Thursday, 30 January 2020

Sherjil Imam-People should know difference between right to speech and sedition

जे.एन.यू. के होनहार शरजील इमाम की वीडियो में भाषण सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि दिल्ली के शाहीन बाग में जो हो रहा है उसके बाद हैरान होने के लिए कुछ बचा भी नहीं। एक वीडियो शरजील ने कहा कि ''हमारे पास 5 लाख लोग हों तो हम उत्तर-पूर्व को भारत से काट देंगे, स्थायी तौर पर नहीं तो महीने दो महीने के लिए। रास्तों और रेल मार्गों पर मवाद (बाधाएं) फैला दो, असम और इण्डिया कट कर अलग हो जाएं तभी ये लोग हमारी बात सुनेंगे। और हम यह कर सकते हैं, क्योंकि पूर्वोत्तर और भारत को जोडऩे वाले गलियारे (चिकन नेक) में मुसलमानों की बड़ी आबादी है।'' पुलिस ने शरजील को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के बाद वह लोग भी जाग उठे हैं जो शरजील के ब्यानों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के दायरे में मानते हैं। शरजील के बहाने देश में एक बार फिर वैचारिक टकराव पैदा हो गया क्योंकि बहुत लोग शरजील की इस हरकत को देशद्रोह बता रहे हैं। इस मौके पर आवश्यकता महसूस होने लगी है कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अन्तर तो स्पष्ट हो।
शरजील के भाषण को विचारों की स्वतन्त्रता मानने वालों का तर्क है कि 58 साल पहले तमिलनाडू के बड़े नेता सीएन अन्नादुरै ने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान अलग द्रविड़स्तान बनाने की मांग की थी, परन्तु संसद ने उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया और हंसी में टाल दिया। साल 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने बलवन्त सिंह मामले में खालिस्तानी नारों को यह कहते हुए देशद्रोह नहीं माना कि जब तक कोई देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल नहीं होता, केवल बोलने भर से वह देशद्रोही नहीं हो जाता। 1962 में न्यायालय ने केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के एक मामले में सरकार के उस निर्णय को बहाल रखा जिसमें सन्विधान की धारा 124-अ को असन्वैधानिक माना था। बुद्धिजीवी कई लोकतान्त्रिक देशों का उदाहरण देते हुए दावा करते हैं कि एक सफल गणतन्त्र में बोलने की स्वतन्त्रता को बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
लोकतन्त्र की सफलता के लिए वैचारिक टकरावों का सदैव सम्मान है क्योंकि इसी से विषय से जुड़ी सच्चाई सामने आती है। शरजील की हरकत को देशद्रोह के आरोपों से खारिज भी नहीं किया जा सकता। भारत के सन्विधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी गई है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है परन्तु, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है। इस पर समय-समय पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। कोई भी अधिकार कर्तव्य से मुक्त नहीं और न ही स्वच्छन्द। देश की एकता-अखण्डता की रक्षा, प्रभुसत्ता का सम्मान, साम्प्रदायिक सौहार्द, विधि का शासन स्थापित करने में सरकार का सहयोग हर नागरिक का सन्वैधानिक दायित्व भी है। शरजील के कथित भाषण में देश की एकता-अखण्डता को सीधे-सीधे चुनौती मिलती दिखती है और एक वर्ग विशेष के लोगों को भटकाने का भी प्रयास हुआ है। 
चिकन नेक सामरिक रूप से पूर्वोत्तर भारत का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह इस इलाके को भारत से एक गलियारा जोड़ता है, जिसको सिलिगुड़ी गलियारा या चिकन नेक गलियारा कहा जाता है। इसकी लम्बाई 60 और चौड़ाई सिर्फ 22 किलोमीटर। विभाजन के बाद 1947 में सिलिगुड़ी गलियारा बना था। 1975 में सिक्किम का भारत में विलय हुआ। उससे पहले इस गलियारे के उत्तर में सिक्किम की रियासत थी। सिक्किम के विलय से इस गलियारे के उत्तरी हिस्से में भारत की रक्षात्मक स्थिति मजबूत हुई और चीन की चुम्बी घाटी के पश्चिमी किनारे में भारत का नियन्त्रण भी मजबूत हुआ। दुर्भाग्य से इस इलाके में एक वर्ग विशेष की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि दर्ज हुई है जो स्वभाविक न हो कर कोई षड्यन्त्र का हिस्सा हो सकती है। शरजील का चिकन नेक को लेकर दिया बयान कोई कपोलकल्पना या दिमागी फितूर नहीं बल्कि भविष्य की आशंका की आहट अधिक नजर आने लगी है। आखिर देश तोडऩे की बातें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कैसे मानी जा सकती हैं?
2016 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगे देश बांटने के नारों की सुनवाई कर रही दिल्ली की अदालत ने इस मानसिकता को वायरस बताया था और शरजील को कन्हैया वाली मानसिकता की अगली पीढ़ी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए। उस समय तो जेएनयू में केवल देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगे और अब तो इसकी कार्ययोजना पेश की जाने लगी है। विचारों की आजादी के नाम पर कब तक देश को यूं ही मौन रह कर बंटते हुए देखते रह सकते हैं? इस तरह के नारे अगर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हैं तो फिर वह कौन सी ताकत है जो कन्हैया एण्ड पार्टी के देशद्रोह के केस वाली फाइलों पर भुजंग कुण्डली मारे बैठी है। आखिर न्यायालय को यह निर्णय क्यों नहीं करने दिया जा रहा कि वह फैसला करे कि जेएनयू के नारे राष्ट्रद्रोह था या कुछ और। दिल्ली के मुख्यमन्त्री विगत तीन सालों से देशद्रोह के इन विवादों पर पुलिस को अदालत में चार्जशीट दाखिल करने की अनुमति नहीं दे रहे और आरोपियों को निर्दोष बताते आरहे हैं। कौन दोषी है और कौन निर्दोष क्या इसका निर्णय अदालत को नहीं करने दिया जाना चाहिए। आखिर अदालत ही तो तय करेगी कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में अन्तर क्या है? क्या कन्हैया एण्ड पार्टी के केसों की फाइलें रोकने से यह सन्देश नहीं जाता कि कोई और माने या न माने परन्तु दिल्ली के मुख्यमंत्री तो इनको कसूरवार मान कर ही चल रहे हैं। देश की राजनीति अन्धविरोध के चलते इतनी लज्जाहीन हो चुकी है कि वह कब क्या कर जाए कोई कुछ कह नहीं सकता। कन्हैया के केस में राजनीति न होती और अदालत व दिल्ली पुलिस को अपना काम करने दिया जाता तो शायद आज शरजील इमाम जैसा व्यक्ति सरेआम देश तोडऩे की हिमाकत न कर पाता। लोकतन्त्र एक निरन्तर प्रवाहमान विचारधारा है परन्तु संकीर्ण राजनीति उस सरिता में बाधा खड़ी कर उसे गन्धला कर देती है। कन्हैया व शरजील के बहाने आज देश में फिर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा व देशद्रोह के बीच अन्तर परिभाषित करने का अवसर आया है, अच्छा होगा कि लोकतन्त्र के मार्ग में बाधा न खड़ी की जाए। कानूनी कार्रवाईयों के जरिए देशवासियों को देशद्रोह या अभिव्यक्ति में अंतर तो पता चले।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम व डाकखाना लिदड़ां, 
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

शरजील इमाम-देशद्रोह या अभिव्यक्ति, अंतर तो पता चले

जेएनयू के होनहार शरजील इमाम की वीडियो में भाषण सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि दिल्ली के शाहीन बाग में जो हो रहा है उसके बाद हैरान होने के लिए कुछ बचा भी नहीं। एक वीडियो शरजील ने कहा कि ''हमारे पास 5 लाख लोग हों तो हम उत्तर-पूर्व को भारत से काट देंगे, स्थायी तौर पर नहीं तो महीने दो महीने के लिए। रास्तों और रेल मार्गों पर मवाद (बाधाएं) फैला दो, असम और इण्डिया कट कर अलग हो जाएं तभी ये लोग हमारी बात सुनेंगे। और हम यह कर सकते हैं, क्योंकि पूर्वोत्तर और भारत को जोडऩे वाले गलियारे (चिकन नेक) में मुसलमानों की बड़ी आबादी है।'' पुलिस ने शरजील को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के बाद वह लोग भी जाग उठे हैं जो शरजील के ब्यानों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के दायरे में मानते हैं। शरजील के बहाने देश में एक बार फिर वैचारिक टकराव पैदा हो गया क्योंकि बहुत लोग शरजील की इस हरकत को देशद्रोह बता रहे हैं। इस मौके पर आवश्यकता महसूस होने लगी है कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अन्तर तो स्पष्ट हो।
शरजील के भाषण को विचारों की स्वतन्त्रता मानने वालों का तर्क है कि 58 साल पहले तमिलनाडू के बड़े नेता सीएन अन्नादुरै ने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान अलग द्रविड़स्तान बनाने की मांग की थी, परन्तु संसद ने उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया और हंसी में टाल दिया। साल 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने बलवन्त सिंह मामले में खालिस्तानी नारों को यह कहते हुए देशद्रोह नहीं माना कि जब तक कोई देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल नहीं होता, केवल बोलने भर से वह देशद्रोही नहीं हो जाता। 1962 में न्यायालय ने केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के एक मामले में सरकार के उस निर्णय को बहाल रखा जिसमें सन्विधान की धारा 124-अ को असन्वैधानिक माना था। बुद्धिजीवी कई लोकतान्त्रिक देशों का उदाहरण देते हुए दावा करते हैं कि एक सफल गणतन्त्र में बोलने की स्वतन्त्रता को बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
लोकतन्त्र की सफलता के लिए वैचारिक टकरावों का सदैव सम्मान है क्योंकि इसी से विषय से जुड़ी सच्चाई सामने आती है। शरजील की हरकत को देशद्रोह के आरोपों से खारिज भी नहीं किया जा सकता। भारत के सन्विधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी गई है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है परन्तु, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है। इस पर समय-समय पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। कोई भी अधिकार कर्तव्य से मुक्त नहीं और न ही स्वच्छन्द। देश की एकता-अखण्डता की रक्षा, प्रभुसत्ता का सम्मान, साम्प्रदायिक सौहार्द, विधि का शासन स्थापित करने में सरकार का सहयोग हर नागरिक का सन्वैधानिक दायित्व भी है। शरजील के कथित भाषण में देश की एकता-अखण्डता को सीधे-सीधे चुनौती मिलती दिखती है और एक वर्ग विशेष के लोगों को भटकाने का भी प्रयास हुआ है। 
चिकन नेक सामरिक रूप से पूर्वोत्तर भारत का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह इस इलाके को भारत से एक गलियारा जोड़ता है, जिसको सिलिगुड़ी गलियारा या चिकन नेक गलियारा कहा जाता है। इसकी लम्बाई 60 और चौड़ाई सिर्फ 22 किलोमीटर। विभाजन के बाद 1947 में सिलिगुड़ी गलियारा बना था। 1975 में सिक्किम का भारत में विलय हुआ। उससे पहले इस गलियारे के उत्तर में सिक्किम की रियासत थी। सिक्किम के विलय से इस गलियारे के उत्तरी हिस्से में भारत की रक्षात्मक स्थिति मजबूत हुई और चीन की चुम्बी घाटी के पश्चिमी किनारे में भारत का नियन्त्रण भी मजबूत हुआ। दुर्भाग्य से इस इलाके में एक वर्ग विशेष की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि दर्ज हुई है जो स्वभाविक न हो कर कोई षड्यन्त्र का हिस्सा हो सकती है। शरजील का चिकन नेक को लेकर दिया बयान कोई कपोलकल्पना या दिमागी फितूर नहीं बल्कि भविष्य की आशंका की आहट अधिक नजर आने लगी है। आखिर देश तोडऩे की बातें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कैसे मानी जा सकती हैं?
2016 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगे देश बांटने के नारों की सुनवाई कर रही दिल्ली की अदालत ने इस मानसिकता को वायरस बताया था और शरजील को कन्हैया वाली मानसिकता की अगली पीढ़ी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए। उस समय तो जेएनयू में केवल देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगे और अब तो इसकी कार्ययोजना पेश की जाने लगी है। विचारों की आजादी के नाम पर कब तक देश को यूं ही मौन रह कर बंटते हुए देखते रह सकते हैं? इस तरह के नारे अगर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हैं तो फिर वह कौन सी ताकत है जो कन्हैया एण्ड पार्टी के देशद्रोह के केस वाली फाइलों पर भुजंग कुण्डली मारे बैठी है। आखिर न्यायालय को यह निर्णय क्यों नहीं करने दिया जा रहा कि वह फैसला करे कि जेएनयू के नारे राष्ट्रद्रोह था या कुछ और। दिल्ली के मुख्यमन्त्री विगत तीन सालों से देशद्रोह के इन विवादों पर पुलिस को अदालत में चार्जशीट दाखिल करने की अनुमति नहीं दे रहे और आरोपियों को निर्दोष बताते आरहे हैं। कौन दोषी है और कौन निर्दोष क्या इसका निर्णय अदालत को नहीं करने दिया जाना चाहिए। आखिर अदालत ही तो तय करेगी कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में अन्तर क्या है? क्या कन्हैया एण्ड पार्टी के केसों की फाइलें रोकने से यह सन्देश नहीं जाता कि कोई और माने या न माने परन्तु दिल्ली के मुख्यमंत्री तो इनको कसूरवार मान कर ही चल रहे हैं। देश की राजनीति अन्धविरोध के चलते इतनी लज्जाहीन हो चुकी है कि वह कब क्या कर जाए कोई कुछ कह नहीं सकता। कन्हैया के केस में राजनीति न होती और अदालत व दिल्ली पुलिस को अपना काम करने दिया जाता तो शायद आज शरजील इमाम जैसा व्यक्ति सरेआम देश तोडऩे की हिमाकत न कर पाता। लोकतन्त्र एक निरन्तर प्रवाहमान विचारधारा है परन्तु संकीर्ण राजनीति उस सरिता में बाधा खड़ी कर उसे गन्धला कर देती है। कन्हैया व शरजील के बहाने आज देश में फिर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा व देशद्रोह के बीच अन्तर परिभाषित करने का अवसर आया है, अच्छा होगा कि लोकतन्त्र के मार्ग में बाधा न खड़ी की जाए। कानूनी कार्रवाईयों के जरिए देशवासियों को देशद्रोह या अभिव्यक्ति में अंतर तो पता चले।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम व डाकखाना लिदड़ां, 
जालन्धर।
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Tuesday, 28 January 2020

ਪਾਕਿਸਤਾਨੀ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਤੇ ਵੱਧ ਰਹੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਤੇ ਸੰਘ ਨੇ ਪ੍ਰਗਟਾਈ ਚਿੰਤਾ


ਨਹਿਰੂ-ਲਿਆਕਤ ਸਮੱਝੌਤੇ ਦਾ ਪਾਲਣ ਕਰੇ ਇਮਰਾਨ ਸਰਕਾਰ : ਸ. ਬੇਦੀ

ਵਿਸ਼ਵ ਸਮਾਜ ਤੋ ਇਨ੍ਹਾਂ ਮਾਮਲਿਆਂ ਦਾ ਕੜਾ ਸੰਗਿਆਨ ਲੈਣ ਦੀ ਬੇਨਤੀ
ਜਲੰਧਰ। ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਧਾਰਮਿਕ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਉੱਤੇ ਨਿਰੰਤਰ ਵੱਧ ਰਹੀ ਪ੍ਰਤਾੜਨਾ ਅਤੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਉੱਤੇ ਚਿੰਤਾ ਪ੍ਰਗਟਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਸ੍ਵਯੰਸੇਵਕ ਸੰਘ ਨੇ ਉੱਥੇ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਸ਼੍ਰੀ ਇਮਰਾਨ ਖਾਨ ਤੋਂ ਨਹਿਰੂ-ਲਿਆਕਤ ਸਮੱਝੌਤੇ ਦਾ ਕੜਾਈ ਨਾਲ ਪਾਲਨ ਕਰਨ ਦੀ ਮੰਗ ਕੀਤੀ ਹੈ।ਪ੍ਰੈਸ ਨੂੰ ਜਾਰੀ ਬਿਆਨ ਵਿੱਚ ਸੰਘ ਦੇ ਪੰਜਾਬ ਪ੍ਰਾਂਤ ਸੰਘਚਾਲਕ ਸ.  ਬ੍ਰਿਜਭੂਸ਼ਣ ਸਿੰਘ ਬੇਦੀ ਨੇ ਵਿਸ਼ਵ ਸਮਾਜ ਤੋਂ ਵੀ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਇਸਲਾਮਿਕ ਗਣਰਾਜ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਘੱਟਗਿਣਤੀਆਂ ਉੱਤੇ ਵੱਧ ਰਹੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦੀ ਘਟਨਾਵਾਂ ਦਾ ਨੋਟਿਸ ਲਵੇਂ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮਨੁੱਖੀ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਲਈ ਪਾਕ ਸਰਕਾਰ ਉੱਤੇ ਦਬਾਅ ਬਣਾਵੇ। ਸੰਘ ਨੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੂ ਯੁਵਤੀ ਭਾਰਤੀ ਬਾਈ, ਮਹਿਕ ਕੁਮਾਰੀ ਅਤੇ ਸਿੱਖ ਲੜਕੀ ਜਗਜੀਤ ਕੌਰ ਦੇ ਅਗਵਾਹ ਅਤੇ ਜਬਰਨ ਧਰਮਾਂਤਰਨ ਅਤੇ ਮੰਦਰ ਵਿੱਚ ਤੋੜਫੋੜ ਦੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਨੂੰ ਮੱਧਕਾਲੀ ਸੋਚ ਦਾ ਪ੍ਰਤੀਕ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਕੜੇ ਸ਼ਬਦਾਂ ਵਿੱਚ ਨਿੰਦਾ ਕੀਤੀ ਹੈ। 
ਆਪਣੇ ਬਿਆਨ ਵਿੱਚ ਸ. ਬੇਦੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਸਿੰਧ ਪ੍ਰਾਂਤ ਦੇ ਮਟਿਆਰੀ ਜਿਲ੍ਹੇ ਦੇ ਹਾਲਾ ਸ਼ਹਿਰ ਵਿੱਚ ਅਪਰਧੀਆਂ ਵੱਲੋਂ ਭਾਰਤੀ ਬਾਈ ਨੂੰ ਵਿਆਹ ਦੇ ਮੰਡਪ ਤੋਂ ਉਠਾ ਕੇ ਲੈ ਜਾਣ ਅਤੇ ਧਰਮਾਂਤਰਣ ਕਰਵਾ ਕਰ ਉਸਦਾ ਮੁਸਲਿਮ ਨੋਜਵਾਨ ਨਾਲ ਨਿਕਾਹ ਕਰਵਾਉਣ ਦੀ ਘਟਨਾ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਸਬੂਤ ਹੈ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਕਨੂੰਨ ਆਪਣੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਅਸਮਰਥ ਸਾਬਤ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਦੁੱਖ ਦੀ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਉੱਥੇ ਦੀ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਵੀ ਪੀੜਤਾਂ ਦੀ ਬਜਾਏ ਮੁਲਜਮਾਂ ਦਾ ਸਾਥ ਦਿੱਤਾ। ਸ. ਬੇਦੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਭਾਰਤ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨੂੰ ਵੀ ਨਹਿਰੂ-ਲਿਆਕਤ ਸਮੱਝੌਤੇ ਦਾ ਪਾਲਣ ਕਰ ਉਥੇ ਰਹਿ ਰਹੇ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਵਰਗਾਂ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਤੇ ਧਿਆਨ ਦੇਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਲੋਕ ਵੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹੀ ਮੂਲ ਨਿਵਾਸੀ ਹਨ। 
ਸੰਘ ਅਧਿਕਾਰੀ ਸ. ਬੇਦੀ ਨੇ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਸਿੰਧ ਪ੍ਰਾਂਤ ਦੇ ਥਾਰ ਜਿਲ੍ਹੇ ਦੇ ਛਾਚਰੋ ਸ਼ਹਿਰ ਵਿੱਚ ਜਿਸ ਦੇਵਲ ਭਿਟਾਨੀ ਮੰਦਰ ਨੂੰ ਤੋੜਿਆ ਗਿਆ ਹੈ, ਉਹ ਸਾਡੀ ਇਤਹਾਸਿਕ ਵਿਰਾਸਤ ਹੈ। ਇਹ ਮੰਦਰ ਸੰਨ 1373 (ਸੰਮਤ 1444) ਵਿੱਚ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਮਾਂ ਦੇਵਲ ਦੀ ਯਾਦ ਵਿੱਚ ਬਣਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮਾਂ ਹਿੰਗਲਾਜ ਦੇਵੀ ਦਾ ਸਰਵਕਲਾ ਅਵਤਾਰ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਮਾਂ ਦੇਵਲ ਭਵਾਨੀ ਦੀ ਕੇਵਲ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਵੀ ਪੂਜਾ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਸ. ਬੇਦੀ ਨੇ ਹੈਰਾਨੀ ਪ੍ਰਗਟਾਈ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਇਸ ਮਹੀਨੇ ਜਿੱਥੇ ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ ਉੱਤੇ ਜਨੂੰਨੀ ਹਮਲਾ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਹੁਣ ਇਤਹਾਸਿਕ ਮੰਦਰ ਦੀ ਪਵਿੱਤਰਤਾ ਨੂੰ ਭੰਗ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਉੱਥੇ ਦੇ ਕੁੱਝ ਜਨੂੰਨੀ ਲੋਕ ਆਪਣੇ ਹੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਇਤਹਾਸਿਕ ਵਿਰਾਸਤਾਂ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਪਹੁੰਚਾ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ ਬੇਵੱਸ ਦਿਸ ਰਹੀ ਹੈ। ਸ. ਬੇਦੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਘੱਟਗਿਣਤੀਆਂ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਧਰਮ ਸਥਾਨਾਂ ਅਤੇ ਇਤਹਾਸਿਕ ਵਿਰਾਸਤਾਂ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦੇ ਵੀ ਪੁਖਤਾ ਇੰਤਜਾਮ ਕਰਨ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ।

पाकिस्तान में हिन्दू-सिखों की बढ़ रही प्रताडऩा पर संघ ने जताई चिन्ता

नेहरू-लियाकत समझौते का पालन करे इमरान सरकार : स. बेदी
विश्व समाज से इन मामलों का कड़ा संज्ञान लेने का आग्रह
जालंधर। पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक हिन्दू-सिक्ख समुदायों पर निरन्तर बढ़ रही प्रताडऩा व अत्याचारों की घटनाओं पर चिन्ता जताते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वहां के प्रधानमन्त्री श्री इमरान खान से नेहरू-लियाकत समझौते का कड़ाई से पालन करने की मांग की है। प्रैस को जारी विज्ञप्ति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंजाब प्रान्त संघचालक स. बृजभूषण सिंह बेदी ने विश्व समाज से भी आग्रह किया है कि वह इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे अत्याचारों की घटनाओं का संज्ञान लें और उनके मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पाक सरकार पर दबाव बनायें। संघ ने पाकिस्तान में हिन्दू युवती भारती बाई, महक कुमारी व सिख युवती जगजीत कौर के अपहरण व जबरन धर्मांतरण तथा निकाह और एक मन्दिर में तोडफ़ोड़ की घटनाओं को मध्ययुगीन सोच का प्रतीक बताते हुए इनकी कड़े शब्दों में भत्र्सना की है।
अपने बयान में स. बेदी ने कहा कि सिन्ध प्रान्त के मटियारी जिले के हाला शहर में असमाजिक तत्वों द्वारा भारती बाई को शादी के मण्डप से उठा कर ले जाने व धर्मांतरण करवा कर उसकी मुस्लिम युवक से शादी करवाने की घटना इस बात का प्रमाण है कि पाकिस्तान में कानून का शासन अपने नागरिकों की सुरक्षा कर पाने में असमर्थ साबित हो रहा है। दु:खद बात यह है कि वहां की पुलिस ने भी पीडि़तों की बजाय अपराधियों का साथ दिया। स. बेदी ने कहा कि भारत की तरह पाकिस्तान को भी नेहरू-लियाकत समझौते का पालन कर अपने यहां रह रहे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके विकास की तरफ ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह लोग भी उनके देश के ही मूल निवासी हैं।
संघ के पंजाब प्रमुख स. बेदी ने बताया कि पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के थार जिले के छाचरो शहर में स्थित जिस देवल भिटानी मन्दिर को तोड़ा गया है वह हमारी एतिहासिक धरोहर रही है। यह मन्दिर सन 1373 (सम्वत 1444) में जन्मी माँ देवल के स्मृति में बनाया गया था, जिन्हें माँ हिंग्लाज देवी का सर्वकला अवतार माना जाता है। माँ देवल भवानी की केवल पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी पूजा की जाती है। स. बेदी ने आश्चर्य जताया कि पाकिस्तान में इसी महीने जहां ननकाना साहिब पर उन्मादी हमला हुआ और अब एतिहासिक मन्दिर की पवित्रता को भंग किया गया है, वहां के कुछ उन्मादी लोग अपने ही देश की एतिहासिक धरोहरों को हानि पहुंचा रहे हैं और सरकार उनके सामने बेबस दिख रही है। पाकिस्तान सरकार को अल्पसंख्यकों की रक्षा के साथ-साथ उनके धर्मस्थलों व एतिहासिक धरोहरों की सुरक्षा के भी पुख्ता इन्तजाम करने की आवश्यकता है।

RSS expresses concern on persecution of Hindu-Sikhs in Pakistan,

Expressing concern over increasing incidents of persecution of Hindu-Sikh religious minority communities in Pakistan Rashtriya Swayamsewak Sangh urges Prime Minister Imran Khan to strictly follow Nehru-Liaquat pact. In a press release chief of RSS Punjab Sr. Brij Bhushan Singh Bedi has called upon the world community to take cognizance of increasing incidents of atrocities on religious minorities in Islamic Republic of Pakistan and pressurize Pak Govt to safeguard their human rights. RSS has condemned the abduction and forcible conversion of Hindu girl Bharti Bai, Mehak Kumari and Sikh girl Jagjeet Kaur and incidents of damaging a Temple and described these as medieval age mentality. In his statement Sr. Bedi says that abduction of Bharti Bai from her marriage Mundup and marring her to a Muslim youth after conversion to Islam in Halla town of Matiyari distt, Sindh is testimony to the fact that rule of law in Pakistan is proving to be incapable of providing security to its own citizens. It is a matter of grief that instead of victims the Pakistan Police sided with perpetrators of crime.
Sr Bedi said that Pakistan should also follow Nehru-Liyaqat agreement like India and concentrate on safety and development of its religious minorities because they are also the natives of Pakistan.
Sr. Bedi told that  Deval Bhitani Temple in Chhachro town of Thar district Sindh which was damaged is our historical heritage. This temple was built in the memory of Mata Deval, born in 1373 (Samvat 1444), who is considered an incarnation of Maa Hinglaz Devi. Mata Deval Bhawani is revered not only in Pakistan but in India as well. Sr Bedi wondered that in this month only a fanatic attack took place on Nankana Sahib Gurudwara and now a historical temple is defiled and some fanatic people are destroying their heritage and Govt. is looking helpless before them. It is needful for Pakistani Govt. to make arrangements to safeguard religious minorities and their historical heritage.

Monday, 27 January 2020

Punjab Kesari, Lala Lajpat Rai

शेर-ए-पंजाब, लाला लाजपत राय

देश के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने वाले तीन नेताओं लाल, बाल व पाल में लाला लाजपतराय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं बल्कि महान अर्थशास्त्री, लेखक, हिंदी प्रेमी, समाज सुधारक भी थे। शेर-ए पंजाब या पंजाब केसरी की उपाधि से सम्मानित और भारत के महान लेखक लाला जी मोगा जिले के ढुडीके गांव के एक साधारण से परिवार में जन्मे थे। उनके पिता का नाम लाला राधाकृष्ण और माता का नाम गुलाब देवी था। लाला जी के पिता सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक थे, इसलिए लाला जी की शुरुआती शिक्षा इसी स्कूल से शुरु हुई। वे बचपन से ही पढऩे में काफी होशियार थे। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद 1880 में कानून की पढ़ाई के करने के लिए लाहौर के सरकारी कॉलेज में एडमिशन लिया और अपनी कानून की पढ़ाई पूरी की। 
लाला जी ने राष्ट्रीय कांग्रेस के 1888 और 1889 के वार्षिक सत्रों के दौरान एक प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया और फिर वे साल 1892 में उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने के लिए लाहौर चले गए जहां उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी की नींव रखी। लाला जी के निष्पक्ष स्वभाव की वजह से ही उन्हें हिसार मुन्सिपैल्टी की सदस्यता मिली, जिसके बाद वो एक सेक्रेटरी भी बन गए। लाला जी साल 1882 में पहली बार आर्य समाज के लाहौर के वार्षिक उत्सव में शामिल हुए और वह इस सम्मेलन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आर्य समाजी बनने का फैसला ले लिया। आर्य समाज हिन्दू समाज में फैली कुरोतियों को धार्मिक अंधविश्वासों के खिलाफ था। आर्य समाज का हिस्सा बनने के बाद लाला लाजपत राय की ख्याति दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी। यहां तक कि आर्य समाज में जो भी विशेष सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है उन सभी का नेतृत्व लाला जी करते थे। लाला जी को राजपूताना और संयुक्त प्रान्त में जाने वाले शिष्टमंडलों के लिए चुना गया। वे शिष्टमंडलों में मुख्य सदस्य के रूप में मेरठ, अजमेर, फर्रुखाबाद आदि स्थानों पर गए और अपने भाषणों से लोगों के दिल में अमिट छाप छोड़ी। लाला जी ने शिक्षा के क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण काम किए। आर्य समाज ने दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों की शुरुआत की जिसके प्रचार-प्रसार के लिए लाला जी ने हर संभव कोशिश की। जब स्वामी दयानंद सरस्वती का साल 1883 में निधन हो गया तो, आर्य समाज के द्वारा एक शोकसभा का आयोजन किया गया जिसमें यह फैसला लिया गया था कि स्वामी जी के नाम पर एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाए, जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति और हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को शिक्षा दी जाए इसी तर्ज पर इस स्कूल की स्थापना की जाए जिसमें लाला जी ने अपना महत्पूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने अथक प्रयास से इस कॉलेज को उस समय के भारत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के केन्द्र में बदल दिया। 
लाला जी जब हिसार में वकालत करते थे, उसी समय से उन्होंने कांग्रेस की बैठकों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। आपको बता दें कि साल 1885 में जब कांग्रेस का पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ था उस समय लाला लाजपत राय बड़े उत्साह के साथ इस नए आंदोलन को देखना शुरु कर दिया था। वहीं इसके बाद 1888 में जब अली मुहम्मद भीम जी कांग्रेस की तरफ से पंजाब के दौरे पर आए तब लाला लाजपत राय ने उन्हें अपने नगर हिसार आने का न्योता दिया। इसके साथ ही उन्होंने इसके लिए एक सार्वजनिक सभा का भी आयोजन किया। वहीं यह कांग्रेस से मिलने का पहला मौका था जिसने इनके जीवन को एक नया राजनीतिक आधार दिया। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय के अंदर बचपन से ही देशभक्ति और समर्पण की भावना थी। इलाहाबाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के सेशन के दौरान उनके ओजस्वी भाषण ने वहां मौजूद सभी लोगों का ध्यान अपनी तरफ केन्द्रित किया, जिससे उनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गयी और इससे उन्हें कांग्रेस में आगे बढऩे की दिशा भी मिली। इस तरह धीरे-धीरे लाला लाजपत राय कांग्रेस के एक सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। फिर वे 1892 में वे लाहौर चले गए। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन को सफल बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने लाहौर में सर्वेन्ट्स ऑफ पीपल सोसाइटी का गठन किया था, जो कि नॉन-प्रॉफिट ऑर्गनाइजेशन था। वहीं उनकी बढती लोकप्रियता का प्रभाव ब्रिटिश सरकार पर भी पडऩे लगा था और ब्रिटिश सरकार को भी उनसे डर लगने लगा था और ब्रिटिशर्स उन्हें कांग्रेस से अलग करना चाहते थे लेकिन यह करना ब्रिटिश शासकों के लिए इतना आसान नहीं था। और इसी वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्हें साल 1921 से लेकर 1923 तक मांडले जेल में कैद कर लिया, लेकिन ब्रिटिश सरकार को उनका यह दांव उल्टा पड़ गया क्योंकि उस समय लाला लाजपत राय की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने लगे। दबाव में आकर अंग्रेज सरकार ने अपना फैसला बदलकर लाला लाजपत राय को जेल से रिहा कर दिया था। वहीं जब दो साल बाद लाला लाजपत राय जेल से छूटे तो उन्होनें देश में बढ़ रही साम्प्रदायिक समस्याओं पर ध्यान दिया, दरअसल उस समय इस तरह की समस्याएं देश के लिए बड़ी खतरा बन चुकी थी। उस समय की परिस्थितियों में हिन्दू-मुस्लिम एकता के महत्व को उन्होंने समझ लिया था। इसी वजह से साल 1925 में उन्होंने कलकत्ता में हिन्दू महासभा का आयोजन किया, जहां उनके ओजस्वी भाषण ने बहुत से हिन्दुओं को देश के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया था।
उन्होंने पूरे देश में स्वदेशी वस्तुएं अपनाने के लिए एक अभियान चलाया था। वहीं जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया और इस आंदोलन में बढ़-चढकर हिस्सा लिया। उस समय उन्होंने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और बिपिन चंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ विरोध किया। इस तरह वे लगातार देश की सेवा में तत्पर रहते थे और देश के सम्मान के लिए लगातार काम करते रहते थे। वहीं साल 1907 में उनके द्वारा लायी गयी क्रान्ति से लाहौर और रावलपिंडी में परिवर्तन की लहर दौड़ पड़ी थी, जिसकी वजह से उन्हें 1907 में गिरफ्तार कर मांडले जेल भेज दिया गया।
लाला जी के जीवन में एक समय ऐसा भी आया कि जब लाला जी के विचारों से कांग्रेस के कुछ नेता पूरी तरह असहमत दिखने लगे। क्योंकि उस समय लाला जी को गरम दल का हिस्सा माने जाने लगा था, जो कि ब्रिटिश सरकार से लड़कर पूर्ण स्वराज लेना चाहती थी। वहीं कुछ समय तक कांग्रेस से अलग रहने के बाद साल 1912 में उन्होंने वापिस कांग्रेस को ज्वॉइन कर लिया। वह जनता को यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए थे कि अगर आजादी चाहिए तो यह सिर्फ प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से मिलने वाली नहीं है। वह अमेरिका चले गए जहां उन्होंने स्वाधीनता प्रेमी अमेरिकावासियों के सामने भारत की स्वाधीनता का पक्ष बड़ी प्रबलता से अपने क्रांतिकारी किताबों और अपने प्रभावी भाषणों से पेश किया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जब भारत सरकार ने कांग्रेस से युद्ध में सहायता की मांग की थी तो उसने यह भी वादा किया था कि युद्ध समाप्ति पर भारतीय नागरिकों को अपनी सरकार निर्माण करने का अधिकार प्रदान कर देगी लेकिन जैसे ही युद्ध खत्म हुआ तो भारतीय सरकार अपने वादे से मुकर गई जिसके बाद कांग्रेस में ब्रिटिश सरकार के लिए पूरी तरह से रोष व्याप्त हो गया। इस दौरान खिलाफत आन्दोलन और जलियांवाला बाग हत्या कांड की दिल दहला देने वाली घटना के कारण असहयोग आन्दोलन किया गया जिसमें पंजाब से लाला लाजपत राय जी के नेतृत्व की कमान संभाली। 
साल 1928 में ब्रिटिश सरकार द्वारा साइमन कमीशन लाए जाने के बाद उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। दरअसल साइमन कमीशन भारत में संविधान के लिए चर्चा करने के लिए एक बनाया गया एक कमीशन था, जिसके पैनल में एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया। लाला जी इस साइमन कमीशन का विरोध शांतिपूर्वक करना चाहते थे, उनकी यह मांग थी कि अगर कमीशन पैनल में भारतीय नहीं रह सकते तो ये कमीशन अपने देश वापस लौट जाए। लेकिन ब्रिटिश सरकार इनकी मांग मानने को तैयार नहीं हुई और इसके उलट ब्रिटिश सरकार ने लाठी चार्ज कर दिया, जिसमें लालाजी बुरी तरह से घायल हो गए और फिर उनका स्वास्थ कभी नही सुधरा। वहीं इस घटना के बाद लाला लाजपत राय जी पूरी तरह से टूट गए थे और उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता चला गया और फिर 17 नवंबर 1928 स्वराज्य के यह उपासक हमेशा के लिए सो गए।

- राकेश सैन

शेर-ए-पंजाब, लाला लाजपत राय

देश के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने वाले तीन नेताओं लाल, बाल व पाल में लाला लाजपतराय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं बल्कि महान अर्थशास्त्री, लेखक, हिंदी प्रेमी, समाज सुधारक भी थे। शेर-ए पंजाब या पंजाब केसरी की उपाधि से सम्मानित और भारत के महान लेखक लाला जी मोगा जिले के ढुडीके गांव के एक साधारण से परिवार में जन्मे थे। उनके पिता का नाम लाला राधाकृष्ण और माता का नाम गुलाब देवी था। लाला जी के पिता सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक थे, इसलिए लाला जी की शुरुआती शिक्षा इसी स्कूल से शुरु हुई। वे बचपन से ही पढऩे में काफी होशियार थे। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद 1880 में कानून की पढ़ाई के करने के लिए लाहौर के सरकारी कॉलेज में एडमिशन लिया और अपनी कानून की पढ़ाई पूरी की। 
लाला जी ने राष्ट्रीय कांग्रेस के 1888 और 1889 के वार्षिक सत्रों के दौरान एक प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया और फिर वे साल 1892 में उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने के लिए लाहौर चले गए जहां उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी की नींव रखी। लाला जी के निष्पक्ष स्वभाव की वजह से ही उन्हें हिसार मुन्सिपैल्टी की सदस्यता मिली, जिसके बाद वो एक सेक्रेटरी भी बन गए। लाला जी साल 1882 में पहली बार आर्य समाज के लाहौर के वार्षिक उत्सव में शामिल हुए और वह इस सम्मेलन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आर्य समाजी बनने का फैसला ले लिया। आर्य समाज हिन्दू समाज में फैली कुरोतियों को धार्मिक अंधविश्वासों के खिलाफ था। आर्य समाज का हिस्सा बनने के बाद लाला लाजपत राय की ख्याति दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी। यहां तक कि आर्य समाज में जो भी विशेष सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है उन सभी का नेतृत्व लाला जी करते थे। लाला जी को राजपूताना और संयुक्त प्रान्त में जाने वाले शिष्टमंडलों के लिए चुना गया। वे शिष्टमंडलों में मुख्य सदस्य के रूप में मेरठ, अजमेर, फर्रुखाबाद आदि स्थानों पर गए और अपने भाषणों से लोगों के दिल में अमिट छाप छोड़ी। लाला जी ने शिक्षा के क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण काम किए। आर्य समाज ने दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों की शुरुआत की जिसके प्रचार-प्रसार के लिए लाला जी ने हर संभव कोशिश की। जब स्वामी दयानंद सरस्वती का साल 1883 में निधन हो गया तो, आर्य समाज के द्वारा एक शोकसभा का आयोजन किया गया जिसमें यह फैसला लिया गया था कि स्वामी जी के नाम पर एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाए, जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति और हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को शिक्षा दी जाए इसी तर्ज पर इस स्कूल की स्थापना की जाए जिसमें लाला जी ने अपना महत्पूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने अथक प्रयास से इस कॉलेज को उस समय के भारत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के केन्द्र में बदल दिया। 
लाला जी जब हिसार में वकालत करते थे, उसी समय से उन्होंने कांग्रेस की बैठकों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। आपको बता दें कि साल 1885 में जब कांग्रेस का पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ था उस समय लाला लाजपत राय बड़े उत्साह के साथ इस नए आंदोलन को देखना शुरु कर दिया था। वहीं इसके बाद 1888 में जब अली मुहम्मद भीम जी कांग्रेस की तरफ से पंजाब के दौरे पर आए तब लाला लाजपत राय ने उन्हें अपने नगर हिसार आने का न्योता दिया। इसके साथ ही उन्होंने इसके लिए एक सार्वजनिक सभा का भी आयोजन किया। वहीं यह कांग्रेस से मिलने का पहला मौका था जिसने इनके जीवन को एक नया राजनीतिक आधार दिया। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय के अंदर बचपन से ही देशभक्ति और समर्पण की भावना थी। इलाहाबाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के सेशन के दौरान उनके ओजस्वी भाषण ने वहां मौजूद सभी लोगों का ध्यान अपनी तरफ केन्द्रित किया, जिससे उनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गयी और इससे उन्हें कांग्रेस में आगे बढऩे की दिशा भी मिली। इस तरह धीरे-धीरे लाला लाजपत राय कांग्रेस के एक सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। फिर वे 1892 में वे लाहौर चले गए। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन को सफल बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने लाहौर में सर्वेन्ट्स ऑफ पीपल सोसाइटी का गठन किया था, जो कि नॉन-प्रॉफिट ऑर्गनाइजेशन था। वहीं उनकी बढती लोकप्रियता का प्रभाव ब्रिटिश सरकार पर भी पडऩे लगा था और ब्रिटिश सरकार को भी उनसे डर लगने लगा था और ब्रिटिशर्स उन्हें कांग्रेस से अलग करना चाहते थे लेकिन यह करना ब्रिटिश शासकों के लिए इतना आसान नहीं था। और इसी वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्हें साल 1921 से लेकर 1923 तक मांडले जेल में कैद कर लिया, लेकिन ब्रिटिश सरकार को उनका यह दांव उल्टा पड़ गया क्योंकि उस समय लाला लाजपत राय की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने लगे। दबाव में आकर अंग्रेज सरकार ने अपना फैसला बदलकर लाला लाजपत राय को जेल से रिहा कर दिया था। वहीं जब दो साल बाद लाला लाजपत राय जेल से छूटे तो उन्होनें देश में बढ़ रही साम्प्रदायिक समस्याओं पर ध्यान दिया, दरअसल उस समय इस तरह की समस्याएं देश के लिए बड़ी खतरा बन चुकी थी। उस समय की परिस्थितियों में हिन्दू-मुस्लिम एकता के महत्व को उन्होंने समझ लिया था। इसी वजह से साल 1925 में उन्होंने कलकत्ता में हिन्दू महासभा का आयोजन किया, जहां उनके ओजस्वी भाषण ने बहुत से हिन्दुओं को देश के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया था।
उन्होंने पूरे देश में स्वदेशी वस्तुएं अपनाने के लिए एक अभियान चलाया था। वहीं जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया और इस आंदोलन में बढ़-चढकर हिस्सा लिया। उस समय उन्होंने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और बिपिन चंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ विरोध किया। इस तरह वे लगातार देश की सेवा में तत्पर रहते थे और देश के सम्मान के लिए लगातार काम करते रहते थे। वहीं साल 1907 में उनके द्वारा लायी गयी क्रान्ति से लाहौर और रावलपिंडी में परिवर्तन की लहर दौड़ पड़ी थी, जिसकी वजह से उन्हें 1907 में गिरफ्तार कर मांडले जेल भेज दिया गया।
लाला जी के जीवन में एक समय ऐसा भी आया कि जब लाला जी के विचारों से कांग्रेस के कुछ नेता पूरी तरह असहमत दिखने लगे। क्योंकि उस समय लाला जी को गरम दल का हिस्सा माने जाने लगा था, जो कि ब्रिटिश सरकार से लड़कर पूर्ण स्वराज लेना चाहती थी। वहीं कुछ समय तक कांग्रेस से अलग रहने के बाद साल 1912 में उन्होंने वापिस कांग्रेस को ज्वॉइन कर लिया। वह जनता को यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए थे कि अगर आजादी चाहिए तो यह सिर्फ प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से मिलने वाली नहीं है। वह अमेरिका चले गए जहां उन्होंने स्वाधीनता प्रेमी अमेरिकावासियों के सामने भारत की स्वाधीनता का पक्ष बड़ी प्रबलता से अपने क्रांतिकारी किताबों और अपने प्रभावी भाषणों से पेश किया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जब भारत सरकार ने कांग्रेस से युद्ध में सहायता की मांग की थी तो उसने यह भी वादा किया था कि युद्ध समाप्ति पर भारतीय नागरिकों को अपनी सरकार निर्माण करने का अधिकार प्रदान कर देगी लेकिन जैसे ही युद्ध खत्म हुआ तो भारतीय सरकार अपने वादे से मुकर गई जिसके बाद कांग्रेस में ब्रिटिश सरकार के लिए पूरी तरह से रोष व्याप्त हो गया। इस दौरान खिलाफत आन्दोलन और जलियांवाला बाग हत्या कांड की दिल दहला देने वाली घटना के कारण असहयोग आन्दोलन किया गया जिसमें पंजाब से लाला लाजपत राय जी के नेतृत्व की कमान संभाली। 
साल 1928 में ब्रिटिश सरकार द्वारा साइमन कमीशन लाए जाने के बाद उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। दरअसल साइमन कमीशन भारत में संविधान के लिए चर्चा करने के लिए एक बनाया गया एक कमीशन था, जिसके पैनल में एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया। लाला जी इस साइमन कमीशन का विरोध शांतिपूर्वक करना चाहते थे, उनकी यह मांग थी कि अगर कमीशन पैनल में भारतीय नहीं रह सकते तो ये कमीशन अपने देश वापस लौट जाए। लेकिन ब्रिटिश सरकार इनकी मांग मानने को तैयार नहीं हुई और इसके उलट ब्रिटिश सरकार ने लाठी चार्ज कर दिया, जिसमें लालाजी बुरी तरह से घायल हो गए और फिर उनका स्वास्थ कभी नही सुधरा। वहीं इस घटना के बाद लाला लाजपत राय जी पूरी तरह से टूट गए थे और उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता चला गया और फिर 17 नवंबर 1928 स्वराज्य के यह उपासक हमेशा के लिए सो गए।

- राकेश सैन

Friday, 24 January 2020

गणतन्त्र में गुणतन्त्र का समावेश हो

देश में आधुनिक गणतन्त्र व्यवस्था के स्थापना की आज जयन्ती है। इसी दिन सन् 1950 को भारत द्वारा अधिनियम-1935 को हटाकर अपना सन्विधान लागू किया गया था। एक स्वतन्त्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए सन्विधान को 26 नवम्बर, 1949 को सन्विधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी, 1950 को इसे एक लोकतान्त्रिक प्रणाली के साथ लागू किया गया। इसके लिए 26 जनवरी का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि 1930 में इसी दिन कांग्रेस ने देश में पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया था। देश में गणतन्त्र की आधुनिक चरण लागू हुए 70 साल बीत चुके, आधुनिक सोपान इसलिए क्योंकि जनतन्त्र प्रणाली भारत के लिए कोई नई नहीं बल्कि किसी न किसी रूप में वैदिक काल से चली आरही प्राचीन व्यवस्था रही है। हां इसे आधुनिक व व्यवस्थित रूप 1950 को दिया गया। आजादी के इन 72 और लोकतन्त्र के इन 70 सालों ने भारत ने अनेक उपलब्धियां हासिल कीं, जिस पर गर्व किया जा सकता है। हालांकि इस अल्पावधि में एमरजेंसी के हालातों से भी गुजरना पड़ा परन्तु लोकशक्ति ने लोकशाही को बचा लिया। देश व समाज के सम्मुख चुनौतियां व संकट हर युग में रहे हैं और आगे भी रूप बदल-बदल कर तरह-तरह के चुनौतियां सम्मुख आएंगी परन्तु वर्तमान में जिस तरह अकारण अशान्ति का महौल बनाया गया है उससे इस बात की आवश्यकता है कि हमारा गणतन्त्र गुणतन्त्र की तरफ भी बढ़े।
नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर जिस तरह से समाज के वर्ग विशेष को भड़काया जारहा है और विधेयक के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों में जो प्रतिक्रियाएं आरही हैं वे हमारे गणतन्त्र की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगा देती हैं। इन प्रदर्शनों में 'जिन्ना वाली आजादी' के नारों का क्या अर्थ निकाला जाए ? अगर देश के गण में राष्ट्रभाव के गुण होते तो क्या देश की राजधानी के बीचों बीच चल रहे धरनों में इस तरह की बेशर्मी होती ? देखा  जाए तो ऐसे नारे लगाने वालों से अधिक कसूरवार वे राजनीतिक दल हैं जिन्होंने एक वर्ग विशेष को राष्ट्रभाव से जुडऩे ही नहीं दिया, उसे शरीयत, इफ्तार और वोटों के फतवों तक ही सीमित रखा। कुछ दिन पहले देश के जाने माने रक्षाविशेषज्ञ व लेखक कैप्टन आर विक्रम सिंह का लेख पढ़ कर आन्खें खुल गईं कि किस तरह एक वर्ग विशेष कर योजनाबद्ध तरीके से अलग-थलग करके रखा गया। विभाजन के बाद पाकिस्तान इस्लामिक देश बना परन्तु भारत ने अपनी युगों की परम्परा का पालन करते हुए सर्वधर्म समभाव की नीति को अपनाया। ऐसे में मुसलमानों से भारतीय संस्कृति में मिश्रित होने की उम्मीद स्वाभाविक थी परन्तु अगर मुसलमान धर्मनिरपेक्ष हो जाते तो उनको वोट बैंक बनाए रखने की योजना बेकार हो जाती। इसलिए जरूरी था कि उनकी अलग बस्तियाँ, अलग पहचान और अलग संस्थाएं हो जो तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए किया भी गया। भारतीय मुसलमान भी तो मलेशिया, इंडोनेशिया के मुसलमानों से सीख लेकर मलय संस्कृति की तरह भारतीय संस्कृति पर गर्व कर सकते थे। वह भी इंडोनेशिया मुसलमानों की तरह राम को पूर्वज मान सकते थे, परन्तु उनको राममन्दिर के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उनको अरबों, तुर्कों के साथ जोड़ा गया। दरअसल, मुस्लिम समाज को भारतीयता के साथ जोड़े रखने की कोशिश ही नहीं हुई। राजनैतिक जरूरतों ने सांझी संस्कृति ही विकसित नहीं होने दी। आजादी से पहले इस बिखराव के लिए हम अंग्रेज सरकार, शाह वलीउल्ला, सैयद अहमद, अलामा इकबाल, मुहम्मद अली जिनाह को दोषी मान सकते थे परन्तु आजादी के बाद तो हम ही अपने भाज्ञविधाता थे। भारत और विश्व इतिहास पर पुस्तकें लिखते हुए नेहरू जी को उन वतनप्रस्त मुसलमानों जैसे कि हाकिम खान, इब्राहिम गारदी जो महाराणा प्रताप और मराठों की फौजों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ते हुए शहीद हुए, की याद नहीं थी। दारा शिकोह को उन्होंने शायद पढ़ा नहीं होगा। भारतीय संस्कृति-साहित्य का हिस्सा बन चुके कबीर, रसखान, रहीम, फरीद, दादू को उन्होंने कितना जाना, यह वो ही बता सकते थे। पता नहीं उन्होंने अबदुर रहीम खानखाना का यह दोहा 'जैसी रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूंढत गजरार' कभी सुना था या नहीं। उन्होंने मुसलमानों में भारतीय इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीयता का भाव जागृत करने के लिए कुछ नहीं किया, चाहते तो मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय एकता की सबसे मजबूत कड़ी बन सकती थी। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ, हुआ होता तो आज शाहीन बाग में जिन्ना वाली आजादी न मांगी जा रही होती, न ही तीन तलाक पर रोक के विरोध में कोई आस्तीन चढ़ाता व राममन्दिर निर्माण में कोई विरोधियों की कठपुतली बनता।
भारतीय गणतन्त्र में विसंगतियों की सूची यहीं पूरी नहीं होती, बल्कि इसकी फेरहिस्त लम्बी है जिनका वर्णनन करने से पहले पाठकों को लगभग ग्यारह-बारह सौ साल पीछे ले जाना चाहूंगा। दक्षिण भारत में चेन्नई से 83 किलोमीटर की दूरी पर चेंगलपेट के पास एक कस्बा है उतीरामेरूर। यह नगर सन 880 के दशक में चोलवंशी राजा परन्तगा सुन्दरा चोल के आधीन था। उस राजाओं के जमाने में भी ग्राम प्रशासन में गुणवत्ताशाली गणतन्त्र का जो अनोखा उदाहरण मिलता है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुसभ्य और उन्नत थी। नगर के शिव मन्दिर की दीवारों पर चारों तरफ हमारे सन्विधान की धाराओं की तरह ग्राम प्रशासन से सम्बन्धित विस्तृत नियमावली उत्कीर्ण है, जिसमें ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन विधि का भी उल्लेख मिलता है। ग्रामसभा के निर्वाचन हेतु जो कुडमोलै पद्धति अपनाई जाती थी। कुडम का अर्थ होता है मटका और ओलै ताड़ के पत्ते को कहते है। गाँव के केन्द्र में कहीं एक बड़े मटके को रख दिया जाता था और नागरिक, उम्मीदवारों में से अपने पसन्द के व्यक्ति का नाम एक ताड़ पत्र पर लिख कर मटके में डाल देते थे। बाद में उसकी गणना होती और ग्राम सभा के सदस्यों का चुनाव हो जाता। उस समय निर्वाचन के लिए जो शर्तें रखी गईं उनमें से तो कई आज भी सम्भव नहीं हैं। इनमें से उम्मीदवार की आयु 35 या उससे अधिक परन्तु 70 वर्ष से कम हो। वह मूलभूत शिक्षा प्राप्त और वेदों का ज्ञाता हो। पिछले तीन वर्षों में उस पद पर न रहा हो। इसके अतिरिक्त जिसने अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो, कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया, जिसने अपने कर न चुकाए हों, गृहस्थ रह कर परस्त्री गमन का दोषी हो, हत्यारा, मिथ्या भाषी और शराबी हो, दूसरे के धन का हनन किया हो, जो ऐसे भोज्य पदार्थ का सेवन करता हो जो मनुष्यों के खाने योग्य ना हो, वो चुनाव में हिस्सा ही नहीं ले सकता था। ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो 360 दिनों का था परन्तु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। हमें अपने आप से सवाल करना चाहिए कि क्या आज आधुनिक युग में भी हम अपनी शासन-प्रशासन प्रणाली में ऐसी शुचिता ला पाए हैं जो सदियों पहले हम में थी।
अपने गणतन्त्र में गुणात्मक सुधार के लिए अपने पूर्वजों के साथ-साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सफल लोकतन्त्र से भी सीखना होगा। सभी समाजों व देशों की अच्छी बातों का अपने भीतर समावेश करना होगा और अपनी बुराईयों को पहचान कर उससे किनारा करना होगा। तभी गणतन्त्र सर्वगुणयुक्त तन्त्र बनेगा और दुनिया के लिए आदर्श। गणतन्त्र दिवस की ढेरों शुभकामनाओं के साथ, जयहिन्द।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां
जालन्धर।
मो. 77106-55605

Tuesday, 21 January 2020

माँ के संस्ंकार भूले कैप्टन अमरेन्द्र सिंह

लगता है कि पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह राजनीति के चलते इतने विवश हो चुके हैं कि अपने परिवार की परम्पराओं विशेषकर अपनी माताश्री द्वारा दिए गए संस्कारों के खिलाफ चलते दिखाई देने लगे हैं। अमरेन्द्र सिंह पटियाला राजघराने के वारिस हैं और उनकी माताश्री राजमाता मोहिन्द्र कौर केवल राजमाता के अलंकार को धारण करने वाली ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने अपनी पदवी के अनुरूप हर अवसर पर 'राजमाता के धर्म' का पालन किया। बात चाहे राजपाट का कामकाज संभालने की हो या देश विभाजन के समय पीडि़तों की सहायता करने, लोकतन्त्र के पक्ष में आवाज उठाने की या फिर परिवार की मुखिया होने के नाते सदस्यों का मार्गदर्शन करने की उनका वात्सलय व जिम्मेवारी का भाव सदैव मुखरित हो कर सबके सामने आया। राजमाता ने पाकिस्तान से लुट-पिट कर आए हजारों हिन्दू-सिखों को गले से लगाया लेकिन मुख्यमन्त्री ने विधानसभा में नागरिकता सन्शोधन विधेयक के खिलाफ प्रस्ताव पारित करवा कर के पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान से आने वाले दुखी हिन्दू-सिखों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है।
बात करते हैं राजमाता मोहिन्द्र कौर की, अगस्त 1938 में 16 वर्ष की आयु में उनकी शादी पटियाला के महाराजा सरदार यादविन्द्र सिंह के साथ हुई। संयोग से उनकी पहली पत्नी का नाम भी मोहिन्द्र कौर था जिसके चलते परिवार के लोग इन्हें अलग पहचान देने के लिए मेहताब कौर के नाम से बुलाने लगे, परंतु अन्त तक उनकी सार्वजनिक पहचान मोहिन्द्र कौर के रूप में ही रही। इनकी पहली सन्तान श्रीमती हेमइन्द्र कौर (धर्मपत्नी पूर्व विदेश मन्त्री श्री नटवर सिंह), दूसरी संतान रूपइन्द्र कौर, मार्च 1942 में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह (पंजाब के मुख्यमन्त्री) और 1944 में सरदार मालविन्द्र सिंह के रूप में चौथी सन्तान हुई। 
इस बीच 15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन हुआ। विभाजन का सबसे बुरा असर पंजाब राज्य पर पड़ा और महापंजाब आधे हिस्से में सिमट कर रह गया। विभाजन की त्रासदी झेलने के साथ-साथ सबसे बड़ी चुनौती बनी नए देश पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आने वाली लाखों हिन्दू-सिखों की आबादी। अपनी मातृभूमि से लुटपिट कर आरहे इन लोगों के पास न तो खाने को अन्न था, न रहने को छत और न ही जीवन की अन्य कोई सुविधा। सन्कट की इस घड़ी में महाराजा यादविन्द्र के साथ-साथ राजमाता ने अपने राजधर्म का बाखूबी पालन किया। इतिहासकार कुलवन्त सिंह ग्रेवाल बताते हैं कि पटियाला के आसपास शरणार्थी शिविर लगा कर हजारों लोगों को भोजन, दवाएं, कपड़े दिए और उनके पुनर्वास में उनकी सहायता की। राघराने ने अपने राजकोष के साथ-साथ राजमहल के दरवाजे भी खोल दिए। कहते हैं कि राजमाता मोहेन्द्र कौर खुद भोजन तैयार करवातीं और नंगे पांव व ढके हुए सिर से पूरे सम्मान के साथ विस्थापित लोगों को भोजन करवातीं। उन दिनों को याद कर आज भी इस इलाके के लोगों की आंखें राजमाता के प्रति श्रद्धा से झुक जाती हैं।
देश विभाजन के बाद स. पटेल ने देश के एकीकरण का काम शुरु किया तो 15 जुलाई, 1948 को पटियाला राजघराने ने अपने राज्य का विलय भारतीय संघ में कर दिया। उस समय राजमाता मोहिन्द्र कौर ने अपने राजकीय दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। पंजाब और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पेप्सू) का गठन किया गया तो महाराजा यादविन्द्र सिंह को राजप्रमुख नियुक्त किया गया। महाराजा यादविन्द्र सिंह को भारत सरकार की तरफ से 1956 में सन्युक्त राष्ट्र की आम सभा, 1957-58 में युनेस्को, 1959 में यूएनएफएओ में प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वे 1965 से 66 तक इटली और 1971 से 74 तक नीदरलैण्ड में भारतीय राजदूत भी रहे। राजमाता मोहिन्द्र कौर ने सन् 1964 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1964 से 67 तक राज्यसभा और 1967 से 71 तक लोकसभा सदस्य रहीं। 1974 में महाराजा यादविन्द्र सिंह का हेग में देहान्त हो गया तो वे परिवार सहित वापिस भारत लौट आईं। कांग्रेस पार्टी में रहते हुए उन्होंने अनेक उच्च दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया परन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने देश में आपात्काल लगा दिया तो राजमाता मोहिन्द्र कौर ने इसके खिलाफ आवाज वठाई। लोकतन्त्र की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए।
दुखद बात है कि देश विभाजन व देश में आपात्काल लागू होने के समय सन्कट की घड़ी में जिस तरह से राजमाता मोहिंद्र कौर ने राष्ट्रधर्म के पालन व साहस का प्रदर्शन किया उस परम्परा को निभाने में असफल रहे कैप्टन अमरेंद्र सिंह।
जैसा कि सभी जानते हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के उन प्रताडि़त अल्पसंख्यकों जिनमें हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, इसाई, पारसी शामिल हैं को भारत की नागरिकता देने के लिए बनाया गया है जिन्हें धार्मिक कारणों से वहां प्रताडि़त किया जा रहा है। देश के विभाजन के बाद यह लोग किसी न किसी तरह भारत नहीं आ पाए थे। प्रधानमन्त्री श्री नरेंन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने एतिहासिक भूल में सुधार करते हुए 31 दिसम्बर, 2014 तक भारत आ चुके इन शरणार्थियों को नागरिकता देने की शर्तों में कुछ राहत दे रही है जिसका कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल अन्ध विरोध कर रहे हैं। दुखद बात तो यह है कि ऐसे में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेंन्द्र सिंह ने अपनी पार्टी की लकीर पर चलते हुए केवल इस विधेयक का विरोध ही नहीं किया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवा दिया। वर्णननीय है कि चाहे कांग्रेस की विभिन्न प्रदेशों की सरकारें इस विधेयक का विरोध तो कर रही हैं परन्तु कोई कांग्रेसी सरकार इसके विरुद्ध विधानसभा में प्रस्ताव नहीं लाई। वामपन्थी गठजोड़ के नेतृत्व वाली केरल सरकार के बाद पंजाब सरकार इस तरह का कदम उठाने वाली दूसरी राज्य सरकार बनी है।
एक सीमावर्ती राज्य होने के कारण पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की पहली शरणगाह राजस्थान के साथ-साथ पंजाब ही होती है परन्तु राजनीतिक स्वर्थों के चलते मुख्यमन्त्री ने यह जानते हुए भी दुखी शरणार्थी हिन्दू-सिखों के जख्मों पर नमक छिड़का कि उनका यह प्रस्ताव पूर्ण रूप से असन्वैधानिक है क्योंकि भारतीय सन्विधान के अनुसार, नागरिकता देने का विषय केन्द्र की कार्यसूची में शामिल है न कि राज्य सूची या समवर्ती सूची में। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह खुद भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं और भलि-भान्ति इस तथ्य से परिचित हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। कैप्टन की छवि एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता की रही है जिन्होंने पाकिस्तान में सर्जीकल स्ट्राईक, एयर स्ट्राईक सहित अनेक संकटों के समय कांग्रेस पार्टी की लाइन से हट कर देश की सेना व देशवासियों का साथ दिया परन्तु इस बार उन्होंने देश की जनता को विशेषकर पाकिस्तान,अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आने वाले प्रताडि़त हिन्दू-सिखों को निराशा के भँवरजाल में डुबो दिया है।

केन्द्र द्वारा पास किए कानून को 
हर राज्य लागू करने को बाध्य : जैन
एडिशनल सोलिसिटर जनरल आफ इण्डिया, चण्डीगढ़ के पूर्व सांसद एवं भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य एडवोकेट सत्यपाल जैन ने कहा है कि पंजाब विधानसभा द्वारा केन्द्रीय नागरिकता संशोधन विधेयक के विरुद्ध पास किया गया प्रस्ताव असंवैधानिक, संघीय ढांचे के विरुद्ध तथा सन्विधान के मूलभूत ढांचे का उल्लंघन करता है। पाञ्चजन्य से बातचीत के दौरान श्री जैन ने कहा कि भारत के सन्विधान की धारा 256 और 257 के अनुसार प्रत्येक राज्य केन्द्र द्वारा पारित कानून को लागू करने के लिये बाध्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो केन्द्र सरकार उसे दिशा निर्देश भी जारी कर सकती है। यह प्रस्ताव सन्विधान की उन दोनों धाराओं को चुनौती देता है। जैन ने कहा कि भारत के सन्विधान में सन्घीय ढांचा अपनाया है जिसके अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के अलग-अलग अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख है। दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च है और कोई भी एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करता। उन्होंने कहा कि नागरिकता सम्बन्ध में कानून बनाना न केवल केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है और सन्विधान की धारा 11 में इस सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार केवल और केवल संसद को देता है। किसी विधानसभा या किसी राज्य सराकर का इसमें कोई दखल नहीं है। उन्होंने कहा कि पंजाब विधानसभा का ये प्रस्ताव केन्द्र सरकार और संसद के अधिकारों को छीनने का प्रयास है जिसकी सन्विधान इजाजत नहीं देता।
इसलिए यह प्रस्ताव असन्वैधानिक है। जैन ने कहा कि कानून की दृष्टि से यह प्रस्ताव अर्थहीन तथा महत्वहीन है तथा यदि किसी नागरिक ने सिे किसी अदालत में चुनौती दे दी तो ये यह अदालत की कसौटी पर खरा नहीं उतर पायेगा। श्री जैन ने पंजाब के राज्यपाल से आग्रह किया कि वह पंजाब सराकर द्वारा पंजाब विधानसबा में पारित करवाये गये इस असंवैधानिक, गैर कानूनी तथा संघीय ढांचे के विरुद्ध इस प्रस्ताव के लिये पंजाब सरकार पर कड़ी कानूनी कारवाई करे।

- राकेश सैन, पंजाब
मो. 77106-55605

Monday, 20 January 2020

ਤਾਨਾਜੀ ਮਾਲੁਸਰੇ


ਓਮ ਰਾਉਤ ਦੇ ਨਿਰਦੇਸ਼ਨ ਵਿੱਚ ਬਣੀ 'ਤਾਨਾਜੀ : ਦੀ ਅਨਸੰਗ ਵਾਰੀਅਰ' ਤੋਂ ਪਰਦੇ ਉੱਤੇ ਦੇਸ਼  ਦੇ ਇਤਿਹਾਸ ਦਾ 350 ਸਾਲ ਪੁਰਾਨਾ ਗੌਰਵਸ਼ਾਲੀ ਅਧਿਆਏ ਜੀਵੰਤ ਹੋ ਉੱਠਿਆ। ਫਿਲਮ ਦਾ ਦੇਸ਼ਵਾਸੀਆਂ ਨੇ ਇਸ ਕਦਰ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ ਕਿ ਪਹਿਲੇ ਹੀ ਦਿਨ 15 ਕਰੋੜ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਦੀ ਕਮਾਈ ਇਸ ਫਿਲਮ ਨੇ ਕੀਤੀ ਹੈ ਜਦੋਂ ਕਿ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨਿਰਮਾਤਾ ਨਿਰਦੇਸ਼ਕ ਨੇ ਇਹ ਅਨੁਮਾਨ 10 ਕਰੋੜ ਦਾ ਲਗਾਇਆ ਸੀ। ਸਕ੍ਰੀਨ ਡਿਸਟਰੀਬਿਊਸ਼ਨ  ਦੇ ਤਾਂ ਤਾਨਾਜੀ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਕੁਲ 3880 ਸਕ੍ਰੀਂਸ ਮਿਲੇ, ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚ 2-ਡੀ ਅਤੇ 3-ਡੀ ਦੋਨਂੋ ਫਾਰਮੇਟ ਸ਼ਾਮਿਲ ਹਨ ਜੋ ਕਿ ਹਿੰਦੀ ਅਤੇ ਮਰਾਠੀ ਦੋਨੋਂ ਸਕ੍ਰੀਂਸ ਹਨ। ਉਥੇ ਹੀ ਵਿਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਫਿਲਮ ਨੂੰ 660 ਸਕ੍ਰੀਂਸ ਮਿਲੇ। ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ ਇਸ ਫਿਲਮ ਦਾ ਸਕਾਰਾਤਮਕ ਅਸਰ ਦੇਖਣ ਨੂੰ ਮਿਲ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੇਖਣ ਲਈ ਸਿਨੇਮਾ ਵਿੱਚ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਭੀੜ ਉਮੜ ਰਹੀ ਹੈ। ਵਾਸਤਵ ਵਿੱਚ ਇਹ ਇੱਕ ਅਜਿਹੇ ਵੀਰ ਨਾਇਕ  ਤਾਨਾਜੀ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਹੈ ਜੋ ਛੱਤਰਪਤੀ ਸ਼ਿਵਾਜੀ  ਦੇ ਸਭ ਤੋਂ ਭਰੋਸੇ ਯੋਗ ਸਾਥੀ ਸਨ । 
ਤਾਨਾਜੀ ਮਾਲੁਸਰੇ,ਸਿੰਘ ਨਾਮ ਤੋਂ ਵੀ ਜਾਣੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। 1670 ਵਿੱਚ ਸਿੰਘਗੜ੍ਹ ਦੀ ਲੜਾਈ ਵਿੱਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੁੱਖ ਭੂਮਿਕਾ ਨਿਭਾਈ। ਉਂਝ ਤਾਂ ਭਾਰਤ ਦੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿੱਚ ਕਾਫ਼ੀ ਲੜਾਈਆਂ ਹੋਈਆਂ, ਜੋ ਕਈ ਯੋਧਿਆਂ ਨੇ ਬਹਾਦਰੀ ਨਾਲ ਲੜੀਆਂ ਅਤੇ ਜਿੱਤੀਆਂ ਵੀ। ਤਾਨਾਜੀ ਮਾਲੁਸਰੇ ਬਹਾਦਰ ਅਤੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਮਰਾਠਾ ਯੋਧਾਵਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਇੱਕ ਹਨ ਅਤੇ ਇੱਕ ਅਜਿਹਾ ਨਾਮ ਹੈ ਜੋ ਬਹਾਦਰੀ ਦਾ ਸਮਾਨ ਅਰਥੀ ਹੈ। ਉਹ ਮਹਾਨ ਸ਼ਿਵਾਜੀ ਦੇ ਜਨਮ ਦੇ ਸਾਥੀ ਸਨ।  ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ 1670 ਵਿੱਚ ਸਿੰਘਗੜ੍ਹ ਦੀ ਲੜਾਈ ਲਈ ਸਭ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਯਾਦ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,  ਜਿੱਥੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੁਗ਼ਲ ਕਿਲੇ ਦੇ ਰੱਖਿਅਕ ਉਦੇਭਾਨ ਰਾਠੌਰ  ਦੇ ਖਿਲਾਫ ਆਪਣੇ ਆਖਰੀ ਸਾਹਾਂ ਤੱਕ ਲੜਾਈ ਲੜੀ। ਤਾਨਾਜੀ ਦਾ ਜਨਮ 1600 ਈਸਵੀ ਵਿੱਚ ਗੋਡੋਲੀ ਜਵਾਲੀ ਤਾਲੁਕਾ,  ਸਤਾਰਾ ਜ਼ਿਲਾ, ਮਹਾਰਾਸ਼ਟਰ ਵਿੱਚ ਹੋਇਆ।  ਉਨ੍ਹਾਂ  ਦੇ  ਪਿਤਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਰਦਾਰ ਕੋਲਾਜੀ ਅਤੇ ਮਾਤਾ ਦਾ ਨਾਮ ਪਾਰਵਤੀ ਬਾਈ ਸੀ ।  ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ  ਭਰਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਰਦਾਰ ਸੂਰਯਾਜੀ ਸੀ। 
ਤਾਨਾਜੀ ਮਾਲੁਸਰੇ  ਦੇ ਪੁੱਤਰ  ਦੇ ਵਿਆਹ ਦੀਆਂ ਤਿਆਰੀਆਂ ਚੱਲ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਚਾਰੇ ਪਾਸੇ ਖੁਸ਼ੀ ਦਾ ਮਾਹੌਲ ਸੀ। ਉਹ ਸ਼ਿਵਾਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰ ਨੂੰ ਵਿਆਹ ਵਿੱਚ ਆਉਣ ਦਾ ਸੱਦਾ ਦੇਣ ਗਏ ਸਨ, ਉਦੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪਤਾ ਚਲਾ ਕਿ ਸ਼ਿਵਾਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਕੋਂਢਾਨਾ ਕਿਲਾ ਜੋ ਕਿ ਸਿੰਘਗੜ੍ਹ ਕਿਲੇ  ਦੇ ਨਾਮ ਵਲੋਂ ਜਾਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,  ਵਾਪਸ ਮੁਗ਼ਲਾਂ ਤੋਂ ਹਾਸਿਲ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ । 1665 ਵਿੱਚ,  ਪੁਰੰਧਰ ਦੀ ਸੰਧੀ ਦੇ ਕਾਰਨ ਸ਼ਿਵਾਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਨੂੰ ਇਹ ਕਿਲਾ ਮੁਗ਼ਲਾਂ ਨੂੰ ਦੇਣਾ ਪਿਆ। ਕੋਂਢਾਨਾ,  ਪੁਣੇ  ਦੇ ਕੋਲ ਸਥਿਤ, ਸਭ ਤੋਂ ਭਾਰੀ ਕਿਲਾਬੰਦੀ ਅਤੇ ਰਣਨੀਤਕ ਰੂਪ ਨਾਲ ਰੱਖਿਆ ਗਿਆ ਕਿਲਾ ਸੀ। ਇਸ ਸੁਲਹ ਦੇ ਬਾਅਦ ਮੁਗ਼ਲਾਂ ਵੱਲੋਂ ਰਾਜਪੂਤ, ਅਰਬ ਅਤੇ ਪਠਾਨਾਂ ਦੀ ਟੁਕੜੀ ਕਿਲੇ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਦੀ ਸੀ।  ਇਸ ਵਿੱਚ ਸਭ ਤੋਂ ਸਮਰੱਥਾਵਾਨ ਸੈਨਾਪਤੀ ਉਦੇਭਾਨ ਰਾਠੌਰ ਸੀ ਅਤੇ ਕਿਲ੍ਹੇਦਾਰ ਵੀ, ਜਿਸਨੂੰ ਮੁਗ਼ਲ ਫੌਜ ਪ੍ਰਮੁੱਖ ਜੈ ਸਿੰਘ ਨੇ ਨਿਯੁਕਤ ਕੀਤਾ ਸੀ। 
ਸ਼ਿਵਾਜੀ  ਦੇ ਆਦੇਸ਼  ਦੇ ਬਾਅਦ ਤਾਨਾਜੀ ਲੱਗਭੱਗ 300 ਦੀ ਫੌਜ ਲੈ ਕੇ ਕਿਲੇ ਨੂੰ ਫਤਹਿ ਕਰਨ ਲਈ ਨਿਕਲੇ।  ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ  ਨਾਲ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਭਰਾ ਅਤੇ ਅੱਸੀ ਸਾਲ ਦਾ ਮਾਮਾ ਵੀ ਸਨ। ਕਿਲੇ ਦੀਆਂ ਦੀਵਾਰਾਂ ਇੰਨੀਆਂ ਉੱਚੀਆਂ ਸਨ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਸੌਖੇ ਸਾਹ ਚੜਨਾ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਸੀ।  ਚੜ੍ਹਾਈ ਬਿਲਕੁਲ ਸਿੱਧੀ ਸੀ। ਉੱਧਰ ਉਦੇਭਾਨ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿੱਚ 5000 ਮੁਗਲ ਸੈਨਿਕਾਂ ਦੁਆਰਾ ਕਿਲੇ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਸੀ। ਇੱਕਮਾਤਰ ਕਿਲੇ ਦਾ ਉਹ ਹਿੱਸਾ ਜਿੱਥੇ ਮੁਗ਼ਲ ਫੌਜ ਨਹੀਂ ਸੀ, ਉਹ ਇੱਕ ਉੱਚੀ ਲਮਕਦੀ ਹੋਈ ਚੱਟਾਨ  ਦੇ ਉੱਤੇ ਸੀ। 
ਅਜਿਹਾ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਤਾਨਾਜੀ ਆਪਣੇ ਇੱਕ ਗੋਹ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ ਉਸ ਉੱਚੀ ਚੱਟਾਨ ਉੱਤੇ ਆਪਣੇ ਸੈਨਿਕਾਂ  ਦੇ ਨਾਲ ਚੜ੍ਹਣ ਵਿੱਚ ਸਫਲ ਹੋਏ ਅਤੇ ਮੁਗ਼ਲ ਸੈਨਿਕਾਂ ਉੱਤੇ ਹਮਲਾ ਕੀਤਾ। ਇਸ ਹਮਲੇ ਦੇ ਬਾਰੇ ਉਦੇਭਾਨ ਅਤੇ ਮੁਗ਼ਲ ਫੌਜੀ ਬੇਖਬਰ ਸਨ। ਲੜਾਈ ਵਿੱਚ ਤਾਨਾਜੀ ਉਦੇਭਾਨ ਦੁਆਰਾ ਵੀਰਗਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਏ,  ਪਰ ਉਨ੍ਹਾਂ  ਦੇ ਸ਼ੈਲਾਰ ਮਾਮਾ ਨੇ ਤਾਨਾਜੀ ਦੇ ਬਾਅਦ ਲੜਾਈ ਦੀ ਕਮਾਨ ਸਾਂਭੀ ਅਤੇ ਉਦੇਭਾਨ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਕੀਤੀ । ਅੰਤ ਵਿੱਚ ਮਰਾਠਿਆਂ ਦੁਆਰਾ ਕਿਲੇ ਉੱਤੇ ਕਬਜ਼ਾ ਕਰ ਹੀ ਲਿਆ ਗਿਆ। 
ਸਵੇਰ ਹੁੰਦੇ-ਹੁੰਦੇ ਕਿਲੇ ਉੱਤੇ ਭਗਵਾ ਧਵਜ ਫਹਿਰਾ ਦਿੱਤਾ। ਜਿੱਤ  ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਸ਼ਿਵਾਜੀ ਆਪਣੇ ਸਭ ਤੋਂ ਸਮਰੱਥਾਵਾਨ ਸੈਨਾਪਤੀ ਅਤੇ ਦੋਸਤ ਨੂੰ ਗੁਆਉਣ ਤੋਂ ਕਾਫ਼ੀ ਦੁਖੀ ਹੋਏ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ  ਮੂੰਹ ਵਲੋਂ ਨਿਕਲਿਆ- ਗੜ੍ਹ ਆਲਾ ਪਣ ਸਿੰਘ ਗੇਲਾ ਅਰਥਾਤ ਗੜ੍ਹ ਤਾਂ ਹੱਥ ਵਿੱਚ ਆਇਆ, ਪਰ ਮੇਰਾ ਸਿੰਘ  ਚਲਾ ਗਿਆ।  ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਤਾਨਾਜੀ  ਦੇ ਸੰਨਮਾਨ ਵਿੱਚ ਕੋਂਢਾਨਾ ਕਿਲੇ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿੰਘਗੜ੍ਹ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਤਾਨਾਜੀ ਨੂੰ ਸਿੰਘ ਕਿਹਾ ਕਰਦੇ ਸਨ।


- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ

32, ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਲੋਨੀ
ਵੀਪੀਓ ਲਿਦੜਾਂ,
ਜਲੰਧਰ।
ਮੋ. 77106-55605

ਜੋਗਿੰਦਰ ਨਾਥ ਮੰਡਲ ਦੇ ਅਸਤੀਫੇ ਵਿੱਚ ਦੱਬੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨੀ ਦਲਿਤਾਂ ਤੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦੀ ਕਹਾਨੀ


ਦਲਿਤ ਨੇਤਾ ਜੋਗਿੰਦਰ ਨਾਥ ਮੰਡਲ ਉਹ ਹਿੰਦੂ ਨੇਤਾ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ ਵਿੱਚ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦਾ ਸਾਥ ਦਿੱਤਾ। ਵਿਭਾਜਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਉਹ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਚਲੇ ਗਏ। ਉਹ ਉੱਥੇ ਦੇ ਪਹਿਲੇ ਕਾਨੂੰਨ ਮੰਤਰੀ,ਰਾਸ਼ਟਰ ਮੰਡਲ ਅਤੇ ਕਸ਼ਮੀਰ ਮਾਮਲਿਆਂ ਦੇ ਮੰਤਰੀ ਵੀ ਸਨ। ਉਹ ਉਮੀਦ ਕਰਦੇ ਸਨ ਕਿ ਦਲਿਤਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਦਾ ਲਾਹਾ ਮਿਲੇਗਾ, ਲੇਕਿਨ ਕੁੱਝ ਸਮਾਂ ਬਾਅਦ ਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਇਹ ਭੁਲੇਖਾ ਟੁੱਟ ਗਿਆ। ਵੱਖ ਹੁੰਦੇ ਹੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ 'ਚ ਦਲਿਤ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦਾ ਨਰਸੰਹਾਰ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ। ਇਸ ਤੋਂ ਦੁਖੀ ਹੋ ਕੇ ਉਹ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਲਿਆਕਤ ਅਲੀ ਖਾਨ ਨੂੰ ਅਸਤੀਫਾ ਦੇਣ ਦੇ ਬਾਅਦ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਆ ਗਏ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਅਸਤੀਫਾ ਦਿੱਤਾ ਉਸਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਵਿੱਚ ਛੁਪੀ ਹੈ ਉਥੇ ਦੇ ਦਲਿਤ ਹਿੰਦੂਆਂ ਤੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰ ਦੀ ਪੂਰੀ ਕਹਾਣੀ। ਉਹ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਨਾਲ ਜੁੜਨ ਦੀ ਘਟਨਾ ਤੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਲਿਖਦੇ ਹਨ ਕਿ ... 

''ਬੰਗਾਲ 'ਚ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਅਤੇ ਦਲਿਤਾਂ ਦੀ ਇੱਕ ਵਰਗੀ ਹਾਲਤ ਸੀ । ਦੋਵੇਂ ਹੀ ਪਛੜੇ, ਮਛੇਰੇ,  ਅਨਪੜ੍ਹ ਸਨ।  ਮੈਨੂੰ ਯਕੀਨ ਦਿਲਵਾਇਆ ਗਿਆ ਕਿ ਲੀਗ ਦੇ ਨਾਲ ਅਜਿਹੇ ਕਦਮ  ਚੁੱਕੇ ਜਾਣਗੇ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਬੰਗਾਲ ਦੀ ਵੱਡੀ ਅਬਾਦੀ ਦਾ ਭਲਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਅਸੀ ਮਿਲਕੇ ਅਜਿਹੀ ਅਧਾਰਸ਼ਿਲਾ ਰੱਖਾਂਗੇ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਭਾਈਚਾਰਾ ਵਧੇਗਾ।  ਇਨ੍ਹਾਂ ਕਾਰਨਾਂ ਤੋਂ ਮੈਂ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦਾ ਸਾਥ ਦਿੱਤਾ। 1946 ਵਿੱਚ ਪਾਕਿਸਤਾਨ  ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ ਲਈ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਨੇ 'ਡਾਇਰੇਕਟ ਐਕਸ਼ਨ ਡੇ' ਮਨਾਇਆ, ਜਿਸਦੇ ਚਲਦਿਆਂ ਬੰਗਾਲ ਵਿੱਚ ਭਿਆਨਕ ਦੰਗੇ ਹੋਏ। ਕਲਕੱਤੇ ਦੇ ਨੋਆਖਲੀ ਨਰਸੰਹਾਰ ਵਿੱਚ ਪੱਛੜੀ ਜਾਤੀ ਸਮੇਤ ਕਈ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀ ਹਤਿਆ ਹੋਈ, ਅਣਗਿਣਤ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਇਸਲਾਮ ਕਬੂਲ ਲਿਆ। ਹਿੰਦੂ ਔਰਤਾਂ ਨਾਲ ਬਲਾਤਕਾਰ,  ਅਗਵਾ ਦੀਆਂ ਵਾਰਦਾਤਾਂ ਹੋਈਆਂ। ਇਸਦੇ ਬਾਅਦ ਮੈਂ ਦੰਗਾ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਇਲਾਕਿਆਂ ਦਾ ਦੌਰਾ ਕੀਤਾ। ਮੈਂ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੇ ਭਿਆਨਕ ਦੁੱਖ ਵੇਖੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਦੁਖੀ ਸੀ  ਲੇਕਿਨ ਫਿਰ ਵੀ ਮੈਂ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਨਾਲ ਸਹਿਯੋਗ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੂੰ ਜਾਰੀ ਰੱਖਿਆ। 14 ਅਗਸਤ, 1947 ਨੂੰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਬਨਣ  ਦੇ ਬਾਅਦ ਮੈਨੂੰ ਮੰਤਰੀ ਮੰਡਲ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਖਵਾਜ਼ਾ ਨਸੀਮੁੱਦੀਨ ਨਾਲ ਈਸਟ ਬੰਗਾਲ ਦੀ ਕੈਬਨਿਟ ਵਿੱਚ ਦੋ ਪੱਛੜੀ ਜਾਤੀ  ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਾਮਿਲ ਕਰਨ ਦਾ ਅਨੁਰੋਧ ਕੀਤਾ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਅਜਿਹਾ ਕਰਨ ਦਾ ਬਚਨ ਕੀਤਾ,  ਲੇਕਿਨ ਇਸਨੂੰ ਟਾਲ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਮੈਂ ਬਹੁਤ ਹਤਾਸ਼ ਹੋਇਆ।  

ਗੋਪਾਲਗੰਜ ਦੇ ਕੋਲ ਦੀਰਘਕੁਲ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਮੁਸਲਮਾਨ ਦੀ ਝੂਠੀ ਸ਼ਿਕਾਇਤ ਉੱਤੇ ਦਲਿਤਾਂ ਨਾਲ ਜ਼ੁਲਮ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਪੁਲਿਸ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੇ ਦਲਿਤ ਸਮਾਜ  ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਝੰਬਿਆ। ਘਰਾਂ ਵਿੱਚ ਛਾਪੇ ਮਾਰੇ। ਇੱਕ ਗਰਭਵਤੀ ਤੀਵੀਂ ਦੀ ਇੰਨੀ ਬੇਰਹਿਮੀ ਨਾਲ ਮਾਰ ਕੁਟਾਈ  ਕੀਤੀ ਗਈ ਕਿ ਉਸਦਾ ਮੌਕੇ ਉੱਤੇ ਹੀ ਗਰਭਪਾਤ ਹੋ ਗਿਆ। ਨਿਰਦੋਸ਼ ਹਿੰਦੂਆਂ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਰੂਪ ਤੋਂ ਪਛੜੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ ਫੌਜ ਅਤੇ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਵੀ ਹਿੰਸਾ ਨੂੰ ਬੜ੍ਹਾਵਾ ਦਿੱਤਾ। ਸਿਆਲਕੋਟ ਜ਼ਿਲੇ ਦੇ ਹਬੀਬਗੜ ਵਿੱਚ ਨਿਰਦੋਸ਼ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਔਰਤਾਂ ਨੂੰ ਝੰਬਿਆ ਗਿਆ। 

ਫੌਜ ਨੇ ਨਾ ਕੇਵਲ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਝੰਬਿਆ ਸਗੋਂ ਹਿੰਦੂ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਨੂੰ,  ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਔਰਤਾਂ ਨੂੰ ਫੌਜੀ ਸ਼ਿਵਰਾਂ ਵਿੱਚ ਭੇਜਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਕੀਤਾ ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਫੌਜ ਦੀ ਕਾਮੀ ਇੱਛਾਵਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਕਰ ਸਕਣ। ਮੈਂ ਇਸ ਮਾਮਲੇ ਨੂੰ ਤੁਹਾਡੇ ਧਿਆਨ ਵਿੱਚ ਲਿਆਇਆ ਸੀ,  ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਮਾਮਲੇ ਵਿੱਚ ਰਿਪੋਰਟ ਲਈ ਭਰੋਸਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਲੇਕਿਨ ਰਿਪੋਰਟ ਨਹੀਂ ਆਈ। 

ਖੁਲਨਾ ਜ਼ਿਲੇ ਕਲਸ਼ੈਰਾ ਵਿੱਚ ਪੁਲਿਸ, ਫੌਜ ਅਤੇ ਮਕਾਮੀ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਬੇਰਹਿਮੀ ਨਾਲ ਪੂਰੇ ਪਿੰਡ ਉੱਤੇ ਹਮਲਾ ਕੀਤਾ। ਕਈ ਔਰਤਾਂ ਦਾ ਪੁਲਿਸ,  ਫੌਜ ਅਤੇ ਮਕਾਮੀ ਲੋਕਾਂ ਦੁਆਰਾ ਬਲਾਤਕਾਰ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਮੈਂ 28 ਫਰਵਰੀ,  1950 ਨੂੰ ਕਲਸ਼ੈਰਾ ਅਤੇ ਆਸਪਾਸ  ਦੇ ਪਿੰਡਾਂ ਦਾ ਦੌਰਾ ਕੀਤਾ।  ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਕਲਸ਼ੈਰਾ ਵਿੱਚ ਆਇਆ ਤਾਂ ਵੇਖਿਆ ਇਹ ਜਗ੍ਹਾ ਉਜਾੜ ਅਤੇ ਖੰਡਹਰ ਵਿੱਚ ਬਦਲ ਗਈ ਹੈ। ਇੱਥੇ ਕਰੀਬਨ 350 ਘਰਾਂ ਨੂੰ ਨੇਸਤਨਾਬੂਦ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ।  ਮੈਂ ਤਥਾਂ ਨਾਲ ਤੁਹਾਨੂੰ ਸੂਚਨਾ ਦਿੱਤੀ। ਢਾਕਾ ਵਿੱਚ ਨੌਂ ਦਿਨਾਂ ਦੇ ਪਰਵਾਸ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਮੈਂ ਦੰਗਾ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਇਲਾਕਿਆਂ ਦਾ ਦੌਰਾ ਕੀਤਾ। ਢਾਕਾ-ਨਾਰਾਇਣਗੰਜ ਅਤੇ ਢਾਕਾ- ਚਟਗਾਉਂ ਵਿੱਚ ਟਰੇਨਾਂ ਅਤੇ ਪਟਰੀਆਂ ਉੱਤੇ ਨਿਰਦੋਸ਼ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀਆਂ ਹੱਤਿਆਵਾਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਝੱਟਕਾ ਦਿੱਤਾ। ਮੈਂ ਈਸਟ ਬੰਗਾਲ ਦੇ ਮੁੱਖਮੰਤਰੀ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ ਦੰਗਿਆਂ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਲਈ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕਦਮ ਚੁੱਕਣ ਦੀ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ। 20 ਫਰਵਰੀ,  1950 ਨੂੰ ਮੈਂ ਬਰਿਸਾਲ ਅੱਪੜਿਆ। ਇੱਥੇ ਦੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਬਾਰੇ ਜਾਣ ਕੇ ਹੈਰਾਨ ਸੀ। ਇੱਥੇ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੂਆਂ ਨੂੰ ਸਾੜ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਜ਼ਿਲੇ ਵਿੱਚ ਲੱਗਭੱਗ ਸਾਰੇ ਦੰਗਾ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਇਲਾਕਿਆਂ ਦਾ ਦੌਰਾ ਕੀਤਾ । ਮਧਾਪਾਸ਼ਾ ਵਿੱਚ ਜਮੀਂਦਾਰ  ਦੇ ਘਰ ਵਿੱਚ 200 ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਮੌਤ ਹੋਈ ਅਤੇ 40 ਜ਼ਖ਼ਮੀ ਸਨ। ਇੱਕ ਜਗ੍ਹਾ ਹੈ ਮੁਲਾਦੀ, ਮੌਕੇ ਦੇ ਗਵਾਹਾਂ ਨੇ ਇੱਥੇ ਭਿਆਨਕ ਨਰਕ ਵੇਖਿਆ। ਇੱਥੇ 300 ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਕਤਲੇਆਮ ਹੋਇਆ। ਉੱਥੇ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਲਾਸ਼ਾਂ ਦੇ ਕੰਕਾਲ ਵੀ ਵੇਖੇ। ਨਦੀ ਕੰਢੇ ਗਿੱਧ ਅਤੇ ਕੁੱਤੇ ਲਾਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਖਾ ਰਹੇ ਸਨ। ਇੱਥੇ ਸਾਰੇ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਦੇ ਬਾਅਦ ਲੜਕੀਆਂ ਨੂੰ ਆਪਸ ਵਿੱਚ ਵੰਡ ਲਿਆ ਗਿਆ।  ਰਾਜਾਪੁਰ ਵਿੱਚ 60 ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਗਏ। ਬਾਬੂਗੰਜ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀਆਂ ਦੁਕਾਨਾਂ ਨੂੰ ਲੁੱਟ ਕਰਕੇ ਅੱਗ ਲਗਾ ਦਿੱਤੀ ਗਈ। ਈਸਟ ਬੰਗਾਲ ਦੇ ਦੰਗੇ ਵਿੱਚ ਅਨੁਮਾਨ ਦੇ ਮੁਤਾਬਕ 10,000 ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਹੱਤਿਆਂ ਹੋਈ। ਆਪਣੇ ਆਸ-ਪਾਸ ਔਰਤਾਂ ਅਤੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਵਿਲਾਪ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਮੇਰਾ ਦਿਲ ਪਿਘਲ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਤੁਹਾਥੋਂ ਪੁੱਛਿਆ, ਕੀ ਮੈਂ ਇਸਲਾਮ  ਦੇ ਨਾਮ ਉੱਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਆਇਆ ਸੀ ?

ਮੰਡਲ ਨੇ ਆਪਣੇ ਖਤ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਲਿਖਿਆ,  ਈਸਟ ਬੰਗਾਲ ਵਿੱਚ ਅੱਜ ਕੀ ਹਾਲਾਤ ਹਨ?  ਵਿਭਾਜਨ  ਦੇ ਬਾਅਦ 5 ਲੱਖ ਹਿੰਦੂਆਂ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਵੱਲੋਂ ਹਿੰਦੂ ਵਕੀਲਾਂ,  ਡਾਕਟਰਾਂ,  ਵਪਾਰੀਆਂ,  ਦੁਕਾਨਦਾਰਾਂ  ਦੇ ਬਾਈਕਾਟ  ਦੇ ਬਾਅਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪਲਾਇਨ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੋਣਾ ਪਿਆ। ਮੈਨੂੰ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਦਲਿਤਾਂ ਦੀਆਂ ਲੜਕੀਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਬਲਾਤਕਾਰ ਦੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਮਿਲੀ ਹੈ। ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੁਆਰਾ ਵੇਚੇ ਗਏ ਸਾਮਾਨ ਦੀ ਮੁਸਲਮਾਨ ਖਰੀਦਦਾਰ ਪੂਰੀ ਕੀਮਤ ਨਹੀਂ  ਦੇ ਰਹੇ ਹਨ।  ਸੱਚਾਈ ਇਹ ਹੈ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਨਿਆਂ ਹੈ, ਨਾ ਹੀਂ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਰਾਜ, ਇਸ ਲਈ ਹਿੰਦੂ ਚਿੰਤਤ ਹਨ। ਪੂਰਵੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਇਲਾਵਾ ਪੱਛਮੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਵੀ ਇੰਜ ਹੀ ਹਾਲਾਤ ਹਨ। ਵਿਭਾਜਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਪੱਛਮੀ ਪੰਜਾਬ ਵਿੱਚ 1 ਲੱਖ ਪਛੜੀ ਜਾਤੀ ਦੇ ਲੋਕ ਸਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਨੂੰ ਜ਼ਬਰਨ ਇਸਲਾਮ ਕਬੂਲ ਕਰਵਾਇਆ ਗਿਆ। ਮੈਨੂੰ ਇੱਕ ਲਿਸਟ ਮਿਲੀ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿੱਚ 363 ਮੰਦਰ-ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੇ ਕਬਜ਼ੇ ਵਿੱਚ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਕੁੱਝ ਨੂੰ ਮੋਚੀ ਦੀ ਦੁਕਾਨ,  ਕਸਾਈਖਾਨੇ ਅਤੇ ਹੋਟਲਾਂ ਵਿੱਚ ਤਬਦੀਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਮੈਨੂੰ ਜਾਣਕਾਰੀ ਮਿਲੀ ਹੈ ਕਿ ਸਿੰਧ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀ ਪਛੜੀ ਜਾਤੀ ਨੂੰ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਨੂੰ ਜ਼ਬਰਨ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਣਾਇਆ ਗਿਆ ਹੈ।''

ਸੀ.ਏ.ਏ. ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਇਹ ਸੋਚਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਰਾਹੀਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਲਿਤ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਇਨਸਾਫ ਮਿਲਣ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਕੀ ਉਹ ਨਹੀਂ ਚਾਹੁੰਦੇ ਕਿ 72 ਸਾਲਾਂ ਤੋਂ ਸਤਾਏ ਜਾ ਰਹੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਬੇਕਸੂਰ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਨਿਆਂ ਮਿਲੇ?

ਪਾਕਿਸਤਾਨੀ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਉੱਤੇ ਅੰਬੇਡਕਰ ਦੀ ਚਿੰਤਾ


ਆਪਣੀ ਕਿਤਾਬ ਥਾਟਸ ਆਨ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਦੀ ਵੰਡ ਉੱਤੇ ਲਿਖੇ ਗਏ ਆਪਣੇ ਲੇਖਾਂ ਵਿੱਚ ਬਾਬਾ ਸਾਹੇਬ ਭੀਮਰਾਓ ਅੰਬੇਡਕਰ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਮੇਰਾ ਦਿਮਾਗ਼ ਖੁੱਲ੍ਹਾ ਹੈ,  ਖਾਲੀ ਨਹੀਂ। ਬਾਬਾ ਸਾਹੇਬ ਇਤਿਹਾਸਕਾਰ ਸਨ ਲੇਕਿਨ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ ਨਹੀਂ। ਹਿੰਦੂਆਂ,  ਖਾਸ ਤੌਰ 'ਤੇ ਦਲਿਤਾਂ ਨੂੰ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸ਼ਾਸਕਾਂ  ਬਾਰੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੂੰ ਜਾਨਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ। ਜੇਕਰ ਤੁਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰ ਜਾਣ ਲਉਗੇ ਤਾਂ ਇਸ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਭੀਮ-ਮੀਮ ਦਾ ਨਾਅਰਾ ਗਾਇਬ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ।  
ਉਹ ਚਾਹੁੰਦੇ ਸਨ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਘੋਸ਼ਣਾ ਉਦੋਂ ਤੱਕ ਲਈ ਰੋਕ ਦਿੱਤੀ ਜਾਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ ਜਦੋਂ ਤੱਕ ਅਬਾਦੀ ਦੀ ਅਦਲਾ-ਬਦਲੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਜਾਂਦੀ। ਦਲਿਤ- ਮੁਸਲਮਾਨ ਏਕੇ ਦੇ ਨਾਅਰੇ ਦੇ ਧੋਖੇ ਵਿੱਚ ਆ ਕੇ ਜੋਗਿੰਦਰ ਨਾਥ ਮੰਡਲ ਨਾਲ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਰੁਕਣ ਵਾਲੇ ਦਲਿਤਾਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਭਾਰਤ ਆਉਣ ਦੀ ਸਲਾਹ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਜੋ ਕਿ ਮੰਡਲ ਦੀ ਵਾਪਸੀ ਤੋਂ ਸਹੀ ਸਾਬਤ ਹੋ ਗਈ। ਅੱਜ ਫਿਰ ਇਹ ਨਾਅਰਾ ਦਲਿਤਾਂ ਨੂੰ ਧੋਖਾ ਦੇਣ ਲਈ ਗੜਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ।  
ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਾਫ ਮੰਨਣਾ ਸੀ, ਦੋਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਂਤੀ ਸਥਾਪਨਾ ਲਈ ਅਬਾਦੀ ਦੀ ਅਦਲਾ-ਬਦਲੀ ਬਹੁਤ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ।  ਜੇਕਰ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਘੋਸ਼ਣਾ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇਹ ਕੰਮ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਖੂਨ-ਖਰਾਬੇ ਤੋਂ ਬਚਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਇਹ ਕਾਂਗਰਸੀ ਨੇਤਾਵਾਂ ਦੀ ਹੈਂਕੜ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬਾਬਾ ਸਾਹੇਬ ਦੀ ਸਲਾਹ ਦੀ ਅਨਦੇਖੀ ਕਰਕੇ ਵਿਭਾਜਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਘੋਸ਼ਣਾ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਅਤੇ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਕਰਵਾ ਦਿੱਤੀ।  ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੇਤਾਵਾਂ ਨੂੰ ਸੱਤਾ ਦੀ ਇੰਨੀ ਜਲਦੀ ਸੀ ਕਿ ਜਿੱਨਾਹ ਨੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਅਤੇ ਨਹਿਰੂ ਨੇ ਹਿੰਦੂਆਂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਪਰਵਾਹ ਹੀ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ।
ਗਾਂਧੀ ਜੀ  ਕਹਿੰਦੇ ਸਨ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਲਾਸ਼ ਉੱਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਬਣੇਗਾ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜਿੰਦਾ ਰਹਿੰਦੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਗਿਆ ? ਗੱਲ-ਗੱਲ ਤੇ ਅਨਸ਼ਨ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਗਾਂਧੀ ਜੀ ਨੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਬਣਨੋਂ ਰੋਕਣ ਲਈ ਕਿਹੜਾ ਵਰਤ ਕੀਤਾ ? ਦੇਸ਼ ਦੀ ਤਰਜਮਾਨੀ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਕਾਂਗਰਸ  ਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਹਤਿਆਵਾਂ ਕਿਵੇਂ ਹੋ ਗਈਆਂ?   ਵਿਭਾਜਨ  ਦੇ ਬਾਅਦ ਜੋ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਪਾਕਿਸਤਾਨ  ਵਿੱਚ ਅਤੇ ਜੋ ਮੁਸਲਮਾਨ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਜਾਣਗੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ  ਬਾਰੇ ਕੋਈ ਸਪੱਸ਼ਟ ਨੀਤੀ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਬਣਾਈ ਗਈ? ਹਿੰਦੂਆਂ-ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਤਾਂ ਕਦੇ ਵੱਖ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਮੰਗ ਹੀ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਸੀ। ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਹਮੇਸ਼ਾ ਅਖੰਡ ਭਾਰਤ ਦੀ ਹੀ ਗੱਲ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਫਿਰ ਭਾਰਤ ਦਾ ਵਿਭਾਜਨ ਉਨ੍ਹਾਂ  ਉੱਤੇ ਕਿਉਂ ਥੋਪਿਆ ਗਿਆ?
ਵਾਸਤਵ ਵਿੱਚ ਕੁਝ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਰੁਕਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਸਨ, ਲੇਕਿਨ ਆਪਣੀ ਜਾਇਦਾਦ ਅਤੇ ਘਰ- ਵਾਰ ਛੱਡ ਕੇ ਭਾਰਤ ਆਉਣਾ ਕਈਆਂ ਨੂੰ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਲਗਾ। ਫਿਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੀ ਪਤਾ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ  ਨਾਲ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਦੂਜੇ ਦਰਜੇ ਦਾ ਨਾਗਰਿਕ ਹੋਣ ਦਾ ਵਰਤਾਰਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਹਿੰਦੂ-ਮੁਸਲਮਾਨ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਲੋਕ ਇੱਕ ਦਿਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਖ਼ਤਮ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨਗੇ। ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਰੁਕੇ ਮੁਸਲਮਾਨ ਵੀ ਵਾਸਤਵ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਘਰ-ਵਾਰ ਛੱਡ ਕੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨਹੀਂ ਜਾਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਸਨ, ਬੇਸ਼ੱਕ ਕਈਆਂ ਦਾ ਦਿਲ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਚਲਾ ਗਿਆ ਹੋਵੇ ਲੇਕਿਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਰੀਰ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਹੀ ਰੁਕ ਗਿਆ। ਇਹੀ ਹਾਲਤ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਵੀ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਦਿਲ ਤਾਂ ਭਾਰਤ ਆ ਗਿਆ ਲੇਕਿਨ ਸ਼ਰੀਰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਗਿਆ। ਉਹ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਹੀ ਆਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਸਨ ਲੇਕਿਨ ਉੱਥੇ ਰੁਕਣਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਜਬੂਰੀ ਸੀ।  ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੰਸ਼ੋਧਨ ਕਾਨੂੰਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਮਜਬੂਰ ਲੋਕਾਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਸਿਰਫ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਵਿੱਚ ਹੈ, ਜੋ ਕਈ ਸਾਲਾਂ ਤੋਂ ਕਾਂਗਰਸ ਦੇ ਮਹਾਨ ਨੇਤਾਵਾਂ ਵੱਲੋਂ ਕੀਤੀਆਂ ਗ਼ਲਤੀਆਂ  ਦੇ ਕਾਰਨ ਗ਼ੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀਆਂ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜੀ  ਰਹੇ ਹਨ, ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਪ੍ਰਦਾਨ ਕਰਨ ਦੀ ਛੋਟ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਦੇਸ਼  ਦੇ ਇਲਾਵਾ ਕਿਸੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰਨ ਵੀ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕਦੀ। ਇੰਨੇ ਤੇ ਵੀ ਜੇਕਰ ਕਾਂਗਰਸ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਪਿੱਛਲੱਗੂਆਂ ਦਾ ਢਿੱਡ ਦੁਖਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਰਮ ਨਾਲ ਡੁੱਬ ਕੇ ਮਰ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।

ਪੀੜ ਪਹਾੜ ਹੋ ਗਈ . . .


ਪੀੜ ਪਹਾੜ ਹੋ ਗਈ ਅਤੇ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੰਸ਼ੋਧਨ ਵਿਧੇਯਕ - 2019 ਜ਼ਖਮਾਂ ਉੱਤੇ ਮੱਲ੍ਹਮ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਹੈ। ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਉੱਤੇ ਹੋਏ ਜਨੂੰਨੀ ਹਮਲੇ ਦੀ ਤਾਜ਼ਾ ਘਟਨਾ ਗਵਾਹ ਹੈ ਕਿ ਪੱਥਰਾਂ ਦੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀ ਪੀੜ ਪਹਾੜ ਹੋ ਗਈ। ਮਹਾਨ ਕਵੀ ਪ੍ਰਦੀਪ ਨੇ ਲਿਖਿਆ ਸੀ- 'ਯੇ ਪੱਥਰ ਕਾ ਦੇਸ ਹੈ ਪਗਲੇ, ਕੋਈ ਨ ਤੇਰਾ ਹੋਏ।' ਇਹ ਸਤਰਾਂ ਪਾਕਿਸਤਾਨ,ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਅਫਗਾਨਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਧਾਰਮਿਕ ਘੱਟਗਿਣਤੀਆਂ ਦੀ ਸੰਪੂਰਨ ਪੀੜ ਕਥਾ ਕਹੀ ਜਾ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ। ਕਾਬਾ ਵਿੱਚ ਮੁਕੱਦਸ ਪੱਥਰ ਨੂੰ ਚੁੰਮਦੇ-ਚੁੰਮਦੇ ਕੁੱਝ ਲੋਕ ਵੀ ਪੱਥਰ ਹੋ ਗਏ ਜਾਪਦੇ ਹਨ, ਪਵਿਤਰ ਕੁਰਾਨ ਦੀਆਂ ਸਿੱਖਿਆਵਾਂ ਉੱਤੇ ਚਲਦੇ ਹੋਏ ਕਦੇ ਇੰਨੀ ਹੀ ਸ਼ਿੱਦਤ ਨਾਲ ਇਨਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਪਿਆਰ ਕੀਤਾ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਉਹ ਨਹੀ ਹੁੰਦਾ ਜੋ 3 ਜਨਵਰੀ ਨੂੰ ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ 'ਚ ਹੋਇਆ। ਉਹ ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ ਜਿੱਥੇ ਅੱਜ ਤੋਂ 550 ਸਾਲ ਪਹਿਲਾਂ ਸ਼੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ  ਜੀ  ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਅਜਿਹੀ ਦੇਵ ਆਤਮਾ ਨੇ ਮਾਨਵਦੇਹ ਧਾਰਨ ਕੀਤੀ ਜਿਨ੍ਹੇ ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਸਰਬੱਤ ਦੇ ਭਲੇ ਦਾ ਸੁਨੇਹਾ ਦਿੱਤਾ। ਅੱਜ ਉਸੀ ਗੁਰੂ ਦੀ ਜਨਮਸਥਲੀ ਉੱਤੇ ਉਸਦੇ ਹੀ ਨਾਮਲੇਵਾਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਜਾਨਮਾਲ ਤੱਕ  ਦੇ ਲਾਲੇ ਪਏ ਵਿਖਾਈ  ਦੇ ਰਹੇ ਹਨ। ਜਿਹਾਦੀ ਮਨੋਰੋਗੀ ਇੱਕ ਖੂੰਖਾਰ ਚਿਹਰਾ ਚੰਘਿਆੜ ਰਿਹਾ ਸੀ,  ''ਸਿਖੋ!  ਮੈਂ ਆ ਰਿਹਾ ਹਾਂ,  ਤਗੜੇ ਹੋ ਜਾਓ-ਨਨਕਾਣੇ 'ਚ ਕੋਈ ਸਿੱਖ ਨਈਂ ਰਹਿਨ ਦੇਣਾ'', ਨਨਕਾਣਾ ਦਾ ਨਾਮ ਗੁਲਮ-ਏ- ਮੁਸਤਫਾ ਕਰਨ ਦਾ ਸੁਫ਼ਨਾ ਸੰਜੋਏ ਜਨੂੰਨੀ ਭੀੜ ਉਸਦਾ ਹੌਸਲਾ ਵਧਾ ਰਹੀ ਸੀ। ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਵਿੱਚ ਦੁਬਕੇ-ਸਹਿਮੇ ਖੜੇ ਸਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮਲੇਵਾ ਬੇਵੱਸ ਅਤੇ ਲਚਾਰ ਸਿੱਖ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਅਤੇ ਜਨੂੰਨੀਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਾਹਿਗੁਰੁ ਅਤੇ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਮਜ਼ਬੂਤ ਦਰਵਾਜ਼ਿਆਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਦੋ ਹੀ ਦੀਵਾਰਾਂ ਸਨ। ਜਦੋਂ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ 550ਵਾਂ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਦਿਹਾੜਾ ਮਨਾ ਰਹੀ ਹੈ ਤਾਂ ਅਜਿਹੇ ਮੌਕੇ ਉੱਤੇ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਵਿੱਚ ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ ਹੀ ਸੀ ਜਿੱਥੇ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਦਾ ਪਾਠ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਇਤਿਹਾਸ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਕੀਰਤਨ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰਨਾ ਪਿਆ।  ਸਿੱਖ ਭੈਭੀਤ ਸਨ ਅਤੇ ਮੌਕੇ ਤੋਂ ਨਦਾਰਦ ਦਿਖੀ ਇਨਸਾਨੀਅਤ, ਛੁੱਟੀ ਉੱਤੇ ਚੱਲੀ ਗਈ ਪੂਰੀ ਵਿਵਸਥਾ ਅਤੇ ਅੱਖਾਂ ਉੱਤੇ ਪੱਟੀ ਬੰਨ੍ਹ ਲਈ ਨਿਆਂ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਨੇ।  ਜੇਕਰ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਦਾ ਦਰਵਾਜ਼ਾ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿਮੇਵਾਰੀ ਇਮਾਨਦਾਰੀ ਨਾਲ ਨਾ ਨਿਭਾਉਂਦਾ ਤਾਂ ਫਿਰ ਤੋਂ ਜਿੱਤ ਜਾਂਦੀ ਜ਼ਕਰੀਆ ਖਾਨ ਦੀ ਉਹ ਨੀਚ ਆਤਮਾ ਜਿਸਨੇ ਅਤੀਤ ਵਿੱਚ ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਬੀਜਨਾਸ਼ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ। 
ਕੋਈ ਪੁੱਛੇ ਤਾਂ ਕੀ ਦੋਸ਼ ਹੈ ਪਾਕਿਸਤਾਨੀ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ,  ਇਹੀ ਕਿ ਵਿਭਾਜਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਮੂਲ ਸਥਾਨ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਛੱਡਿਆ। ਪੱਥਰਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਆਪਣਾ ਖੁਦਾ ਮੰਨ  ਲਿਆ। ਕੀ ਇਸਦੀ ਇਹੋਜਿਹੀ ਸਜ਼ਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇ ਕਿ ਕੋਈ ਵੀ ਆਏ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਧੀਆਂ-ਭੈਣਾਂ ਨੂੰ ਚੁੱਕ ਲੈ ਜਾਵੇ। ਉਸਨੂੰ ਡਰਾ ਧਮਕਾ ਕੇ ਇਸਲਾਮ ਕਬੂਲ ਕਰਾਵੇ ਅਤੇ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਅਵਾਜ਼ ਚੁੱਕਣ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਵੀ ਨਾ ਹੋਵੇ।  ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ  ਦੇ ਗ੍ਰੰਥੀ ਦੀ ਧੀ ਜਗਜੀਤ ਕੌਰ ਨੂੰ ਹਸਨ ਨਾਮ ਦੇ ਲੜਕੇ ਨੇ ਪਿਛਲੇ ਸਾਲ ਅਗਵਾ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਇਸਲਾਮ ਕਬੂਲ ਕਰਵਾ ਕਰ ਨਿਕਾਹ ਕਰਵਾ ਲਿਆ। ਪੀੜਤ ਪਰਿਵਾਰ ਨੇ ਹਰ ਕਿਸੇ  ਦੇ ਅੱਗੇ ਹੱਥ-ਪੈਰ ਜੋੜੇ ਪਰ ਕੋਈ ਮਦਦ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਨਹੀਂ ਆਇਆ। ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਜਗਜੀਤ ਕੌਰ ਆਪਣੇ ਘਰ ਪਹੁੰਚੀ ਤਾਂ ਇਸ ਸਾਲ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਵਿੱਚ ਆਰੋਪੀ  ਦੇ ਭਰਾ ਨੂੰ ਮਕਾਮੀ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਭੜਕਾਇਆ ਕਿ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮੁਸਲਮਾਨ ਹੋ,  ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਇੱਕ ਕੁੜੀ ਨਹੀਂ ਸਾਂਭੀ ਗਈ। ਤੈਸ਼ ਵਿੱਚ ਆ ਕੇ ਜਗਜੀਤ ਕੌਰ ਨੂੰ ਦੁਬਾਰਾ ਘਰੋਂ ਉਠਾ ਲਿਆ ਗਿਆ। ਜਦੋਂ ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਨ ਕੀਤਾ ਤਾਂ ਉੱਥੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੇ ਇਸਨੂੰ ਆਪਣੇ ਖਿਲਾਫ ਮੰਨ ਲਿਆ। ਇਸਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ 3 ਜਨਵਰੀ ਨੂੰ ਅਗਵਾ ਕਾਂਡ  ਦੇ ਆਰੋਪੀ  ਦੇ ਭਰਾ ਨੇ ਜੁੰਮੇ ਦੀ ਨਮਾਜ਼ ਦੇ ਬਾਅਦ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਭੜਕਾਇਆ ਅਤੇ ਜਨੂੰਨੀਆਂ ਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਸਾਹਿਬ ਉੱਤੇ ਜਾ ਚੜ੍ਹਿਆ। ਇਹ ਕੋਈ ਇਕੱਲੀ ਘਟਨਾ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ 72 ਸਾਲਾਂ ਤੋਂ ਚੱਲੀ ਆ ਰਹੀ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦੀ ਲੰਬੀ ਲੜੀ ਦੀ ਇੱਕ ਕੜੀ ਹੈ। 
ਪੱਥਰਾਂ ਦੇ ਦੇਸ਼  ਦੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ਵਿੱਚ ਪੱਥਰ, ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ ਪੱਥਰ,  ਅੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਪੱਥਰ ਅਤੇ ਧਰਮ  ਦੇ ਨਾਮ ਉੱਤੇ ਪੱਥਰ। ਪਰ ਪੱਥਰਬਾਜ਼ਾਂ ਦੀ ਇੱਕ ਬਿਰਾਦਰੀ ਇੱਥੇ ਵੀ ਹੈ ਜਿਨ੍ਹਾਂ  ਦੇ ਦਿਮਾਗ਼ਾਂ ਵਿੱਚ ਪੱਥਰ ਪਏ ਦਿੱਖ ਰਹੇ ਹਨ।  ਜਦੋਂ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੰਸ਼ੋਧਨ ਕਾਨੂੰਨ-2019  ਦੇ ਤਹਿਤ ਪੱਥਰ ਪੀੜਤਾਂਂ ਨੂੰ ਨਿਆਂ ਦੇਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਤਾਂ ਇੱਥੇ ਦੇ ਕੁਝ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਵੀ ਪੱਥਰ ਉਠਾ ਲਏ।  ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਪੀੜ ਪਹਾੜ ਹੋਈ ਉਨ੍ਹਾਂ  ਦੇ ਨਿਆਂ  ਦੇ ਰਸਤੇ ਵਿੱਚ ਇਹ ਲੋਕ ਪੱਥਰ ਬਣਦੇ ਵਿਖੇ। ਕਵੀ ਪ੍ਰਦੀਪ ਅੱਜ ਹੁੰਦੇ ਤਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖ ਕਰ ਸ਼ਾਇਦ ਕਹਿ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਕਿ  'ਹਮਨੇ ਅਪਨੇ ਵਤਨ ਕੋ ਦੇਖਾ, ਆਦਮੀ ਕੇ ਪਤਨ ਕੋ ਦੇਖਾ।' ਕਿੰਨਾ ਚੰਗਾ ਹੋਵੇਗਾ ਜੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਪੀੜਤਾਂਂ ਨੂੰ ਨਿਆਂ ਦੇ ਰਸਤੇ ਵਿੱਚ ਅੜਚਨ ਬਣੇ ਹੋਏ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੰਸ਼ੋਧਨ ਕਾਨੂੰਨ ਦੇ ਵਿਰੋਧੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ, ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਅਫਗਾਨਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਆਏ ਹਿੰਦੂ, ਸਿੱਖ,  ਜੈਨ,  ਪਾਰਸੀ,  ਇਸਾਈ,  ਬੋਧੀ ਸਮਾਜ  ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਪੀੜਾ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੱਦ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਸੁਹਿਰਦਤਾ ਦਾ ਸਬੂਤ ਦੇਣ।                  
-  ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ

Wednesday, 15 January 2020

ਸੀ.ਏ.ਏ.- ਸੱਚ ਜੋ ਛੁਪਾਇਆ ਗਿਆ


ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਕਾਨੂੰਨ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਦੇਸ਼ ਭਰ ਵਿਚ ਵਿਰੋਧ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਿਆ ਜਾਵੇ ਕਿ ਵਿਰੋਧ ਨੂੰ ਉਭਾਰਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਪਰੰਤੁ ਸੱਚਾਈ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਨੇ ਅਜੇ ਤੀਕ ਇਸ ਕਾਨੁੰਨ ਨੂੰ ਜਾਂ ਤਾਂ ਸਮਝਿਆ ਨਹੀਂ ਜਾਂ ਫਿਰ ਜਾਨਬੂਝ ਕੇ ਨਾਸਮਝ ਦਿਸਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸਦੀ ਪੂਰੀ ਸੱਜਾਈ ਦੇਸ਼ ਸਾਹਮਣੇ ਲਿਆਈ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਸ਼ਾਇਦ ਹੀ ਕੋਈ ਦੇਸ਼ਵਾਸੀ ਹੋਵੇਗਾ ਜੋ ਇਸਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਦੀ ਗਲਤੀ ਕਰੇਗਾ। ਸਾਰੇ ਜਾਣਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਅਜਾਦੀ ਵੇਲੇ ਕਾਂਗਰੇਸ ਪਾਰਟੀ ਸੁਭਾਵਿਕ ਤੌਰ ਤੇ ਸੱਤਾ ਦੀ ਉਤਰਾਧਿਕਾਰੀ ਸੀ। ਦੇਸ਼ ਦਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਉਸਨੂੰ ਹਾਸਿਲ ਸੀ ਅਤੇ ਇਸੇ ਕਾਰਨ ਉਹ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਭਵਿੱਖ ਭਵਿੱਖ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਸਾਰੇ ਫੈਸਲੇ ਲੈ ਰਹੀ ਸੀ। ਦੋ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਨੂੰ ਸਵੀਕਾਰ ਕਰ ਉਸਦੇ ਅਧਾਰ ਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਵੀ ਇਸ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਸੀ। ਉਸਨੇ ਇਹ ਜਾਨਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਵੀ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਇਸ ਨਾਲ ਸਹਿਮਤ ਹੈ ਵੀ ਜਾਂ ਨਹੀਂ। ਇੱਥੇ ਤਕ ਕਿ ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ ਜੀ ਦੀ ਮੰਜੂਰੀ ਲੈਣੀ ਵੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ ਸਮਝੀ ਗਈ।
ਉਸ ਵੇਲੇ ਦੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਦੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਦੇ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਕਰੀਏ ਤਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਆਵੇਗਾ ਕਿ ਅਜਾਦੀ ਦੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਤੋਂ ਅਭਿਭੂਤ ਬਹੁਤੇ ਕਾਂਗਰੇਸੀ ਨੇਤਾ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ ਨੂੰ ਵੀ ਗੰਭੀਰਤਾ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਲੈ ਰਹੇ ਸਨ। ਉਹ ਇਹ ਮੰਨ ਕੇ ਚਲ ਰਹੇ ਸਨ ਕਿ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਦਾ ਇਹ ਉਫਾਨ ਛੇਤੀ ਹੀ ਉਤਰ ਜਾਵੇਗਾ ਅਤੇ ਹਾਲਾਤ ਆਮ ਹੋ ਜਾਣਗੇ। ਉਹ ਇਹ ਵੀ ਮੰਨਦੇ ਸਨ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੇਤਾ 'ਮੂਰਖਾਂ ਦੇ ਸਵਰਗ' ਵਿਚ ਜੀ ਰਹੇ ਹਨ। ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਸਵੀਕਾਰ ਕਰਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਵੀ ਇਹ ਨੇਤਾ ਮੰਨਦੇ ਸਨ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਲੰਮੇ ਸਮੇਂ ਤੀਕ ਜਿਉਂਦਾ ਨਹੀਂ ਰਹੇਗਾ ਅਤੇ ਛੇਤੀ ਹੀ ਪੂਰਾ ਭਾਰਤ ਇਕ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ। ਰਾਮਮਨੋਹਰ ਲੋਹੀਆ ਜਿਹੋਜਿਹੇ ਦਿੱਗਜ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਨੇਤਾ ਤਾਂ ਅਖਿਰ ਤੀਕ ਭਾਰਤ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦੀ ਇਕ ਸਾਂਝਾ ਵਿਵਸਥਾ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਵਕਾਲਤ ਕਰਦੇ ਰਹੇ। ਸਮੇਂ ਨੇ ਸਾਬਿਤ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਭੁਲੇਖੇ ਵਿਚ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਸੰਸਥਾਪਕ ਮੁਹੰਮਦ ਅਲੀ ਜਿੱਨਾਹ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਭਾਰਤੀ ਰਹਿਨੁਮਾ ਸਨ। ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਇਕ ਕੌੜੀ ਸੱਚਾਈ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸਾਡੇ ਸਾਹਮਣੇ ਹੈ ਜਿਸਨੇ ਆਪਣਾ ਪੂਰਾ ਤਾਨਾ-ਬਾਨਾ ਭਾਰਤ ਵਿਰੋਧੀ ਧੁਰੀ ਦੇ ਇਰਦ-ਗਿਰਦ ਬੁਣਿਆ ਹੈ।
ਵਿਭਾਜਨ ਹਿੰਸਾ ਅਤੇ ਖੂਨਖਰਾਬਾ ਲੈ ਕੇ ਆਇਆ। ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਹਿੰਸਾ ਅਤੇ ਹਿਜਰਤ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪਿਆ। ਇਸ ਤੋਂ ਵੀ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਸੀ ਜੋ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਕਾਰਨਾ ਕਰਕੇ ਵਿਸਥਾਪਿਤ ਨਹੀਂ ਹੋਏ। ਇਸ ਵਿਚ ਇਕ ਪਾਸੇ ਜਿੱਨਾਹ ਦਾ ਵਾਇਦਾ ਸੀ ਕਿ ਜਿਸ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿਚ ਰਹਿ ਰਹੇ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਸਮਾਨਤਾ ਦਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਿਲਵਾਇਆ ਸੀ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਪੁਸ਼ਤਾਂ ਤੋਂ ਗੁਆਂਢੀਆਂ ਨਾਲ ਚਲੇ ਆ ਰਹੇ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਉÎÎੱਤੇ ਭਰੋਸਾ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਕਿਸਮਤ ਦੇ ਸਹਾਰੇ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੋਨਾਂ ਹੀ ਹਾਲਾਤਾਂ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਿਰਾਸ਼ਾ ਹੱਥ ਲੱਗੀ। ਛੇਤੀ ਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਆਸਥਾਵਾਂ ਤੇ ਹਮਲੇ ਹੋਣ ਲੱਗੇ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਵਜੂਦ ਖਤਮ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਹੋਣੀ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਈ।

ਨਹਿਰੂ-ਲਿਆਕਤ ਸਮਝੌਤਾ
ਕਾਂਗਰੇਸ ਵਿਚ ਪਟੇਲ ਜਿਹੋ-ਜਿਹੇ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਨੇਤਾ ਜਿੱਥੇ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਇਸਦਾ ਖਦਸ਼ਾ ਪ੍ਰਗਟਾ ਰਹੇ ਸਨ ਉਥੇ ਹੀ ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ ਨੂੰ ਵੀ ਸ਼ੰਕਾ ਸੀ। ਪੰਡਿਤ ਜਵਾਹਰ ਲਾਲ ਨਹਿਰੂ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸਹਿਯੋਗੀਆਂ ਨੇ ਸੱਚਾਈ ਦਾ ਅਨੁਮਾਨ ਲਗਾ ਕੇ ਸਮੱਸਿਆ ਦੇ ਹਲ ਵਾਲੇ ਪਾਸੇ ਕਦਮ ਪੁੱਟਿਆ ਜਿਸਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵੱਜੋਂ ਨਹਿਰੂ-ਲਿਆਕਤ ਸਮਝੌਤਾ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ। ਇਸ ਸਮਝੌਤੇ ਅਨੁਸਾਰ ਦੋਨੋਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਰਹਿੰਦੇ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਭਾਈਚਾਰੇ  ਦੇ ਹਿਤਾਂ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਨ ਦੀ ਗੱਲ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਭਾਰਤ ਨੇ ਇਸ ਸਮਝੌਤੇ ਦਾ ਇਕ ਤਰਫ਼ਾ ਪਾਲਨ ਕੀਤਾ। ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਫਲਫੁੱਲ ਰਿਹਾ ਮੁਸਲਿਮ ਭਾਈਚਾਰਾ ਇਸਦਾ ਗਵਾਹ ਹੈ। ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿਚ ਸਮੂਚਾ ਸੱਤਾ ਤੰਤਰ ਹੀ ਘੱਟਗਿਣਤੀਆਂ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਉਤਰ ਆਇਆ ਜਿਸਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵੱਜੋਂ ਪਕਿਸਤਾਨ ਅੰਦਰ ਅੱਜ 1947 ਦੀ ਤੁਲਨਾ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀ ਜਨਸੰਖਿਆ ਦਸ ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਵੀ ਨਹੀਂ ਬਚੀ ਹੈ। ਬਾਕੀ 90 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਹਿੰਦੂ ਜਾਂ ਤਾ ਜ਼ਬਰਨ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਣਾ ਦਿੱਤੇ ਗਏ, ਮਾਰ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਜਾਂ ਹਿਜਰਤ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੋਏ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਹੀ ਸਭਕੁਝ ਸਿੱਖ, ਇਸਾਈ, ਬੌਧ ਅਤੇ ਹੋਰ ਵਰਗਾਂ ਨਾਲ ਵੀ ਵਾਪਰਿਆ। ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦੇ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਆਉਣ ਨਾਲ ਇਹ ਉਮੀਦ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਸੀ ਕਿ ਘੱਟੋਂ-ਘੱਟ ਉਥੇ ਦੇ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਹਿੰਦੂਆਂ ਉੱਤੇ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਤੇ ਲਗਾਮ ਲੱਗੇਗੀ ਪਰੰਤੂ ਛੇਤੀ ਹੀ ਉਸਨੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਇਸਲਾਮਿਕ ਦੇਸ਼ ਘੋਸ਼ਿਤ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਇਕ ਵਾਰੀ ਫੇਰ ਦਮਨ ਚਕ੍ਰ ਚਲਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ।

ਭਾਰਤ ਨੇ ਹਮੇਸ਼ਾ ਉਠਾਈ ਹਿੰਦੂ-ਸਿਖਾਂ ਲਈ ਅਵਾਜ਼
ਅੰਕੜਿਆਂ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰੀਏ ਤਾਂ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਸਮੇਂ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ, ਸਿੱਖ, ਬੌਧ ਅਤੇ ਜੈਨ ਸਮੁਦਾਇਆਂ ਦੀ ਅਬਾਦੀ 23 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਸੀ, ਜੋ 72 ਸਾਲਾਂ ਵਿਚ ਘੱਟ ਕੇ 1.5 ਤੋਂ 2 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਰਹਿ ਗਏ। ਸਾਲ 2002 ਵਿਚ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿਚ ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 40000 ਤੋਂ ਘੱਟ ਕੇ 8000 ਤੋਂ ਵੀ ਹੇਠਾਂ ਪਹੁੰਚ ਗਈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ (1971 ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਪੂਰਬੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ) ਵਿਚ ਹਿੰਦੂਆਂ ਅਤੇ ਬੌਧਾਂ ਦੀ ਅਬਾਦੀ 1947 ਵਿਚ ਜਿੱਥੇ 30 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਸੀ, ਉਹ ਅੱਜ ਘੱਟ ਕੇ 8 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਤੋਂ ਵੀ ਘੱਟ ਗਈ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਫਗਾਨਿਸਤਾਨ ਵਿਚ 1970 ਦੇ ਦਹਾਕੇ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਅਬਾਦੀ 7 ਲੱਖ ਸੀ ਜੋ 1990 ਦੀ ਸਿਵਿਲ ਵਾਰ ਦੇ ਬਾਦ ਘਟਦੀ ਹੋਈ ਅੱਜ ਕੇਵਲ 3000 ਰਹਿ ਗਈ ਹੈ।
ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ 'ਕਾਫਿਰ' ਘੱਟਗਿਣਤੀਆਂ ਦੀ ਤਰਸਯੋਗ ਹਾਲਤ ਦਾ ਮੁੱਖ ਕਾਰਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਧਾਰਮਿਕ ਆਸਥਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਮਜਹਬੀ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਕਰਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਰਹਿਣਾ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਹੋ ਗਿਆ ਤਾਂ ਜਾਂ ਤਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਧਰਮ ਬਦਲਣਾ ਪਿਆ ਜਾਂ ਫੇਰ ਪਲਾਇਨ ਕਰਨਾ ਪਿਆ। ਭਾਰਤ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਸੁਭਾਵਿਕ ਤੌਰ ਤੇ ਮੰਜ਼ਿਲ ਸੀ ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਲੋਕ ਸੱਭਿਆਚਾਰਕ ਤੌਰ ਤੇ ਇਸ ਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਹੋਏ ਸਨ।
ਵੰਡ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀ ਬਣ ਕੇ ਆਏ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਹਿੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਵਸਾਇਆ ਗਿਆ। ਉਸ ਵੇਲੇ ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ, 'ਇਕੋ ਹੀ ਭਾਰਤ ਦੇ ਦੋ ਟੁਕੜੇ ਹੋਏ ਹਨ। ਭਾਰਤ 'ਚ ਆਏ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦੇਣਾ ਸਾਡੀ ਪਹਿਲੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਹੈ।' ਇਹ ਹੀ ਗੱਲ ਪੰਡਿਤ ਨਹਿਰੂ ਅਤੇ ਸਰਦਾਰ ਪਟੇਲ ਨੇ ਵੀ ਕਹੀ ਸੀ। ਇਸ ਲਈ ਹਰ ਸਮੇਂ ਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਹਿੰਦੂ, ਸਿੱਖ, ਇਸਾਈ, ਬੌਧ, ਜੈਨ ਅਤੇ ਪਾਰਸੀ ਸ਼ਰਣਾਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦੇਣ ਦੀ ਨੀਤੀ ਅਪਣਾਈ। ਸਾਲ 2003 'ਚ ਵਾਜਪਈ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਇਸ ਨੂੰ ਕਾਨੂੰਨੀ ਰੂਪ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਸਪਸ਼ਟ ਕੀਤਾ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਜੋ ਹਿੰਦੂ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀ ਆਉਣਗੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਅੱਜ ਅੰਦੋਲਨ ਕਰਨ ਵਾਲੀਆਂ ਬਹੁਤੀਆਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਉਸ ਵੇਲੇ ਇਸ ਪਹਿਲ ਦਾ ਸਮਰਥਨ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਸਾਲ 2004-05 'ਚ ਕਾਂਗਰੇਸ ਦੀ ਮਨਮੋਹਨ ਸਿੰਘ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਸੰਸਦ ਅੰਦਰ ਬਿਲ ਪਾਸ ਕਰਕੇ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਦੀ ਸੀਮਾ 1-1 ਸਾਲ ਕਰਕੇ ਦੋ ਵਾਰੀ ਵਧਾਈ ਸੀ। ਉਸ ਵੇਲੇ ਕਮਿਉਨਿਸਟ, ਤ੍ਰਿਣਮੂਲ ਕਾਂਗਰੇਸ ਅਤੇ ਉਹ ਸਾਰੇ ਦਲ ਸਰਕਾਰ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਸਨ ਜੋ ਅੱਜ ਇਸਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ।

ਪੀੜਿਤਾਂ ਨੂੰ ਨਿਆਂ ਦੇਣ ਦੀ ਨਵੀਂ ਕੋਸ਼ਿਸ਼
ਸਾਲ 2003 ਦਾ ਕਾਨੂੰਨ ਕੇਵਲ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਕਾਨੂੰਨ-2019 ਵਿਚ ਇਸਦੇ ਦਾਇਰੇ ਨੂੰ ਵਧਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਸਿੱਖ, ਬੌਧ, ਪਾਰਸੀ, ਇਸਾਈ ਅਤੇ ਜੈਨ ਵੀ ਸ਼ਾਮਿਲ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਨ।  ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ 'ਚ ਧਾਰਮਿਕ ਉਤਪੀੜਨ ਹੁੰਦਾ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਮੁਦਾਇਆਂ ਦੇ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦੇਣ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਵਿਚ ਹੈ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਕਾਨੁੰਨ-2019 'ਚ ਨਾ ਤਾਂ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਵਸਦੇ ਕਿਸੇ ਨਾਗਰਿਕ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਕੱਢਣ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਭਾਰਤੀ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਤੇ ਕੋਈ ਰੋਕ ਲਗਾਈ ਗਈ ਹੈ। ਭਾਰਤੀ ਨਾਗਰਿਕ ਬਨਣ ਲਈ ਕੁਝ ਸ਼ਰਤਾਂ ਦਾ ਪਾਲਨ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹ ਪਹਿਲਾਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪੂਰੀ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆ ਜਾਰੀ ਰਹੇਗੀ। ਨਵੇਂ ਕਾਨੂੰਨ ਵਿਚ ਸੁਹਿਰਦਤਾ ਦਿਖਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰ ਰਹੇ ਵਰਗਾਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦੇਣ ਵਿਚ ਕੁਝ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦਿੱਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆ ਨੂੰ ਕੁਝ ਸਰਲ ਬਣਾਇਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਅਜੇ ਤੀਕ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਲਈ 11 ਸਾਲ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਰਹਿਣ ਦੀ ਸ਼ਰਤ ਸੀ ਜਿਸਨੂੰ ਘਟਾ ਕੇ 5 ਸਾਲ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕੁਝ ਕਾਨੂੰਨੀ ਦਸਤਾਵੇਜ਼ਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰਤਾਂ ਵਿਚ ਛੋਟ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਹਲਾਤਾਂ ਵਿਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਵਤਨ ਛੱਡਣਾ ਪਿਆ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ ਦਸਤਾਵੇਜ਼ ਸਾਥ ਲਿਆਉਣਾ ਅਸੰਭਵ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਦਸਤਾਵੇਜ਼ਾਂ ਦੀ ਅਣਹੋਂਦ ਵਿਚ ਉਹ ਲੋਕ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਆਉਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੀ ਆਪਣੀ ਪਹਿਚਾਣ ਲੁਕਾਉਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਹਾਲਾਤ ਵਿਚ ਭ੍ਰਿਸ਼ਟ ਤੰਤਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪੂਰਾ ਸ਼ੋਸ਼ਣ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਕਿਸੇ ਵੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਕਾਨੂੰਨੀ ਸਹਾਇਤਾ, ਨੌਕਰੀ, ਮਕਾਨ, ਇੱਥੋਂ ਤੀਕ ਕਿ ਸਕੂਲਾਂ ਵਿਚ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਲਈ ਵੀ 11 ਸਾਲ ਲੰਮੇ ਸਮੇਂ ਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਤਾਏ ਹੋਏ ਇਨ੍ਹਾਂ ਭਰਾਵਾਂ ਦੇ ਮਨੁੱਖੀ ਸਰੋਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਹ ਦਸਣਾ ਵੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ ਕਿ ਨਵੇਂ ਕਾਨੂੰਨ ਦੇ ਬਾਅਦ ਇਹ ਲੋਕ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਆਉਣਗੇ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚ ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਤਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਵੱਸ ਰਹੇ ਹਨ ਪਰੰਤੂ ਨਾਗਰਿਕ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਅਣਹੋਂਦ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਪਹਿਚਾਣ ਲੁਕਾ ਕੇ ਰਹਿਣ ਤੋਂ ਮਜਬੂਰ ਹਨ। ਕੁਝ ਤਾਂ ਦਹਾਕਿਆਂ ਤੋਂ ਹੀ ਅਜਿਹਾ ਨਾਰਕੀ ਜੀਵਨ ਜੀ ਰਹੇ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਤਸੱਲੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਤਮਾਮ ਸਹੂਲਤਾਂ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ ਰਹਿ ਕੇ ਵੀ ਆਪਣੀਆਂ ਆਸਥਾਵਾਂ ਦਾ ਪਾਲਣ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਆਪਣੇ ਪੁਰਖਿਆ ਦੀ ਧਰਤੀ ਤੇ ਜੀਵਿਤ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕ ਅਧਿਕਾਰ ਯਕੀਨੀ ਬਨਾਉਣ ਅਤੇ ਸੰਨਮਾਨ ਨਾਲ ਜੀਵਨ ਜਿਉਣ ਦਾ ਮੌਕਾ ਇਸ ਨਵੇਂ ਕਾਨੂੰਨ ਵਿਚ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਹ ਪਿਛਲੇ 72 ਸਾਲਾਂ ਵਿਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਗਏ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਅਤੇ ਦੁਸ਼ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਪਸ਼ਚਾਤਾਪ ਹੈ।

ਚੰਗੀ ਇੱਛਾ ਦਾ ਵੀ ਵਿਰੋਧ
ਇਕ ਚੰਗੇ ਉਦੇਸ਼ ਲਈ ਲਿਆਏ ਗਏ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਸੰਸਦ ਦੇ ਅੰਦਰ ਅਤੇ ਬਾਹਰ ਦੋਨੋਂ ਜਗ੍ਹਾਂ ਤੇ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਸਿਆਸੀ ਦਲਾਂ ਨੇ ਅੰਧ ਮੋਦੀ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਆ ਕੇ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਨ ਕੀਤਾ ਉਸ ਨਾਲ ਸਾਫ ਹੋ ਗਿਆ ਕਿ ਉਹ ਕਿਸ ਹਦ ਤੀਕ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਰਾਜਧਾਨੀ ਦਿੱਲੀ ਸਮੇਤ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਹਿੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਕਈ ਜਗ੍ਹਾਂ ਤੇ ਹਿੰਸਕ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਨ ਹੋਏ। ਜਾਨ-ਮਾਲ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰੀ ਸੰਪਤੀ ਦਾ ਭਾਰੀ ਨੁਕਸਾਨ ਹੋਇਆ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਬਿਲ-2019 ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਭੁਲੇਖਾ ਪਾਉ ਅਫਵਾਹਾਂ ਫੈਲਾਈਆਂ ਗਈਆਂ। ਸੱਚਾਈ ਤੋਂ ਦੂਰ ਮੁਸਲਿਮ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਡਰਾਉਣ ਵਾਲੀ ਸਮਗ੍ਰੀ ਤੋਂ ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ ਨੱਕੋਂ ਨੱਕ ਭਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ। ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਯੂਨੀਵਰਸੀਟੀਆਂ ਅਤੇ ਮਸਜਿਦਾਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਦਾ ਕੇਂਦਰ ਬਣ ਗਈਆਂ। ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਅਤੇ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਭੜਕਾ ਕੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਹਿੰਸਾ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਿਆ ਗਿਆ। ਸਾਰੀ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਅਰਾਜਕ ਤਤਾਂ ਨਾਲ ਖੜ੍ਹੀ ਨਜ਼ਰ ਆਈ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਨੇ ਵੀ ਹਿੰਸਾ ਦੀ ਨਿੰਦਿਆ ਤਕ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ। ਨੌਜਵਾਨ ਭਾਵੁਕ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਵਾਸਤੇ ਲੜਨ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਉਹ ਭੀੜ ਵਿਚ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹ ਸ਼ਕਤੀ ਵੀ ਹਾਸਿਲ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਉਸਨੂੰ ਭੜਕਾ ਕੇ ਅਰਾਜਕਤਾ ਵੱਲ ਧੱਕਣਾ ਸੌਖਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਮੌਕਾਪ੍ਰਸਤ ਰਾਜਨੀਤੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਰੱਖ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸਿਆਸੀ ਹਿਤ ਪੂਰੇ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਪਿਛਲੇ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਅਸੀਂ ਲਗਾਤਾਰ ਇਹੋ-ਜਿਹੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਦੇਖ ਰਹੇ ਹਾਂ।  ਆਪਣੇ ਸਿਆਸੀ ਆਕਾਵਾਂ ਦੀ ਸ਼ਹਿ ਤੇ ਟੁਕੜੇ-ਟੁਕੜੇ ਗੈਂਗ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ ਭੜਕਾਉਣ ਦਾ ਕੰਮ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਆਈ.ਐਸ.ਆਈ. ਜਿਹੋਜਿਹੀ ਬਾਹਰੀ ਤਾਕਤਾਂ ਜਿੱਥੇ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਫਿਰਕੂ ਜ਼ਹਿਰ ਘੋਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਉÎÎੱਥੇ ਹੀ ਸਿਆਸੀ ਬੜ੍ਹਤ ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਲਈ ਕੁਝ ਰਾਜਨੀਤਕ ਦਲ ਅਤੇ ਨੇਤਾ ਇਸ ਕਾਰੇ ਨੂੰ ਸਰਪ੍ਰਸਤੀ ਪ੍ਰਦਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਗਠਜੋੜ ਨੂੰ ਬੌਧਿਕ ਖਾਦ ਪਾਣੀ ਦੇਣ ਦਾ ਕੰਮ ਅਖੌਤੀ ਖੱਬੇ ਪੱਖੀ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ ਵੱਲੋਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜੇ.ਐਨ.ਯੂ., ਜਾਮੀਆ, ਏ.ਐਮ.ਯੂ. ਅਤੇ ਜਾਦਵਪੁਰ ਯੂਨੀਰਵਸਿਟੀ ਜਿਹੋਜਿਹੇ ਸੰਸਥਾਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕੇਂਦਰ ਬਣੇ ਹਨ। 

ਵਿਰੋਧ ਦਾ ਕਾਰਨ - ਵੈਚਾਰਿਕ ਜੂਠ
ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਅੱਜ ਜੋ ਵੈਚਾਰਿਕ ਭੁਲੇਖੇ ਫੈਲਾਏ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ ਉਸਦੀ ਜੜ ਵਿਚ ਕੇਵਲ ਅਰਾਜਕ ਗਠਜੋੜ ਹੀ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ ਦੀ ਇਹ ਸੋਚ ਹੈ ਕਿ 1947 ਵਿਚ ਅੰਗਰੇਜ਼ ਵੰਡਿਆ ਹੋਇਆ ਭਾਰਤ ਕਾਂਗਰੇਸ ਨੂੰ ਸੌਂਪ ਕੇ ਗਏ ਸਨ, ਉਹ ਹੀ ਆਖਰੀ ਸੱਚਾਈ ਹੈ। ਪੰਡਿਤ ਨਹਿਰੂ ਵੀ ਇਸਨੂੰ 'ਨੇਸ਼ਨ ਇਨ ਮੇਕਿੰਗ' ਆਖਦੇ ਸਨ। ਇਹ ਸਾਰੇ ਮੰਨਦੇ ਸਨ ਕਿ ਭਾਰਤ ਇਕ ਕੋਰੀ ਸਲੇਟ ਹੈ ਜਿਸ ਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਨਵੀਂ ਇਬਾਰਤ ਲਿਖਣਾ ਉਸਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅੰਗਰੇਜ਼ਾਂ ਦੇ ਸਿਆਸੀ, ਵੈਚਾਰਿਕ ਉਤਰਾਧਿਕਾਰੀ ਹੋਣ ਦੇ ਨਾਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਵੀ। ਇੱਥੋਂ ਹੀ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਜਨਮ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਸੱਚ ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤ ਕੋਈ ਕੋਰੀ ਸਲੇਟ ਨਹੀਂ ਹੈ ਬਲਕਿ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਸਾਲਾਂ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ ਸਮੇਟੇ ਇਕ ਜੀਉਂਦੀ ਸੱਭਿਅਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕੋਈ ਆਈਡੀਆ ਨਹੀਂ ਜਿਸਨੂੰ ਲੱਖਾ ਮੂਲ ਵਾਸੀਆਂ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਕਰਕੇ ਲਾਗੂ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਦੇ ਚਲਦੇ ਇਕ ਰਾਸ਼ਟਰ ਬਣਿਆ। ਜਾਂ ਪਕਿਸਤਾਨ ਦੀ ਕਿਸਮ ਦਾ ਕੋਈ ਦੇਸ਼ ਵੀ ਨਹੀਂ ਜਿਸਦਾ ਜਨਮ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਸੰਸਦ ਵੱਲੋਂ ਪਾਸ ਕੀਤੇ ਕਾਨੂੰਨ ਰਾਹੀ ਹੋਇਆ। ਭਾਰਤ ਯੁਗਾਂ ਦੀ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤੀਕ ਯਾਤਰਾ ਨਾਲ ਵਿਕਸਿਤ ਹੋਇਆ ਦੁਨੀਆ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਪੁਰਾਣਾ ਰਾਸ਼ਟਰ ਹੈ ਜਿਸਦੇ ਜੀਉਣ ਦਾ ਆਪਣਾ ਇਕ ਤਰੀਕਾ ਹੈ। ਪੰਜ ਹਜ਼ਾਰ ਸਾਲਾਂ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਨਿਰੰਤਰ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਇਕ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਭੁਗੋਲਿਕ ਅਤੇ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤੀਕ ਪਹਿਚਾਣ ਨੂੰ ਬਣਾਈ ਰਖਣ ਲਈ ਲੱਖਾਂ ਬਲਿਦਾਨ ਹੋਏ ਹਨ। 

ਯੋਧਿਆਂ ਦੇ ਵੰਸ਼ਜ਼ਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ ਨਿਆਂ
ਪਿਛਲੇ 1200 ਸਾਲ ਦੇ ਲੰਮੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਰ ਖੇਤਰ ਨੇ ਆਪਣਾ ਯੋਗਦਾਨ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਸਭ ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਹਮਲੇ ਉੱਤਰ-ਪੱਛਮੀ ਸੀਮਾਂ ਤੋਂ ਹੋਏ ਅਤੇ ਸਰਹੱਦੀ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਜੋ ਯੋਗਦਾਨ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਉਸਦੀ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਕੋਈ ਤੁਲਨਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਯੋਧਿਆਂ ਦੇ ਵੰਸ਼ਜ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਹਨ ਜੋ ਅੱਜ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅੰਦਰ ਨਰਕ ਭਰਿਆ ਜੀਵਨ ਜਿਉਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਭਾਰਤ ਨੇ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਦੀਆਂ ਸ਼ਰਤਾਂ ਨੂੰ ਸਰਲ ਬਣਾ ਕੇ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਦਾ ਹੀ ਪਾਲਣ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਸਦਾ ਚੇਤੇ ਰਖਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅੰਦਰ ਚਾਰ ਪੀੜ੍ਹੀਆਂ ਤੀਕ ਅੱਤਿਆਚਾਰ ਸਹਿਣ ਕਰਕੇ ਵੀ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਭੂਮੀ ਮੰਨਣ ਵਾਲੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਬੇਸਹਾਰਿਆਂ ਦੇ ਪੁਰਖਿਆਂ ਦੀ ਭਾਰਤ ਰਿਣੀ ਹੈ। ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਵੀ ਉਹ ਭਾਰਤੀ ਸਨ ਅਤੇ ਮਨ ਤੋਂ ਅੱਜ ਵੀ ਭਾਰਤੀ ਹਨ। ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੇ ਥੋਪਿਆ ਗਿਆ ਸੀ। ਲੰਦਨ ਤੋਂ ਤਿੰਨ ਮਹੀਨਿਆਂ ਲਈ ਭਾਰਤ ਆਏ ਰੈਡਕਲਿਫ ਨਾਂ ਦੇ ਅੰਗਰੇਜ਼ ਨੇ ਲਾਲ ਪੈਂਸਿਲ ਨਾਲ ਇਕ ਰੇਖਾ ਖਿੱਚ ਕੇ  ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਸਾਲਾਂ ਦੇ ਸੱਭਿਆਚਾਰ ਸੰਬੰਧਾਂ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਦੀ ਘੋਸ਼ਣਾ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਸੰਸਕ੍ਰਿਤਕ ਸਮਝ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ ਅਖੌਤੀ ਪ੍ਰਗਤੀਸ਼ੀਲ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ ਨੇ ਇਸੇ ਆਖਰੀ ਸੱਚ ਨੂੰ ਨਾ ਕੇਵਲ ਸਵੀਕਾਰ ਕੀਤਾ ਬਲਕਿ ਜੋ ਲੋਕ ਇਸ ਝੂਠ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਨੂੰ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ ਸਨ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਬਦਨਾਮ ਕਰਨ ਦਾ ਅਭਿਆਨ ਵੀ ਚਲਾਇਆ। ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਨਰਿੰਦਰ ਮੋਦੀ ਅੱਜ ਭਾਰਤੀ ਚਿੰਤਨ ਦੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਪ੍ਰਤੀਕ ਵੱਜੋਂ ਵਿਸ਼ਵ ਪਟਲ ਤੇ ਉਭਰੇ ਹਨ। ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਰਾਸ਼ਟਰੀਅਤਾ ਦੇ ਉਭਾਰ ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਵਿਰੋਧੀ ਤੱਤਾਂ ਦੇ ਸਿਆਸੀ ਜਾਂ ਨਿਜੀ ਹਿਤ ਖਤਰੇ ਵਿਚ ਆਗਏ ਹਨ। ਇਸੇ ਕਾਰਨ ਇਹ ਲੋਕ ਆਪਣੇ ਆਖਰੀ ਹਥਿਆਰ ਦੇ ਤੌਰ ਤੇ ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਲੋਕ ਭੁੱਲ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਜ਼ੋਰ 'ਤੇ ਇਸ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਨਾ ਤਾਂ ਇਸਲਾਮ ਝੁਕਾ ਸਕਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਅੰਗਰੇਜ਼, ਇਸ ਲਈ ਇਨ੍ਹਾਂ ਤੱਤਾਂ ਦਾ ਤੱਤਾਂ ਦਾਅ ਵੀ ਖਾਲੀ ਜਾਂਦਾ ਦਿਸ ਰਿਹਾ ਹੈ।

ਫਿਰ ਉਹੀ ਵੰਡਣ ਵਾਲੀ ਤੁਸ਼ੀਟਕਰਨ ਦੀ ਨੀਤੀ
ਭਾਰਤ 'ਚ ਖਿਲਾਫ਼ ਅੰਦੋਲਨ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਕਿਸੀ ਵੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੂੰ ਸਾਧਨ ਦੀ ਜੋ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਈ ਉਹ ਅੱਜ ਅਜਾਦੀ ਦੇ ਬਾਅਦ ਵੀ ਜਾਰੀ ਹੈ। ਹੁਣ ਇਸਦੀ ਵਰਤੋਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪੰਥਨਿਰਪੱਖ ਸਾਬਿਤ ਕਰਨ ਲਈ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਲੱਗ ਪਈ। ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਬਾਅਦ ਇਹ ਸੋਚ ਮੁਸਲਿਮ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਇਕਮੁਸ਼ਤ ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸਾਹਮਣੇ ਆਈ ਜਿਸਦੇ ਚਲਦਿਆਂ ਕਾਂਗਰੇਸ ਦਹਾਕਿਆਂ ਤੀਕ ਸੱਤਾ ਵਿਚ ਰਹੀ। ਪੰਥਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦਾ ਲਬਾਦਾ ਪਾਏ ਹੋਰ ਕਈ ਦਲਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਕਾਂਗਰੇਸ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੇ ਆਕਰਸ਼ਿਤ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਮੁਸਲਿਮ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਵਿਚ ਖੋਰਾ ਲੱਗਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ। ਮੁਸਲਿਮ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਲਈ ਲੜਦਿਆਂ-ਲੜਦਿਆਂ ਇਹ ਦਲ ਤੁਸ਼ਟੀਕਰਣ ਉੱਤੇ ਉਤਰ ਆਏ। ਪਿਛਲੇ ਤਿੰਨ ਦਹਾਕਿਆਂ ਤੋਂ ਇਹ ਸੋਚ ਘਿਨਾਉਣੀ ਹੋ ਗਈ। ਇਸ ਦੌਰ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਆਸਥਾਵਾਂ ਦੇ ਦਮਨ ਨੂੰ ਮੁਸਲਿਮ ਪ੍ਰੇਮ ਨਾਲ ਜੋੜਿਆ ਜਾਣ ਲੱਗ ਪਿਆ। ਕਿਸੇ ਨੇ ਰਾਮ ਮੰਦਰ ਦੇ ਕਾਰਸੇਵਕਾਂ ਤੇ ਸਿੱਧੀ ਗੋਲੀ ਚਲਾ ਕੇ ਮੁਸਲਿਮ ਪ੍ਰੇਮ ਪ੍ਰਗਟਾਇਆ ਤਾਂ ਕਿਸੇ ਨੇ ਹਿੰਦੂ ਅੱਤਵਾਦ ਦਾ ਸ਼ਿਗੁਫਾ ਛੱਡ ਕੇ ਇਹ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਕਿ ਅੱਤਵਾਦ ਨਾਲ ਕੇਵਲ ਇਸਲਾਮ ਨੂੰ ਹੀ ਨਹੀਂ ਜੋੜਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਗੋਧਰਾ ਹੱਤਿਆਕਾਂਡ ਦੇ ਦੋਸ਼ੀਆਂ ਨੂੰ ਸਮਰਥਨ ਦੇਣ ਵਿਚ ਵੀ ਕਿਸੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਦਲ ਨੇ ਸੰਕੋਚ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ। ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀ ਗੱਲ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੂੰ ਨਾ ਕੇਵਲ ਫਿਰਕੂ ਠਹਿਰਾਇਆ ਜਾਣ ਲੱਗਾ ਬਲਕਿ ਉਸਨੂੰ ਕਾਨੂੰਨੀ ਮਕੜਜਾਲ ਵਿਚ ਫਸਾਉਣ ਦੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਵੀ ਸਾਹਮਣੇ ਆਈਆਂ। ਸੌ ਸਾਲਾਂ ਬਾਅਦ ਕਾਂਗਰੇਸ ਨਿਯਤੀ ਦਾ ਚੱਕਰ ਪੂਰਾ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਖਿਲਾਫਤ ਅੰਦੋਲਨ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਤੁਸ਼ਟੀਕਰਨ ਦੇ ਚੱਕਰ ਵਿਚ ਫਸਦੀ ਨਜ਼ਰ ਆ ਰਹੀ ਹੈ। ਕਾਂਗਰੇਸ ਦੀ ਇਸੇ ਗ਼ਲਤੀ ਕਾਰਨ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਵਿਭਾਜਨ ਦੀ ਅੱਗ ਵਿਚ ਸੜਨਾ ਪਿਆ ਲੇਕਿਨ ਅੱਜ ਦਾ ਭਾਰਤ 1947 ਵਾਲਾ ਭਾਰਤ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਆਤਮਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾਲ ਭਰੇ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਰਾਸ਼ਟਵਾਦ ਦਾ ਜਵਾਰ ਠਾਠਾਂ ਮਾਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸਨੂੰ ਤੋੜਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਤਾਕਤਾਂ ਦਾ ਅੰਤ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ।

- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
32, ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਲੋਨੀ
ਵੀਪੀਓ ਲਿਦੜਾਂ,
ਜਲੰਧਰ।
ਮੋ. 77106-55605

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