Tuesday, 26 June 2018

कैप्टन सरकार का गौशालाओं पर वज्रपात

पंजाब में पहले से ही आर्थिक मंदी में आकण्ठ डूबी गोशालाओं पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार ने माफी के बावजूद बिजली के बिल भेज कर उन पर वज्रपात सा कर दिया है। इससे राज्य में चल रही लगभग पौने पांच सौ गऊशालाओं के सामने भयंकर संकट पैदा हो गया है और कई गौशालाएं बंद होने की कगार पर पहुंच गई हैं। इन गौशालाओं में लगभग तीन लाख बेसहारा गौवंश शरण लिए हुए है और अगर कांग्रेस सरकार ने अपनी गलती में सुधार न किया तो यह पशुधन सड़कों पर आने को विवश हो सकता है। दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस सरकार जनता से तो गौ कर (काऊ सैस) वसूल रही है परंतु इसको गायों पर खर्च नहीं किया जा रहा है। राज्य की निवर्तमान अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पंजाब की गौशालाओं को नि:शुल्क बिजली की व्यवस्था की थी परंतु कर इक्ट्ठा करने के बावजूद कांग्रेस सरकार गौशालाओं को बिजली के बिल भेज रही है। राज्य सरकार की इस हरकत से जहां लोगों में रोष पाया जा रहा है वहीं सरकार के इस कदम को सीधे-सीधे आफत को निमंत्रण के रूप में देखा जा रहा है। जानकारों का कहना है कि पहले से ही आर्थिक परेशानियों का सामना कर रही गौशालाओं पर आर्थिक बोझ डाला गया तो इससे बहुत सी बंद हो सकती हैं और इसका गौधन फिर से सड़कों पर जीवन यापन करने को विवश हो जाएगा। बेसहारा पशुओं के चलते दुर्घटनाओं व फसलों का नुक्सान झेल रहे पंजाब में इससे समस्याएं बढ़ेंगी ही।

पंजाब के वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार द्वारा आम जनता से गौ कर के जरिए लगभग 50 करोड़ रुपए इक_े किए जा चुके हैं, वहीं पंजाब स्टेट पावर कार्पोरेशन लिमिटेड पिछली अकाली-भाजपा सरकार द्वारा गौशालाओं को दी गई नि:शुल्क बिजली की सुविधा को बंद कर मार्च 2017 से आजतक के बिजली के बिल भेज रहा है। केंद्रीय राज्य मंत्री विजय सांपला ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर को याद करवाया कि गौ सेस के माध्यम से इक_ा किया गया पैसा गौ सेवा में ही लगाया जा सकता है। जब पावरकॉम बिजली बिलों पर गौ सैस लगाकर लगभग 8 करोड़ रुपए इक_ा कर चुका है तो फिर पंजाब की लगभग 472 पंजीकृत गौशालाओं को 5 करोड़ 32 लाख के बिजली बिल सरकारी योजना के अनुसार माफ करने के बावजूद क्यों भेज रहा है। पंजाब सरकार बिजली बिलों पर गौ सैस लगाने के साथ चौपहिया वाहन खरीदने पर एक हजार रुपए, दोपहिया वाहन खरीदने पर 500 रुपए, मैरिज पैलेस का एसी हॉल बुक करने पर एक हजार रुपए और नॉन एसी हॉल बुक करने पर 500 रुपए, सीमेंट की प्रति बैग एक रुपए, भारत में बनी विदेशी शराब पर प्रति बोतल 10 रुपए और बीयर व पंजाब में बनी देसी शराब की प्रति बोतल पर 5 रुपए, तेल टैंकर पर 100 रुपए गो सैस वसूल रही है।

देश के अन्य हिस्सों की भांति कृषि प्रधान राज्य पंजाब में बेसहारा गौधन की समस्या उस समय पैदा होनी शुरू हुई जब खेती का लगभग सारा कामकाज मशीनों से होने लगा। रही सही कसर राज्य सरकारों की दुग्ध नीति ने पूरी कर दी। राज्य में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए कथिततौर पर श्वेत क्रांति के नाम पर विदेशी नस्ल के होलस्टीन व जर्सी गौवंश का अंधाधुंध आयात किया गया। विदेशी नस्ल की यह गायें दूध तो ज्यादा देती हैं परंतु इनकी दूध देने की अवधि चार-साढ़े चार साल तक ही होती है जबकि देसी नस्ल की गायें लगभग सारी उम्र दूध देती हैं। पश्चिमी देशों की संस्कृति के अनुसार विदेशी गायों से दूध लेने के बाद इनके मांस का प्रयोग साधारण बात है परंतु आस्था के चलते भारत में ऐसा संभव नहीं। इसका परिणाम यह निकला कि तीन-चार सालों के बाद जब यह गायें दूध देना बंद कर देती हैं तो पशुपालक इनको छोड़ देते हैं। इन विदेशी नस्ल के पशुओं से राज्य की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। प्रदेश में हर रोज कहीं न कहीं इन पशुओं के चलते दुर्घटनाएं होने के समाचार मिलते रहते हैं और किसानों को रात-रात भर जाग कर अपने खेतों में पहरेदारी करनी पड़ती है। इन पशुओं के दूसरे क्षेत्रों में हांकने के चलते कई बार गांवों में तनाव भी फैलता रहा है।

इस समस्या से निपटने के लिए निवर्तमान मुख्यमंत्री स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली सरकार ने जहां गौसेवा बोर्ड का गठन किया वहीं गौशालाओं को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए उन्हें नि:शुल्क बिजली व पानी की सुविधा दी गई। सरकार पर इस सेवा का बोझ न पड़े इसके लिए बकायदा मंत्रिमंडल में प्रस्ताव पारित कर गौ सैस लगाया गया। इस व्यवस्था के पहले कुछ साल तो सबकुछ ठीक चला परंतु राज्य में सत्ता परिवर्तन होने से कांग्रेस के नेतृत्व में कैप्टन अमरिंद्र सिंह की सरकार का गठन हुआ। वर्तमान सरकार आरंभ से ही आर्थिक संकट के दौर से घिरी नजर आने लगी थी जो अभी तक उबर नहीं पाई है। राजनीतिक कारणों से चाहे कांग्रेस सरकार किसानों से निशुल्क बिजली की सुविधा वापिस लेने के बारे में फैसला लेने से घबराती है परंतु सरकार ने गौशालाओं से बिजली के बिल वसूलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। बता दें कि राज्य में 472 पंजीकृत गौशालाएं हैं जिनमें लगभग 3 लाख गौवंश शरण लिए हुए है। इनका संचालन सामाजिक संगठनों, धार्मिक संस्थाओं व पंचायतों द्वारा किया जा रहा है। इनकी अधिकतर आय का साधन दानप्रेमी जनता से मिलने वाली सहायता ही है। दूध सुखा चुकी विदेशी नस्ल की गायों से भरी यह गौशालाएं पहले ही आकंठ आर्थिक मंदी के बोझ तले दबी हुई हैं और अब सरकार ने 5.32 करोड़ के बिजली के बिल भेज कर इनकी कमर तोड़ कर रख दी है। अगर इनमें से कुछ गौशालाएं भी बंद हो जाती हैं तो वह राज्य में पहले से ही मौजूद बेसहारा पशुओं की समस्या को लेकर कोढ़ में खाज का काम करेगी। यह बात समझ के बाहर है कि जब प्रदेश की जनता इन गायों व गौशालाओं की देखभाल के लिए अपनी जेब से कर दे रही है तो कांग्रेस सरकार किस आधार पर गौदान की अमानत में ख्यानत कर सकती है। 
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Sunday, 24 June 2018

सिद्धू की आईटम गर्ल मार्का राजनीति

क्रिकेट और टीवी दुनिया के शहनशाह रहे पंजाब के स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू राजनीति भी इसी तर्ज पर करते दिख रहे हैं परंतु बिना योजना व ठोस आधार के उनकी सारी हरकतें उनकी छवि फिल्म की उस आईटम गर्ल की बना रही है जिसका काम कहानी को मोड़ देना नहीं बल्कि कुछ समय के लिए दर्शकों की तालियां बटोरना होता है। कुछ दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू आए, बिना बताए ही विधायक परगट सिंह को साथ लेकर निकल पड़े अवैध कब्जों के खिलाफ छापामारी पर, किसी को धमकी तो किसी को चेतावनी। ठीक उसी तरह जैसे आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल सत्ता में आने से पहले खुद सीढ़ी लेकर लोगों के बिजली के कनेक्शन जोड़ा करते थे। खूब तालियां मिलती, मीडिया तरह-तरह के मुहावरे बना कर उनकी इस कार्रवाई की वाहवाही करता परंतु आज उनका व उनके नेतृत्व में चल रही सरकार का क्या हाल है सभी जानते हैं। जितना हो हल्ला मचाया उतना ही ढीलाढाला काम करके दिखा रहे हैं  दिल्ली के नायक। सिद्धू भी लगता है कि कहीं न कहीं उनसे प्रभावित हैं और उनके जैसी ही राजनीति करते हैं लेकिन अगर उन्हें राजनीति की लंबी पारी खेलनी है तो संयम व नियमों के अनुसार चलना सीखना होगा। उछलकूद तालियां तो बजवा सकती है परंतु परिणाम नहीं देती।

जालंधर में कथित छापामारी के दौरान सिद्धू ने स्थानीय निकाय विभाग के कई अधिकारियों को साथ लेकर कई अवैध कालोनियों व निर्माणों पर धावा बोला। कईयों को तोडऩे के हुक्म दिए तो कईयों को चेतावनी और कईयों को सुधर जाने की नसीहतें। उन्होंने इन अवैध निर्माणों के लिए अपने ही तरह से फैसला सुनाते हुए कई अधिकारियों को निलंबित भी किया और कईयों को चार्जशीट करने की चेतावनी दे दी। ऐसा करते हुए स्थानीय निकाय मंत्री सिद्धू भूल गए कि अवैध निर्माण, कालोनियों व कब्जों की समस्या का हल इतना आसान नहीं है कि छापामार कार्रवाई से समस्या हल हो जाए। इस समस्या से केवल पंजाब ही नहीं बल्कि पूरा देश ग्रसित है। खुद पंजाब सरकार अवैध कालोनियों को नियमित करने की नीति पर काम कर रही है। सिद्धू को पता होना चाहिए कि इस तरह की कालोनियों की संख्या सैंकड़ों में नहीं बल्कि हजारों में हैं जिनको एकाएक ध्वस्त करना संभव नहीं है। ऐसा नहीं है कि स्थानीय कांग्रेसी नेता व अधिकारी इस समस्या से परिचित नहीं है और सिद्धू के यह आरोप भी गलत नहीं है कि इन अवैध निर्माणों के पीछे अधिकारियों की मिलीभुगत व नियमों की अनदेखी ही होती है इसके बावजूद सिद्धू की छापामारी जैसी कार्रवाई को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही कारण है कि सिद्धू की इस कार्रवाई का केवल संबंधित लोगों ने ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी विधायकों ने भी विरोध किया और उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। प्रदर्शनकारियों का यह कहना भी उचित है कि सिद्धू अगर प्रदेश में अवैध कब्जों के खिलाफ कुछ करना चाहते हैं तो पहले उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र अमृतसर में सबकुछ करके दिखाना चाहिए और अगर वे अमृतसर को इसकी नाजीर बना कर पेश करते हैं तो स्वभाविक है कि उनकी कार्रवाईयों का हर कहीं स्वागत होगा। लोकतंत्र में अधिकानायकवाद या तानाशाही तरीके से काम नहीं चलता, इसके लिए नियमों का पालन करना जरूरी है और लोकलाज का भी ध्यान रखना पड़ता है। सिद्धू इस बात को जितनी जल्दी समझ जाएं उनके लिए व कांग्रेस के लिए उतना ही बेहतर होगा। कोई बड़ा कदम उठाने से पहले सिद्धू को स्थानीय नेतृत्व व अधिकारियों को अवश्य विश्वास में लेना चाहिए। अच्छा होगा कि सरकार अवैध कब्जों व अवैध कालोनियों को लेकर कोई समग्र नीति बनाए। जो साधारण लोग इन कालोनियों में रह रहे हैं उनके हितों की भी रक्षा की जाए। ऐसी नीति तैयार हो जिसमें नियमों का उल्लंघन करने वालों को सजा मिले और आम आदमी को परेशानी भी न हो और सारा काम नियमों के अनुसार हो न कि यूं ही सुर्खियां बटोरने के लिए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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Saturday, 23 June 2018

योग, दुनिया को स्वीकार और सेक्युलरों का बहिष्कार

21 जून गुरुवार को चौथे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर देहरादून में आयोजित समारोह के दौरान 55 हजार से अधिक साधकों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि-योग व्यक्ति,परिवार,समाज,देश-विश्व और सम्पूर्ण मानवता को जोड़ता है। योग आज दुनिया की सबसे एकीकृत शक्ति में से एक बन गया है। भारतीयों के लिए एक तरफ सुखद अनुभव है कि आज पूरी दुनिया इस देश की एतिहासिक विरासत को स्वीकार करती जा रही है तो तस्वीर का दु:खद पहलु यह भी है कि हमारे देश की सेक्युलर बिरादरी अब भी योग को हेयदृष्टि से देखती है और सांप्रदायिक मानती है। यही कारण है कि जब 21 जून को पूरी दुनिया के 190 देशों के करोड़ों लोग योग-ध्यान कर रहे थे तो कांग्रेस सहित सभी सेक्युलरों ने इसका अघोषित बहिष्कार कर रखा था। दुनिया धरती, आकाश, सागर, पहाड़ों, नदियों, अरब देश के रेतीले टीलों तक में योग कर रही थी और सेक्युलर बिरादरी कोपभवन की मेहमान बनी बैठी थी। बात-बात पर ट्वीट करने वाले सेक्यूलर नेताओं ने इतने बड़े आयोजन पर 40 शब्दों के विचार रखने में भी उचित नहीं समझे।

युगों प्राचीन भारतीय योग पद्धति का दुनिया द्वारा अपनाया जाना अपने आप में सुखद अनुभव देता है। जब कोई भारतीय न्यूयार्क, वाशिंगटन या किसी अन्य बड़े देश में जाता है और वहां योग केंद्र देखता है तो वह स्वभाविक रूप से गौरव महसूस करता है। योग की स्वीकृति केवल शारीरिक व्यायाम की वैश्विक स्वीकार्यता नहीं बल्कि यह प्रमाण है कि दुनिया ने भारत के सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामय: और वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांतों को भी स्वीकार किया है। विश्व में दो विचारधाराएं सदा से समानांतर चलती रही हैं जिसमें एक कहती है सबकुछ मैं, सारा मेरा, सभी मेरे लिए। यह संस्कृति थोड़ी बहुत छूट भी देती है तो मैं के साथ मेरा को रियायत देती है जैसे मेरे साथ मेरा परिवार और मेरी आस्था मानने वाले भी सुविधा पा सकते हैं यानि संकीर्णता ही संकीर्णता। दूसरी ओर हमारी संस्कृति है जो पूरे विश्व को ही परिवार मानती है और जब सभी अपने हैं तो सभी कुछ अपनों के लिए ही तो है। इसी दूसरी विचारधारा का प्रतिनिधि है योग जो देश, काल, वातावरण, नस्ल, पंथ, जाति, अमीरी-गरीबी सभी भेदभावों से ऊपर उठना सिखाता है। लेकिन भारतीय होने के बावजूद देश की सेक्युलर बिरादरी भारतीय मन से अपरिचित दिखाई देती है और योग दिवस को राजनीतिक रूप से भारतीय जनता पार्टी और निजी तौर पर नरेंद्र मोदी से ही जोड़ कर देखती है। अन्यथा क्या कारण था कि खुशी-खुशी इस्लामिक टोपी डाल कर इफ्तार पार्टी में फोटो खिंचवाने वाले राहुल गांधी, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, तेजस्वी यादव, नीतिश कुमार, अरविंद केजरीवाल इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन से दूर रहे। 

आम भारतीयों के लिए गर्व का विषय है कि 2014 में 11 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर वर्ष 21 जून को योग का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने का फैसला लिया गया। महासभा के अपने संबोधन के दौरान 2014 में 27 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा आह्वान के बाद योग दिवस मनाने की घोषणा की गई थी। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी देश के द्वारा दिये गये प्रस्ताव को यू.एन. के द्वारा मात्र 90 दिनों में ही लागू कर दिया गया हो। लोगों के स्वास्थ्य और भले के लिये पूरे विश्व भर के लोगों के लिये एक पूर्णतावादी दृष्टिकोण उपलब्ध कराने के लिये आम सभा के द्वारा वैश्विक स्वास्थ्य और विदेश नीति के तहत इस स्वीकृत प्रस्ताव को अंगीकृत किया गया है। भर्तृहरिशतकम् जिसका जिक्र 26 मई को मन की बात के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया में कहा गया है कि - 

धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शान्तिश्चिरं गेहिनी
सत्यं मित्रमिदं दया च भगिनी भ्राता मन:संयम:।
शय्या भूमितलं दिशोस्पि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं
ह्येते यस्य कुटिम्बिनो वद सखे कस्माद् भयं योगिन:।।

अर्थात जिसका पिता धैर्य, मत क्षमाशीलता हो और शांति चिरकाल तक साथ देने वाली पत्नी हो, सत्य मित्र, दया बहन, भाई मन का संयम हो। भूमि शैय्या, दिशाएँ ही वस्त्र हैं, ज्ञानरुपी अमृत ही भोजन है। ऐसे योगी जिसके कुटुम्बजन (परिवार) ही ऐसे हों, उसे कैसा भय? योग मानव जीवन में इन्हीं गुणों को पैदा करता है और इन्हीं गुणों से युक्त व्यक्तियों से बना समाज विश्व और पूरी मानवता के लिए कितना कल्याणकारी हो सकता है इसका अनुमान भी शायद सेक्युलरवादी नहीं लगा सकते।

असल में देश में पहले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के आयोजन से पहले ही कुछ कठमुल्ला किस्म के लोगों ने योग की संकीर्ण व्याख्या कर इसे पंथ व संप्रदाय से जोडऩे का प्रयास किया लेकिन वह सफल नहीं हो पाए। लगता है कि तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले हमारे सेक्युलर राजनेता आज भी इन कठमुल्लाओं से भयभीत हैं और मानते हैं कि अगर योग करते दिख गए तो उनकी सेक्युलर पंथ की छिछालेदारी हो जाएगी। इस तरह की सोच रखने वाले सेक्युलरों को देखना चाहिए कि अरब देश भी योग को अपना रहे हैं और अबकी बार तो साऊदी अरब में महिलाओं ने योग समारोहों का नेतृत्व व आयोजन किया। हर बात पर सेक्युलर-सेक्युलर चिल्लाने वाले हमारे कुछ नेताओं को वास्तविक सेक्युलरवाद सीखने की अत्यधिक जरूरत है। वह सेक्युलरवाद जो सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष होगा और पाखण्डवाद से दूर होगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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मो-097797-14324

Wednesday, 13 June 2018

मोदी हटाओ, ईवीएम से चाहे मशीनगन से

देश में मोदी हटाओ अभियान तेज हो गया है। वैसे तो यह लोकतांत्रिक रिती रिवाज है कि हर पांच साल बाद लोगों को नई सरकार चुनने का अवसर मिलता है। हर राजनीतिक दल स्थापित सत्ता को उखाड़ अपनी सरकार बनाने व सत्तारूढ़ दल अपना दबदबा कायम रखने के लिए संघर्ष करता है। देश में पिछले चार सालों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ की सरकार चल रही है। कईयों को मोदी पसंद है तो नापसंद करने वाले भी कम नहीं और वे ही चला रहे हैं मोदी हटाओ अभियान। चलाओ, अच्छी बात है पसंद नहीं है तो चलता करो ऐसी सरकार को लेकिन ईवीएम से न कि मशीनगन से, मत का प्रयोग करके न कि किसी की मौत पर यज्ञ करो, जन मुद्दे उठाओ किसी का जनाजा उठाने की साजिश करना ठीक नहीं। साल 2019 जैसे-जैसे देहरी पर आता दिख रहा है मोदी हटाओ अभियान और भी तेजी पकड़ता जा रहा है। अभियान नया नहीं है। पहले इसका नाम मोदी रोको था, जो धाराशाही हो कर अंधनिंदा व अवरोध में बदला और अब मोदी रोको का रंग ले चुका है। गणतंत्र में विश्वास रखने वाले अपनी तैयारी में हैं और गनतंत्र वाले अपनी परंतु कहीं-कहीं दोनों के बीच दुरभीसंधि की दुर्गंध भी आरही है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे कि सरकारों के आने-जाने का सिलसिला तो चलता रहेगा परंतु सबसे महत्त्वपूर्ण है देश का लोकतंत्र परंतु मोदी की हत्या की साजिश की खबरें बता रही हैं कि होता इसके विपरीत दिख रहा है। सरकार हटाने के नाम पर नेता को हटाने की योजना बन रही है और मनपसंद सरकार के लिए लोकतंत्र की छाती पर बंदूक तानी जा रही है।  

हाल ही में कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है और उनके पास से एक चि_ी बरामद हुई है जिससे पता चलता है कि नक्सली लोग मोदी की हत्या करने का षड्यंत्र रच रहे थे। चिट्ठी की भाषा अत्यंत चिंताजनक है फिलहाल पुलिस मामले की जांच कर रही है। दिल्ली में सोमवार को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा की समीक्षा भी की और नए खतरे से निपटने के लिए एक योजना तैयार करने की भी बात कही गई है। षड्यंत्र के तार जुड़े महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव से जहां एल्गान परिषद् के एक कार्यक्रम के बाद हिंसा भड़क उठी थी जिसमें एक व्यक्ति की मौत भी हो गई। इस संबंध में एक प्राथमिकी में कबीर कला मंच नाम को अभियुक्त बनाया गया जबकि दूसरी में गुजरात के नेता जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू में भारत को टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाने के आरोपी उमर खालिद को। पुलिस का कहना है कि कबीर कला मंच का संबंध माओवादियों से है। पुणे की पुलिस के अनुसार, एल्गार परिषद् के सदस्यों और कार्यकर्ताओं की जाँच के दौरान नेताओं की ईमेलों की भी जांच की गई। इसी दौरान वो ई-मेल भी सामने आया, किसी कॉमरेड प्रकाश को किसी एम ने लिखा था। इसी मेल में राजीव गांधी हत्याकांड की तर्ज पर मोदी पर हमला करने की बात कही गई है। पुलिस ने कहा है कि माओवादियों ने ही भीमा कोरेगाँव में पेशवा की हार की 200वीं बरसी के आयोजन में आर्थिक मदद की थी। पूरे प्रकरण में दिल्ली, मुंबई, पुणे और नागपुर में की गई इन छापामारियों के बाद पुलिस को माओवादियों के शहरी नेटवर्क का पता लगाने में सफलता हासिल की है। आरोपियों में सुधीर ढलवे मराठी पत्रिका विद्रोही के संपादक हैं। ढवले माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा है। पेशे से अंग्रेजी की प्राध्यापक शोमा सेन की गिरफ्तारी नागपुर से की गई। उनके पति तुषार भट्टाचार्य को पिछले साल ही माओवादी समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तार किए जा चुके हैं। सेन पर भी माओवादियों का समर्थक होने का आरोप है। तीसरे आरोपी पेशे से वकील सुरेंद्र गडलिंग है जो इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लॉयर्स के महासचिव हैं। एक अन्य अभियुक्त रोना विल्सन माओवादी नेता प्रोफेसर जीएन साईंबाबा का नजदीकी साथी है। साईंबाबा को भी माओवादियों के शहरी नेटवर्क में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। पुलिस ने दिल्ली में उनके घर पार छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। छापामारी अप्रैल में ही की गई थी, मगर जब्त की गई चीजों से उनके माओवादियों से संबंध का पता चला। जिस ई-मेल में प्रधानमंत्री पर हमला करने की बात कही गयी है वो विल्सन के यहाँ छापामारी में ही बरामद हुई है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को भी माओवादियों की ओर से धमकियां दी जा चुकी हैं।

देश इस बात से भलिभांति परिचित है कि वामपंथी विचारधारा को संघ परिवार, भाजपा और मोदी फूटी आंख नहीं सुहाते। रोचक बात है कि संघ और देश में वामपंथी दलों का जन्म एक ही साल हुआ और आरंभ से ही दोनों के बीच के रिश्ते तल्खी वाले रहे हैं। ज्यादा इतिहास में न जाते हुए केवल देश की राजनीति में मोदी के उदयकाल से लेकर अब तक की ही बात करें तो वामपंथियों ने सच्चे-झूठे आरोप लगा कर मोदी को केवल देश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भी बदनाम करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। गुजरात दंगों के बाद तो वामपंथियों ने मानो मोदी के खिलाफ जेहाद का ही ऐलान कर दिया। सभी को याद है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने पर वामपंथियों ने कितनी हायतौबा मचाई। विगत लोकसभा चुनाव के दौरान वामपंथी लेखकों, बुद्धिजीवियों व नेताओं ने एक समाचारपत्र में खास अपील देश के लोगों को की कि वह मोदी को पराजित करने में कोई कसर बाकी न छोड़े। इन्हीं वामपंथियों ने देश में असहिष्णुता की बात फैला कर पुरस्कार वापसी अभियान चलाया और देश-दुनिया में मोदी सरकार के खिलाफ खूब जहर उगला। अभी-अभी समाचार आए हैं कि देश में माओवाद व नक्सलवाद समाप्त होने के करीब आचुका है। ऊपर से भाजपा ने त्रिपुरा में लगभग अढ़ाई दशकों से चले आरहे वामपंथ के गढ़ को पूरी तरह से धाराशाही कर दिया। कहने का भाव कि मोदी सरकार व भाजपा ने बैलेट और बुलेट दोनों मोर्चे पर वामपंथ को करारी चोट पहुंचाई है। शायद यही कारण है कि वामपंथी आतंकी इतने खिसियाए हुए हैं कि वे मोदी को अलोकतांत्रिक ढंग से रास्ते से हटाने की जुगत में हैं। देश में बढ़ रही जातीय हिंसा, किसान के नाम पर हिंसक आंदोलन शंका पैदा करते हैं कि वामपंथी विचारधारा मुखौटा पहन कर अपना खेल खेल रही हैं। चुनावी वर्ष है, देश और समाज को जागरुक रहना होगा।
- राकेश सैन
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Monday, 11 June 2018

डा. हेडगेवार ही नहीं, भगवा ध्वज व हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत का भी सम्मान

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समारोह में हिस्सा लेेना केवल वैचारिक सदाश्यता व संवाद स्थापना की स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के पुनर्जन्म के रूप में ही याद नहीं किया जाएगा, बल्कि संभावना बनी है कि इससे देश में अब तक चली आरही कुछ वैचारिक कुंठाओं के निराकरण की भी भूमिका तैयार होगी। प्रणब दा ने संघ संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार को भारत का महान सपूत बता कर जहां उनके प्रति वर्जनाओं को तोड़ा वहीं हिंदूराष्ट्र व भगवा ध्वज के प्रति संघ की विचारधारा का सम्मान करते भी दिखे। कुछ लोग इसे अतिउत्साह या कुछ और संज्ञा दे सकते हैं परंतु समारोह के दौरान मुखर्जी द्वारा भगवा ध्वज व संघ प्रार्थना के प्रति व्यक्त किया सम्मान अपने आप में बहुत कुछ कहता दिख रहा है। डा. हेडगेवार, हिंदू राष्ट्र के सत्य सनातन सिद्धांत व भगवा ध्वज को लेकर संघ के शैशवकाल से ही विरोधियों ने इतना थूक उछाला कि सच्चाई का दर्पण ही धुमिल हो गया। चाहे न तो हिंदू राष्ट्र का सिद्धांत  विविधता में एकता व धर्मनिरपेक्षता विरोधी है और न ही भगवा ध्वज तिरंगे का प्रतिद्वंद्वी परंतु विरोधियों ने अभी तक इनको अनर्थ के रूप में ही पेश किया है। अब डा. मुखर्जी ने ध्वजारोहण व संघ प्रार्थना के समय पद्धति अनुसार सम्मान में खड़े हो हिंदू राष्ट्र व भगवा ध्वज के सिद्धांतों को भी सम्मानित किया है। आशा की जानी चाहिए कि इस नई पहल पर राष्ट्रीय चर्चा की शुरूआत होगी और अंतत: सच्चाई देश के सामने आएगी।
संघ की प्रार्थना में भारत का हिंदू भूमि और यहां के निवासियों का हिंदू राष्ट्र के अंग के रूप में वर्णन है। प्रार्थना की दूसरी पंक्ति में आता है- त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम। अर्थात हे सुखपूर्ण पालन करने वाली, सुखों में वृद्धि करने वाली मातृ भूमि जो हिंदू भूमि है मैं तुम्हे नमस्कार करता हूं। इसी तरह प्रार्थना के पहले पहरे की पहली ही पंक्ति में आता है कि- प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्रांगभूता, इमे सादरं त्वां नमामो वयम्। अर्थात हे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर! हम हिन्दूराष्ट्र के अंगभूत तुझे सादर प्रणाम करते हैं। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दें। संघ के दूसरे सरसंघचालक  श्री गुरुजी ने 1939 में अपनी किताब 'नेशनलिस्ट थॉट ऑफ अवर नेशनहुड डिफाइंड' में उन्होंने राष्ट्र को परिभाषित किया। यह राष्ट्र युगों से चली आरही संस्कृति के मूल्यों को धारण करने वाला हिंदू राष्ट्र है। विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर ने 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) में हिंदू महासभा के 19वें सत्र को संबोधित करते हुए हिंदुत्व व हिंदूराष्ट्र की परिभाषा दी। 
आसिंधूसिंधुपर्यता यस्य भारत भूमिका।                                             पितृ भू:पुण्यभूयैश्चैैव सवै हिंदुरितिस्मृत:।।
अर्थात वे सभी लोग हिंदू हैं जो सिंधु नदी से हिंद महासागर तक फैली भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानते हैं। देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जेएस वर्मा ने भी साल 1996 में दी गई अपनी व्यवस्था में कहा कि हिंदुत्व इस धरती पर पांच हजार सालों से चली आरही जीवन पद्धति का नाम है, इसे किसी विशेष उपासना पद्धति से नहीं जोड़ा जा सकता। हिंदुत्व इस देश में रहने वाले लोगों की नागरिकता का नाम है, लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व वैचारिक बेईमानी के चलते हिंदुत्व को धर्म तक सीमित कर उसे सांप्रदायिकता का जामा पहनाने की कोशिश हुई। सत्य सनातन हिंदूराष्ट्र की अवधारणा से किसी दूसरी उपासना पद्धति या विचार या संप्रदाय को कहीं कोई खतरा नहीं, बल्कि यह सिद्धांत सभी की सुरक्षा व स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। आशा है कि डा. मुखर्जी की मूक स्वीकृति से हिंदुत्व व हिंदूराष्ट्र को लेकर विदेशियों, वामपंथियों व छद्मधर्मनिरपेक्षता वादियों द्वारा फैलाए गए भ्रम से देश को मुक्ति मिलेगी।
हिंदू राष्ट्र की तरह भगवा ध्वज को लेकर भी बेईमान बौद्धिकता ने खूब झूठ की जुगाली की है। 22 जुलाई, 1947 को संविधानसभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता दी और तब से लेकर आज तक कुछ लोग पूरे मामले को भगवा बनाम तिरंगा बना कर पेश करते आरहे हैं। संघ का विचार रहा है कि तिरंगे का जन्म 1930 में हुआ परंतु उससे पहले भी तो भारत का कोई न कोई राष्ट्रीय ध्वज था। भगवान श्रीराम से लेकर, महाभारत में श्रीकृष्ण-अर्जुन, शकों-कुषाणों के खिलाफ चंद्रगुप्त मौर्य, अलक्षेंद्र (सिकंदर) के खिलाफ पर्वतेश्वर राज (पोरस), गौरी के खिलाफ पृथ्वीराज, मुगलों के खिलाफ प्रताप और शिवाजी ने इसी भगवा ध्वज के तले युद्ध लड़ा। भगवा ध्वज संघ का अविष्कार नहीं बल्कि देश का प्रतीक है। तिरंगा भारतीयों द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय ध्वज है और वर्तमान में इसे सभी स्वीकार व इसका सम्मान करते हैं। संघ को लेकर सदैव यह साबित करने का प्रयास होता रहा है कि वह तिरंगे का विरोधी है जबकि एतिहासिक सत्य इसके विपरीत है।
14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान का जन्म हुआ तो श्रीनगर में पाकिस्तान समर्थकों ने अनेक इमारतों पर पाकिस्तानी झंडे लगा दिए। तब संघ के स्वयंसेवकों ने कुछ ही घंटों के अंदर तीन हजार तिरंगे तैयार करवा कर पूरे श्रीनगर में फहराए और पूरे राज्य का महौल बदल दिया। 22 नवम्बर,1952 को युवराज कर्णसिंह के जम्मू आगमन पर शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी पार्टी के झंडे फहराने की चाल चली तब संघ के स्वयंसेवकों ने तिरंगा फहराए जाने को लेकर सत्याग्रह किया। शेख अब्दुल्ला के इशारे पर पुलिस ने गोली चलाई, जिसमे 15 स्वयंसेवक शहीद हो गए। 2 अगस्त, 1954 को स्वयंसेवकों ने पुणे के संघचालक विनायक आप्टे के नेतृत्व में दादरा और हवेली की बस्तियों पर धावा बोलकर 175 पुर्तगाली सैनिकों को हथियार डालने पर विवश किया और वहाँ तिरंगा फहरा कर वह प्रदेश केंद्र सरकार के हवाले कर दिया। 1955 के गोवा मुक्ति संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसी सत्याग्रह में तिरंगा लहराते हुए सीने पर पुर्तगालियों की गोली खाकर पहला बलिदान देने वाले उज्जैन के स्वयंसेवक राजाभाऊ महांकाल थे। संघ के स्थापना काल से ही देश के इस युगों-युगों से चले आरहे राष्ट्रीय ध्वज भगवा को गुरु के रूप में स्वीकार किया गया जिसके समक्ष स्वयंसेवक प्रतिदिन एकत्र होकर अभ्यास -चिंतन करते हैं। 1927 में संघ में भगवा ध्वज को गुरु की मान्यता दी गई। इसके बीस वर्ष बाद 1947 में तिरंगा राष्ट्र ध्वज बना तब संघ मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया गया। संघ तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज और भगवा ध्वज को गुरु रूप में स्वीकार करता है। अब प्रणब मुखर्जी ने भी भगवा ध्वज व हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत को सम्मान देकर इस अनावश्यक विवाद पर विराम लगाने का प्रयास किया लगता है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
- राकेश सैन
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Sunday, 10 June 2018

उपदेश नहीं, जीवन को उदाहरण बनाएं

आपस में सद्भावना रखकर समाज सब एक दूसरे का सम्मान करके चलें। परस्परम भाव यन्तं हम अपने अपने पथ पर प्रमाणिकता से चलें। तो प्रमाणिक लोगों में मत आड़े नहीं आते। प्रमाणिक लोगों में कुछ बात आड़े नहीं आती है। जो सही हैं उस पर सब चलते हैं। उनके मतों की आपस की चर्चा से एक सुन्दर संवाद बनता है। जैसे अपने उपनिषदों के संवाद हैं। तरह-तरह के मत हैं, सबका प्रतिपादन है। उसमें से एक सहमति निकलकर आती है। पढऩे के लिए, चिंतन के लिए और जीवन में उतारने के लिए भी अच्छा लगता है। क्योंकि सत्य है उस सत्य पथ पर चले हम सब ऐसा हमारा संस्कार हो, ऐसी हमारी आदत हो, ऐसी हमारी बुद्धि हो, ऐसा समाज उपदेश से नहीं, अपने स्वयं के जीवन से उदाहरण करने वाले कार्यकर्ता संघ तैयार करता है। यह हम सबके लिए हम सबका काम है और इसलिए मैं आपको आह्वान करता हूँ कि इस कार्य को प्रत्यक्ष देखिये। जो कुछ अभी तक मैंने अब तक कहा वो वास्तव मैं है कि नहीं इसका पड़ताल कीजिये और आपको लगा की ऐसा है तो ये सर्वहित का कार्य है इसमें आप भी सहभागी होइये। संघ को परखें अन्दर से परखें। आना-जाना अपनी मर्जी की बात है यहां पर, मनमर्जी का काम है सब आ सकते हैं सब परख सकते हैं और परखकर अपना भाव बना सकते हैं जैसा बनेगा वो बनेगा, हमको उसकी चिंता नहीं। हम क्या हैं हम जानते हैं, हम जो हैं वैसे दिखते हैं, हम जो हैं वही हम करते हैं। सबके प्रति सदभाव रखकर किसी का विरोध मन में ना रखकर हम अपने पथ पर दृढ़तापूर्वक आगे चल रहे हैं। लेकिन ये केवल हम करेंगे तो नहीं होगा पूरे समाज का ये काम है, सारे समाज को इस मार्ग को परखना चाहिए और अगर ठीक लगता है तो इसके सहयोगी बनना चाहिए। एक आह्वान मैं आपके सामने रखता हूँ। 

- राकेश सैन
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परमवैभवसंपन्न भारत दुनिया की जरूरत

भारतवर्ष के कोने- कोने आये हुए लोग, विभिन्न स्वभाव के लोग, विभिन्न पृष्ठभूमि के, विभिन्न भाषा-भाषी, प्रान्तों के विभिन्न जाति-उपजातियों के अपरिचित लोग पहले दिन आते हैं और जिस दिन जाने का समय होता है, उस दिन आँखों में आंसू रहते हैं। भाषा समझ में नहीं आई लेकिन आत्मियता ऐसी हो गई की लगता है बिछुड़ें ही नहीं। अनुभूति धारण करते है कि सारा भारतवर्ष मेरा अपना है। सारे भारतीय मेरे अपने हैं। जो प्रतिज्ञा मैं विद्यालय की प्रार्थना में करता था भारत मेरा देश है, सारे भारतीय मेरे बांधव है, भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का गौरव मेरे मन में है। उन सारी बातों की प्रत्यक्ष बातों की अनुभूति वो यहाँ प्राप्त करते हैं। इसके बाद उनको और प्रशिक्षण की आवश्यकता इसीलिए नहीं रहती। अनुभूति मन को प्लावित करती है मन ऐसा बनाकर आँख और कान खोलकर समाज में समाज की सेवा, परोपकार का काम करते हैं तो अपने आप आगे का प्रशिक्षण हो जाता है ये संघ का कार्य है। हम सारी सज्जन शक्तियों को जुटाना चाहते है। हमें विचारों से मतों से कोई परहेज नहीं है। गन्तव्य एक हो परम वैभव संपन्न भारत, विश्वगुरु भारत उसकी दुनिया को आवश्यकता है। दूसरा कोई आज की दुनिया की समस्याओं को हल करने का उत्तर नहीं दे सकेगा। भारत वर्ष को देना है बोलकर नहीं देना है, अपना जीवन वैसा प्रस्थापित करके देना है। उस जीवन को स्थापित करने के लिए लायक भारतीयों का भारत। उसके स्वत्व के आधार पर पक्का खड़ा, अपने स्वत्व की पक्की पहचान जिसके मन में है। उसके बारे में जो स्पष्ट है, उसके बारे में जो निर्भय है, संकोच नहीं है, ऐसा समाज इस देश में हम खड़ा करना चाहते हैं। ऐसा समाज ही विश्व की और भारत की और हमारे आपके दैनिक जीवन की सब समस्याओं का पूर्ण उत्तर है। उसको हम सबको खड़ा करना है, संघ का काम केवल संघ का काम नहीं है, ये तो हम सबके लिए है। इसको देखने के लिए अनेक विचारों के महापुरुष आ चुके है, आते रहते है। मैं उसका विवरण नहीं दूंगा आपको पता है। इस प्रसंग के निमित्त ऐसा बहुत आया भी है। आते है देखते है हम उनसे बाते ग्रहण करते हैं , उनकी सूचनाएं उसका विचार करते हैं, हमने जो पथ तय किया है, हमने जो कार्यक्रम तय किया है, हमने जो गंतव्य किया है उसमें उसकी जो मदद होती है उसका विचार करते हैं, उनको स्वीकार करते हैं।
- राकेश सैन
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Saturday, 9 June 2018

मैं नहीं, देश व समाज पहले

1925 से संघ चला, धीरे-धीरे बढ़ता गया। सब प्रहारों के, सब बाधाओं के बावजूद बढ़ता गया। धीरे-धीरे प्रतिकूलता को उसने स्नेह में बदल दिया। आज लोकप्रिय है। जहां जाते हैं वहां समाज का स्नेह मिलता है। विशाल संगठन बन गया है, लेकिन हम इसमें कृतार्थ का अनुभव नहीं करते। हमको अपने को प्रसिद्ध करने के लिए काम नहीं करना था और ना ही कर रहे हैं। आगे बढऩा है। अनुकूलता का समय भी आता है लेकिन अनुकूलता विश्राम के लिए प्रवृत करती है, विश्राम हमको नहीं करना है। परम वैभवम् मेतु तथ्यराष्ट्रम, यह हमारा लक्ष्य है। और उसके लिए सतत कार्यकर्ता निर्माण की जो प्रक्रिया चलती है उसके चलते उस प्रक्रिया को चलाने वाले कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी प्रतिवर्ष होता है। तृतीय वर्ष के समापन का प्रसंग प्रतिवर्ष हम यहां अनुभव करते हैं। अपना खर्चा करके साम्पतिक सुस्थिति में ये सब के सब शिक्षार्थी यह सब के सब नहीं हैं। प्रांतों के वर्गों में और यहां के वर्ग में भी ऐसे लोग मिलते हैं जो हजार रुपये शुल्क जुटाना, प्रवास शुल्क जुटाना इसके लिए दो-तीन महीना मेहनत मजदूरी करके पैसा जुटा कर उस पैसे को अपनी भौतिक आवश्यकता के लिए खर्चा न करते हुए वर्ग का शुल्क देकर यह प्राप्त करते हैं। उनको कहीं मिलने वाला नहीं है, वो ऐसा करते हैं इसलिए उनको धन्यवाद भी नहीं दिया जाता। और यह आदत भी लगाई जाती है कि अपेक्षा कुछ मत करो, नेकी करो और कुंवे में डाल दो। वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत पुष्पहार छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना हिन्दू राष्ट्र के तारणहार। तेरा वैभव अमर रहे मां हम दिन चार रहें न रहें। ये सीख वो ले गए। यह संस्कार लेते हैं। अपने मन के भाव को पुष्ट करते हैं। तृतीय वर्ष में आते हैं तो आज तक जो पुस्तकों में पड़ा था, बौद्धिकों में सुना था, इधर-उधर से सुन रहे थे, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति ग्रहण करते हैं।

- राकेश सैन
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ज्ञानाय, दानाय, दक्षणाय, विद्या समाज के लिए

कार्य कोई भी सम्पन्न होता है तो शक्ति के आधार पर सम्पन्न होता है। किसी भी कार्य को करने के लिए शक्ति चाहिए। यह जीवन का नियम है, विज्ञान सिद्ध नियम है। और शक्ति संगठन में होती है, सब के मिलकर काम करने में होती है। और शक्ति को अगर शील का आधार नहीं रहा तो वह शक्ति दानवी शक्ति बनती है। अच्छी बातों का उपयोग बुरे कामों में होता है। विद्या विवादाय, धनम् मदाय, शक्ति परेशाम, परपीडऩाय। विद्या प्राप्त लोग विवाद में समय गवांते हैं सहमति नहीं बनाते। विद्या के आधार पर सहमति बननी चाहिए। लेकिन विवाद चलते हैं। धनपति लोग धन के मद में चूर हो जाते हैं। धन का वो उपयोग नहीं है। और शक्ति दूसरों की सब बातों की इच्छा करना और दूसरों को पीड़ा देना वो प्राप्त करने के लिए इसलिए करती है। यह कौन करती है, दुष्ट लोग करते हैं। खलस्य। विद्या विवादाय, धनम् मदाय, शक्ति परेशाम परपीडऩाय खलस्य, साधो: विपरीत मेतत। सज्जनों की गति उलटी चलती है। ज्ञानाय, दानाय, दक्षणाय, विद्या का उपयोग समाज में ज्ञान बढ़ाने के लिए करते हैं, धन का उपयोग दान में करते हैं और शक्ति का उपयोग रक्षण के लिए करते हैं। दुर्बलों का रक्षण करते हैं। शक्ति को शील का आधार चाहिए, बिना उसके अनियंत्रित शक्ति यह खतरे वाली बात है। और इसलिए उस शक्ति की उत्पति, उस शील की उत्पति समाज की आज की स्थिति में, सब संकटों से, समस्याओं से उबार कर समाज श्रेय का मार्ग चलने लगे ऐसे ज्ञान की आराधना, सब परिस्थितियों में अपनी तपस्या पर अडिग रहने के लिए वीर व्रत की आराधना। और सब प्रकार के मोह आकर्षणों से, कष्टों से गुजरते हुए भी अपने ध्येय को कभी ओझल न होने वाली, उलटा अधिकाधिक ध्येय प्राप्ति की उत्कंठा उत्पन्न करने वाली ध्येय निष्ठा, इन पांच गुणों की आराधना संघ की शाखा में स्वयंसेवक करते हैं। एक घंटा यह सारे अपने तन मन में कार्यक्रम करते हुए अंत में जो प्रार्थना करते हैं भारत माता की उसमें प्रभु से इन्हीं पांच गुणों का वरदान मांगते हैं।

- राकेश सैन
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चारित्र्यशील लोग खड़े करना संघ का प्रयास

विचार कुछ भी हो, देश के सामने विभिन्न जो विषय हैं, समस्याएं हैं उनके हल के बारे में मत कुछ भी हो, विचारधारा कोई भी हो, जाति-पाति, प्रांत, पंथ, पक्ष, भाषा कोई भी हो लेकिन सम्पूर्ण समाज को, सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानते हुए व्यापक दृष्टि से उसके हित के प्रकाश में मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक सामाजिक और आजीविका में आचरण कैसा हो इसका विचार करके अपने आचरण का उदाहरण आसपास प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति वो वातावरण बनाता है। वह महापुरुष नहीं होता, वह सब में एक होता है। महापुरुषों के आदर्शों की समाज पूजा करता है। उत्सव करता है, जयंती, पुण्यतिथि मनाता है। लेकिन अनुकरण तो उसका करता है जो उसके आसपास पड़ोस में रहने वाला उसके जैसा लेकिन लेकिन थोड़ा सा प्रमुख। ऐसे उदाहरण अपने जीवन से स्थापित करने वाले कार्यकर्ता चाहिए। आदर्श हमारे पास भरपूर हैं, कमी नहीं है। सुविचार की कमी नहीं है, श्रेष्ठतम तत्वज्ञान हमारे पास है। परन्तु व्यवहार के बारे में हम निकृष्ठ थे, अब हम कैसे कह सकते हैं कि थोड़ा सा सुधार हुआ है। लेकिन अभी तक जितनी मात्रा में व्यवहार चाहिए वैसा नहीं है। और वो तब बनता है जब सब प्रकार की परिस्थिति में उस व्यवहार में अड़कर वैसा व्यवहार करने वाले समाज से ही समाज के जैसे ही परन्तु अपने चारित्र्य से शील से विशिष्टिता रखने वाले लोग खड़े होते हैं। ऐसे लोग देशभर में खड़े करने का प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। क्योंकि सारे समाज को एक विशिष्ट दृष्टि से चलने की आवश्यकता है।

- राकेश सैन
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कोई भारतीय पराया नहीं


डा. भागवत ने कहा कि हिन्दू समाज में एक अलग प्रभावी सगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं हैं। संघ तो सम्पूर्ण समाज को संगठित करना चाहता है और इसलिए हमारे लिए कोई पराया नहीं हैं और वास्तव में किसी भारतवासी के लिए दूसरा कोई भारतवासी पराया नहीं है। विविधता में एकता ये अपने देश की हजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम भारतवासी हैं ही यानी क्या हैं? संयोग से इस धरती पर जन्में या पैदा हुए इसलिए केवल हम भारतवासी ही नहीं हैं। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा प्रत्येक व्यक्ति भारतपुत्र है। इस मातृभूमि की निसीम भाव से भक्ति करना उसका काम है। और जैसे-जैसे उसको समझ में आता है छोटे तरीके से, बड़े तरीके से सभी लोग ऐसा करते हैं। इस भारत भूमि ने केवल हमको पोषण और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधन नहीं दिए है, उसने हमको हमारा स्वभाव भी दिया है।

सुजल, शुफल, मलयज, शीतल मातृभूमि और चारों ओर से प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित, इसमें बाहर के लोगों का आना-जाना बहुत कम हो सकता था और अन्दर भरपूर स्मृद्धि थी इसलिए जीवन जीने के लिए हमको किसी से लडऩा नहीं पड़ा। स्वभाविक दृष्टि से इस मनोवृति के बने कि सर्वत्र भरपूर है, हम उसका उपभोग कर रहे हैं, अपने जीवन समृद्ध कर रहे हैं। कोई आता है तो ठीक है तुम भी आ जाओ, तुम भी साथ रहो। भाषाओं की, पंथ, सम्प्रदायों की विविधता तो पहले से है, अलग-अलग प्रकार से प्रान्त बनते हैं, रचनाएं बदलती रहती हैं। राजनीतिक मत प्रवाह, विचार प्रणालियां पहले से रही हैं। लेकिन इस विविधता में हम सब भारत माता के पुत्र है और अपने-अपने विविधता वैशिष्ट्य पर पक्का रहते हुए, दूसरों की विविधताओं का सम्मान करते हुए, स्वागत करते हुए और उनके अपनी विविधता पर रहने को स्वीकार करते हुए मिलजुल कर रहना। विविधता में जो अंतर्निहित एकता है, भारत के उत्थान लिए परिश्रम करने वाले सभी प्रमाणिक बुद्धि के निस्वार्थ महापुरुषों ने अभी तक जिसका उल्लेख करना कभी छोड़ा नहीं, ऐसी उस अंतर्निहित एकता का साक्षात्कार करके अपने जीवन में रहना, ये हमारी संस्कृति बनी और उसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने और सारे विश्व के भेद और स्वार्थ मिटाकर विश्व के कलह मिटाकर सुख-शांतिपूर्ण संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म उसको दिया जाए। इस प्रयोजन से इस राष्ट्र को अनेक महापुरुषों ने इसे खड़ा किया। अपने प्राणों की बलि देकर सुरक्षित रखा, अपने पसीने से सींचकर बड़ा किया। उन सभी महापुरुषों के हमारे पूर्वज होने के कारण गौरव का स्थान हम अपने हृदय में हम रखते हैं और उनके आदर्शों का अनुसरण करने का अपने-अपने हिसाब से प्रयास करते है। मत-मतान्तर हो ही जाते हैं। मत का प्रतिपादन करने का शास्त्रार्थ करते समय और विवाद भी करने पड़ते हैं। लेकिन इन सब बातों की एक मर्यादा रहती है। अंततोगत्वा हम सब लोग भारत माता के पुत्र हैं। मत-मतान्तर कुछ भी होंगे हम अपने-अपने मत के द्वारा ये मान कर चल रहे हैं कि भारत का भाग्य हम बदल देंगे, हम उसको परम वैभव संपन्न स्थिति में पहुचाएंगे। एक ही गन्तव्य के लिए अलग-अलग रास्ते लेने वाले लोगों को अपनी विशिष्टता, विविधता को लेकर तो चलना चाहिए ही, उससे हमारा जन-जीवन समृद्ध होता है। विविधता होना यह सुन्दरता की बात है, स्मृद्धि की बात है। उसको स्वीकार करके तो हम चलते ही हैं, परन्तु ये दिखने वाली विविधता एक ही एकता से उपजी है। उस भाव का भान रखकर हम सब एक हैं, इसका भी दर्शन समय-समय पर होते रहना चाहिए। क्योंकि किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले समूह नहीं होते, व्यक्ति नहीं होते, विचार तत्व ज्ञान नहीं होता, सरकारें नहीं होती। सरकारें बहुत कुछ कर सकती है लेकिन सरकारें सब कुछ नहीं कर सकती। देश का सामान्य समाज जब तक गुण संपन्न बनकर अपने अंत:करण से भेदों को तिलांजलि देकर, मन के सारे स्वार्थ हटाकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है तब सारी सरकारें, सारे नेता, सारे विचार समूह उस अभियान के सहायक बनते हैं और तब देश का भाग्य बदलता है। 
- राकेश सैन
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स्वामी विवेकानंद सरीखा डा. भागवत का संबोधन

महापुरुषों के जीवन या गोलोकागमन व एतिहासिक घटनाओं की स्मृतियों से जुड़ी जयंतीयां या वर्षगांठ हर समाज में मनाई जाती है परंतु पूरे विश्व में स्वामी विवेकानंद जी को ही इसका श्रेय जाता है कि दुनिया उनके भाषण की भी जयंती मनाती है। 11 सितंबर, 1893 में अमेरिका के शहर शिकागो में हुए धर्मसम्मेलन के दौरान स्वामी विवेकानंद जी ने दुनिया से धर्म के आधार पर भेदभाव को समाप्त कर सभी धर्मों को सम्मानित स्थान दिलवाया। उन्होंने भारतीय दर्शन के आधार पर धर्म की एक अलग परिभाषा दी जिसके अनुसार, उपासना पद्धति अलग हो सकती है, पथ विविधता संभव है परंतु लक्ष्य अंतत: वह परम सत्य ही है। उनके भाषण से पूरी दुनिया धार्मिक सद्भावना के सूत्र में पिरोई गई। लगभग उसी तरह 7 जून को नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यालय रेशिम बाग में संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समारोह में सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने राष्ट्रीयता को परिभाषित किया और आशा की जानी चाहिए कि इस संबोधन से मार्गदर्शन ले सभी शक्तियां आपसी मतभेद भुला समाज को एकता के सूत्र में पिरोने को प्रतिबद्ध होंगी।

डा. भागवत ने कहा कि हिन्दू समाज में एक अलग प्रभावी सगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं हैं। संघ तो सम्पूर्ण समाज को संगठित करना चाहता है और इसलिए हमारे लिए कोई पराया नहीं हैं और वास्तव में किसी भारतवासी के लिए दूसरा कोई भारतवासी पराया नहीं है। विविधता में एकता ये अपने देश की हजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम भारतवासी हैं ही यानी क्या हैं? संयोग से इस धरती पर जन्में या पैदा हुए इसलिए केवल हम भारतवासी ही नहीं हैं। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा प्रत्येक व्यक्ति भारतपुत्र है। इस मातृभूमि की निसीम भाव से भक्ति करना उसका काम है। और जैसे-जैसे उसको समझ में आता है छोटे तरीके से, बड़े तरीके से सभी लोग ऐसा करते हैं। इस भारत भूमि ने केवल हमको पोषण और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधन नहीं दिए है, उसने हमको हमारा स्वभाव भी दिया है।

सुजल, शुफल, मलयज, शीतल मातृभूमि और चारों ओर से प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित, इसमें बाहर के लोगों का आना-जाना बहुत कम हो सकता था और अन्दर भरपूर स्मृद्धि थी इसलिए जीवन जीने के लिए हमको किसी से लडऩा नहीं पड़ा। स्वभाविक दृष्टि से इस मनोवृति के बने कि सर्वत्र भरपूर है, हम उसका उपभोग कर रहे हैं, अपने जीवन समृद्ध कर रहे हैं। कोई आता है तो ठीक है तुम भी आ जाओ, तुम भी साथ रहो। भाषाओं की, पंथ, सम्प्रदायों की विविधता तो पहले से है, अलग-अलग प्रकार से प्रान्त बनते हैं, रचनाएं बदलती रहती हैं। राजनीतिक मत प्रवाह, विचार प्रणालियां पहले से रही हैं। लेकिन इस विविधता में हम सब भारत माता के पुत्र है और अपने-अपने विविधता वैशिष्ट्य पर पक्का रहते हुए, दूसरों की विविधताओं का सम्मान करते हुए, स्वागत करते हुए और उनके अपनी विविधता पर रहने को स्वीकार करते हुए मिलजुल कर रहना। विविधता में जो अंतर्निहित एकता है, भारत के उत्थान लिए परिश्रम करने वाले सभी प्रमाणिक बुद्धि के निस्वार्थ महापुरुषों ने अभी तक जिसका उल्लेख करना कभी छोड़ा नहीं, ऐसी उस अंतर्निहित एकता का साक्षात्कार करके अपने जीवन में रहना, ये हमारी संस्कृति बनी और उसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने और सारे विश्व के भेद और स्वार्थ मिटाकर विश्व के कलह मिटाकर सुख-शांतिपूर्ण संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म उसको दिया जाए। इस प्रयोजन से इस राष्ट्र को अनेक महापुरुषों ने इसे खड़ा किया। अपने प्राणों की बलि देकर सुरक्षित रखा, अपने पसीने से सींचकर बड़ा किया। उन सभी महापुरुषों के हमारे पूर्वज होने के कारण गौरव का स्थान हम अपने हृदय में हम रखते हैं और उनके आदर्शों का अनुसरण करने का अपने-अपने हिसाब से प्रयास करते है। मत-मतान्तर हो ही जाते हैं। मत का प्रतिपादन करने का शास्त्रार्थ करते समय और विवाद भी करने पड़ते हैं। लेकिन इन सब बातों की एक मर्यादा रहती है। अंततोगत्वा हम सब लोग भारत माता के पुत्र हैं। मत-मतान्तर कुछ भी होंगे हम अपने-अपने मत के द्वारा ये मान कर चल रहे हैं कि भारत का भाग्य हम बदल देंगे, हम उसको परम वैभव संपन्न स्थिति में पहुचाएंगे। एक ही गन्तव्य के लिए अलग-अलग रास्ते लेने वाले लोगों को अपनी विशिष्टता, विविधता को लेकर तो चलना चाहिए ही, उससे हमारा जन-जीवन समृद्ध होता है। विविधता होना यह सुन्दरता की बात है, स्मृद्धि की बात है। उसको स्वीकार करके तो हम चलते ही हैं, परन्तु ये दिखने वाली विविधता एक ही एकता से उपजी है। उस भाव का भान रखकर हम सब एक हैं, इसका भी दर्शन समय-समय पर होते रहना चाहिए। क्योंकि किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले समूह नहीं होते, व्यक्ति नहीं होते, विचार तत्व ज्ञान नहीं होता, सरकारें नहीं होती। सरकारें बहुत कुछ कर सकती है लेकिन सरकारें सब कुछ नहीं कर सकती। देश का सामान्य समाज जब तक गुण संपन्न बनकर अपने अंत:करण से भेदों को तिलांजलि देकर, मन के सारे स्वार्थ हटाकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है तब सारी सरकारें, सारे नेता , सारे विचार समूह उस अभियान के सहायक बनते हैं और तब देश का भाग्य बदलता है। 

स्वतंत्रता के पहले अपने देश के लिए स्वतंत्रता का प्रयत्न करने वाले सभी विचारधाराओं के महापुरुषों के मन ये चिंता थी की हम तो प्रयास कर रहे हैं हमारे उपाय से कुछ तो भला होगा लेकिन सदा के लिए बीमारी खत्म नहीं होगी। जब तक अपने सामान्य समाज को एक विशिष्ट गुणवत्ता के स्तर पर मन की एकात्मता की भावना के आधार पर खड़ा नहीं किया जाता देश के दुर्जनों का सम्पूर्ण अंत नहीं होगा। और हमने अपना काम चुन लिया है हम उसमें व्यस्त हैं लेकिन ये काम हुए बिना कोई काम पूर्ण नहीं होता। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार इन सभी कार्यों के सक्रिय कार्यकर्ता थे, क्योंकि उनके अपने जीवन में उनको अपने लिए करने के लिए कोई इच्छा-आकांक्षा नहीं थी। वो सब कार्यों में रहे, कांग्रेस के आन्दोलनों में दो बार कारावास भुगता। कांग्रेस के यहाँ पर कार्यकर्ता भी रहे। अग्रगण्य क्रांतिकारकों के साथ क्रान्ति की योजना बनाई, उसके क्रियान्वयन में भाग लिया , समाज सुधार के लिए समाज सुधारकों के साथ रहे , अपने धर्म संस्कृति के संरक्षण में संत-महात्माओं के साथ भी रहे, और यह सारा करते समय उनका अपना चिंतन भी चला और इन महापुरुषों के अनुभव चिंतन का भी परामर्श उनको मिला। 

तो उन्होंने यह विचार किया त्रयलोकिनाथ चक्रवर्ती सुप्रसिद्ध क्रांतिकारक बंगाल के, अनुशीलन समिति के सदस्य, डॉ. हेडगवार की जब जन्मशताब्दी हुई 1989 में तो उस जन्मशताब्दी समिति का सदस्य बनने का अनुरोध करने के लिए, वो दिल्ली में थे उस समय, हमारे कार्यकर्ता उनसे मिले। तो उन्होंने कहा कि 1911 में डॉ. हेडगवार कोलकाता में हमारे घर आए थे और तब की चर्चा में उन्होंने यह बात कही थी कि समाज को खड़ा किये बिना कोई भला काम सफल होना संभव नहीं लगता। और आगे उन्होंने कहा था कि लगता है यह काम मुझे ही करना पड़ेगा। सब लोग बड़े-बड़े कामों में व्यस्त है, अच्छे लोग हैं, वरिष्ठ लोग हैं, बहुत गहरे और बहुत ऊँचे लोग हैं, इसलिए उन कामों की चिंता उन पर छोड़ दें तो भी काम चलेगा। लेकिन ये काम करने वाला कोई नहीं है तो इस कार्य को कैसे किया जाए? ये सोचकर उन्होंने 1911 से प्रयोग करना प्रारम्भ किया। और सारे प्रयोग करने के बाद 1925 के विजयादशमी पर अपने छोटे से घर की पहली मंजिल पर 17 लोगों को साथ लेकर ये कहा की हिन्दू समाज जो भारत का उत्तरदायी समाज है, केवल परंपरा से रहते आया है इतनी बात नहीं है, आज की तारीख में भारत का बहुसंख्यक समाज है केवल इतनी बात नहीं है। भारत के भाग्य के बारे में प्रश्न उसे ही पूछा जाएगा, उसका ये दायित्व है। उस हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए इस संघ का कार्य आज से शरू हुआ है, ऐसा उन्होंने कहा।

 ये जो हमारी दृष्टि है हम सब एक हैं किसी-किसी को एकदम समझ में आता है, किसी-किसी को समझ में नहीं आता है, किसी-किसी को समझ में आने के बाद भी उसको लगता है कि इनके साथ हो गए तो कुछ नुकसान होगा। मालूम होते हुए भी थोड़ा सा उल्टा ही चलेंगे, अलग ही चलेंगे। और किसी को मालूम ही नहीं है। चार ही प्रकार भारतवर्ष में हैं, पराया कोई नहीं है, दुश्मन कोई नहीं है। सब की माता भारत माता है। सबके पूर्वज समान हैं, 40 हजार वर्षों से, ऐसा डीएनए का विज्ञान आज कहता है। सबके जीवन के ऊपर भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं सर्वत्र। इस सत्य को हम स्वीकार कर लें समझ लें। अपने संकुचित भेद छोड़कर, सबकी विविधताओं का सम्मान करते हुए इस देश की राष्ट्रीयता के, इस सनातन प्राचीन प्रवाह को बल देने वाला काम करते जाएं। संघ ने यही विचार किया है, संघ सबको जोडऩे वाला संगठन है। समाज में संगठन संघ को नहीं करना है, समाज का ही संगठन संघ को करना है। क्योंकि संगठिन समाज ही भाग्य परिवर्तन की पूंजी है। और इस भाषण को समझकर, ऐसी पुस्तकों को पढ़कर संगठन होता नहीं क्योंकि संगठन में एक विशिष्ट व्यवहार अपेक्षित है। सौहार्द का, सौमनस्य का, सबको समझ लेने का। आज की भाषा में अंग्रेजी में कहते हैं डेमोक्रेटिक माइंड, उसके बिना सम्भव नहीं होता है। और व्यवहार की बात स्वभाव से सम्बन्धित रहती है और स्वभाव आदतों से बनता है। आदतों को बनाए बिना स्वभाव नहीं बनता और पूरे समाज का स्वभाव बनना है तो पूरे समाज का प्रत्येक व्यक्ति विचार करके नहीं चलता। अध्ययन करके नहीं चलता। समाज तो जो वातावरण बनेगा उस वातावरण के अनुसार चलता है। वातावरण बनाने वाले लोग हैं, वो लोग चाहिए। तात्विक चर्चा, सामान्य समाज नहीं करता, उसको उसमें रस नहीं है, उसमें गति भी नहीं है। और तत्व की चर्चा करने जाएंगे तो विषयों को लेकर अनेक प्रकार के मत होते हैं विद्वानों के, जो कि पहले से हैं। प्रत्येक ऋषि अलग-अलग बात बताता है। कभी एक ही बात अलग भाषा में बताता है तो अनुयायी लोग उसको अलग ही मानकर चलते हैं। किसका प्रमाण मानें ? श्रुति-स्मृति सबमें फर्क है। समाज को जोडऩे वाला यह जो धर्म है, समाज को न बिखरने देने वाला यह जो धर्म है, समाज को उन्नत करके उभ्युद्ध और यश की प्राप्ति करा देने वाला, समाज के व्यवहार को संतुलित करने वाला यह जो धर्म है, धर्मस्य तत्वम निहितम द्ववाया: उसका तत्व गुप्त रहता है, उसको पाने के लिए तपस्या करनी पड़ती है। सब लोग तपस्या नहीं करते। थोड़े लोग, सब लोग क्या करते हैं, महाजनो येन गतस्य पंथा:। समाज के श्रेष्ठ लोग जैसे चलते हैं वैसे चलते हैं यद्यदा चरति श्रेष्ठ तत्व देवे त्रर्वोजना:, सयत प्रमाणम् कुरुते लोकस्त तनुवरे। अपने इस विशाल भूमि वाले, विशाल जनसंख्या वाले देश में प्रत्येक गांव में प्रत्येक शहर के गली मोहल्ले में अपने आचरण से समाज हितैषी आचरण का वातावरण बनाने वाले कार्यकर्ताओं का समूह चाहिए। संघ का यही प्रयास है।

विचार कुछ भी हो, देश के सामने विभिन्न जो विषय हैं, समस्याएं हैं उनके हल के बारे में मत कुछ भी हो, विचारधारा कोई भी हो, जाति-पाति, प्रांत, पंथ, पक्ष, भाषा कोई भी हो लेकिन सम्पूर्ण समाज को, सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानते हुए व्यापक दृष्टि से उसके हित के प्रकाश में मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक सामाजिक और आजीविका में आचरण कैसा हो इसका विचार करके अपने आचरण का उदाहरण आसपास प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति वो वातावरण बनाता है। वह महापुरुष नहीं होता, वह सब में एक होता है। महापुरुषों के आदर्शों की समाज पूजा करता है। उत्सव करता है, जयंती, पुण्यतिथि मनाता है। लेकिन अनुकरण तो उसका करता है जो उसके आसपास पड़ोस में रहने वाला उसके जैसा लेकिन लेकिन थोड़ा सा प्रमुख। ऐसे उदाहरण अपने जीवन से स्थापित करने वाले कार्यकर्ता चाहिए। आदर्श हमारे पास भरपूर हैं, कमी नहीं है। सुविचार की कमी नहीं है, श्रेष्ठतम तत्वज्ञान हमारे पास है। परन्तु व्यवहार के बारे में हम निकृष्ठ थे, अब हम कैसे कह सकते हैं कि थोड़ा सा सुधार हुआ है। लेकिन अभी तक जितनी मात्रा में व्यवहार चाहिए वैसा नहीं है। और वो तब बनता है जब सब प्रकार की परिस्थिति में उस व्यवहार में अड़कर वैसा व्यवहार करने वाले समाज से ही समाज के जैसे ही परन्तु अपने चारित्र्य से शील से विशिष्टिता रखने वाले लोग खड़े होते हैं। ऐसे लोग देशभर में खड़े करने का प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। क्योंकि सारे समाज को एक विशिष्ट दृष्टि से चलने की आवश्यकता है।

कार्य कोई भी सम्पन्न होता है तो शक्ति के आधार पर सम्पन्न होता है। किसी भी कार्य को करने के लिए शक्ति चाहिए। यह जीवन का नियम है, विज्ञान सिद्ध नियम है। और शक्ति संगठन में होती है, सब के मिलकर काम करने में होती है। और शक्ति को अगर शील का आधार नहीं रहा तो वह शक्ति दानवी शक्ति बनती है। अच्छी बातों का उपयोग बुरे कामों में होता है। विद्या विवादाय, धनम् मदाय, शक्ति परेशाम, परपीडऩाय। विद्या प्राप्त लोग विवाद में समय गवांते हैं सहमति नहीं बनाते। विद्या के आधार पर सहमति बननी चाहिए। लेकिन विवाद चलते हैं। धनपति लोग धन के मद में चूर हो जाते हैं। धन का वो उपयोग नहीं है। और शक्ति दूसरों की सब बातों की इच्छा करना और दूसरों को पीड़ा देना वो प्राप्त करने के लिए इसलिए करती है। यह कौन करती है, दुष्ट लोग करते हैं। खलस्य। विद्या विवादाय, धनम् मदाय, शक्ति परेशाम परपीडऩाय खलस्य, साधो: विपरीत मेतत। सज्जनों की गति उलटी चलती है। ज्ञानाय, दानाय, दक्षणाय, विद्या का उपयोग समाज में ज्ञान बढ़ाने के लिए करते हैं, धन का उपयोग दान में करते हैं और शक्ति का उपयोग रक्षण के लिए करते हैं। दुर्बलों का रक्षण करते हैं। शक्ति को शील का आधार चाहिए, बिना उसके अनियंत्रित शक्ति यह खतरे वाली बात है। और इसलिए उस शक्ति की उत्पति, उस शील की उत्पति समाज की आज की स्थिति में, सब संकटों से, समस्याओं से उबार कर समाज श्रेय का मार्ग चलने लगे ऐसे ज्ञान की आराधना, सब परिस्थितियों में अपनी तपस्या पर अडिग रहने के लिए वीर व्रत की आराधना। और सब प्रकार के मोह आकर्षणों से, कष्टों से गुजरते हुए भी अपने ध्येय को कभी ओझल न होने वाली, उलटा अधिकाधिक ध्येय प्राप्ति की उत्कंठा उत्पन्न करने वाली ध्येय निष्ठा, इन पांच गुणों की आराधना संघ की शाखा में स्वयंसेवक करते हैं। एक घंटा यह सारे अपने तन मन में कार्यक्रम करते हुए अंत में जो प्रार्थना करते हैं भारत माता की उसमें प्रभु से इन्हीं पांच गुणों का वरदान मांगते हैं।

1925 से संघ चला, धीरे-धीरे बढ़ता गया। सब प्रहारों के, सब बाधाओं के बावजूद बढ़ता गया। धीरे-धीरे प्रतिकूलता को उसने स्नेह में बदल दिया। आज लोकप्रिय है। जहां जाते हैं वहां समाज का स्नेह मिलता है। विशाल संगठन बन गया है, लेकिन हम इसमें कृतार्थ का अनुभव नहीं करते। हमको अपने को प्रसिद्ध करने के लिए काम नहीं करना था और ना ही कर रहे हैं। आगे बढऩा है। अनुकूलता का समय भी आता है लेकिन अनुकूलता विश्राम के लिए प्रवृत करती है, विश्राम हमको नहीं करना है। परम वैभवम् मेतु तथ्यराष्ट्रम, यह हमारा लक्ष्य है। और उसके लिए सतत कार्यकर्ता निर्माण की जो प्रक्रिया चलती है उसके चलते उस प्रक्रिया को चलाने वाले कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी प्रतिवर्ष होता है। तृतीय वर्ष के समापन का प्रसंग प्रतिवर्ष हम यहां अनुभव करते हैं। अपना खर्चा करके साम्पतिक सुस्थिति में ये सब के सब शिक्षार्थी यह सब के सब नहीं हैं।  प्रांतों के वर्गों में और यहां के वर्ग में भी ऐसे लोग मिलते हैं जो हजार रुपये शुल्क जुटाना, प्रवास शुल्क जुटाना इसके लिए दो-तीन महीना मेहनत मजदूरी करके पैसा जुटा कर उस पैसे को अपनी भौतिक आवश्यकता के लिए खर्चा न करते हुए वर्ग का शुल्क देकर यह प्राप्त करते हैं। उनको कहीं मिलने वाला नहीं है, वो ऐसा करते हैं इसलिए उनको धन्यवाद भी नहीं दिया जाता। और यह आदत भी लगाई जाती है कि अपेक्षा कुछ मत करो, नेकी करो और कुंवे में डाल दो। वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत पुष्पहार छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना हिन्दू राष्ट्र के तारणहार। तेरा वैभव अमर रहे मां हम दिन चार रहें न रहें। ये सीख वो ले गए। यह संस्कार लेते हैं। अपने मन के भाव को पुष्ट करते हैं। तृतीय वर्ष में आते हैं तो आज तक जो पुस्तकों में पड़ा था, बौद्धिकों में सुना था, इधर-उधर से सुन रहे थे, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति ग्रहण करते हैं।

भारतवर्ष के कोने- कोने आये हुए लोग, विभिन्न स्वभाव के लोग, विभिन्न पृष्ठभूमि के, विभिन्न भाषा-भाषी, प्रान्तों के विभिन्न जाति-उपजातियों के अपरिचित लोग पहले दिन आते हैं और जिस दिन जाने का समय होता है, उस दिन आँखों में आंसू रहते हैं। भाषा समझ में नहीं आई लेकिन आत्मियता ऐसी हो गई की लगता है बिछुड़ें ही नहीं। अनुभूति धारण करते है कि सारा भारतवर्ष मेरा अपना है। सारे भारतीय मेरे अपने हैं। जो प्रतिज्ञा मैं विद्यालय की प्रार्थना में करता था भारत मेरा देश है, सारे भारतीय मेरे बांधव है, भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का गौरव मेरे मन में है। उन सारी बातों की प्रत्यक्ष बातों की अनुभूति वो यहाँ प्राप्त करते हैं। इसके बाद उनको और प्रशिक्षण की आवश्यकता इसीलिए नहीं रहती। अनुभूति मन को प्लावित करती है मन ऐसा बनाकर आँख और कान खोलकर समाज में समाज की सेवा, परोपकार का काम करते हैं तो अपने आप आगे का प्रशिक्षण हो जाता है ये संघ का कार्य है। हम सारी सज्जन शक्तियों को जुटाना चाहते है। हमें विचारों से मतों से कोई परहेज नहीं है। गन्तव्य एक हो परम वैभव संपन्न भारत, विश्वगुरु भारत उसकी दुनिया को आवश्यकता है। दूसरा कोई आज की दुनिया की समस्याओं को हल करने का उत्तर नहीं दे सकेगा। भारत वर्ष को देना है बोलकर नहीं देना है, अपना जीवन वैसा प्रस्थापित करके देना है। उस जीवन को स्थापित करने के लिए लायक भारतीयों का भारत। उसके स्वत्व के आधार पर पक्का खड़ा, अपने स्वत्व की पक्की पहचान जिसके मन में है। उसके बारे में जो स्पष्ट है, उसके बारे में जो निर्भय है, संकोच नहीं है, ऐसा समाज इस देश में हम खड़ा करना चाहते हैं। ऐसा समाज ही विश्व की और भारत की और हमारे आपके दैनिक जीवन की सब समस्याओं का पूर्ण उत्तर है। उसको हम सबको खड़ा करना है, संघ का काम केवल संघ का काम नहीं है, ये तो हम सबके लिए है। इसको देखने के लिए अनेक विचारों के महापुरुष आ चुके है, आते रहते है। मैं उसका विवरण नहीं दूंगा आपको पता है। इस प्रसंग के निमित्त ऐसा बहुत आया भी है। आते है देखते है हम उनसे बाते ग्रहण करते हैं , उनकी सूचनाएं उसका विचार करते हैं, हमने जो पथ तय किया है , हमने जो कार्यक्रम तय किया है, हमने जो गंतव्य किया है उसमें उसकी जो मदद होती है उसका विचार करते हैं, उनको स्वीकार करते हैं। 

आपस में सद्भावना रखकर समाज सब एक दूसरे का सम्मान करके चलें। परस्परम भाव यन्तं हम अपने अपने पथ पर प्रमाणिकता से चलें। तो प्रमाणिक लोगों में मत आड़े नहीं आते। प्रमाणिक लोगों में कुछ बात आड़े नहीं आती है। जो सही हैं उस पर सब चलते हैं। उनके मतों की आपस की चर्चा से एक सुन्दर संवाद बनता है। जैसे अपने उपनिषदों के संवाद हैं। तरह-तरह के मत हैं, सबका प्रतिपादन है। उसमें से एक सहमति निकलकर आती है। पढऩे के लिए, चिंतन के लिए और जीवन में उतारने के लिए भी अच्छा लगता है। क्योंकि सत्य है उस सत्य पथ पर चले हम सब ऐसा हमारा संस्कार हो, ऐसी हमारी आदत हो, ऐसी हमारी बुद्धि हो, ऐसा समाज उपदेश से नहीं, अपने स्वयं के जीवन से उदाहरण करने वाले कार्यकर्ता संघ तैयार करता है। यह हम सबके लिए हम सबका काम है और इसलिए मैं आपको आह्वान करता हूँ कि इस कार्य को प्रत्यक्ष देखिये। जो कुछ अभी तक मैंने अब तक कहा वो वास्तव मैं है कि नहीं इसका पड़ताल कीजिये और आपको लगा की ऐसा है तो ये सर्वहित का कार्य है इसमें आप भी सहभागी होइये। संघ को परखें अन्दर से परखें। आना-जाना अपनी मर्जी की बात है यहां पर, मनमर्जी का काम है सब आ सकते हैं सब परख सकते हैं और परखकर अपना भाव बना सकते हैं जैसा बनेगा वो बनेगा, हमको उसकी चिंता नहीं। हम क्या हैं हम जानते हैं, हम जो हैं वैसे दिखते हैं, हम जो हैं वही हम करते हैं। सबके प्रति सदभाव रखकर किसी का विरोध मन में ना रखकर हम अपने पथ पर दृढ़तापूर्वक आगे चल रहे हैं। लेकिन ये केवल हम करेंगे तो नहीं होगा पूरे समाज का ये काम है, सारे समाज को इस मार्ग को परखना चाहिए और अगर ठीक लगता है तो इसके सहयोगी बनना चाहिए। एक आह्वान मैं आपके सामने रखता हूँ। 

- राकेश सैन
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मो. 097797-14324

Thursday, 7 June 2018

संघ समारोह में मुखर्जी, रामकथा कही राम के आगे

नागरपुर में संपन्न हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह के दौरान पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का संबोधन सुन कर रामायण का लव-कुश प्रसंग स्मरण हो आया। रामदरबार में लव-कुश के पुष्पकमल मुखों से मुखरित हो रही रामकथा से स्वयं भगवान श्रीराम भी परिचित थे, उनके परिजन व दरबार में उपस्थित उनके सहयोगी भी लेकिन उस समय सभी लोग रामकथा का आनंद लेते दिखे। संघ समारोह में प्रणब दा ने जिस तरह विविधता में एकता, बाहुल्यवादी संस्कृति, राष्ट्रवाद, सहिष्णुता का संदेश दिया वह इस देश की मानसिकता के साथ-साथ संघ के विचारों से भी हूबहू मेल खाता दिखा। कुछ मुद्दों पर तो प्रणब मुखर्जी व सरसंघचालक मोहन भागवत एक सुर में ही बोलते दिखाई दिए। दोनों ने माना कि विरोधी विचारों के बीच भी संवाद होना जरूरी है। संवाद से ही जटिल समस्याओं का हल निकल सकता है और देश आगे जा सकता है। आशा है कि इन दो महापुरषों के मार्गदर्शन के इस संबोधन के बाद देश में वर्तमान में कटुता के घोड़े पर सवार राजनीति व वैचारिकी पर थोड़ी लगाम अवश्य लगेगी।

पूर्व राष्ट्रपति ने बहुप्रतीक्षित भाषण में कहा कि भारत की आत्मा बहुलतावाद व उदारता में बसती है। हमारे समाज में यह सदियों से चले आ रहे तमाम विचारों के मिलन से आई है। सेक्युलरिज्म व सर्वसमावेशी विचार हमारी आस्था के विषय हैं। इस मिश्रित संस्कृति के कारण ही हम एक राष्ट्र बन सके हैं। हिंदूू एक उदार धर्म है। राष्ट्रवाद किसी धर्म व भाषा में बंटा हुआ नहीं है। सहनशीलता हमारी ताकत है। हमारा राष्ट्रवाद कोई एक भाषा, एक धर्म या एक शत्रु से पैदा नहीं हुआ, यह तो सवा अरब लोगों की सदाबहार सार्वभौमिकता का परिणाम है, जो दैनिक जीवन में 122 भाषाएं इस्तेमाल करते हैं। जब यहां आर्य, मंगोल और द्रविड़ सभ्यताओं के लोग एक झंडे के नीचे भारतीय बनकर रहते हैं और कोई किसी का शत्रु नहीं होता, तब हमारा भारत एक राष्ट्र बनता है। संविधान से राष्ट्रवाद की भावना बहती है। विविधिता व सहिष्णुता में ही भारत बसता है। संवाद न सिर्फ विरोधी विचारों के बीच संतुलन बनाने के लिए, बल्कि सामंजस्य बैठाने के लिए भी जरूरी होता है। हम आपस में बहस कर सकते हैं। हम सहमत हो सकते हैं नहीं भी हो सकते, लेकिन विचारों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि जब भी किसी बच्चे या महिला के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार होता है तो भारत की आत्मा घायल होती है। क्रोध जताने के विभिन्न तरीकों से हमारे सामाजिक ढांचे को क्षति पहुंच रही है। हम रोज अपने इर्द-गिर्द हिंसा बढ़ते देख रहे हैं। हमें अपने समाज को हर प्रकार की हिंसा से दूर रखना चाहिए। चाहे वह शारीरिक हो, या शाब्दिक। सिर्फ अहिंसात्मक समाज से ही लोकतंत्र में सभी वर्गों, खासतौर से वंचितों व पिछड़ों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। सात धर्म, 122 भाषाएं, 1600 बोलियों के बावजूद सवा अरब भारतीयों की पहचान एक है। सरदार पटेल ने 565 रियासतों को एक किया तो नेहरू जी ने भारत एक खोज में राष्ट्रवाद की नई परिभाषा बताई। इससे पूर्व संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत द्वारा व्यक्त किए गए विचारों का सारांश भी लगभग यही था कि हमारा समाज बहुलतावादी संस्कृति, विविधता में एकता, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वेसंतु निरामया के सिद्धांतों पर टिका है। इसमें शारीरिक व वैचारिक हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।

दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान की राजनीति, सामाजिकता व बौद्धिकता इन विचारों के विपरीत खड़ी दिखाई देने लगी हैं। यह वैचारिक असहिष्णुता का ही परिणाम है कि कुछ राजनेता व बुद्धिजीवी प्रणब मुखर्जी को संघ के कार्यक्रम में जाने से ही रोकते रहे। केवल इतना ही नहीं जब वे नहीं रुकते दिखे तो कईयों ने उनके खिलाफ ही अभद्र भाषा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वर्तमान युग की सबसे बड़ी विसंगती यह है कि चाहे राजनेता हो या लेखक या मीडिया कर्मी या कोई और सभी अपने आप को सर्वज्ञ व सर्वगुण संपन्न मान कर चलता दिख रहा है। हर कोई इसी अंधविश्वास का शिकार है कि वह जो कह रहा है या सोच रहा है वही अंतिम सत्य है। जिसमें मेरा लाभ वही बात ठीक और नुक्सान हुआ तो वह गलत। इसी सोच के चलते वाणी में कर्कशता, भाषा में असभ्यता के साथ मिथ्यावचन और व्यवहार में हिंसा का समावेश हो रहा है। टीवी चर्चाओं में चीखते चिल्लाते प्रस्तोता, हृदयभेदी शब्दबाण छोड़ते नेता व प्रवक्ता, आंदोलन के नाम पर पथराव व आगजनी करती भीड़, गाली गलौच से भरा सोशल मीडिया आदि सभी बातें इसका प्रमाण है कि आज हमारा लोकतंत्र पूर्णत: स्वस्थ हालत में नहीं है।

आज की ही बात नहीं, अपने जीवन काल से ही संघ वैचारिक असहिष्णुता का शिकार होता आया है। यह बात अलग है कि संघ की बढ़ रही लोकप्रियता व सर्व वर्ग स्वीकार्यता ने विरोधियों को इसके प्रति और अधिक आक्रामक कर दिया। देश में होने वाली किसी भी दुर्घटना या अपराध पर बिना हिचक व लोकलाज की चिंता किए संघ का नाम घसीट लिया जाता है। संघ को अछूत बनाने की पूरी कोशिश की जाती रही है परंतु प्रणब मुखर्जी के साहसपूर्ण कदम से इस बात की संभावना बनी है कि देश में संवाद के लिए नया वातावरण तैयार होने वाला है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रणब दा ने संघ संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार को भारत माता का महान सपूत बताते हुए उनके खिलाफ दुष्प्रचार करने वालों का मूंह हमेशा के लिए बंद कर दिया है। पूरी रामकथा से अब मंथराओं व सीता को उलाहना देने वाले धोबी वाली मानसिकता के लोगों को समझ जाना चाहिए कि अब उनका समय लदने वाला है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Wednesday, 6 June 2018

कांग्रेस का हाथ आम आदमी (पार्टी) के साथ

विगत यूपीए सरकार के कार्यकाल में सत्ताधारी पार्टी का नारा था, कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ। वर्तमान की बदलती परिस्थितियों में यह हाथ जन साधारण का तो पता नहीं परंतु आम आदमी पार्टी के साथ खिसकता अवश्य दिखाई देने लगा है। चाहे कांग्रेस के दिल्ली अध्यक्ष अजय माकन ने इससे यह कहते हुए इंकार किया है कि 'आप' को जब दिल्ली की जनता नकार रही है तो हम स्वीकार क्यों करें। लेकिन सभी जानते हैं कि देश में नकारी केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं बल्कि कांग्रेस भी जा रही है और माना जा रहा है कि साल 2019 के लिए विपक्ष द्वारा किए जा रहे महागठजोड़ के प्रयासों के तहत दोनों दलों के बीच नजदीकीयां बनने लगी हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के पांच लोकसभा सीटों पर प्रभारी नियुक्त करना और दो को छोड़ देना संकेत करता है कि कांग्रेस में अजय माकन की दलील नहीं चलने वाली। उधर आम आदमी पार्टी के दूसरे बड़े गढ़ माने जाने वाले पंजाब में भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कह दिया है कि इस गठजोड़ का फैसला हाईकमान को करना है अर्थात उन्हें कोई आपत्ति नहीं। 

इस तरह की संभावनाओं को दूर की कौड़ी बताने वाले दावा कर सकते हैं कि सोनिया गांधी जब भी विपक्षी दलों की एकता के लिए बैठकें बुलाती थीं तो उसमें अरविंद केजरीवाल को कभी नहीं बुलाया परंतु पिछले महीने कर्नाटक में जब एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल और सोनिया-राहुल एक मंच पर खड़े थे। केवल इतना ही नहींकर्नाटक विधानसभा के बाहर लगी कुर्सियों की अगली कतार में सबसे किनारे की तरफ वे भी बैठे थे।

राजनीतिक गलियारों में फैली चर्चाओं की मानें तो धुआं तभी उठता है जब कहीं न कहीं चिंगारी सुलग रही होती है। कांग्रेस नेता अजय माकन की गठजोड़ को लेकर व्यक्त प्रतिक्रिया का जवाब देते हुए आम आदमी पार्टी के नेता दिलीप पांडे का जवाब आया कि-अजय माकन जी! कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता आम आदमी पार्टी के संपर्क में हैं और वे हरियाणा, दिल्ली और पंजाब में हमारा साथ हैं, और दिल्ली में हमसे वे एक सीट मांग रहें हैं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि जब कर्नाटक में धुरविरोधी जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) और कांग्रेस का गठबंधन हो सकता है तो आम आदमी पार्टी से क्यों नहीं। अतीत में दोनों दल मिल कर दिल्ली में सरकार चला चुके हैं। वर्तमान में कांग्रेस का ध्येय केवल और केवल भाजपा को पराजित करना है तो माना जा रहा है कि वह किसी भी स्तर पर जा कर अपमान का घूंट पीने को तैयार हो सकती है। इसके लिए आम आदमी पार्टी ने उन्हें दिल्ली में केवल एक-दो सीटें देने की बात हवा में उछाली है, देखना है कि वह कहां जाकर मार करती है। दिल्ली में लोकसभा की 7 सीटें हैं, पंजाब में 13 और हरियाणा में 10। साल 2014 की मोदी लहर में दिल्ली व हरियाणा की सारी सीटें बीजेपी के खाते में गईं थीं। बीजेपी का वोट प्रतिशत 46.6 और आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत 33.1 था. कांग्रेस को 15.2 फीसदी वोट मिले थे। हालांकि इन चार सालों में राजनीतिक परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का ग्राफ ढलान पर है तो विधानसभा चुनाव में पंजाब में आप को जहां जबरदस्त झटका लगा वहीं उसके बाद समय-समय पर हुए उपचुनावों, निकाय चुनावों में केजरीवाल पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानतें तक नहीं बचा पाए। अभी हाल ही में पंजाब के शाहकोट में हुए उपचुनाव में आम आदमी पार्टी को केवल 199 मत मिले वहीं कांग्रेस की स्थिति पहले की भांति मजबूत रही। हरियाणा में आम आदमी पार्टी चाहे बंद मुट्ठी है परंतु प्रदेश की राजनीति में उसे इतना गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी नहीं माना जाता। कांग्रेस और आप के संभावित गठजोड़ के खिलाफ आम आदमी पार्टी के नेताओं ने ही खतरे की घंटी बजानी शुरू कर दी है। सिख दंगा विरोधी राजनीति करने वाले पंजाब  के विधायक एचएस फूलका इसको लेकर पार्टी छोडऩे की धमकी तक दे चुके हैं।

पर्यवेक्षक बताते हैं कि दोनों दलों में गठजोड़ होता है तो इसका लाभ आम आदमी पार्टी को मिलेगा क्योंकि उसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो चुका है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल कांग्रेस को दो सीटें भी दे देते हैं तो शेष पांच में संभावना है कि वह टक्कर देने वाली स्थिति में तो आ ही जाएंगे। कांग्रेस को चाहे मतों या सीटों की दृष्टि से अधिक लाभ हो या न हो परंतु वह देश में विपक्षी दलों को यह संकेत देने में सफल अवश्य होगी कि वह महागठजोड़ को सफल करने के प्रति कितनी संजीदा है। फिलहाल अभी सभी तरह की चर्चाएं हवा में हैं परंतु राजनीति में चर्चाएं भी तो फैलाई जाती हैं ताकि अपनों व जनता की प्रतिक्रिया जानी जा सके। पूरी संभावना है कि सोनिया गांधी की अगली संभावित जीमनवार में एक पत्तल दिल्ली के मुख्यमंत्री का भी लगा दिखाई दे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

ट्रंप और किम जोंग की सुरक्षा हिंदू गोरखों के हवाले

इसी महीने 12 जून को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग की सिंगापुर में बैठक होने जा रही है। दुनिया के सबसे हाईप्रोफाइल नेताओं की बैठक के दौरान सिंगापुर के सामने इनकी सुरक्षा को लेकर सबसे बड़ी चुनौती सामने आई तो वहां की सरकार को याद आए हिंदू गोरखा सैनिक, जिन्हें नेपाल से विशेष तौर पर भर्ती किया गया है। बहादुरी, ईमानदारी व स्वामी भक्ति में पूरी दुनिया में अग्रणी हिंदू गोरखा सबसे विश्वसनीय सैनिकों के रूप में दुनिया के सामने आए हैं। रोचक बात है कि तमाम हथियारों के बावजूद यह सैनिक अपने पास खुखरी रखेंगे जो गोरखाओं का पसंदीदा हथियार है और इसके बारे कहा जाता है कि जब हाथ में आती है तो दुश्मन का लहू पी कर ही म्यान में जाती है।

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन की मुलाकात पर दुनियाभर की नजऱें टिकी हुई हैं। इस ऐतिहासिक मुलाकात के लिए तैयारियां भी जोर-शोर से की जा रही हैं। इन तैयारियों का बहुत अहम हिस्सा है दोनों नेताओं की सुरक्षा। ट्रंप और किम की सुरक्षा के लिए गोरखा टुकड़ी भी तैनात की जाएगी। सिंगापुर में वीआईपी सुरक्षा की जानकारी रखने वाले राजनयिकों ने बताया कि दोनों नेता अपनी निजी सुरक्षा टीम भी लेकर आएंगे, लेकिन, सिंगापुर की पुलिस में गोरखा जवान शामिल होंगे जो बैठक की जगह, सड़क और होटल की सुरक्षा करेंगे। सिंगापुर में गोरखा जवानों की संख्या बहुत ज्यादा तो नहीं है लेकिन खास मौकों पर इस टुकड़ी को सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। हाल ही में शांगरी-ला होटल में सुरक्षा मुद्दे पर हुए सम्मेलन के दौरान गोरखा जवान तैनात किए गए थे। इस कॉन्फ्रेंस में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमरीकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस और अन्य देशों के नेता शामिल थे। सिंगापुर पुलिस में 1800 गोरखा जवान हैं जो छह अर्धसैनिक कंपनियों का हिस्सा हैं। गोरखा सिंगापुर पुलिस का अहम हिस्सा माने जाते हैं। वीआईपी सुरक्षा से लेकर दंगों के दौरान भी इनका इस्तेमाल किया जाता है। सिंगापुर पुलिस की वेबसाइट पर इन्हे सख्त, सतर्क और दृढ़ कहा गया है जो सिंगापुर की सुरक्षा में सहयोगी हैं। सिंगापुर में गोरखा जवानों की नियुक्त ब्रिटिश पंरपरा से जुड़ी है जिसमें 200 से अधिक सालों तक सैनिकों की कुलीन रेजिमेंटों के लिए नेपाल से भर्तियां की गईं और भुगतान किया गया। गोरखा सैनिकों का पश्चिम के साथ पहला संपर्क 19वीं सदी में हुआ था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। हालांकि, इस लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई थी लेकिन वो गोरखा जवानों की बहादुरी और युद्धक्षमता से बेहद प्रभावित हुए। इसके बाद अंग्रेजों ने ब्रिटिश सेना में इनकी भर्ती शुरू कर दी। अब गोरखा ब्रिटिश, भारतीय, नेपाली सेना में सेवा दे रहे हैं। वे ब्रूनेई और सिंगापुर के सुरक्षाबलों का भी हिस्सा हैं।

- राकेश सैन
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वीपीओ रंधावा मसंदा
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Monday, 4 June 2018

किसान आंदोलन या वोटों की खेती

रामधारी सिंह दिनकर की किसान शीर्षक की कविता का किसान आज के गांव बंद आंदोलन में देखता हूं तो कहीं नहीं दिखता। राष्ट्र कवि दिनकर लिखते हैं-नहीं हुआ है अभी सवेरा पूरब की लाली पहचान, चिडिय़ों के जगने से पहले खाट छोड़ उठ गया किसान। पूरी कविता का सारांश यही कि किसान याने एक ऐसा व्यक्ति परमार्थ ही जिसका स्वार्थ है, जो खेत में काम नहीं तप करता है और परोपकार ही जिसका जीवन है। लेकिन फिर वे कौन हैं जो सड़कों पर दूध बहा रहे हैं, हाथों से छीन कर सब्जियां फेंकते और मारपीट, छीना झपटी करते हैं, दूध के अभाव में छोटे-छोटे बच्चों का बिलखना जिन्हें आनंद देता है। संभव है कि ये किसान न हों और यह भी तो हो सकता है कि उपेक्षा और अभाव सहते-सहते भूमिपुत्रों का गुस्सा इतना विकराल हो गया कि वे संतत्व का लबादा उतार अधिकारों की भाषा बोलना सीख रहे हों। यह कौन भूला है कि सृष्टि का पेट भरने और पहनने-ओढऩे को मखमली कपड़े देने वाला किसान आज फाकाकशी का शिकार है। सुख-सुविधा खुसी, रोटी, कपड़ा और मकान गए। छिनते-छिनते न जाने कब पगडंडी, मेड़, खेत, खलिहान और यहां तक कि जीने का अधिकार खो बैठे ये गौपुत्र। परंतु वर्तमान में चला गांव बंद आंदोलन किसानों से जनता की सहानुभूति व संवेदना भी छीनता नजर आरहा है जो उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। आंदोलन के दौरान जिस तरह अलोकतांत्रिक, असभ्य और संस्कृति के विपरीत तरीके अपनाए गए उससे किसानों की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा जिसकी भरपाई को काफी समय लगेगा।

दूध और पूत को अपनी संस्कृति में ईश्वर का वरदान माना गया है। ग्रंथों में दूध की तुलना रत्नों से की गई है। इस स्वयंभू आंदोलन के दौरान जैसे गोरस को सड़कों पर पानी की तरह बहाया गया उससे छोटे किसानों व दुग्ध उत्पादकों का तो नुक्सान हुआ ही साथ में यह सब देखने वाले व्यथित हुए। दूध की आपूर्ति ऐसी अति आवश्यक सेवा है जिसे युद्ध,आतंकवाद और कफ्र्यू जैसी आपात् परिस्थितियों में भी नहीं रोका जाता। कृषि मजदूरों व छोटे किसानों द्वारा पैदा की गई सब्जियों को जिस तरीके से लूटा और उत्पादक किसानों को पीटा गया उससे एकबारगी तो आंदोलनकारियों पर किसान होने का संदेह होने लगा। लोकतंत्र में आंदोलन करने का सभी को अधिकार है परंतु इसके लिए अपवित्र रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे कि-अपवित्र माध्यम से कभी पवित्र लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिस देश में बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार हों और स्वयंभू किसान यूं पानी की तरह दूध को बहाएं तो इसे कौन उचित ठहरा सकता है। आंदोलन से नुक्सान अंतत: किसानों का हुआ और परेशानी भुगतनी पड़ी आम जनता को। यही कारण है कि जगह-जगह आम लोगों ने स्वयंभू आंदोलनकारियों के खिलाफ पुलिस प्रशासन में शिकायतें दर्ज करवाईं और सार्वजनिक रूप से नाराजगी का प्रदर्शन किया गया। शायद इतिहास का यह पहला किसान आंदोलन है जिसके खिलाफ जनमानस खड़ा दिखाई दे रहा है।

इस आंदोलन को लेकर विरोधाभासी बात यह भी रही कि 1 जून को जब इसकी शुरुआत हुई तो एक दिन पहले ही देश में जनवरी से मार्च तक की तिमाही की कृषि विकास दर साढ़े चार प्रतिशत होने का समाचार भी आया। केवल इतना ही नहीं इस साल देश में खाद्यान्न का उत्पादन 25 करोड़ टन से अधिक रहा जो अत्यधिक उत्साहजनक है। कृषि विशेषज्ञों ने संभावना जताई है कि अगर खेती के क्षेत्र में विकास यूं ही जारी रहा तो अबकी बार अच्छा मानसून होने के चलते यह आंकड़ा 6 के अंक को भी छू सकता है। आखिर इसका लाभ किसको मिला, किसान को ही न? स्थानीय समस्याओं को एकबार नजरंदाज करें तो सौभाग्य से देश में कहीं कोई बड़ी कृषि आपदा का समाचार सुनने को नहीं मिला है। यह सर्वविदित है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार आरहा है। यूरिया की कमी अब बीते समय की बात हो चुकी है और अत्यधिक सस्ती दर पर किसानों को फसली बीमा योजना, ई-मार्किट सहित अनेक तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवाई गई हैं। आंदोलनकारियों का यह कहना भी ठीक है कि  देश के विभिन्न हिस्सों में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं जो अत्यंत दु:खद है परंतु यह समस्या साल-दो साल में पैदा नहीं हुई। आंदोलनकारी किसान ऋण माफी की मांग कर रहे हैं परंतु अब तक का अनुभव बताता है कि कर्जे माफ करना कृषि की समस्या का स्थाई हल नहीं है। पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारें किसानों के कर्जे माफ कर चुकी हैं परंतु पंजाब में कांग्रेस सरकार के एक साल के कार्यकाल में ही चार सौ के आसपास किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यूपी के किसान भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। किसी संगठन, वर्ग या व्यक्ति विशेष की मांग या शिकायत कितनी भी गंभीर व जरूरी क्यों न हो परंतु इससे उन्हें दूसरों को परेशान करने या नुक्सान करने का अधिकार नहीं मिल जाता।

मई और जून का महीना किसानों के लिए अति व्यस्त समय रहता है। यह वह समय है जब किसान गेहूं की फसल संभाल कर नई फसल की बिजाई की तैयारी में जुट जाता है। जून के मध्य में दक्षिणी पंजाब जिसमें बठिंडा, मानसा, श्री मुक्तसर साहिब, फाजिल्का जिलों के बहुत बड़े हिस्से में नरमा-कपास की बिजाई होती है और शेष हिस्सों में धान की रोपाई। देश के बाकी हिस्सों में किसान ग्वार, दलहन, बाजरा सहित अनेक तरह की फसलें इसी महीने में बीजते हैं। नई फसल के लिए खेत की तैयारी, बीजों व यूरिया की खरीद कोई खालाजी का बाड़ा नहीं और किसान दिन रात लगा कर यह काम करते हैं। प्रश्न पैदा होता है कि इन दिनों अगर किसान व्यस्त हैं तो सड़कों पर हुल्लड़बाजी व लूटपाट करने वाले लोग कौन हैं ? देश में आजकल चुनावी महौल है और अपने यहां मुखौटा राजनीति काफी पुराना खेल है। किसानों को सावधान रहना होगा कि कोई मुखौटेबाज उन्हें पुतले की तरह बांस पर चढ़ा कर वोटों की खेती तो नहीं कर रहा ?

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Friday, 1 June 2018

ਤੂਤੀਕੋਰਨ ਜਾਂ ਚਰਚ ਅਤੇ ਲਿੱਟੇ ਦੀ 'ਤੂਤੀ ਦਾ ਰਣ'


ਪਿਛਲੇ ਦਿਨੀਂ 22-23 ਮਈ ਨੂੰ ਤਮਿਲਨਾਡੂ ਦੇ ਤੂਤੀਕੋਰਨ 'ਚ ਵੇਦਾਂਤਾ ਗਰੁਪ ਦੇ ਸਟਰਲਾਈਟ ਤਾਂਬਾ ਪਲਾਂਟ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਹੋਈ ਹਿੰਸਾ ਵਿਚ 13 ਬੇਕਸੂਰ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਮੌਤ ਹੋ ਗਈ। ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਨਾਲ ਹੋਨ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਦੂਸ਼ਣ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਕੁਝ ਲੋਕ ਅੰਦੋਲਨ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ। ਘਟਨਾ ਦੇ ਤੁਰੰਤ ਬਾਦ ਇਸ ਨੂੰ ਜਲ੍ਹਿਆਂਵਾਲਾ ਬਾਗ, ਸਰਕਾਰੀ ਅੱਤਵਾਦ, ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਸ਼ੋਸ਼ਨ ਨਾਲ ਜੋੜਿਆ ਗਿਆ ਪਰੰਤੂ ਹੁਨ ਇਸ ਨਾਲ ਜੁੜੀਆਂ ਜੋ ਖਬਰਾਂ ਸੁਨਣ ਨੂੰ ਮਿਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਉਸ ਨਾਲ ਸਾਰਾ ਮਾਮਲਾ ਕੁਝ ਹੋਰ ਰੂਪ ਲੈਂਦਾ ਦਿਸ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕੁਝ ਐਨਜੀਓ ਅਤੇ ਪਰਿਆਵਰਣ ਵਾਦੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਸਾਲ 2012-13 ਦੌਰਾਨ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਸ਼ਹਿ ਤੇ ਕੁਡਨਕੁਲਮ ਵਿਚ ਰੂਸ ਵੱਲੋਂ ਲਗਾਏ ਜਾ ਰਹੇ ਪਰਮਾਣੂ ਪਲਾਂਟ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸਨ, ਤੂਤੀਕੋਰਨ ਦਾ ਮਾਮਲਾ ਵੀ ਉਸ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ-ਜੁਲਦਾ ਜਾਪ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਕੁਡਨਕੁਲਮ ਪਰਮਾਣੂ ਪਲਾਂਟ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਪਿੱਛੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਹੱਥ ਹੋਣ ਦਾ ਇੰਕਸ਼ਾਫ ਉਸ ਵੇਲੇ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਮਨਮੋਹਨ ਸਿੰਘ ਨੇ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਤੂਤੀਕੋਰਨ ਦੇ ਤਾਂਬਾ ਪਲਾਂਟ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਪਿੱਛੇ ਵੀ ਚਰਚ, ਅੱਤਵਾਦੀ ਸੰਗਠਨ ਲਿੱਟੇ ਅਤੇ ਨਕਸਲਵਾਦੀ ਸੰਗਠਨਾਂ ਦਾ ਹੱਥ ਹੋਣ ਦੇ ਸਬੂਤ ਮਿਲੇ ਹਨ। ਇਹ ਪਲਾਂਟ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਤਾਂਬਾ ਉਦਯੋਗ ਦੀ ਰੀੜ੍ਹ ਹੈ, ਜਿਸ ਉੱਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਛੋਟੇ-ਵੱਡੇ ਉਦਯੋਗ, ਹਜਾਰਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਰੁਜਗਾਰ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਦਾ ਨਿਰਯਾਤ ਨਿਰਭਰ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਲਾਂ ਝੱਲਨ ਤੋਂ ਬਾਦ ਭਾਰਤ ਦੁਨੀਆ ਦੀ ਆਰਥਿਕ ਤਾਕਤ ਬਨਣ ਵੱਲ ਵਧ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਇਸ ਖਦਸ਼ੇ ਤੋਂ ਇੰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਕਿ ਉਕਤ ਤਾਂਬਾ ਪਲਾਂਟ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਵੀ ਕੁਝ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਤਾਕਤਾਂ ਦੀ ਸਾਜਿਸ਼ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ਜਿਸਦੀ ਅੱਖਾਂ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਤਰੱਕੀ ਰੋੜੇ ਵਾਂਗ ਰੜਕਦੀ ਹੈ।

ਆਰਥਿਕ ਮਾਹਿਰਾਂ ਵੱਲੋਂ ਦੱਸਿਆ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਤੂਤੀਕੋਰਨ ਕਾਪਰ ਪਲਾਂਟ ਦੀ ਬੰਦੀ ਦਾ ਅਸਰ ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ 800 ਛੋਟੀਆਂ ਅਤੇ ਮੱਧਮ ਵਰਗ ਦੀਆਂ ਉਦਯੋਗਿਕ ਇਕਾਈਆਂ ਤੇ ਪਵੇਗਾ। ਦੇਸ਼ ਦੇ ਕੁੱਲ ਕਾਪਰ ਉਤਪਾਦਨ ਵਿਚ ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਦਾ ਹਿੱਸਾ 40 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਹੈ। ਇਸ ਨਾਲ ਕੇਬਲ ਤਾਰਾਂ ਬਨਾਉਣ ਵਾਲੇ, ਤਾਰ, ਅਤੇ ਟਰਾਂਸਫਾਰਮਰ ਬਨਾਉਣ ਵਾਲੇ ਉਦਯੋਗਾਂ ਤੇ ਮਾੜਾ ਅਸਰ ਪਵੇਗਾ। ਭਾਰਤ ਦਾ ਤਾਂਬਾ ਉਦਯੋਗ ਹਰ ਸਾਲ 10 ਲੱਖ ਟਨ ਸ਼ੋਧਿਆ ਹੋਇਆ ਤਾਂਬਾ ਨਿਰਯਾਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਮੁੱਖ ਤੌਰ ਤੇ ਇਹ ਚੀਨ ਨੂੰ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਦੇ ਬੰਦ ਹੋਨ ਨਾਲ 50 ਹਜਾਰ ਸਿੱਧੇ ਅਤੇ ਇਸਤੋਂ ਪੰਜ ਗੁਣਾ ਜਿਆਦਾ ਅਸਿੱਧੇ ਰੁਜਗਾਰ ਦੇ ਮੌਕਿਆਂ ਤੇ ਅਸਰ ਪਵੇਗਾ। ਤੂਤੀਕੋਰਨ ਦੇ ਜਿਸ ਪਲਾਂਟ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਉੱਥੇ ਹਰ ਸਾਲ 4 ਲੱਖ ਟਨ ਕਾਪਰ ਕੈਥੋਡ ਬਣਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸਦੀ ਸਮਰਥਾ ਵਧਾ ਕੇ 8 ਲੱਖ ਕਰਨ ਦੀ ਯੋਜਨਾ ਤੇ ਕੰਮ ਚਲ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਫਿਲਹਾਲ ਇਹ ਪਲਾਂਟ 27 ਮਾਰਚ ਤੋਂ ਬੰਦ ਹੈ। ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਖਿਲਾਫ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਨਰਾਜਗੀ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਇਸ ਵੱਲੋਂ ਫੈਲਾਇਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਪ੍ਰਦੂਸ਼ਣ ਦੱਸਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸ ਕਾਰਨ ਹੀ ਤਮਿਲਨਾਡੂ ਪ੍ਰਦੂਸ਼ਣ ਬੋਰਡ ਨੇ ਅਪ੍ਰੈਲ ਮਹੀਨੇ ਵਿਚ ਇਸਦੀ ਯੂਨਿਟ ਨੂੰ ਲਾਇਸੇਂਸ ਦੇਣ ਤੋਂ ਇੰਕਾਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਬੋਰਡ ਦੇ ਇਸ ਫੈਸਲੇ ਨੂੰ ਕੰਪਨੀ ਨੇ ਚੁਣੌਤੀ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਕੰਪਨੀ ਦੇ ਸੀਈਓ ਪੀ. ਰਾਮਨਾਥ ਦਾ ਕਹਿਨਾ ਹੈ ਕਿ ਪਲਾਂਟ ਅੰਦਰ ਪਰਿਆਵਰਣ ਇੰਜੀਨੀਅਰ ਖੋਜ ਸੰਸਥਾਨ ਅਤੇ ਸੁਪ੍ਰੀਮ ਕੋਰਟ ਦੇ ਸਾਰੇ ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ ਦਾ ਪਾਲਨ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਕੰਪਨੀ ਦਾ ਕਹਿਨਾ ਹੈ ਕਿ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪਲਾਂਟ ਅੰਦਰ ਆ ਕੇ ਦੇਖਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅਫਵਾਹਾਂ ਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ।

ਪਲਾਂਟ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੇ ਲੋਕਾਂ ਤੇ ਨਜਰ ਦੌੜਾਈ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਸਾਰਾ ਮਾਮਲਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਸਾਫ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸਦੇ ਖਿਲਾਫ ਸ਼ਿਕਾਇਤ ਦਰਜ ਕਰਵਾਉਣ ਵਾਲੀ ਫਾਤਿਮਾ ਬਾਬੂ ਅਧਿਆਪਕਾ ਹੈ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਇਕ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਅੰਦੋਲਨ ਦਾ ਸੰਚਾਲਨ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਉਸ ਅੰਦੋਲਨ ਦਾ ਇਸਤੇਮਾਲ ਪਲਾਂਟ ਖਿਲਾਫ ਵੀ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਫਾਤਿਮਾ ਬਾਬੂ ਆਪਣੇ ਦਬਦਬੇ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰਵਾ ਕੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪਲਾਂਟ ਅੰਦਰ ਚੰਗੀ ਥਾਵਾਂ ਤੇ ਨੌਕਰੀ ਲਗਵਾ ਚੁਕੀ ਹੈ। ਰੋਚਕ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਲੋਕ ਰਾਤ ਨੂੰ ਤਾਂ ਪਲਾਂਟ ਅੰਦਰ ਡਿਊਟੀ ਕਰਦੇ ਅਤੇ ਦਿਨ ਵੇਲੇ ਇਸਦੇ ਖਿਲਾਫ ਧਰਨਾ ਦਿੰਦੇ ਰਹੇ ਹਨ। ਫਾਤਿਮਾ ਬਾਬੂ ਨੂੰ ਚਰਚ ਅਤੇ ਨਕਸਲੀਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਸੰਪਰਕ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਜਾਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਅੰਦੋਲਨ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਨੇਤਾ ਹਨ ਇਸਾਈ ਮਿਸ਼ਨਰੀ ਮੋਹਨ ਸੀ. ਲਾਜਰਸ, ਜੋ ਟੀਵੀ ਚੈਨਲਾਂ ਤੇ ਇਸਾਈਅਤ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਦੇ ਨਜਰ ਆਉਂਦੇ ਹਨ। ਸਥਾਨਕ ਮਛੁਆਰਿਆਂ ਵਿਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਬਹੁਤ ਵੱਡਾ ਦਬਦਬਾ ਹੈ,ਜਿਸਦੇ ਜੋਰ ਤੇ ਇਹ ਆਪਣੀ ਰਾਜਨੀਤੀ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਪਲਾਂਟ ਖਿਲਾਫ ਵਿਖਾਵਾਕਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਧਰਨੇ ਵਾਲੀ ਥਾਂ ਤੇ ਲਿਆਉਣਾ ਅਤੇ ਵਾਪਸ ਘਰ ਤਕ ਪਹੁੰਚਾਉਣ ਦਾ ਕੰਮ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਰਹਿਨੁਮਾਈ ਵਿਚ ਚਰਚ ਵੱਲੋਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਵੱਖਰੇ ਤਾਮਿਲ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਤਿਰੁਮੁਗੁਣ ਗਾਂਧੀ ਇਸ ਅੰਦੋਲਨ ਦੇ ਤੀਸਰੇ ਵੱਡੇ ਨੇਤਾ ਹਨ। ਇਹ ਜਦੋਂ ਪਹਿਲੇ ਦਿਨ ਧਰਨੇ ਵਾਲੀ ਥਾਂ ਕੁਮਾਰਪੱਟਿਆਪੁਰਮ ਪਿੰਡ ਵਿਚ ਪਹੁੰਚੇ ਵਿਖਾਵਾਕਾਰੀਆਂ ਨੇ ਅੱਤਵਾਦੀ ਸੰਗਠਨ ਲਿਬ੍ਰੇਸ਼ਨ ਟਾਈਗਰਜ਼ ਆਫ ਤਾਮਿਲ ਇਲਮ (ਲਿੱਟੇ) ਦੇ ਸਰਗਨਾ ਪ੍ਰਭਾਕਰਨ ਦੇ ਚਿੱਤਰ ਅਤੇ ਝੰਡਿਆਂ ਨਾਲ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਸਮਰਥਨ ਮਿਲ ਰਿਹਾ ਹੈ ਖੱਬੇਪੱਖੀ ਅਤੇ ਕਾਂਗਰੇਸ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਨੇਤਾਵਾਂ ਦਾ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਰਾਤ ਦਿਨ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਦੇ ਰੁਜਗਾਰ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਚਿੰਤਾ ਖਾਈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਨੇਤਾ ਰੁਜਗਾਰ ਦੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਨਰਿੰਦਰ ਮੋਦੀ ਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਘੇਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਲੱਗੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ।

ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਦੇ ਖਿਲਾਫ ਸਾਜਿਸ਼ ਦਾ ਇਹ ਕੋਈ ਪਹਿਲਾ ਮੋਕਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। 1993 ਵਿਚ ਸਾਬਕਾ ਮੁੱਖ ਮੰਤਰੀ ਜੈਲਲਿਤਾ ਨੇ ਜਦੋਂ ਇਸਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕਰਵਾਈ ਤਾਂ ਉਸ ਵੇਲੇ ਹੀ ਇਸਦਾ ਵਿਰੋਧ ਹੋਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ ਸੀ। ਖੇਤਰਵਾਦ ਤੋਂ ਪੀੜਿਤ ਰਾਜਨੀਤਿਕ ਦਲਾਂ ਨੇ ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਨੂੰ ਉੱਤਰ ਭਾਰਤ ਦਾ ਪਲਾਂਟ ਆਖ ਕੇ ਇਹ ਦੁਸ਼ਪ੍ਰਚਾਰ ਕੀਤਾ ਕਿ ਇਸਦਾ ਫਾਇਦਾ ਉੱਤਰ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਹੋਵੇਗਾ ਅਤੇ ਨੁਕਸਾਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਭੁਗਤਨਾ ਪਵੇਗਾ। ਸਵਾਲ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਸਾਰਾ ਮਾਮਲਾ ਨਿਆ ਪਾਲਿਕਾ ਦੇ ਵਿਚਾਰ ਅਧੀਨ ਸੀ ਤਾਂ ਇਸਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਧਰਨਾ ਲਾਉਣ ਅਤੇ ਹਿੰਸਾ ਫੈਲਾਉਣ ਦੀ ਮਜਬੂਰੀ ਕਿਸਦੀ ਸੀ ? ਤਮਿਲਨਾਡੂ ਦੇ ਮੁੱਖ ਮੰਤਰੀ ਈ.ਕੇ. ਪਲਾਨੀਸਵਾਮੀ ਸਾਫ ਕਰ ਚੁੱਕੇ ਹਨ ਕਿ ਰਾਜ ਦੀ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਆਤਮ ਰੱਖਿਆ ਲਈ ਗੋਲੀਆਂ ਚਲਾਈਆਂ ਜਿਸ ਵਿਚ 13 ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਗਏ ਤਾਂ ਉਹ ਕਿਹੜੀ ਤਾਕਤ ਸੀ ਜੋ ਅੰਦੋਲਨਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਹਿੰਸਾ ਲਈ ਉਕਸਾ ਰਹੀ ਸੀ ? ਇਸ ਪਲਾਂਟ ਦੇ ਬੰਦ ਹੋਨ ਨਾਲ ਜਿੱਥੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਤਾਂਬਾ ਉਦਯੋਗ ਤੇ ਸੱਟ ਵੱਜੀ ਹੈ ਉੱਥੇ ਹਜਾਰਾਂ ਨੌਕਰੀਆਂ ਅਤੇ ਰੁਜਗਾਰ ਦੇ ਮੌਕਿਆਂ ਤੇ ਸਵਾਲੀਆ ਨਿਸ਼ਾਨ ਲੱਗ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਹ ਅੰਦਾਜਾ ਲਗਾਉਣਾ ਬਹੁਤਾ ਅੋਖਾ ਨਹੀਂ ਕਿ ਇਸਦਾ ਫਾਇਦਾ ਕਿਹੜੀਆਂ ਤਾਕਤਾਂ ਨੂੰ ਹੋਣ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਸਾਵਧਾਨ ਰਹਿਨਾ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿਉਂਕਿ ਉਸਦੇ ਵਧ ਰਹੇ ਕਦਮਾਂ ਨੂੰ ਰੋਕਨ ਲਈ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਹੋਰ ਵੀ ਕਈ ਵੱਡੀਆਂ ਅੰਤਰਰਾਸ਼ਟਰੀ ਸਾਜਿਸ਼ਾ ਸਾਹਮਣੇ ਆ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ।

- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
32, ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਲੋਨੀ,
ਵੀਪੀਓ ਰੰਧਾਵਾ ਮਸੰਦਾ,
ਜਲੰਧਰ।
ਮੋ. 097797-14324

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...