Monday, 30 October 2017

खालिस्तानी आतंकवाद का जवाब हिंदू-सिख एकता

देश की खडग़बाहू माने जाने वाले पंजाब में आतंकवाद ने एक बार फिर दस्तक दी है। 30 अक्तूबर को अमृतसर में एक स्थानीय संगठन के नेता विपिन शर्मा की गोली मार कर हत्या कर दी। हत्या दिन दिहाड़े व भीड़भाड़ वाले इलाके में की गई है। इससे पहले भी राज्य में इस तरह से चार हत्याएं हो चुकी हैं परंतु जिस तरीके से उक्त हत्याकांड में आतंकियों का चेहरा बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आया है उससे अब अन्य अंदेशा लगाना बेमानी है कि यह राज्य में फिर से आतंकवाद की आहट है। आतंकवाद पर पुलिस और प्रशासन की तरफ से जो किया जाना है उसमें तत्परता व गंभीरता तो अपेक्षित है ही परंतु समाज की तरफ से हिंदू-सिख एकता व सौहार्द ही इस आतंक का मुंहतोड़  जवाब हो सकता है।

पिछली सदी के सातवें दशक में आरंभ हुए खालिस्तानी आतंकवाद ने प्रदेश ही नहीं समय-समय पर पूरे देश में खूब खून और खाक की खेल खेली। इसमें 30 हजार निर्दोष लोगों की जानें गईं, संपति और राज्य के विकास का नुक्सान हुआ उसका शायद ही कभी अनुमान लगाया जा सके। कुशल नेतृत्व व सुरक्षा बलों की योग्यता के बल पर हमने सदी के अंत तक देश के अंदर तो काफी सीमा तक खालिस्तानी आतंकवाद पर काबू लिया परंतु राख के नीचे कहीं न कहीं चिंगारी सुलगती रह गई। 1984 में हरि मंदिर साहिब में आतंकवादियों को निकालने के लिए की गई सैनिक कार्रवाई और इसी साल दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों ने इस चिंगारी को बुझने नहीं दिया। इसे हमारी  न्यायिक व्यवस्था की दुर्बलता कहें या राजनीतिक हस्तक्षेप या प्रशासनिक अड़ंगेबाजी परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि इन दंगों के 34 साल बाद भी हमारी व्यवस्था निर्दोष सिखों के हत्यारों को सजा दिलवाना तो दूर कोई परिणाम लाती हुई भी दिखाई नहीं दी। न ही हमारी सरकारों और न ही राजनेताओं ने हरि मंदिर साहिब को आतंकमुक्त करने हेतु की गई सैनिक कार्रवाई का औचित्य समझाने का प्रयास किया। इन दोनों अति संवेदनशील मुद्दों पर समझा जाता रहा कि समय सभी घावों को भर देगा परंतु ऐसा नहीं हुआ। विदेशों में विशेषकर कैनेडा, अमेरिका, जर्मनी आदि कई देशों में बैठे खालिस्तानी लॉबी ने जख्मों को कुरेदने का काम जारी रखा। कभी आप्रेशन ब्ल्यू स्टार की बरसी तो कभी सिख विरोधी दंगों की बरसियां मना कर राख के नीचे की चिंगारी को सुलगाने का प्रयास जारी रखा गया। देश के खिलाफ दुषप्रचार हुआ, आतंकियों को नायक बना कर युवाओं के सामने पेश किया गया। सभी ने देखा कि किस तरह आतंकियों के स्टीकर कारों पर, उनके चित्र टी-शर्टों पर चिपकाए गए। पंजाबी मीडिया के एक वर्ग ने आग में घी का काम किया।
पंजाब में पिछले साल श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं के जरिए राज्य का सांप्रदायिक महौल बिगाडऩे का प्रयास हुआ। इन घटनाओं के लिए एक डेरे से जुड़े लोगों को जिम्मेवार ठहराया गया परंतु बाद में हुई कई गिरफ्तारियों से पता चला कि बेअदबी की अधिकतर घटनाएं संबंंधित गुरुद्वारों से जुड़े लोगों द्वारा ही की गईं। बेअदबी की आड़ में कट्टरवाद को जिस तरीके से प्रोत्साहन दिया उससे इस बात की आशंका बलवति होती है कि इनके पीछे जरूर बहुत बड़ी साजिश है। दुर्भाग्य है कि विगत विधानसभा चुनाव के महौल में हुईं इन घटनाओं की गहराई से जांच करने की बजाय इसको लेकर केवल और केवल राजनीति हुई। कहने को तो वर्तमान कांग्रेस सरकार ने मामले की जांच के लिए आयोग का गठन किया है परंतु उसकी जांच अभी तक तो कोई उत्साहजनक हालात पैदा करती हुई दिखाई नहीं दे रही है। इसी साल प्रदेश में अलगाववादी तत्वों ने कथित सरबत्त खालसा बुला कर राज्य के महौल को विषाक्त करने का प्रयास किया। सीमापार से नशों की तस्करी ने आतंकवाद का कहीं न कहीं वित्तपोषण किया। नाभा जेल ब्रेक कांड इस बात का गवाह है कि एकाएक पैदा हुए गैंगस्टरों ने आतंकियों को मानव शक्ति उपलब्ध करवाई। 
वर्षों से तैयार हो रहे आतंकवाद के पक्ष में इस वातावरण का ही परिणाम है कि एक बार फिर इसकी आशंका बन गई है। पिछले साल-सवा साल में जालंधर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत सह-संघचालक ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा, लुधियाना में रविंद्र गोसाईं, एक पादरी सहित चार लोग इसका शिकार हो चुके हैं और अब अमृतसर में यह पांचवीं घटना हुई है। उक्त सभी घटनाओं में हत्या की लगभग एक सी शैली अपनाई गई है, जिनमें हत्यारे मुंह ढांप कर आते हैं और संबंधित व्यक्ति की हत्या कर फरार हो जाते हैं। परंतु अमृतसर में पहली बार आतंक का चेहरा नंगा हुआ है और फिर वैसा ही विभत्स चेहरा दिखाई दिया है जिस तरह के चेहरे पिछली सदी में दिखते थे।  चाहे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व पुलिस प्रमुख सुरेश डोगरा समय-समय पर कहते रहे हैं कि राज्य में आतंकवाद पनपने नहीं दिया जाएगा। लुधियाना पुलिस ने
इसी महीने सात खालिस्तानी आतंकियों को गिरफ्तार करने में सफलता भी हासिल की है परंतु प्रदेश में निरंतर हो रही हत्याएं राज्य में भय का वातावरण पैदा कर रही है। राज्य में आतंकवाद फैलाने का बड़ा कारण बन रहा है सोशल मीडिया परंतु पुलिस प्रशासन कड़ी नजर रखे तो इसी माध्यम से आतंकियों पर नकेल भी कसी जा सकती है। प्रदेश में हवाला कारोबार के जरिए आतंकियों की हो रही फंडिंग को सख्ती से रोका जा सकता है। कुछ भी हो सरकार को तत्काल इस दिशा में गंभीर होना होगा और चिंगारी को दावानल बनने से पहले बुझाना होगा। इस बीच समाज में सभी पक्षों की यह जिम्मेवारी बनती है कि वह किसी भी सूरत में सांप्रदायिक वातावरण को बिगडऩे से बचाए क्योंकि हिंदू-सिख समाज में एकता ही आतंकवाद के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इस मजबूत दिवार को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Saturday, 28 October 2017

गुजरात चुनाव, आतंक के साए से आतंकित कांग्रेस

Congress Leader Sh. Ahmad Patel and Chief Minister Sh. Vijay Rupani

ठंड से ठिठुरते साधू ने झाड़ी में छिपे बैठे रीछ को कंबल समझ कर जफ्फी डाल ली, अब संतजी तो पीछा छुड़ावें पर मुआ कंबल ना छोड़े। यही हालत कांग्रेस की होती नजर आरही है। तुष्टिकरण की राजनीति के चलते कई बार आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर नर्म रवैया अपनाने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी जितना इससे पिंड छुड़ाती है उतनी ही फसती दिखती दिख रही है। गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए कुरुक्षेत्र सज चुका है और दो दिन पहले तक कांग्रेसी खेमा अति उत्साह में दिख रहा था परंतु वहां से आईएसआईएस के दो आतंकियों की गिरफ्तारी ने सारे उत्साह को काफूर कर दिया एहसास हो रहा है। एक गिरफ्तार आतंकी का संबंध गुजरात के सबसे कद्दावर कांग्रेसी नेता अहमद पटेल के अस्पताल से होने की बात सामने आते ही कांग्रेस बचाव की मुद्रा में आई दिखती है। उसे अपना अतीत सताने लगा है जो कंबल की तरह उसे छोडऩे का नाम नहीं ले रहा। 


आतंकवाद की जांच में जुटीं राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने 25 अक्तूबर को सूरत से दो ऐसे संदिग्ध आतंकियों को गिरफ्तार किया है जिनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठन आईएसआईएस (आईसिस) से जुड़ा बता रहे हैं। बात केवल यहीं तक सीमित रहती तो यह राजनीतिक रूप न लेती परंतु पकड़ा गया एक आतंकी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के खासमखास में शामिल सबसे कद्दावर गुजराती नेता अहमद पटेल के अस्पताल का कर्मचारी निकला तो मुद्दे ने राजनीतिक रूप ले लिया। कहने को तो वहां की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और खुद कांग्रेस आतंकवाद पर राजनीति न करने की दलीलें दे रही हैं परंतु चुनावों के चलते यह मुद्दा न उठे यह संभव नहीं लगता। अगर भाजपा गुजरात में इस मुद्दे की हवा बनाने में सफल हो जाती है कि वहां एक बार फिर नए सिले सिलाए सूट पेटी में पड़े रह सकते हैं। विधानसभा चुनावी शोरगुल में खोए गुजरात के सूरत से 25 अक्टूबर को एटीएस ने आतंकी संगठन आईएस के दो आतंकियों को गिरफ्तार किया था, जिसके बाद अब आतंकियों के लेडी फ्रेंड्स का कनेक्शन भी सामने आ रहा है। एटीएस ने अहमदाबाद के खाडिय़ा इलाके में बम विस्फोट की योजना बनाने वाले दो आतंकियों को दबोचा था। पकड़े गए आतंकियों की पहचान कासिम टिंबरवाला और उबेद मिर्जा के तौर पर की गई है, दोनों आतंकी खाडिय़ा में धार्मिक स्थल को निशाना बनाने वाले थे। जिसके लिए इनकी ओर से यहूदियों के आराधना स्थल की रेकी करने की बात भी सामने आ रही है। तो वहीं संदिग्ध आतंकी कासिम को लेकर खबर है कि वह अस्पताल में लैब टेक्नीशियन के रूप में काम करता था, जबकि ओबेद मिर्जा सूरत में वकील के रूप में प्रेक्टिस कर रहा था। गिरफ्तारी के बाद पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां के सामने आतंकियों ने आतंकी साजिश के बड़े राज खोले हैं, सूरत पुलिस ने आतंकियों से पूछताछ के बाद कई बड़े खुलासे किए। खुलासे के दौरान आतंकियों का तीन महिलाओं से कनेक्शन भी सामने आया है। एक महिला गिरफ्तार आतंकी कासिम की गर्लफ्रेंड है जबकि दूसरी महिला शाजिया कासिम की दोस्त है। शाजिया पहले भी पकड़े गए कुछ आतंकियों की बांग्लादेश सीमा के जरिए भगाने में मदगार रह चुकी है, जबकि तीसरी महिला एयर होस्टेस है जो आतंक की फंडिग के लिये तस्करी करती थी। पुलिस की मानें तो दोनों आतंकी पश्चिमी देशों में हुए कई हमलों की तर्ज पर यहां भी लोन वुल्फ हमलों को अंजाम देने की फिराक में थे। लोन वुल्फ हमलों में अक्सर कोई बड़ा रैकेट नहीं होता। आतंकी इसे अपने स्तर पर ही अंजाम देते हैं। लिहाजा इन्हें रोकना ज्यादा कठिन होता है। माना जा रहा है कि दोनों संदिग्ध अगले कुछ दिनों में ये हमला करने वाले थे।

इसे आतंकवाद के खिलाफ भारत की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है। एनआईए साल 2014 से ही इन आतंकियों पर नजर रख रही थी। सोशल मीडिया से लेकर संचार के हर साधन पर नजर रखी जा रही थी। आतंक के इसी नेटवर्क से जानकारी लेकर ही एनआईए ने अगस्त 2016 को कोलकाता से 4 युवाओं को गिरफ्तार किया जो बांग्लादेश के रास्ते आईसिस में भर्ती होने के लिए सीरिया जाने वाले थे। एनआईए की 14 पृष्ठीय प्राथमिकी में बताया गया है कि एक आरोपी वसीम टिंबरवाला अपनी फेसबुक पर युवाओं को मार्ग भटकाने व आईसिस के लिए भर्ती का काम कर रहा था। एनआईए ने इस संबंध में उसके सोशल मीडिया के रिकार्ड को भी पेश किया है।

चिंताजनक बात यह है कि सूरत में चैरिटी बेस पर चलने वाले सरदार पटेल हॉस्पीटल एंड हार्ट इंस्टीच्यूशन जो गुजरात कांग्रेस के कद्दावर नेता अहमद पटेल से जुड़ा है में इनको नौकरी पर रखते समय कोई पड़ताल नहीं की गई। अहमद पटेल इस अस्पताल से 1979 से ही ट्रस्टी के रूप में जुड़े हैं, चाहे उन्होंने 2014 में त्यागपत्र दे दिया परंतु अब भी वे अस्तपाल के मुख्य कर्ताधर्ताओं में प्रमुख हैं। इसका उदाहरण है कि अस्पताल का विस्तारण करने के लिए साल 2016 में देश के राष्ट्रपति प्रणब मखर्जी अस्पताल आए तो सारे समारोह में अहमद पटेल ही प्रम्मुख के रूप में दिखाई दिए। 

देश की गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनालाइसिस विंग (रॉ) के पूर्व अधिकारी आरके यादव कई बार ट्वीट कर अहमद पटेल पर रॉ को कमजोर करने, रिश्वतखोरी से नियुक्तियां करने के आरोप लगाते रहे हैं। चाहे इन आरोपों को प्रथमदृष्टि में सही नहीं माना जा सकता परंतु न तो कभी कांग्रेस और न ही खुद अहमद पटेल ने इनका खण्डन किया।  आतंकवाद पहले ही कांग्रेस पार्टी का मर्मस्थल रहा है और अब पटेल काण्ड ने इस कमजोर अंग की संवेदना को और भी बढ़ा दिया है। साल 2010 में हुए बाटला मुठभेड़, गुजरात में हुए इशरत जहां आतंकी मुठभेड़ में आतंकियों के प्रति नरम रुख रखने, आतंकियों की फांसी पर मातम मनाने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जबरन आतंकवाद के साथ जोडऩे, कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन को आदरसूचक शब्दों से संबंधित करने जैसे अतीत में कई आरोप कांग्रेस पर लगते रहे हैं। इन आरोपों के चलते कांग्रेस को न केवल वैचारिक रूप से मुंह की खानी पड़ी बल्कि राजनीतिक नुक्सान भी झेलने पड़े।

आज कांग्रेस को अपना अतीत फिर डराने लगा है। विगत लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद हार के कारणों को जांचने के लिए गठित पार्टी की एके एंटनी जांच समिति बता चुकी है कि कांग्रेस के हिंदुत्व विरोदी रवैये व अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के चलते यह दिन देखने पड़े। आतंकवाद के मसले पर गुजरात अत्यंत संवेदनशील प्रदेश माना जाता है। यहां पर अतीत में भी परवेज मुशर्रफ, पाकिस्तान को लव लेटर, आतंकियों को बिरयानी, मौत का सौदागर जैसे मुद्दे निर्णायक भूमिका निभा चुके हैं और अब भाजपा के पास फिर वैसा ही मुद्दा हाथ लग गया है जो कांग्रेस को परेशानी में डाल सकता है। 

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर।
मो. 097797-14324

Thursday, 26 October 2017

मत चूको चौहान

दुश्मन को घर में घुस कर मारने की शायद यह पहली घटना होगी जब राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान ने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी उसके दरबार में ही खत्म कर दिया। पृथ्वीराज आवाज की दिशा में तीर चलाने में निपुण थे और गौरी उनके इस गुण को अपनी आंखों से देखना चाहता था। तराईन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज अपने साथी चंदवरदायी के साथ बंदी बना लिए गए थे और पृथ्वीराज की आंखें फोड़ दी गई थीं। जब दोनों को गौरी के सामने पेश किया गया तो चंदरवरदायी ने इशारों ही इशारों में बताया - 

चार बांस चौबीस गज, 

अंगुल अष्ट प्रमाण।

 तां पर सुल्तान है, 

मत चूको चौहान।। 

चंदवरदायी की गणना पर पृथ्वीराज चौहान ने तीर चलाया और गौरी कटे हुए वृक्ष की भांति तख्त से नीचे गिर गया। आज राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों के यहां टेररट फंडिंग को लेकर छापामारी के जरिए आतंक की जड़ तक पहुंच गई है। अब अवसर है कि राज्य में आतंकवाद का खेल खत्म हो जाना चाहिए। राज्य में मुंह की खाने के बाद आतंकवादियों के हौंसले परास्त हैं तो टेरर फंडिंग उजागर होने से अलगाववादी भी अलग-थलग पड़े हुए हैं। समय है कि आतंक पर निर्णायक प्रहार हो और अगर यह अवसर चूके तो जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर हमें और नुक्सान झेलना पड़ेगा।

याद रहे कि तमाम कोशिशों के बावजूद देश में आतंकवाद की समस्या पर पूरी तरह काबू पाना अगर आज भी संभव नहीं हो सका है तो इसका कारण आतंकी गतिविधियों में लगे लोगों को गोपनीय स्रोतों से मिलने वाली आर्थिक मदद रही। जबकि यह बात लंबे समय से कही जाती रही है कि जब तक आतंकियों को आर्थिक मदद पहुंचाए जाने के तंत्र को ध्वस्त नहीं किया जाएगा, तब तक इस समस्या से पार पाना मुश्किल है। हालांकि पिछले कुछ महीनों के दौरान राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने खासतौर पर आतंकवाद की समस्या के इस पहलू पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है। सुरक्षा एजेंसियों ने खासतौर पर आतंकियों के संबंधियों और हवाला के जरिए या फिर किसी और रास्ते से उन्हें धन पहुंचाने वालों के खिलाफ अपनी सख्ती बढ़ा दी है। इसी क्रम में एनआइए को मंगलवार को एक बड़ी कामयाबी मिली जब उसने आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन के बेटे सैयद शाहिद यूसुफ को गिरफ्तार कर लिया। शाहिद पर हवाला मामले में आतंकी स्रोतों से धन प्राप्त करने का आरोप है। एनआइए के मुताबिक शाहिद के पास 2011 से 2014 के बीच सलाहुद्दीन के इशारे पर सीरिया के रास्ते चार किश्तों में रकम भेजे जाने के सबूत हैं, जिसका इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों में किया गया। गौरतलब है कि शाहिद जम्मू-कश्मीर सरकार के तहत कृषि विभाग में कार्यरत है और अब तक वह एक सामान्य नागरिक की तरह ही जिंदगी गुजार रहा था। अब अगर उस पर लगे आरोप सही पाए जाते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि आतंकी संगठनों की पहुंच कहां तक है और इस समस्या पर काबू पाना आज भी जटिल काम है तो उसकी वजह क्या है! सवाल है कि सरकारी विभाग में काम करते हुए शाहिद यूसुफ कैसे इतने समय से बिना रोक-टोक आतंकी स्रोतों से धन प्राप्त करता रहा और उसके बारे में किसी को भनक नहीं लगी। हालांकि यह भी सच है कि पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में खुफिया तंत्र और सुरक्षा एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल देखा जा रहा है और जमीनी स्तर पर इसके सकारात्मक नतीजे भी सामने आ रहे हैं, चाहे वह आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों की गिरफ्तारी हो या फिर आतंकवादी हमलों का सामना। एनआइए ने आतंकवादी गतिविधियों के वित्त पोषण से जुड़े आरोपों के तहत अब तक दस लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनमें अलगाववादी नेता अली शाह गिलानी का दामाद अल्ताफ शाह और वाताली भी शामिल हैं।
यह अब जगजाहिर तथ्य है कि कश्मीर में हिंसा और उपद्रव को पाकिस्तान की तरफ से लगातार शह मिलती रही है। इसमें न केवल कश्मीर के नौजवानों को भड़का कर आतंकवादी संगठनों में शामिल करके पाकिस्तान में स्थित शिविरों में प्रशिक्षण दिया जाता है, बल्कि भारत में आतंकी गतिविधियां चलाने के लिए आर्थिक सहायता भी मुहैया कराई जाती है। भारत ने अनेक मौकों पर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह सवाल उठाया है, लेकिन पाकिस्तान आमतौर पर इसमें अपनी भूमिका से इनकार करता रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि पाकिस्तान भारत में आतंकी गतिविधियों को शह देने का कोई मौका नहीं छोड़ता है। जाहिर है, शाहिद यूसुफ की गिरफ्तारी भर से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि आतंक के वित्त पोषण या सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशें बंद हो जाएंगी। एनआइए की ताजा कामयाबी के साथ ऐसी रणनीति पर काम करने की जरूरत है कि देश में आतंकवाद को वित्तीय मदद के रास्ते स्थायी तौर पर कैसे बंद किए जाएं। आतंक पर निर्णायक प्रहार का यह उचित अवसर है, सावधान रहते हुए हमें चूकना नहीं चाहिए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
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Tuesday, 24 October 2017

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत

अयोध्या में मनी दिवाली ने देशवासियों को त्रेता युग का स्मरण करवा दिया। रामराज्य का साक्षी वह युग जिसमें तुलसीदास के शब्दों में दैहिक, दैविक व भौतिक तापों को लोग जानते तक नहीं थे। बड़ी प्रतीकात्मक रही अबकी दिवाली। मानव जीवन केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं, इसमें सांस्कृतिक और अध्यात्मिक प्रतीक जीवन में ऊर्जा, सामाजिक अनुशासन व एकता पैदा करते हैं। राष्ट्रपुरुष भगवान श्रीराम की भांति उनकी जन्मभूमि अयोध्या देश की आध्यात्मिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रतीक भी है। पहले विदेशी शासकों और बाद में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति के चलते हमारे प्रतीकों की उपेक्षा होती रही। लेकिन इस साल अयोध्या में मनी दिवाली से देश के सांस्कृतिक प्रतीकों से अंधकार छंटता नजर आया। भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने से पहले उनकी प्रतीक्षा कर रहे भरत को मंगल होने का आभास होने लगा था। उनकी इस स्थिति का वर्णन करते हुए तुलसी बाबा कहते हैं -


भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार। 

जानि सगुन मन हरष अति लागे करन विचार।।





भरत की भांति अब देशवासियों के शुभता के प्रतीक दाएं अंग फरकने लगे हैं और लगने लगा है कि सदियों से जिस भारतीय संस्कृति व आध्यात्मिक प्रतीकों को वनवास झेलना पड़ रहा था उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं। 


अयोध्या में ऐसे आयोजन समय-समय पर अवश्य होने चाहिए, जिनकी गूंज देश-विदेश तक सुनाई दे। उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस कल्पना को साकार करने का मंसूबा दिखया। सरकारी मशीनरी के साथ ही समाज का योगदान हुआ। इसने अयोध्या की दीपावली को ऐतिहासिक बना दिया। कल्पना की जा सकती है कि त्रेता में जब प्रभु राम, जानकी और लक्ष्मण अयोध्या वापस आये थे, तब ऐसा ही उत्साह रहा होगा। यह आशा करनी चाहिए कि अयोध्या में प्रतिवर्ष इसी धूमधाम के साथ दीपावली का आयोजन होगा। त्रेता युग में लौटा तो नहीं जा सकता, लेकिन उसकी कल्पना और प्रतीक से ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। अयोध्या में ऐसे ही चित्र सजीव हुए। इस आयोजन का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि इसमे आमजन आस्था के भाव से सहभागी बना। यह प्रसंग भी रामचरित मानस के वर्णन जैसा प्रतीत होता है।
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे। ।
जँह तंह नारी निछावरि करही। देहि असीस हरष उर भरही। ।
ज्ञान और संस्कृति ने भारत को विश्व गुरु के गौरवशाली मुकाम पर पहुंचाया था। शांति और अहिंसा के साथ इस विरासत का विश्व के बड़े हिस्से में प्रसार हुआ। आज भी अनेक देशों ने इस विरासत को सहेज कर रखा है। वहां आज भी रामकथा जनजीवन से जुड़ी है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देशों में आज भी रामलीला का मंचन होता है। भारत से गिरमिटिया बन कर गए श्रमिक अपने साथ केवल रामचरितमानस की लघु प्रति लेकर गए थे। रामकथा आज भी उनकी धरोहर है। रामलीला के अनेक रूप वहां प्रचलित है।
विदेशी आक्रांताओं ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समाप्त करने में कोई कसर नही छोड़ी थी। अपनी सभ्यता के विस्तार हेतु उन्होने प्रत्येक संभव प्रयास किये। इसमें तलवार और प्रलोभन दोनो का खुलकर प्रयोग हुआ। लेकिन, एक सीमा से अधिक उन्हें सफलता नहीं मिली। वह शासन पर कब्जा जमाने मे अवश्य कामयाब रहे। यह राजनीतिक परतन्त्रता थी, लेकिन, भारत सांस्कृतिक रूप से कभी परतन्त्र नही हुआ। विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं समय के थपेड़ों में समाप्त हो गई। लेकिन, क्रू आक्रांताओं के सदियों तक चले प्रहारों के बावजूद भारतीय सभ्यता संस्कृति का प्रवाह आज भी कायम है। लेकिन, सदियों की गुलामी ने अपनी विरासत के प्रति आत्मगौरव को अवश्य कमजोर किया। विदेशी आक्रांताओं की वजह से अयोध्या उपेक्षित रह गई। यह आस्था का केंद्र तो बना रहा। लेकिन, एक प्रकार की उदासी यहां दिखाई देती थी। अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली सरकार अयोध्या से एक दूरी भी बना कर चलती थी। शायद इससे उन्हें अपनी सेकुलर छवि के लिए खतरा दिखाई देता हो। यहाँ के लिए कई योजनाएं अधूरी रह गई। जबकि इसे विश्व पर्यटन के मानचित्र पर स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए था।
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अयोध्या के महत्व को व्यापक सन्दर्भो में देखा है। इसमें आस्था के साथ ही पर्यटन को प्रोत्साहन देने का विचार भी समाहित है। वैसे भी दीपावली का आध्यात्मिक ही नहीं ,सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय महत्व भी है। यह अंधकार को मिटाने और प्रकाश फैलाने का पर्व है। पूरा समाज इसमें सहभागी होता है।   
नारी कुमुदनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भये बिगसत भई, निरखि राम राकेस। ।          
इस बार देश ही नहीं, विदेशी पर्यटक भी बड़ी संख्या में यहां पहुंचे। इस संख्या में बढ़ोत्तरी होगी। ऐसे आयोजन के लिए अयोध्या में ढांचागत सुविधाओं का भी विकास होगा। लोग अपनी इस विरासत के प्रति गर्व करना सीखेंगे। यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कही। इसी प्रकार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी व्यापक नजरिये के साथ चल रहे हैं। उन्होने अयोध्या में त्रेता युग जैसी दीपावली की योजना ही नही बनाई, बल्कि पर्यटन बढ़ाने के उपायों पर विचार कर रही है। इससे उन लोगो के मुंह बंद होने चाहिए, जो अयोध्या की दिव्य दीपावली को संकुचित नजर से देख रहे हैं। पर्यटन की दृष्टि से उत्तर प्रदेश अत्यधिक संपन्न राज्य है। ताजमहल की भांति  राम सर्किट योजना भी लाखों करोड़ों विदेशी पर्यटकों को खींच सकती है। इससे न केवल राज्य का ढांचागत विकास होगा बल्कि रोजगार के अवसर बढ़ेगे और संपन्नता आएगी। स्पष्ट है कि इन मसलो पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व्यापक दृष्टिकोण लेकर चल रहे है। अयोध्या में प्रकाश-पर्व का जिस प्रकार आयोजन हुआ, उसका दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होगा। यहाँ से निकले सन्देश का वैश्विक महत्त्व है। इसे अनदेखा नही किया जा सकता। संकेत बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश के दिन भी फिरने वाले हैं।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Sunday, 22 October 2017

कालिख बोर्डों पर पुती या मूंह पर

बठिंडा के पास हिंदी लिखे बोर्डों पर कालिख पोतते कुछ नासमझ

रुंगु और झुंगु ने अपने विश्राम कर रहे गुरु के पांव दबाते समय उनकी टांगें आपस में बांट लीं। बाईं टांग रुंगु के और दायीं झुंगु के हिस्से आई। नींद में गुरुजी ने एक टांग दूसरी पर रख ली तो रुंगु-झुंगु आपस में भिड़ गए कि तेरे हिस्से वाली टांग मेरे हिस्से वाली लात पर क्यों आई। झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों ने एक दूसरे के हिस्से वाली टांगों पर पत्थर दे मारे। इन बुद्धिजीवियों का तो कुछ नहीं गया परंतु गुरु जी अपंग हो गए। पिछले कुछ दिनों से पंजाब में भी रुंगु-झुंगु का खेल देखने को मिल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर पहले हिंदी व अंग्रेजी क्यों लिखी जा रही है? पंजाबी को तीसरे नंबर पर लिखा जा रहा है? इन प्रश्न में कुछ गलत नहीं और स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देने की मांग भी पूरी तरह लोकतांत्रिक है परंतु अपनी बात मनवाने के लिए जिस असभ्य तरीके से इन बोर्डों पर लिखे हिंदी व अंग्रेजी नामों पर स्याही पोती जा रहा है उससे प्रश्न उठता है कि कालिख बोर्डों पर पुत रही है या हमारे के मूंह पर। इन रुंगु-झुंगुओं की नादानी न केवल कानूनी अपराध है बल्कि इससे शर्मसार पूरी पंजाबीयत हो रही है।देश का संविधान हमें अपना मत रखने व किसी मांग को लेकर आंदोलन करने की अनुमति देता है परंतु इनके लिए इस तरह असभ्य होना किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता।

सरकारी आंकड़े चाहे कुछ भी कहें या कोई स्वीकार करे या नहीं परंतु यह अटल सत्य है कि पंजाबी पंजाब में रहने वाले हर एक की मातृभाषा है। देश में जगह-जगह पैदा हुए भाषा विवाद के चलते अपनाए गए त्रिभाषा फार्मूले के अनुसार स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देना अनिवार्य किया है। इसके चलते पंजाब में पंजाबी भाषा को पहल मिलना इसका संवैधानिक अधिकार भी है परंतु अधिकार कभी अलोकतांत्रिक तरीके अपना कर हासिल नहीं किए जाते। राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर तीनों भाषाएं लिखने के पीछे कोई व्यवहारिक कारण भी हो सकता है। इन मार्गों का प्रयोग केवल स्थानीय निवासी ही नहीं बल्कि पूरे देश और विदेशी पर्यटक भी करते हैं। संख्या के हिसाब से स्थानीय निवासी सबसे अधिक और इसके बाद अन्य प्रदेशों से आए लोग व विदेशी पर्यटक इन मार्गों का इस्तेमाल करते हैं। चूंकि स्थानीय निवासी, वाहन चालक इन मार्गों से लगभग परिचित ही होते हैं तो उन्हें इन साइन बोर्डों की कम आवश्यकता पड़ती होगी और प्रदेश के बाहर से आए यात्रियों को अधिक। संभव है कि इसी तथ्य को ध्यान में रख कर हिंदी भाषा को पहल दी गई हो, लेकिन यह एक अनुमान है कोई तथ्य नहीं।
रही बात हिंदी व पंजाबी भाषाओं की तो भाषा विज्ञान विकीपीडिया के अनुसार, इनमें कोई टकराव नहीं है और वैश्विक दृष्टि से यह आर्य परिवार की भाषाएं हैं। वर्तमान में भाषा वैज्ञानिक इन भाषाओं को भारोपीय भाषा परिवार में शामिल करते हैं। भारोपीय समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी  क्योंकि अंग्रेजी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन ये तमाम भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (45 प्रतिशत) भारोपीय भाषा बोलते हैं। संस्कृत, ग्रीक और लातीनी जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है। कुछ विज्ञानी इसे हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार के नाम से भी पुकारते हैं। इस परिवार की सभी भाषाएँ एक ही आदिम भाषा से निकली है, उसे आदिम हिन्द-यूरोपीय भाषा का नाम दे सकता है। यह संस्कृत से बहुत मिलती-जुलती थी, जैसे कि वह सांस्कृत का ही आदिम रूप हो। कहने का भाव कि हिंदी और पंजाबी एक ही मूल से निकली भाषाएं हैं और दोनों परस्पर निर्भर हैं और एक दूसरे के सहयोग से संपन्न हुई हैं। यह क्रम अभी भी निरंतर जारी है।
भाषा को लेकर पंजाब का इतिहास काफी समृद्ध व खुले दिमाग वाला रहा है। पंजाब वेदों-उपनिषदों की जन्मभूमि कहा जाता है। आधुनिक अनुसंधान बताते हैं कि शत्रदू (सतलुज), बिपाशा (ब्यास), वितस्ता (जेहलम) के किनारे बैठ कर बहुत से वेदों की रचना हुई। हरिके पत्तन की शांति में सबसे पहले गायत्रीमंत्र गूंजा। मुसलमानों के हमलों के बाद यहां फारसी, अरबी भाषाओं का भी प्रभाव पड़ा। गुरमुखी नाम पंजाबी शब्द 'गुरामुखी' से बना है जिसका अर्थ है गुरु के मुख से। गुरमुखी लिपि की वर्णमाला का सृजन दूसरे सिख गुरु-गुरु अंगद जी द्वारा सोलहवीं शताब्दी में गुरु ग्रंथ साहिब लिखने के लिए किया गया था। इसका आधार लंडा वर्णमाला है। शैली की दृष्टि से गुरुमुखी के वर्ण लंडा लिपि से बने है तथा यह नागरी लिपि से भी प्रभावित है जो अधिकांश वर्णों के ऊपर शिरोरेखा से लक्षित है। पंजाब में प्रयोग में आने वाली अन्य लिपियां टाकरी तथा लंडा थीं, टाकरी भी शारदा लिपि की देवशेष अवस्था से विकसित लिपि थी। इस लिपि के वर्ण गुरु अंगद देव जी, यहां तक कि गुरु नानक जी से भी पूर्व विद्यमान थे, क्योंकि इनका मूल ब्राह्मी लिपि में है, लेकिन गुरमुखी लिपि के उद्भव का श्रेय गुरु अंगद जी को जाता है। गुरमुखी ब्राह्मी परिवार की एक सदस्य है। टाकरी लिपि सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी तक उत्तरी पहाड़ी राज्यों तथा पंजाब और उसके आसपास के भागों में प्रचलित रही। संभवत: गुरु अंगद देव दी ने गुरु नानक के निर्देशन में लिखने की इस नई पद्धति को आकार दिया जो बाद में गुरमुखी के रूप में जानी गई। गुरुमुखी में गुरुग्रंथ साहिब लिखने से यह सिखों के अन्य साहित्यिक कार्यों की मुख्य लिपि बन गई, लेकिन हिंदी भाषा में भी सिख साहित्य की खूब रचना हुई। गुरमुखी में अन्य भाषाएं-जैसे ब्रज भाषा, खड़ी बोली तथा अन्य हिंदुस्तानी बोलियों, संस्कृत तथा सिंधी लिखने के लिए कुछ परिवर्तन कर उसे अनुकूलित भी किया गया। यद्यपि गुरमुखी लिपि का प्रयोग मुख्यत: पंजाबी के लिए होता है, लेकिन गौणत: सिंधी भाषा के लिए भी इस लिपि का प्रयोग किया जाता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इन सभी भाषाओं को सम्मानित स्थान दिया गया है। पंजाब में रचे गए हिंदी साहित्य की लिपी गुरमुखी ही रही है।
हिंदी व पंजाबी के बीच इतने गहरे संबंध होने के बावजूद भी पिछली सदी के साठवें दशक में देश के इस हिस्से ने भाषा के नाम पर टकराव का विभत्स रूप देखा। सभी पंजाबियों की मातृभाषा पंजाबी को केवल सिख संप्रदाय व उसी तरह हिंदी को हिंदुओं के साथ जोडऩे का प्रयास हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी ने इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाने का प्रयास करते हुए स्पष्ट कहा कि पंजाबी ही पंजाबियों की मातृभाषा हो सकती है। आज भी भारतीय जनता पार्टी ने ही सबसे पहले भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को पत्र लिख कर मांग की कि पंजाब के राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगने वाले साइन बोर्डों पर पंजाबी भाषा को प्राथमिकता दी जाए। हिंदी व पंजाबी पंजाब वासियों की दो आंखों की तरह हैं जिसमें कोई एक आंख कम या अधिक प्रिय नहीं हो सकती। पंजाबी जहां हमारी मातृभाषा है तो वहीं हिंदी इस देश की संपर्क भाषा है। देश के अन्य हिस्सों के साथ संवाद केवल हिंदी से ही किया जा ससकता है। केवल इतना ही नहीं हिंदी भाषा हमारी भावनाओं के साथ जुड़ी है। हमारे अधिकतर धर्मग्रंथ इसी देवनागरी में लिखे गए हैं। इन ग्रंथों के जरिए ही हम अपने देवी-देवताओं को बोलते हुए सुनते हैं और उनसे संवाद करते हैं। किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह पंजाबी समाज की दो आंखों के समान हिंदी-पंजाबी के नाम से विभाजित करने का प्रयास करे क्योंकि अनजाने में भी जब एक आंख को चोट पहुंचती है तो आंसू दूसरी आंख से भी निकलते हैं। हिंदी लिखे बोर्डों पर कालिख पोतना पंजाबी संस्कृति का मूंह काला करने जैसा कृत्य है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है।
- राकेश सैन
खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Friday, 20 October 2017

पंडित नैन सिंह रावत को जानते हैं आप

नैन सिंह रावत वह वैज्ञानिक थे जिन्होंने रस्सी, थर्मामीटर के सहारे दुनिया में पहली बार न केवल तिब्बत का मानचित्र तैयार किया बल्कि ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई बताई और उन्होंने ही दुनिया को बताया कि ब्रह्मपुत्र नदी और चीन की स्वांग नदी एक ही है। 1830 में जन्मे नैन सिंह रावत की विद्वता का लोहा आज पूरी दुनिया मानती है और गूगल ने आज 21 अक्तूबर 2017 को उनका डूडल भी बनाया है। यह पूरे भारतीयों के लिए गर्व का विषय है।

नैन सिंह रावत (1830-1895) 19वीं शताब्दी के उन पण्डितों में से थे जिन्होने अंग्रेजों के लिये हिमालय के क्षेत्रों की खोजबीन की। नैन सिंह कुमायूँ घाटी के रहने वाले थे। उन्होने नेपाल से होते हुए तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण किया। उन्होने ही सबसे पहले ल्हासा की स्थिति तथा ऊँचाई ज्ञात की और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो के बहुत बड़े भाग का मानचित्रण भी किया।
सर्च इंजन गूगल ने नैन सिंह रावत का डूडल बनाया है, जिन्हें बिना किसी आधुनिक उपकरण के
 पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार करने का श्रेय जाता है।
पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता अमर सिंह को लोग लाटा बुढा के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया।
आज सर्च इंजन गूगल ने नैन सिंह रावत का डूडल बनाया है, जिन्हें बिना किसी आधुनिक उपकरण के पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार करने का श्रेय जाता है। कहा जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के लोग भी उनका नाम पूरे सम्मान के साथ लेते थे। उस समय तिबब्त में किसी विदेशी शख्स के जाने पर सख्त मनाही थी। अगर कोई चोरी छिपे तिब्बत पहुंच भी जाए तो पकड़े जाने पर उसे मौत तक की सजा दी सकती थी। ऐसे में स्थानीय निवासी नैन सिंह रावत अपने भाई के साथ रस्सी, थर्मामीटर और कंपस लेकर पूरा तिब्बत नाप आए। दरअसल 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे लेकिन तिब्बत का नक्शा बनाने में उन्हें परेशानी आ रही थी। तब उन्होंने किसी भारतीय नागरिक को ही वहां भेजने की योजना बनाई। जिसपर साल 1863 में अंग्रेज सरकार को दो ऐसे लोग मिल गए जो तिब्बत जान के लिए तैयार हो गए।
कहते हैं नैन सिंह रावत ही दुनिया के पहले शख्स थे जिन्होंने लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, बताई। उन्होंने अक्षांश और देशांतर क्या हैं, बताया। इस दौरान करीब 800 किमी तक पैदल यात्रा की और दुनिया को ये भी बताया कि ब्रह्मापुत्र और स्वांग एक ही नदी है। रावत ने दुनिया को कई अनदेखी और अनसुनी सच्चाई रूबरू कराया।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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Thursday, 19 October 2017

ताज पर विवाद, झूठे इतिहास की दरारों का शोर

रेल गाड़ी ट्रैक बदलती है तो खडख़ड़ाहट होती है, सत्य का प्रकाश अंधकार के दुकानदारों को सालता है क्योंकि इससे असत्य के तारे टिमटिमाना बंद कर देते हैं। झूठ दरकता है तो शोर मचता ही है, मच भी रहा है ताजमहल पर। बौद्धिक झूठ फैलाने वाले इतिहास पर दावे की लड़ाई को मोहब्बत के विरोध में खड़ा करने की फिराक में है, कहते हैं यह दुनिया का आठवां अजूबा, प्रेम का मानसरोवर, पर्यटकों के लिए चुंबक और भी न जाने क्या क्या है। इनका कहना बिल्कुल ठीक है, ताजमहल यह सबकुछ है भाई, परंतु ताजमहल बनाने वालों की भी तो बात हो। इतिहास का एकतरफा विमर्श कितनी देर चलेगा। ताज तो प्रेम प्रतीक है परंतु इसको बनाने वाले कितने मानवता प्रेमी थे, इस पर भी तो चर्चा होनी चाहिए। सच बतलाएं तो ताज के बहाने तुष्टिकरण की राजनीति हमलावर व अत्याचारी मुगलों को कवरिंग फायर दे रही है, एकपक्षीय बुद्धिजीवी व इतिहासकार अब इतिहास का दूसरा पक्ष उजागर होते ही असहिष्णु हो कोहराम मचा रहे हैं। चेहरा नंगा होने से बेचैन ये बुद्धिजीवी देश को चीख-चीख कर बता रहे हैं कि ध्रुवीकरण हो रहा है, सांप्रदायिकता फैलाई जा रही है, देश को बांटा जा रहा है।

देश में ताजमहल पर चर्चा जोरों पर है। चर्चा तब छिड़ी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने एक पुस्तिका प्रकाशित कर देशवासियों को यह बताया कि 'रामायण सर्किट' योजना के तहत किन-किन हिंदू व बौद्ध पर्यटनस्थलों का पुर्नोद्धार कर उन्हें दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनाया जा रहा है। यह कोई उत्तर प्रदेश के पूरे पर्यटनस्थलों की सूची नहीं थी बल्कि इसमें उन स्थलों का विवरण था जिनका पुर्नोद्धार होना है। स्वभाविक तौर पर इसमें ताजमहल का नाम शामिल नहीं किया जा सकता था। इस साधारण सी घटना का सांप्रदायिक विश्लेषण किया हमारे अति उत्साही मीडिया ने जिसने बिना तथ्यों को खोजे यह चर्चा शुरु कर दी कि यूपी के पर्यटन स्थलों से ताजमहल का नाम जानबूझ कर निकाला गया है।

चर्चा के बीच उत्तर प्रदेश के विधायक संगीतसोम ने कह दिया कि ताजमहल हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं बल्कि हमारे इतिहास पर धब्बा और गुलामी के प्रतीक हैं। उनके इतना कहते ही देश का सारा सेक्युलर ताना-बाना टूट पड़ा पूरे लावलश्कर के साथ संगीत सोम पर। एमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि लालकिला, संसद भवन भी तुड़वा दो जो विदेशी शासकों ने बनवाईं। कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने तो इस मुद्दे पर भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ खूब जहरीली जुगाली की। टीवी चर्चाओं में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल सहित सभी धर्मनिरपेक्ष दलों के प्रवक्ता कपड़े फाडऩे तक उतारू हो गए। ताज के बहाने अकबर, बाबर, औरंगजेब, शहंशाह आदि विदेशी शासकों का खूब गुणगान हुआ और उन्हें मसीहा बताने का प्रयास किया गया।

ताजमहल का चारण भाटों की तरह गुणगान करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि इसका निर्माण उस काल में हुआ जब देश में अकाल फैला था। देशवासी भूख से मर रहे थे और मोहब्बत के शहंशाह अपनी बेगम की याद में आंसुओं के साथ-साथ गरीबों के गाढ़े खून पसीने की कमाई बहा रहे थे। बताते हैं कि उस अकाल में लाखों लोग मौत का ग्रास बने और अकाल के बावजूद गरीब किसानों से कर वसूला गया। ताज की सुंदरता ने शहंशाह को इतना अभिभूत कर दिया कि उन्हें भय सताने लगा कहीं ऐसी ईमारत दूसरी और न बने। कहते हैं कि शाही फरमान से ताज बनाने वाले 20000 कारीगरों के हाथ काट दिए गए। पूरी दुनिया में शायद ही किसी जाति ने इतना अत्याचार सहा हो जितना हिंदुओं ने सहा कि दुनिया की श्रेष्ठ ईमारत बनाने का उपहार उन्हें हाथ कटा कर मिला। 

चाहे कुछ लोग इसे गलत मानते हैं और कहते हैं कि शाहजहां ने इन कारीगरों के हाथ नहीं काटे बल्कि करार करवाया कि वे ऐसी ईमारत कहीं दूसरे स्थान पर नहीं बनाएंगे। इसके बदले उन्हें मुआवजा दिया गया। परंतु यह तर्क देने वाले इसके प्रमाण नहीं दे पा रहे हैं। वे कहते हैं कि हाथ काटने के भी प्रमाण लाओ। हाथ काटने के प्रमाण हैं, हमारी जनश्रुतियों में, आम बातचीत में आने वाली इस घटना के जिक्र में। हमारे पूर्वज बताते रहे हैं इस घटना को। हमसे प्रमाण मांगने वालों को ज्ञात होने चाहिए कि इतिहास लेखन का काम केवल भौतिक प्रमाणों के आधार पर ही नहीं बल्कि जनश्रुतियों के आधार भी होता है और कई बार यह ठोस प्रमाणों से भी अधिक ठोस होता है। भौतिक प्रमाण तो गढ़े भी जा सकते हैं परंतु जनश्रुतियां विशुद्ध सच्चाई पर आधारित होती है। तो क्या ताज के साथ-साथ उन कारीगरों पर हुए अत्याचारों का स्मरण करना सांप्रदायिकता हो गया?
बौद्धिक पक्षपाती बताते हैं कि ताज हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। कोई पूछे भला विदेशी हमलावरों की यादें हमारी संस्कृति का हिस्सा कब से बन गईं? भारत पर हमला करने वाले बाबर, हुमायुं के वंशज भारतीय कैसे हो गए? बाबर से लेकर सभी मुगल शासक आक्रांता थे जिन्होंने हम पर जीत हासिल कर शासन किया और खूब अत्याचार किए। मुगलों, गुलामों, तुर्कों, अरबों के आठ सौ साल के शासन में 80 लाख हिंदू शहीद कर दिए गए। क्या दुनिया में किसी अन्य जाति ने किया इतना बड़ा बलिदान ? क्या दुनिया की किसी अन्य जाति ने लिया इतना बड़ा इम्तिहान? दोनों प्रश्नों का उत्तर है नहीं। यहां यह भी स्पष्ट करने वाली बात है कि मुद्दा सांप्रदायिक नहीं, हिंदू-मुस्लिम का नहीं बल्कि भारतीय व अभारतीया का है। इस देश में रहने वाले मुस्लिम भाई भी विदेशी हमलावरों के वंशज नहीं बल्कि हमारे ही शरीर का अंग हैं। उन्हें जबरन मुस्लिम बनाया या वे इस्लाम से प्रेरणा पा कर बने, इस्लाम उन्हें मुबारक। हम इस्लाम के विरोधी नहीं बल्कि सल्लाह वाले वसल्लम हजरत मोहम्मद साहिब का उतना ही सम्मान करते हैं जितना कि भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण व श्री गुरु नानक देव जी का। देश का संघर्ष विदेशी प्रतीकों, विदेशी मानसिकता, आत्मनिंदा की कुप्रथा, इतिहास के साथ हुई बेईमानी से है, जो मुगलों जैसे अत्याचारियों को हमारे शासक व कल्याणकारी बताती है।

कहते हैं कि ताजमहल, लाल किला, संसद भवन, कुतुबमिनार तोड़ दो। भाई क्यों तोड़ें? यही तो प्रतीक हैं जो हमें याद दिलवाते हैं कि जब-जब हम अलग हुए, जब-जब आपस में लड़े तब-तब इस देश में ताज व लाल किले बनाने वालों का राज आया। जब-जब हमारी राष्ट्रीय चेतना का अवसान हुआ तब-तब श्रीराम जन्मभूमि, काशी विश्वानाथ, मथुरा हमसे छिनी। ये गुलामी के प्रतीक तो हमारे सचेतक व प्रकाशस्तंभ होने चाहिएं जो हमें रास्ता दिखाते रहें कि मुगल, तुर्क, पठान, अंग्रेज आज भी समाप्त नहीं हुए हैं और आज भी तैयार बैठे हैं भारत पर गिद्धदृष्टि डाले हुए। हम एक न हुए, हमारे में राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं हुआ तो हमारी सस्यश्यामला भारत भूमि फिर पट जाएगी इन मुर्दाखोरों से। बाकी बात रही झूठ के इतिहास की तो देर-सवेर इस झूठ के किले का दरकना तो तय है।

- राकेश सैन
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Wednesday, 18 October 2017

ਬੰਦੀਛੋੜ ਦਿਵਸ, ਮੁਕਤੀ ਲਈ ਗੁਰੂ ਦਾ ਪੱਲਾ ਫੜਨ ਦਾ ਸੁਨੇਹਾ

ਅੱਜ ਬੰਦੀ ਛੋੜ ਦਿਵਸ ਹੈ। ਅੱਜ ਦੇ ਦਿਨ ਸਤਗੁਰੂ ਗੁਰੂ ਹਰਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਆਪਣੇ ਹਮਵਤਨੀ ਰਾਜਿਆਂ ਨੂੰ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਮੁਗਲਾਂ ਦੀ ਕੈਦ ਚੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਵਾਇਆ ਸੀ। ਇਹ ਘਟਨਾ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸਿਕ ਮਹੱਤਵ ਤਾਂ ਹੈ ਹੀ ਨਾਲੇ ਇਕ ਸੁਨੇਹਾ ਵੀ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਪੂਰੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨਾਂ ਦਾ ਪੱਲਾ ਫੜੀਏਂ ਤਾਂ ਉਹ ਸਾਨੂੰ ਜਨਮ-ਮਰਨ ਦੇ ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਦਿਲਵਾ ਕੇ ਭਵਸਾਗਰ ਪਾਰ ਲਗਾ ਸਕਦੇ ਹਨ।
ਬੰਦੀ ਛੋੜ ਦਿਵਸ (ਮੁਕਤੀ ਦਾ ਦਿਵਸ) ਅੱਸੂ ਮਹੀਨੇ ਵਿੱਚ ਮਨਾਇਆ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਇੱਕ ਮਹੱਤਵਪੂਰਣ ਤਿਉਹਾਰ ਹੈ। ਅੱਜ ਦੇ ਦਿਨ ਮੀਰੀ-ਪੀਰੀ ਦੇ ਮਾਲਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਗਵਾਲੀਅਰ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿਚੋਂ ਹਮਵਤਨੀ 52 ਰਾਜਿਆਂ ਸਮੇਤ ਰਿਹਾਅ ਹੋ ਕੇ ਸ੍ਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਸਾਹਿਬ ਪਹੁੰਚੇ। ਪੰਜਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੀ ਬੇਮਿਸਾਲ ਤੇ ਸ਼ਾਂਤਮਈ ਸ਼ਹਾਦਤ ਨੇ ਭਾਰਤੀ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਇਕ ਕ੍ਰਾਂਤੀਕਾਰੀ ਮੋੜ ਲੈ ਆਂਦਾ। ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਦੀ ਅਦੁੱਤੀ ਸ਼ਹਾਦਤ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਛੇਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਨੇ ਗੁਰਗੱਦੀ ਦੀ ਪ੍ਰੰਪਰਾਗਤ ਰਸਮ ਨੂੰ ਸਮੇਂ ਦੀ ਲੋੜ ਮੁਤਾਬਿਕ ਬਦਲਿਆ ਅਤੇ ਗੁਰਿਆਈ ਧਾਰਨ ਕਰਦੇ ਸਮੇਂ ਮੀਰੀ ਤੇ ਪੀਰੀ ਦੀਆਂ ਦੋ ਕ੍ਰਿਪਾਨਾਂ ਪਹਿਨੀਆਂ ਅਤੇ ਸ੍ਰੀ ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੀ ਸਿਰਜਣਾ ਕੀਤੀ, ਜਿਥੇ ਦੀਵਾਨ ਸਜਦੇ ਅਤੇ ਗੁਰਬਾਣੀ ਕੀਰਤਨ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਬੀਰਰਸੀ ਵਾਰਾਂ ਵੀ ਗਾਈਆਂ ਜਾਣ ਲੱਗੀਆਂ। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਸਿੱਖ ਸੰਗਤਾਂ ਨੂੰ ਦਰਸ਼ਨਾਂ ਲਈ ਆਉਂਦੇ ਸਮੇਂ ਚੰਗੇ ਨਸਲੀ ਘੋੜੇ ਅਤੇ ਸ਼ਸਤਰ ਲਿਆਉਣ ਦੇ ਆਦੇਸ਼ ਵੀ ਜਾਰੀ ਕੀਤੇ। ਅਣਖੀਲੇ ਗੱਭਰੂਆਂ ਦੀ ਫੌਜ ਤਿਆਰ ਕਰਕੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਜੰਗ ਦੀ ਟ੍ਰੇਨਿੰਗ ਦਿੱਤੀ ਜਾਣ ਲੱਗੀ। ਲੋਹਗੜ੍ਹ ਕਿਲ੍ਹੇ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ। ਗੁਰੂ-ਘਰ ਦੇ ਵਿਰੋਧੀਆਂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਵਿਰੁੱਧ ਜਹਾਂਗੀਰ ਦੇ ਕੰਨ ਭਰਨੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੇ, ਜਿਸ ਦੇ ਫ਼ਲਸਰੂਪ ਛੇਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਬਗ਼ਾਵਤ ਨੂੰ ਸ਼ਹਿ ਦੇਣ ਦੇ ਦੋਸ਼ ਵਿਚ ਗਵਾਲੀਅਰ ਦੇ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿਚ ਨਜ਼ਰਬੰਦ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਪਹੁੰਚਣ ਨਾਲ ਗਵਾਲੀਅਰ ਦੇ ਕਿਲ੍ਹੇ 'ਚ ਦੋਵੇਂ ਵੇਲੇ ਕੀਰਤਨ ਅਤੇ ਸਤਿਸੰਗ ਹੋਣ ਲੱਗਾ। ਉਧਰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਨਜ਼ਰਬੰਦੀ ਲੰਬੀ ਹੋ ਜਾਣ ਕਾਰਨ ਸਿੱਖਾਂ ਵਿਚ ਬੇਚੈਨੀ ਵਧਣ ਲੱਗੀ। ਸਿੱਖ ਸੰਗਤਾਂ ਦਾ ਇਕ ਜਥਾ ਸ੍ਰੀ ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਸਾਹਿਬ ਤੋਂ ਅਰਦਾਸ ਕਰਕੇ ਬਾਬਾ ਬੁੱਢਾ ਜੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਗਵਾਲੀਅਰ ਲਈ ਰਵਾਨਾ ਹੋਇਆ। ਜਦੋਂ ਇਹ ਜਥਾ ਗਵਾਲੀਅਰ ਦੇ ਕਿਲ੍ਹੇ ਪਹੁੰਚਿਆ ਤਾਂ ਸੰਗਤਾਂ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨਾਲ ਮੁਲਾਕਾਤ ਜਾਂ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਨ ਦੀ ਇਜ਼ਾਜ਼ਤ ਨਾ ਮਿਲ ਸਕੀ। ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਾਈ ਮੀਆਂ ਮੀਰ ਵੱਲੋਂ ਗੁਰੂ ਦੀ ਰਿਹਾਈ ਸਬੰਧੀ ਜਹਾਂਗੀਰ ਨਾਲ ਗੱਲਬਾਤ ਨੂੰ ਕਾਮਯਾਬੀ ਮਿਲੀ। ਪਰ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਨੇ ਇਕੱਲਿਆਂ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿਚੋਂ ਰਿਹਾਅ ਹੋਣਾ ਸਵੀਕਾਰ ਨਾ ਕੀਤਾ। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਰਹਿਮਤ ਸਦਕਾ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿਚ ਨਜ਼ਰਬੰਦ 52 ਹਮਵਤਨੀ ਰਾਜਪੂਤ ਰਾਜਿਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਬੰਦੀਖਾਨੇ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਮਿਲੀ। ਇਸ ਦਿਨ ਤੋਂ ਛੇਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਨੂੰ ਬੰਦੀ-ਛੋੜ ਦਾਤਾ ਦੇ ਨਾਂਅ ਨਾਲ ਵੀ ਜਾਣਿਆ ਜਾਣ ਲੱਗਾ। ਰਿਹਾਈ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਸ੍ਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਸਾਹਿਬ ਵਿਖੇ ਪੁੱਜੇ, ਤਾਂ ਉਸ ਦਿਨ ਦੀਵਾਲੀ ਦਾ ਦਿਨ ਸੀ। ਸੰਗਤਾਂ ਨੇ ਘਰਾਂ ਵਿਚ ਘਿਓ ਦੇ ਦੀਵੇ ਜਗਾਏ। ਸ੍ਰੀ ਹਰਿਮੰਦਰ ਸਾਹਿਬ ਵਿਖੇ ਵੀ ਖੁਸ਼ੀ ਵਿਚ ਦੀਪਮਾਲਾ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਦਾ ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਤ੍ਰੇਤਾ ਯੁਗ ਵਿਚ ਅਯੁੱਧਿਆ ਵਾਪਸ ਪਰਤਣ ਤੇ ਭਗਵਾਨ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਦਾ ਅਯੁੱਧਿਆਵਾਸੀਆਂ ਨੇ ਕੀਤਾ।


ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
32 ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਲੋਨੀ,
ਵੀਪੀਓ ਰੰਧਾਵਾ ਮਸੰਦਾ,
ਜਲੰਧਰ।
ਮੋ. 097797-14324

Tuesday, 17 October 2017

जाखड़ साहिब बधाई, पर सोनिया जी से बच कर

सुनील जाखड़ के व्यक्तित्व का सकारात्मक पहलू है उनकी लोकप्रियता। 
अपने इसी गुण के चलते उन्हें कांग्रेस अध्यक्षा (वास्तव में मालकिन) श्रीमती 
सोनिया गांधी से सावधान भी रहना होगा। किसी नेता या जनप्रतिनिधि का 
लोकप्रिय होना अन्य दलों में चाहे उसकी गुण गिना जाए परंतु कांग्रेस में यही 
उसका अवगुण भी बन जाता है। सोनिया गांधी पिछले कई सालों से राहुल गांधी 
नामक ऐसे अंकुर को सींच रही हैं जो लाख प्रयासों के बावजूद वृक्ष बनना तो दूर 
पौध बनने को भी तैयार नहीं। इसी नवअंकुर को पूरी धूप और हवा उपलब्ध 
करवाने के लिए वे आसपास के वट वृक्षों को काटती रही हैं। जिस अध्यापक का
खुद का बच्चा फिसड्डी हो और वह स्वभाविक तौर पर प्रतिभाशाली बच्चों से
ईष्र्या करने लगता है। कांग्रेस अध्यक्षा इसी तरह की अध्यापक हैं। सोनिया 
बिलकुल नहीं चाहती कि कोई लोकप्रिय नेता कांग्रेस में इतना लोकप्रिय हो कि 
वह राहुल बाबा पर हावी हो जाए।
चौधरी सुनील कुमार जाखड़ गुरदासपुर लोकसभा उपचुनाव जीत गए, जीते भी क्या धाकड़। लगभग दो लाख मतों का अंतर। बहुत खुशी हुई, केवल इसलिए नहीं कि वे मेरे गृह नगर के निवासी होने केे  नाते चचेरे भाई हैं बल्कि इसलिए भी कि वे एक कुशल वक्ता, प्रखर विद्वान भी हैं। अपने दिवंगत पिता स्वर्गीय चौधरी बलराम जाखड़ की भांति प्रदेश के साथ-साथ देश-विदेश के मुद्दों पर उनकी गरुड़ सी पकड़ है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष श्री जाखड़ की भांति तर्कसंगत बात करने वाले नेता अंगुलियों पर गिनने जितने ही बचे हैं अन्यथा बाकी सारे तो आम आदमी पार्टी मार्का मेंढक पंचायत के मैंबर लगते हैं।
राष्ट्रीय राजनीति में पंजाब की भूमिका शुरु से ही नगण्य सी रही है। स. प्रकाश सिंह बादल, ज्ञानी जैल सिंह, चौधरी बलराम जाखड़, इंदर कुमार गुजराल जैसे एक आध और नेता कुछ समय के लिए राष्ट्रीय राजनीति में आए तो परंतु बहुत खास नहीं कर पाए। स. बादल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गए जबकि चौधरी बलराम जाखड़ को पहले लोकसभा अध्यक्ष और बाद में गवर्नर बना कर उनको सीमित कर दिया गया। गुजराल साहिब तो यूं भी एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री ही रहे, उनके आए का पता चला न जाने की खबर हुई। ज्ञान जैल सिंह सारी उम्र श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रति कृतज्ञ रहे, कहने का भाव कि राष्ट्रीय राजनीति में पंजाब के नेताओं का लगभग अभाव ही रहा है।
वर्तमान में भी केंद्र में चाहे हरसिमरत कौर बादल कैबिनेट मंत्री, विजय सांपला राज्य मंत्री व 10 अन्य सांसद हैं परंतु किसी में भी राष्ट्रीय दृष्टिकोण व ऐसी नेतृत्व क्षमता नहीं दिखाई देती जो अपेक्षित है। हरसिमरत बादल की योग्यता बादल खानदान की बहु होना है। विजय सांपला इतने अस्तित्वहीन हैं कि उन्हें साढ़े तीन साल बाद भी विश्वास नहीं हो रहा कि वे केंद्रीय मंत्री बन चुके हैं। आम आदमी पार्टी के सांसद राजनीति के लिए कम और अपनी हरकतों के कारण अधिक राष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में रहे। संसद में भी हमारे सभी सांसद प्रदेश की ही राजनीति करते हैं और पंथ, किसान, दरियाई पानी, चंडीगढ़ जैसे मुद्दों से आगे सोच ही नहीं पाते। राष्ट्रीय सोच वाला और देश के मुद्दों पर पंजाब का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई सांसद गुरदासपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम घोषित होने से पहले दिखाई नहीं दे रहा था। कभी किसी ने नहीं देखा कि पंजाब का कोई सांसद लोकसभा या राज्यसभा में राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा में शामिल हुआ हो। यही कारण भी रहा है कि हरित क्रांति की भूमि पंजाब में राष्ट्रीय नेताओं का अकाल ही रहा है। लेकिन श्री जाखड़ पंजाब की इस कमी को पूरा कर सकते हैं और उनमें इसकी योग्यता भी है। श्री जाखड़ आस बंधाते हैं कि वे अपनी योग्यता से राष्ट्रीय राजनीति में पंजाब के योगदान के अकाल को समाप्त करेंगे।
सुनील जाखड़ के व्यक्तित्व का सकारात्मक पहलू है उनकी लोकप्रियता। अपने इसी गुण के चलते उन्हें कांग्रेस अध्यक्षा (वास्तव में मालकिन) श्रीमती सोनिया गांधी से सावधान भी रहना होगा। किसी नेता या जनप्रतिनिधि का लोकप्रिय होना अन्य दलों में चाहे उसकी गुण गिना जाए परंतु कांग्रेस में यही उसका अवगुण भी बन जाता है। सोनिया गांधी पिछले कई सालों से राहुल गांधी नामक ऐसे अंकुर को सींच रही हैं जो लाख प्रयासों के बावजूद वृक्ष बनना तो दूर पौध बनने को भी तैयार नहीं। इसी नवअंकुर को पूरी धूप और हवा उपलब्ध करवाने के लिए वे आसपास के वट वृक्षों को काटती रही हैं। जिस अध्यापक का खुद का बच्चा फिसड्डी हो और वह स्वभाविक तौर पर प्रतिभाशाली बच्चों से ईष्र्या करने लगता है। कांग्रेस अध्यक्षा इसी तरह की अध्यापक हैं। सोनिया बिलकुल नहीं चाहती कि कोई लोकप्रिय नेता कांग्रेस में इतना लोकप्रिय हो कि वह राहुल बाबा पर हावी हो जाए। विश्वास न हो तो पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का ही उदाहरण लें। खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मान चुके हैं कि प्रणव दा उनसे अधिक योग्य थे परंतु सोनिया गांधी ने उन्हें इस पद के लिए चुना। राजनीति में साधारण रुचि लेने वाला भी मानता है कि सोनिया ने यह सब अपने लाडले के लिए किया ताकि उसकी राजनीतिक सोच परिपक्व होते ही लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा लहराने का अधिकार आसानी से उसे सौंप दिया जाए। प्रणव दा जैसे योग्य नेता के प्रधानमंत्री होते यह संभव नहीं हो पाता और मनमोहन तो 'मौनमोहन' थे ही। यह बात अलग रही कि राहुल अभी राहुल बाबा ही बने रहे और मनमोहन सिंह को दो टर्म पूरी करने का अवसर मिल गया।
प्रणव दा ही क्यों शरद पवार, पीए संगमा जैसे लोकप्रिय क्षत्रपों के लिए भी कांग्रेस में इस तरह घुटनभरा महौल पैदा कर दिया कि उन्हें पार्टी छोडऩी पड़ी। आज भी ज्योर्तिदित्य सिंधिया जैसे कई युवा कांग्रेसी हैं जो राहुल गांधी से अधिक योग्य नेता व प्रखर वक्ता हैं परंतु उन्हें कभी आगे आने का अवसर नहीं मिलता। कांग्रेस की नजरों में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता भी खटकती रही है यह किसी से छिपा नहीं। कैप्टन की इसी लोकप्रियता से भयभीत सोनिया गांधी प्रताप सिंह बाजवा को प्रोत्साहन देती रही है। सभी जानते हैं कि कैप्टन को पंजाब कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए उन्हें किस तरह शक्ति प्रदर्शन करना पड़ा और मजबूरन सोनिया गांधी को कैप्टन के आगे हथियार डालने पड़े। कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी तो सभी को याद होंगे, सोनिया विरोध के चलते बेचारे उस गरीब आदमी की पार्थिव देह को कांग्रेस भवन में नहीं प्रवेश करने दिया गया था। जब तक राहुल गांधी की प्लेसमेंट नहीं होती तब तक सोनिया जी शायद ही किसी लोकप्रिय कांग्रेसी नेता को बर्दाश्त करे चाहे इसके लिए पार्टी कितनी भी रसातल में धस जाए। राहुल की निकट भविष्य में दाल गलती खुद सोनिया जी को भी नजर नहीं आरही होगी। जाखड़ साहिब के लिए नई जिम्मेवारी दोधारी तलवार पर चलने जैसी होगी इसमें कोई दो राय नहीं।
- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 97797-14324

कांग्रेस अनंत कलंककथा अनंता

राहुल जी, सोनिया जी, जीजाजी और प्रियंका जी
तुलसी बाबा नहीं रहे, होते तो कांग्रेस पर जरूर लिखते - 'कांग्रेस अनंत कलंककथा अनंता,कहहि सुनहि बहुविधि संता-बंता।' किसी ने संता-बंता नामक ऐसे पात्र गढ़े कि आज मुल्ला नसरूद्दीन से लेकर मुंगेरी लाल तक की घटनााएं विनोदपूर्ण घटनाएं व चुटकले इनके नाम से जोड़ कर पेश किए जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे इसकी टोपी उसके सिर की हर घटना स्वभाविक तौर पर कांग्रेस से चिपक जाती है। जीप घोटाले से लेकर बोफोर्स और 2-जी, 4-जी तक भ्रष्टाचार की परंपरा को ढोती आरही कांग्रेस पार्टी एक बार फिर 'जीजा-जी' के चलते चर्चा में है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जयशाह पर अधपके आरोप लगाने के बाद राहुल गांधी अभी-अभी कुछ बोलना सीखे थे कि उनके 'जीजाजी' ने ही मुंह पर ताला जड़ दिया। ताला भी ऐसा राजपुतानी कि जो खुले ना टूटे। अभी-अभी ताजा खुलासा हुआ है कि सोनिया गांधी जी के जमाता (जंवाई), राहुल गांधी जी के जीजाजी और प्रियंका गांधी जी के भरतार श्रीमान राबर्ट वाड्रा के भगौड़े हथियार व्यवसायी संजय भंडारी के साथ अच्छे खासे लेन देन के रिश्ते थे, ऐसे रिश्ते कि आज पूरी कांग्रेस को लेने के देने पड़ रहे हैं। ठीक ही है कांग्रेस अनंत कलंककथा अनंता।
मीडिया रिपोर्ट अनुसार, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और हथियार डीलर संजय भंडारी के बीच लिंक की खबरें तब से चल रही हैं जब यह बात सामने आई थी कि लंदन स्थित वाड्रा के फ्लैट 12,एलर्टन हाउस का भंडारी ने 2016 में नवीनीकरण कराया था। लेकिन वाड्रा, भंडारी के साथ किसी तरह के वित्तीय लेनदेन से इनकार करते रहे हैं और ऐसा कुछ सामने भी नहीं आया जो दोनों के संबंध की पुष्टि करे। लेकिन हमारे सहयोगी टाइम्स नाउ को ऐसा दस्तावेज मिला है जिससे दोनों के बीच सीधा संबंध जाहिर होता दिख रहा है। चैनल को प्राप्त हुए एक ईमेल के मुताबिक भंडारी के ट्रैवल एजेंट ने वाड्रा के लिए एयर टिकट खरीदे थे। टाइम्स नाउ को अगस्त 2012 में खरीदे गए दो टिकट की कॉपी मिली है। भंडारी के ट्रैवल एजेंट इंटरनैशनल ट्रैवल होम (पहाडग़ंज स्थित) ने भंडारी के ईमेल आईडी पर मेल किया था। इसमें 8 लाख रुपये की कीमत के एमिरेट्स के 13 अगस्त की फ्लाइट का टिकट भी संलग्न था। यह मेल 7 अगस्त, 2012 को भेजा गया था। दूसरा मेल उसी एजेंट द्वारा 17 अगस्त को शाम 4.58 बजे भेजा गया है जिसमें विशाल बाजपेयी ने वाड्रा के लिए स्वीस फ्लाइट (एलएक्स) 563 की टिकट बुक की थी जो नीस से ज्यूरिख के लिए थी। टिकट से पता चलता है कि बिजनस क्लास की विंडो सीट बुक की गई थी। 
अब सवाल यह है कि क्या वाड्रा ने वाकई दौरा किया था और क्या वाड्रा और भगोड़े आम्र्स डीलर के बीच लिंक था? और क्या दोनों के बीच वित्तीय लेनदेन भी होते थे? अगर ऐसा है तब वाड्रा सालों से क्यों इनकार करते आए हैं? आयकर विभाग ने पिछले साल 27 और 30 अप्रैल को भंडारी पर छापा मारा था। भंडारी ने उस वक्त वाड्रा के लिए टिकट बुक कराया था जब स्वीस कंपनी पिलेट्स के लिए जेट ट्रेन डील में उसकी भूमिका को लेकर जांच चल रही थी। इनमें से एक टिकट स्विट्जरलैंड के वाणिज्यिक राजधानी ज्यूरिख के लिए बुक की गई थी। यह बताना जरूरी है कि पिलेट्स डील करने में सफल रहा था, जबकि भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एचएएल ने एचटीटी-40 को अपने कंटेडर के रूप में पेश किया था। एचएएल की बोली को तब के रक्षा मंत्री एके एंटनी का समर्थन प्राप्त था। 
मोदी सरकार भंडारी के प्रत्यर्पण की कोशिश कर रही है। तीन महीने पहले ईडी ने भंडारी की 20 करोड़ की संपत्ति अटैच की थी जिसमें चार लग्जरी कारें भी हैं। उसके खिलाफ ऑफिसल सीक्रेट ऐक्ट के उल्लंघन का भी मामला है। टाइम्स नाउ ने इस वाड्रा को सवाल भेजे हैं, लेकिन रिपोर्ट लिखे जाने तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया है। पिछले साल 17 अक्टूबर को आम्र्स डीलर संजय भंडारी के खिलाफ ऑफिशियल सिक्रेट एक्ट के तहत दिल्ली में केस दर्ज हुआ था। दिल्ली पुलिस की जांच के दौरान संजय भंडारी के डिफेंस कॉलोनी के घर से इसी साल अप्रैल में भारतीय वायुसेना के गोपनीय दस्तावेज मिले। संजय भंडारी फर्जी दस्तावेज के जरिए नेपाल के रास्ते होते हुए लंदन भाग गया। संजय भंडारी ने कबूल कर लिया था कि उनके घर पर छापेमारी के दौरान कंप्यूटर से बरामद ईमेल उनके और रॉबर्ट वाड्रा के बीच साझा किए गए थे। इनमें से कुछ ईमेल भंडारी और वाड्रा के असिस्टेंट मनोज अरोड़ा के बीच भी आदान-प्रदान किए गए थे। संजय भंडारी के ग्रेटर कैलाश स्थित घर पर छापे के दौरान बेहद संवेदनशील दस्तावेज बरामद हुए थे। इन दस्तावेजों में सबसे अहम रक्षा मंत्रालय की गोपनीय मीटिंग्स से जुड़े कागजात थे। छापेमारी में टीम को भविष्य के रक्षा सौदों से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसलों के भी दस्तावेज बरामद हुए थे।
- राकेश सैन
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राजनीतिक हत्याएं,पंजाब बना केरल और लुधियाना कन्नूर

शहीद रविंद्र गोसाईं
17 अक्तूबर को जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह केरल में सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ रक्षा यात्रा का समापन कर रहे थे तो उसी समय पंजाब में एक स्वयंसेवक की गोली मार कर हत्या कर दी गई। दो दशक पहले आतंकवाद का सामना कर चुके देश के सीमावर्ती राज्य में संघ कार्यकर्ता की यह कोई पहली हत्या नहीं। आतंकवाद के दौर के समय मोगा गोलीकांड व राज्य के अनेक हिस्सों में कार्यकर्ताओं की हत्याओं को एक तरफ कर भी दें तो भी संघ व राष्ट्रवादी विचारधार के लिए राज्य की स्थिती भयावह तस्वीर पेश करती है। राज्य में सवा साल में संघ के कार्यकर्ता की यह दूसरी हत्या है और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं की हत्या व रहस्यमयी मौत, नामधारी संप्रदाय की माता चंद कौर को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह आंकड़ा खासी चिंता पैदा करता है और सवाल पैदा करता है कि क्या पंजाब दूसरा केरल बनने की राह पर है? रोचक तथ्य है कि अधिकतर हत्याएं लुधियाना जिले में हुई हैं। जिस तरह केरल का कन्नूर जिला इस तरह की हत्याओं के लिए कुख्यात है उसी तरह पंजाब का लुधियाना जिला भी कन्नूर बनता दिखाई दे रहा है।
पिछले साल अगस्त महीने की 6 तारीख को जालंधर के ज्योति चौक पर अज्ञात हमलावरों ने संघ के पंजाब प्रांत संघचालक ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा को गोलियां मारीं और लगभग एक माह के लंबे संघर्ष के बाद वे चल बसे। पंजाब सरकार ने इस मामले को सीबीआई के सुपुर्द किया परंतु अभी तक हत्यारों का कोई सुराग नहीं लग पाया है। इसी तरह पिछले वर्ष ही लुधियाना की ही एक शाखा पर हमला हो चुका है जिसे पुलिस ने स्थानीय अपराधियों की कार्रवाई बता कर पल्ला झाड़ लिया। इसी साल लुधियाना के जगराओं इलाके में हिंदू तख्त के नेता अमित कुमार की भी हत्या कर दी और इस घटना के हत्यारे भी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। लुधियाना के ही भैणी साहिब में अप्रैल 2016 में अज्ञात हमलावरों ने नामधारी संप्रदाय की धार्मिक हस्ती माता चंद कौर की हत्या कर दी। नामधारी संप्रदाय सदैव आतंकियों व अलगाववादियों के निशाने पर रहा है क्योंकि यह संप्रदाय अपने आप को हिंदू धर्म के नजदीक मानता है और आतंकवाद का विरोध करता आया है। इसी साल जनवरी महीने में लुधियाना में ही हिंदू तख्त के जिला प्रचारक अमित कुमार को अज्ञात हमलावरों ने गोली मार कर शहीद कर दिया। इसी महीने जालंधर में बलर्टन पार्क की शाखा के मुख्य शिक्षक किशोर कुमार को रेलवे लाइनों पर रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत पाया गया और परिवार ने पुलिस उच्चाधिकारियों से मिल कर उसकी हत्या की आशंका जताई है।
सीसीटीवी कैमरे में कैद हत्यारे
इन सभी हत्याओं में बहुत सी समानताएं हैं। पहले तो लगभग सभी हत्याएं बड़ी योजनाबद्ध तरीके से की गई हैं और हत्यारों की शैली भी काफी मिलती जुलती है। जिन लोगों की हत्याएं हुई हैं वे राज्य में आतंकवाद के प्रखर विरोधी व राष्ट्रीय एकता और पंजाब में सांप्रदायिक सौहार्द के समर्थक रहे हैं। हत्यारों के पकड़े जाने तक चाहे कुछ नहीं कहा जा सकता परंतु अनुमान लगाया जा रहा है कि इन हत्याओं के पीछे उन शक्तियों को हाथ हो सकता है जो पंजाब को झुलसते देखना चाहती हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि आतंकवाद समाप्त होने के बावजूद राज्य में आतंक  व आतंकियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग अभी भी हैं। राज्य के मीडिया के एक वर्ग, सोशल मीडिया पर होने वाला विषाक्त प्रचार इसका प्रमाण है कि शरारती तत्व अपना काम जारी रखे हुए हैं। लुधियाना की ही पुलिस ने इसी महीने एक खालिस्तानी आतंकियों के गिरोहा का पर्दाफाश किया जिसमें खुलासा हुआ कि विदेशों में बैठे देशविरोधी तत्व सोशल मीडिया से हमारे युवाओं के भ्रमित कर रहे हैं। फिलहाल रविंद्र गोसाईं की हत्या के पीछे जमीन विवाद होने की आशंका भी जताई जा रही है परंतु यह जानकारी पुष्ट नहीं। लेकिन इस घटना के बाद एक सवाल तो पैदा हो ही गया है कि क्या पंजाब केरल बनने की राह पर अग्रसर है ?                                                                                                                                                                       - राकेश सैन                        

Saturday, 14 October 2017

हिंदुत्व की जड़ें काटती कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी के मंदिरों में तीर्थाटन के नए शौक को देख कर जिनको लगा कि पार्टी अपनी अघोषित हिंदुत्व विरोधी नीति में सुधार करने जा रही है वे तनिक प्रतीक्षा करें। कर्नाटक में घट रहे घटनाक्रम को जानकर उन्हें अपनी राय को फिर से बदलनी पड़ेगी। कर्नाटक में कांग्रेस सत्तारूढ़ है, वहां जल्द विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। हिंदुत्व रूपी गुलदस्ते का खूबसूरत पुष्प लिंगायत समाज भाजपा समर्थक माना जाता है। कांग्रेस इस समाज में फूट डाल कर उसमें अलगाववाद को हवा दे रही है। कांग्रेस के साथ-साथ धर्मांतरण की व्यापारी इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें लिंगायत समाज को भड़का रही हैं कि उनका संप्रदाय हिंदुत्व का हिस्सा नहीं। इससे प्रभावित हो कर लिंगायत समाज के बहुत से लोग अपने संप्रदाय को हिंदुत्व से अलग धर्म घोषित करने की मांग करने लगे हैं और कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इसके लिए कानूनी प्रक्रिया शुरू भी कर दी है।   
विगत दिनों कर्नाटक के सीमावर्ती जिले बीदर में बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ जुटी। बीदर एक तरफ महाराष्ट्र से लगा हुआ है तो दूसरी तरफ तेलंगाना से। कहा जा रहा है कि इस जनसभा में 75,000 लोग आए थे और वे अपने समुदाय के लिए अलग धार्मिक पहचान की मांग लेकर आए थे। लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं। पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी लिंगायतों की मांग का खुलकर समर्थन किया है। सिद्धारमैया सरकार के पांच मंत्री अब इस मसले पर लिंगायतों का पुरोहित वर्ग की सलाह लेने जा रहे हैं और इसके बाद वे मुख्यमंत्री को एक रिपोर्ट भी पेश करेंगे। इसके पीछे विचार ये है कि लिंगायतों को अलग धर्म की मान्यता देने के लिए राज्य सरकार केंद्र सरकार को लिखेगी।
कौन हैं लिंगायत? 
वीरशैव संप्रदाय, या लिंगायत मत, हिन्दुत्व के अंतर्गत दक्षिण भारत में प्रचलित एक मत है। इसके उपासक लिंगायत कहलाते हैं। यह शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है। ये लोग मुख्यत: पंचाचार्यगणों एवं बसव की शिक्षाओं के अनुगामी हैं। 'वीरशैव' का शाब्दिक अर्थ है - 'जो शिव का परम भक्त हो'। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचारनियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों - महाराष्ट्र, आंध्र, तमिल में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में है। शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाजसुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएं विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो वचनकार कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं जिनमें से 30 स्त्रियाँ रही हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम बासव का है जो कल्याण (कर्नाटक) के जैन राजा विज्जल (12वीं शती) के प्रधान मंत्री थे। वह योगी महात्मा ही न थे बल्कि कर्मठ संघटनकर्ता भी थे जिसने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की। वासव का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्रीपुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर का विरोधी था और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देता था। वह मात्र एक ईश्वर की उपासना के समर्थक थे और उन्होंने पूजा तथा ध्यान की पद्धति में सरलता लाने का प्रयत्न किया। जाति भेद की समाप्ति तथा स्त्रियों के उत्थान के कारण समाज में अद्भुत क्रांति उत्पन्न हो गई। ज्ञानयोग भक्तियोग तथा कर्मयोग - तीनों वचनकारों को मान्य हैं किंतु भक्ति पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। वासव के अनुयायियों में बहुत से हरिजन थे और उसने अंतर्जातीय विवाह भी संपन्न कराए।
वीरशैवों का संप्रदाय शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाता है। परम चैतन्य या परम संविद् देश, काल तथा अन्य गुणों से परे है। परा संविद् की शक्ति ही इस विश्व का उत्पादक कारण है। विश्व या संसार मिथ्या नहीं है। एक लंबी और बहुमुखी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बहुरूपधारी संसार की उत्पत्ति होती है। मनुष्य में हम जो कुछ देखते हैं वह विशिष्टीकरण एवं आत्मचेतना का विकास है किंतु यह आत्मचैतन्य ही परम चैतन्य के साथ पुनर्मिलन के प्रयास का प्रेरक कारण है। साधना के परिणाम स्वरूप जब ईश्वर का सच्चा भक्त समाधि की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त होता है तब समरसैक्य की स्थिति अर्थात् ईश्वर के प्रत्येक स्वरूप के साथ पूर्ण एकता की स्थिति उत्पन्न होती है। यही मनुष्य के परमानंद या मोक्ष की स्थिति है। इसे पूर्ण विलयन न मानकर मिलन के परमानंद में बराबरी से हिस्सा ग्रहण करना समझना अधिक अच्छा होगा।
वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे शतस्थल शास्त्र कहते हैं। यह मानव की साधारण चेतना का अंगस्थल के प्रथम प्रक्रम से लिंगस्थल के सर्वोच्च क्रम पर पहुँच जाने की स्थिति का सूचक है। साधना अर्थात् आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है। वीरशैव महात्माओं की कभी कभी शरण या शिवशरण कहते हैं याने ऐसे लोग जिन्होंने शिव की शरण में अपने आपको अर्पित कर दिया है। उनकी साधना शिवयोग कहलाती है।
इसमें संदेह नहीं कि वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र 'ओम् नम: शिवाय' फूँक देता है। प्रत्येक वीरशैव स्नानादि कर हाथ की गदेली पर इष्ट लिंग की प्रतिमा रखकर चिंतन और ध्यान द्वारा आराधना करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक वीरशैव में सत्यपरायणता, अहिंसा, बंधुत्वभाव जैसे उच्च नैतिक गुणों के होने की आशा की जाती है। वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। बासव ने इस संबंध में जो निदेश जारी किए थे, उनका सारांश यह है - चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता के समान समझो।
इन शिक्षाओं से स्पष्ट होता है कि लिंगायत समाज किसी भी दृष्टि से हिंदुत्व से अलग नहीं है। अलगाववादी तर्क देते हैं कि लिंगायत वैदिक संस्कृति में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि हिंदुत्व में इसकी बाध्यता भी नहीं है। यहां तक कि चार्वाक जैसे ऋषि तो वेदों को आलोचक तक रहे हैं परंतु हिंदुत्व उन्हें ऋषि की उपाधि प्रदान करता है। लिंगायत समाज के हिंदुत्व से अलग होने के कोई तर्क नहीं बल्कि केवल राजनीतिक चालबाजियां व हिंदुत्व को कमजोर करने की कवायद है जो कांग्रेस, इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें मिल कर इनको अंजाम दे रही है। देश में चल रही अल्पसंख्यकवाद की राजनीति ने पहले सिख पंथ, बौद्ध संप्रदाय व जैन समाज को हिंदुत्व की मुख्यधारा से अलग किया और अब लिंगायत समाज का विच्छेद करने का प्रयास हो रहा है।

राकेश सैन
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Friday, 13 October 2017

शुचिता का पर्व दीपावली

पांच पर्वों का समूह दीपावली अपने साथ संदेश भी बहुपक्षीय लेकर आती है। इसके सांस्कृति, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत पक्ष होने के साथ-साथ सामाजिक सरोकार भी इसके साथ जुड़े हैं। समुद्रमंथन के समय लक्ष्मी जी की उत्पति से लेकर भगवान श्रीराम के अयोध्या वापिस लौटने, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा मुगलों की कैद से अपने देश के राजाओं को मुक्ति दिलवाने जैसी अनेक एतिहासिक व पौराणिक घटनाओं से जुड़ा यह पर्व जीवन के हर पक्ष में शुचिता का संदेश भी लेकर आता है। 

वेद से वेदान्त, श्रुति से स्मृति, शास्त्र से महाकाव्य तक भारतीय संस्कृति में शुचिता को केवल धर्म का आधार ही नहीं, धर्म ही माना गया है। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। मनुस्मृति में मनु ने धर्म के दस अंग बताये है। वे कहते हैं- धृति क्षमा दम अस्तेय शौच इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण है। शुचिता केवल भौतिक जीवन के लिए ही नहीं आध्यात्मिक और मानसिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य है। इसलिए मनु ने अपने धर्म के 10 लक्षणों में शौच को स्थान दिया है। इसी प्रकार दर्शन के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अष्टांगिक योग के निरूपण में दूसरे चरण यानि नियम में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान  में शौच को महत्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया है कि शुचिता एक समग्र-साधना है जिसे हम 'अन्त:शुद्धि' और 'बहिर्शुद्धि' दोनों को समेट लेती है। शरीर एवं मन का परस्पर संयोग आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के लिए हमें शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की संगति बैठानी होगी।
आज देश में स्वच्छता की जोरों से चर्चा की जा रही है तो दीपावली अवसर है कि
हम अपने जीवन में स्वच्छता को केवल बाहरी क्रियाकलापों तक सीमित न रखें
बल्कि अपने धर्मग्रंथों के निर्देशानुसार इसको समग्र रूप से धारण करें।
मनुष्य शरीर की रचना पंच-तत्व से हुई है। साथ-साथ इसका परिपालन भी होता है। अत: इन पर ध्यान रखना आवश्यक है जो व्यक्ति प्रकृतिक वातावरण में ज्यादा रहेगा, उसे प्रकृति का आशीर्वाद भी अधिक प्राप्त होगा। जब शरीर संपोषित एवं स्वस्थ रहेगा, उसकी मानसिक साधना भी अच्छी रहेगी। जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उसी प्रकार मन की एकाग्रता आदि के लिए सुन्दर स्वास्थ्य भी जरूरी है। जो व्यक्ति मन में रोग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि को पालेगा तो वह मानसिक रूप से अस्थिर रहेगा। अत: शारीरिक स्वास्थ्य के साथ अन्त:करण की शुद्धि आवश्यक है। वर्तमान में वैश्विक खतरा पर्यावरण के बढ़ते प्रदूषण से है। प्रकृति अपनी सीमाओं में मानव जाति का पोषण करती है इसलिए उसका असीमित भोग या शमन नहीं कर सकते। पर्यावरण की शुचिता भी हमें बनाए रखनी होगी और इसके साथ-साथ जीवन में ईमानदारी के गुण का भी समावेश करना होगा। मनु कहते हैं -

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स: शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:॥

सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है। मात्र मिट्टी एवं पानी के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता। मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं। एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं। उक्त नीति वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है। ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्त्व की बात है धन संबंधी शुचिता। वही व्यक्ति वस्तुत: शुद्धिप्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो। जिसने धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धनसंग्रह न किया हो।

क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिण:।
प्रछन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमा:॥

विद्वजन क्षमा से और अकरणीय कार्य कर चुके व्यक्ति दान से शुद्ध होते हैं। छिपे तौर पर पापकर्म कर चुके व्यक्ति की शुद्धि मंत्रों के जप से एवं वेदाध्ययनरतों का तप से संभव होती है। क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता समाप्त कर देते हैं। इनसे मुक्त होने पर ही विद्वद्गण की शुद्धि कही जाएगी। क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्धि प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है। धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करने वाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जाप शुद्धि के साधन होते हैं और वेदपाठ जैसे कार्य में लगे व्यक्ति के दोषों के मुक्ति का मार्ग तप में निहित रहता है। इन सब बातों में प्रायश्चित्त की भावना का होना आवश्यक है। 

अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मन: सत्येन शुद्धयति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्र्ञानेन शुद्धयति॥

शरीर की शुद्धि जल से होती है। मन की शुद्धि सत्य भाषण से होती है। जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है। मन में सद्विचार पालने और सत्य का उद्घाटन करके मनुष्य मानसिक शुचिता प्राप्त करता है। सफल परलोक पाने के लिए जीवात्मा को शौचशील होना चाहिए और उसकी शुचिता विद्यार्जन एवं तपश्चर्या से संभव होती है। व्यक्ति की बुद्धि उचित अथवा अनुचित, दोनों ही, मार्गों पर अग्रसर हो सकती है। समुचित ज्ञान द्वारा मनुष्य सही दिशा में अपनी बुद्धि लगा सकता है। यही उसकी शुचिता का अर्थ लिया जाना चाहिए है। आज देश में स्वच्छता की जोरों से चर्चा की जा रही है तो दीपावली अवसर है कि हम अपने जीवन में स्वच्छता को केवल बाहरी क्रियाकलापों तक सीमित न रखें बल्कि अपने धर्मग्रंथों के निर्देशानुसार इसको समग्र रूप से धारण करें।
- राकेश सैन
३२, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
मो. 097797-14324



Wednesday, 11 October 2017

चोर मोरियों की विरासत

कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा की सरकार 2014 में विदा हो चुकी है परंतु देश न जाने और कितनी चोर मोरियों की विरासत भुगतने को अभिशप्त है। देश में लगभग चार करोड़ जाली राशन कार्ड, करोड़ों की संख्या में ही सब्सिडी वाले फर्जी घरेलु गैस कनेक्शन, सस्ती यूरिया के नाम पर लूट को बंद करने के बाद अब केंद्र सरकार ने रेलवे में 30,000 ऐसे ट्रैकमैनों की ड्यूटी पर वापसी की है जो वेतन तो रेलवे का लेते परंतु अफसरों के घरों में घरेलू नौकरों का काम करते थे। वे ट्रैक मैन जिन पर रेल पटरियों की सुरक्षा से लेकर रखरखाव तक का जिम्मा था, अपना काम छोड़ कर अफसरों के घरों में झाड़ू-पौंछा लगा रहे थे। रेल गाडिय़ां पटरी से उतर रही थीं और कोसा सरकारों को जा रहा था। रेल मंत्री पियूष गोयल ने वीआईपी संस्कृति समाप्त करने व चोर मोरी बंद करने की दिशा में जो पहल की है वह सराहनीय है।

एक ट्रैक मैन जिसका औसत वेतन 10000 रूपये भी लगाया जाए तो देश की अर्थव्यवस्था पर हर माह 30,000,00,00 रूपये की चपत लग रही थी और रेल दुर्घटनाएं घट रही थीं वह अलग। प्रश्न उठता है कि आज तक किसी सरकार ने इस तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया। क्यों यात्रियों की सुरक्षा को ताक पर रखा जाता रहा। इसका साधारण सा जवाब है कि इस तरह के सख्त कदमों के लिए जरूरत पड़ती है दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति व सख्त फैसले करने की क्षमता की जो विगत की सरदार मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रीत्व वाली सरकारों में नहीं दिखीं। भ्रष्टाचार की तरह वीआईपी संस्कृति भी देश की जड़ों को घुन की तरह चाट रही है। इसका ज्वलंत उदाहरण यह 30 हजार ट्रैक मैन ही हैं जो अपनी ड्यूटी की बजाय अफसरों की चंपी करने को मजबूर किए जाते रहे। प्रश्न था कि मजबूत अफसरशाही से पंगा कौन ले, यह काम 56 इंच के सीने वाली सरकारें ही कर सकती हैं जो अब कर दिखाया गया है।

विलंब से ही सही, रेलवे मंत्रालय ने अगर वीआइपी संस्कृति को समाप्त करने की दिशा में पहल की है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। रेलमंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि नए आदेश के मुताबिक रेलवे बोर्ड के सदस्यों से लेकर विभिन्न जोन के महाप्रबंधक और सभी पचास मंडलों के प्रबंधक भी अब अपनी सरकारी यात्राएं स्लीपर और एसी-थर्ड श्रेणियों में करेंगे। इसके अलावा रेलवे के बड़े अधिकारियों के बंगलों पर घरेलू नौकरों की तरह काम करने वाले ट्रैकमैन जैसे रेलवेकर्मियों को तुरंत वहां से मुक्त कर उनकी वास्तविक ड््यूटी पर भेजा जाएगा। सचमुच यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि तीस हजार ट्रैकमैन बरसों से अधिकारियों के घरों पर घरेलू नौकरों की तरह काम रहे हैं, जबकि उनका वेतन विभाग से दिया जा रहा। मंत्रालय ने अपूर्व कदम उठाते हुए छत्तीस साल पुराने एक प्रोटोकॉल नियम को भी समाप्त कर दिया है, जिसमें महाप्रबंधकों के लिए अनिवार्य था कि वे रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष और सदस्यों की क्षेत्रीय यात्राओं के दौरान उनके आगमन और प्रस्थान के समय मौजूद रहेंगे। यह फैसला रेलवे बोर्ड ने खुद किया है। 1981 में बनाए गए इस प्रोटोकॉल को रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष अश्विनी महाजन ने समाप्त करने का एलान किया। उन्होंने यह निर्देश भी दिया है कि किसी भी अधिकारी को कोई गुलदस्ता या उपहार नहीं भेंट किया जाएगा।

वीआइपी संस्कृति को खत्म करने को जुमले की तरह इस्तेमाल किया आम आदमी पार्टी ने, जब पहली बार उसे दिसंबर 2013 में दिल्ली में अपनी सरकार बनाने का मौका मिला था। इसके बाद पूरे देश में इस पर बहस तेज हुई। हालांकि सिर्फ गाडिय़ों से लालबत्ती उतारने तक इस मुद््दे को सीमित नहीं किया जा सकता। इस साल अप्रैल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' संबोधन में कहा था कि सारे देश में वीआइपी संस्कृति के प्रति रोष है; कि वीआइपी (वेरी इंपोर्टेंट पर्सन) संस्कृति को इपीआइ (एवरी पर्सन इंपोर्टेंट) संस्कृति से बेदखल करना होगा। हर व्यक्ति का मूल्य और महत्त्व है। रेलवे मंत्रालय का ताजा आदेश प्रधानमंत्री के उस संदेश को ही आगे बढ़ाने की कोशिश है। जाहिर है, मकसद नेक है। लेकिन असल मुश्किल पेश आती है इसे लागू करने में। लोग अपने अनुभव से जानते हैं कि ऐसी भली-भली योजनाओं का क्या हश्र होता रहा है? हर मंत्रालय और विभाग में लिखा रहता है कि रिश्वत लेना और देना गैरकानूनी है, या कोई सरकारी या निजी व्यक्ति किसी के तबादले को लेकर बातचीत नहीं करेगा। लेकिन स्वयं मंत्रीगण इस पर कितना अमल करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।स्लीपर या एसी-थर्ड में रेलवे के कितने आला अफसर यात्रा करेंगे, कहना बड़ा कठिन है। वे यात्रा कर रहे हैं या नहीं, इसकी निगरानी कौन करेगा? जहां सौ-दो सौ रुपए लेकर टीटीइ बर्थ बेचते हों, वहां वे अपने अधिकारियों के लिए क्या-क्या व्यवस्था नहीं कर देंगे। इसलिए रेलवे के इन आदेशों को लेकर तभी कोई आश्वस्ति हो सकती है, जब इसे कार्यरूप में परिणत होते देखा जा सकेगा। वीआईपी संस्कृति व चोर मोरियां तभी बंद होंगी जब पूरी भ्रष्ट व्यवस्था की निरंतर निगरानी होनी शुरू होगी।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Tuesday, 10 October 2017

आतिशबाजी पर अन्याय सरीखा न्याय

हर त्यौहार तनाव में ही क्यों मनने लगे हैं? क्या ये सांप्रदायिक या पर्यावरणीय खतरे हैं या आतंकवाद को न्यौता या नए परीक्षणों के अवसर हैं ? अगर ऐसा नहीं है तो फिर हर त्यौहार से पहले हाई अलर्ट क्यों जारी करने पड़ते हैं? क्यों हर साल दुर्गा पूजा पर रोक लगा कर देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बचाने का दिखावा होता है। अब तो देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अन्याय सरीखा फैसला लेते हुए दिवाली को भी परीक्षण का अवसर बना दिया। देश को बताया गया कि न्यायालय देखना चाहता है कि दीपावली के दिन दिल्ली क्षेत्र में आतिशबाजी पर रोक लगाने से कितना प्रदूषण कम होगा। शायद यह पहला अवसर है जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह लोगों को भावनात्मक पीड़ा पहुंचाने के साथ-साथ संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकारों व धरातल की वास्तविकताओं की अनदेखी की गई।
देश में हर उत्सव व परिवारिक खुशियां भी पटाखे फोड़ कर मनाई जाती हैं। घर में बच्चे का जन्म हो या विवाह या फिर नए साल का आगमन, यहां तक कि टीम इंडिया कोई मैच भी जीतती है तो खूब बम फूटते हैं परंतु सामान्य चर्चाओं में प्रदूषण का ठीकरा अकेले दिवाली के सिर फूटता है। ठीक उसी तरह जैसे कि हर बार यह साबित किया जाता है कि देश में जलसंकट के लिए केवल होली ही जिम्मेवार है। न्यायालय ने भी संविधान की भावनाओं व धरातल की वास्तविकताओं की अनदेखी कर इन्हीं चर्चाओं में से प्रभावित होकर अपना फैसला सुना दिया लगता है। अगर न्यायालय केवल एक समय सीमा के लिए नहीं बल्कि आतिशबाजी पर ही पूरी तरह प्रतिबंध लगा देता तो उसकी पर्यावरणीय चिंता समझ में आती थी कि चलो न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी परंतु जिस तरीके से दिवाली को परीक्षण के लिए चुना गया वह सामान्य नागरिकों के मन में यह सवाल खड़ा करता है कि संविधान में मिली धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन अगर न्यायालय में होता दिखेगा तो न्याय की आस किससे की जाए? दिवाली देश का सबसे बड़ा धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है अगर इस मौके पर आतिशबाजी न की जाए तो त्यौहार की रंग फीका पड़ेगा ही।
इस मुद्दे पर जिस तरह से मीडिया व सोशल मीडिया में बहस छिड़ी है उससे लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अकारण ही सांप्रदायिकता की लकीरें खींच दी हैं। लोगों का पूछना स्वभाविक है क्या न्यायालय क्रिसमस और नववर्ष के मौके पर भी आतिशबाजी रोकेगा और बकरीद के मौके पर देश की नदियों को मासूम जानवरों के खून से लाल होने से बचाएगा? क्या सर्वोच्च न्यायालय के पास देशवासियों के इन प्रश्नों का उत्तर है? लोगों का पूछना और भी स्वभाविक हो जाता है जब न्यायालय नवंबर 2016 में आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाता है और उसे 22 सितंबर 2017 में रियायत देते हुए दिल्ली एनसीआर में एक्सपलोसिव एक्ट के तहत पटाखे बेचने के 2500 लाइसेंस जारी करता है। लाइसेंस जारी होने के बाद व्यापारी व छोटे दुकानदार सरकारी आंकड़ों के अनुसार 10 हजार करोड़ की कीमत के 50 लाख किलोग्राम पटाखे अपने यहां स्टोर करते हैं। 9 अक्तूबर को उन्हें अचानक फैसला सुनाया जाता है कि दिल्ली एनसीआर में पटाखे बेचने पर रोक लगा दी गई है। यह रोक भी केवल 1 नवंबर तक रहेगी। अर्थात दीपावली गुजर जाने के तुरंत बाद कभी भी आतिशबाजी की जा सकेगी।
आदेश जारी करने में इतनी जल्दबाजी दिखाई गई कि किसी पक्ष से विचार विमर्श नहीं किया गया और न ही व्यापारियों की सुनी गई। न्यायालय के जिस आदेश से 2500 व्यापारियों ने लाइसेंस लिए वे इस आदेश से एक झटके में अपराधी बन गए। उनके गोदाम अवैध हो गए। अब वे वैध रूप से अपने स्टॉक को दूसरी जगह स्थानांतरित भी नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करते समय पुलिस नाकों पर पकड़े जाने व कानूनी कार्रवाई होने का भय होगा। कहने का भाव कि अदालत ने व्यापारियों के गोदाम अवैध, उनका व्यापार अवैध, स्टाक की ढोआढुआई अवैध कर दी। भ्रष्ट प्रशासन को पूरी छूट दे दी कि वह कभी भी व्यापारियों के गिरेबां में हाथ डाल सके। इस आदेश में रोचक बात यह भी है कि रोक केवल पटाखे बेचने पर है, चलाने पर नहीं अर्थात कोई दिल्ली एनसीआर से बाहर से पटाखे खरीद कर दिल्ली क्षेत्र में चला सकता है। पर्यावरण के प्रति यह कैसी हास्यास्पद चिंता है अदालत की।
अदालतें या कोई भी पक्ष पर्यावरण की चिंता करता है तो इससे किसी को कोई एतराज नहीं है। दिल्ली केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की प्रदूषित राजधानी बन चुका है। इस बात में भी कोई दो राय नहीं कि दिवाली के दिन यह प्रदूषण कई गुणा बढ़ जाता है जो न केवल मरीजों बल्कि सामान्य नागरिकों के लिए घातक है। इसी के चलते दिल्ली दुनिया में दुर्भाग्यवश कुख्यात भी हो चुकी है। तभी तो अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तीन दिन के लिए दिल्ली आते हैं तो विश्व मीडिया रिपोर्ट करता है कि इन तीन दिनों में उनकी आयु 6 घंटे कम हो गई। आतिशबाजी से निकलने वाला विषाक्त धुआं न केवल आवासीय क्षेत्रों को बल्कि पूरे पर्यावरण को दूषित करता है और कार्बन तत्वों में वृद्धि करता है जो वर्तमान में विश्व की सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन की समस्या को बढ़ाती है। इससे निकलने वाली कानफोड़ आवाज ध्वनि प्रदूषण का कारण बनती है जो हृदयरोगियों के  लिए प्राणघातक है। प्रदूषण की कोई भी संजीदा व्यक्ति वकालत नहीं कर सकता लेकिन पर्यावरणीय चिंता यूं पक्षपाती व मनमानी नहीं होनी चाहिए। समाज के किसी वर्ग को यह नहीं लगना चाहिए कि उसे लक्ष्य कर कोई निर्णय लिया जा रहा है।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...