Sunday, 29 April 2018

नक्सलवाद की अंतिम सांसें

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की आर्थिक नाकाबंदी व सुरक्षा बलों की सख्ती से कश्मीर के बाद अब नक्सलवाद को लेकर आंतरिक सुरक्षा को लेकर अच्छी खबर सुनने को मिल रही है कि कई दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में कत्लोगारत मचा रहा लाल आतंकवाद अब अंतिम सांसें गिन रहा है। साल 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स. मनमोहन सिंह ने इसे देश की सुरक्षा के लिए सबसे अधिक खतरनाक बताया था परंतु इस दशक का अंत आते-आते यह समस्या अब समाप्त होने को है। देश में पहले खालिस्तानी आतंकवाद के बाद यह दूसरी दहशतगर्दी की समस्या होगी जिसको निपटने में हम सफल होंगे। लाल आतंकवाद अंतिम सलाम कर रहा है परंतु अभी पिंडदान का समय नहीं आया है। याद रहे कि नक्सलवादी पलटवार में सिद्धहस्त हैं, इसलिए सावधान रहने व लड़ाई को तब तक जारी रखने की आवश्यकता है जब तक इसकी सांसें रुक नहीं जाती।

नक्सलवाद उस वामपंथी हिंसक आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से था इसलिए इसे मोआवाद भी कहा जाता है। इनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन लाल आतंकियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। सामाजिक जागृति के लिए शुरु हु्ए इस आंदोलन पर कुछ सालों के बाद राजनीति का वर्चस्व बढऩे लगा और आंदोलन जल्द ही अपने मुद्दों और रास्तों से भटक गया। बिहार में इसने जातिवादी रूप ले लिया। 1972 में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु माजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और कारावास के दौरान ही उसकी मौत हो गई। कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर 23 मार्च, 2010 को आत्महत्या कर ली। गरीबों, वनवासियों व गिरीवासियों के अधिकारों के नाम पर अस्तित्व में आए नक्सलवादी या माओवादी आजकल हत्या, फिरौती, रंगदारी, लेवी वसूली, सामुहिक दुष्कर्म, नक्सली शिविरों में बच्चियों के यौन शोषण, विकास में बाधक, गरीबों का शोषण करने के लिए कुख्यात हैं।

आज से दस-बारह साल पहले देश के 12 राज्यों के 165 जिले इस आतंकवाद की चपेट में आगए थे। यह समय था यूपीए सरकार के कार्यकाल का जिसमें वामपंथी दल कांग्रेस के साथ मिल कर केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे थे। चाहे मुख्यधारा के वाम नेता इसे स्वीकार नहीं करते परंतु वामपंथी दलों के प्रभाव में नक्सलवाद को फलने-फूले का खूब मौका मिला और इनके खिलाफ कार्रवाईयों में ढिलाई आने लगी। यूपीए सरकार ने इनके खिलाफ वायु सेना के प्रयोग का प्रस्ताव रखा तो वामपंथियों ने इसका विरोध किया। कहने को तो नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय व राज्य के सुरक्षा बलों को भेजा गया परंतु साधनों के अभाव और राजनीतिक इच्छा शक्ति कमजोर होने के चलते सुरक्षा बल कुछ अधिक नहीं कर पा रहे थे। यही कारण था कि नक्सली हमलों में अधिकतर नुक्सान सुरक्षा बलों का ही होता रहा। वर्तमान सरकार ने इस समस्या को गंभीरता से लिया। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का स्पष्ट आदेश था कि गोरिल्लाओं के साथ गोरिल्ला की तरह लड़ा जाए।  रोचक बात यह है कि नक्सलवाद को खत्म करने में सबसे अधिक सहयोग मनरेगा योजना ने दिया। इसे नक्सल प्रभावित इलाकों में प्रभावी ढंग से लागू करने का लाभ यह मिला कि स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने लगा और वे नक्सलवाद से दूर होने लगे। छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने गरीबों के लिए सस्ता अनाज योजना शुरू की जो घर-घर अनाज पहुंचाने लगी। ग्रेहाऊंड व कोबरा जैसे सुरक्षा बल तैयार किए गए और राज्य पुलिस प्रशासन को चुस्त दुरुस्त किया गया। पहले सुरक्षा बलों की कार्रवाई केवल गश्त तक सीमित थी और वे आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करके वापिस कैंपों में पहुंच जाते। इससे नक्सलियों को फिर से खोई हुई जमीन प्राप्त करने व वहां शुरू किए जाने वाले विकास कार्यों को ध्वस्त करने का मौका मिल जाता।

वर्तमान सरकार ने सत्ता में आने के बाद रणनीति बदली। अब जिन इलाकों को सुरक्षा बल मुक्त करवाते वे वहीं टिक जाते और वहीं नया कैंप बनाने लगे। इससे स्थानीय लोगों में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा और सरकार की विकास संबंधी योजनाएं उन तक पहुंचनी शुरू हो गईं। सुरक्षा बलों को आधुनिक हथियारों के साथ-साथ नवीनतम तकनोलोजी से लैस किया गया। इससे सुरक्षा कर्मी अपनी बैरकों में बैठे-बैठे पूरे इलाके की निगरानी करने लगे। नक्सली इलाकों में विकास कार्यों को गति दी गई। एनआईए ने आर्थिक नाकाबंदी कर नक्सलियों के धन के स्रोतों पर लगाम लगाई और नोटबंदी ने नक्सलियों की आर्थिक तौर पर कमर तोड़ दी। सबसे अधिक प्रभाव देश-दुनिया से वामपंथी विचारधारा के लगभग लुप्तप्राय: होने का पड़ा और युवाओं का इससे मोहभंग होने लगा। आज हालात यह है कि बहुत कम युवा वामपंथी विचारधारा ग्रहण करते हैं। जेएनयू में जिस तरह से वामपंथी दलों से जुड़े विद्यार्थियों ने देश विरोधी नारेबाजी की उसका प्रभाव भी नक्सलवाद के वैचारिक खात्मे के रूप में देखने को मिला। कुल मिला कर सभी प्रयासों का परिणाम यह निकल कर सामने आया कि 165 में से केवल 30 के करीब जिले ही अब इस समस्या से ग्रसित हैं। हाल ही में नक्ल के गढ़ गढ़चिरौली, बस्तर, सुकमा में नक्सलियों का सफाया किया गया और थोक भाव में नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है उससे आशा बंधने लगी है कि शीघ्र ही देश इस समस्या से निजात पा लेगा।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Tuesday, 24 April 2018

अयोध्या फैसले से भयभीत शिवभक्त राहुल?

गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुर्जेवाला ने दावा किया था कि राहुल गांधी केवल हिंदू ही नहीं बल्कि जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त हैं। राहुल की शिवभक्ति व हिंदू होने पर किसी को एतराज क्यंूकर हो सकता है, परंतु कांग्रेस की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति ताजा कशमकश बताती है कि शायद शिवजी की यह बारात अयोध्या केस पर फैसले की आशंका से भयाक्रांत है। पार्टी को लगता है कि इस मामले में जो भी फैसला आए लाभ अंतत: भाजपा को मिलने वाला है। यही कारण है कि राम मंदिर केस की सुनवाई कर रही मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायाधीश एसए नजीब की पीठ के मुखिया को निरंतर निशाना बनाया जा रहा है ताकि मामले को लटकाया जाए।

उक्त आशंका निराधार नहीं, बल्कि पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम की कडिय़ां जोड़ी जाएं तो लगभग साफ ही हो जाता है कि कांग्रेस नहीं चाहती कि अयोध्या मामले पर फैसला जल्द हो और कम से कम साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले तो कतई नहीं। मुख्य न्यायाधीश इस साल 2 अक्तूबर को सेवानिवृत हो जाएंगे। चर्चा है कि वे जाने से पहले इस मसले पर कोई फैसला कर लेना चाहेंगे। आशंकित कांग्रेस मानती है कि राम मंदिर के पक्ष में फैसला आया तो दिसंबर 2018 में तीन बड़े राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा व अगले ही साल होने वाले आम चुनावों में भाजपा को इसका लाभ मिलेगा। अगर अदालत वहां एक मंदिर और एक मस्जिद दोनों बनाने का आदेश दे तो भी इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा और राम मंदिर बनाने के खिलाफ आदेश आया या इसको टाल दिया गया तो हिंदुओं के अंदर गुस्सा काफी बढ़ जाएगा और अंतत: इसका लाभ भी भाजपा ही उठाएगी। यानि कांग्रेस के आगे कुआं और पीछे खाई वाले हालात पैदा हो सकते हैं। शायद यही कारण है कि न्यायाधीश दीपक मिश्रा शिवभक्त कागं्रेसियों के निशाने पर हैं।

यह न्यायाधीश मिश्रा को घेरने का ही प्रयास माना जा रहा है कि कुछ अस्पष्ट सी मांगों को लेकर चार न्यायाधीश इतिहास में पहली बार प्रेस के सामने आए और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दी। इन न्यायाधीशों ने न्यायाधीश लोया की मौत की जांच का काम एक कनिष्ठ न्यायाधीश को सौंपने व रोस्टर का मुद्दा उठाया, लेकिन वह ये भूल गए कि जब सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीश बराबर हैं तो भला किसी कनिष्ठ न्यायाधीश को कोई मामला क्यों नहीं सौंपा जा सकता। जहां तक रोस्टर का प्रश्न है वह सर्वविदित है कि मुख्य न्यायाधीश ही इसके अध्यक्ष हैं। न्यायाधीश के इन मुद्दों को कांग्रेस पार्टी ने जोर शोर से उठाया और सर्वोच्च न्यायालय व सरकार के बीच सांठगांठ होने की भावभंगिमा वाले ब्यान जारी किए गए। अभी कुछ दिन पहले ही न्यायाधीश लोया की मौत संबंधी मामले की याचिकाएं खारिज करने के तुरंत बाद कांग्रेस जिस तरीके से अधकचरे आरोपों के आधार पर न्यायमूर्ति मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया के साथ सामने आई उससे साफ है कि पार्टी की निगाहें कहीं व निशाना कुछ और है। उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू द्वारा महाभियोग का नोटिस खारिज किए जाने के बाद कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि अभी उनके सामने अदालत का विकल्प खुला है। यह वही कपिल सिब्बल हैं जो न्यायालय में पेश हो कर सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि अयोध्या मामले पर फैसला आम चुनावों तक रोका जाए। सनद रहे कि यह वैधानिक प्रक्रिया है कि अगर उपराष्ट्रपति किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की सुनवाई की अर्जी स्वीकार कर लेता है या अदालत इस तरह के आवेदन को विचारार्थ स्वीकार कर लेती है तो संबंधित न्यायाधीश किसी केस की सुनवाई तब तक नहीं करता जब तक महाभियोग की प्रक्रिया संपन्न या निरस्त नहीं हो जाती। राममंदिर मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश मिश्रा के खिलाफ महाभियोग को इसी अभियान से जोड़ा जा रहा है अन्यथा क्या कारण है कि कांग्रेस पार्टी यह जानते हुए भी कि सदन में उसके पास इतने सांसद नहीं है कि वह महाभियोग पास करवा सके, तो भी वह तमाम बदनामी झेलने के बावजूद अपनी जिद्द पर अड़ी है।
माना कि न्यायपालिका भी लोकतंत्र के अन्य दो स्तंभों विधानपालिका व कार्यपालिका में आई विसंगतियों से निरापद नहीं है, परंतु फिर भी जनसाधारण में अदालतों के प्रति आज भी विश्वास की भावना है। राजनीतिक मंचों व मीडिया चर्चाओं में न्यायापालिका के पक्ष या विपक्ष में दी जाने वाली दलीलों से आम आदमी का इसके प्रति विश्वास डोलना स्वभाविक है। असुखद बात यह भी है कि अदालतें कानून से बंधी होने के कारण सार्वजनिक रूप से अपने ऊपर लगने वाले आरोपों पर ब्यानबाजी भी नहीं कर सकतीं। लोकतंत्र केवल कानूनी दस्तावेज नहीं बल्कि स्वस्थ परंपराओं, लोकलाज और मर्यादाओं से चलने वाली प्रणाली है। ब्रिटेन का संविधान अलिखित है। कुछ ऐतिहासिक चार्टर अधिनियम हैं जिनमें ब्रिटिश संवैधानिक व्यवस्था के मूल सिद्धांत हैं जैसे मेग्नाकार्टा 1215, पिटिशन क्रमाँक राइट्स (1628),अधिकार बिल (1689) 1832, 1867 और 1884 के सुधार कानून, (1679) बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, जन प्रतिनिधित्व कानून (1918), समान मताधिकार कानून (1928) वेस्टमिनिस्टर अधिनियम 1931 और 1911 व 1949 के संसदीय कानून आदि और इसी  के आधार पर वहां की शासन प्रणाली चलती है। हम पश्चिम के लोकतंत्र को आदर्श मानते हैं जहां लोकमर्यादाओं, सामाजिक परंपराओं को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है परंतु आज हमारे यहां देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर देश के संवैधानिक पदों जिनमें रिजर्व बैंक आफ इंडिया, नियंत्रक एवं महाभिलेखागार, चुनाव आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, सदन और यहां तक कि न्यायालय का अवमूल्यन करती दिख रही है। न्यायाधीश लोया के मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने ठीक ही कहा है कि राजनेता अपनी लड़ाई अपने मंच पर ही लड़ें, अदालतों को इसका मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Thursday, 19 April 2018

पब्लिक या पॉलिटीकल इंटरेस्ट लिटीगेशन

लश्कर-ए-तयबा के आतंकी सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ केस की सुनवाई कर रहे केंद्रीय जांच ब्यूरो के न्यायाधीश बीएच लोया की मौत पर जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो तल्ख टिप्पणी की है उससे पीआईएल का अर्थ पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशन के साथ-साथ पॉलिटीकल इंटरेस्ट लिटीगेशन भी किया जाने लगा है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने तहसीन पूनावाला व चार अन्यों की याचिकाएं खारिज करते हुए जो टिप्पणीयां की हैं व भारतीय न्यायप्रणाली के इतिहास में अभूतपूर्व हैं। जैसे न्यायालय ने कहा कि याचिकाएं राजनीतिक लाभ के लिए जनहित का मुखौटा बनाकर दायर की गईं, इनका उद्देश्य न्यायिक अधिकारियों व बांबे हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को बदनाम करना था, वकीलों को न्यायालय की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए, अदालत राजनीतिक और निजी वैमनस्य निकालने की जगह नहीं, निजी हित साधने और प्रचार पाने के लिए जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग हो रहा है इत्यादि। बताना यथोचित होगा कि इन याचिकाओं में जज लोया की मौत की जांच की मांग की गई थी।

आओ जानें राजनीतिक मछली पकडऩे वाले इस कांटे, कांटे पर लगे आटे, मछलीमार और मछली के बारे में। कहानी का सूत्रधार है कुख्यात आतंकी सोहराबुद्दीन, जो मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के झिरन्या गाँव का रहने वाला एक बदमाश था। गुजरात पुलिस ने 26 नवंबर, 2005 को उसे मुठभेड़ में मार गिराया। उसके साथ उसकी पत्नी कौसर बी को भी पुलिस ने मुठभेड़ में मार दिया। एक साल बाद 26 दिसंबर 2006 को सोहराबुद्दीन के साथी तुलसीराम प्रजापति को भी एक मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने मार गिराया। सोहराबुद्दीन पर हथियारों की तस्करी, गुजरात व राजस्थान के संगमरमर व्यापारियों से हफ्ता वसूली, दाऊद इब्राहिम से जुड़े होने, लश्कर व आईएसआई से संबंध के आरोप थे। निष्पक्ष लोगों की राय थी कि अगर इन आतंकियों को न मारा जाता तो गुजरात दूसरा कश्मीर बन जाता, लेकिन देश का दुर्भाग्य देखें कि तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार व अभियानवादी शक्तियों द्वारा इतने खुंखार आतंकी को मारने वाले गुजरात पुलिस के डीआईजी डीजी वंजारा को अपराधियों की तरह पेश किया जाने लगा और वंजारा को कई साल जेल में बिताने पड़े। 8 अप्रैल, 2016 को भारतीय न्याय व्यवस्था ने डीजी वंजारा को एनकाउंटर केस से बरी कर दिया। अपने शासन वाले महाराष्ट्र के थाने में सोहराबुद्दीन शेख के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होने के बावजूद कांग्रेस सीबीआई के जरिए सोहराबुद्दीन एनकाउंटर को फर्जी साबित करने में लगी रही। इसी केस में जुलाई, 2010 में गुजरात के मुख्यमंत्री व तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद करीबी व तत्कालीन गृह मंत्री व वर्तमान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को सीबीआई ने गिरफ्तार किया। यही नहीं, राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया से भी पूछताछ हुई थी। इसी केस की जांच कर रहे मुंबई में विशेष सीबीआई न्यायाधीश बीएच लोया की नागपुर में दिल का दौरा पडऩे से एक दिसंबर 2014 को मौत हो गई थी। वह एक सहयोगी के यहां शादी में शामिल होने नागपुर गए थे।

इस बीच जज लोया की मौत पर एक पत्रिका ने रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उनके परिजनों ने उनकी मृत्यु की संदेहास्पद परिस्थितियों पर सवाल उठाने, साथ ही उन्हें सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह के पक्ष में फैसला देने के लिए 100 करोड़ रुपये की रिश्वत देने के प्रस्ताव की बात भी कहने का दावा किया गया। इस रिपोर्ट में न्यायाधीश लोया की मौत के समय, सिर पर चोट का निशान होने, कपड़ों पर खून लगा होने, पुलिस द्वारा जज लोया के फोन से डाटा डिलीट करने जैसे कई तरह के विवाद पैदा करने का प्रयास किया गया। इसी को आधार बना कर राजनीतिक दलों, अभियानवादी शक्तियों व मीडिया के एक भाग ने न्यायाधीश लोया की मौत को हत्या के रूप में प्रचारित किया ताकि अमित शाह को घेरे में लिया जा सके। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी जस्टिस लोया की मौत को कुदरती मौत माना है। न्यायालय ने इस मौत पर संदेह जताने वाली जनहित याचिका और याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस करने वाले वकील प्रशांत भूषण व अन्य वकीलों के तौर तरीके पर तीखी टिप्पणियां भी की है। न्यायालय ने कहा है कि मृत्यु के समय मौजूद चार जजों के बयानों पर संदेह का कोई कारण नहीं। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि साथी न्यायाधीश जस्टिस लोया की छाती में दर्द की शिकायत पर हृदय रोग के अस्पताल में क्यों नहीं ले गए? इस पर अदालत ने कहा है कि साथी जज अच्छे इरादे से तत्काल चिकित्सीय मदद के लिए उन्हें सबसे पास के अस्पताल ले गए। इमरजेंसी में की गई कार्यवाही की आलोचना करना बहुत आसान है, लेकिन मानवीय व्यवहार को परखने का यह तरीका नहीं हो सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश लोया की मौत को स्वाभाविक बताते हुए स्वतंत्र एजेंसी से जांच कराने की मांग खारिज कर दी। व्यक्तिगत दुश्मनी निपटाने के लिए न्यायालय को मंच न बनाने की सलाह देते हुए सख्त शब्दों में यह भी याद दिलाया कि जिस तरह न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश हुई है, उसे अवमानना माना जा सकता था, लेकिन छोड़ रहे हैं। जज लोया की मौत का विवाद बड़े न्यायिक टकराव की वजह भी बनता दिखा था। 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, एमबी लोकुर और कुरियन जोसफ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पीठ के आवंटन की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमेरिका में एक कार्यक्रम के दौरान न्यायाधीश लोया की मौत पर सवाल उठा चुके हैं और बाकी विपक्षी दल भी इस मौत को अवसर मान कर भुनाते नजर आए। परंतु अब न्यायालय के जरिए सारे राजनीतिक षड्ंयत्र का पर्दाफाश हो गया है। इस पीआईएल पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का मुकाबला चुनाव या संसद में किया जाना चाहिए और व्यवसायिक मुकाबला बाजार में, अदालतें इसके लिए उचित स्थान नहीं हैं। आशा की जानी चाहिए कि देश के राजनीतिक दल, अभियानवादी शक्तियां, मीडिया का एक वर्ग इस फैसले से कुछ सीख अपनी आदतें सुधारेगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
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Monday, 16 April 2018

सत्ता के लिए समरसता की शहादत

भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दी गई समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलु भी है, वंचितों व शोषितों को बचाने के लिए बनाए गए कानूनों के दुरुपयोग होने के भी उदाहरण सामने आने लगे हैं। समाज जोडऩे के उद्देश्य से लाए गए कानून उसी को बांटते दिखने लगे हैं और आग में तेल का काम कर रही है जातिवादी सियासत जो सत्ता के लिए समरसता की शहादत लेने से भी नहीं हिचकिचा रही। 20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने एससी-एसटी एक्ट को लेकर एक निर्णय दिया जिसके बाद देश में जातिवादी राजनीति लोकलाज त्याग तन-मन उघाड़ कर सरे बाजार नाचती दिखी। एक न्यायिक विषय को राजनीतिक बना दिया जिसके चलते 2 अप्रैल को वंचित समाज और 10 अप्रैल को सामान्य वर्ग से जुड़े लोगों ने अपने-अपने तर्कों व दावों के आधार पर भारत बंद किया। इस दौरान कई लोगों की जानें गईं और अरबों की संपत्ति स्वाह हुई। सामाजिक एकता और सद्भाव को जो हानि हुई उसका तो किसी ने अनुमान ही नहीं लगाया। विपक्ष ने अदालत के फैसले को सत्तारूढ़ भाजपा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अस्त्र के रूप में प्रयोग करने का प्रयास किया और इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक को घसीटने का प्रयास हुआ।

आओ पूरे प्रकरण की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें, 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही वंचितों पर अत्याचार रुके। 1989 में भाजपा के सहयोग से चलने वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार ने अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निरोधक कानून बनाया परंतु कुछ समय बीतने के बाद पाया गया कि इसमें कुछ कमियां रह गईं। देश की चौथाई आबादी इन्हीं हिंदू समुदायों से बनती है और आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद खराब है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2016 में इसमें संशोधन कर इस कानून को और कड़ा किया गया। इसके तहत अनुसूचित वर्गों के विरुद्ध किए जाने वाले नए अपराधों में जूते की माला पहनाना, सिंचाई सुविधाओं से रोकना या वन अधिकारों से वंचित रखना, मानव और पशु कंकाल को निपटाने, कब्र खोदने के लिए बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति, इन वर्गों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना,जाति सूचक गाली देना,जादू-टोना को बढ़ावा देना, बहिष्कार करना, चुनाव लडऩे से रोकना, महिलाओं के वस्त्र हरण करना, किसी को घर, गांव और आवास छोडऩे के लिए बाध्य करना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, यौन दुव्र्यवहार करना दंडनीय अपराध बनाए गए। लेकिन शिकायतें आने लगीं कि इस कानून का दुरुपयोग होना शुरू हो गया है और कुछ काईयां किस्म के लोग व राजनेता इसका प्रयोग ब्लैकमेलिंग के रूप में कर रहे हैं।

धनरूआ पुलिस ने 2017 में दो दंगाईयों को गिरफ्तार किया। इस हंगामे को कराने में मसौढ़ी की विधायक रेखा देवी के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया। इस पर विधायक ने मसौढ़ी डीएसपी सुरेंद्र कुमार पंजियार के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने की प्राथमिकी दर्ज करा दी। इससे पुलिस प्रशासन में खलबली मच गई लेकिन आरोपों की जांच की गयी, तो गलत मिले। यह केवल एकमात्र उदाहरण नहीं बल्कि इनकी फेरहिस्त काफी लंबी है। महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून के दुरुपयोग पर विचार करते हुए 20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि इसके तहत दर्ज ऐसे मामलों में फौरन गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की पीठ ने कहा कि किसी भी लोकसेवक की गिरफ्तारी से पहले न्यूनतम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के अधिकारी द्वारा प्राथमिक जांच जरूर होनी चाहिए। लोक सेवकों के खिलाफ दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसके तहत दर्ज मामलों में सक्षम अधिकारी की अनुमति के बाद ही किसी लोक सेवक को गिरफ्तार किया जा सकता है।

दुर्भाग्य है कि न्यायालय की मंशा को समझा नहीं गया या फिर विपक्ष जिनमें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसे जातीवादी दलों ने अदालत का सही संदेश जनता तक जाने नहीं दिया। अदालत के फैसले को सरकार विशेषकर भाजपा का फैसला बताया जाने लगा और जातीय नफरत की भट्ठी में इतने लोगों ने फूंकें मारी कि यह दावानल बनती नजर आई। इसी का परिणाम निकले अपै्रल महीने में हुए दो जातीय आंदोलन जो समाज में भेदभाई की खाई को और भी गहरा गए। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कानून से वंचित व शोषित समाज को सम्मान के साथ जीने में बहुत बड़ा सहारा मिला है परंतु वर्तमान में देखने में यह आने लगा कि यह कानून सामान्य वर्ग के लोगों के उत्पीडऩ व ब्लैकमेलिंग का हथियार भी बनने लगा। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख महाराष्ट्र के आए केस से ही साफ हो जाता है कि कुछ गलत मानसिकता के लोग इसका दुरुपयोग समाज को बांटने व लोगों को डराने में कर रहे हैं। राज्य के दो अधिकारियों ने आरक्षित वर्ग के कर्मचारी के काम पर प्रशासनिक टिप्पणी की, जिस पर कर्मचारी ने अपने वरिष्ठों पर इस एक्ट की शिकायत दर्ज करवा दी। यह केवल महाराष्ट्र का मामला नहीं, सामान्यत: सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है कि कोई अधिकारी अपने जूनियर आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनके कामकाज के बारे में कहने से भी कतराते हैं कि कहीं उसके खिलाफ इस तरह की शिकायत न कर दे। यह क्रम यूं ही चलता रहा तो हमारा प्रशासनिक ढांचा कितनी देर तक ठहर पाएगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, इस एक्ट के तहत दर्ज होने वाले 16 प्रतिशत केस आरंभ में ही बंद हो जाते हैं और 75 प्रतिशत केसों में या तो आरोपी छुट जाते हैं या अदालत के बाहर ही समझौता हो जाता है। बड़ी मुश्किल से 2.4 प्रतिशत केसों में ही किसी को सजा हो पाती है। इसके दो अर्थ निकाले जा सकते हैं, एक या तो कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपना काम सही तरीके से नहीं करतीं। दूसरा कि इस तरह की अधिकतम शिकायतें झूठी होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है उससे इन दोनों कारणों से छुटकारा मिल सकता है। डीएसपी स्तर के सक्षम अधिकारी द्वारा केस फाइल करने से जहां केस में तथ्यात्मक मजबूती आएगी वहीं प्रारंभिक जांच में झूठी शिकायतें स्वत: निरस्त हो जाएंगी। न्यायालय के निर्णय पर हल्ला मचाने वालों को समझना चाहिए कि किसी कानून को समाप्त नहीं किया गया बल्कि यह सामयिक सुधार का प्रयास है। केंद्र सरकार ने न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की है और जरूरत पडऩे पर अधिसूचना जारी करने की बात कही है। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि वास्तव में यह कानून भाजपा की ही उपज है जिसे समाप्त करने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। कितना अच्छा होता अगर विपक्ष पूरे मामले पर जिम्मेवारी से काम लेता और न्यायालय के निर्णय पर एक सामाजिक चर्चा शुरू करता जिससे समाज के सभी वर्गों की अपनेक्षाओं की पूर्ति होती और शंकाओं का समाधान होता। लेकिन दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस व उसके पिछलग्गुओं ने सत्ता की खातिर समरसता को शहीद करना ज्यादा उचित समझा। 

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर।
मो. 097797-14324

मोसुल में मरे मासूम और संजीदा सरकार

इराक के मोसूल इलाके में 39 निर्दोष व मासूम भारतीयों की मौत की ने हर भारतीय को भीतर तक झकझोर कर रख दिया। विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह जब ताबूतों को लेकर अमृतसर पहुंचे तो राष्ट्रव्यापी शोक फैल गया। रोटी के लिए मिट्टी से अलग होना तो अभी तक सुनते आरहे थे परंतु पगलाए खूनी जिहाद के चलते अब रोटी कमाने गए गरीब घरों के कमाऊ पूत मिट्ट बन कर लोटे थे। हर किसी की आंख में आंसू, जुबां पर क्रंदन और मनों में एक जैसे ही सवाल थे कि विदेश जाने की ललक आखिर कहां जाकर समाप्त होगी?  इस ललक के चलते कब तक हमारे नौजवान लालची ट्रैवल एजेंटों के झांसे में आकर अपनी जान जोखिम में डालते रहेंगे? स्वजों के बीच ही रहते हुए मेहनत मजदूरी कर सम्मानजनक व सुरक्षित जीवन यापन करने का महत्त्व हम कब जानेंगे? खाड़ी देशों के सफर में रोजगार की मंजिलों के खतरे सदा रहे हैं। मामले को लेकर राजनीतिक बयान भी आए मगर एक सत्य यह है कि हमारे सत्ताधीश देश में इन युवाओं को रोजगार देने में नाकाम रहे जिसके चलते उन्हें जान जोखिम में डालकर इराक जाने को बाध्य होना पड़ा। मोसुल की घटना ने अनेक सवालों को जन्म दिया है जिनका निराकरण करना पूरे देश विशेषकर पंजाब को बहुत जरूरी है।

क्या है पूरा मामला
इराक के मोसुल इलाके  में पूरी दुनिया को इस्लाम के परचम तले लाने के पागलपन के शिकार आईएसआईएस ने कब्जा कर लिया और 91 लोगों का अपहरण कर लिया। इनमें 51 बंगलादेशियों को तो मुसलमान होने के चलते छोड़ दिया गया परंतु भारतीयों को हिंदू-सिख होने के चलते आतंकी अपने साथ ले गए। इस बीच हरजीत मसीह नामक भारतीय युवक अपने आप को अली बता कर वहां से बचने में सफल रहा। यह घटना जून, 2014 की है। भारत लौट कर हरजीत मसीह ने दावा किया कि आतंकियों ने उनके सामने इन भारतीयों को मार दिया परंतु उसने बार-बार इतने ब्यान बदले कि सरकार को उस पर विश्वास करना मुश्किल हो गया। हरजीत के दावे के विपरीत अपहृत लोगों की परिवार वालों से फोन पर बातचीत के दावे भी किए जाते रहे।

अभिभावक बनी भारत सरकार
पूरे मामले में भारत सरकार का नजरिया अभिभावकों जैसा रहा, जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों की फिक्र करते हैं उसी तरह केंद्र सरकार ने भी इन लापता लोगों को ढूंढने व वापिस लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोसुल के आईएसआईएस से मुक्त होने के अगले ही दिन विदेश राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह इराक गए। वे इससे पहले भी कई बार वहां जा चुके हैं। आखिर राडार से देखा गया कि मोसुल की पहाडिय़ों पर कुछ कड़े गिरे हुए थे। उसी के जरिए भारतीयों की प्राथमिक पहचान हुई और पहाड़ी के नीचे लंबे बालों वाली लाशें मिलीं। वहां करीब 10,000 लाशों की कब्रगाह है। उनमें से 39 भारतीयों की पहचान की गई। कड़ों के अलावा, आईकार्ड से भी पहचान की गई और डीएनए टेस्ट भी किए गए। जब इन प्रक्रियाओं से गुजरते हुए भारतीयों की हत्या की पुष्टि हो गई तो विदेश मंत्री ने राज्यसभा को सूचना दी। केवल इतना ही नहीं केंद्र सरकार ने इन मृत भारतीयों के अवशेष भारत लाने के लिए पूरी प्रतिबद्धता दिखाई और मृतकों के परिजनों को दस-दस लाख रूपये की सहायता राशि की भी घोषणा की। 

देश लाशें गिन रहा था और कांग्रेस वोट
पूरे मामले पर जहां देश गमगीन था और अपने बेटों की लाशें गिन रहा था तो वहीं कांग्रेस पार्टी इस पूरे मसले पर वोटों का हिसाब-किताब लगाती दिखी। सवाल यह भी है कि राज्यसभा में कांग्रेस ने मंत्री का बयान होने दिया। पूरा ब्यौरा संसद के रिकार्ड में दर्ज हो गया लेकिन लोकसभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस सांसदों ने हंगामा क्यों किया? लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन को बार-बार यह क्यों कहना पड़ा कि इतने संवेदनहीन मत बनिए। ऐसी राजनीति मत करिए। क्या यह मुद्दा भी हंगामे का था? भारत सरकार ने यमन, सूडान, पाकिस्तान में भी अभियान चलाकर न केवल भारतीयों को मुक्त कराया है बल्कि कई अन्य देशों के नागरिक भी छुड़ाए हैं। इस बार ऐसा नहीं हो सका क्योंकि आईएस ने बंधक बनाया था और पूरा इलाका इन्हीं आतंकियों के कब्जे में था। यहां तक कि यहां से इराक की सेना को भी पलायन करना पड़ा था। ऐसे हालातों में भारत वहां की सरकार के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर सकता था। जैसे ही आतंकियों का यहां से कब्जा हटा, भारतीय विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह अगले ही दिन पहुंच गए इराक। अपने देश के नागरिकों के प्रति संवेदनशीलता का यह अनुकरणीय उदाहरण है।

विपक्ष के गुमराह करने वाले आरोप
आईएसआईएस आतंकी संगठन और सरगना बगदादी की इस दरिंदगी की पुष्टि होने के बाद ही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद को बताया। कांग्रेस कहती है कि विदेश मंत्री से गलती हुई। वह संसद और देश को झूठा दिलासा देती रहीं और भ्रम में रखा। लेकिन सवाल यह है कि यदि विदेश मंत्री पहले ही लापता भारतीयों को मृत घोषित कर देतीं और हरजीत की तरह कोई जिंदा लौट आता, तो उसकी सजा क्या होती? कौन भुगतता वह सजा..? कानून का उल्लंघन होता और संसद की अवमानना होती। सरकार की छीछालेदार होती और दुनिया में भारत की थू-थू होती।  दरअसल कानून में भी स्पष्ट प्रावधान है कि एक लापता व्यक्ति को 7 साल तक मृत घोषित नहीं किया जा सकता, यानी लौटने की उम्मीद रहती है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उन 39 भारतीयों के परिजनों को यही ढाढस बंधाती रही लेकिन मौजूदा सवाल यह है कि भारत सरकार ने जो अनथक प्रयास किए, उन्हें किस श्रेणी में रखेंगे? 

विदेश जाने की अंधी दौड़
पंजाब में विदेश जाने की अंधी दौड़ का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि जालंधर के पास तलहन में ऐसे गुरुद्वारे भी हैं जहां माना जाता है कि खिलौना जहाज का मॉडल चढ़ाने से जल्द वीजा लग जाता है। इस गुरुद्वारा साहिब में हर रोज सैंकड़ों जहाज चढ़ावे के तौर पर चढ़ते हैं। शिक्षित, अर्धशिक्षित और अशिक्षित हर वर्ग के लोगों में विदेश जाने की ललक है। एक बार तो दुस्साहसपूर्ण समाचार मिला कि ट्रैवल एजेंट ने एक युवक को जहाज के कैबिन में ठूंस कर फ्रांस भेज दिया जहां वो पकड़ा गया। यहां तक कि कुछ लोग तो विदेश जाने की मृगतृष्णा में इतने अंधे हो जाते हैं कि भाई-बहन या भाभी-देवर भी पति-पत्नी के दस्तावेज बना कर बाहर जाने का प्रयास करते पकड़े गए हैं। अपने बच्चों को विदेश भेजने की होड़ में एनआरआई दूल्हा-दुल्हन की सिरकाट मांग है। कहने का भाव कि लोगों के लिए विदेश जाना महत्त्वपूर्ण हो गया है चाहे इसके लिए कोई भी रास्ता अपनाना पड़े वे पीछे नहीं हटते। इसके लिए चाहे पिता-पुरखी जमीन बेचनी पड़े या फिर मां या पत्नी के गहने या फिर उठाना पड़े कर्ज किसी बात का संकोच नहीं किया जाता।

फर्जी ट्रैवल एजेंटों का मकड़ जाल
जिस प्रांत के लोगों में विदेशी सरजमीं के प्रति इतना अनुराग हो तो स्वभाविक है इस प्रवृति का लाभ उठाने वाले भी सक्रिय हो जाते हैं। पंजाब में विशेषकर दोआबा व माझा इलाके में ट्रैवल एजेंटों का मकडज़ाल फैला है। यहां के समाचारपत्र हर रोज इन्हीं तरह की खबरों से भरी रहते हैं कि विदेश जाने के नाम पर इतने लाख ठगे, फ्रांस बजाय भेज दिया मलेशिया इत्यादि इत्यादि। कहना गलत न होगा कि इन लोगों के संपर्क विदेश विभाग व विदेशी दूतावासों से भी हैं जिनके सहयोग से यह अपने काम को अंजाम देते हैं। भोले-भाले बेरोजगार युवाओं से लाखों रुपये ठगने के बाद इन्हें किसी न किसी तरह उन देशों में भेज दिया जाता है जहां आव्रजन नियम इतने सख्त नहीं। इन्हीं देशों के रास्ते बड़े व विकसित देशों में इनकी घुसपैठ करवाई जाती है। जानवरों की तरह इन्हें कंटेनरों में ठूंस कर या भेड़-बकरियों की तरह नावों में लाद कर खतरनाक समुद्र पार करवाए जाते हैं।

मालटा बोट कांड
अवैध तरीकों से विदेश जाने वालों को किस कदर ले जाया जाता है इसका उदाहरण है मालटा बोट कांड जिसमें पंजाब के 283 युवक समुद्र में डूब कर मारे गए थे। लगभग 22 साल पहले दिसंबर 1996 में इटली के पास हुई बोट दुर्घटना में किश्ती डूब गई और इस पर भेड-बकरियों की तरह सवार 283 भारतीय युवा मारे गए। अभी तक इनके अवशेषों को पूरी तरह ढूंढा नहीं जा सका है और न ही आरोपियों को सजा दिलवाई जा सकी है। दुर्भाग्य की बात है कि इतने बड़े दुखांत के बाद भी यहां की सरकारों ने कुछ सीखा नहीं। आज भी उसी तरह के ट्रैवल एजेंटों की दुकानदारी पहले की तरह केवल चल ही नहीं रही बल्कि दिन-दोगुनी और रात चौगुनी तरक्की भी कर रही है।

अवैध रूप से गए लोगों का शोषण
कमाई की लालच में लोग आर्थिक संकट व जोखिम झेलते हुए विदेश चले तो जाते हैं परंतु वहां जाकर उनकी परेशानियां कम नहीं होतीं बल्कि बढ़ती ही हैं। वहां की कंपनियां व निजी लोग जान जाते हैं कि उक्त लोग अवैध तरीके से उनके देश आए हैं। वे इसका पूरा लाभ उठाते हैं। अवैध मजदूरों से जरूरत से अधिक काम लिया जाता है और आधे से कम वेतन दिया जाता है। इनके पास्पोर्ट तक जब्त कर लिए जाते हैं, उन्हें शारीरिक व मानसिक वेदना दी जाती है। अरब देश में गए कई लोगों को केंद्र सरकार के प्रयासों से लोगों को अवैध हिरासत से छुड़वाया गया है। दूतावास के रिकार्ड में न होने के कारण सरकारें भी इनको लेकर बहुत कुछ कर नहीं पातीं। अगर मोसुल में गए लोग वैध तरीके से रह रहे होते तो भारत सरकार इन्हें उसी तरह सुरक्षित ले आती जैसे कि केरल की नर्सों को सुरक्षित लाया गया क्योंकि वैध तरीके से गए लोगों का रिकार्ड व संपर्क उस देश में स्थित भारतीय दूतावास से रहते हैं जिसके आधार पर समय रहते उन्हें सहायता उपलब्ध करवाई जाती है।

स्वरोजगार अपनाएं युवा
विदेशों में धक्के खाने, वहां के लोगों की गुलामी करने व जीवन जोखिम में डालने की बजाय देश के युवा अपने देश में परिवार के साथ  रह कर ही अपना, अपने परिवार, देश का विकास करे तो ज्यादा उचित होगा। इसके लिए केंद्र सरकार ने स्टार्ट अप योजना, स्टैंड अप योजना, मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री रोजगार योजना, अल्पसंख्यकों के लिए स्वरोजगार योजना सहित अनेक तरह की स्कीमें शुरू की हैं जिसको अपना कर वे न केवल आप बारोजगार हो सकते हैं बल्कि देश में ही रोजगार के मौके बढ़ा सकते हैं। अपनी योग्यता, सामथ्र्य व साधनों के अनुसार स्वरोजगार अपना कर विदेश जाने की जरूरत को काफी कम किया जा सकता है।

वैध तरीके से जाएं विदेश
जैसे कि विदेश राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने कहा है कि विदेश जाना बुरी बात नहीं है परंतु युवा कानूनी तरीके से और पूरे दस्तावेजों के आधार पर बाहर जाएं। इसके लिए आवश्यक है कि युवा अपने भीतर कौशल पैदा करें, किसी एक काम में प्रशिक्षण प्राप्त करें और उसी के आधार पर विदेश जाएं। 

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
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हम पाषाण युग के वासी

पुरातत्ववेत्ता व इतिहासकारों के अर्थों में चाहे पत्थरों के हथियार इस्तेमाल करने वाले युग को पाषाणयुग कहा जाता होगा परंतु वास्तव में पाषाणकाल तो आज देखने को मिल रहा है। व्यवस्था जड़ है, दिल पत्थर, दिमागों में और जुबान पर रोड़े ही रोड़े। तभी तो लोग आठ साल की बच्ची की अस्मत लूटते हैं और पत्थरों से उसका सिर कुचल देते हैं। दूसरी जगह हमारी पत्थरदिल व्यवस्था बलात्कार आरोपी विधायक को बचाने में लग जाती है और तब तक नहीें हिलती जब तक पीडि़ता की आंखें रो रो कर पथरा नहीं जाती, उसके बाप को पुलिस वाले पीट-पीट कर दो गज नीचे पत्थर की तरह गाड़ देते हैं। आप ठीक समझ रहे हैं, हम बात कर रहे हैं कठुआ और उन्नाव में हुए बलात्कार कांडों की जिसने हमें पाषाणयुग का वासी होने का एक बार फिर से एहसास करवा दिया है। चारों ओर पत्थर ही पत्थर।

उन्नाव में सामूहिक बलात्कार के एक आरोप के बाद उत्तर प्रदेश में लगा कि प्रशासन की सारी ताकत आरोपियों को बचाने में खप गई। बलात्कार के आरोप पर कार्रवाई न होने से निराश पीडि़ता ने मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह करने की कोशिश की, तब भी पुलिस को अपनी ड्यूटी निभाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। लड़की के पिता की आरोपी विधायक के भाई और उसके साथियों ने बर्बरता पूर्वक पिटाई की। पर पुलिस ने मारपीट करने वालों के बजाय उल्टे लड़की के पिता को ही हिरासत में ले लिया जहां उसकी मौत हो गई। पहले उस पर भी पर्दा डालने की कोशिश की गई, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह बेरहमी से पिटाई सामने आई। सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए उच्च न्यायालय को दो-टूक जवाब मांगना पड़ा। आखिरकार पत्थरदिल सरकार झुकी और जांच सीबीआई को सौंपनी पड़ी। सीबीआई ने आरोपी विधायक को गिरफ्तार कर लिया। विधायक की गिरफ्तारी तो हुई परंतु तब तक सरकार की संवेदनशीलता के पाषाण होने के सारे साक्ष्य समाज के सामने खुल चुके थे। 

दूसरी घटना में जम्मू क्षेत्र के कठुआ में आठ साल की बच्ची के साथ दरिंदगी और हत्या के मामले में दायर दो आरोपपत्रों में जो खुलासा हुआ है, वह विभत्स और शर्मनाक है। दुखद है कि मामले को अब पूरी तरह से सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है। हैरानी वाली बात तो यह भी है कि इस पूरी घटना को अंजाम देने में पुलिस न केवल अपराधियों के साथ मिली रही, बल्कि आपराधिक कृत्य में भी भागीदार बनी। घटना इस साल दस जनवरी की है जब बक्करवाल समुदाय की आठ साल की एक लड़की को कुछ लोगों ने अगवा कर एक मंदिर में छिपा लिया था और वहां उसके साथ कई बार सामूहिक बलात्कार बाद उसकी हत्या कर दी गई। शव को जंगल में फेंक दिया गया और उसके सिर को पत्थर से कुचल दिया गया। पुलिस ने कहा है कि घटना का असली साजिशकर्ता मंदिर का पुजारी था, जिसने अपने बेटे, भतीजे, पुलिस के एक एसपीओ और उसके दोस्तों के साथ हफ्ते भर इस जघन्य अपराध को अंजाम दिया। इसके अलावा, दो पुलिसवालों ने पुजारी से घटना के सबूत करने नष्ट करने के लिए चार लाख रुपए लिए। चौंकाने वाली बात तो यह है कि आरोपियों के समर्थन में रैली निकाली गई और बंद रखा गया। आरोपी डोगरा समुदाय के हैं। कुछ वकीलों ने पुलिस को आरोपपत्र दाखिल करने से रोकने की कोशिश की।

विश्वास नहीं होता कि हम उस पुण्यभूमि के निवासी हैं जिस पर उस भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने जन्म लिया जिसने शासकों के लिए लोकलाज को इतना महत्त्वपूर्ण बताया कि एक धोबी के कहने पर पत्नी तक का त्याग कर दिया और दूसरा द्रोपदी की वेदना पर सबकुछ छोड़ कर सुदर्शन सहित कौरव सभा में भागे चला आया। आज के शासक व राजकर्मी तो दुषासन के ही भाई लगने लगे हैं। माना कि केवल आरोप लगाने से कोई अपराधी नहीं बन जाता परंतु यह पुलिस की ड्यूटी है कि वह आरोपों पर तुरंत कार्रवाई करे। आरोपी चाहे जो हो उसे पर कानून अनुसार सबक सिखाए। यूपी में तो लगता है कि सारी सरकार व प्रशासन आरोपी विधायक के सामने नत्मसत नजर आरही है। ऐसा करते हुए वहां की सरकार यह भूल रही है कि इसी गुंडागर्दी के खिलाफ कानून व्यवस्था के एजेंडे पर भाजपा सरकार सत्ता में आई थी। अगर आरोपियों को यूं ही बचाया जाना था तो समाजवादी पार्टी की सरकार क्या बुरी थी जिसके मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के एक केस के बाद कहा था कि लड़कों से गलती हो ही जाती है। आरोपी विधायक पर जब अपहरण व दुराचार और पोसको अधिनियम के तहत केस दर्ज हो चुके थे तो उसकी गिरफ्तारी में विलंब क्यों किया गया और क्यों उसके लिए तरह-तरह की बहानेबाजी की गई? इससे साफ संकेत गया कि सरकार आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रही है। अब उसकी गिरफ्तारी से यही साबित होता है कि योगी सरकार ने प्याज भी खाए और छित्तर भी परंतु अंत में कार्रवाई भी करनी पड़ी।

उन्नाव की घटना ने न केवल यूपी की योगी सरकार की छवि को दागदार किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की भी छिछालेदरी की है। पार्टी इसे स्थानीय या प्रदेश से जुड़ा मुद्दा मानती है तो यह भयंकर भूल होगी क्योंकि जिस तरीके से राष्ट्रीय मीडिया ने इसे उठाया है मुद्दा न केवल प्रदेशों बल्कि देशों की सीमाओं को भी लांघ गया। कठुआ कांड पर तो संयुक्त राष्ट्र तक को आह भरनी पड़ी है। यह देश के लिए अत्यंत शर्मनाक हादसे हैं। कहते हैं कि एक बार लक्ष्मी ने विष्णु जी से पूछा कि आपने त्रेतायुग में तो जटायू जैसे पक्षी का भी अंतिम संस्कार व तर्पण किया परंतु द्वापर में जीवंत धर्म के मार्ग पर चलने वाले शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह के मुंह में पानी तक भी नहीं डाला, यह काम अर्जुन से करवाया। इस पर विष्णु जी ने कहा कि जटायु माता सीता के रूप में महिला की रक्षा के लिए यह जानते हुए भी रावण से भिड़ गया कि वह उससे जीत नहीं पाएगा परंतु सामथ्र्यशाली भीष्म द्रोपदी का चीरहरण होते देखते रहे। जो पुरुष संकटग्रस्त महिला की रक्षा नहीं कर सकता वह मुझे प्रिय नहीं है। हमारी सरकारों व राजनीतिक दलों को भी समझना चाहिए कि देश की जनता सबकुछ सहन कर सकती है परंतु बहन बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं है।
- राकेश सैन
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ਇਰਾਕ 'ਚ ਮਰੇ ਮਾਸੂਮ ਅਤੇ ਹਮਦਰਦ ਬਨੀ ਸਰਕਾਰ


ਇਰਾਕ ਦੇ ਮੌਸੂਲ ਇਲਾਕੇ ਵਿਚ 39 ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਮੌਤ ਨੇ ਹਰ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਅੰਦਰ ਤੀਕ ਝਕਝੋਰ ਕੇ ਰਖ ਦਿੱਤਾ। ਵਿਦੇਸ਼ ਰਾਜਮੰਤਰੀ ਜਨਰਲ ਵੀ.ਕੇ. ਸਿੰਘ ਜਦੋਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਤਾਬੂਤ ਲੈ ਕੇ ਭਾਰਤ ਪਰਤੇ ਤਾਂ ਪੂਰੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਦੁੱਖ ਅਤੇ ਰੋਹ ਦੀ ਲਹਿਰ ਦੌੜ ਗਈ। ਰੋਟੀ ਲਈ ਮਿੱਟੀ ਤੋਂ ਵੱਖ ਹੋਨਾ ਅਜੇ ਤਕ ਸੁਣਦੇ ਆਰਹੇ ਸੀ ਪਰੰਤੂ ਗਰੀਬ ਘਰਾਂ ਦੇ ਇਹ ਕਮਾਊ ਪੁੱਤਰ ਰੋਟੀ ਲਈ ਮਿੱਟੀ ਬਣ ਕੇ ਵਾਪਸ ਪਰਤੇ। ਹਰ ਕਿਸੇ ਦੀ ਅੱਖਾਂ 'ਚ ਹੰਝੂ, ਜੁਬਾਨ ਤੇ ਰੋਹ ਅਤੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚ ਇਕੋ ਜਿਹੇ ਸਵਾਲ ਸਨ ਕੀ ਧਰਮ ਦੇ ਨਾਂ ਤੇ ਦੁਨੀਆ ਅੰਦਰ ਖੂਨ ਖਰਾਬਾ ਕਦੋਂ ਬੰਦ ਹੋਵੇਗਾ? ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਨ ਦੀ ਅੰਨੀ ਦੌੜ ਕਦੋਂ ਰੁਕੇਗੀ? ਆਪਣੇ ਹੀ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਪਰਿਵਾਰ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦਿਆਂ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਜੀਵਨ ਜਿਉਣ ਦਾ ਮਹੱਤਵ ਅਸੀਂ ਕਦੋਂ ਪਹਿਚਾਣਾਂਗੇ? ਸਾਡੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਕਦੋਂ ਰੁਜਗਾਰ ਅਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਗੰਭੀਰ ਹੋਣਗੀਆਂ? ਕਦੋਂ ਤਕ ਫਰਜੀ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟ ਸਾਡੀਆਂ ਜਾਨਾਂ ਨਾਲ ਖੇੜਦੇ ਰਹਿਣਗੇ?

ਕੀ ਹੈ ਪੂਰਾ ਮਾਮਲਾ
ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਅੰਦਰ ਇਸਲਾਮ ਦਾ ਪਰਚਮ ਲਹਰਾਉਣ ਦੇ ਪਾਗਲਪਨ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਅੱਤਵਾਦੀ ਸੰਗਠਨ ਆਈਐਸ ਨੇ ਜੂਨ 2014 'ਚ ਇਰਾਕ ਦੇ ਸ਼ਹਿਰ ਮੌਸੂਲ ਉੱਤੇ ਕਬਜਾ ਕਰ ਲਿਆ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਉੱਥੇ ਖੂਬ ਖੂਨਖਰਾਬਾ, ਹੱਤਿਆ, ਬਲਾਤਕਾਰ, ਅੱਗਜਨੀ ਦੀਆਂ ਕਾਰਵਾਈਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਅਤੇ 91 ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਅਪਹਰਣ ਕਰ ਲਿਆ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ 51 ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ੀਆਂ ਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਪਰੰਤੂ 39 ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਲੈ ਗਏ। ਹਰਜੀਤ ਮਸੀਹ ਨਾਂ ਦਾ ਇਕ ਭਾਰਤੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦਾ ਅਲੀ ਆਖ ਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਚੰਗੁਲ ਤੋਂ ਬਚ ਕੇ ਨਿਕਲਨ ਵਿਚ ਸਫਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਭਾਰਤ ਪਰਤ ਕੇ ਹਰਜੀਤ ਨੇ ਦਾਵਾ ਕੀਤਾ ਕਿ ਇਸਲਾਮੀ ਅੱਤਵਾਦੀਆਂ ਨੇ ਉਸਦੇ ਸਾਹਮਣੇ 39 ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਪਰੰਤੂ ਉਸਨੇ ਇੰਨੀ ਵਾਰੀ ਆਪਣੇ ਬਿਆਨ ਬਦਲੇ ਕਿ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਉਸਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਨਾ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਇਹ ਵੀ ਦੱਸਿਆ ਗਿਆ ਕਿ ਅਪਹਰਣ ਤੋਂ ਕੁਝ ਦਿਨ ਬਾਦ ਤਕ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ ਕਈ ਲੋਕ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਨਾਲ ਮੁਬਾਇਲ ਤੇ ਗੱਲ ਕਰਦੇ ਰਹੇ।

ਅਭਿਭਾਵਕ ਬਣੀ ਸਰਕਾਰ
ਸੰਤੋਸ਼ ਦੀ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਚਾਹੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਅਪਹਰਨ ਕੀਤੇ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਬਚਾਇਆ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਿਆ ਪਰੰਤੂ ਪੂਰੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿਚ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦਾ ਰਵੱਈਆ ਅਭਿਭਾਵਕਾਂ ਵਰਗਾ ਨਜਰ ਆਇਆ। ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਮਾਂ-ਬਾਪ ਆਪਣੇ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਫਿਕਰ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਸਰਕਾਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਤਲਾਸ਼ ਅਤੇ ਵਾਪਸ ਲਿਆਉਣ ਪ੍ਰਤੀ ਸੰਜੀਦਾ ਨਜਰ ਆਈ। ਅੱਤਵਾਦੀਆਂ ਦੇ ਕਬਜੇ ਦੇ ਕਾਰਨ ਮੌਸੂਲ ਸ਼ਹਿਤ ਵਿਚ ਇਰਾਕ ਦੀ ਸੈਨਾ ਵੀ ਘੁਸ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ ਸੀ ਤਾਂ ਇਸ ਹਾਲਾਤ ਵਿਚ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ ਸੀ। ਤਿਨ ਸਾਲਾਂ ਬਾਦ ਜਦੋਂ ਇਹ ਸ਼ਹਿਰ ਅੱਤਵਾਦੀਆਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਹੋਇਆ ਭਾਰਤੀ ਵਿਦੇਸ਼ ਰਾਜ ਮੰਤਰੀ ਜਨਰਲ ਵੀ.ਕੇ. ਸਿੰਘ ਮੌਸੂਲ ਪਹੁੰਚ ਗਏ ਅਤੇ ਗੁਆਚੇ ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਪੜਤਾਰ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਅਪਹਰਣ ਦੀ ਘਟਨਾ ਦੇ ਬਾਦ ਉਹ ਕਈ ਵਾਰ ਇਰਾਕ ਗਏ ਪਰੰਤੂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਫਲਤਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲੀ। ਇਸ ਵਾਰੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਥਾਨਕ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਮੌਸੂਲ ਦੇ ਨੇੜੇ ਬਦੁਸ਼ ਨਾਂ ਦੇ ਇਲਾਕੇ ਵਿਚ ਇਕ ਟਿੱਬੇ ਤੇ ਕੁਝ ਲੋਕ ਦਬਾਏ ਗਏ ਹਨ। ਇੱਥੇ 10000 ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਕਬਰ ਦੱਸੀ ਗਈ। ਜਨਰਲ ਸਿੰਘ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ 39 ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਪਹਿਚਾਣ ਕਰਵਾਈ ਅਤੇ ਰਡਾਰ ਰਾਹੀਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਤਲਾਸ਼ਿਆ ਗਿਆ। ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਪਾਏ ਕੜੇ, ਕੇਸਾਂ ਨਾਲ ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਪਹਿਚਾਣ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਕਈ ਮਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਦੇ ਆਈ ਕਾਰਡ ਵੀ ਮਿਲੇ ਅਤੇ ਡੀਐਨਏ ਟੈਸਟ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਲਿਆਇਆ ਗਿਆ। ਕੇਵਲ ਇੰਨਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਕੇਂਦਰ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਮਰੇ ਹੋਏ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਲਈ ਦਸ-ਦਸ ਲੱਖ ਰੁਪਏ ਦੀ ਮੁਆਵਜਾ ਰਾਸ਼ੀ ਦੇਣ ਦਾ ਵੀ ਐਲਾਨ ਕੀਤਾ ਹੈ।

ਦੇਸ਼ ਲਾਸ਼ਾਂ ਗਿਣ ਰਿਹਾ ਸੀ ਤਾਂ ਕਾਂਗਰਸ ਵੋਟ
ਜਦੋਂ ਪੂਰੇ ਮਾਮਲੇ ਤੇ ਦੇਸ਼ ਗਮਗੀਨ ਸੀ ਅਤੇ ਸਪੂਤਾਂ ਦੀਆਂ ਲਾਸ਼ਾਂ ਗਿਨ ਰਿਹਾ ਸੀ ਤਾਂ ਕੇਂਦਰ ਵਿਚ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਕਾਂਗਰਸ ਪਾਰਟੀ ਆਪਣੇ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਦਾ ਹਿਸਾਬ-ਕਿਤਾਬ ਲਗਾ ਰਹੀ ਜਾਪਦੀ ਲੱਗੀ। ਸਵਾਲ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਰਾਜਸਭਾ ਵਿਚ ਵਿਦੇਸ਼ ਮੰਤਰੀ ਸੁਸ਼ਮਾ ਸਵਰਾਜ ਵੱਲੋਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਮੌਤਾਂ ਦਾ ਵੇਰਵਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾ ਚੁਕਿਆ ਸੀ ਤਾਂ ਲੋਕਸਭਾ ਵਿਚ ਕਾਂਗਰਸ ਦੇ ਨੇਤਾ ਜਯੋਤਿਰਦਿੱਤਿਆ ਸਿੰਧਿਆ ਦੀ ਰਹਿਨੁਮਾਈ ਵਿਚ ਕਾਂਗਰਸ ਨੇ ਹੰਗਾਮਾ ਕਿਉਂ ਕੀਤਾ? ਕਿਉਂ ਲੋਕਸਭਾ ਸਪੀਕਰ ਸੁਮਿਤ੍ਰਾ ਮਹਾਜਨ ਨੂੰ ਵਾਰੀ-ਵਾਰੀ ਇਹ ਆਖਨਾ ਪਿਆ ਕਿ ਇਨੇਂ ਸੰਵੇਦਨਹੀਣ ਨਾ ਬਣੋ, ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਰਾਜਨਿਤੀ ਨਾ ਕਰੋ। ਕੀ ਇਹ ਮੁੱਦਾ ਵੀ ਹੰਗਾਮੇ ਜੋਗਾ ਸੀ? ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਸ਼੍ਰੀ ਨਰਿੰਦਰ ਮੋਦੀ ਦੀ ਰਹਿਨੁਮਾਈ ਵਾਲੀ ਸਰਕਾਰ ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਯਮਨ, ਸੁਡਾਨ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅੰਦਰ ਅਭਿਆਨ ਚਲਾ ਕੇ ਨਾ ਕੇਵਲ ਭਾਰਤੀਆਂ ਬਲਕਿ  ਦੂਸਰੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਮੁਕਤ ਕਰਵਾ ਚੁਕੀ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰੀ ਇਹ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਿਆ ਕਿਉਂਕਿ ਮੌਸੂਲ ਦਾ ਪੂਰਾ ਇਲਾਕਾ ਇਸਲਾਮਿਕ ਅੱਤਵਾਦੀਆਂ ਦੇ ਕਬਜੇ ਵਿਚ ਸੀ। ਇਰਾਕ ਦੀ ਸਰਕਾਰੀ ਸੈਨਾ ਨੂੰ ਵੀ ਇਸ ਇਲਾਕੇ ਵਿਚੋਂ ਪਲਾਇਨ ਕਰਨਾ ਪੈ ਗਿਆ ਸੀ ਅਤੇ ਇਰਾਕੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਮਦਦ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਭਾਰਤ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਜੀਵੇਂ ਹੀ ਇਰਾਕ ਨੇ ਇਸ ਇਲਾਕੇ ਤੇ ਦੁਬਾਰਾ ਕਬਜਾ ਕੀਤਾ  ਅਗਲੇ ਹੀ ਦਿਨ ਵਿਦੇਸ਼ ਰਾਜਮੰਤਰੀ ਜਨਰਲ ਵੀਕੇ ਸਿੰਘ ਪਹੁੰਚ ਗਏ ਇਰਾਕ ਅੰਦਰ ਅਤੇ ਭਾਲ ਲਏ ਆਪਣੇ ਨਾਗਰਿਕ। ਆਪਣੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਪ੍ਰਤੀ ਸੰਵੇਦਨਸ਼ੀਲਤਾ ਦਾ ਇਹ ਸ਼ਲਾਘਾਯੋਗ ਉਦਾਹਰਣ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।

ਤੱਥਹੀਨ ਆਰੋਪ
ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਕਾਂਗਰਸ ਆਖ ਰਹੀ ਹੈ ਕਿ ਕੇਂਦਰ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਮ੍ਰਿਤਕਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਹੰਨੇਰੇ 'ਚ ਰਖਿਆ ਉਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਅਤੇ ਤੱਥਾਂ ਦੇ ਉਲਟ ਹੈ। ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜੇਕਰ ਵਿਦੇਸ਼ ਮੰਤਰੀ ਸੁਸ਼ਮਾ ਸਵਰਜਾ ਇਨ੍ਹਾਂ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਮਰਿਆ ਘੋਸ਼ਿਤ ਕਰ ਦਿੰਦੀ ਅਤੇ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਕੋਈ ਜਿੰਦਾ ਵਾਪਿਸ ਪਰਤ ਆਉਂਦਾ ਤਾਂ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਅੰਦਰ ਭਾਰਤ ਦੀ ਹਾਲਤ ਕਿੰਨੀ ਹਾਸੋਹੀਣੀ ਹੋਣੀ ਸੀ? ਇਹ ਸੰਸਦ ਦੀ ਅਤੇ ਕਾਨੂੰਨ ਦੀ ਅਵਮਾਨਨਾ ਹੁੰਦੀ। ਭਾਰਤੀ ਕਾਨੂੰਨ ਅਨੁਸਾਰ 7 ਸਾਲਾਂ ਤਕ ਲਾਪਤਾ ਵਿਅਕਤੀ ਨੂੰ ਮਰਿਆ ਘੋਸ਼ਿਤ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਤਲਾਸ਼ ਵਿਚ ਜੋ ਗੰਭੀਰਤਾ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਦਿਖਾਈ ਇਸਨੂੰ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਕਿਸ ਸ਼੍ਰੇਣੀ ਵਿਚ ਥਾਂ ਦੇਵੇਗੀ?

ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਦੀ ਅੰਨੀ ਦੌੜ
ਪੰਜਾਬ 'ਚ ਲੋਕਾਂ ਅੰਦਰ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਉਣ ਦੀ ਅੰਨੀ ਦੌੜ ਦਾ ਇਸ ਗੱਲ ਨਾਲ ਅੰਦਾਜਾ ਲਗਾਇਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਜਲੰਧਰ ਇਲਾਕੇ ਵਿਚ ਇਹੋ-ਜਿਹੇ ਗੁਰਦਵਾਰੇ ਹਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚ ਜੇਕਰ ਖਿਡੌਣਾ ਜਹਾਜ਼ ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਮੰਨਤ ਮੰਨੀ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਛੇਤੀ ਵੀਜਾ ਲੱਗ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਗੁਰਦਵਾਰੇ ਵਿਚ ਸੈਂਕੜੇ ਜਹਾਜ਼ ਹਰ ਰੋਜ ਚੜ੍ਹਦੇ ਹਨ। ਸਿੱਖਿਅਤ, ਅਸਿੱਖਿਅਤ ਅਤੇ ਅਰਧ ਸਿੱਖਿਅਤ ਹਰ ਵਰਗ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਦੀ ਲਲਕ ਦੇਖਨ ਨੂੰ ਮਿਲਦੀ ਹੈ। ਇਕ ਵਾਰੀ ਤਾਂ ਅਨੋਖੀ ਘਟਨਾ ਸੁਨਣ ਚ ਆਈ ਕਿ ਇਕ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟ ਨੇ ਤਾਂ ਜਹਾਜ ਦੇ ਕੈਬਿਨ ਵਿਚ ਤੁੰਨ ਕੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਵਿਦੇਸ਼ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ। ਇਹ ਨੌਜਵਾਨ ਫ੍ਰਾਂਸ ਵਿਚ ਫੜਿਆ ਗਿਆ। ਕੁਝ ਲੋਕ ਤਾਂ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਲਈ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਦੀ ਮਰਿਆਦਾ ਦਾ ਵੀ ਧਿਆਨ ਨਹੀਂ ਰਖਦੇ। ਡਾਲਰਾਂ ਦੀ ਚਮਕ ਵਿਚ ਅੰਨੇ ਹੋਏ ਕੁਝ ਭੈਣ-ਭਰਾ ਅਤੇ ਭਾਭੀ-ਦੇਵਰ ਵੀ ਪਤੀ-ਪਤਨੀ ਬਨ ਕੇ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ ਕਰਦੇ ਫੜੇ ਜਾ ਚੁਕੇ ਹਨ। ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਐਨਆਰਆਈ ਲੜੇ ਅਤੇ ਲਾੜੀਆਂ ਦੀ ਪੁਰਜੋਰ ਮੰਗ ਹੈ। ਵਿਦੇਸ਼ ਪਹੁੰਚਨ ਲਈ ਕੁਝ ਵੀ ਕਰਨਾ ਪਵੇ ਲੋਗ ਪਿੱਛੇ ਨਹੀਂ ਹਟਦੇ, ਚਾਹੇ ਇਸ ਲਈ ਪੁਸ਼ਤੈਨੀ ਜਮੀਨ ਵੇਚਨੀ ਪਵੇ ਜਾਂ ਗਹਿਣ ਰਖਨੀ ਪਵੇ ਜਾਂ ਫੇਰ ਆਪਣੀ ਮਾਂ-ਪਤਨੀ ਦੇ ਗਹਿਣੇ ਵੇਚਣੇ ਪੈਣ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਹੀਲਾ ਵਸੀਲਾ ਵਰਤਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।

ਫਰਜੀ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟ
ਜਿਸ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਵਿਦੇਸ਼ ਪ੍ਰਤੀ ਇੰਨੀ ਅੰਨੀ ਖਿੱਚ ਹੋਵੇ ਉੱਥੇ ਸੁਭਾਵਿਕ ਹੈ ਕਿ ਇਸਦਾ ਲਾਹਾ ਲੈਣ ਵਾਲੇ ਵੀ ਪੈਦਾ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਦੋਆਬਾ ਅਤੇ ਮਾਝਾ ਇਲਾਕੇ ਵਿਚ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟਾਂ ਦਾ ਮਕੜ ਜਾਲ ਫੈਲਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਅਖਬਾਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕਾਰਨਾਮਿਆਂ ਨਾਲ ਭਰੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਹਰ ਰੋਜ ਇਨ੍ਹਾਂ ਏਜੰਟਾਂ ਹੱਥੋਂ ਠਗੇ ਜਾਣ ਦੀ ਖਬਰਾਂ ਅਖਬਾਰਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਦਸਨਾ ਮੁਨਾਸਿਬ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸੰਪਰਕ ਵਿਦੇਸ਼ ਵਿਭਾਗ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਸਥਾਨਕ ਪੱਧਰ ਤੇ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਵਿਚ ਵੀ ਹੈ ਅਤੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਦੂਤਾਵਾਸਾਂ ਵਿਚ ਵੀ। ਭੋਲੇ-ਭਾਲੇ ਲੋਕਾਂ ਤੋਂ ਲੱਖਾਂ ਰੁਪਏ ਠਗ ਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵਿਦੇਸ਼ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਪਹਿਲਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿੱਥੇ ਮਾਈਗ੍ਰੇਸ਼ਨ ਕਾਨੂੰਨ ਇੰਨੇ ਸਖਤ ਨਹੀਂ ਹਨ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਦ ਦੂਸਰੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਅੰਦਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਗੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਘੁਸਪੈਠ ਕਰਵਾਈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਜਾਨਵਰਾਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੰਟੇਨਰਾਂ ਅਤੇ ਕਿਸ਼ਤੀਆਂ ਵਿਚ ਤੁੰਨ ਕੇ ਸਮੁੰਦਰ ਪਾਰ ਕਰਵਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ।

ਮਾਲਟਾ ਬੋਟ ਕਾਂਡ
ਗੈਰ-ਕਾਨੁੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਵਾਲਿਆਂ ਨਾਲ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਵਰਤਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਇਸਦਾ ਉਦਾਹਰਣ ਹੈ ਮਾਲਟਾ ਬੋਟ ਕਾਂਡ। ਲਗਭਗ 22 ਸਾਲ ਪਹਿਲਾਂ ਇਟਲੀ ਨੇੜੇ ਹੋਈ ਇਸ ਦੁਰਘਟਨਾ ਵਿਚ 283 ਭਾਰਤੀ ਮਾਰੇ ਗਏ ਸਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਅਵਸ਼ੇਸ਼ ਅਜੇ ਤਕ ਭਾਲੇ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕੇ ਹਨ। ਘਟਨਾ ਦੇ ਦੋਸ਼ੀ ਅੱਜ ਵੀ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਘੁੰਮ ਰਹੇ ਹਨ। ਮੰਦਭਾਗੀ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਇੰਨੀ ਵੱਡੀ ਘਟਨਾ ਦੇ ਬਾਦ ਵੀ ਸਾਡੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਨੇ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਸਿਖਿਆ। ਅੱਜ ਵੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟਾਂ ਦੀਆਂ ਦੁਕਾਨਦਾਰੀਆਂ ਨਾ ਕੇਵਲ ਚਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਬਲਕਿ ਦਿੰਨ ਦੂਨੀ ਰਾਤ ਚੋਗੁਨੀ ਤਰੱਕੀ ਵੀ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਹਨ।

ਗੈਰ ਕਾਨੂੰਨ ਗਏ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਸ਼ੋਸ਼ਣ
ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਵਸੀਲਾ ਵਰਤ ਕੇ ਅਤੇ ਜਾਨ ਨੂੰ ਖਤਰੇ ਵਿਚ ਪਾ ਕੇ ਲੋਕ ਗੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਲੋਕ ਵਿਦੇਸ਼ ਪਹੁੰਚ ਵੀ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਖਤਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਬਲਕਿ ਵਧ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਉੱਥੇ ਦੇ ਲੋਕ ਵੀ ਜਾਣ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਇਹ ਮਜਦੂਰ ਜਾਂ ਕਾਮਾ ਗੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦੇਸ਼ ਆਇਆ ਹੈ। ਉਹ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਪੂਰਾ ਫਾਇਦਾ ਉਠਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਮਜਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਘੱਟ ਤਨਖਾਹ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਕੰਮ ਕਰਵਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਕਈ ਵਾਰੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਤਨਖਾਹ ਮਾਰ ਵੀ ਲਈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਪਾਸਪੋਰਟ ਜਮਾ ਕਰ ਲਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਹਾਲ ਦੀ ਘੜੀ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੰਧਕ ਬਨਾ ਕੇ ਰਖੇ ਗਏ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਅਰਬ ਦੇ ਸ਼ੇਖਾਂ ਦੇ ਘਰੋਂ ਆਜਾਦ ਕਰਵਾਏ ਹਨ। ਗੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਗਏ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਉੱਥੇ ਭਾਰਤੀ ਦੂਤਾਵਾਸ ਵਿਚ ਕੋਈ ਰਿਕਾਰਡ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਕੋਈ ਸੰਪਰਕ ਹੁੰਦਾ। ਇਸੇ ਕਾਰਨ ਸੰਕਟ ਸਮੇਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਦਦ ਕਰਨਾ ਬਹੁਤ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਰਾਕ ਦਾ ਹੀ ਮਾਮਲਾ ਲਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਜਾਣਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉੱਥੇ ਆਏ ਸੰਕਟ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਭਾਰਤੀ ਸਰਕਾਰ ਕੇਰਲ ਦੀਆਂ ਨਰਸਾਂ ਨੂੰ ਤਾਂ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਕੱਢ ਲਿਆਈ। ਕਿਉਂਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪੂਰਾ ਪਤਾ ਅਤੇ ਵੇਰਵਾ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਕੋਲ ਸੀ। ਜੇਕਰ ਇਨ੍ਹਾਂ 39 ਭਾਰਤੀਆਂ ਦਾ ਵੀ ਕੋਈ ਰਿਕਾਰਡ ਹੁੰਦਾ ਜਾਂ ਸੰਪਰਕ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਦੀ ਹਰ ਸੰਭਵ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਜਾਣੀ ਸੀ।

ਸਵਰੋਜਗਾਰ ਹੀ ਬਿਹਤਰ ਸਾਧਨ
ਵਿਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਧੱਕੇ ਖਾਣ, ਉੱਥੇ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਗੁਲਾਮੀ ਕਰਨ ਅਤੇ ਆਪਣਾ ਜੀਵਨ ਜੋਖਿਮ ਵਿਚ ਪਾਉਣ ਨਾਲੋਂ ਚੰਗਾ ਹੈ ਕਿ ਨੌਜਵਾਨ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਰਹਿ ਕੇ ਹੀ ਕੋਈ ਨਾ ਕੋਈ ਰੋਜਗਾਰ ਦਾ ਧੰਧਾ ਅਪਣਾਵੇ। ਇਸ ਲਈ ਕੇਂਦਰ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਸਟਾਟਰਟ ਅਪ ਯੋਜਨਾ, ਸਟੈਂਡ ਅਪ ਯੋਜਨਾ, ਮੁਦ੍ਰਾ ਬੈਂਕ ਯੋਜਨਾ, ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਰੁਜਗਾਰ ਯੋਜਨਾ, ਘੱਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਲਈ ਸਵਰੋਜਗਾਰ ਯੋਜਨਾ ਸਮੇਤ ਕਈ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਸਕੀਮਾਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਅਪਨਾ ਕੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨਾ ਕੇਵਲ ਆਪਣੇ ਲਈ ਬਲਕਿ ਆਪਣੇ ਜਿਹੇ ਹੋਰ ਸਾਥੀ ਲਈ ਵੀ ਰੋਜਗਾਰ ਦੇ ਨਵੇਂ ਮੌਕੇ ਸਿਰਜ ਸਕਦੇ ਹਨ।

ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਓ ਪਰੰਤੂ ਕਾਨੂੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ
ਵਿਦੇਸ਼ ਰਾਜਮੰਤਰੀ ਜਨਰਲ ਵੀਕੇ ਸਿੰਘ ਨੇ ਠੀਕ ਹੀ ਕਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣਾ ਕੋਈ ਬੁਰੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈ ਪਰੰਤੂ ਇਸ ਲਈ ਪੂਰੇ ਦਸਤਾਵੇਜ ਹੋਣੇ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹਨ। ਵਿਦੇਸ਼ ਸੈਟਲ ਹੋਣ ਦਾ ਕੰਮ ਕਾਨੂੰਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਹੀ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਨੌਜਵਾਨ ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਕੰਮ ਦੀ ਟ੍ਰੇਨਿੰਗ ਲਵੇ ਅਤੇ ਦਸਤਾਵੇਜ ਪੂਰੇ ਕਰਕੇ ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਵੇ। ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾ ਕੇ ਵੀ ਉਹ ਭਾਰਤੀ ਦੂਤਾਵਾਸ ਨਾਲ ਸੰਪਰਕ ਰਖੇ ਤਾਂ ਹੀ ਵਿਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਰਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।

ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟਾਂ ਤੇ ਨਕੇਲ
ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਕੁਰਾਹੇ ਪਾਉਣ ਦਾ ਸਭਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਕੰਮ ਟ੍ਰੈਵਲ ਏਜੰਟ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਸਰਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪੰਜੀਕਰਨ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਸਮੇਂ-ਸਮੇਂ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕੰਮਾ ਦੀ ਸਮੀਖਿਆ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ। ਫਰਜੀ ਏਜੰਟਾਂ ਨੂੰ ਗਿਰਫਤਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ। ਵਿਦੇਸ਼ ਜਾਣ ਦੇ ਚਾਹਵਾਨ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਸਰਕਾਰੀ ਏਜੰਸੀਆਂ ਰਾਹੀਂ ਗਾਈਡ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ।

- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
32 ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਲੋਨੀ, ਵੀਪੀਓ ਰੰਧਾਵਾ ਮਸੰਦਾ
ਜਲੰਧਰ।
ਮੋ. 097797-14324

Thursday, 12 April 2018

थोड़े-थोड़े खिलजी हम सब

हाल ही में प्रदर्शित हुई हिंदी फिल्म पद्मावत ने इतिहास के उस क्रूरतम व विभत्स पात्र अलाउद्दीन खिलजी को समाज के मानस पटल पर पुन: जीवित कर दिया जिसने रानी पद्मावती को पाने के लिए हजारों लाशें बिछा दीं व अपनी सत्ता की पूरी ताकत झोंक दी। उन्नाव व कठुआ में हुई दुराचार की दो घटनाओं से न जाने क्यों ऐसा लगने लगा है कि खिलजी किसी न किसी रूप में आज भी जिंदा है। इससे भी आगे कहा जाए तो थोड़े-थोड़े खिलजी हम भी हैं। अगर ऐसा न होता तो आज सरकारें, शासन प्रणाली उक्त दुराचार के आरोपियों को बचाने का प्रयास न करती होतीं और पक्ष-विपक्ष में समाज भी न बंटा दिखता।

उन्नाव में सामूहिक बलात्कार के एक आरोप के बाद उत्तर प्रदेश में लगता है कि प्रशासन की सारी ताकत आरोपियों को बचाने में खप रही है। बलात्कार के आरोप पर कार्रवाई न होने से निराश पीडि़ता ने मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह करने की कोशिश की, तब भी पुलिस को अपनी ड्यूटी निभाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। लड़की के पिता की आरोपी विधायक के भाई और उसके साथियों ने बर्बरता पूर्वक पिटाई की। पर पुलिस ने मारपीट करने वालों के बजाय उल्टे लड़की के पिता को ही हिरासत में ले लिया जहां उसकी मौत हो गई। पहले उस पर भी पर्दा डालने की कोशिश की गई, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह बेरहमी से पिटाई सामने आई। अब सीबीआई जांच की बात कही जा रही है और वहां की सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए उच्च न्यायालय को दो-टूक जवाब मांगना पड़ा।

दूसरी घटना में जम्मू क्षेत्र के कठुआ में आठ साल की बच्ची के साथ दरिंदगी और हत्या के मामले में दायर दो आरोपपत्रों में जो खुलासा हुआ है, वह विभत्स और शर्मनाक है। दुखद है कि मामले को अब पूरी तरह से सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है। हैरानी वाली बात तो यह भी है कि इस पूरी घटना को अंजाम देने में पुलिस न केवल अपराधियों के साथ मिली रही, बल्कि आपराधिक कृत्य में भी भागीदार बनी। घटना इस साल दस जनवरी की है जब बक्करवाल समुदाय की आठ साल की एक लड़की को कुछ लोगों ने अगवा कर एक मंदिर में छिपा लिया था और वहां उसके साथ कई बार सामूहिक बलात्कार बाद उसकी हत्या कर दी गई। शव को जंगल में फेंक दिया गया और उसके सिर को पत्थर से कुचल दिया गया। पुलिस ने कहा है कि घटना का असली साजिशकर्ता मंदिर का पुजारी था, जिसने अपने बेटे, भतीजे, पुलिस के एक एसपीओ और उसके दोस्तों के साथ हफ्ते भर इस जघन्य अपराध को अंजाम दिया। इसके अलावा, दो पुलिसवालों ने पुजारी से घटना के सबूत करने नष्ट करने के लिए चार लाख रुपए लिए। चौंकाने वाली बात तो यह है कि आरोपियों के समर्थन में रैली निकाली गई और बंद रखा गया। आरोपी डोगरा समुदाय के हैं। कुछ वकीलों ने पुलिस को आरोपपत्र दाखिल करने से रोकने की कोशिश की।

विश्वास नहीं होता कि हम उस पुण्यभूमि के निवासी हैं जिस पर उस भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने जन्म लिया जिसने शासकों के लिए लोकलाज को इतना महत्त्वपूर्ण बताया कि एक धोबी के कहने पर पत्नी तक का त्याग कर दिया और दूसरा द्रोपदी की वेदना पर सबकुछ छोड़ कर सुदर्शन सहित कौरव सभा में भागे चला आया। आज के शासक व राजकर्मी तो दुषासन के ही भाई लगने लगे हैं। माना कि केवल आरोप लगाने से कोई अपराधी नहीं बन जाता परंतु यह पुलिस की ड्यूटी है कि वह आरोपों पर तुरंत कार्रवाई करे। आरोपी चाहे जो हो उसे पर कानून अनुसार सबक सिखाए। यूपी में तो लगता है कि सारी सरकार व प्रशासन आरोपी विधायक के सामने नत्मसत नजर आरही है। ऐसा करते हुए वहां की सरकार यह भूल रही है कि इसी गुंडागर्दी के खिलाफ कानून व्यवस्था के एजेंडे पर भाजपा सरकार सत्ता में आई थी। अगर आरोपियों को यूं ही बचाया जाना था तो समाजवादी पार्टी की सरकार क्या बुरी थी जिसके मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के एक केस के बाद कहा था कि लड़कों से गलती हो ही जाती है। आरोपी विधायक पर जब अपहरण व दुराचार और पोसको अधिनियम के तहत केस दर्ज हो चुके थे तो उसकी गिरफ्तारी में विलंब क्यों किया गया और क्यों उसके लिए तरह-तरह की बहानेबाजी की गई? इससे साफ संकेत गया कि सरकार आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रही है। अब उसकी गिरफ्तारी से यही साबित होता है कि योगी सरकार ने प्याज भी खाए और छित्तर भी परंतु अंत में कार्रवाई भी करनी पड़ी।

उन्नाव की घटना ने न केवल यूपी की योगी सरकार की छवि को दागदार किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की भी छिछालेदरी की है। पार्टी इसे स्थानीय या प्रदेश से जुड़ा मुद्दा मानती है तो यह भयंकर भूल होगी क्योंकि जिस तरीके से राष्ट्रीय मीडिया ने इसे उठाया है मुद्दा न केवल प्रदेशों बल्कि देशों की सीमाओं को भी लांघ गया। कहते हैं कि एक बार लक्ष्मी ने विष्णु जी से पूछा कि आपने त्रेतायुग में तो जटायू जैसे पक्षी का भी अंतिम संस्कार व तर्पण किया परंतु द्वापर में जीवंत धर्म के मार्ग पर चलने वाले शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह के मुंह में पानी तक भी नहीं डाला, यह काम अर्जुन से करवाया। इस पर विष्णु जी ने कहा कि जटायु माता सीता के रूप में महिला की रक्षा के लिए यह जानते हुए भी रावण से भिड़ गया कि वह उससे जीत नहीं पाएगा परंतु सामथ्र्यशाली भीष्म द्रोपदी का चीरहरण होते देखते रहे। जो पुरुष संकटग्रस्त महिला की रक्षा नहीं कर सकता वह मुझे प्रिय नहीं है। हमारी सरकारों व राजनीतिक दलों को भी समझना चाहिए कि देश की जनता सबकुछ सहन कर सकती है परंतु बहन बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर।
मो. 097797-14324

जलियांवाला बाग हत्याकांड और भगवान श्रीराम

देश आज 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में हुए जलियांवाला बाग नरसंहार की 99 वीं पुण्यतिथि मना रहा है। इस नृशंस हत्याकांड ने जहां अंग्रेजों के प्रति केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में सभ्य लोगों के मनों में अंग्रेजों के प्रति नफरत की भावना पैदा कर दी वहीं पूरे देश को एकजुट कर दिया। रोचक बात है कि इस एकता के प्रणेता कोई और नहीं बल्कि देश की रग-रग में बसे भगवान श्रीराम थे। इस कांड से पहले अमृतसर में मनाई गई रामनवमी ने हिंदू-मुसलमानों को एकजुट कर दिया और इसी से खफा हो कर ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को मजा चखाने की सोची और मौका मिला 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग होने वाली कान्फ्रेंस के दौरान। महान क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान अपने साथी रामप्रसाद बिस्मिल को श्रद्धापूर्वक राम के नाम से पुकारते थे। भगवान श्रीराम इस देश की आस्था के प्रतीक ही नहीं बल्कि क्रांति की अग्निशिखा भी रहे हैं।

1919 वह वर्ष था, जब भारत के लोग आजादी को पाने के लिए नई हिम्मत और एकता का उदाहरण पेश कर रहे थे। अंग्रेजों ने रोलेट एक्ट लागू किया था, जिसने आग में घी का काम किया और आजादी की ज्वाला को और भड़का दिया। पंजाब में हिन्दू, सिख और मुस्लिम समुदाय की एकता अंग्रेजों को देखे नहीं सुहा रही थी। अंग्रेज किसी भी कीमत पर इस एकता को तोडऩे और भारतीय लोगों के मन में से निकल चुके डर को फिर से स्थापित करना चाहते थे। और इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। रोलेट एक्ट के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में एक जनसभा रखी गई थी। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए 10 अप्रैल 1919 को दो बड़े नेताओं डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को तथा महात्मा गांधी को भी गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन अपने नेताओं की गिरफ्तारी से आम जनता का क्रोध और भी भड़क उठा।

रोलेट एक्ट के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को शांतिपूर्ण तरीके से अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक जनसभा रखी गई, जिसे विफल करने के लिए अंग्रेज जबर्दस्त हिंसा पर उतर आए। यह विरोध इतना जबर्दस्त था कि छह अप्रैल को पूरे पंजाब में हड़ताल रही और 10 अप्रैल 1919 को हिन्दू एवं मुसलमानों ने मिलकर बहुत बड़े स्तर पर रामनवमी के त्योहार का आयोजन किया। यह आयोजन इतना जबरदस्त था कि बांटो और राज करो की नीति पर चल रही अंग्रेज सरकार इससे हिल गई। रामनवमी को निकाली गई शोभायात्रा का जगह-जगह स्वागत किया गया। केवल हिंदू-सिख समाज ही नहीं बल्कि मुसलमानों ने भी जगह-जगह स्टाल लगा कर शोभायात्रा का स्वागत किया। श्रद्धालुओं को मीठा शरबत पिलाया गया और मस्जिदों के बार स्टाल लगा कर शोभायात्रा पर पुष्पवर्षा की गई। अंग्रेजों ने इस आयोजन को रोकने की कई कुचालें रचीं परंतु सामाजिक एकता की भावना के सामने उनकी एक न चली। हिन्दू-मुसलमानों की इस एकता से पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर घबरा गया। अंग्रेजों ने 13 अप्रैल की जनसभा को विफल करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद के सभी तरीके अख्तियार कर लिए। अंग्रेजों ने खौफ पैदा करने के लिए लोगों के इस जमावड़े से कुछ दिन पहले ही 22 देशभक्तों को मौत के घाट उतार दिया। इस नरसंहार में मरने वालों की संख्या ब्रितानिया सरकार ने 300 बताई, जबकि कांग्रेस की रिपोर्ट के अनुसार इसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए। जलियांवाला बाग में गोलियों के निशान आज भी मौजूद हैं, जो अंग्रेजों के अत्याचार की कहानी कहते नजर आते हैं।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Monday, 9 April 2018

राहुल गांधी, कमजोर कंधे भारी जिम्मेवारी

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी की बागडोर संभाले 4 महीने का समय बीता है और अभी सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या वे गांधी-नेहरू खानदान के महाराजा दलीप सिंह साबित होंगे ? इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो सामने आता है कि अतीत में अनेकों ऐसे महान शासक हुए जिनकी संतानें उतनी योग्य नहीं हुईं और उनके शासन का पतन हुआ। अंग्रेजों, पुर्तगालियों व पठानों को हर मोर्चे पर शिकस्त देने वाले शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र महाराजा दलीप सिंह उन्हीं कमजोर संतानों के प्रतीक हैं जो ब्रिटिश शासन के सामने कूटनीतिक, रणनीतिक व राजनीतिक रूप से परास्त हुए। आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में कहीं न कहीं महाराजा दलीप सिंह की छवि दिखनी शुरू हो चुकी है, जिसे तत्काल बदलने की जरूरत है।

यह बात चुनावी हार-जीत की नहीं है कि किस तरह राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद की कुर्सी संभालने के बाद गुजरात के बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों ेमें करारी शिकस्त का स्वाद चखा। आजकल देखने में आ रहा है कि गाहे-बगाहे किसी राजनीतिक दल व नेता की सफलता-असफलता की कसौटी को केवल चुनावी प्रदर्शन को ही मान लिया गया है, जो गलत है। अगर ऐसा होता तो आज महात्मा गांधी, भीमराव रामजी आंबेडकर, डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं के नाम इतने आदर से न लिए जाते जो चुनावी अंकगणित के इतने बड़े विशेषज्ञ तो नहीं थे परंतु अपनी परिपक्वता के लिए आज भी देश की राजनीति के मार्गदर्शक बने हुए हैं। वैसे तो राहुल गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन में एक-आध अवसर को छोड़ कर इस परिपक्वता के दर्शन नहीं हुए परंतु एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस के सर्वेसर्वा होने के नाते उनमें जो समझ विकसित होनी चाहिए थी उसकी अभी झलक दिखाई नहीं पड़ी। पार्टी के अन्य पदों पर रहते हुए उन्होंने जो भी भूलें की हों वह क्षम्य हैं क्योंकि उसका असर कांग्रेस पर इतना नहीं पडऩा था परंतु अब अध्यक्ष होने के नाते उन्हें संभल-संभल कर चलने व शब्दों को चबा-चबा कर उगलने की जरूरत है जिसका अभी अभाव खल रहा है। हाल ही में हुए दलित आंदोलन के दौरान उनका व्यवहार देश को गुमराह करने वाला व अपरिपक्व ही कहा जा सकता है। उन्हें आंदोलन कारियों को समर्थन देते समय उनसे शांति बनाए रखने की अपील करनी चाहिए थी परंतु उन्होंने ट्वीट कर कहा कि भाजपा-आरएसएस दलित विरोधी है और यह गुण उनके डीएनए में है। भाजपा से उनके लाख मतभेद व राजनीतिक भेद हो सकते हैं परंतु यह अवसर संकीर्ण राजनीति करने का नहीं था। उनके इस ट्वीट ने सड़कों पर उतरे लाखों-करोड़ों प्रदर्शनकारियों को एक तरह से उकसाने का काम किया। देश के सबसे पुराने एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष होने के नाते उनका संवैधानिक दायित्व बनता था कि वे लोगों को सर्वोच्च न्यायालय के एससीएसटी अधिनियम पर दिए फैसले  की भावना को खुद समझते और लोगों को भी समझाते और सरकार से अपील करते कि वह अदालत में पूरी दृढ़ता के साथ इस अधिनियम के साथ खड़ी हो। परंतु उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अदालत ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया है। एक राष्ट्रीय नेता जब सुधार को निरस्त बताता है तो यह या तो उनकी अपरिपक्वता का उदाहरण हो सकता है या फिर राजनीतिक मौकापरस्ती का।

यह कोई पहला अवसर नहीं है जब राहुल गांधी ने असत्य तथ्यों का सहारा लिया हो। याद हो कि गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने राज्य में बेरोजगार युवाओं की संख्या 50 लाख बताई और चार घंटे बाद अगली ही जनसभा में इसे घटा कर 20 लाख कर दिया। इस पर उनको काफी फजीहत का भी सामना करना पड़ा। उनकी परिपक्व समझ का इसी से संकेत मिलता है कि जब देश डोकलाम विवाद पर चीन से भिड़ रहा था तो राहुल गांधी चीन के राजनयिक से बैठकें कर रहे थे। वे कितना समझ कर बोलते हैं इसका इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि उन्हें कई बार अपने ही किए ट्वीट हटाने पड़े हैं। अभी हाल ही में एक विश्वविद्यालय में वे एनसीसी व आरएसएस में अंतर नहीं कर पाए। लगता है कि राहुल तो राहुल, उनके रणनीतिकार व सलाहकार भी उनकी छवि सुधारने की ओर इतना ध्यान नहीं दे रहे या फिर उनके इन सहयोगियों को आशातीत सफलता नहीं मिल रही है।

राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी में दलित वोटबैंक को लेकर एक तरह से रस्साकशी शुरू हो चुकी है। कांग्रेस बसपा से अपना छिना दलित आधार वापिस पाने को तिलमिला रही है तो मायावती को डर है कि दलित पुन: कांग्रेस के खेमे में चले जाते हैं तो उनके हाथी को लकवा मार सकता है। इसके लिए देश की सामाजिक एकता, कानून व्यवस्था, संवैधानिक जिम्मेवारी आदि सबकुछ ताक पर रखी जा रही हैं। देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले आम चुनाव के कारण  आज की राजनीति में 'दलित चालीसा' का पाठ कुछ ज्यादा ही ऊंचे और विभाजनकारी स्वरों में किया जाने लगा है। ऐसा करते हुए दलित उत्पीडऩ का राग अलापने वाले राहुल गांधी इस प्रश्न का उत्तर देना भूल जाते हैं कि देश में सर्वाधिक शासन करने वाली कांग्रेस साठ सालों में इस वंचित समाज को उनका समूचित अधिकार क्यों नहीं दिलवा पाई? दलित की बेटी होने का दंभ भरने वाली मायावती भूल जाती है कि साल 2007 में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने भी यही नियम लागू किए थे जो आज एससीएसटी अधिनियम को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हैं। अवसर है कि खुद दलित समाज भी इस तरह के अपरिपक्व व गुमराह करने वाले नेताओं से खुद को बचाए। देश की 125 करोड़ की जनसंख्या में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो दलित व वंचित समाज को उसका अधिकार देने का विरोध करता हो परंतु याद रहे कि किसी भी तरह की न्याय की लड़ाई अन्यायपूर्ण तरीके से नहीं लड़ी जा सकती।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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मो. 097797-14324

Friday, 6 April 2018

लोकमंच पर लोकलाज का अंकुश जरूरी

हर रोज के हंगामों और गतिरोधों के बीच संसद का बजट सत्र समाप्त हो गया। संसद के दोनों सदनों में देश ने जिस तरह माननीयों की उद्दंडता देखी उससे लगता है कि लोकमंच से लोकलाज का अंकुश हटता जा रहा है। साल 2018-19 में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 24 लाख करोड़ रुपये का अब तक का सबसे बड़ा व ऐतिहासिक बजट पेश किया। इस पर बहस भी होनी चाहिए थी। जनता के मन में जो सवाल उठते हैं उनके उत्तर उन्हें मिलने चाहिए थे। इसी काम के लिए देश की जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजती है, लेकिन जनता के नुमाइंदों ने इतने बड़े बजट पर एक दिन से भी कम बहस की। बाकी का समय शोर-शराबे में यूं ही बर्बाद कर दिया। 29 जनवरी से 9 फरवरी और 5 मार्च से 6 अप्रैल तक दो चरणों में चले बजट सत्र में कुल मिलाकर करीब 2 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए। अब सत्तापक्ष और विपक्ष सड़कों पर उतर कर विभिन्न मुद्दों पर एकदूसरे को घेरने की बात कर रहे हैं परंतु जब यह काम तार्किक तरीके से सदन में किया जाना था तो न तो विपक्ष ने गंभीरता दिखाई और न ही सत्तापक्ष विरोध को नकेलने में सफल हो पाया। साल 2000 के बाद यह सबसे खराब संसद सत्र बताया जा रहा है। अबकी बार अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा तब देखी गई जब सांसद बार-बार सदन के वैल में आते दिखे और न केवल नारेबाजी के नाम पर हंगामा किया बल्कि गली-कूचे की राजनीति करते हुए तख्तियां लहराईं। कई बार तो इन तख्तियां से लोकसभा व राज्यसभा अध्यक्षों के चेहरे भी ढके जाते रहे।

देखने में आरहा है कि चुनावी वर्ष होने के कारण राजनीतिक दलों का ध्यान जनता के मुद्दों की बजाय अपनी राजनीति चमकाने की तरफ ज्यादा रहा। सत्र के दूसरे हिस्से की शुरुआत से ही टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस के सांसद आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग पर अड़े रहे। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही शुरू होते ही वेल में आकर सांसदों का हंगामा रुटीन बन गया था। सरकार द्वारा यह स्पष्ट किए जाने के बावजूद भी कि जिन विशेष परिस्थितियों के चलते किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाता है, वह आंध्र प्रदेश पर लागू नहीं होतीं और सरकार उस राज्य के विशेष पैकेज देने को तैयार है इसके बावजूद हंगामा बरपा रहा। असल में आंध्र प्रदेश में जल्द विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और टीडीपी व वाएसआर कांग्रेस का उद्देश्य परस्पर नीचा दिखा कर प्रदेश की राजनीति में अपनी सार्थकता साबित करना रहा न कि मुद्दे का हल निकालना। लगभग यही बात कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की मांग को लेकर लागू होती है, जब एआईएडीएमके के सांसदों ने दोनों सदनों में जोरदार हंगामा किया। पार्टी ने राज्यसभा में कई बार स्थगन प्रस्ताव का नोटिस देकर इस मुद्दे पर चर्चा की मांग की। लेकिन सदन में हंगामे की वजह से किसी भी मुद्दे पर चर्चा नहीं हो सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 फरवरी को राज्य में कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की बात कही थी। इसको लेकर तामिलनाडू की राजनीति में यह मुद्दा भड़क गया और खमियाजा भुगतना पड़ा संसद को।

सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस, टीएमसी समेत अन्य विपक्षी दल पीएनबी घोटाले पर वोटिंग वाले नियम 52 के तहत इस मुद्दे पर चर्चा चाहते थे, लेकिन सरकार इसपर तैयार नहीं थी। सरकार चर्चा के लिए राजी तो थी लेकिन नियम 193 के तहत, जिसमें सिर्फ बहस हो सकती है लेकिन वोटिंग नहीं की जा सकती। दोनों सदनों में इस मुद्दे पर हंगामा होता रहा लेकिन बहस किसी भी नियम के तहत नहीं हो सकी। हीरा कारोबारी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी पर 12000 करोड़ रुपए के इस बैंक घोटाले का आरोप हैं। इसके अतिरिक्त सीबीएसई पेपर लीक मामले ने सदन को रोके रखा। अभी हाल ही में एससी/एसटी कानून में बदलाव के खिलाफ दलित संगठनों का देशव्यापी बंद बुलाया था। इस मुद्दे को लेकर संसद के दोनों सदनों में भी गतिरोध रहा। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया वहीं सरकार ने भी संसद में साफ किया कि वह कानून को कमजोर नहीं बल्कि मजबूती देने के लिए प्रतिबद्ध है।

इन गंभीर मुद्दों पर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले आम चुनाव को लेकर पृष्ठभूमि तैयार करने का ही प्रयास किया। देखा जाए तो विपक्ष ने बैंक घोटाले, पेपर लीक मामले व एससी एसटी एक्ट को लेकर हंगामा करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया। विपक्ष चाहता तो इन मुद्दों पर तर्कों व तथ्यों के सहारे सरकार की बखियां उधेड़ सकता था और यह तर्क सरकारी रिकार्ड में भी दर्ज होते। विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने संसद का खूब लाभ उठाया और  तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ बने जनमत में संसद के दौरान हुई बहसों का सबसे अधिक योगदान रहा। तथ्य साक्षी हैं कि संसद के इन्हीं तर्कों को आधार बना कर ही आज देश के विभिन्न न्यायालयों में कांग्रेस व यूपीए सरकार के विभिन्न घटकों के नेताओं के खिलाफ अदालतों में केस विचाराधीन हैं। लेकिन कांग्रेस सदन का लाभ लेने से चूक गई। उक्त गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस सदन में केवल हंगामा करती रही और सरकार बाहर इनके आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई। दूसरी ओर टीवी चर्चाओं में भाजपा नेता उक्त मुद्दों पर कांग्रेस को ही घेरते रहे और आज हालात यह हैं कि बैंक घोटालों व बैंकों के एनपीए के मामलों में सरकार से अधिक कांग्रेस दोषी नजर आने लगी है। फिलहाल जिस तरह संसद को क्षेत्रीय व गली कूचे की राजनीतिक का अड्डा बनाया जा रहा है वह देश के लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। जनता को भी चाहिए कि वह अपने जनप्रतिनिधियों से इसका हिसाब जरूर लें कि उन्होंने विधानमंडलों में उनसे जुड़े कितने मुद्दे उठाए और कितनी समस्याओं का समाधान करवाया। ये लोकलाज ही है जो लोकमंच के साथ-साथ लोकतंत्र को पटरी पर बनाए रख सकती है।

- राकेश सैन
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Thursday, 5 April 2018

बिश्नोई सिद्धांत, 'सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जान'

अर्थात सिर कटाने से भी वृक्ष बचता है तो यह भी सस्ता सौदा है। इस तरह पर्यावरण संरक्षण के लिए जीवन तक बलिदान करने की प्रेरणा देता है बिश्नोई पंथ। जिस समाज ने दुनिया में सबसे पहले वृक्षों की रक्षा के लिए सैंकड़ों जीवन का बलिदान दिया आज उसी समाज ने पूर्णत: धैर्य के साथ कानूनी लड़ाई लड़ते हुए अपने आप को दबंग कहलाना पसंद करने वाले उस सलमान खान को घिग्गी बिल्ली बना दिया जिसने 1998 में निरीह प्राणी कृष्ण मृग की केवल शौंकपूर्ति के लिए हत्या कर दी थी। बिश्नोई समाज के बलिदान और अब कानूनी लड़ाई के रूप में जीत ने साबित कर दिया है कि यह समाज शस्त्र और शास्त्र दोनों में परंगत है। समाज ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है।

बियाबान रेगिस्तान में वे वन्य प्राणियों और पेड़ पौधों के रक्षक हैं। बिश्नोई समाज के लोग जंगली जानवर और पेड़ों के लिए अपनी जान का नजऱाना पेश करने को भी तैयार रहते हैं। इसीलिए जब सलमान खान के हाथों काले हिरणों के शिकार का मामला सामने आया तो वे सड़कों पर आ गए। बिश्नोई अपने आराध्य गुरु जम्भेश्वर के बताए 29 नियमों का पालन करते हैं। इनमें एक नियम वन्य जीवों की रक्षा और वृक्षों की हिफाजत से जुड़ा है। बिश्नोई समाज के लोग सिर्फ रेगिस्तान तक ही महदूद नहीं है, वे राजस्थान के अलावा हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी आबाद हैं। बिश्नोई समाज के बलिदानियों की याद में हर साल राजस्थान के खेजड़ली गांव में मेला आयोजित किया जाता है। जोधपुर से सांसद रहे जसवंत सिंह बिश्नोई कहते है, हमारे संस्थापक जम्भेश्वर जी ने जीव दया का पाठ पढ़ाया था। वे कहते थे, जीव दया पालनी, रूंख लीलू नहीं घावे अर्थात जीवों के प्रति दया रखनी चाहिए और पेड़ों की हिफाजत करनी चाहिए। इन कार्यो से व्यक्ति को बैकुंठ मिलता है। इस समाज के लोग दरख्तों और वन्य प्राणियों के लिए रियासत काल में भी हुकूमत से लड़ते रहे हैं। बिश्नोई समाज के पर्यावरण कार्यकर्ता हनुमान बिश्नोई कहते हैं, जोधपुर रियासत में जब सरकार ने पेड़ काटने का आदेश दिया था तो बिश्नोई समाज के लोग विरोध में आ खड़े हुए थे। ये 1787 की बात है। उस वक्त राजा अभय सिंह का शासन था। जोधपुर के पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री बिश्नोई कहते हैं, उस वक्त ये नारा दिया गया था, सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जान। इसका मतलब था, अगर सिर कटाकर भी पेड़ बच जाएं तो भी सस्ता है। बिश्नोई बताते हैं, जब रियासत के लोग पेड़ काटने के लिए आए तो जोधपुर के खेजड़ली और आस-पास के लोगों ने विरोध किया। उस वक्त बिश्नोई समाज की अमृता देवी ने पहल की और पेड़ के बदले खुद को पेश किया। इसी कड़ी में बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने दरख्तों के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इनमें 111 महिलाएं थीं। इन्हीं बलिदानियों की याद में हर साल खेजड़ली में मेला आयोजित किया जाता है और लोग अपने पुरखों की क़ुर्बानी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। ये आयोजन न केवल अपने संकल्प को दोहराने के लिए है बल्कि नई पीढ़ी को वन्य जीवों की रक्षा और वृक्षों की हिफाजत की प्रेरणा देने का काम करता है। गुरु जम्भेश्वर का जन्म 1451 में हुआ था। बीकानेर जिले में अपने गुरु का जन्म स्थान समरथल बिश्नोई समाज का तीर्थस्थल है। वहीं, उस क्षेत्र के मकाम में गुरु जम्भेश्वर का समाधिस्थल है। जहां हर साल मेला आयोजित किया जाता है। मारवाड़ रियासत के जनसंख्या अधीक्षक (सेंसस सुपरिटेंडेंट) मुंशी हरदयाल ने बिश्नोई समाज पर किताब लिखी है। उन्होंने लिखा है, बिश्नोई समाज के संस्थापक जम्भो जी पंवार राजपूत थे। साल 1487 में जब जबरदस्त सूखा पड़ा तो जम्भो जी ने लोगो की बड़ी सेवा की। उस वक्त बड़ी तादाद में जाट समुदाय के लोगों ने जम्भो जी से प्रेरित होकर बिश्नोई धर्म को अपना लिया। मुंशी हरदयाल लिखते हैं कि बिश्नोई समाज के लोग जम्भो जी को हिंदुओं के भगवान् विष्णु का अवतार मानते हैं। बिश्नोई समाज की व्याख्या इस तरह से भी की जाती है कि जम्भो जी ने कुल 29 जीवन सूत्र बताए थे। बीस और नौ मिलकर बिश्नोई हो गए। बिश्नोई समाज में किसी के दिवंगत होने पर दफनाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। पूर्व सांसद विश्नोई कहते हैं, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब आदि में किसी के निधन पर शव को दफनाने की प्रक्रिया है। यूपी के कुछ भागों में दाह संस्कार किया जाता है। रेगिस्तान में वन्य जीवों के प्रति बिश्नोई समाज के लोग अडिग खड़े मिलते हैं और बीच-बीच में हिरणों का शिकार करने वालो से उनका मुकाबला भी होता रहता है। बिश्नोई बहुल गावों में ऐसे मंजर भी मिलते हैं जब कोई बिश्नोई महिला किसी अनाथ हिरण के ब'चे को अंचल में समेटे स्तनपान कराती नजर आती है। बिश्नोई मानते हैं कि जितना मनुष्य का जीवन मूल्यवान है, उतना ही महत्वपूर्ण है प्रकृति की रक्षा करना। वे कहते हैं, जम्भो जी के जीवन और शिक्षा से प्रभावित होकर अनेक जातियों ने बिश्नोई जीवन मूल्यों में आस्था व्यक्ति की और बिश्नोई हो गए।
- राकेश सैन
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Tuesday, 3 April 2018

आंबेडकरवादी सिद्धांतों को जख्म दे गया दलित आंदोलन

देश में शांति व परस्पर सौहार्द को लेकर बाबा साहिब भीमराव रामजी आंबेडकर कितने संजीदा थे इसका अनुमान उन विचारों से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि ''कानून और व्यवस्था राजनीतिक शरीर की दवा है। जब राजनीतिक शरीर बीमार पड़े तो दवा जरूर दी जानी चाहिए।'' अभी 2 अप्रैल सोमवार को देश ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को लेकर जो हिंसा, आगजनी व असमाजिक तत्वों का तांडव देखा उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस आंदोलन ने बाबा साहिब के सिद्धांतों को घायल करके रख दिया है। संपत्ति के नुक्सान की भरपाई तो देर-सवेर हो जाएगी परंतु आंदोलन ने जातिवाद की खाई को जिस तरह फिर से चौड़ा कर दिया उसे पाटने में लंबा समय लगेगा। इसके लिए आंदोलनकारियों, सरकार व विपक्ष में किसी को भी दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। सभी पक्षों ने जिम्मेवारी निभाई होती तो न तो इतनी बेशकीमती जानें जाती, न ही जातिवादी द्वेष फैलता और यह पूरा आंदोलन दलित चेतना की उदाहरण बन जाता जो आज अपराधियों की भांति कटघरे में खड़ा दिख रहा है।

भारत बंद वाले दिन सुबह से ही दलित संगठनों के कार्यकर्ता जमा होने लगे थे, हालांकि उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि इस आंदोलन की आग में 8 लोग झुलस जाएंगे। मध्य प्रदेश में 6, राजस्थान में 1 और उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में एक व्यक्ति की मौत ने इस आंदोलन को रक्तरंजित कर दिया। उत्तर प्रदेश में दंगाईयों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में आंदोलनकारी आपस में ही भिड़ गए जिसमें 30 से ज्यादा लोग जख्मी हो गए। पंजाब, बिहार औऱ ओडि़सा भी बंद से त्रस्त रहा। आंदोलनकारियों ने रेल व सड़क पर पहिये थाम दिये और जमकर हंगामा किया। कई स्थानों पर रोगी वाहनों (एंबुलेंसों) को रोकने व महिलाओं और बच्चों पर भी हमलों के घटनाक्रम भी टीवी स्क्रीन पर दिखे। यह सभी दृश्य किसी लोकतांत्रिक देश ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए शर्मनाक थे। पुलिस व लोगों पर पत्थर फेंकने वाले प्रदर्शनकारी कश्मीरी पत्थरबाजों का ही दूसरा अवतार लग रहे थे। आंदोलन के नेता या तो इतने कमजोर थे कि वे अपने लोगों को नियंत्रित नहीं कर पाए और अपने भीतर छिपे असमाजिक तत्वों को नहीं पहचान सके या फिर उनकी मंशा भी शायद यही रही हो। इन तीनों परिस्थितियों में आंदोलन का नेतृत्व अपनी असफलता की जिम्मेवारी से बच नहीं सकता।

बात करते हैं सरकार की, जिस पर लोगों की जानमाल की सुरक्षा का संवैधानिक जिम्मा है वह परिस्थितियों की गंभीरता को भांपने में असफल रही। कई प्रश्न हैं जो सरकारों की कार्यप्रणाली को अक्षमता के दायरे में लाते हैं। आंदोलन से पहले इसके आयोजकों से बातचीत क्यों नहीं की ? सोशल मीडिया पर जब जबरदस्त प्रचार हो रहा था को सरकार सचेत क्यों न हुई ? अपराधी व असमाजिक तत्वों की धरपकड़ क्यों नहीं की गई ? पंजाब सरकार द्वारा दिखाई गई सख्ती का ही परिणाम है कि देश में सर्वाधिक दलित जनसंख्या वाले राज्य में इतनी हिंसा नहीं हुई। वर्तमान समय में होने वाले आंदोलन बताते हैं कि इनमें हिंसा सामान्य बात हो चुकी है तो कानून-व्यवस्था बनाए रखने के पुख्ता प्रबंध क्यों नहीं किए गए ? हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन हो या महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में टकराव या राजस्थान में करणी सेना या डेरा सच्चा सौदा के श्रद्धालुओं का उत्पात और अब दलित आंदोलन इसके प्रमाण हैं कि हमने इनसे कुछ नहीं सीखा।

वर्तमान में आंदोलन जहां उपद्रवी और सरकारें लापरवाह हो रही हैं वहीं विपक्ष पूरी तरह गैर-जिम्मेदार हो रहा है। ऊना की घटना हो या फिर रोहित वेमुल्ला को लेकर दलितों का संग्राम, सच यह है कि अब दलित आंदोलन राजनीतिक फसल बिजाई के अवसर बन रहे हैं। ऐसा विपक्ष 'भूतो न भविष्यति', कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी पार्टियों ने अपने-अपने तरीके से भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की इस आंच पर राजनीतिक बिरयानी पकाई। दलित आंदोलन पर राहुल ने ट्वीट कर कहा कि-दलितों को भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखना भाजपा और आरएसएस के डीएनए में है। देश में जब हिंसा हो रही हो तो सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का इस तरह का ट्वीट भट्ठी में अलाव झोंकने का ही काम करेगा। हर दलित आंदोलन के दौरान भाजपा को दलित विरोधी प्रचारित करने की पुरजोर कोशिश तमाम विपक्षी दल कर रहे हैं। दंगा फैलाने के आरोप में यूपी में बसपा के पूर्व विधायक की गिरफ्तारी हो चुकी है। वास्तव में जातिवादी नेता जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल के सहारे कांग्रेस को जब से गुजरात में आंशिक सफलता मिली और यूपी के गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में जातिवादी दलों सपा व बसपा को सफलता मिली है तब से विपक्ष को लगने लगा है कि वे जातिवादी हैल्पबुक पढ़ कर 2019 में आम चुनाव की परीक्षा उत्तीर्ण कर सकते हैं। इसीको सामने रख कर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर विपक्ष ने भ्रम फैलाने का काम किया। फैसले को न्यायालय की बजाय केंद्र सरकार का बता कर भोले भाले दलितों को गुमराह करने का प्रयास किया। विरोध के लिए ही विरोध करना विपक्ष की आदत बन रही है जो लोकतंत्र के लिए नुक्सानदेह है। बाबा साहिब आंबेडकर अपनी पुस्तक के खण्ड 10 के पृष्ठ 384 पर लिखते हैं 'सही राष्ट्रवाद है, जाति-भावना का परित्याग और यह भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है।' इस व्याख्या में हमारे दल राष्ट्रवाद की परिभाषा में कितने फिट बैठते हैं यह उनके आत्मविश्लेषण का समय है।
- राकेश सैन
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