Wednesday, 30 August 2017

ये कहानी है दीये की और तूफान की

निर्बल से लड़ाई बलवान की
यह कहानी है दीये की और तूफान की
इक रात अंधियारी, थीं दिशाएं कारी-कारी
मंद-मंद पवन था चल रहा
अंधियारे को मिटाने, जग में ज्योत जगाने
एक छोटा-सा दीया था कहीं जल रहा
अपनी धुन में मगन, उसके तन में अगन
उसकी लौ में लगन भगवान की ...1
कहीं दूर था तूफान, दीये से था बलवान
सारे जग को मसलने मचल रहा
झाड़ हों या पहाड़, दे वो पल में उखाड़
सोच-सोच के जमीं पे था उछल रहा
एक नन्हा-सा दीया, उसने हमला किया
अब देखो लीला विधि के विधान की ...2
दुनिया ने साथ छोड़ा, ममता ने मुख मोड़ा
अब दीये पे यह दुख पडऩे लगा
पर हिम्मत न हार, मन में मरना विचार
अत्याचार की हवा से लडऩे लगा
सर उठाना या झुकाना, या भलाई में मर जाना
घड़ी आई उसके भी इम्तेहान की ...3
फिर ऐसी घड़ी आई, घनघोर घटा छाई
अब दीये का भी दिल लगा काँपने
बड़े जोर से तूफान, आया भरता उड़ान
उस छोटे से दीये का बल मापने
तब दीया दुखियारा, वह बिचारा बेसहारा
चला दाव पे लगाने, बाजी प्राण की ... 4
लड़ते-लड़ते वो थका, फिर भी बुझ न सका
उसकी ज्योत में था बल रे सच्चाई का
चाहे था वो कमजोर, पर टूटी नहीं डोर
उसने बीड़ा था उठाया रे भलाई का
हुआ नहीं वो निराश, चली जब तक साँस
उसे आस थी प्रभु के वरदान की ... 5
सर पटक-पटक, पग झटक-झटक
न हटा पाया दीये को अपनी आन से
बार-बार वार कर, अंत में हार कर
तूफान भागा रे मैदान से
अत्याचार से उभर, जली ज्योत अमर
रही अमर निशानी बलिदान की
ये कहानी है दीये की और तूफान की
दिल करता है गीतकार भरत व्यास के लिखे और गायकार मन्ना डे मधुरकण्ठ से निकले इस सदाबाहार गीत को बार-बार गाऊं, चीख-चीख कर दुनिया को सुनाऊं कि जीत अंतत: धर्म की होगी, सच्चाई की ही होगी। सच्चाई को झूठ परेशान कर सकता है परास्त नहीं। गीत में अगर तूफान की जगह पर डेरा सच्चा सौदा के संचालक संत गुरमीत राम रहीम और दीये के स्थान पर बलात्कार पीडि़ता बहनों को रख दिया जाए तो लगता है कि दशकों पूर्व है भरत व्यास ने इस घटना का स्टीक विश्लेषण कर दिया था। मैं याद करता हूं उस दिन को जब पीडि़त बहनें अपने मन में भगवद् प्राप्ति की आस लिए घर से निकली होंगी और दुर्भाग्य से उस इंसान की शरण में आईं जो तूफान की भांति सत्ता और ताकत के घमण्ड में उमड़-घुमड़ रहा था।
ये अकड़ आए भी क्यों! न जब पूरी प्रदेश सरकार नत्मस्त हो, बड़े-बड़े मंत्री, सांसद, विधायक मिलने के लिए घंटों-घंटों बारी का इंतजार करे। नौकरशाही सेवा करने को तत्पर रहे तो गर्दन ऐंठी जाना स्वभाविक ही है। ऐसा तूफान फिर दीये को 'क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा' ही मानता होगा और माना भी, कर दिया दीये पर हमला। मसल डाली उसकी लौ।
जैसा कि सामान्यत: होता है मसले जाने के बाद दुनिया दीये का ही साथ छोडऩे लगी। याद करें उन दिनों को जब न तो पुलिस प्रशासन ने इन पीडि़ताओं की सुनी न ही सरकार ने। प्रधानमंत्री को कोई पत्र तब ही लिखता है जब निचले स्तर पर हर कहीं सुनवाई बंद हो जाए। ये तो भला हो पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय का जिसने इन अज्ञात पीडि़ताओं के पत्र का संज्ञान लेते हुए केंद्रीय जांच ब्यूरो को जांच का काम सौंप दिया। उस समय की चौधरी ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाली इंडियन नैशनल लोकदल की सरकार ने इस जांच को रोकने के लाख प्रयास किए परंतु वह सफल नहीं हो पाई। सीबीआई के संयुक्त निदेशक व जांच अधिकारी मुलिंजा नारायणन ने पटाक्षेप किया है कि बाबा की ताकत का ही कमाल था कि तत्कालीन यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस के 4-5 सांसदों ने सीबीआई के निदेशक पर दबाव डाला कि पूरे केस को बंद कर दिया जाए। इस अहंकारी तूफान की तीव्रता बढ़ाने का काम हर राजनीतिक दल ने किया, चाहे वो इनैलो हो या कांग्रेस या वर्तमान में सत्ताधारी भाजपा की सरकार। हरियाणा की सत्तारूढ़ सरकार तो यह कह कर कानून का मखौल उड़ाती रही कि 'आस्था पर धारा 144 लागू नहीं होती।' अहंकारी बाबा का साथ देने की यह निकृष्ठतम उदाहरण है कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की सरकार अंत तक बाबा के मौखिक आदेश मानती दिखी और सुरक्षा के प्रबंधों के नाम पर लीपापोती होती रही। सरकारी महाधिवक्ता द्वारा एक अपराधी घोषित इंसान का सूटकेस उठाने राजनीति के पतन की पराकाष्ठा नहीं थी तो और क्या था। हर किसी ने मतों के सौदागर बाबा की देहरी पर सिर पटका।
इतनी विपरीत परिस्थितियों में स्वभाविक ही है कि दीये की भांति लड़ते-लड़ते हताश भी हुई होंगी और थकी भी होंगी। जिस तूफानी बाबा व अनुयायियों को रोकने के लिए पांच-पांच राज्यों की पुलिस, पूरी व्यवस्था, अर्धसैनिक बल, सेना तक लगानी पड़ी हो उसके सामने 'दीये' सी कमजोर अबलाओं की क्या बिसात रही होगी परंतु उन्होंने लडऩा नहीं छोड़ा। दीये की भांति ये चाहे कमजोर थीं परंतु उनकी इंसाफ की डोर नहीं टूटी। दुर्योधन की भांति सरकार व राजनीतिक दलों की नारायणी सेना के बल पर चाहे भगवान होने के दावे तूफान की ओर से किए जा रहे थे परंतु धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की भांति विराटरूप धारी कृष्ण खड़े थे सच्चाई के साथ, धर्म के साथ। अहंकारी तूफान ने खूब पांव पटके, ताकत के लटके झटके दिखाए। बाबा के श्रद्धालुओं ने खूब हिंसा की, खून बहाया,सरकारी व निजी संपत्ति को जलाया जीत अंतत: धर्म की हुई, सच्चाई व न्याय की ही हुई।
'दीये और तूफान' का यह महासमर सदियों तक स्मरण किया जाता रहेगा भारतीय न्यायिक व्यवस्था की ऊंचाई व राजनीतिक पतन का। पूरे प्रकरण में जहां राजनीति ने बेशर्मी का प्रदर्शन किया वहीं न्याय व्यवस्था ने जनसाधारण के मन में इस धारणा को पुख्ता किया कि देश में शासन है कानून का। दिल से निकलता है 'दीये' की जय, न्यायाधिकारी जगदीप सिंह की जय जिन्होंने मामले का नीर-क्षीर विवेचन किया, जांच अधिकारी सीबीआई के संयुक्त निदेशक मुलिंजा नारायणन, सतीश डागर की जय जिन्होंने बाबा, उनके अनुयायियों के साथ-साथ सरकार का दबाव झेलते हुए भी सच्चाई का साथ नहीं छोड़ा, न्याय की नाजीर साबित की। जब भी हमारी न्यायिक व्यवस्था की चर्चा होगी तो इस मामले का अवश्य जिक्र होगा और देशवासियों का सिर स्वत: ही इनके सम्मान में झुक जाएगा।


- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

Monday, 21 August 2017

गरिमा पर आंच

इस माह जहां देश के निवर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की विदाई गरिमामयी वातावरण में हुई वहीं उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी की रुख्सत के समय शहनाईयों की जगह विवादों की धुन आरोप-प्रत्यारोप के नगाड़े बजते दिखे। उनके  ब्यान ने जहां अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी वहीं तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को 'काग राग' छेडऩे का अवसर प्रदान किया। पूरे प्रकरण में देश की कितनी छिछालेदारी हुई इसका आकलन अभी नहीं गया है। श्री अंसारी ने  अल्पसंख्यकों को लेकर जो अपने पद की गरिमा के विरुद्ध ब्यान दिया उसे देश में पसंद नहीं किया गया।

आईये देखते हैं कि श्री अंसारी के ब्यानों में कितनी सच्चाई है और कितना और कुछ। पिछले साल 26 अप्रैल को दिल्ली में 'फिक्र' नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए उन्होंने कहा ''भारत में बड़ी संख्या में रहने वाले मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अनुभव आदर्श के रूप में दूसरों (अन्य देशों) के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं।'' दूसरी ओर अभी 10 अगस्त को राज्यसभा टीवी में अपने साक्षात्कार दौरान उन्होंने कह दिया ''भारतीय मुस्लिम समुदाय में घबराहट और असुरक्षा का भाव है। देश के अलग-अलग हिस्सों से मुझे ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं।'' आश्चर्य होता है कि ये दोनों वाक्य एक ही व्यक्ति ने कहे हैं। मात्र सवा साल में परिस्थितियों में ऐसा क्या बदलाव आया कि उपराष्ट्रपति की राय एकदम पलट गई! दोनों मौकों पर केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। देश की परिस्थितियों में भी इतने कम समय में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।

उपराष्ट्रपति बनने से पूर्व अंसारी अपने वामपंथी झुकाव और बेबाकी के लिए जाने जाते रहे थे। अब, जबकि वे उपराष्ट्रपति के रूप में दो कार्यकालों के दस वर्ष भोग चुके हैं, अंसारी फिर बेबाकी के रास्ते पर चलने के लिए आतुर नजर आ रहे हैं। कार्यकाल के अन्तिम दिनों में लगातार तीन बार मुस्लिम समुदाय के असुरक्षा के भाव की बात उठा कर उन्होंने देश की राजनीति में हलचल मचा दी। उनका भाषण राजनीतिक ज्यादा लग रहा था। नतीजा यह हुआ कि देखते-देखते पक्ष में और जवाबी हमले शुरू हो गए। उनकी इसी बेबाकी के चलते प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा कि ''अब वो संवैधानिक बंधनों से मुक्त हैं और अपने मूल रूप में लौट सकते हैं।''

देश में अल्पसंख्यकों का मुद्दा सदैव संवेदनशील रहा है और जब-जब तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले दल विपक्ष में होते हैं तो इसकी संवेदनशीलता और बढ़ जाती है। ये दल व एक ही तरह का दृष्टिकोण रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी व लेखकों की मेंढक पंचायत अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले किसी भी अपराध को सीधा-सीधा राजनीति, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से जोड़ कर इतनी चीख चिंघाड़ मचाते हैं कि अपने देश तक को निर्वस्त्र करने में नहीं झिझकते। श्री अंसारी के ब्यान के बाद भी ऐसा ही हुआ, दुनिया में यह संदेश गया कि हमारे यहां अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं। संवैधानिक पद पर आसीन  व्यक्ति द्वारा कही गई बात का अधिक असर रहता है, दुष्प्रचार को हथियार मिलता है चाहे, वह सच्चाई से मीलों दूर ही क्यों न हो। इस प्रकरण से यह भी पता चलता है कि देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किस-किस तरह की मानसिकता के लोगों को प्रोत्साहित किया जाता रहा है।

श्री अंसारी अपने आचरण से कई बार विवादों में घिरे हैं। लोकपाल विधेयक के समय जिस तरह उन्होंने तत्कालीन सत्ताधारी दल का मर्यादा के प्रतिकूल बचाव किया था उससे वह आलोचनाओं में घिरे। वे अल्पसंख्यकों की बात करते हैं परंतु दूसरों की भावनाओं के प्रति उनका कितना सम्मान है इसका उदाहरण है कि एक दो धार्मिक अवसरों पर उन्होंने तिलक लगवाने व आरती करने से भी इंकार कर दिया था। चलो इसके लिए उन्हें माफ किया जा सकता है परंतु देशवासियों को यह बात लंबे समय तक सालती रहेगी कि किस तरह उन्होंने अपने पद की गरिमा को कम किया। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि उनका ब्यान राजनीतिक था। सेवानिवृति के बाद राजनीति में सक्रिय होना या न होना उनकी निजी इच्छा है परंतु अपनी आकांक्षाओं के लिए यूं झूठ का तूफान मचा देना कहां तक न्यायोचित है?                          
- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

Saturday, 19 August 2017

एकता की सूत्रधार रामलीला

आश्विन मास शुरू होते ही भारत भर में शुरु हो जाती है कुछ अलग तरह की गतिविधियां। कोई पंथ या मजहब का बंधन नहीं न ही जातिगत वर्जनाएं या अमीर-गरीब का भेदभाव, योग्यता केवल अभिनय कला और भगवान
श्रीराम के प्रति अटूट श्रद्धा जिनमें यह कला होती है एकत्रित होना शुरू कर देते हैं ऐसे स्थानों पर जहां वो रात को मंचित होने वाली राम के जीवन वृतांत की रिहर्सल कर सकें। पुराने ट्रंक, अलमारियां खंगाल कर शुरू हो जाती है तलाश रंग-बिरंगे वस्त्रों, नकली के अस्त्र-शस्त्रों, मुखौटों की। अधिकारी हो या व्यापारी, दुकानदार हो या सफाई कर्मचारी, अमीर और गरीब समाज के हर वर्ग से आए कलाकार हर तरह के भेदभुला कर जुट जाते हैं रामचरित मानस की चौपाईयों में सिर खपाने और उन्हें कंठस्थ करने। समय है रामलीला का, जिसकी तैयारी सारा भारत कर रहा है। जिस तरह श्रीराम सभी के हैं, किसी के लिए भगवान हैं तो किसी के लिए आदर्श शासक और पूर्वज तो इकबाल की नजरों में इमाम-ए-हिंद। राम नाम देश को जोड़ता है तो उनकी जीवनलीला भी स्वभाविक तौर पर इस देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोती है।

पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
रामलीला की शुरूआत कब और कैसे हुई? इसका कोई प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रभावशाली चरित्र पर कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे गए, लेकिन दो ग्रंथ प्रमुख हैं। जिनमें पहला ग्रंथ महर्षि वाल्मीकि द्वारा 'रामायण' जिसमें 24 हजार श्लोक, 500 उपखण्ड, तथा सात कांड है और दूसरा ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित है जिसका नाम 'श्री रामचरित मानस' है, जिसमें 9388 चौपाइयां, 1172 दोहे और 108 छंद हैं। राम के जन्म की तारीख को लेकर विद्वानों और इतिहासकारों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। हालांकि वेद और रामायण में विभिन्न आकाशीय और खगोलीय स्थितियों के जिक्र के मुताबिक आधुनिक विज्ञान की मदद से इन तारीकों को प्रमाणिक करने की कोशिश की गई है।

इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑफ वेदास की निदेशक सरोज बाला के मुताबिक, वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम के जन्म का जो वर्णन किया गया है कि उस जन्मतिथि के अनुसार 10 जनवरी 5114 बीसी अब इसे चंद्र कैलेंडर में परिवर्तित कर वो चैत्र मास का शुक्ल पक्ष का नवमी निकला।

कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि श्रीराम का जन्म 7323 ईसा पूर्व हुआ था, कुछ वैज्ञानिक शोधकर्ताओं अनुसार राम का जन्म महर्षि वाल्मीकि द्वारा बताए गए ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर अनुसार 4 दिसंबर 7323 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9340 वर्ष पूर्व हुआ था। शोधकर्ता डॉ. पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी।

इसी तरह समुद्र से लेकर हिमालय तक प्रख्यात रामलीला का आदि प्रवर्तक कौन है, इस पर कोई निश्चित मत नहीं है। कईयों का मानना है कि त्रेता युग में श्रीरामचंद्र के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने 14 वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। धीरे-धीरे इसमें भगवान श्रीराम के जीवन के प्रसंग जुड़ते गए और इसी के माध्यम से पूरी दुनिया में रामकथा का प्रचलन हुआ।

रामलीला के प्रमाण लगभग ग्यारहवीं शताब्दी में मिलते हैं। पहले यह महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य 'रामायण' की पौराणिक कथा पर आधारित था, लेकिन आज जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य 'रामचरितमानस' की कहानी और संवादों पर आधारित है। रामलीला का मंचन तुलसीदास के शिष्यों ने 16वीं सदी में सबसे पहले किया था। उस समय के काशी नरेश ने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस को पूरा करने के बाद रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया था। तभी से देशभर में रामलीला का प्रचलन शुरू हुआ।

कुछ मानते हैं कि रामलीला के प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर मोहल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। बताया जाता है कि स्वर्गारोहण के बाद तुलसीदास जी मेघा भगत के स्वप्न में आए और उन्हें रामचरितमानस का मंचन करने की प्रेरणा दी। बनारस की चित्रकूट रामलीला उन्हीं की शुरू की हुई मानी जाती है।

भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' में नाटक की उत्पत्ति के संदर्भ में लिखा गया है। 'नाट्यशास्त्र' की उत्पत्ति 500 ई.पू. 100 ई. के बीच मानी जाती है। भारत भर में गली-गली, गांव-गांव में होने वाली रामलीला को इसी लोकनाट्य रूपों की एक शैली के रूप में स्वीकारा गया है। दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया था। इस शिलालेख की तिथि 907 ई. है। थाई नरेश बोरमत्रयी (ब्रह्मत्रयी) लोकनाथ की राजभवन नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि 1458 ई. है। बर्मा के राजा ने 1767 ई. में स्याम (थाईलैड) पर आक्रमण किया था। युद्ध में स्याम पराजित हो गया। विजेता सम्राट अन्य बहुमूल्य सामग्रियों के साथ रामलीला कलाकारों को भी बर्मा ले गया। बर्मा के राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने लगा। माइकेल साइमंस ने बर्मा के राजभवन में रामनाटक 1794 ई. में देखा था।

परंपरा और शैलियाँ
राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर वास्तव में कितनी विविध शैलियों वाली है, इसका खुलासा इन्दुजा अवस्थी ने अपने शोध-प्रबंध 'रामलीला : परंपरा और शैलियाँ' में बड़े विस्तार से किया है। इस शोध प्रबंध की विशेषता यह है कि यह शोध पुस्तकालयों में बैठकर न लिखा जाकर विषय के अनुरूप (रामलीला) मैदानों में घूम-घूम कर लिखा गया है। रामकथा तो ख्ख्यात कथा है, किंतु जिस प्रकार वह भारत भर की विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्त हुई है तो उस भाषा, उस स्थान और उस समाज की कुछ निजी विशिष्टताएँ भी उसमें अनायास ही समाहित हो गई हैं - रंगनाथ रामायण और कृतिवास या भावार्थ रामायण और असमिया रामायण की मूल कथा एक होते हुए भी अपने-अपने भाषा-भाषी समाज की 'रामकथाएँ' बन गई हैं।

दुनिया भर में रामलीला
राम की लीला अपने देश भारत में ही नहीं, बल्कि बाली, जावा, श्रीलंका जैसे देशों में प्राचीनकाल से ही किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। आज रामलीला का मंचन नेपाल, थाईलैंड, लाओस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा, सूरीनाम, मॉरीशस में भी होता है। थाईलैंड में रामायण को रामाकिआन कहते हैं।


देश की सबसे पुरानी रामलीलाएं
रामलीला हिमालय से समुद्र तक, कच्छ से कोहिमा तक हर जगह आयोजित होती हैं। यह पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोती है और सामाजिक वातावरण को समरसता की सुगंध से साराबोर कर जाती है। देश में बहुत सी रामलीलाएं हैं जो दस-बीस साल से नहीं बल्कि पांच-पांच शताब्दियों से मंचित की जा रही हैं।

काशी, चित्रकूट और अवध की रामलीला- माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरूआती रामलीला का मंचन (काशी, चित्रकूट और अवध) रामचरित मानस की कहानी और संवादों पर किया। माना जाता है कि ये रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 80 वर्ष से भी बड़ी उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरित्रमानस 16 वीं शताब्दी में रामचरित्र मानस लिखी थी।

लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला- लगभग 500 साल का इतिहास समेटे यह रामलीला मुगलकाल में शुरू हुई और नवाबी दौर में खूब फली-फूली। ऐशबाग के बारे में कहा जाता है कि पहली रामलीला खुद गोस्वामी तुलसीदास ने यहां देखी थी।

बनारस में रामनगर की रामलीला- साल 1783 में रामनगर में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यहां न तो बिजली की रोशनी और न ही लाउडस्पीकर, साधारण से मंच और खुले आसमान के नीचे होती है रामलीला। 234 साल पुरानी रामनगर की रामलीला पेट्रोमेक्स और मशाल की रोशनी में अपनी आवाज के दम पर होती है। बीच-बीच में खास घटनाओं के समय आतिशबाजी जरूर देखने को मिलती है। इसके लिए करीब 4 किमी के दायरे में एक दर्जन कच्चे और पक्के मंच बनाए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका और रामबाग को दर्शाया जाता है।

चित्रकूट की रामलीला- चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी माने जाने वाली रामलीला का मंचन होता है। माना जाता है कि ये रामलीला 475 साल पहले शुरू हुई थी। कहा जाता है चित्रकूट के घाट पर ही गोस्वामी तुलसीदास जी को अपने आराध्य के दर्शन हुए थे। जिसके बाद उन्होंने श्री रामचरित मानस लिखी थी।
गाजीपुर की रामलीला- 5 सौ साल पुरानी रामलीला अब भी हर साल आयोजित की जाती है। इसकी खासियत ये है कि यहां की रामलीला खानाबदोश है। रामलीला मंचन हर दिन अलग जगह पर होता है और राक्षस का वध होने पर वहीं पुतला दहन भी किया जाता है।

गोरखपुर में रामलीला- गोरखपुर में रामलीला की शुरुआत अतिप्राचीन है, लेकिन समिति बनाकर इसकी शुरुआत 1858 में हुई। तब गोरखपुर का पूरा परिवेश गांव का था। संस्कृति व संस्कारों के प्रति लोगों का गहरा लगाव था और अन्य जरूरी कार्यो की भांति इस क्षेत्र में भी वे समय देते थे। देखा जाए तो गोरखपुर में रामलीला का लिखित इतिहास 167 वर्ष पुराना है।

कुमायूं की रामलीला- कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमश: 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ।

होशंगाबाद की रामलीला- करीब 125 साल पुरानी परम्परा होशंगाबाद के सेठानीघाट में आज भी निभाई जा रही है। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक त्रिवेणी बन चुकी इस रामलीला की शुरूआत वर्ष 1870 के आस-पास सेठ नन्हेलाल रईस ने की थी। हालांकि वर्ष 1885 से इसका नियमित मंचन शुरू हुआ, जो अब तक जारी है।

सोहागपुर की रामलीला- सोहागपुर के शोभापुर में रामलीला का इतिहास करीब 160 साल पुराना है। सन 1866 से शुरू हुई रामलीला मंचन की परंपरा को स्थानीय कलाकार अब तक जिंदा रखे हुए हैं। इतने लंबे अंतराल में कभी ऐसा कोई वर्ष नहीं रहा जब गांव में रामलीला का मंचन न किया गया हो।

पीलीभीत की रामलीला- मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के मेला का बीसलपुर नगर में 155 वर्ष से भी अधिक पुराना गौरवमयी इतिहास है। दूर दराज से हजारों की संख्या में मेलार्थी लीलाओं का आंनद लेने आते हैं। रामलीला महोत्सव की आधारशिला डेढ़ सौ वर्ष पूर्व रखी गयी थी। मेला मंच पर नहीं होता है, बल्कि रामनगर (वाराणसी) के मेला की तरह बड़े मैदान में होता है।

फतेहगढ़ की रामलीला- 150 साल पुरानी रामलीला को अंग्रेजों का भी सहयोग मिलता रहा है। तब यह परेड ग्राउंड में होती थी। 20 साल पहले सेना की छावनी बन जाने के बाद आयोजन सब्जी मंडी में होने लगा है।
दिल्ली की रामलीला- दिल्ली की सबसे पुराने रामलीला है परेड ग्राउंड की रामलीला। जो 95 से 100 साल पुरानी है।


डेरा गाजी खां की उर्दू में रामलीला
 'हो न अंधे इस कदर इस मोह के जंजाल में, 
इक दिन आना पड़ेगा काल के गाल में, 
इस रुखे ताबा पे होगी मुर्दानी छाई हुई,
तेरी शान होगी वक्त की ठोकर से ठुकराई हुई।'
'तूने ही मेरे लिए छोड़ा भाई प्यारा वतन, 
लात मारी ऐश पर, छोड़े सभी साथी, सजन, 
हाय! जब मैं अवध में जाऊंगा इस भाई बिन, 
क्या कहूंगा मर गया लंका में भाई बेकफन?'
ऊपर लिखी ये पंक्तियां सुनने में भले ही किसी शेरो-शायरी का हिस्सा लगें लेकिन ज्यादातर लोग ये जानकर हैरान होंगे कि ये रामलीला के संवाद हैं। जी हां, ये रामलीला अवधी या हिंदी नहीं बल्कि खालिस उर्दू वाली है। दिल्ली से सटे फरीदाबाद और पलवल में ऐसी रामलीलाओं का मंचन दशकों से जारी है।
फरीदाबाद में यह रामलीला एनएच-एक, सेक्टर-15 में होती  है। विभाजन के समय पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आई हिंदू आबादी को फरीदाबाद में बसाया गया था। उन्हीं के साथ आई ये उर्दू वाली रामलीला। विभाजन को 70 साल पूरे हो गए लेकिन यहां की रामलीलाओं का अंदाज ज्यादा नहीं बदला है। रामलीला के आयोजक बताते हैं कि उनके पूर्वज बंटवारे से पहले पाकिस्तान में उर्दू शब्दों की बहुलता वाले संवाद ही रामलीला में सुनाया करते थे। विभाजन की त्रासदी में लाखों लोग इधर से उधर हुए। घर-बार छूट गए लेकिन उन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत नहीं छोड़ी। भारत आने पर यहां भी वो सिलसिला शुरू हो गया।
रामलीला के निर्देशक विश्वबंधु शर्मा कहते हैं कि हमारे पूर्वज पाकिस्तान के कोहाट एवं डेरा इस्माइल खान से आए थे। वहां भी रामलीला होती थी। अधिकतर लोग उर्दू पढ़ते और अच्छी तरह समझते थे। हम अक्सर रामलीला का मंचन करने से पूर्व कव्वाली करवाते हैं। यहीं के सेक्टर-15 में होने वाली रामलीला के निर्देशक अनिल चावला ने बताया कि जवाहर नगर कैंप पलवल में लोग पाकिस्तान के डेरा गाजी खान से आए थे। वहां के लखीराम, टेकचंद और जेठाराम रामलीला की पटकथा अपने साथ भारत ले आए।


सैफ के पूर्वजों ने शुरू करवाई दिन की रामलीला
देश भर में रामलीलाएं रात में होती हैं लेकिन गुडग़ांव के पास पटौदी कस्बे में दिन में भी मंचन होता है। इस रामलीला को फिल्म अभिनेता सैफ अली खान के पूर्वज मोहम्मद मुमताज अली खान उर्फ मुट्टन मियां ने 1902 में शुरू करवाया था। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर भी देखते हैं। रामलीला शुरू होने से पहले और बाद में लगभग 50 पात्रों की सवारी निकलती है। मंचन दोपहर 3 बजे से शाम को 6 बजे तक होता है।


गुरमुखी में रामलीला
कानपुर। अंगद ठेठ पंजाबी में रावण को समझाता है :-
'मेरे चरणी पैके तैनूं की मिलनै साईं
तूं ओस्स राम ते गोड्डी लग्ग
जेसने पूरी दुनिया तारनी ए'
श्री रामलीला मित्र सोसाइटी गोविंद नगर रामलीला मैदान में बीते 70 वर्षों से रामलीला का मंचन गुरमुखी में किया जाता है। बिना व्यास पीठ के होने वाली यह लीला पूरी तरह एक नाटकीय प्रंसग पर आधारित होती है। रामलीला के मुख्य सचिव प्रवीन चोपड़ा बताते है कि भारत की आजादी के समय बहुत सारे लोग पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से कानपुर आए थे। उन्होंने 1952 में आपसी प्रेम सद्भाव के साथ रामलीला के मंचन के लिए आपस में ही एक टीम बनाई थी। रामलीला के मंचन में कुछ अलग करने के लिए रामलीला के मंचन की शुरूआत पंजाबी भाषा में की गई। शहरवासियों द्वारा लगातार पसंद किए जाने पर यह परंपरा लगातार बनी रही।


पंजाब में रामलीला
ऐसा समझा जाता है कि लव-कुश की धरती पंजाब में रामलीला पौराणिक काल से होती आई है। लव-कुश ने जिस तरह रामदरबार में रामकथा का वृतांत सुनाया वह रामलीला का ही स्वरूप कहा जा सकता है। सदियों तक विदेशियों के हमले सहने के बावजूद भी देश के इस सीमांत राज्य में रामनाम की गंगा बहती रही।
राज्य में रामलीला का लिखित आंशिक इतिहास नेमचंद जैन की पुस्तक 'पंजाब में नाटक की सदी' में मिलता है। वे बताते हैं कि नागा बाबा भगवतदास ने पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमांत प्रदेश (पाकिस्तान का सूबा-ए-सरहद) में इसका मंचन किया। पुस्तक अनुसार, हिंदू-सिख, मुस्लिम जनता ने इसके लिए खूब दिल खोल कर दान किया। यहां तक कि ब्लूचिस्तान में डाकुओं ने भी रामलीला के मंचन में सहयोग किया।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने साहित्य में रामकथा को अत्यंत महत्त्व दिया। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में दशहरा पर्व खूब धूमधाम से मनाया जाता था और खुद महाराजा इसमें हाथी-घोड़ों पर सवार हो कर हिस्सा लेते थे। प्रदेश में मुगलकाल में भी रामकथा व किसी न किसी रूप में रामलीला होने के प्रमाण मिल जाते हैं। देश में राजा-रजवाड़ों के समय महाराजा पटियाला, महाराजा कपूरथला, नाभा, फरीदकोट, जींद, हांसी के महाराजा तथा नवाबों ने भी रामलीला आयोजनों को प्रोत्साहन दिया।

- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

Sunday, 13 August 2017

स्वभाषा के हस्ताक्षर

''अतिथि अर्थात 'अ' जमा 'तिथि' अर्थात जिसके आने का समय निश्चित नहीं या अचानक आए वह अतिथि। हमारी संस्कृति में अतिथि को देवस्वरूप माना गया है। किसी को याद करो और वह अचानक आ धमके तो अंग्रेज उसे कहते हैं शैतान को याद किया शैतान हाजिर। हिंदी में अपनी संस्कृति जिस अतिथि को देव कहती है अंग्रेजी में वह शैतान हो जाता है।''



















प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने नए भारत निर्माण के लिए नए संकल्प लेने को कहा है। देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में स्वभाषा किस तरह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है इसका आकलन बहुत कम किया गया लगता है। अंग्रेजी सहित अधिक से अधिक विदेशी भाषाओं का अध्ययन होना चाहिए परंतु दैनिक कामकाज में स्वभाषा का ही प्रयोग हो तो कुछ ही समय में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इस शुभकार्य का श्रीगणेश हम अपनी मातृभाषा में हस्ताक्षर करने से कर सकते हैं।
स्वदेशी व विदेशी भाषा में चिंतन का अंतर इसी उदाहरण से समझा जा सकता है। हिंदी में अतिथि मेहमान को कहा जाता है। अतिथि अर्थात 'अ' जमा 'तिथि' अर्थात जिसके आने का समय निश्चित नहीं या यूं कहें कि अचानक आए वह अतिथि। हमारी संस्कृति में अतिथि को देवस्वरूप माना गया है, कहा गया है 'अतिथि देवो भव:।' किसी को याद करो और वह अचानक आ धमके तो अंग्रेज उसे कहते हैं 'थिंक एबाऊट दी डेविल एंड डेविल इज हेयर' अर्थात शैतान को याद किया शैतान हाजिर। हिंदी में अपनी संस्कृति जिस अतिथि को देव कहती है अंग्रेजी में वह शैतान हो जाता है।
आज अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को समझना जितना जरूरी है उतना पहले के कभी नहीं था। सूचना-प्रोद्योगिकी के विकास से जहां ज्ञान के भण्डार खुले हैं, सूचनाओं का आदान प्रदान तेज हुआ है वहीं हर समाज व देश के सामने अपनी संस्कृति व बचाने की चुनौती भी आई है। सूचना तकनोलोजी व दूसरंचार क्षेत्र में क्रांति ने दुनिया को एक छत के नीचे समेटने दिया है। इससे विश्व की संस्कृतियां एक दूसरे के सामने ही नहीं आई बल्कि एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास भी कर रही है। जो संस्कृति विश्व पर हावी होगी, उसी का माल बिकेगा, उसी को मानने वाला देश समृद्ध होगा। यदि पश्चिमी संस्कृति प्रभावी होगी तो दीवाली पर भी लड्डू, बर्फी, जलेबी, दीवरों की जगह चाकलेट, कुरकुरे, केक, विदेशी लाइटें, उपकरण बिकेंगे। यानी त्यौहार हमारा और सांस्कृतिक प्रदूषण से आर्थिक लाभ विदेशियों का। यह भी हो सकता है कि दीवाली, होली जैसे त्योहार हम भूल जाएं तथा हम केवल वेलेंनटाईन-डे, फ्रेंडशिप-डे व तरह-तरह के डे ही मनाते रह जाऐं।
मौलिक चिंतन व वैचारिक स्पष्टता स्वभाषा में ही संभव हैं। सपने व विचार भी स्वभाषा में ही देखे जाते हैं और भौतिक चिंतन की उपज यानि अविष्कार प्रथमत: एक सपना या विचार ही होता है। बच्चा मातृभाषा को तब से सीखने लगता है जब से वह अपनी इन्द्रियों द्वारा बाहरी संसार को जानने लगता है। अनुकरण से मातृभाषा का शिक्षण प्रारंभ होता है तथा निरन्तर पठन-पाठन और अभ्यास से पुष्ट होता है। मातृभाषा का ज्ञान केवल अक्षर ज्ञान पर आधारित नहीं होता वह तो मां की लोरी और दूध के साथ बच्चे को प्राप्त हो जाता है। भाषा ही संस्कृति की वाहक है। यदि मातृभाषा में शिक्षण होगा तो भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, शुचिता, संयम, परोपकार तथा त्याग-भावना सहज ही बालक को मिलेंगे।  
हर भाषा एक संस्कृति की उपज होती है, जब हम कोई भाषा लिखते है और पढ़ते है तो उसकी संस्कृति से भी जुड़ते हैं। अपनी संस्कृति को अपनाए बिना कोई समाज उन्नत नहीं हो सकता। राष्ट्र की पहचान व सभी तरह की गतिविधियों की संचालक उसकी संस्कृति ही हुआ करती है। उसी के अनुसार वहां की आर्थिक जरूरतें, सामाजिक व्यवहार का निर्माण होता है। अंग्रेजों ने अपना माल खपाने के लिए अपनी संस्कृति को हम पर थोपने का प्रयास किया और हमारी संस्कृति को समाप्त करने के लिए हमारी भाषाओं को नष्ट करने का रास्ता चुना। 18वीं शताब्दी तक अंग्रेजों के आने से पहले सारी शिक्षा व सभी गतिविधियों का संचालन भारतीय भाषाओं में थी। यही कारण था कि समाज में अपने संस्कार थे, उसी संस्कारों के अनुसार आर्थिक जरूरतें थीं, उनकी पूर्ति के लिए हमारे अपने ही उद्योग, व्यवसाय थे और हम आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे।
वैज्ञानिक दृष्टि से सभी उन्नत राष्ट्र जापान, रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, चीन अपनी भाषा में शिक्षा देते हैं और सामान्य जन भी इसी का प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी के अंधभक्त तर्क देते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर बच्चा विश्वभर में घूम सकता है, बाहर का ज्ञान अर्जित कर सकता है परन्तु जिसका मौलिक चिन्तन अवरूद्ध है वह बाहर के ज्ञान का भी सीमित लाभ ही उठा पाएगा। गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजी भले ही विश्व को देखने की खिड़की हो परन्तु अपने घर में जाने के लिए तो दरवाजा अर्थात स्वभाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। 
अनुसंधान की दृष्टि से भी देखें तो विदेशी भाषा अत्यंत महंगी पड़ती है और अपने देश की भाषा आर्थिक संपन्नता के मार्ग प्रशस्त करती है। भारतीय वैज्ञानिक जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर आगे आते है तो भारतीय वैज्ञानिक विरासत जो संस्कृत अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में है उससे कट जाते हैं और उसे निम्नस्तरीय मानने लगते हैं। यदि भारतीय वैज्ञानिक चाहते हैं कि राष्ट्र के लिए उपयोगी खोजें करें तो उन्हे यहां के सामान्य किसान-कारीगर से जुड़ कर करना होगा। भारतीय भाषाओं में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान को परख कर प्रामाणिक घोषित करना होगा और इसके आधार पर अपनी आगामी शोध परियोजनाएं बनानी होंगी। आज के इस प्रतियोगी युग में दो ही तरह के समाज रह जाएंगे-एक वे जो ज्ञान का उत्पादन करते हैं दूसरे वे जो उपभोग करते है। आज ज्ञान मुफ्त में नहीं मिलता, रॉयल्टी सा पेटेन्ट अधिकार के रूप में कीमत चुकानी पड़ती है। इस प्रकार ज्ञान के उत्पादक राष्ट्र अमीर होते जाएंगे और उपभोक्ता राष्ट्र गरीब होते जाऐंगे। अमरीका में विश्व के 80 प्रतिशत नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पढ़ा रहे हैं क्योंकि वह ज्ञान-उत्पादक लोगों को खरीदकर उनसे ज्ञान पैदा करवाता है और फिर मनमाने दामों पर बेचता है। 
वर्तमान समय भारत के लिए चुनौती भरा है जहां दुनिया भर के शक्तिशाली राष्ट्र भारत को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देख रहे हैं। इसकी युवा पीढ़ी को राष्ट्र निर्माण में लगाने, देश के प्रति स्वाभिमान व स्वदेश प्रेम की भावना भरने एवं अपनी संस्कृति को गहराई से समझने हेतु स्वभाषा ही महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। आज शैक्षिक व प्रशासनिक स्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला है। समाज अंग्रेजी की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहा है। यह दौड़ यकायक रुकने वाली नहीं है। इसके लिए निचले स्तर से काम आरंभ करना होगा। सबसे पहले हम सामान्य जीवन में अपनी मातृभाषा का अधिक से अधिक प्रयोग करें और आज ही स्वभाषा में हस्ताक्षर आरंभ कर भारत को भाषिक व आर्थिक साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलवाने के संघर्ष में कूदने का शंखनाद करें।
- राकेश सैन
मोबाईल - 097797-14324

Saturday, 12 August 2017

चोटी कटी या नाक ?

वर्तमान में हम अपने समाज में चरम का विरोधाभास देखने को विवश हैं। एक तरफ तो हमारे वैज्ञानिक मंगल ग्रह तक अपना यान भेज चुके हैं और हमारा भारती अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) रिकार्ड दर रिकार्ड बना रहा है तो दूसरी ओर चोटी का अंधविश्वास भी देखने को मिल रहा है। देश के कई हिस्सों में अंधविश्वास फैला है कि अज्ञात शक्ति महिलाओं की चोटीयां काट रही हैं। इससे बचने के लिए टोने-टोटकों का सहारा लिया जा रहा है। समस्या इत्ती भर रहती तो भी गनीमत थी परंतु अब इस अंधविश्वास को लेकर महिलाओं की हत्याएं तक होने लगी हैं। समझ में नहीं आरहा कि इन घटनाओं के जरिए हमारी चोटी कट रही है या नाक।
भारतीय संविधान के भाग - '4 क' के अनुच्छेद - '51 क' में वर्णित मूल कर्तव्यों में से एक है कि हम समाज में 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।' समाज में वैज्ञानिक व तर्क आधारित सोच को प्रोत्साहन दें लेकिन हो उलट रहा है। समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अंधविश्वास, टोने-टोटके और अज्ञानता में डूबा हुआ है। इसका ताजा उदाहरण है महिलाओं की चोटी काटने की घटनाएं और उससे जुड़ा अंधविश्वास। उत्तर प्रदेश के आगरा में तो रक्तपिपासु भीड़ ने पैंसठ साल की एक महिला को पीट-पीट कर मारा डाला। पीटने वालों का कहना था कि यह महिला किसी की चोटी काटने के इरादे से घूम रही थी, जबकि असलीयत यह थी कि वह अंधेरे में रास्ता भटक गई थी। इस तरह की घटनाएं राजस्थान से शुरू हो कर हरियाणा, दिल्ली राजधानी क्षेत्र, उत्तर प्रदेश से होती हुई विकसित व साक्षर कहे जाने वाले पंजाब तक पहुंच चुकी है। जिन महिलाओं की चोटी कटने की बात सामने आ रही है, उनके बयानों में कोई समानता नहीं है। किसी ने बताया कि उसने पहले काली बिल्ली या पिल्ला देखा और बेहोश हो गई, फिर होश आया तो चोटी कटी थी। किसी ने कहा कि उसे किसी ने अंधेरे में धक्का दिया, जिसके कारण वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई।
जो बात समान रूप से सही है, वह यह कि चोटी काटे जाने से पहले पीडि़त महिला का बेहोश होना। एक बात यह भी समझने की है कि जिन महिलाओं की चोटी कटने की बातें सामने आई हैं, वे बेहद गरीब और अशिक्षित या अर्धशिक्षित हैं। इसी तरह की घटनाएं 2001 में दिल्ली व नोएडा क्षेत्र में 'मंकीमैन' और 2002 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'मुंहनोचवा' के नाम से सुनाई पड़ी थीं। उन दिनों यह अफवाह आम रही कि मंकी मैन किसी को घायल कर भाग जाता है और मुंहनोचवा मुंह नोच कर फरार हो जाता है। दोनों में कोई पकड़ा नहीं गया था। इस तरह की घटनाएं हमारे समूचे विकास और तरक्की पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। आज भी नरबलि और डायन-हत्या जैसी घटनाएं घट रही हैं। पिछले साल झारखंड में पांच महिलाओं की डायन बता कर हत्या कर दी गई थी और उत्तर प्रदेश के सीतापुर में एक परिवार ने तांत्रिक की सलाह पर अपनी ही बच्ची की बलि चढ़ा दी थी। चोटी काटने की घटनाओं के बारे में स्थानीय प्रशासन भी कुछ साफ बोलने की स्थिति में नहीं है। बस यही कहा जा रहा है कि अफवाहों पर ध्यान न दिया जाए।
मनोवैज्ञानिक व वैज्ञानिक इसे उन्माद या सामूहिक विभ्रम बता रहे हैं। लेकिन इसका समाधान क्या है, इस बारे में उनके पास भी कोई स
टीक उत्तर नहीं है। इस नजरिए से भी जांच की जरूरत है कि कहीं कोई समूह या संगठन तो इसके पीछे नहीं है, जिसका कि कोई निहित स्वार्थ हो? बहुत सारे लोग तांत्रिकों और ढोंगी ओझा-गुनियों की शरण में जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि हमारी सरकारें व मीडिया एक तरफ वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का दम भरते हैं और दूसरी तरफ आज भी अखबारों, चैनलों से लेकर सड़कों, चौराहों, गलियों में तांत्रिकों-ओझाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन छाए रहते हैं। इनमें मनचाहा प्रेम विवाह कराने, गृहक्लेश से मुक्ति दिलाने, सौतन का नाश करने, शत्रुमर्दन, गड़े धन की प्राप्ति, प्रेम में धोखा पाए प्रेमियों को राहत देने जैसे तमाम दावे किए जाते हैं। आज आवश्यकता है कि इस तरह की घटनाओं की तह तक जा कर सच्चाई को समाज के सामने लाने की। नए भारत में इस तरह की सोच व इस तरह की घटनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
- राकेश सैन

Thursday, 10 August 2017

SainRakesh: संघ का इतिहास, न सोनिया जानती और न कांग्रेस मानती ...

SainRakesh: संघ का इतिहास, न सोनिया जानती और न कांग्रेस मानती ...: 9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर संसद को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक स...

संघ का इतिहास, न सोनिया जानती और न कांग्रेस मानती है

9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर संसद को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम लिए बिना कहा कि कुछ संगठनों ने इस आंदोलन का विरोध और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का सहयोग किया। इस तरह का प्रचार कांग्रेस पार्टी संघ के जन्म से लेकर करती आरही है। पूरी दुनिया का इतिहास उठा कर देख लिया जाए तो संघ के अतिरिक्त शायद ही ऐसा कोई संगठन होगा जिसको देशभक्ति की इतनी लंबी सजा मिली हो। संघ को लेकर कांग्रेस व विरोधी अक्सर पूछते रहते हैं कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका क्या थी? विदेशी मूल की होने के कारण श्रीमती सोनिया गांधी को माफ किया जा सकता है कि वह देश के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र के बारे इतनी जानकारी नहीं रखतीं परंतु बाकी कांग्रेसियों की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे संघ को लेकर 90 साल पुराने मिथ्या प्रचार को त्याग नहीं पा रहे। अपने जन्म से लेकर अब तक देश के प्रति संघ की सेवाओं को किसी भी संगठन या व्यक्ति से कम करके नहीं आंका जा सकता, यह अलग बात है कि संघ के स्वयंसेवक देशसेवा के बदले ताम्रपत्र या सरकारी पेंशनें स्वीकार नहीं करते। स्वयंसेवकों को सिखाया जाता है कि भारत माता की सेवा अपनी माँ की सेवा से भी उच्च है और कोई बेटा पारितोषिक के लालच में मातृसेवा नहीं करता। स्वतंत्रता संग्राम में संघ का योगदान जानना है तो बात इसके संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार के बचपन में जाना होगा
हेडगेवार मन में राष्ट्र भक्ति की चेतना लेकर पैदा हुए थे। जिसकी झलक उनके बाल्य काल में नागपुर के सीताबर्डी किले पर फहराते यूनियन जैक को हटाकर भगवा ध्वज को फहराने के लिए सुरंग खोदने का प्रयास से मिलने शुरू हो गये थे। प्राईमरी शिक्षा के दौरान नील सिटी हाईस्कूल में 22 जून 1897 को क्वीन विक्टोरिया के 60 वें राज्यारोहण दिवस के अवसर पर मिली मिठाई को खाने के बदले यह कहते हुए कूड़े में फेक दिया था कि भोंसला राज्य का विनाश करनेवाले ब्रिटीश की मिठाई क्यों खायें? 1907 में दशहरा में रावण वध के अवसर पर अपने मित्र भगोरे और डीवर के साथ वंदेमातरम् गाया बाद में केशवराव हेडगेवार ने रावण के मरने का वास्तविक अर्थ क्या है विषय पर भाषण देते हुए ब्रिटिशों की तुलना रावण से करते हुए अति उग्र भाषण दिया। जिसके कारण उनके पीछे गुप्तचर लगा दिया गया। 1908 में नीलसिटी हाई स्कूल में ब्रिटीश अधिकारीयों के निरीक्षण के दौरान स्कुल के सभी कक्षाओं के छात्रों से वंदेमातरम् का नारा लगाकर स्वागत करवाया। इस जुर्म का माफी माँगने के बदले स्कूल से निकलना स्वीकार किया, जिसके कारण राष्ट्रीय विद्यापीठ से संबद्ध यवतमाल के विद्यागृह नामक स्कूल में नामांकन कराना पड़ा। राष्ट्रीय विद्यापीठ सरकारी स्कूलों से निकाले गये क्रांतिकारियों को शिक्षा प्रदान करने के लिये महर्षि अरविन्द,डॉ. रासबिहारी बोस,सुरेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय आदि के द्वारा संचालित किया जाता था। बाद में क्रांतिकारियों के इस विद्यागृह को अंग्रेजों ने बंद करा दिया तो खुद पढ़ते हुए राष्ट्रीय विद्यापीठ जो द नेशनल काउंसिल ऑफ ऐजुकेशन बंगाल के नाम से जाना जाता था कि प्रवेशिका परीक्षा पास हुए। इसी बीच मुजफ्फरपुर बम कांड में फँसे क्रान्तिकारी खुदीराम बोस तथा अलीपुर बम कांड में फँसे सत्येन्द्रनाथ बसु, वारींद्र कुमार घोष, हेमचन्द्र दास कानूनगो, उपेंद्रनाथ बनर्जी, उपेंद्रनाथ बंधोपाध्याय, अविनाश इंद्र नंदी, शैलेन्द्रनाथ बसु, कन्हाई लाल, उल्लास कर, सुशील कुमार सेन आदि 34 तरुण देशभक्तों के प्राणों की रक्षा के लिए धन संग्रह का कार्य भी किया।
संघ का गठन क्यों
हमारी असंगठित अवस्था के कारण हिन्दू समाज सैकड़ों वर्षों से विदेशियों की सत्ता के नीचे पद दलित हुआ। हमारे पास जन बल, धन बल, शस्त्र बल, शास्त्र बल सब कुछ था पर हम एक राष्ट्र के अंग हैं जिसके लिए मेरा जीवन लगना चाहिये यह भावना नहीं थी। इस कारण  हमारा समाज परिभूत हो गया। इसके लिए समाज के नस-नस में राष्ट्रवाद की उत्कट भावना भरकर उस भावना से संपूर्ण समाज अनुशासित, संजीवित और संगठित  कर उसे दिग्विजयी राष्ट्र के रूप में खड़ा किया जाय। इसी संकल्प से संकल्पित होकर 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शुभारंभ डॉ.हेडगेवार द्वारा किया गया।
क्रांतिकारियों का संगठन अनुशीलन समिति
1910 में नेशनल मेडिकल कॉलेज कलकत्ता में नामांकन पढ़ाई के साथ-साथ क्रान्तिकारी संगठन में अनुभव के लिए लिया। क्रान्तिकारी श्री रामलाल बाजपेई ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है ''श्री केशवराव हेडगेवार,आरएसएस के संस्थापक को श्री दाजी साहब बुटी से कुछ आर्थिक मदद दिला कर शिक्षा की अपेक्षा बंगाल के क्रान्तिकारी संगठन अनुशीलन समिति के संस्थापक पुलिन बिहारी दास के हाथ के नीचे क्रांति एवं संगठन करने के लिए भेजा गया'' आगे लिखते है कि छुट्टीयों में वापस आते समय केशव राव के ऊपर यह जिम्मेदारी थी कि दो-तीन सौ रुपये का रिवाल्वर अपने नागपुर के क्रांतिकारियों के लिए लेते आयें। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक जेल में तीस वर्ष के पृष्ठ 159 में लिखते हैं कि केशवराव के महाविद्यालय के ही एक छात्र नलिन किशोर गुहा उनको तथा नारायण राव सावरकर को अनुशीलन समिति में लाये थे।
प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की ओर से युद्ध क्षेत्र में डॉक्टरों की बहाली होने लगी तो लड़ाई का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर आगे इसका अंग्रेजों को भगाने में उपयोग की कल्पना से डॉ.हेडगेवार, डॉ.नी.स.मोहरिर आदि ने डॉ. सोहरावर्दी खां से मिलकर अपना नाम लिखवाया पर क्रान्तिकारीयों के ब्लैक लिस्ट में नाम होने के कारण अनुमति नहीं दिया गया।
मेडिकल की डिग्री लेकर 1916 में नागपुर वापस लौटकर मध्यभारत में निकट सहयोगी भाजु कावरे और अप्पा जी जोशी वर्धा के साथ मिलकर क्रान्तिकारी गतिविधियाँ प्रारंभ कर दिया। पंजाब और बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क कर गंगा प्रसाद पांडे के नेतृत्व में 20 क्रांतिकारियों का पथक बनाया। इस पथक का केंद्र श्री चाँदकरण शारदा के सहयोग से अजमेर बनया ताकि राजस्थान के विभिन्न रियासतों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार किया जा सके। इस पथक की धन और अस्त्र-शस्त्र की की व्यवस्था डॉ. हेडगेवार गुप्त रूप से अपने शुभेक्षुओं के सहयोग से करते थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय बहुत सी ब्रिटिश सेना देश से बाहर चली गयी थी इस अस्तव्यस्तता का लाभ उठाने के उद्देश्य से डॉ. हेडगेवार ने 'स्वतंत्रता की घोषणा पत्र' की कल्पना को डॉ. मुंजे और अन्य नेताओं के सम्मुख रखा पर समर्थन नहीं मिला। इस घोषणापत्र का विचार था कि एक ही समय में अनेक देशों के समाचारपत्रों में एक ही साथ प्रमुख नेताओं का वक्तव्य की 'हिन्दुस्थान स्वतंत्र हो गया' का समाचार प्रकाशित करवाना था। पूरी दुनिया में हिंदुस्तान की आजादी की गुंज सुनाई दे।
क्रन्तिकारी गतिविधियां के कारण दिन रात गुप्तचर पीछे लगे रहते थे, अंग्रेजों का ध्यान भटकाने हेतु अहिंसावादी कांग्रेस के मंच से सक्रिय हो गये ताकि क्रन्तिकारी गतिविधियां सुगमता से चल सके। इसी बीच दिसम्बर 1919 को अंग्रेजो ने पूरे हिन्दुस्थान में शांति दिवस मानाने का आदेश दिया पर नागपुर के नेताओं ने सरकार निषेध दिवस मानाने का आवाह्न किया इसके पर्चे पर डॉ. हेडगेवार के हस्ताक्षर मौजूद है।
मध्य प्रान्त की राजनीतिक ताकत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुयायियों डॉ. बा.शि.मुंजे,श्री नीलकंठ राव उधोजी,श्री नारायण राव अलेकर, श्री नारायण राव वैद्य,बैरिस्टर मोरू भाऊ अभ्यंकर, श्री गोपाल राव ओगले, बैरिस्टर गोविन्द राव देशमुख,डॉ. चोलकर, श्री भवानी शंकर नियोगी,डॉ. ना.भा. खरे, श्रीविश्वनाथ राव केलकर,डॉ. परांजपे आदि के हाथ में थी। इन्हीं में से सोलह लोगों ने मिलकर राष्ट्रीय मंडल बना रखी थी। इसका कांग्रेस के उपर इतना प्रभाव था की जो बात मंडल निश्चित करता था कांग्रेस उसे ही स्वीकार करके चलती थी। डॉ. हेडगेवार इसके सदस्य नहीं थे पर डॉ. मुंजे के प्रेम कारण इसके बैठकों में जाते थे। उस समय तक कांग्रेस केवल वैधानिक और शांतिपूर्ण तरीके से साम्राज्यान्तर्गत स्वारज अथवा औपनिवेशिक स्वराज की बात करती थी पर डॉ हेडगेवार शुद्ध स्वतंत्रता की सोच रखते थे साथ ही उनका मानना था कि देश की आजादी के लिए कोई भी मार्ग अपनाया जाय सब जायज है। इस वैचारिक मतभेद के कारण डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय मण्डल के श्री बोबड़े, श्रीविश्वनाथ राव केलकर,श्री बलबंत राव मण्डेलकर,श्री चोरघड़े आदि के सहयोग से 'नागपुर नेशनल यूनियन' बनाई जिसमें बाद में डॉ. ना.भा. खरे भी शामिल हो गये। नागपुर नेशनल यूनियन ने नागपुर के व्यंकटेश नाट्यगृह में एक सभा करके विशुद्ध स्वतंत्रता ही ही हमरा उद्देश्य है की घोषणा करने वाला प्रस्ताव पारित किया। यूनियन के चार लोग कांग्रेस में इस प्रस्ताव को स्वीकार कराने हेतु गांधीजी से मिले। पर गांधीजी ने यह कहते हुए टाल दिया की स्वराज में सबकुछ आ जाता है। बाद में इसी नागपुर नेशनल यूनियन ने दिसंबर 1920 के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन की स्वागत समिति के माध्यम से विषय समिति के पास कांगे्रस का ध्येय हिन्दुस्थान में प्रजातंत्र की स्थापना कर पूँजीवादी देशों के चंगुल से विश्व की मुक्ति है यानि पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करने का प्रस्ताव जमा किया था जिसे डॉ. हेडगेवार ने खुद तैयार किया था पर स्टियरिंग कमिटी ने उस समय उसे उपहास करते हुए अनुपयुक्त समझकर ठुकरा  दिया।
असहयोग आन्दोलन में जेल
असहयोग आन्दोलन की घोषणा की गई तो डॉ.हेडगेवार ने गाँव-गाँव शहर-शहर घूमकर अपने ओजस्वी एवं देशभक्तिपूर्ण भाषणों द्वारा हजारों लोगों को असहयोग आंदोलन में भागीदारी के लिए प्रेरित किया। नागपुर के जिलाधिकारी जेम्स इरविन ने 23 फरवरी 1921 को डॉ.हेडगेवार के जोरदार प्रचार और भाषणों से घबरा कर उनके सभा एवं भाषण करने पर  प्रतिबन्ध लगा दिया।  31 मई 1921 में ब्रिटिश सरकार ने राजद्रोह का अभियोग लगाकर मुकदमा दर्ज कर दिया। डॉ.हेडगेवार के स्टेटमेंट को पढ़कर मजिस्ट्रेट ने कहा 'दिस स्टेटमेंट इस मोर सेडिसिअस दैन हिज स्पीचÓ। जज स्मेली ने राजद्रोह का निर्णय करते हुए एक साल तक भाषण पर प्रतिबन्ध लगाते हुए एक एक हजार का दो जमानत और एक हजार का मुचलका लिखकर माँगा। पर डॉ.हेडगेवार ने मुचलका भरने से इंकार कर दिया। इस पर जज स्मेली ने एक वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड सुना दिया। 19 अगस्त 1921  को डॉ.हेडगेवार को नागपुर के अजनी जेल में बंद कर दिया गया। लगभग एक वर्ष तक बंदी रहने के बाद  डॉ.हेडगेवार 12 जुलाई 1922 को जेल से रिहा हुए। इस अवसर पर नागपुर के व्यंकटेश नाट्य गृह में डॉ. ना.भा.खरे की अध्यक्षता में स्वागत सभा हुआ। इसमें पंडित मोतीलाल नेहरु, हाकिम अजमल खां आदि ने भाषण करते हुए डॉ.हेडगेवार का अभिनंदन किया। डॉ.हेडगेवार के जेल से निकलने के पहले ही 5 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा कांड के कारण असहयोग आन्दोलन बंद हो गया था। 1922  में डॉ.हेडगेवार प्रान्तीय कांग्रेस में चुने गये और सह मंत्री नियुक्त हुए।
नमक सत्याग्रह
जब नमक सत्याग्रह हुआ तो सैंकड़ों तरुण स्वयंसेवकों को सिर्फ भावावेश में न आकार बल्कि विचार पूर्वक आन्दोलन में शामिल होने के सलाह के साथ अनुमति प्रदान की। मध्य प्रान्त की कार्यकारिणी के सदस्य के नाते 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भी शामिल हुए। 26 जनवरी 1930 को जब कांग्रेस ने देश भर में स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय लिया तो संघ ने सभी शाखाओं में संघस्थान पर 26 जनवरी 1930 को संध्या 6 बजे भगवा राष्ट्र ध्वज फहराया और समारोहपूर्वक देश की स्वतंत्रता पर कार्यक्रम कर इसका अभिनन्दन किया।
1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 9 अगस्त को आन्दोलन बिना किसी तैयारी को शुरू कर दिया गया अंग्रेज ये जानते थे इसलिए उन्होंने सभी प्रमुख कांग्रेसी नेताओं को एक ही जगह पर गिरफ्तार कर लिया। स्वभाविक है की बिना किसी नेतृत्व का यह आन्दोलन बिखर गया। संघ के संस्थापक के पद चिन्हों पर चलते हुए बिना बैनर लिए हुए अनेक स्वयंसेवक खादी पहनकर आन्दोलन में कूद पड़े। कुछ स्वयंसेवकों ने विदर्भ में सामानांतर सरकार बनाया। अनेकों स्वयंसेवकों ने दिल्ली मुजफ्फरनगर रेलवे ट्रैक पर कब्जा जमाते हुए उसे तहस नहस कर डाला। मेरठ में अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन करते हुए अनेक स्वयंसेवक पुलिस की गोलियों के शिकार बने। अंग्रेजों के जुल्मो सितम से भयभीत हुए बिना अनेक स्वयंसेवकों ने कांग्रेसी आन्दोलनकारी नेताओं को अपने घरों में शरण दी। अरुणा आसफ अली और जयप्रकाश नारायण दिल्ली के स्वयंसेवक लाला हंसराज के घर,अच्युत पटवर्धन तथा साने गुरूजी पुणे के संघ चालक भाऊ राव देशमुख के घर, नाना पाटिल औंध के संघचालक पंडित सातवेलकर के घर में भूमिगत रहकर आन्दोलन को चलाया। '42' की बिजली के नाम से मशहूर नेत्री अरुणा आसफ अली जिनके उपर अंग्रेजों ने 5000 रुपये का इनाम रखा था के शब्दों में '1942 के दौरान जब आन्दोलन दिशाहीन हो गया तब मै देल्ही आरएसएस के प्रान्त प्रचारक लाला हंसराज गुप्ता के घर में भूमिगत रूप से छिप गई यहाँ तक की उनके नौकर चाकर को भी यह पता नहीं था। वे मेरा पूरा ध्यान रखते थे।''
- दैनिक हिंदुस्तान 1967 


3 मई 1942 का सीआईडी रिपोर्ट कहती है-संघ का निर्णय है किसी भी का विरोध की परवाह न करते हुए अपने पैरो पर खड़ा होगा यह संभव नहीं है कि स्वराज भीख में मांगने से मिलेगा बल्कि ताकत से मिलेगा। 1943 ई. की इंटेलिजेंस रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस का सर्वोच्च उद्देश्य अंग्रेजो को भारत से भगाना है।
भारत रत्न डॉ. भगवान दास के शब्दों में ''मैं निश्चित रूप से जानता हूँ की आरएसएस के स्वयंसेवकों ने मुस्लिम लीग की भारत सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को खत्म कर लाल किले पर पाकिस्तानी झंडा फहराकर भारत में अपनी सरकार की घोषणा की योजना के बारे में नेहरु और पटेल को पहले अगाह कर दिया था। अगर ये देशभक्त साहसी युवकों ने नेहरु और पटेल को सही समय पर नहीं बताया होता तो आज संपूर्ण भारत पाकिस्तान होता और लाखों हिन्दू कत्ल कर दिए जाते। जो बचते उनका बलात् इस्लाम में धर्मपरिवर्तन कर दिया जाता और भारत एक बार फिर गुलाम हो जाता।''






  'स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के बूट पॉलिश करने से ले कर उनके बूट को पैर से निकाल कर उससे उनके ही सिर को लहूलुहान करते हुए मरम्मत करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं। किसी भी मार्ग के लिए मेरे मन में तिरस्कार का भाव नहीं है। मैं तो इतना ही जानता हूँ की अंग्रेजों को निकालकर देश स्वतंत्र कराना है।
- डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार












  'स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लीजिये पर हाथ में आरएसएस का बैनर न लेकर बल्कि कुर्ता पैजामा और खादी टोपी पहन कर।'
- मा. माधव सदाशिव गोलवलकर गुरूजी

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Monday, 7 August 2017

रखवाले कानून के या रसूखदारों के

विषय आरंभ करने से पहले एक प्रसंग सुनाना चाहूंगा। क्षीरसागर में शेषशैया पर विराजमान लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु से पूछा, भगवन! त्रेता युग में आपने सीताहरण के समय घायल जटायु जैसे पक्षीराज के जख्मों को न केवल अपने हाथों से साफ किया बल्कि उसका दाहसंस्कार व श्राद्ध कर्म भी किया परंतु द्वापर युग दौरान महाभारात युद्ध के अंत में जब धर्मध्वजावाहक भीष्म पितामह शरशैया पर मरणासन्न अवस्था में थे तो आपने उन्हें पानी तक नहीं दिया? अर्जुन को पानी उपलब्ध करवाने को कहा? इस पर भगवान विष्णु जी ने उत्तर दिया कि गिद्धराज एक महिला की अस्मिता की रक्षार्थ अपने से कई गुणा बलशाली रावण से भिड़ गये और अपने प्राणों का बलिदान किया परंतु द्रोपदी चीरहरण जैसे घोर अपराध के समय सक्षम होते हुए भी कौरव दरबार में भीष्म मौन रहे। जो पुरुष महिला के मान की रक्षा नहीं करता, उसका सम्मान नहीं करता वह कितना भी धर्मविद्, ज्ञानी, योद्धा हो वह मुझे प्रिय नहीं है।
उक्त संदर्भ में अगर पंचकूला में हरियाणा भाजपा अध्यक्ष सुभाष बराला के बेटे विकास द्वारा एक युवति के साथ की गई छेड़छाड़ की घटना का आकलन किया जाए तो आज वहां की पुलिस न केवल भीष्म के पाले में खड़ी दिखाई दे रही है बल्कि उससे भी आगे दुषासन का हाथ बंटाने का भी आभास करवा रही है। महिला की शिकायत पर पुलिस ने तत्काल उसको सहायता उपलब्ध करवा कर सराहनीय कार्य किया परंतु उसके बाद जिस तरह आरोपियों को बचाने के प्रयास हो रहे हैं वह लज्जाजनक हैं। मीडिया में छन कर आरहे समाचारों से जानकारी मिलती है कि पुलिस ने इस मामले से अपहरण व अपहरण का प्रयास करने की धाराओं को हटा कर केस को कमजोर करने का प्रयास किया है। बकौल देश की प्रथम महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी आरोपियों को न्यायिक संरक्षण में लेने और जांच किए बिना उनको जमानत दिया जाना भी गलत है। आश्चर्य की बात है कि मौके पर पुलिस ने आरोपियों की चिकित्सीय जांच भी नहीं करवाई। बताया जाता है कि आरोपियों द्वारा पीछा किए जाने के बाद पीडि़त युवति जिस-जिस रास्ते से गुजरी वहां पर 9 सीसीटीवी कैमरे लगे थे परंतु आश्चर्य है कि किसी में उसकी फुटेज नहीं मिली। उक्त सारी बातें बताती हैं कि चंडीगढ़ पुलिस अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाने में असमर्थ साबित हो रही है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने लाल बत्ती परंपरा को तिरोहित कर 'वैरी इंपोर्टेट पर्सन' (वीआईपी) के स्थान पर 'एवरी पर्सन इंपोर्टेंट' की बात कही परंतु लगता है कि वीआईपी संस्कृति की जड़ें समाज में इतनी गहरी हैं कि उखडऩे का नाम नहीं ले रहीं। इसका शिकार जहां रसूखदार लोग हैं वहीं प्रशासनिक स्तर पर भी इसके रोगाणु नष्ट नहीं हुए हैं। यही कारण है कि एक संगीन अपराध का आरोपी विकास केवल इसलिए कानून की गिरफ्त से बाहर है क्योंकि वह एक रसूखदार बाप का बेटा है। पूरे मामले में पुलिस प्रशासन सिर के बल खड़ा है आरोपियों को बचाने के लिए, न कि उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए। भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने चंडीगढ़ पुलिस को रीढ़विहीन बता कर उसका स्टीक ही आकलन किया है।
आश्चर्य की बात है कि इस मामले के आरोपी विकास को राजनीतिक संरक्षण भी उपलब्ध करवाया जा रहा है। हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि 'विकास के अपराध की सजा उसके पिता याने भाजपा अध्यक्ष सुभाष बराला को नहीं दी जा सकती।' लेकिन क्या श्री खट्टर बताएंगे कि क्या रसूखदारों की बिगड़ैल औलादें अपने माँ-बाप की राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक हैसियत का लाभ नहीं उठाती? क्या इन बिगड़ैलों को अपने परिवार का संरक्षण प्राप्त नहीं होता? इसी के चलते क्या प्रशासनिक अधिकारी इनके सामने बेबस नहीं हो जाते? अब भी कानून को ताक पर रख कर विकास को इसलिए नहीं बचाया जा रहा क्योंकि वह एक बड़े नेता का बेटा है?  पूरे मामले को लेकर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष रामबीर भट्टी का ब्यान तो और भी चौंकाने वाला है जिसमें उन्होंने पूछा है कि रात के समय  लड़की घर के बाहर क्या कर रही थी? इसका जवाब पीडि़त युवति वर्णिका कुंडू ने उचित ही दिया है कि उनसे प्रश्न करने वाले अपने बिगड़ैल लड़कों से सवाल क्यों नहीं पूछते कि रात के समय वे शराब पी कर अकेली लड़की के पीछे क्यों लगे। कोई पूछे कि क्या रात के समय किसी युवति का घर से बाहर निकलना अपराध है?
इस तरह की बातें करने वाले सत्ता में उन्मुक्त नेताओं को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष श्री मुलायम सिंह व उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार का हश्र नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने महिला उत्पीडऩ की इसी तरह की एक घटना पर कहा था कि 'लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है।' इस तरह की घटनाओं पर मौन रहना या प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आरोपियों को संरक्षण देना समाज में सीधे-सीधे अपराध को बढ़ावा देना है। पुलिस प्रशासन का भी दायित्व बनता है कि वह केवल और केवल न्याय का पक्ष ले। कांगे्रस के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री जयवीर सिंह शेरगिल ने ठीक ही पूछा है कि जब एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी की बेटी चंडीगढ़ जैसे महानगरों में सुरक्षित नहीं तो जनसाधारण की सुरक्षा का जिम्मा कौन उठाएगा ? पुलिस प्रशासन को यह सदैव स्मरण रहे कि वह कानून के रखवाले हैं न कि रसूखदारों के।
- राकेश सैन

Friday, 4 August 2017

जिन्होंने रखी राखी की लाज

राखी युगों से मनाया जाने वाला पर्व है जो बहन-भाई के प्यार का प्रतीक तो है ही साथ में सामाजिक समरसता व एकता का भी प्रतीक है। इतिहास में अनेक प्रसंग आते हैं जिनसे पता चलता है कि रक्षाबंधन का भारतीय संस्कृति में कितना महत्त्व है और इस पर्व ने इतिहास में अपनी महती भूमिका निभाई है।
वामनावतार  
एक सौ 100 यज्ञ पूर्ण कर लेने पर दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग का प्राप्ति की इ'छा बलवती हो गई तो का सिंहासन डोलने लगा। इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली। बलि के गु्रु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी। वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।
जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान लक्ष्मी जी ने सोचा कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी यथा रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा। रक्षा विधान के समय निम्न लिखित मंत्रो'चार किया गया था जिसका आज भी विधिवत पालन किया जाता है -
येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।  
इन्द्र और महारानी शची
भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार देवता और दैत्यों में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ परन्तु देवता विजयी नहीं हुए। इंद्र हार के भय से दु:खी होकर देवगुरु बृहस्पति के पास विमर्श हेतु गए। गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार किए और स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में इंद्राणी ने वह सूत्र इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधा जिसके फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई। 
 कृष्ण-द्रोपदी
महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा श्री कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के वृत्तांत मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। श्रीकृष्ण ने बाद में द्रौपदी के चीर-हरण के समय उनकी लाज बचाकर भाई का धर्म निभाया था।
सिख भाईयों ने निभाया राखी का फर्ज
जिस तरह शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने विधर्मियों द्वारा अपहृत बहनों को बचाया उसी भांति सिख बंधुओं ने भी मुसलमानों के चंगुल से सैंकड़ों बहनों को बचा कर भाई का फर्ज निभाया। इस प्रसंग को लेकर आज भी रक्खड़ पुन्नया के नाम से मेला लगता है। अहमदशाह अब्दाली व मराठों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में लड़ी गई। छापामार युद्ध में परंगत मराठों को सीधी लड़ाई में पराजय का सामना करना पड़ा। जीतने पर अहमदशाह की सेना ने भारतीयों पर खूब अत्याचार किए। अब्दाली की सेना ने धन-दौलत के साथ कमजोर व निराश्रित 2200 माताओं-बहनों का भी अपहरण कर लिया।
अब्दाली की सेना गोइंदवाल साहिब के पास ब्यास दरिया पार कर रही थी। इसकी सूचना सिख योद्धा नवाब कपूर सिंह, जस्सा सिंह अहलूवालिया तथा जस्सा सिंह रामगढिय़ा को लगी और सिख योद्धा इस खबर से तिलमिला उठे। सिख सेना ने अब्दाली की सेना पर बिजली की गति से हमला किया और इन अपहृत माताओं-बहनों को छुड़वा लिया। यह महिलाएं काफी समय तक सिख सेना में रही और अपने मूंहबोले भाईयों की खूब सेवा की। इन्होंने सेना में शस्त्र चलाना, घोड़ों की सेवा, गुरबाणी पाठ, गुरुघर की सेवा करने का काम सीखा और अपने सिंह भाईयों की खूब सेवा की। जब इन बहनों को उनके घर छोडऩे का अवसर आया तो इन्होंने सिख सेना में रहने की ही जिद्द की परंतु सेना के लिए यह संभव न था। इन बहनों ने इस शर्त पर अपने घर जाना मान लिया कि सिख भाई समय-समय पर उनको मिलते रहा करेंगे। इसके लिए दिन तय हुआ कि रक्षाबंधन वाले दिन यह बहनें बाबा बकाला पहुंच जाया करें। सिख सैनिक वक्त बेवक्त इनको मिल लिया करेंगे और राखी बंधवाया करेंगे। इस एतिहासिक घटना की स्मृति समय बीतने के साथ-साथ मेले का रूप धारण कर गई। आज भी यहां मेला लगता है और माताएं-बहनें अपने सिख भाईयों के लिए रखड़ी व खाने-पीने का सामान लेकर पहुंचती हैं।
रक्षाबंधन और चंद्रशेखर आजाद
फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद ने महिला को कहा- मेरे सिर पर पाँच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ्तारी पर पाँच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।
यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इजत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकती। यह कहते हुए उसने एक रक्षासूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रुपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन सारी कथा, प्रसंग, प्रथाओं के माध्यम से व्यक्त होने वाले भाव को अधिक समयोचित स्वरुप दिया। कारण उपरोल्लिखित सारी कथाएं और प्रथाएं भी राखी के साधन से, आत्मीयता के धागों से परस्पर स्नेह का भाव ही प्रकट करती है। यही स्नेह आधार का आश्वासन भी देता है और दायित्व का बंधन भी। समाज में परस्पर संबंध में आये हुए विशिष्ट प्रसंग के कारण पुराण या इतिहास काल में रक्षासूत्र का प्रयोग हुआ होगा। पर ऐसा प्रत्यक्ष संबंध न होते हुए भी हम सब इस राष्ट्र के राष्ट्रीय नागरिक है, हिंदू है, यह संबंध भी अत्यंत महत्वपूर्ण है और व्यक्तिगत से और अधिक गहरा यह महत्वपूर्ण नाता ही सुसंगठित समाज शक्ति के लिये आवश्यक होता है। 
- राकेश सैन

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...