Thursday, 28 December 2017

तीन तलाक कानून-नारी सम्मान का मोर्चा जीते, पर रण जारी

तीन तलाक विधेयक पारित हो गया, सदियों से नारी सम्मान के लिए चल रहे संघर्ष की गौरवशाली विजय के क्षण हैं। एतिहासिक जीत है और जीत का उल्लास भी लेकिन जीते मोर्चा हैं, रण नहीं। मौका हथियार अभी संभाल कर रखने का नहीं, सान पर चढ़ाने का है, जख्मों पर क्षणिक मरहम लगाने का है। मोर्चा जीत गए पर समर जारी है। तब तक रणचंडिका को जगाए रखना होगा, समरभूमि को सजाए रखना होगा जब तक अंतिम विजय न हासिल हो। जब तक भारतीय समाज में महिला को वह सम्मानजनक स्थित हासिल न हो जाए जिसके लिए पूरी दुुनिया में वह विख्यात रहा है और महर्षि मनु ने जिसको 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' और विश्वगुरु बाबा नानक ने 'सो किउ मंदा आखीऐ जितु जमहि राजान' के शब्दों में रुपांतरित किया है।

इस सफलता के बावजूद महिलाओं के सम्मान व समानता की लड़ाई पर पूर्ण विराम नहीं लगा है। हम सभी जानते हैं कि आज मादा भ्रूण हत्या के रूप में एक ऐसी सामाजिक सुरसा राक्षसी समाज के सामने मुंह बाए खड़ी है जो जितना समाधान करो उससे बड़ा रूप धारण कर लेती है। बच्चियों को जन्म से पहले मारा जा रहा है। हजारों तरह के प्रयासों व कानून के बावजूद यह समस्या थमने का नाम नहीं लेती।  सौभाग्यशाली बच्चियां जन्म भी ले लेती हैं तो आज भी समाज के बहुत बड़े हिस्से में उसके साथ भेदभाव किया जाता है। उसे लड़कों के बराबर शिक्षा सहित वह अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाई जाती जिसकी उसे भविष्य में पुरुष से अधिक आवश्यकता पडऩे वाली है। हमारी बच्चियां, महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं। शादी के समय दहेज की समस्या उसको पुरुष के मुकाबले कमतर होने का एहसास करवाती है। शादी के बाद बेटा पैदा न हो तो सारा दोष उसी का, बेटियां ज्यादा हो जाएं तो वही कसूरवार। औलाद न हो तो वह कुलघातिनी, आखिर सभी दोष क्या महिलाओं के लिए बने हैं? अगर यह अपराध है तो कोई इनके लिए पुरुषों से जवाबतलबी क्यों नहीं करता? 

कितने दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 सालों बाद भी पर्दा प्रथा जैसी बुराई का उन्मूलन नहीं हो पाया है। घर हो या बाजार, दफ्तर हो या दुकान महिला का शोषण होता है, उसे पुरुष के मुकाबले कम मजदूरी मिलती है। हलाला और चार विवाह अभी अगले मोर्चे हैं जिनको सर करना होगा। कितनी शर्मनाक प्रथा है हलाला कि अगर कोई तलाकशुदा पत्नी दोबारा अपने पति के साथ रहना चाहे तो उसे एक रात किसी गैरमर्द के साथ बितानी पड़ती है और अगले दिन उसे तलाक देकर फिर अपने पहले पति के साथ रहने का अधिकार मिलता है। सीधा-सीधा वेश्यावृति जैसा अपराध लगती है यह कुप्रथा।

उक्त कुप्रथाएं या कह लें कि इनमें से कुछ तत्कालीक व्यवस्थाएं जो आज कालबह्य हो चुकी हैं इनको ढोते रहना समझदारी नहीं हैं। जैसे पर्दा प्रथा को ही लें, भारतीय संस्कृति में इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। हमारी संस्कृति में महिलाओं को पूर्णत: स्वतंत्रता है। मैत्रयी, गार्गी, उपला, घोषा जैसी सैंकड़ों महर्षि व विदुषियां हुई हैं जो सार्वजनिक रूप से विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करती थीं, जिनके ऋचाएं आज भी वेदों-उपनिषदों में विद्यमान हैं। स्वयंवर व्यवस्था बताती है कि युवतियों को अपना पति चुनने की पूर्णत: स्वतंत्रता थी, कोई उस पर जबरदस्ती नहीं कर सकता था। हमारे परिवार मातृ प्रधान रहे हैं और आज भी निमंत्रणपत्रों में पुरुषों से पहले महिला को संबोधित करते हुए नाम लिखा जाता है। पांडवों को माता कुंती व माद्री के नाम से भी जाना जाता है। महिला को बेटी, बहन, माँ तीनों रूपों में लक्ष्मी के रूप में देखा जाता है।

लेकिन सवाल यह भी पैदा होता है कि इतना सबकुछ होते हुए महिला की आज दुर्दशा क्यों, इतनी लैंगिक असमानता क्यों? तो इनके जवाब जानने के लिए हमें इतिहास के पृष्ठों को खंगालना होगा। पर्दा प्रथा की सामाजिक बुराई हमारे समाज में विदेशियों की देन है। अरब, अफगान, तुर्क, मुगल आदि हमलावर हमारे देश में आए जो सांस्कृतिक रूप से हमसे भिन्न थे। उनके समाज में आज भी बुर्के के रूप में पर्दा प्रथा की बुराई गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। कई इस्लामिक देशों में तो इसके लिए महिलाओं को कोड़े तक पडऩे के समाचार हम अकसर सुनते हैं। इन आदिम जातियों की संगत का बुरा असर हमारे समाज पर भी पडऩा आवश्यक था और पड़ा भी। दूसरी ओर कहा जाता है कि विदेशी शासक हमारी बहन-बेटियों की तरफ बुरी नजरों से देखते थे। उस समय हमारी स्थिति ऐसी नहीं रही होगी कि हम इसका कड़ा प्रतिकार कर सकें और हमारे पूर्वजों ने महिलाओं को इसी बुरी नजरों से बचाने के लिए पर्दे का सहारा लिया होगा। कारण कुछ भी हो हमारे भारतीय समाज में आज भी पर्दा प्रथा एक शूल की भांति गड़ी हुई है जिसे हमें उखाड़ फेंकना होगा। हमें समझना होगा कि देश में विदेशी शासकों का दौर समाप्त हो चुका तो उस समय अपनी सुरक्षा के लिए अपनाए गए तत्कालीक उपायों को हम आज क्यों ढोएं?

हमें अपनी पीढ़ी को नारी समानता व सम्मान का पाठ पढ़ाना होगा, उन्हें बताना होगा कि किस तरह हमारी संस्कृति में महिला को सम्मानजनक स्थान दिया गया है। स्वामी विवेकानंद जी कहते थे कि किसी समाज को सभ्य होने के स्तर को नापने का एक यही तरीका है कि उसकी महिलाओं की स्थिति को देख लेना चाहिएं। जिस समाज में महिला अधिक सुरक्षित, सम्मानित, स्वतंत्र, शिक्षित होगी वह समाज उतना ही सभ्य कहाएगा और उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ेगा। माना कि रास्ता अभी बहुत लंबा है, बहुत दूर जाना है परंतु तीन तलाक को प्रतिबंधित करती कानून बनने की खबर यह संकेत अवश्य देती है कि हम सही मार्ग पर चल रहे हैं। जब तक मंजिल नहीं मिलती सफर और अंतिम विजय तक संघर्ष जारी रहे।
- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

तीन तलाक पर तुष्टिकरण, छुटती नहीं मुंह से लगी हुई

नहीं छुटती, जिसको आदत लगी हो बिल्कुल नहीं जाती सुबह कसम खाते हैं और सूरज ढलते ही फिर न आने की कसम खा कर मदिरालय पहुंच जाते हैं। चाहे सौ बार मंदिर जाओ, महादेव के भक्त बनो और कोट पर डाला जनेऊ दिखाओ कांग्रेस की जन्मजात आदत है मुस्लिम तुष्टिकरण की, नहीं छुटती। अपनी सरकार के कार्यकाल में शाहबानो केस दौरान कानून बना कर कठमुल्लाओं को प्रसन्न करने वाली कांग्रेस वर्तमान में तरह-तरह के बहाने बना कर तीन तलाक पर आए विधेयक का विरोध कर रही है और बाकी छद्म सैक्यूलर उसका साथ दे रहे हैं। सेक्युलरों की नजरें कहीं व निशाना कहीं है, तर्क कुछ करते हैं और वास्तव में कानून का विरोध कर मुस्लिम कट्टरपंथियों को प्रसन्न करने का प्रयास कर रहे हैं। महान शायर जोक का शेयर फिर इन पर सही बैठता दिखता है कि छुटती नहीं मुंह से काफिर लगी हुई।
अगस्त में तीन तलाक के खिलाफ आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का सभी दलों ने स्वागत किया। इस दिशा में कानून बने वह इस फैसले का एच्छिक पहलु था क्योंकि माना गया कि न्यायालय द्वारा तीन तलाक को अवैध घोषित किए जाने के बाद नए विधेयक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उस समय सेक्युलरों ने सरकार को ताना भी मारा था कि भाजपा मुस्लिम महिलाओं की सच्ची हमदर्द है तो इस मुद्दे पर संसद में विधेयक लाए, वे समर्थन करेंगे। तर्क दिया गया कि तीन तलाक पर कानून बनाना ही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की तार्किक परिणति होगी; कानून नहीं बना तो फैसला व्यवहार में बेमानी हो जाएगा। कानून बनाना फैसले को अमली रूप देने के लिए तो जरूरी है ही, इस तथ्य के मद््देनजर भी जरूरी है कि अदालती फैसले के बाद भी तीन तलाक प्रथा से कोई सठसठ मामले सामने आए। नरेंद्र मोदी सरकार ने जरूरत समझते हुए इस मुद्दे पर कानून बनाने का फैसला लिया जिसका खुलसा उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी किया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में पांच सदस्यीय मंत्रीसमूह ने दो माह के परिश्रम के बाद अब नए कानून का प्रारूप तैयार किया है जिसे सांसदों को पढऩे के लिए दिया जा चुका है। सेक्युलर दल अब अपनी अपनी सुविधा व तुष्टिकरण की पुरानी नीति के चलते तरह-तरह के तर्क दे कर इसका विरोध करते नजर आरहे हैं। इनका पूरा प्रयास है कि इस विधेयक को रोकना तो चाहे संभव नहीं परंतु जितना हो लटकाया जाए। ताकि मुस्लिम कट्टरपंथियों में संदेश जाए कि वे ही उनके सच्चे हिमायती हैं। बता दें कि कि प्रस्तावित कानून ने तुरंत तीन तलाक को अपराध ठहराया है और अपराध करने वाले को तीन साल की जेल व जुर्माना भी हो सकता है। कानून बन जाने पर पीडि़ता को मजिस्ट्रेट से अपील करने और अपने तथा अपने बच्चों के लिए गुजारा-खर्च पाने का अधिकार होगा।
तुरंत तीन तलाक या 'तलाक-ए-बिद््दत' दशकों से काफी विवादास्पद मसला रहा है। इस पर सुनवाई करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में भी सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई मुस्लिम संगठन इसका विरोध कर रहे हैं और विरोध के इन स्वरों को अपरोक्ष समर्थन मिलता दिख रहा है देश के कथित सैक्युलर दलों का। कांग्रेस का कहना है कि वह अन्य दलों के साथ मिलकर एक बार फिर से इस बिल के प्रारूप को देखना चाहती है। पार्टी प्रवक्ता और सांसद अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि वे तीन तलाक को अपराध साबित करने वाले इस बिल पर पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा, यह देखना होगा कि सरकार अदालत के निर्णय के आधार पर ही इस बिल को पेश करे अन्यथा विरोध करेंगे। तुष्टिकरण की दूसरी झंडाबरदार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के सांसद मोहम्मद सलीम ने कहा है कि जब अदालत तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा चुकी है तो इस पर अलग से विधेयक की आवश्यकता नहीं है। तलाक को आपराधिक श्रेणी में नहीं डालना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने भी तीन तलाक पर प्रस्तावित बिल का विरोध किया है। तर्क दिया जाने लगा है कि जब तक एक से ज़्यादा विवाह करने की प्रथा को अवैध नहीं किया जाता तो पुरुष तलाकदिए बिना वही रास्ता अपनाने लगेंगे। प्रश्न उठाए जा रहे हैं कि देश में केवल मुस्लिमों को ही तलाक देने पर सजा मिलेगी, हिंदू व इसाईयों को नहीं। एक साथ तीन तलाक देने पर 3 साल की सजा होगी जो देशद्रोह व भ्रष्टाचार जैसे संगीन अपराधों के लिए तय है। यह भी कहा जा रहा है कि यह कानून धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। देश में जब अपराधिक न्यायिक संहिता (सीआरपीसी), घरेलु हिंसा विधेयक, क्रूरता विरोधी नियम हैं तो तीन तलाक पर कानून की क्या आवश्यकता है? मुस्लिम ला बोर्ड तर्क दे रहा है कि इस्लाम में विवाह सामाजिक विषय है और इस पर दिवानी मुकद्दमे (सिविल केस) ही चलते हैं न कि अपराधिक याने क्रिमिनल।
प्रथमदृष्टया बड़े तर्कसंगत लगते हैं इस तरह के प्रश्न परंतु पूरी तरह आधारहीन और मुद्दे को भटकाने वाले ज्यादा लगते हैं। न्यायालय के प्रतिबंध के बावजूद भी देश में तीन तलाक जारी हैं और इस निर्णय के बाद 68 नए मामले सामने आचुके हैं, इसीलिए ही तीन तलाक पर विधेयक जरूरी हो गया। नए कानून से तलाक की प्रकिया बंद नहीं होगी बल्कि एक ही समय तीन तलाक को दंडनीय बनाया जाएगा। इस्लाम में जारी तलाक-ए-एहसान व तलाक-ए-हसन उसी तरह जारी रहेंगे। तीन तलाक के मामले को घरेलु हिंसा अधिनियम से इसलिए नहीं निपटा जा सकता क्योंकि जब विदेश या दूरदराज इलाके में बैठा पति मोबाईल, ई-मेल, चिट्ठी से तलाक देता है तो पीडि़त महिला कै से घरेलु हिंसा के आरोपों को साबित कर पाएगी। दिवानी मामले को अपराधिक मामले में परिवर्तित करने का विरोध करने वाले भूलते हैं कि जब शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उसे भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया तो इन्हीं सेक्युलर दलों की सरकार ने अपराधिक मामले को दिवानी मामले में परिवर्तित कर संविधान में संशोधन कर दिया था। हिंदुओं में भी तो विवाह को दिवानी मामला है परंतु दहेज को अपराधिक माना गया है। हिंदू समाज में तो तलाक का प्रावधान ही नहीं है, पारस्कर गृहसूत्र और जैमिनी गृहसूत्र जो विवाह से संबंधित हैं शादी को सात जन्मों का बंधन बताते हैं। तीन तलाक को धार्मिक स्वतंत्रता के साथ जोडऩे वाले भूलते हैं कि यह विषय लैंगिक समानता का भी है जिसका अधिकार भी हमारा संविधान सभी नागरिकों को देता है। संविधान के निती निदेशक सिद्धांतों में नागरिकों को निर्देश दिया गया है कि वह महिला के सम्मान के खिलाफ किसी भी कदम का विरोध करें। विधेयक पर और चर्चा करने की बात करने वाले भूलते हैं कि इस विषय पर देश भर में 1978 से चर्चा चल रही है जब 62 वर्षीय महिला शाहबानो को उसके पति ने तलाक दे दिया और अदालत ने जब उसे न्याय देने का फैसला किया तो 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने संसद में विधेयक ला कर अदालत के फैसले को ही बदल दिया। विरोधी चर्चा के नाम पर इस मामले को और लटकाने का प्रयास तो नहीं कर रहे?
तीन तलाक पर विरोधियों का स्टैंड संकीर्ण राजनीति से प्रेरित व संविधान की मर्यादा के विपरीत दिखाई दे रहा है। इससे किसी ओर को नहीं बल्कि मुस्लिम कट्टरपंथियों को ही लाभ मिल सकता है जो अपने समाज में सदियों से महिलाओं का दमन करते आरहे हैं। विधेयक का विरोध करने वालों को ध्यान में रखना चाहिए कि अपने इस दोहरे मापदंड से वो कुछ वोटें तो हासिल कर लेंगे परंतु इससे मुस्लिम महिलाओं को जो मर्माहत पीड़ा होगी उसके लिए ये सेक्युलरपंथी भी जिम्मेवार होंगे।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
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Wednesday, 27 December 2017

पाकिस्तान, पाताल में रहते हुए भी गिरने की जिद्द

पाकिस्तान की जेल में जासूसी के आरोप में बंद भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव को जेल में मिलने गईं उनकी माता व पत्नी के साथ वहां की सरकार ने जो व्यवहार किया उसे पाताल में रह रहे लोगों की और भी नीचे गिरने की जिद्द के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता। भारत ने पाकिस्तान के इस व्यवहार पर कड़ा एतराज जताया है। जाधव की मां अवंतिका और पत्नी चेतना 25 दिसंबर शाम को इस्लामाबाद से मस्कट के रास्ते नई दिल्ली लौटीं। सुरक्षा के नाम पर उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़ की गई। वहां मंगलसूत्र, कंगन और बिंदी जैसी चीजें भी उतरवा ली गईं। इनको मराठी की बजाय अंग्रेजी में बातचीत करने को कहा गया। बातचीत के दौरान दोनों पक्षों के बीच कांच की दीवार लगाई गई और इंटरकॉम पर बात करवाई गई और वह भी स्पीकर चालू करवा कर।

हास्यास्पद बात यह है कि पाकिस्तान ने इस बातचीत को राजनयन सहायता (कॉन्स्यूलर एक्सेस) बताया, जबकि इसका अर्थ है कि पाकिस्तान हमारे राजदूत को जाधव से बातचीत की अनुमति दे। इस दौरान कोई हस्तक्षेप न हो। मुलाकात की शर्तें पहले से तय हों और जाधव को भारतीय दूतावास से सीधी वैधानिक सहायता उपलब्ध कराए। इस मामले में ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तान का दावा है कि जाधव भारतीय गुप्तचर संस्थान रॉ के लिए जासूसी कर रहे थे। उन्हें बलूचिस्तान प्रांत से पकड़ा गया। इसके बाद पाक सैनिक न्यायालय ने इस साल अप्रैल में फांसी की सजा सुनाई। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 18 मई, 2017 को फांसी पर रोक लगा दी। दूसरी ओर पूरी सच्चाई यह है कि जाधव को ईरान से अगवा किया गया। भारतीय नौसेना से सेवानिवृति के बाद वे ईरान में व्यवसाय कर रहे थे और पाकिस्तान की सेना और गुप्तचर एजेंसी आईएसआई ने उनका अपहरण करवाया।

असल में पाकिस्तान कोई देश नहीं बल्कि एक विकृत विचारधारा व मानसिकता है जो विशुद्ध रूप से भारत विशेषकर अंध हिंदू विरोध पर टिकी है और इसके जनक हैं मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना। जिन्ना ने धर्म के आधार पर सर सैयद अहमद खां द्वारा प्रतिपादित धर्म के आधार पर दो राष्ट्र के सिद्धांत को भारत पर थोपा। इसे मनवाने के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई जैसी हिंसक गतिविधि का सहारा लिया जिसमें हजारों-लाखों की संख्या में निरीह हिंदू मारे गए। इस सिद्धांत की परिणति देश विभाजन के रूप में निकली। मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्रवाई से घबरा कर तत्कालीन भारतीय नेतृत्व जो पंडित जवाहर लाल नेहरू के हाथों व महात्मा गांधी के प्रभाव में था, ने देश विभाजन यह सोचते हुए स्वीकार कर लिया कि शायद इससे कट्टरवाद का स्थाई समाधान निकल जाए। लेकिन अब लगता है कि कांग्रेस द्वारा निकाला गया उक्त समाधान ही समस्या बन गया। दूरदृष्टा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर-संघचालक गुरुजी ने देश के नेतृत्व को चेताया था कि विभाजन मुस्लिम लीगी मतांधता का कोई समाधान नहीं है, रही बात इन दंगाईयों की तो इनसे समाज स्वत: निपट लेगा। अगर इन कट्टरपंथियों को अलग देश दे दिया गया तो वह भारत के लिए स्थाई सिरदर्द बनेगा, लेकिन इसे कांग्रेस का काल्पनिक भय कहें या गलत निर्णय या फिर देश की सत्ता संभालने की जल्दबाजी, देश विभाजन हो गया। जो गांधी जी कहते थे कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा उन्होंने इन हालातों के सामने हथियार डाल दिए। आज गुरुजी की चेतावनी पिछले 70 सालों से हर मोड़ पर अक्षरश: सत्य साबित होती आरही है। विभाजन के बाद पाकिस्तान के रूप में उसी भारत विशेषकर हिंदू विरोधी मानसिकता को शक्तिशाली देश के रूप में एक सांझा मंच मिल गया जिसके पास अपनी सरकार, सेना, पुलिस, न्यायपालिका, राजनयन जैसे शक्तिशाली संवैधानिक संगठन व संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता है। विभाजन से पहले जो विकृत मानसिकता देश में बिखरी पड़ी थी विभाजन के बाद एकजुट हो गई चांद-सितारे के हरे-सफेद रंग वाले झंडे तले एक इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान के रूप में। यही मानसिकता पड़ौस में रहते हुए हमें जख्म दर जख्म दे रही है और अपने यहां बचे हुए हिंदुओं-सिखों की नस्लकुशी में लगी है। पाकिस्तान की इन हरकतों से यह साबित हो गया है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने विभाजन के रूप में मुस्लिम लीगी कट्टरवाद के समक्ष जो आत्मसमर्पण किया गया वह उचित नहीं था। यह ऐसा उपचार साबित हुआ जो रोग से अधिक असाध्य व कष्टदायक है। इस समस्या का समाधान करने में न जाने अब कितना समय और कितनी ऊर्जा लगने वाली है परंतु यह निश्चित है कि काम बिना पांवों के गौरीशंकर की चोटी पर चढऩे जैसा दुरुह अवश्य है।
भारत ने शिमला समझौते से लेकर समझौता एक्सप्रेस, लाहौर तक सदा-ए-सरहद के नाम से बस व असंख्यों बार बातचीत सहित अनेक उपाय करके देख लिए परंतु कहा गया है कि- दुष्ट की यारी कोड़तुंबे की तरकारी, जितना डालो गुड़ उतनी खारी। शांति के हर प्रयास का जवाब कभी कश्मीर में कबाइलियों की घुसपैठ तो कभी कारगिल और पठानकोट हमलों के रूप में मिला है। ऐसा नहीं है कि हमने  सैन्य तरीकों का प्रयोग नहीं किया, चार-चार युद्धों में मुंह की खाने और हमारे हाथों बंगलादेश के रूप में अपना विभाजन करवाने के बाद भी वह हमें आंखें दिखाने से बाज नहीं आरहा। देखने में आरहा है कि समय-समय पर होने वाली इस तरह की घटनाओं के  बाद रजाईयों से बाहर निकल आते हैं जंगबाज और वार्तावादी। कोई सैन्य आक्रमण से पाकिस्तान को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने का सुझाव देता है तो कोई वार्ता शुरू करने का, परंतु अतीत बताता है कि उक्त दोनों तरह की औषधियां असरविहीन साबित हुई हैं। रोग के उपचार के लिए लीक से हट कर सोचना होगा। पाकिस्तान ने जाधव की माता व पत्नी से बिंदी, कंगन, चूडिय़ां उतरवा कर भारत व हिंदू विरोधी मुस्लिम लीगी सोच का ही प्रमाण दिया है। लगता है कि पाकिस्तान मानवता व नैतिकता के पाताल में निवास करते हुए भी और नीचे गिरने की जिद्द ठाने हुए है।


- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
मो 097797-14324

Tuesday, 26 December 2017

साहिबजादों की धरती पर जहरीला प्रचार

पंजाब सहित पूरे देश में पिछली सदी से खून और दरिंदगी का खेल खेलते आरहे खालिस्तानी आतंकियों को बुरहान वाली के रूप में नया हीरो मिल गया है। चोर-चोर मौसेरे भाई, उसी हिसाब से आतंकी-आतंकी भाई-भाई। यहां फतेहगढ़ साहिब में चल रहे शहीदी जोड़ मेले में आतंकवादी बुरहान वानी का महिमामंडन करने वाला खूब साहित्य बेचा जा रहा है। खेद की बात है कि आतंकवाद का महिमामंडन गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्र फतेह सिंह व जोरावर सिंह की शहादत वाली उस सरजमीं पर किया जा रहा है जहां गुरु पुत्रों ने अपने समय के आतंकवाद के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस तरह के राष्ट्रविरोधी तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का आश्वासन दिया है।

सोमवार से शुरु हुए शहीदी जोड़ मेले में इस तरह की देशविरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। फतेहगढ़ साहिब के रोजा शरीफ के पास शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के कट्टरपंथी तत्वों द्वारा लगाई गई स्टाल पर 'वंगार' नामक पत्रिका बेची जा रही है। इस पत्रिका में पाकिस्तान स्थित खालिस्तानी संगठन दल खालसा के आतंकी गजिंद्र सिंह व बलजीत सिंह नामक लेखक के लेख प्रकाशित हुए हैं। इनमें अगस्त 2016 में जम्मू-कश्मीर में मारे गए लश्कर के आतंकी बुरहान वानी को नायक के रूप में पेश किया गया है जो कथित आजादी के लिए संघर्ष करते हुए शहीद (?) हुआ। पत्रिका में पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारों जगतार सिंह हवारा की रिहाई की बात भी कही गई है। इस स्टाल पर केवल यही पत्रिका नहीं बल्कि खालिस्तान के अन्य आतंकी जरनैल सिंह भिंडरांवाला एंड पार्टी को नायक बताने वाला साहित्य, स्टीकर, टी-शट्र्स भी सरेआम बेचे जा रहे हैं।

वैसे पाकिस्तान और खालिस्तानी आतंकियों के संबंध किसी से छिपे नहीं है। पिछली सदी में खून और खाक का जो खेल खेला गया था वह पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई द्वारा ही संचालित था। यह एजेंसी खालिस्तानी आतंकियों को हथियार, गोला-बारूद, नशीले पदार्थ उपलब्ध करवाती रही है। वर्तमान में भी बहुत से खालिस्तानी आतंकवादी पाकिस्तान में शरण लिए हुए हैं और हाफिज सईद के जबरदस्त दबाव में उसी की बोली बोलने को मजबूर हैं। पंजाब में पिछले दो सालों से जो लक्षित हत्याएं हो रही हैं उनके पीछे भी यही अपवित्र गठजोड़ काम कर रहा है।

प्रश्न पैदा होता है कि जब राज्य में इस तरह का सरेआम देशविरोधी दुष्प्रचार हो रहा है तो हमारी गुप्तचर एजेंसियां व सरकार क्या कर रही है। यह कोई पहला अवसर नहीं है कि जब धार्मिक मेलों में इस तरह जहरीला साहित्य बेचा जा रहा हो। अमृतसर स्थित दरबार साहिब, तलवंडी साबो लगने वाले बैसाखी के मेले, माघी मेले व अन्य धार्मिक आयोजन इस तरह के साहित्य को बेचने के बड़े अवसर माने जाते हैं। पंजाबी के बहुत से पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं जो धड़ल्ले से इस जहरीले प्रचार को अपनी प्रिय प्रकाशन सामग्री मानती हैं। रोचक बात है कि इन पत्र-पत्रिकाओं को सरकारी विज्ञापन भी जारी किए जाते हैं। केवल इतना ही नहीं विदेशों में प्रकाशित होने वाला खालिस्तानी साहित्य तैयार भी पंजाब के विभिन्न प्रकाशन समूहों में होता है और इसके लिए बहुत भारी भुगतान किया जाता है। राज्य में हाल ही में हुई आतंकियों की गिरफ्तारियों के बाद सरकार का ध्यान सोशल मीडिया पर तो गया परंतु प्रिंट मीडिया की ओर सरकारें आंखें मूंदने में ही भलाई समझती रही हैं।
लक्षित हिंसाओं के चलते राज्य का वातावरण वैसे भी तनावपूर्ण बना हुआ है। राज्य में पिछले लगभग डेढ़ सालों में एक दर्जन से अधिक नेता इन घटनाओं में शहीद हो चुके हैं और समय-समय पर गुप्ताचर एजेंसियां भी सरकार को सचेत करती रहती हैं कि खतरा अभी टला नहीं है। ऐसे वातावरण में इस तरह का विस्फोटक साहित्य राज्य के हालातों को और बिगाड़ सकता है। संतोष की बात है कि राज्य में सत्तारूढ़ कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार आतंकवाद के प्रति शून्य सहनशीलता की नीति अपनाती रही है परंतु भविष्य में उसे अपने आंख-कान खुले रखने होंगे। शहीदी जोड़ मेले में जहरीला साहित्य बिकने से संकेत गया है कि सरकार से इस मामले में चूक हुई है। यह मुख्यमंत्री का दायित्व बनता है कि वह इस तरह के समाज विरोधी तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे और सुनिश्चित करे कि भविष्य में इसका दोहराव न हो।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
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Monday, 25 December 2017

भारतीय विमर्श से डरी विज्ञान कांग्रेस?

भारतीय विज्ञान कांग्रेस 2018 के स्थगित होने का समाचार विस्मयकारी है। यह 3 से 7 जनवरी के बीच हैदराबाद के उसमानिया विश्वविद्यालय में आयोजित की जानी थी जिसका उद्घाटन परंपरागत रूप से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने करना था। मोदी ने साल 2014 में एक अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा था कि शल्य चिकित्सा के पहले प्रयोग से हिंदू देवता गणेश का सिर जोड़ा गया था। इससे पता चलता है कि जैविक विज्ञान प्राचीन काल में मौजूद था। तब विज्ञान कांग्रेस के साथ-साथ इतिहासकारों ने भी इसका विरोध किया था। केवल इतना ही नहीं विगत कई सालों से इसी विज्ञान कांग्रेस में ऐसे विमर्श भी होने शुरु हो गए जिसे एक विचारधारा  मिथिहास, कपोल कल्पना, गल्प और भी न जाने क्या क्या बता कर उपहास उड़ाती आई है। इस साल की विज्ञान कांग्रेस के स्थगन का स्पष्ट कारण तो नहीं बताया गया है परंतु इसके पीछे विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों का असंतोष सहित अनेक कारण गिनाए जा रहे हैं परंतु सबसे बड़ा कारण भारतीय चिंतन का भय दिखाई दे रहा है।
वैज्ञानिकों के राष्ट्रीय संगठन में अब तक सब ठीकठाक चला आरहा था, यहां वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों का बोलबाला था। इसके सम्मेलनों के दौरान विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया की उपलब्धियों पर खूब ताली पीटी जाती और भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास उड़ाने और उन्हें पूरी तरह मिथ्या बताने जैसी रस्मों के साथ हर साल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन संपन्न हो जाता। लेकिन समस्या उस समय शुरु हुई जब से पूरी दुनिया सहित भारत में भी अपनी जड़ों को खोजने और उनके साथ जुडऩे के प्रति नई चेतना विकसित होने लगी। इसी के चलते नए वैज्ञानिकों व चिंतकों ने स्वदेशी चिंतन को आगे बढ़ाना शुरु किया। पहले तो स्वदेशी चिंतन की भत्र्सना हुई फिर विरोध और अब लगता है कि आयोजन ही स्थगित करने में ही भलाई समझी जा रही है कि चलो न होगा बांस और न बजेगी बांसुरी। न विज्ञान कांग्रेस होगी और न ही भारतीय चिंतन सुनने की नौबत आएगी।
स्वदेशी चिंतन पर पश्चिमपंथी व वामपंथी विचारधारा से प्रभावित वैज्ञानिक सदैव विवाद उठाते आए हैं। 103वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में भी विवाद में रहा। मैसूर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में एक वनस्पति वैज्ञानिक को कथित तौर पर उनका पेपर नहीं पढऩे दिया गया। मध्य प्रदेश निजी विश्वविद्यालय नियामक आयोग, भोपाल के अध्यक्ष प्रो. अखिलेश पांडेय वनस्पति वैज्ञानिक हैं और वे विज्ञान कांग्रेस में 'भगवान शिव विश्व के सबसे महान पर्यावरणविद्' विषय पर पत्र पढऩे वाले थे। उन्होंने शोध में भगवान शिव और शंख को भी शामिल किया। बताया जाता है कि उन्हें शोधपत्र पढऩे से इसलिए रोका गया कि कुछ वैज्ञानिकों आरोप था कि डा. पांडेय गल्प और विज्ञान का घालमेल कर रहे हैं। हालांकि, अखिलेश पांडेय ने उन्हें पेपर पढ़े जाने से रोकने की बात का खंडन किया परंतु इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरे शोध में विज्ञान का उल्लेख नहीं है? आखिर विज्ञान क्या है? आज की फंतासी या गल्प ही कल का विज्ञान है। गल्प ही आविष्कार की जननी है। इसी विज्ञान कांग्रेस में हिंदू धर्म बहुत पहले ही स्वच्छ वातावरण की बात समझ चुका था यह शोध पढ़ा जाना था, जिसमें विभिन्न शहरों में हवा की गुणवत्ता पर चर्चा होनी थी परंतु नहीं होने दी गई। कानपुर के वैज्ञानिक राजीव शर्मा के नृविज्ञान और व्यवहारिक विज्ञान (एथ्रोपोलॉजी एंड बिहैविरल साइंस) के तहत शंख की उपयोगिता पर शोध सामने आया, जिसमें मानव स्वास्थ्य से जुड़े शंख के लाभ होने के दावे किए गए तो इसका भी खूब विरोध हुआ। तत्कालीन तकनीकी मंत्री डा. हर्षवर्धन ने विज्ञान कांग्रेस में दावा किया था कि पाइथागोरस प्रमेय का उद्भव भारत से हुआ तो उस पर भी विवाद हुआ।
केवल युरोप के ही विज्ञान को प्रमाणिक मानने वाले हमारे कुछ वैज्ञानिक अभी तक रामसेतु को प्राकृतिक रचना बताते आरहे थे, लेकिन हाल ही में अमेरिका के वैज्ञानिक चैनल ने दुनिया को यह बताया है कि यह रचना मानव निर्मित है। विशुद्ध रूप से एक विदेशी वैज्ञानिक संस्थान द्वारा किए गए शोध का हमारे देश के वामपंथी नेता डी. राजा ने जिस तरह उपहास उड़ाया और खारिज किया उससे साफ पता चलता है कि वामपंथी चिंतक भारतीय ज्ञान-विज्ञान की प्रमाणिकता की साबित होने की शुरू हुई प्रक्रिया से घबरा गए हैं। रामसेतु की इस नई खोज ने रामायण के रूप में भारतीय इतिहास व विज्ञान पर प्रमाणिकता की मुहर लगा दी है। अब दुनिया के सामने सच्चाई आगई है कि भारत में युगों पहले सेतु बनाने की इंजीनियरिंग विशेषज्ञता विकसित हो गई थी और पुल केवल नदियों के दो पाटों के बीच ही नहीं बल्कि समुद्र पर भी बांध सकने की योग्यता भारतीयों में थी। केवल रामसेतु ही क्यों सरस्वती नदी का पुर्नोत्थान, गो-मूत्र को मिले अमेरिकी पेटेंट, योग की वैज्ञानिकता, आयुर्वेद की वैज्ञानिक सार्थकता, औषधी विज्ञान में प्राचीन भारतीय ज्ञान की पुर्नस्थापना, गुजरात के समुद्री तट में भगवान कृष्ण से जुड़ी प्राचीन नगरी द्वारिका के अवशेष मिलना अदि अनेक उपलब्धियां हैं जो साबित करती हैं कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में इस देश की उपलब्धियां किसी से कम नहीं रही हैं। माना कि देश के सारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को वर्तमान परिस्थितियों में प्रमाणित करना दुरुह कार्य है और जो लोग इसमें विश्वास नहीं रखते उन पर यह काम थोपा भी नहीं जाना चाहिए परंतु अपने देश, अपनी मिट्टी से प्यार करने वाले, देश के प्राचीन ज्ञान पर गौरव करने वाले भी वैज्ञानिक भी तो हैं। आखिर इन वैज्ञानिकों को भी तो अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने, नए शोध समाज में लाने के लिए मंच की आवश्यकता है। इस काम के लिए भारतीय विज्ञान कांग्रेस से उचित कौन सा मंच हो सकता है? विज्ञान कांग्रेस केवल वामपंथियों व पश्चिमपंथियों की ही तो बपौती नहीं इस पर देश के संपूर्ण वैज्ञानिक समुदाय का एक समान अधिकार है। किसी के शोध या वैज्ञानिक खोज पर दूसरे को संदेह है तो इसकी काट विज्ञान के आधार पर की जानी चाहिए न कि विचारधारा के धरातल पर। भारत के स्वतंत्रता के बीते 70 सालों के इतिहास में नहीं बल्कि 105 सालों के इतिहास में हुई एकमात्र घटना है जब विज्ञान कांग्रेस को स्थगित किया गया है। भारतीय वैज्ञानिकों और स्वतंत्रता संग्राम चला रहे नेताओं के बीच संबंधों के बावजूद ब्रिटिश दौर में भी भारतीय विज्ञान कांग्रेस बिना रुकावट होती रही। आज बिना किसी ठोस कारण के इसे स्थगित करना कई तरह के संदेह पैदा करता है कि इसके पीछे वैचारिक असहिष्णुता तो नहीं?
- राकेश सैन
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Sunday, 24 December 2017

मालवीय जी, सिक्ख व बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में मानव को 'मन नीवां मत्त उच्ची' अर्थात विनम्रता और शिक्षित होने का संदेश दिया गया है। स्वयं गुरु नानक देव जी उच्च कोटि के अध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ विद्वान, चिंतक, समाज सुधारक भी थे। शेष गुरुओं ने भी इसी परंपरा को अपने-अपने जीवन में ऊंचाई दी। इसी गुरु परंपरा से ही गुरमुखी के वर्णो को लिपीबद्ध किया जाना संभव हुआ। गुरु गोबिंद सिंह जी स्वयं संस्कृत, गुरुमुखी, हिंदी, फारसी सहित अनेक भाषाओं के विद्वान थे। सिख समाज ने शिक्षा, परिश्रम व ईमानदारी के बल पर न केवल खुद दुनिया के हर हिस्से में सफलता पाई बल्कि शिक्षा को प्रोत्साहन भी दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने एक सपना देखा और उस स्वप्न को साकार करने में सबसे अग्रणी भूमिका निभाई महान सिख महापुरुष संत अतर सिंह, महाराजा पटियाला, महाराजा नाभा, महाराजा कपूरथला सहित संपूर्ण सिख समाज ने। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्यालय की नींव भी संत अतर सिंह जी के नेतृत्व में श्री गुरु ग्रंथ साहिब के पाठों की शृंखला के बाद डाली गई थी। सौभाग्यवश आज शिक्षा व संघर्ष के प्रतीक और धर्म ध्वजावाहक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी व पंडित मदनमोहन मालवीय जी की एक साथ जयंती का सौभाग्य प्राप्त हुआ है तो इन महानुभावों का स्वत: चिंतन हो उठा। स्वतंत्रता सेनानी व कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता मालवीय जी का जन्म 25 दिसंबर, 1861 में हुआ। वे शिक्षा विशेषकर राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत शिक्षा के माध्यम से देश का उत्थान करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की बीजारोपण किया। उनके सतत् प्रयासों से 15 दिसंबर, 1911 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय अधिनियम पारित हुआ परंतु इसके लिए लगभग एक करोड़ रूपये की आवश्यकता थी जो उस समय बहुत बड़ी राशि थी। मालवीय जी ने इसके लिए देशवासियों को अह्वान किया और सामने आया सिख समाज जिन्होंने तन, मन, धन से इस उद्देश्य के लिए अपने आप को खपा दिया। विश्वविद्यालय के शिष्टमंडल ने इसके लिए पंजाब का भ्रमण किया तो उनका जगह-जगह स्वागत हुआ और धन की वर्षा होने लगी। पटियाला के सम्राट यादविंदर सिंह (पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के पिताश्री) ने 50000 रुपये तत्काल रूप से दिए और 24000 रुपये वार्षिक अनुदान देने की घोषणा की। नाभा रियासत के सम्राट रिपुदमन सिंह ने 100000 रुपये, कपूरथला के सम्राट 10000 रुपये नकद और वनस्पति विज्ञान पीठ के लिए 6000 रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया।



संस्कृत महाविद्याल
य की स्थापना के लिए सिख संत अतर सिंह जी (1866-1927) मस्तुआना वाले आगे आए। संत जी के प्रति मालवीय जी के मन में कितनी श्रद्धा थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि गर्मियों के दिनों में मालवीय जी उनसे मिलने आए तो उन्होंने अपनी खड़ाऊं संगरूर रेलवे स्टेशन पर ही उतार दीं और भरी दोपहरी 8 किलोमीटर नंगे पांव संत जी के आश्रम पहुंचे। मालवीय जी की हार्दिक इच्छा थी कि संस्कृत महाविद्यालय का नींवपत्थर रखते समय श्री गुरु ग्रंथ साहिब के पाठ करवाए जाएं। उनके आग्रह पर संत जी अपने कुछ शिष्यों व पाठियों के साथ बनारस पहुंचे और 10 दिन अखण्ड पाठ किया। जो बोले सो निहाल के जयकारों के बीच 24 दिसंबर, 1914 को संस्कृत महाविद्यालय का नींवपत्थर रखा गया। इस अवसर पर तीनों रियासतों के सम्राट अपनी निजी रेल गाडिय़ों से पूरे लाव-लश्कर के साथ शिलान्यास समारोह में पहुंचे। समारोह में बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह सिंह ने चांदी की तागड़ी, काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह ने सोने की 11 ईंटें दान दीं। संत जी ने सोने की करंडी से संस्कृत कालेज का शिलान्यास किया। समारोह में अस्सी घाट के निरंजनी अखाड़े के संत ने कविता सुनाई जिसकी एक पंक्ति इस तरह है-
'हिंदू विश्वविद्यालय की नींव पवित्र अत्तर हरि ने धरी कर से।'



काशी के सिंहासन पर वहां के शासक कभी विराजमान नहीं होते थे और माना जाता था कि यहां काशी विश्वानाथ का निवास है और भगवान शिव के नाम पर शासन चलता था। लेकिन जब संत जी राजदरबार पहुंचे तो सम्राट प्रभुनारायण सिंह ने संत जी को उस सिंहासन पर विराजमान करवाया। 4 फरवरी 1916 को जब वायसराय लार्ड हार्डिंग्स ने यूनिवर्सिटी का नींवपत्थर रखा तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब के पाठों की शृंखला संपन्न हुई। मालवीय जी ने अपने भाषण में अपने सिख गुरुओं व श्री गुरु ग्रंथ साहिब की महिमा का गुणगान किया।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की समिति का गठन हुआ तो इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के भारतीय प्रतिनिधि को पदेन अधिकारी और 18 भारतीय रियासतों के सम्राटों को पदाधिकारी बनाया गया। इनमें महाराजा जगजीत सिंह, महाराजा रिपुदमन सिंह को भी शामिल किया गया। जब इस समिति की संख्या बढ़ाई गई तो नाभा के शिक्षा मंत्री सरदार बचन सिंह, लुधियाना जिले के बागडिय़ां के रहने वाले बाबा अर्जुन सिंह, रावलपिंडी के बाबा गुरबख्श सिंह, कपूरथला के मेजर जनरल बख्शी पूरन सिंह, हैदराबाद (सिंध) के दिवान लीलाराम  सिंह, सिक्ख रिव्यू दिल्ली के संपादक भाई सर्दूल सिंह को भी इसमें शामिल किया गया। विश्वविद्यालय के इतिहास में अनेक सिक्ख विद्वान यहां के कुलपति, प्राचार्य, प्राध्यापक, अनुसंधानकर्ता रहे। आओ गुरुपर्व व महामना जी की जयंती पर हम फिर से देश में शिक्षा व ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए एकजुट होने का संकल्प लें।

- राकेश सैन
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- संदर्भ ग्रंथ-'जीवन कथा, गुरमुख प्यारे संत अतर सिंह जी महाराज'(भाग-1)
लेखक संत तेजा सिंह
(एमए पंजाब, एलएलबी हार्वर्ड-यूएसए)

मुफ्त का चंदन, घिस रहे 'पटियालाशाही नंदन'

एक समय देश में कौटिल्य जैसे ऐसे ऋषितुल्य राजपुरुष भी हुए जो निजी काम करते हुए राजकोष से खर्च की गई राशि का तेल भी दीपक में प्रयोग नहीं करते थे तो दूसरी ओर वर्तमान नेता भी हैं जो 'मुफ्त का चंदन जमकर घिस मेरे नंदन' के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री एवं पटियाला राजवंश के होनहार कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अप्रैल 2017 में निवेशकों को निमंत्रित करने के लिए मुंबई की सरकारी यात्रा में 25 लाख रुपये से अधिक फूक डाले। एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गई जानकारी में यह सामने आया है कि पंजाब जैसे उस राज्य के मुख्यमंत्री अपने साथियों सहित दुनिया के सबसे महंगे होटलों में शामिल मुंबई के ताज होटल में दो दिन खूब ठाठ से रहे जहां विरासत में खाली खजाना मिलने का दावा किया जा रहा है। धनाभाव के कारण जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ताजा सिद्धांत पर चलते हुए 'विकास' को 'पागल' मान कर पिछले 9 महीनों से पागलखाने में बंद रखा जारहा है।

समाचार एजेंसी वार्ता द्वारा प्रकाशित समाचार के अनुसार, एक गैर-सरकारी संगठन सोशल रिफार्मर्स के अध्यक्ष राजेश गुप्ता ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व उनके सहयोगियों द्वारा 10 से 12 अप्रैल 2017 में की गई मुंबई यात्रा का विवरण मांगा। यह यात्रा राज्य में निवेशकों को आमंत्रित करने के नाम पर की गई। इस टोली में वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल, ऊर्जा मंत्री राणा गुरजीत सिंह, मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार, मीडिया सलाहकार को मिला कर 20 सदस्य थे। पूरी यात्रा पर 25.07 लाख का खर्चा आया जिसमें 6.58 लाख रुपये यात्रा खर्च,  होटल ताज का 15.32 लाख रुपये बिल आया। बाकी राशि विभिन्न मदों में खर्ची बताई गई। यात्रा खर्च के विवरण में बताया गया कि मुख्यमंत्री, ऊर्जा मंत्री सहित पांच लोगों ने व्यवसायिक श्रेणी (बिजनेस क्लास) से जबकि मनप्रीत सिंह बादल सहित बाकी लोगों ने सामान्य वर्ग (इक्नोमी क्लास) से दिल्ली से मुंबई के बीच वायुमार्ग से आवागमन किया। मुख्यमंत्री जिस कमरे में ठहरे उसका प्रतिदिन का किराया 80 हजार रुपये था और उसके साथ लघु मदिरालय (मिनी बार) की सुविधा भी थी। पूरी टीम दो दिन में 5 लाख का रात्रिकालीन भोजन जीम गई। खर्चों का विवरण और भी दिया गया है परंतु कुल मिला कर सारांश यही निकला कि सभी ने मुफ्त का चंदन रगड़ा और वो भी खूब दबा-दबा कर।

विपक्ष में रहते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह तत्कालीन अकाली-भाजपा सरकार पर आरोप लगाते रहे हैं कि गठजोड़ की सरकार ने राज्य को दिवालिया बना दिया है। सत्ता संभालने के बाद भी कैप्टन से लेकर वार्ड-मोहल्ला स्तर तक के कांग्रेसी नेता यही दावा करते रहे कि उन्हें विरासत में खाली खजाना मिला। ऐसे में वे अपने चुनावी वायदों को पूरा कैसे करें। अपने चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस पार्टी ने किसानों के ऋण माफ करने, युवाओं को स्मार्टफोन, हर घर में नौकरी देने जैसे वह सभी तरह के वायदे किए थे जिनको देख कर कोई भी व्यवहारिक व्यक्ति पहले ही अनुमान लगा सकता था कि इन्हें पूरा करना केवल धन की देवी लक्ष्मी या देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर के लिए ही संभव है। फिलहाल प्रदेश में दस सालों से सत्तारूढ़ प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली अकाली-भाजपा गठजोड़ सरकार के खिलाफ राज्य में व्यवस्था विरोधी भावनाएं ही ऐसी फैली थीं कि प्रदेशवासियों ने सहज ही 'चाहुंदा है पंजाब-कैप्टन दी सरकार' अर्थात पंजाब कैप्टन की सरकार चाहता है जैसे कांग्रेस पार्टी के आकर्षक नारे में विश्वास कर लिया। अब वर्तमान कांग्रेस सरकार के लगभग 9 माह से अधिक के कार्यकाल में विकासकार्य या तो ठप हो गए या फिर कच्छप गति से रेंग रहे हैं। कर्मचारियों को देने के लिए वेतन बहुत मुश्किल से जुड़ पाता है और कई विभागों में वेतन विलंब से मिल रहा है। जब सामान्य कामकाज के लिए धन नहीं है तो वायदों और आश्वासनों का क्या कहें, देश की राजनीति में वे तो शायद गढ़े  ही जाते हैं भुलाने या भरमाने के लिए। ऐसे में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगियों को लेकर आए उक्त समाचार ने सभी को हिला कर रख दिया है विशेषकर तब जब कि किसी राज्य का संवैधानिक मुखिया सत्ता में आया ही इस वायदे के साथ हो कि उनकी सरकार सार्वजनिक धन का दुरुपयोग रोकेगी।

वैसे यह समस्या केवल पंजाब या कांग्रेस पार्टी तक सीमित नहीं है, देश में कोई भी दल या सरकारें इससे अछूती नहीं। यह बात अलग है कि विपक्ष में रहते हुए इस तरह के खर्चों की आलोचना की जाती है और सत्ता मिलते ही सादगी की धोती खूंटी पर टांग दी जाती है। लोकतंत्र में नेताओं का जनप्रतिनिधि व जनसेवक माना जाता है। जनता उन्हें इस विश्वास के साथ शिरोधार्य करती है कि सरकार में जाकर यह लोग उनके जीवन में विकास का प्रकाश फैलाएंगे, देश को उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त करेंगे। सरकारी खजाना जिसे देश के नेता मुफ्त का माल समझते हैं वास्तव में वह बड़े उद्योगपति से लेकर रेहड़ी-ठेला लगाने वाले व्यवसायी और सामान्य नागरिक द्वारा खून पसीने से कमाई गई धनराशि है जो करों के रूप में सरकार को मिलती है। यह खजाना किसी व्यक्ति या दल विशेष की का नहीं, अपितु जनसाधारण व देश की धरोहर है। इसकी रक्षा करना व इससे देश और समाज का पोषण करना जनप्रतिनिधियों का न केवल संवैधानिक बल्कि नैतिक दायित्व भी है। लेकिन देखने में आरहा है कि हमारे बहुत से नेता इसे अपनी निजी संपति मान कर शाही ठाठबाठ, दिखावे, फिजूलखर्ची में पानी की तरह बहा देते हैं। हाल ही में गुजरात में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में 5 लाख मतदाताओं ने नोटा (इन प्रत्याशियों में से कोई नहीं) के अधिकार का प्रयोग किया अर्थात वे मानते हैं कि चुनाव लडऩे वाले सभी प्रत्याशियों में कोई ऐसा नहीं है जो उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरे। अगर नप्रतिनिधियों का यही व्यवहार रहा और उन्होंने अपने में सुधार नहीं किया तो लाखों की यह संख्या बढ़ कर करोड़ों में हो सकती है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए अत्यंत अपशकुनी संकेत है।

- राकेश सैन
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Saturday, 23 December 2017

साहिबजादों का बलिदान दिवस 'राष्ट्रीय बाल दिवस' घोषित हो


आज मानवता धार्मिक कट्टरता व आतंकवाद से ग्रस्त है। भारत सदियों से इन समस्याओं से जूझता आया है परंतु भारत के लालों ने शूरवीरता, धर्मरक्षा, निर्भयता ऐसे-ऐसे कारनामे कर दिखाए हैं जो पूरी दुनिया के लिए अचंभित करने वाले हैं। इन लाखों-करोड़ों वीरों की बलिदानी परंपरा में दो नाम ऐसे भी हैं जिन्होंने मात्र 5 और 7 साल की आयु में धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता, आतंकवाद के खिलाफ स्वधर्मरक्षा, मानवता की आवाज उठाई। इन सिंहशावकों के नाम हैं गुरु गोबिंदसिंह जी के छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी (7 वर्ष) एवं फतेह सिंह जी (5 वर्ष)। जिस शूरवीरता, निर्भयता व परिपक्व विचारधारा पर दृढ़ रह कर इन बाल भुजंगियों ने न केवल अत्याचारों के सम्मुख झुकने से इंकार कर दिया बल्कि अपने जवाब से सरहिंद के नवाब को ऐसा निरुत्तर कर दिया कि वह अपने ही दरबार में बगले झांकने लगा। 26 दिसंबर 1705 को इन महान आत्माओं ने भारतीय शौर्य, आत्मा की अमरता, सभी धर्मों व आस्थाओं का सम्मान करने की भारतीय परंपरा को नया आयाम दिया जो पूरी दुनिया में बेमिसाल है। भारतीय बच्चों के लिए फतेह सिंह व जोरावर सिंह से अधिक प्रेरक कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता। मेरा सुझाव है कि क्यों न 26 दिसंबर को राष्ट्रीय बाल दिवस घोषित किया जाए।

बलिदान की पूरी कहानी यूं है, कि उस समय देश में मुगलों का शासन था और पंजाब का गवर्नर था वजीर खां जो कट्टरपंथी और दूसरे धर्मों से नफरत करने वाला था। गुरु गोबिंद सिंह जी का धर्म व देश की रक्षा के लिए विदेशी शासकों से युद्ध चल रहा था। सरसा नदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी परिवार जुदा हो रहा था, तो एक ओर जहां बड़े साहिबजादे गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ न कोई सैनिक था और न ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते। अचानक रास्ते में उन्हें गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं। माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोबिंद सिंह की माता और छोटे साहिबजादों के उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की। यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि यहां गंगू जैसे गद्दारों की कभी कमी नहीं रही।

खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया। रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने जोर से जयकारा लगा 'जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल'।

यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली। दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि 'हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं'। वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए कहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने 'जपुजी साहिब' का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज भी आई।

ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादों के कुछ श्वास अभी बाकी थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया। उधर दूसरी ओर साहिबदाजों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने श्वास त्याग दिए।

गुरुपुत्रों का यह बलिदान केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के इतिहास में अद्वित्तीय है। धार्मिक असहिष्णुता, अत्याचार, आतंकवाद के खिलाफ यह दिन भारतीय बच्चों के आंदोलन का शंखनाद है। गुरु साहिब के चारों साहिबजादों से बढ़ कर भारतीय समाज व विशेषकर बच्चों के लिए आदर्श कौन हो सकता है? वर्तमान में हर साल 14 नवंबर को बालदिवस मनाया जाता है जो पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन है। कहते हैं कि नेहरू जी को बच्चे चाचा के नाम से पुकारते थे और उन्हीं की याद में इस दिन को बालदिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरु जी देश के पहले प्रधानमंत्री व आधुनिक भारत के निर्माता तो हैं परंतु हमारे बच्चों के लिए आदर्श तो गुरुपुत्र ही हो सकते हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Friday, 22 December 2017

प्रभु ईसा के चरणस्पर्श से गौरवान्वित भारत भूमि

Jesus Christ
Rojabal in Srinagar, the grave of  Jesus Christ
अपनी भारतीय संस्कृति कहती है, दुनिया में जब-जब भी पाप बढ़ते हैं और धर्म की हानि होती है तो ईश्वर विभिन्न रूपों में अवतार लेकर धरती पर जन्म लेते हैं। गीता के चौथे अध्याय के सातवें व आठवें श्लोक में कहा गया है कि -

यदा यदा ही धर्मस्य 
ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य 
तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां 
विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय 
संभवामि युगे युगे ॥

भारतीय संस्कृति में ईश्वर के अवतार होने का विश्वास किया जाता है तो पश्चिम के लोग इस अवतार को ईश्वर पुत्र मानते हैं। सभी का अपना-अपना विश्वास है और सभी सम्मानित हैं। दुनिया के एक अन्य महान धर्म इस्लाम में पैगंबर परंपरा में विश्वास किया जाता है और माना जाता है कि 1.24 लाख पैगंबरों ने इस धरती पर जन्म लेकर समय-समय पर मानवता का कल्याण किया और मार्गदर्शन किया। इन्हीं अवतारों में या ईश्वर पुत्रों में या कह लें कि पैगंबरों में एक हैं प्रभु ईसा मसीह। जिन्होंने पूरी दुनिया को प्रेम, अहिंसा, सदाचार व भाईचारे का संदेश दिया। भारत को इस बात का गौरव है कि इस धरती पर राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक जैसे बुद्ध पुरुषों की एक लंबी परंपरा है परंतु अभी तक इस बात पर पर्दा डाले रखे जाने का भरसक प्रयत्न हुआ है कि प्रभु ईसा मसीह ने भी अपने जीवन काल में चरणस्पर्श कर इस भारत भूमि को पवित्र किया। नवीन खोजों से पता चलता है कि उन्होंने भारत में बौद्ध व नाथ संप्रदाय के मनीषियों के मार्गदर्शन में स्वाध्याय किया और उनका पूरी दुनिया में प्रचार प्रसार किया।

प्रभु ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल तक क्या किया बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता। नई खोजें बताती हैं कि इस उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारत में शिक्षा ग्रहण की। 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा येरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़ कर सूली पर लटका दिया। उस समय उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को पाम संडे कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे गुड फ्रायडे कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। इस घटना को ईस्टर के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ संप्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया। कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को रौजाबल के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।

आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था।

पहलगाम का अर्थ होता है गडरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 किलोमीटर दूर है। यही से बाबा अमरनाथ की गुफा की यात्रा शुरू होती है। मान्यता है कि ईसा मसीह ने यही पर प्राण त्यागे थे और ओशो की एक किताब गोल्डन चाइल्ड हुड अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है।


एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक द लाइफ ऑफ संत ईसा पर आधारित फ्रेंच भाषा में द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट नामक पुस्तक लिखी। हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थित है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहाँ रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। 

यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुँचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुँचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम ईसा था। जिसका संस्कृत में अर्थ भगवान होता है। एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें ईशा नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालांकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम ईश उपनिषद है। ईश या ईशान शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द ईशस् ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।


सिंगापुर स्पाइस एयरजेट की एक पत्रिका में इसी बात की चर्चा की गई थी कि यीशु को जब सूली पर चढ़ाने के लिए लाया जा रहा था तब वे बचकर भाग निकले और कश्मीर पहुँचे और बाद में वहाँ उनकी मृत्यु हो गई। उनका मकबरा कश्मीर के रौजाबल नामक स्थान में है। कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक एक संस्था ने इस खबर का कड़ा विरोध किया। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस पत्रिका के खिलाफ प्रदर्शन भी हुआ। विरोध के बाद स्पाइस एयरजेट के डायरेक्टर अजय सिंह ने माफी माँगी और कहा कि पत्रिका की करीब 20 हजार प्रतियों का वितरण तुरंत बन्द कर दिया गया है।

स्वामी परमहंस योगानंद की किताब द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू  में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताए और यहाँ योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया।

बाइबिल के बाद ईसा मसीह का जिक्र भविष्य पुराण में मिलता है। इसमें हिमालय क्षेत्र में ईसा मसीह की मुलाकात उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के पौत्र से होने का छोटा-सा वर्णन मिलता है। इससे यह भी तय हो गया कि विक्रमादित्य के पौत्र के बाद या उसके काल में लिखा गया होगा।

लुईस जेकोलियत ने 1869 ईस्वी में अपनी एक पुस्तक द बाइबिल इन इंडिया में लिखा है कि जीसस क्रिस्ट और भगवान श्रीकृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राइस्ट पर एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राइस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है, हालांकि उन्होंने कृष्ण की जगह क्रिसना शब्द का इस्तेमाल किया। भारत में गांवों में कृष्ण को क्रिसना ही कहा जाता है। लुईस के अनुसार ईसा मसीह अपने भारत भ्रमण के दौरान जगन्नाथ के मंदिर में रुके थे।

लातोविच ने तिब्बत के मठों में ईसा से जुड़ी ताड़ पत्रों पर अंकित दुर्लभ पांडुलिपियों का दुभाषिए की मदद से अनुवाद किया जिसमें लिखा था, सुदूर देश इसराइल में ईसा मसीह नाम के दिव्य बच्चे का जन्म हुआ। 13-14 वर्ष की आयु में वो व्यापारियों के साथ हिन्दुस्तान आ गया तथा सिंध प्रांत में रुककर बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन किया। फिर वो पंजाब की यात्रा पर निकल गया और वहां के जैन संतों के साथ समय व्यतीत किया। इसके बाद जगन्नाथपुरी पहुंचा, जहां के पुरोहितों ने उसका भव्य स्वागत किया। वह वहां 6 वर्ष रहा। वहां रहकर उसने वेद और मनु स्मृति का अपनी भाषा में अनुवाद किया।

वहां से निकलकर वो राजगीर, बनारस समेत कई और तीर्थों का भ्रमण करते हुए नेपाल के हिमालय की तराई में चला गया और वहां जाकर बौद्ध ग्रंथों तथा तंत्रशास्त्र का अध्ययन किया फिर पर्शिया आदि कई मुल्कों की यात्रा करते हुए वह अपने वतन लौट गया।

लातोविच के बाद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख के होमिज मिनिस्ट्री का भ्रमण किया और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया जिससें हजरत ईसा के भारत आने का वर्णन मिलता है और इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात उन्होंने भी लातोविच की तरह ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की और बाद में अपने इस खोज को बांग्ला भाषा में तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण नाम से प्रकाशित करवाया।

लुईस जेकोलियत और निकोलस नातोविच के शोध के बाद पाकिस्तान के आध्यात्मिक गुरु मिर्जा गुलाम अहमद ने इस पर गहन शोध किया। उनके अनुसार ईसा मसीह 120 वर्ष तक जीए और कश्मीर के रौजाबल में उनकी कब्र है। कादियान के अनुसार ईसा मसीह यूज आसफ (शिफा देने वाला) नाम से यहां रहते थे। इसके लिए उन्होंने कई पुख्ता दलीलें पेश कीं। अपने तमाम शोधों को पुख्ता प्रमाणों के साथ उन्होंने मसीह हिन्दुस्तान नाम से लिखी अपनी किताब में लिपिबद्ध किया है।

सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति इकमाल-उद्-दीन में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नजऱ नहीं आए। यह अपने योग बल से भारत आ गए और युज-आशफ नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया।

पारसी परिवार में जन्में मेहर बाबा को एक रहस्यमयी और चमत्कारिक संत माना जाता है। 30 वर्षों तक मेहर बाबा मौन रहे और मौन में ही उन्होंने देह त्याग दी। उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम गॉड स्पीक है। मेहर बाबा अनुसार ईसा मसीह सूली से बच गए थे। उन्होंने भारत में रहकर तप साधना की थी। जिसके माध्यम से उन्होंने सूली पर निर्विकल्प समाधी लगा ली थी। इस समाधी में व्यक्ति 3 दिन तक मृत समान रहता है। बाद में उसकी चेतना लौट आती है और उसके अंग-प्रत्यंग फिर से कार्य करने लगते हैं। आमतौर पर बहुत ज्यादा बर्फिले इलाके में भालू ऐसा करते हैं। समाधी से जागने के बाद ईसा मसीह फिर से भारत आ गए थे। यहां आकर उन्होंने रंगून की यात्रा की फिर पुन: भारत लौटकर उन्होंने अपना बाकी जीवन नार्थ कश्मीर में ही बिताया।
मेहर बाबा की बातों का अभयानंद, सत्यसाईंबाबा, शंकराचार्य, आदि ने समर्थन किया। फिदा हसनैन, अजीज कश्मीरी, जेम्स डियरडोफ, मंतोशे देवजी आदि ने भी माना है कि कश्मीर के रौजाबल में जो कब्र है वह ईसा मसीह की ही है। खैस, कोई ईसाई इसे नहीं मानता है तो यह एक ऐतिहासिक और पवित्र स्थल को खो देने की बात होगी। नहीं मानने का कोई तो ठोस कारण होना चाहिए?

एक जर्मन विद्वान होल्गर कर्स्टन ने 1981 में अपने गहन अनुसन्धान के आधार पर एक पुस्तक लिखी जीसस लिव्ड इन इण्डिया : हिज लाइफ बिफोर एंड ऑफ्टर क्रूसिफिक्शन में ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि जीसस ख्रीस्त ने भारत में रहकर ही बुद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण की और वे एक बौद्ध थे। 

तिब्बत में ल्हासा में दलाई लामा के पोटाला पेलेस में एक दो हजार वर्ष पुराना हस्त लिखित ग्रंथ था जिसमें ईसा मसीह की तिब्बत यात्रा का विवरण दर्ज था। इसको यूरोप के कुछ पादरियों ने तिब्बत भ्रमण के समय देखा था और उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी, लेकिन प्रकाशित होने से पूर्व ही पोप को पता चल गया और तब उस पुस्तक की सभी प्रतियां नष्ट करा दी गयीं।
(साभार-कादम्बिनी अगस्त 1995)

लॉस एंजिलिस निवासीफिलिप गोल्बर्ग का एक व्याख्यान टूर भारत में आयोजित किया गया था उन्होंने 'अमेरिकन वेदÓ सहित उन्नीस पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने बताया की आज अमेरिकावासी नाम के लिए ईसाई हैं जबकि व्यव्हार में बहुलवादी वेदांत को अपना चुके हैं। चर्च ने सत्य को छुपाने के अनेक उपाय किए। उक्त इतने सारे तथ्य बताते हैं कि प्रभु ईसा मसीह अवश्य भारत आए होंगे और यहां अपनी आध्यात्मिक खोज का सफर तय किया होगा। भारत आज ही नहीं बल्कि युगों से धर्मध्वजावाहक भूमि के नाम से विख्यात रही है। दुनिया के हर धर्मपुरुष ने भारत भूमि का नाम बड़े सम्मान से लिया और इसे देवभूमि माना। आवश्यकता है उक्त बातों को पुष्ट कर सच्चाई को सामने लाने की ताकि दुनिया सत्य के नए प्रकाश से प्रकाशमान हो सके।

- राकेश सैन
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'आंख फोड़वा' पंजाब के संस्कृति मंत्री नवजोत सिद्धू

Punjab Culture Minister Navjot Singh Sidhu with Santas in Amritsra.
लो जी, अब 'आंख फोड़वा' और 'चमड़ी उधेड़वा' परिषद् में क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू भी शामिल हो गए हैं। क्रिसमस के उपलक्ष में अमृतसर में करवाए गए इसाई समाज के राज्य स्तरीय समारोह को संबोधित करते हुए पंजाब के संस्कृति एवं पर्यटन विकास और स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने चेतावनी दी है कि जो कोई भी क्रिसमस में विघ्न डालने का प्रयास करेगा उसकी 'आंखें फोड़ दी जाएंगी'। उनके ब्यान पर समारोह स्थल पर खूब तालियां बजीं, आंखें फोडऩे की धमकी देने वाले संस्कृति मंत्री थे तो ताली पीटने वाले उस प्रभु ईसा मसीह के अनुयायी जो अपनी शिक्षाओं में बताते रहे हैं कि अगर कोई एक गाल पर चांटा मारे तो आप दूसरा आगे कर दो अर्थात प्रेम से दूसरों का दिल जीतो। समारोह के स्तर का स्वत: अनुमान लगाया जा सकता है, जैसा गुरु वैसा चेला।

वैसे जिस देशवासियों ने लोकतंत्र के अपने माननीय जनप्रतिनिधियों के श्रीमुख से प्रधानमंत्री की 'चमड़ी उधेडऩे' और उन्हें 'नीच' तक कहने के मन को व्याकुल करने वाले ब्यान सुने हो उनके लिए आंख फोडऩे वाली भाषा भी कोई अधिक विस्यमकारी नहीं है। वैसे भी पंजाब सरकार में नंबर दो कहे जाने वाले कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की सरकार के साथ-साथ प्रदेश कांग्रेस में सीधी स्पर्धा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से ही है। कैप्टन अमरिंदर सिंह अक्सर विधानसभा चुनावों के दौरान अपने भाषणों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अकाली दल वालों से 'खुंडे नाल' (पंजाबी भाषा में लाठियों के साथ) निपटने की बात करते रहे हैं। पटियाला राजघराने से संबंधित होने के चलते बात के धनी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसी महीने राज्य में संपन्न हुए निकाय चुनावों में साबित भी कर दिया है कि उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में लोगों के साथ किए हर घर को नौकरी देने, युवाओं को लैपटॉप व स्मार्ट फोन देने, किसानों के कर्जे माफ करने, नशा समाप्त करने आदि जैसे असंख्य वायदों पर गौर किया हो या न हो परंतु विरोधियों पर लाठियां भांजने का पराक्रम तो दिखा ही दिया। निकाय चुनाव के नामांकन के समय मोगा जिले बाघापुराना, फिरोजपुर जिले के मल्लांवाला आदि बहुत से स्थानों पर विरोधियों को नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) ही जारी नहीं होने दिए। सरकारी मशीनरी का खुल कर दुरुपयोग होने के आरोप लगे। मतदान वाले दिन कैप्टन अमरिंदर सिंह के पैतृक नगर पटियाला में खूब उत्पात मचा। इन सभी का परिणाम निकला कि राज्य में कांग्रेस ने बड़ी शान के साथ निकाय चुनावों में एकतरफा जीत हासिल कर ली। भाजपा ने इसकी शिकायत राज्य चुनाव आयोग से की तो अकाली दल बादल ने कई जगह धरने दिए परंतु परिणाम सिवाय मन मसोसने के कुछ नहीं निकला। अकालियों ने शायद मान लिया है कि कुर्सी के जोर पर विरोधियों को लतियाना सत्ताधीशों का नैसर्गिक अधिकार है क्योंकि पिछले दस सालों में अपनी सरकार के दौरान उन पर भी एसा ही कुछ करने के आरोप लगते रहे हैं।

फिलहाल वापिस लौटते हैं आंख फोडऩे की धमकी देने वाले नवजोत सिंह सिद्धू पर, जब राज्य में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कैप्टन अमरिंदर सिंह इतना पराक्रम कर रहे हैं तो सिद्धू उनसे पीछे कैसे रह सकते हैं। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने ठोक दी छाती आंख फोड़ की। वैसे कोई श्री सिद्धू के इस ब्यान का आशय नहीं समझ पाया कि वो किसकी आंखें फोडऩे जा रहे हैं। पंजाब में तो किसी ने भी क्रिसमस या किसी अन्य धर्म के कार्यक्रम को रोकने की चेष्टा नहीं की। राज्य में तो हर कहीं बड़े धूमधाम से शांति, प्रेम और अहिंसा के मसीहा प्रभु ईसा मसीह का जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। हर वर्ग व धर्म के लोग इन समारोहों में शामिल हो रहे हैं। अगर सिद्धू का इशारा मध्य प्रदेश में लालच दे कर धर्मांतरण करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए पादरियों की तरफ है तो संस्कृति मंत्री को यह ध्यान में रखना चाहिए कि उनके खिलाफ उसी संविधान के तहत कार्रवाई की जा रही है जिसकी शपथ लेकर स्वयं सिद्धू मंत्री बने हैं। सिद्धू क्या कानून की आंखें फोडऩे की तैयारी में हैं या कानून के रखवालों की, या फिर शिकायतकर्ताओं की यह तो वे ही बता सकते हैं। श्री सिद्धू को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि धर्मांतरण न केवल कानून बल्कि मानवता के प्रति भी अपराध है। जिस तरह पाकिस्तान के पख्तूनख्वाह इलाके में सिखों का किया जा रहा जबरन धर्मांतरण गलत है उसी तरह कुछ इसाई मिशनरियों पर भी लालचवश धर्मांतरण का आरोप लगता है, वो भी उचित नहीं है। स्वयं सिद्धू पाकिस्तान में हो रहे निरीह व कमजोर सिखों के जबरन धर्म परिवर्तन की निंदा कर चुके हैं तो लालच में करवाया जा रहा धर्म परिवर्तन किस तरह ठीक हो सकता है। फिलहाल उक्त मामले की जांच जारी है और कानून अपना काम कर रहा है। इसके लिए किसी की आंखें फोडऩा या इस तरह की धमकी देना अनावश्यक विवाद पैदा करना है।

वैसे 'आंख फोड़वा परिषद्' बड़ी पक्षपाती है। सोशल मीडिया के युग में जब जहरीले शब्दों का प्रचलन बढ़ रहा है तो ऐसे में जब कोई गली मोहल्ले स्तर का नेता भी किसी अल्पसंख्यक समुदाय या उसकी आस्था को लेकर अभद्र टिप्पणी कर देता है तो आंख फोडऩे वाले सक्रिय हो जाते हैं परंतु दूसरी ओर जब पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनर्जी तुष्टिकरण की नीति के चलते दुर्गा पूजा पर ही रोक लगा देती है तो यही परिषद् आंखें मूंदने में अपनी भलाई समझती है। फिलहाल मौका अपने जख्म दिखाने का नहीं, बल्कि बात नेताओं की दिनों दिन गिर रही वाकशैली व भाषाज्ञान की हो रही है जो अत्यंत चिंताजनक है।

आंख फोडऩा, चमड़ी उधेड़ लेना, नीच जैसे शब्दों के लिए सार्वजनिक जीवन तो क्या निजी जीवन में भी कोई स्थान नहीं होना चाहिए। आज जब देश में स्वच्छता की बात हो रही है तो हमें भाषा की शुचिता पर भी ध्यान देना होगा। संस्कृति मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू जो क्रिकेट के विश्व स्तरीय कमेंटेटर भी हैं, यदि राजनीति में उन्हें लंबी और विजयी पारी खेलनी है तो जीवन में 'पॉलिटीकल कमेंट्री' भी सीखनी होगी। संस्कृति मंत्री को भविष्य में ध्यान रखना होगा कि उनके कारण राजनीतिक संस्कृति और अधिक विकृत न हो।
- राकेश सैन
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Thursday, 21 December 2017

सफल परिवारिक जीवन का आधार सात वचन

विवाह मानव जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण मोड़ है, यह वह अवसर है जब दो अज्ञात व अपरिचित लोग एक दूसरे को समर्पित होते हैं। जीवन के इस अहम पल के साक्षी बनते हैं सात फेरे और मंडप में लिए व दिए जाने वाले सात वचन। अगर इन वचनों में पति से पत्नी की अपेक्षा, उसके दायित्व, परिवार के प्रति दोनों की जिम्मेवारी सहित उन सभी बातों का समावेश है जो वर-वधु दोनों को भविष्य में दरपेश आने वाली हैं। अगर इन वचनों का अक्षरश: पालन किया जाए तो वैवाहिक जीवन में शायद ही कभी परेशानी का सामना करना पड़े।   संगीत के सात स्वर हैं और इंद्रधनुष के सात रंग, इनमें कोई भी रंग और कोई भी स्वर निकाल दिया जाए तो जीवन बदरंग हो जाता है और उसकी लयबद्धता समाप्त हो जाती है। देखने में आरहा है कि विवाहोत्सव का जितना महत्त्वपूर्ण यह सात वचनों वाला घटक है उतना उपेक्षित भी है। खाने-पीने, नाच-गाने, हंसी-मजाक तो सभी तनमन्यता से करते हैं परंतु फेरों के समय कम ही लोग पंडित जी की बातों पर ध्यान देते हैं। असल में यह अवसर केवल वर-वधु के लिए ही शिक्षा देने वाला नहीं बल्कि वहां पर मौजूद उन सभी लोगों को भी अपनी जिम्मेवारियों का स्मरण करवाने वाला होता है। समाज में बढ़ रहे संबंधोच्छेद के मामले बताते हैं कि हमसे कहीं चूक अवश्य हो रही है। हमने सात स्वरों से छेड़छाड़ करनी शुरू कर दी जिससे हमारा जीवन बेसुरा होने लगा है। सफल विवाहिक व परिवारिक जीवन के लिए यह सात वचन सच्चे मार्गदर्शक हैं।
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।
 अर्थात कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। इसका साधारण अर्थ है कि आज से पुरुष अकेला नहीं, नारी भी उसके शरीर का अंग बन चुकी है। वह जीवन में ऐसा कोई काम न करे जिसका खमियाजा नारी को भी भुगतना पड़े। अब तक पुरुष एकल शरीर था परंतु अब अर्धांगिनी उसके साथ जुड़ चुकी है। उसका परिवार के प्रति दायित्व बढ़ गया है।
पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम।।
अर्थात जिस प्रकार पुरुष अपने माता-पिता का सम्मान करता है, उसी प्रकार लड़की के माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुंब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बना रहे। अपने धर्मग्रंथ सास-ससुर को दूसरे माता-पिता का दर्जा देते हैं। सास-ससुर की सम्मान केवल लड़की के लिए ही जरूरी नहीं बल्कि लड़के के लिए भी अनिवार्य है। कभी दहेज के लिए उन्हें प्रताडि़त या परेशान नहीं करना चाहिए। न ही पति को पत्नी व पत्नी को पति के परिवार वालों के प्रति कटुवचनों का प्रयोग करना चाहिए। यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रख वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं।
तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था में मेरा पालन करते रहेंगे। इस वचन के द्वारा पुरुष को नारी के प्रति जिम्मेवारी का एहसास कराया गया है। महिला की जरूरतें पूरी करना पुरुष का दायित्व है परंतु महिला को भी अपने पति को अनावश्यक रूप से परेशान करने का अधिकार नहीं है। उसका भी संयमी, मितव्ययी,संतोषी होने की शास्त्र अपेक्षा करते हैं।
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुथर्:।।
कन्या चौथा वचन यह मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं। वैसे शादी का अर्थ ही परिवार की जिम्मेवारी उठाना है जो बिना पुरुषार्थ संभव नहीं है। पिता या दादा का कमाया जितना मर्जी हो परंतु पुरुष को अपने पुरुषार्थ से जीवन यापन करना चाहिए। अपने पुरखों से मिली संपति को धर्म के मार्ग पर चलते हुए बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या।।
यहां जो कन्या कहती है, वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं। यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इस वचन के द्वारा नारी अधिकारों की रक्षा करने का प्रयत्न किया है।
न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुव्र्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम।।
कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुव्र्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं। यह वचन मनुष्य को शराब पीने, जुआ खेलने आदि बुराईयों से बचाता है जो परिवारों में फूट के सबसे बड़े कारण हैं।
परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या।।
सातवें वचन के रूप में कन्या यह वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। वर्तमान संदर्भ में सातवां वचन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। आजकल विवाहोत्तर संबंध समाज की सबसे बड़ी समस्या बन रही है। इसी कारण परिवार टूट रहे हैं और अदालतें तलाक के केसों से पट रही हैं। हमारी संस्कृति 'परदारा मातृेषु पर द्रव्य लोषढ़वत्' अर्थात परस्त्री माता के समान और पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान बताता है। इन दोनों पर कभी बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए। पती-पत्नी का रिश्ता विश्वास की कच्ची डोरी से बंधा होता है और जब टूटता है तो सामने वाले को मर्माहत कर देता है। अगर व्यक्ति सातवें वचन का पालन करे और महिला भी अपने जीवन में इसका व्रत ले तो परिवार टूटने का बहुत बड़ा कारण समाप्त हो सकता है।

- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Wednesday, 20 December 2017

देशभक्ति जिनके लिए उलाहना है

वेदों ने जिस राष्ट्रभक्ति को ईश भक्ति, चाणक्य ने जिस राष्ट्रवाद को सर्वोच्च धर्म और स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस देशभक्ति को अपने प्राणों से अधिक प्रिय माना 21 सदी में आकर यही भावना उलाहना बन गई लगती है। मीडिया हो या राजनीति अब इस देश, देशभक्ति आदि शब्दों को तंज के रूप में लिया जाने लगा है। किसी समय हिंदुत्व सेकुलरों के निशाने पर रहा परंतु बहुत से लोगों ने राजनीतिक मजबूरी के चलते इसके समक्ष समर्पण कर दिया है और अब उनके निशाने पर आगई है देशभक्ति। कुछ नेता व बुद्धिजीवी अपने ऊपर उठाए जाने वाले हर प्रश्न का जवाब देशभक्ति को उलाहना बना कर देने प्रयास करते हैं और यह उलाहना उस समय अधिक दिया जाता है जब सामने भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो।

मध्य प्रदेश के भाजपा विधायक पन्नालाल शाक्य का ने क्रिकेट खिलाड़ी विराट कोहली व अनुष्का की इटली में हुई शादी पर कह दिया कि उन्हें यह शादी संस्कार भारत में संपन्न करने चाहिए थे। निश्चित तौर पर यह आपत्तिजनक ब्यान और किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप है। इसे किसी भी सूरत में ठीक नहीं ठहराया जा सकता परंतु प्रश्न यह भी उठता है कि क्या एक विधायक के ब्यान को किसी राष्ट्रीय दल का विचार मान लिया जाना चाहिए और उसी को आधार बना कर देशभक्ति जैसे पवित्र भाव को कटहरे में खड़ा कर दिया जाना चाहिए? भाजपा या इस तरह के किसी भी दल या संगठन में लाखों-करोड़ों कार्यकर्ता काम करते हैं और क्या हर स्थानीय या गली मोहल्ले के नेता की बात को आधार बना कर उस दल की नुक्ताचीनी सही है? लेकिन यही कुछ हो रहा है, बड़े-बड़े संपादक व बुद्धिजीवी देशभक्ति पर व्यंगात्मक शैली में कटाक्ष कर रहे हैं। पूछा जा रहा है कि क्या विदेश में शादी करवाना देशद्रोह और अपने देश में शादी करवाना देशभक्ति है? जितना छिछोरा भाजपा विधायक का ब्यान था उतने ही छिछोरे प्रश्न पूछे जा रहे हैं।

अभी हाल ही में 6 दिसंबर को कांग्रेस के निलंबित नेता मणिशंकर अय्यर के निवास पर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी, देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी व अन्य लोगों के बीच हुई बैठक हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान इसका न केवल जिक्र किया बल्कि कांग्रेस पार्टी से इसकी सच्चाई देश को बताने की भी मांग की। पहले तो कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने इस तरह की बैठक होने से इंकार किया परंतु बाद में सच्चाई देश के सामने लानी पड़ी। कांग्रेस पार्टी अब लोकसभा व राज्यसभा की कार्रवाईयों को इस प्रश्न पर बाधित कर रही है कि क्या किसी राजनेता को रात्रिभोज देना राष्ट्रद्रोह हो गया? भाजपा कौन होती है किसी को देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाली?

इस तरह के प्रश्न पूछने वाले वास्तव में देशभक्ति के उलाहने की आड़ में असली प्रश्नों से बचने का प्रयास करते हैं। प्रश्न देशभक्ति या देशद्रोह का नहीं बल्कि नियमों के पालन व कूटनयन की मर्यादा से जुड़े हैं। देश पूछेगा ही कि अगर पाकिस्तान के किसी नेता को रात्रिभोज दिया जाना था तो इसकी पूर्व सूचना विदेश मंत्रालय को क्यों नहीं दी गई। बैठक के बाद भी रहस्य बरकरार क्यों रखने की चेष्टा हुई और बैठक के दौरान हुई बातचीत का विवरण सरकार को उपलब्ध क्यों नहीं करवाया गया? स्मरण रहे डा. मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौता हुआ तो उस समय बहुत से अमेरिकी अधिकारियों व दूतों ने भाजपा नेताओं से मुलाकात की थी। भाजपा ने इन मुलाकातों में हुई हर बातचीत की जानकारी तत्कालीन सरकार को उपलब्ध करवाई। पूछना तो यह भी बनता है कि जब पाकिस्तान के साथ हर स्तर पर बातचीत बंद है तो कांग्रेस किस आधार पर वहां के पूर्व विदेशमंत्री से कश्मीर व आतंकवाद से संबंधित मुद्दों पर बातचीत कर रही थी और इस बातचीत से क्या हल निकलने वाला था? लेकिन कांग्रेस इन सभी प्रश्नों को दरकिनार कर देशभक्ति को उलाहने के रूप में प्रयोग कर पूरे मुद्दे को देशभक्त व देशद्रोह के शाब्दिक जाल में फंसाने का प्रयास कर रही है। देशवासियों को ज्ञात होगा कि जब जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में भारत के टुकड़े और आतंकी अफजल गुरु को लेकर नारे लगे थे तो इनका विरोध करने वालों को देशभक्त होने का उलाहना दिया गया था। पूरे मामले को देशभक्ति बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाने का प्रयास हुआ याने देश की बात करने वाले गलत और पौंगापंडित जबकि देश तोडऩे वाले नारे लोकतांत्रिक, संविधानसम्मत। आज देश व देशवासियों के हित में बात करने वालों से सबसे पहले यही प्रश्न पूछा जाता है कि क्या आप देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटोगे?

मध्य प्रदेश के भाजपा विधायक पन्ना लाल शाक्य जिन्हें खुद वहां प्रदेश के सभी लोग भी शायद ही जानते होंगे परंतु आज छाए हुए हैं राष्ट्रीय मीडिया में। उन पर संपादकीय व थू-थू करने वाले स्तंभ लिखे जा रहे हैं और उनकी वाचालता को देशभक्ति बता कर उलाहने दिए जा रहे हैं। कभी साक्षी महाराज की अग्निबाण चलाने वाली जिव्हा को तो कभी असमाजिक तत्वों द्वारा गौरक्षा के नाम पर कई गई गुंडागर्दी को देशभक्ति बताया जाता है और फिर उसी को आधार बना कर देशभक्ति को लांछित करने का प्रयास होता है। देशभक्ति न तो प्रमाणपत्र देने की वस्तु है और न ही उलाहने की, यह स्वस्फूर्त भावना है जो अपने देश के प्रति पैदा होती है। यह यही भाव है जो किसी युवक को भगत सिंह, राजगुरु,सुखदेव बनने को मजबूर करता है तो सर्दी-गर्मी सीमा पर खड़े प्रहरियों को संबल देता है। यह किसी एक व्यक्ति या समाज या संगठन की बपौती नहीं बल्कि हर व्यक्ति का मनोभाव है। इसका न तो किसी से प्रमाणपत्र मांगा जा सकता है और न ही इसे उलाहने के रूप में प्रयोग किया जा सकता।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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