी अर्थव्यवस्था में बदलाव के बल पर भारत ने 2016-17 के दौरान डिजिटल भुगतान में बड़ी छलांग लगाई है। करीब 3.3 लाख करोड़ रुपये के 110 करोड़ ट्रांजेक्शन हुए, क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड के जरिये 3.2 लाख करोड़ रुपये के और 240 करोड़ ट्रांजेक्शन किये गए। 2015-16 में डेबिट और क्रेडिट कार्ड से ट्रांजेक्शन का मूल्य क्रमश: 1.6 लाख करोड़ रुपये और 2.4 लाख करोड़ रुपये थे। प्री-पेड इंस्ट्रूमेंट्स (पीपीआई) के साथ लेनदेन का कुल मूल्य 2015-16 में 48,800 करोड़ रुपये से 2016-17 में बढ़ कर 83,800 करोड़ रुपये हो गया। पीपीआई के माध्यम से लेन-देन लगभग 75 करोड़ से बढ़कर 196 करोड़ हो गया है। 2016-17 के दौरान, नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड्स ट्रांसफर (एनईएफटी) के माध्यम से 120 लाख करोड़ रुपये के 160 करोड़ ट्रांजेक्शन हुए जबकि पिछले वर्ष 83 लाख करोड़ रुपये के लगभग 130 करोड़ के ट्रांजेक्शन हुए थे।
कश्मीर में विरोध प्रदर्शन एवं पत्थरबाजी की घटनाओं और एलडब्ल्यूई प्रभावित जिलों में नक्सल गतिविधियों में कमी को भी डिमोनेटाईजेशन के प्रभावों के तौर पर गिना जा सकता है क्योंकि शरारती तत्वों के पास नकदी की कमी आई है। नकली भारतीय मुद्रा नोट (एफआईसीएन) तक उनकी पहुंच भी प्रतिबंधित हुई है। 2016-17 के दौरान, 1000 रुपये के एफआईसीएन का पता लगाने के लिए विमुद्रीकरण 1.43 लाख से 2.56 लाख नोटों की संख्या तक पहुँच गया। रिज़र्व बैंक की मुद्रा सत्यापन और प्रसंस्करण प्रणाली में, 2015-16 के दौरान प्रत्येक मिलियन नोट की प्रोसेसिंग में 500 रुपये के एफआईसीएन के 2.4 और 1000 रुपये के एफआईसीएन के 5.8 नोट थे जो डिमोनेटाईजेशन अवधि के बाद बढ़कर क्रमश: 5.5 और 12.4 तक पहुँच गए जो लगभग दुगुना है। समग्र विश्लेषण में, यह कहना गलत नहीं होगा कि देश बहुत साफ सुथरी, पारदर्शी और ईमानदार वित्तीय व्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ा है। 


- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
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कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...