Friday, 29 September 2017

एलफिंस्टन ब्रिज हादसा, मौतों पर 'वोटपुरी कत्थक'

पहले इस देश ने अभिमन्यू की मौत पर असभ्य कौरवों का नृत्य देखा और अब मानवीय मौतों पर शर्मनाक 'वोटपुरी कथक' देखने को विवश है। भारत दुनिया का इकलौता देश बनता जा रहा है जहां मानवीय त्रासदियों व आतंकवाद सरीखी गंभीर घटनाओं पर भी 'राजनीतिक नकलिए' मीडिया की थाप पर ताताथईया करते दिखाई देते हैं। शुक्रवार को मुंबई में परेल और एलफिंस्टन रोड स्टेशनों को जोडऩे वाले ओवरब्रिज पर सबसे व्यस्त समय में बारिश के चलते लोग रुक गए थे। वहां एक साथ चार ट्रेनें आर्इं और उनसे निकले लोग पुल के सहारे इधर से उधर जाने की कोशिश करने लगे। इस बीच किसी अफवाह ने भगदड़ की शक्ल ले ली और करीब दो दर्जन लोगों की जान चली गई। इस घटना से सबक सीखने, भूल सुधार करने, इनसे बचने की बजाय हमारे राजनीतिक दल रुझे हुए हैं आरोप-प्रत्यारोपों के भोंडे प्रदर्शन में।

देखा जाए तो केवल यही एकमात्र घटना नहीं, अतीत में भी ऐसा होता रहा है और तो और खूनी आतंकवाद की घटनाएं भी हमारे राजनीतिज्ञों को फागोत्सव का आनंद प्रदान करती रही हैं। अभी मुंबई में पददलित होकर मरे लोगों की लाशों को घरों तक भी नहीं पहुंचाया गया था कि हमारे नेताओं ने तमाशा शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में भाजपा के हाथों नंबर एक से पटखनी खा कर पिछले दो वर्षों से तिलमिला रही शिवसेना ने इसके लिए केंद्र सरकार को लताड़ लगाई और लोगों को बताने में देर नहीं की कि उनके दो सांसदों ने कुछ समय पहले ही रेल मंत्री को पत्र लिख कर यहां नए पुल का निर्माण करने को कहा था। कांग्रेस पार्टी इस रेल पुल को 106 साल पुराना बताते हुए यह भूल गई कि तीन साल पहले जब उसने केंद्र की सत्ता छोड़ी थी तो उस समय यह पुल 103 साल पुराना रहा होगा और तब उनके रेल मंत्री ने इसकी सार क्यों नहीं ली। राष्ट्रवादी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने रेल मंत्री पियूष गोयल को उस अस्पताल में जाने से रोका जहां घायलों का इलाज चल रहा था। इसी तरह सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भी अपनी गलती से सीखने की बजाय पूर्ववर्ती सरकारों को कोसती नजर आई। माना कि विरोधी दल होने के नाते सरकार की खामियों से पर्दा उठाना और अपनी सरकार का बचाव करना इन दलों का काम है परंतु तस्वीर का शर्मनाक पहलू यह रहा कि किसी भी पक्ष ने समस्या की तह तक जाना और इसका समाधान पेश नहीं किया।
इस घटना में 22 लोगों की मौत अव्यवस्था की अनदेखी का एक और प्रमाण ही है। एलफिंस्टन ब्रिज नाम से चर्चित इस फुटओवर ब्रिज से आने-जाने वाले लोगों की संख्या प्रति मिनट दो सौ से अधिक होती थी। चूंकि अंग्रेजों के जमाने में बना यह पुल संकरा भी था इसलिए सुबह-शाम आपाधापी की स्थिति रहती थी। हादसा केवल इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि बारिश के कारण तमाम लोग पुल पर ही रुक गए थे, बल्कि इसलिए भी हुआ कि भगदड़ से बचने के लिए किसी तरह के सुरक्षा प्रबंध और यहां तक कि कोई पुलिसकर्मी भी नहीं था। शायद यही कारण है कि यह कहा जा रहा है कि यह तो होना ही था।
निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो एलफिंस्टन ब्रिज का हादसा महज एक दुर्घटना नहीं, बल्कि चरमराते शहरी ढांचे की घातक उपेक्षा की शर्मनाक उदाहरण भी है। हमारे महानगर एक ओर आबादी के बोझ से दबे जा रहे हैं और दूसरी ओर उनका ढांचा अपर्याप्त भी साबित हो रहा है, लेकिन उसे सुधारने-संवारने के लिए कोई ठोस काम नहीं हो रहा है। अतिक्रमण, जाम, गंदगी, प्रदूषण के साथ सार्वजनिक स्थलों में अराजकता की हद तक व्यवस्था के बीच भागम-भाग बड़े शहरों की पहचान बनती जा रही है। मुंबई की लोकल ट्रेनों, महानगरों के रेलवे स्टेशनों, हमारे बाजारों में जिस तरीके से मानवीय भीड़ व यातायात बढ़ रहा है उससे हमारा मूलभूत ढांचा चरमराने लगा है। केवल रेलवे को ही क्यों लें, सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाएं व उनसे होने वाली मौतें क्या कम हैं? इन परिस्थितियों में क्या हम नागरिक के रूप में अपने दायित्वों का सही तरीके से पालन करते हैं? यातायात सहित हर तरह के नियमों को तोडऩा हम स्टेटस सिंबल बना चुके हैं और इन सबको रोकने वाली प्रशासनिक प्रणाली राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार की शिकार है। अब हर उस जगह ऐसा होने लगा है जहां भारी भीड़ होती है। हालात इसलिए और बिगड़ रहे हैं, क्योंकि भगदड़ के कारण होने वाले हादसों के बेलगाम सिलसिले के बाद भी भीड़ प्रबंधन के तौर-तरीके अमल में नहीं लाए जा रहे हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी दुर्घटना के लिए केवल एक पक्ष जिम्मेवार नहीं होता। उसके प्रत्यक्ष कारणों में एक आध तत्व दिखाई दे सकते हैं परंतु पृष्ठभूमि में वह सभी कारण विद्यमान रहते हैं जो उसके लिए उत्तरदायी होते हैं। उदाहरण के लिए मुंबई की उक्त घटना के प्रत्यक्ष कारणों में रेलवे  प्रशासन की लापरवाही जिम्मेवार है। अगर समय रहते रेलवे के पुल को वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप बनाया होता तो यह हादसा नहीं होता। अगर रेलवे पुल पर पुलिस कर्मचारी भीड़ का संचालन करता तो शायद हादसे की आशंका कम हो जाती परंतु अप्रत्यक्ष कारणों में वह लोग भी तो जिम्मेवार हैं जो केवल बरसात से बचने के लिए पुल के आसपास इस तरह एकत्रित हो गए कि पुल से चढऩे उतरने वालों का मार्ग अवरुद्ध हो गया। अकसर देखा जाता है कि रेल यात्री इस तरह के पुलों व इनकी सीढिय़ों पर अपना सामान रख कर बैठ जाते हैं। हटने को कहने पर झगड़ा करते हैं। रेल के डिब्बों में सामान रास्ते में रख कर अव्यवस्था फैलाते हैं। आवश्यकता व अनुमति से अधिक सामान लेकर सफर करते हैं। आखिर हम नागरिक के रूप में अपना दायित्व कब समझेंगे।
देश को खुशी होती अगर 6 दशक से भी अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी कल की घटना पर अपने प्रशासनिक सुझाव देती, अपने रेल मंत्रियों को सामने लाती जो बताते कि अतीत में वे किस तरह इस तरह की परिस्थितियों से निपटते रहे। लोकतंत्र के लिए गौरव का पल होता जब सत्ताधारी भाजपा अपनी गलती का एहसास करती और सरकार रेलवे के ढांचागत सुधार की कोई योजना पेश करती या अगर इस तरह की योजना पर काम कर रही है तो उसकी जानकारी जनता को देती। शिव सेना के दो सांसद जो अपने पत्रों का जिक्र कर रहे थे वे जनता को बताते कि उन्हें विभिन्न विषयों पर अब तक लोगों से जितने पत्र या सुझाव मिले हैं उन पर उन्होंने कितनी तत्परता दिखाई। किसी भी तरह की दुर्घटना दुखद है परंतु यह हमें अवसर भी प्रदान करती हैं कि हम अपनी व्यवस्था में सुधार कैसे करें। किसी भी तरह की त्रासदी शोक मनाने व सीखने का मौका तो है परंतु आरोप-प्रत्यारोपों से राजनीतिक उत्सव मनाने का तो कतई नहीं।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Wednesday, 27 September 2017

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, संदेशवाहक को गोली न मारें

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में हाशिए पर जा चुकी वामपंथी व छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी विचारधारा के लोगों को मिली आंशिक जीत से इनके आकाओं को लगने लगा है कि उनकी शवसाधना काम कर रही है। ऐसे में अत्यधिक सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। पिछले तीन सालों का अनुभव है कि ये ताकतें युवा वर्ग विशेषकर विद्यार्थियों पर ध्यान आकर्षित कर रही हैं। इन हालातों में थोड़ी सी भी चूक या लापरवाही देश के वातावरण को प्रभावित कर सकती हैं। 

मुंबईया फिल्मों में अकसर देखा जाता है कि खलनायक को जब उसका साथी कोई ऐसा समाचार सुनाता है जो उसे प्रिय न हो तो वह उसे गोली मार देता है। इसे कहते हैं संदेशवाहक (मैसेंजर) को ही गोली मारना। कमोबेश बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कुछ ऐसा ही हुआ है जिसके चलते आग इतनी भड़की। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन समय पर उचित कार्रवाई करता तो न बात बिगड़ती और न ही तिल का ताड़ बनता। विश्वविद्यालय प्रशासन चाहे लाख दलीलें दे कि पूरे प्रकरण के पीछे बाहरी लोगों का हाथ है और पेट्रोल बमों का प्रयोग विद्यार्थी नहीं करते परंतु उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि इन बाहरी व्यक्तियों को रोकना व अराजक तत्वों को पहचानना किसका काम था? न्याय की मांग है कि छेड़छाड़ पीडि़ताओं की शिकायत पर कार्रवाई की जाए और दोषियों को दंड दिया जाए ताकि महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की यह अमूल्य धरोहर राजनीति की आग से बची रहे।


मामला उस समय बिगड़ा जब आट्र्स विषयों की छात्रा के साथ रात के समय तीन मोटरसाइकिल सवार शोहदों ने छेड़छाड़ करनी शुरू कर दी। छात्रा ने जब इसकी शिकायत छात्रावास के संरक्षक (होस्टल वार्डन) से की तो उन्होंने छात्रा से ही प्रश्न करना शुरू कर दिया कि वह इतनी देर रात  बाहर क्या कर रही थी? यानि यहीं से शुरू हो गया संदेशवाहक को गोली से उड़ाने का प्रयास। इससे आक्रोषित छात्राओं ने जब विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने का प्रयास किया तो उन्होंने मिलने से ही इंकार कर दिया। गुस्साई छात्राओं ने जब इसके खिलाफ नारेबाजी की तो वहां पर तैनात पुलिस बल ने उन पर लाठीचार्ज किया।
मीडिया में जिस तरह से समाचार छन कर आरहे हैं उससे पता चलता है कि विश्वविद्यालय के आंतरिक अनुशासन में कहीं न कहीं बड़ा झोल है। छात्राएं बता रही हैं यहां छात्राओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं साधारण बात हैं। उन पर कितनी व कैसी कार्रवाई होती है उसका तो ताजा उदाहरण मौजूदा प्रकरण ही है, जहां होस्टल वार्डन ने पीडि़त छात्रा को ही यह कह कर कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया कि वह आधी रात को बाहर क्या करने निकली थी?
प्रश्न पैदा होता है कि विश्वविद्यालय के कुलपति जब इन परिस्थितियों में पीडि़त छात्राओं से मिलते ही नहीं तो उनके होने की प्रासंगिता क्या है? विश्वविद्यालय में कानून व्यवस्था बनाए रखने व किसी अन्याय से पीडि़त को न्याय दिलवाने की की जिम्मेवारी कुलपति की नहीं तो और किसकी होनी चाहिए। कुलपति महोदय ने तो पीडि़ताओं को न्याय दिलवाना तो दूर उन्हें मिलना और ढांढस बंधाना भी उचित नहीं समझा। कुलपति महोदय दलील दे रहे हैं कि विश्वविद्यालय के बाहरी व्यक्तियों के चलते आग भड़की। राजनीति व कानून व्यवस्था को लेकर उत्तर प्रदेश जैसे संवेदनशील राज्य में इस तरह के प्रदर्शनों में आगजनी व पेट्रोल बमों का प्रयोग होने की आशंका अत्यधिक रहती है तो विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन ने इन अवांछित तत्वों पर नजर क्यों नहीं रखी गई? उन्हें प्रदर्शनकारी छात्राओं के बीच घुसने क्यों दिया गया? ऊपर से रही सही कसर पुलिस प्रशासन ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ केस दर्ज करके पूरी कर दी। एक तरफ देश 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' के नारे के साथ महिला सशक्तिकरण की ओर आगे बढ़ रहा है तो ऐसे समय में छात्राओं के साथ होने वाली ऐसी घटनाएं विरोधियों को बोलने का अवसर प्रदान करती हैं।
मीडिया में जिस तरह से समाचार छन कर आरहे हैं उससे पता चलता है कि विश्वविद्यालय के आंतरिक अनुशासन में कहीं न कहीं बड़ा झोल है। छात्राएं बता रही हैं यहां छात्राओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं साधारण बात हैं। उन पर कितनी व कैसी कार्रवाई होती है उसका तो ताजा उदाहरण मौजूदा प्रकरण ही है, जहां होस्टल वार्डन ने पीडि़त छात्रा को ही यह कह कर कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया कि वह आधी रात को बाहर क्या करने निकली थी? महाविद्यालय व विश्वविद्यालय परिसर शिक्षण के साथ-साथ जीवन के सर्वांगीण विकास की कार्यशालाएं हैं, जब यहां पर सुरक्षा का वातावरण ही नहीं होगा तो हमारी युवा पीढ़ी का समुचित विकास कैसे होगा? ऊपर से किसी को क्या अधिकार है कि वह किसी युवति या छात्रा से पूछे कि रात के समय वह बाहर क्यों निकली? एक तो विश्वविद्यालय विद्यार्थियों को सुरक्षा नहीं दे पाया और ऊपर से पीडि़त को ही दोषी ठहरा दिया।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में हाशिए पर जा चुकी वामपंथी व छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी विचारधारा के लोगों को मिली आंशिक जीत से इनके आकाओं को लगने लगा है कि उनकी शवसाधना काम कर रही है। ऐसे में अत्यधिक सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। पिछले तीन सालों का अनुभव है कि ये ताकतें युवा वर्ग विशेषकर विद्यार्थियों पर ध्यान आकर्षित कर रही हैं। इन हालातों में थोड़ी सी भी चूक या लापरवाही देश के वातावरण को प्रभावित कर सकती हैं। यह ठीक है कि आज देश में राष्ट्रवाद के पक्ष में वातावरण बना हुआ या कहा जाए तो राष्ट्रवादियों के हाथ ऊंचे नजर आरहे हैं परंतु यह बढ़त बनाए रखना भी बहुत बड़ी चुनौती का काम है। बनारस विश्वविद्यालय जैसे प्रकरण युवाओं में गलत संदेश पहुंचा सकते हैं। विद्यार्थियों, युवाओं की या किसी की भी जो उचित शिकायत है उसे सुना जाए व उनका निस्तांतरण करें, यूं संदेशवाहक को गोली मारना बुद्धिमता नहीं है।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Tuesday, 26 September 2017

जम्मू-कश्मीर, रोहिंग्या और धारा 370

दिखने में तीन विभिन्न तरह के शब्दों में भला क्या समानता हो सकती है, लेकिन है। अगर तीनों को मिला दिया जाए तो सामने संयुक्त शब्द आता है षड्यंत्र जो जम्मू संभाग को हिंदू विहीन करने का रचा जा रहा है, धारा 370 की आड़ में और भी इन रोहिंग्याओं के माध्यम से। जम्मू-कश्मीर में अधिकारिक तौर पर दस हजार रोहिंग्या मुसलमान हैं यह सभी जानते हैं परंतु रोचक बात है कि सभी रोहिंग्या आबादी केवल जम्मू संभाग में है। कश्मीर की घाटी जो कि मुस्लिम बाहुल्य है और इन रोहिंग्याओं के लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थान हो सकती थी वहां एक भी रोहिंग्या परिवार नहीं है। अब आपके भी कान खड़े हो गए होंगे।

अपने मूल से लगभग तीन-चार हजार किलोमीटर दूर जम्मू-कश्मीर राज्य में रोहिंग्याओं का होना अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है।  अगर इन पर म्यांमार में अत्याचार हुआ है और इनको भारत में घुसपैठ करनी पड़ी तो इन्हें म्यांमार की सीमा व आसपास के इलाकों में होना चाहिए था। हजारों किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऐसे राज्य में इनको कौन लेकर आया ? इनको रास्ता किसने दिखाया ? उस राज्य में इनको शरण कैसे दे दी गई जहां धारा 370 जैसा सख्त प्रावधान है कि जम्मू-कश्मीर से बाहर के कोई राज्य का नागरिक वहां मकान नहीं बना सकता ? असल में यह बहुत बड़ी साजिश व गुप्तचर एजेंसियों के लिए खोज का विषय है कि आखिर इतनी दूर से ये लोग चुपचाप कैसे चले आए और इनको रोकने वाला कोई नहीं मिला।
जम्मू-कश्मीर एक केवल सीमांत राज्य ही नहीं बल्कि आतंकवाद प्रभावित राज्य भी है। यहां आतंकवाद भी सामान्य नहीं बल्कि इस्लामिक जिहाद के नाम पर किया जा रहा है। कश्मीर घाटी से 1990 के दशक में हिंदुओं के जबरन पलायन के बाद कश्मीर घाटी लगभग हिंदू शुन्य हो चुकी है। जम्मू संभाग हिंदू और लद्दाख संभाग बौद्ध है परंतु रोचक बात है कि इन रोहिंग्याओं को मुस्लिमों के लिए सुरक्षित स्थान घाटी में न बसा कर जम्मू, सांभा, डोडा, पुंछ जैसे उन इलाकों में बसाया जा रहा है जहां अभी तक हिंदू बहुसंख्या में हैं। यह सीधा-सीधा भुगौलिक संरचना बदलने का प्रयास है जो संभवत: राजनीतिक या आतंकी गतिविधियों के संचालन की दृष्टि से किया जा रहा है। सरकार, गुप्तचर एजेंसियों के साथ-साथ समाज को भी इसके प्रति सावधान हो जाना चाहिए।
अब बहुत से लोग पूछ सकते हैं कि कुछ हजार रोहिंग्याओं से इस इलाके का सांख्यिीकी बदलाव कैसे संभव है और हो भी गया तो क्या होने वाला है ? तो उन्हें पता होना चाहिए कि यह हजारों की संख्या में रोहिंग्या मुसलमान तो केवल समस्या का प्रारंभ मात्र हैं। इसके बाद इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता कि इनकी संख्या बढ़ेगी नहीं। जो लोग सांख्यिीकी बदलाव को खतरनाक नहीं मानते उन्हें म्यांमार की ही हालत देखनी चाहिए जहां से इन रोहिंग्याओं को भागना पड़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 1983 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में मुसलमानों की संख्या केवल 29 प्रतिशत थी। अल्पसंख्यक होते हुए यह छोटे-मोटे दंगा फसाद व अपराध तो करते थे परंतु बड़ी वारदातों व साजिशों को अंजाम देने में समर्थ नहीं थे। वर्तमान में यह जनसंख्या 60 प्रतिशत को भी पार कर चुकी है। इसी जनसंख्या के बल पर इन्होंने म्यांमार से अलग होने का संघर्ष छेड़ दिया और स्थानीय लोगों को वहां से भागने को मजबूर कर दिया। केवल म्यांमार ही नहीं भारत भी आसाम, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल जैसे सीमांत राज्यों में बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण जानसांख्यिकी बदलाव की समस्या पेश आरही है। इसके चलते यहां आतंकवाद, तस्करी, बलात्कार, नकली करंसी का कारोबार, गो-तस्करी का कारोबार फलफूल रहा है और अलगाववाद की समस्या भयंकर रूप लेती जा रही है। अगर जम्मू-कश्मीर में इन रोहिंग्याओं को यूं ही बसाया जाता रहा और इनको निष्कासित नहीं किया गया तो पहले से वैश्विक जिहादी आतंकवाद की आग में झुलस रहे जम्मू-कश्मीर में यह बिन बुलाए मेहमान आग में घी का काम करेंगे।
धारा 370 जम्मू-कश्मीर सरकार को कुछ विशेषाधिकार देती है। यहां के राजनीतिक नेतृत्व ने अपनी इस्लामिक सांप्रदायिक सोच व मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते इस धारा का प्रयोग यहां से हिंदुओं को भगाने व मुसलमानों को चाहे वे विदेशी ही क्यों न हो बसाने का प्रयास किया है। याद करें कि देश के विभाजन व पाकिस्तानी हमले के समय सीमापार से आए हिंदू-सिखों को 70 सालों के बाद भी अभी तक वहां की नागरिकता नहीं मिली है। इन लोगों को जब भी नागरिकता देने का सवाल पैदा होता है तो देश के सेक्युलर तानाबाने से लेकर यहां का राजनीतिक नेतृत्व कोपभवन में चला जाता है। चीन के हमले के बाद तिब्बत से निर्वासित हो कर भारत आए बौद्धों को इन सेक्युलरों व जिहादियों ने लद्दाख में नहीं रहने दिया। हालांकि लद्दाख की संस्कृति, वातावरण, रहन-सहन इन निवार्सित बौद्धों के अनुकूल था। इन्हें मजबूरन हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नगर में बसाया गया। इस राज्य के नेताओं की सांप्रदायिक सोच देखिए कि तिब्बत से आए बौद्धों का विरोध करने के बाद इन्होंने तिब्बत से आए मुसलमानों को कश्मीर की मस्जिद में शरण दे दी।
और तो और साल 2008 में जब श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने बाबा बर्फानी के श्रद्धालुओं को मेडिकल कैंप, लंगर लगाने हेतु कुछ एकड़ जमीन देने की कोशिश की तो अब्बदुल्ला से लेकर मुफ्ती और अलगाववादियों ने पूरे राज्य को बंधक बना लिया था। जबकि सभी जानते हैं कि जिस इलाके में श्रद्धालुओं को जगह दी जानी थी वहां पर कोई गर्मियों में भी नहीं रह सकता। अब भी जब विस्थापित कश्मीरी पंडितों को वहां बसाने का प्रयास किया जाता है तो वहां के सभी राजनीतिक दल, विदेश पोषित अलगाववादी एक ही भाषा में इसका विरोध करना शुरु कर देते हैं। यही लोग जब रोहिंग्याओं को जम्मू संभाग में बसाने के प्रयास करते और मानवीय आधार पर इन्हें शरण देने की बात करते हैं तो समझ में आजाना चाहिए कि दाल में कुछ और नहीं बस काला ही काला है।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Sunday, 24 September 2017

रोहिंग्या मुसलमान-बेचारे या हत्यारे


अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के आतंकी

अब आंखें खुल जानी चाहिएं। देश की तो पहले खुली थीं अब नेत्रजागरण होने जरूरी हैं उनके जो अभी तक देश में चोरों की भांति घुस रहे रोहिंग्याओं के दु:ख में अपनी आंखों से गंगा-जमना बहा पूरे देश को शोक स्नान करवाने की जिद्द पाले हुए थे। जो कभी देश के सर्वोच्च न्यायालय को लिखित में तो कभी टीवी चैनलों पर चीख-चीख पर देशवासियों को बता रहे थे कि म्यांमार से आरहे घुसपैठिए अत्याचार पीडि़त हैं, दुखी हैं, मुसीबत के मारे और बेचारे हैं परंतु अब यह दिन के उजाले की तरह साफ हो गया है कि ये बेचारे वास्तव में हत्यारे हैं।

म्यांमार की सेना ने रविवार,24 सितंबर को कहा है कि हिंसा प्रभावित राखिन प्रांत में उन्हें 28 हिन्दुओं की कबें्र मिली हैं। म्यांमार सेना के मुताबिक रोहिंग्या आतंकवादियों अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी ने इन हिन्दुओं की हत्या की है। जबर्दस्त हिंसा से प्रभावित राखिन प्रांत में 25 अगस्त से कानून व्यवस्था की स्थिति काफी बिगड़ी हुई है। म्यांमार के सेनाध्यक्ष की वेबसाइट पर जारी एक बयान में कहा गया है, 'सुरक्षा बलों ने 28 हिन्दुओं के मृत शरीरों को पाया है और उन्हें खोदकर निकाला है, इनकी अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के बंगाली आतंकवादियों ने बेरहमी से हत्या कर दी थी।' बता दें कि 25 अगस्त को अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) द्वारा म्यांमार के पुलिसकर्मियों पर हमले के बाद इस इलाके में हिंसा भड़क उठी है। एआरएसए द्वारा हमले के बाद सेना ने इनके खिलाफ काफी हिंसक अभियान शुरू किया है।
म्यांमार सेना ने कहा है कि उन्हें सर्च ऑपरेशन के दौरान जिन 28 हिन्दुओं के शव मिले हैं उनमें 20 महिलाएं, 8 पुरुष शामिल हैं। मरने वालों में 6 बच्चे भी शामिल हैं इनकी उम्र 10 साल से कम है। म्यांमार सरकार के प्रवक्ता ज्वा हैते ने भी 28 लाशों के मिलने की पुष्टि की है। उत्तरी रखाइन प्रांत में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि आतंकवादियों ने एक गड्ढ़े में 10 से 15 लोगों को दफनाया है। सेनाध्यक्ष ने जिस गांव में हिन्दुओं की लाशें मिलने का दावा किया है उसका नाम ये बा क्या है। ये गांव उत्तरी रखाइन के खा मांग शेक इलाके के पास स्थित है। यहां हिन्दुओं और मुसलमानों की जनसंख्या रहती है। इस इलाके के हिन्दुओं का कहना है कि 25 अगस्त को अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के आतंकवादियों ने यहां जमकर हिंसा की थी और कई लोगों की हत्या कर दी थी।

म्यांमार का वह स्थान जहां निर्दोष हिंदुओं की सामूहिक कब्र मिली
 रोहिंग्याओं के चरित्र पर तनिक भी विश्वास नहीं किया जा सकता। देश में रह रहे चालीस हजार रोहिंग्याओं को बाहर निकालने का सरकार का प्रयास देश हित में है और विश्वास किया जाना चाहिए कि इनके निष्कासन की कार्रवाई जल्द शुरू होगी। म्यांमार के रखाइन प्रांत में हिंदुओं के हुए नरसंहार पर भी विश्व समुदाय को वहां की सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वह इसके जिम्मेवार लोगों को जल्द से जल्द कानून अनुसार सजा दिलवाए।

अब देश के उन बुद्धिजीवियों को क्या कहें जो इन हत्यारों को बेचारा बना कर पेश करते रहे हैं और इनके पक्ष में आवाज उठाते रहे हैं। रोहिंग्याओं का चरित्र संदिग्ध है और इनके आतंकियों के  साथ संबंध है इसके बारे सारी दुनिया जानती है। यहां तक वे भी जो भारत में इनके वकील हैं परंतु वे वकालत इसलिए करते हैं ताकि उनका छद्म धर्मनिरपेक्ष व्यवहार संदेह के घेरे में न आजाए। 
यह सभी जानते हैं कि रोहिंग्या लोग जब से म्यांमार गए हैं उन्होंने वहां की स्थानीय आबादी बौद्ध लोगों का जीवन नरक बना दिया। हिंसा, टकराव, तस्करी व देश तोडऩे की घटनाओं से परेशान बौद्ध लोग समय-समय पर इनके खिलाफ अपना रोष निकालते रहे हैं। रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार के रखाइन प्रांत को देश से अलग करने का अभियान चलाए हुए हैं। अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के नाम से पाकिस्तान के कराची नगर से गया युवक इस आतंकी संगठन को चला रहा है। इन रोहिंग्याओं के आईएसआई से ही नहीं बल्कि लश्कर-ए-तयबा जैसे आतंकी संगठनों से भी संबंध हैं। भारत के बंगाल सहित अनेक हिस्सों में रोहिंग्या मुसलमान अपराधिक व आतंकी गतिविधियों में शामिल मिले हैं। इसके बावजूद कुछ भारत के ही लोगों इनके पक्ष में खड़े होना समझ से बाहर की बात है।
अब उक्त घटना से तो बिल्कुल साफ हो गया है कि रोहिंग्याओं के चरित्र पर तनिक भी विश्वास नहीं किया जा सकता। देश में रह रहे चालीस हजार रोहिंग्याओं को बाहर निकालने का सरकार का प्रयास देश हित में है और विश्वास किया जाना चाहिए कि इनके निष्कासन की कार्रवाई जल्द शुरू होगी। म्यांमार के रखाइन प्रांत में हिंदुओं के हुए नरसंहार पर भी विश्व समुदाय को वहां की सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वह इसके जिम्मेवार लोगों को जल्द से जल्द कानून अनुसार सजा दिलवाए।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

तीन माह का इस्लाम प्रेम

अथिरा से आएशा और फिर अथिरा बनी युवती                                                                                                                                                                                                                              इस घटना के बाद अब युवाओं के परिजनों की भी आंखें खुल जानी चाहिएं। जब तक हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, संस्कार, आस्था, परंपराओं की शिक्षा नहीं देंगे तब तक वे जीवन में यूं ही भटकाव के शिकार होते रहेंगे। आज हम अपने बच्चों को हर सुविधा उपलब्ध करवाते हैं, उनके भविष्य की चिंता करते हैं, विरासत में धनसंपदा, जमीन जायदाद छोड़ कर जाने की इच्छा रखते हैं परंतु उन्हें सबसे जरूरी चीज संस्कार व अपने परिवार की परंपरा देने में लापरवाही बरतते हैं। इन्हीं बातों का परिणाम है कि हमारे बच्चे अथिरा की भांति जड़ विहीन हो कर भटकते हैं।

मेरा निजी आग्रह है कि हर हिंदू अपने उन युवा बच्चों को यह कहानी जरूर सुनाएं जो आत्मनिंदा से पीडि़त हैं। यह कहानी उन लोगों के लिए भी जरूरी है जो हिंदुत्व का मजाक उड़ाते या निंदा करते और दूसरों की शान के कसीदे पढ़ते हैं। यह कथा उनके लिए भी जरूरी है जो किसी की बातों में आकर धर्म बदल लेते हैं परंतु जब वास्तविकता से सामना होता है तो या तो पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता या फिर वही होता है जो केरल की इस 23 साल की हिंदू लड़की आथिरा के साथ हुआ। मैं किसी धर्म की स्तुति करने का विरोधी नहीं और न ही दूसरी आस्था की अच्छी बातों को स्वीकार करने का विरोधी परंतु जरूरी नहीं है कि इसके लिए अपने धर्म को छोड़ा जाए। इस घटना से सभी को यह भी ध्यान में आएगा कि हमें अपने बच्चों को स्वधर्म, अपनी संस्कृति, परिवारिक मूल्यों की शिक्षा देनी क्यों और कितनी जरूरी है।
ओम नम: शिवाय के जयघोष के साथ केरल के कासरगोड जिले की 23 साल की अथिरा जब पत्रकारों से मुखातिब हुई तो उसके मुंह से पहला वाक्य यहीं निकला। अथिरा उस युवती की कहानी है जो इसी साल जुलाई में हिन्दू धर्म को छोड़कर इस्लाम कबूल कर लिया था। जुलाई में अथिरा जब मीडिया को संबोधित कर रही थी तो वो पर्दे (हिजाब) में थी, तब उसने कहा था, 'मैं अपनी इच्छा से इस्लाम कबूल कर रही हूं।' अथिरा ने तब दुनिया के सामने अपने आपको आएशा नाम से परिचित करवाया था। गुरुवार 21 सितंबर को कोच्चि में आएशा ने फिर से प्रेस कॉन्फ्रेंस की, लेकिन इस बार वह बदली बदली हुई थी। इस बार आएशा का हिजाब गायब था, उसके मस्तक पर तिलक लगा हुआ था उसने एक बिंदी लगा रखी थी। आएशा एक बार फिर से हिन्दू बन गई थी उसने अपना पुराना नाम अथिरा अपना लिया। द न्यूज मिनट की रिपोर्ट के मुताबिक अथिरा ने कहा कि उसके दोस्तों ने उसे बहका दिया था, पथभ्रष्ट कर दिया था।
अथिरा ने पत्रकारों को बताया कि उसके मुस्लिम दोस्तों ने उसके सामने इस्लाम का संसार रचा उसे बहकावे में आ गई। अथिरा ने कहा कि उसके दोस्त कहा करते थे कि, एक पत्थर और एक मूर्ति की पूजा करना बेवकूफी है। अथिरा ने बताया कि उसके दोस्त कहते थे कि हिन्दुत्व में कई देवता है, लेकिन इस्लाम में एकमात्र सर्वोच्च शक्ति है। अथिरा कहती है कि धीरे-धीरे उसके दिमाग में हिन्दुत्व के प्रति शक भर गया। जब वो इन चीजों के बारे में सोचती तो उसे लगता कि उसके मुस्लिम दोस्त सही कह रहे थे। जल्द ही अथिरा के दोस्त उन्हें इस्लाम के बारे में किताबें देने लगे। उनमें से एक किताब नरक (जहन्नुम) के बारे में थी। अथिरा इस किताब को पढ़कर बेचैन हो गई, उसे लगने लगा कि अगर वो इस्लाम कबूल नहीं करती है तो उसे भी इससे गुजरना पड़ेगा। उसे इस्लामी उपदेशक जाकिर नाईक के वीडियो देखने को दिये गये। उससे उसे यकीन हो गया कि इस्लाम एक बेहतर धर्म है, मैंने आंख मूंद कर यकीन कर लिया कि हिंदू धर्म खराब है।
अथिरा ने जुलाई के पहले सप्ताह में अपना घर छोड़ दिया। उसने 15 पन्नों का एक पत्र अपने माता-पिता के नाम लिखा और कहा कि वो इस्लाम के बारे में पढऩे जा रही है। 27 जुलाई को उसने कन्नूर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया, अदालत ने उसे नारी निकेतन में भेज दिया। अथिरा के माता-पिता उसकी कस्टडी लेने के लिए केरल उच्च न्यायालय गये। अदालत में अथिरा ने कहा कि अगर उसके माता-पिता उसे इस्लामी कायदे कानून मानने से नहीं रोकते हैं तो वो उनके पास जाने को तैयार है। इसके बाद कोर्ट ने अथिरा के माता-पिता को उसकी कस्टडी दे दी। अथिरा बताती है कि मल्लपुरम में वो अपने एक दोस्त के जरिये एक उस्ताद से मिली, जिसके बाद उसे एक व्हाट्सअप ग्रुप से जोड़ दिया गया। इसका नाम था हिदायत सिस्टर्स। अथिरा बताती है कि इस ग्रुप में एक ऐसी लड़की थीं जो मुस्लिम लड़के से प्यार करने की वजह से अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल कर ली थी।
अथिरा बताती है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के एक कार्यकर्ता सिराज ने उसे कई तरह की सलाह दी। उसके मुताबिक सिराज और उसके जैसे कई लोग उसे बताते थे कि अदालत में उसे किस तरह से बयान देना है। अथिरा के मुताबिक हिन्दू हेल्पलाइन के लोगों ने उसके पिता की मदद की और उसे एर्नाकुलम के अर्स विद्या समाजम के बारे में बताया। अथिरा के मुताबिक इन लोगों ने उन पर कोई दवाब नहीं दिया, बल्कि उसे सही सूचना दी। उन्होंने अथिरा को खुले दिमाग से कुरान को फिर से पढऩे की शिक्षा दी। अथिरा कहती है कि जब मैने तार्किक ढंग से कुरान पढ़ा, तो मेरे दिमाग में कई शंकाएं पैदा हुई। अथिरा ने इसके बाद समाजम में दाखिला लिया और इसके बाद उसने फिर से हिन्दुत्व में लौटने का फैसला लिया।
इस घटना के बाद अब युवाओं के परिजनों की भी आंखें खुल जानी चाहिएं। जब तक हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, संस्कार, आस्था, परंपराओं की शिक्षा नहीं देंगे तब तक वे जीवन में यूं ही भटकाव के शिकार होते रहेंगे। आज हम अपने बच्चों को हर सुविधा उपलब्ध करवाते हैं, उनके भविष्य की चिंता करते हैं, विरासत में धनसंपदा, जमीन जायदाद छोड़ कर जाने की इच्छा रखते हैं परंतु उन्हें सबसे जरूरी चीज संस्कार व अपने परिवार की परंपरा देने में लापरवाही बरतते हैं। इन्हीं बातों का परिणाम है कि हमारे बच्चे अथिरा की भांति जड़ विहीन हो कर भटकते हैं।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324 

Saturday, 23 September 2017

आतंकवाद के खिलाफ हमारी वैश्विक प्रतिबद्धता

यह हमारी संस्कृति रही है कि हमने केवल अपनी ही नहीं बल्कि समूचे ब्रह्मंड के मंगल की कामना की है परंतु जिस तरीके से पृथ्वी के संसाधनों की लूट से प्रकृति रौद्र रूप धारण करती जा रही है और विश्व के दोमुंहेपन से आतंकवाद फैल रहा है उसके प्रति भारतीय चिंता को विश्व के सामने बड़ी सफलतापूर्वक पेश किया है विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने।

'सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:' मंत्रोच्चार के साथ भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र के 71वे सम्मेलन में महासभा अपने भाषण का समापन किया उससे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के साथ-साथ आतंकवाद भयावहता के खिलाफ हमारी वैश्विक प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है। श्रीमती स्वराज ने जहां दुनिया को आतंकवाद के खिलाफ ईमानदारी से एकजुट होकर लडऩे का आह्वान किया वहीं पाकिस्तान को परामर्श दिया कि वह आतंक पर निवेश करने की बजाय इस धन का प्रयोग अपने लोगों के हित के लिए करे। इससे साफ है कि हम केवल अपने देश भारत को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया और यहां तक कि आतंकवाद की जननी कहे जाने वाले देश पाकिस्तान उपाख्य 'टेरेरिस्तान' को भी इस बीमारी से मुक्त देखना चाहते हैं। 


भारत ने आतंकवाद को केवल अपने लोगों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक बताया और विश्व समुदाय से ठीक ही पूछा है कि अगर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् आतंकवादियों को प्रतिबंधित सूची में डालने पर सहमत नहीं हो सकती तो फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय आतंकवाद की समस्या का कैसे मुकाबला करेगा? याद रहे कि जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर, दुर्दांत आतंकी हाफिज सईद को प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में डालने के संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों पर हमारा ही पड़ौसी देश चीन निषेध शक्ति (वीटो पावर) प्रयोग कर चुका है। वही चीन जिसके पाकिस्तान के साथ आर्थिक हित जुड़े हैं और वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में इतना खो हो चुका है कि आतंकियों तक को पराश्रय देने में नहीं झिझक रहा। ऐसे में भारत के प्रश्न बिलकुल उचित हैं कि अगर हम अपने शत्रु को परिभाषित ही नहीं कर सकते तो फिर मिलकर कैसे लड़ सकते हैं? अगर हम अच्छे आतंकवादियों और बुरे आतंकवादियों में अंतर करना जारी रखते हैं तो आपस में एकजुट कैसे हो सकते हैं? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने पर सहमति नहीं बना पाती है तो फिर आतंकवाद के प्रति हमारी थोथी चिंता का अर्थ ही क्या है?

भारत 70 वें दशक से पाक प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है। पहले उसने पंजाब में स्थानीय असंतोष का लाभ उठा कर आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया और यहां से परास्त होने के बाद कश्मीर में दखल देना शुरु कर दिया। 1990 के बाद तो देश में रह-रह कर आतंकी हमले होते रहे जिनमें अभी तक हजारों निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और अरबों रुपयों की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। देश के जो संसाधन विकास पर लगने थे वे आतंकवाद से लडऩे में व्यय हुए। इस बीच मुंबई बम विस्फोट, ताज होटल पर हुआ आतंकी हमला और संसद पर हुए हमलों ने तो देश को हिला कर रख दिया।

आतंकवाद को देखने का यह दोहरा दृष्टिकोण ही है कि पूरी दुनिया अमेरिका में हुए 9/11 के हमले से पहले मानवता के समक्ष पैदा हुई नई वैश्विक चुनौती आतंकवाद को स्थानीय देशों की कानून व्यवस्था की समस्या ही मानती रही। और तो और हमारे यहां आतंकवाद फैलाने वालों को इसके अभिभावकदेश स्वतंत्रता सेनानी भी बताते रहे हैं। तभी तो पाकिस्तान सहित बहुत से पश्चिमी देशों में आज भी खालिस्तानी व जिहादी आतंकी संगठन अपनी गतिविधियों का संचालन कर रहे हैं और इस काम के लिए उन्होंने अपने कार्यालय तक खोले हुए हैं। बहुत से पश्चिमी देशों में भारत से भगौड़े हुए आतंकियों को राजनीतिक शरण मिली हुई है। कुछ बड़ी शक्तियों पर तो अपने हथियार बेचने व शीत युद्ध में एक दूसरे को परास्त करने के लिए आतंकवाद को प्रोत्साहन देने तक के आरोप लगे। इसके बीच भारत की आवाज को अनसुना किया जाता रहा। भारत ने 1996 में भी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक संधि (सीसीआईटी) का प्रस्ताव दिया था लेकिन दो दशक बाद भी संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद की परिभाषा पर सहमत नहीं हो सका है। आतंकवाद पर यह दुनिया की दुविधा नहीं तो और क्या है?

वर्तमान समय में दुनिया का कोई देश इसकी आग से अछूता नहीं, यहां तक कि इसका जनक पाकिस्तान भी कई बार खुद अपनी लगाई आग में झुलसता रहा है। दुनिया हर आतंकी घटना के बाद निंदा व खण्डन-मंडन तो करती है, इसके खिलाफ आपस में मिल कर लडऩे के संकल्प भी जताए जाते हैं परंतु इसके बावजूद भी आतंकवाद अभी तक परिभाषित नहीं हो पाया। जब हम मानवता के लिए पैदा हुए नए दुश्मन को परिभाषित ही नहीं कर पाए, उसको पहचान ही नहीं पाए तो उसके खिलाफ मिल कर लड़ेंगे कैसे? इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि हम दोगलापन छोड़ें, दुनिया में 'गुड जेरोरिज्म-बैड टेरोरिज्म' कुछ नहीं। आतंकवाद केवल आतंकवाद है और उसके पर शून्य सहनशीलता (जीरो टोलरेंस) की नीति अपना कर निपटा जा सकता है।

अमेरिका सहित लगभग पूरी दुनिया के देशों की पाकिस्तान के प्रति नीति भी समझ से बाहर है। श्रीमती स्वराज के शब्दों में 'टेरेरिस्तान' कहे जाने वाले देश के नागरिक दुनिया के किसी भी हिस्से में होने वाली आतंकी गतिविधि में संलिप्त पाए जाते हैं। भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान व बंगलादेश प्रत्यक्ष रूप से पाक पोषित आतंकवाद का सामना कर रहे हैं परंतु इसके बावजूद पाकिस्तान को लाइन पर नहीं लाया जा रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को धमकाने व पीठ थपथपाने  के काम एक साथ करता आया है। पाकिस्तान को सैनिक साजो सामान व आर्थिक मदद सबसे अधिक अमेरिका से मिलती है और यह सभी जानते हैं कि वहां की सेना और गुप्तचर संस्था आईएसआई के माध्यम से इसका प्रत्यक्ष लाभ आतंकी संगठनों को मिलता है, इसके बाद भी बिना किसी सावधानी के पाक का वित्त व सामरिक रूप से लालन पालन  किया जा रहा है। ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के नाम आतंकियों की सूची में डाले जाने का बावजूद चीन तो पाकिस्तान को आतंकवाद पीडि़त राष्ट्र ही बताता आरहा है।

आतंकवाद पर इन दोहरे मापदंडों को देख कर मुंबई के वे गुंडे याद आते हैं जिनको उनकी जाति या धर्म के कारण अपने समाज से समर्थन मिल जाता है। दुनिया को समझना चाहिए कि आतंकवाद वह भस्मासुर है जो सामने वाले के साथ-साथ जन्मदाता को भी जला डालता है और उसकी आग से वे भी नहीं बचते जो इसे केवल कुछेक लोगों की समस्या मानते हैं। आज का भस्मासुर वैश्विक आतंकवाद है जिसका पूरी मानवता को एकजुट हो कर सामना करना होगा।

यह हमारी संस्कृति रही है कि हमने केवल अपनी ही नहीं बल्कि समूचे ब्रह्मंड के मंगल की कामना की है परंतु जिस तरीके से पृथ्वी के संसाधनों की लूट से प्रकृति रौद्र रूप धारण करती जा रही है और विश्व के दोमुंहेपन से आतंकवाद फैल रहा है उसके प्रति भारतीय चिंता को विश्व के सामने बड़ी सफलतापूर्वक पेश किया है विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा   स्वराज ने।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Friday, 22 September 2017

खामोश गम का एक साल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंजाब प्रांत के सह-संघचालक रहे ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा जी के देवलोक गमन को एक साल गुजर चुका है। यह हमला व्यक्ति विशेष से अधिक एक विचार पर ज्यादा फोकस था, वह विचार जो पंजाब में सांप्रदायिक सौहार्द का पक्षधर, हिंदू-सिख एकता की वकालत करने वाला व देश की इस 'खडग़बाहू' को मुख्यधारा के साथ अक्षुण्ण रखने वाला है। वह विचार जो देश के इस सीमावर्ती राज्य को राष्ट्रवाद की मंदाकिनी से पल्लवित करने को कहता है ताकि यह प्रदेश युगों से चली आरही सीमाप्रहरी की भूमिका और परंपरा निभाता रहे।




राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंजाब प्रांत के सह-संघचालक रहे ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा जी के देवलोक गमन को एक साल गुजर चुका है। जमाना कहता है कि मैं खामोश हूं, चाहे  स्वयंसेवक के अनुशासन धर्म से बंधा मैं सड़कों पर उतर कर धरने नहीं दे रहा परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि गमगीन नहीं। मैं इंसान हूं पत्थर नहीं, जैसा कि जमाने ने समझ लिया। आखिर मेरे परिवार का वरिष्ठ सदस्य गया है, कोई सोच भी कैसे सकता है कि मेरा दिल रो नहीं रहा होगा। अनुशासन की खामोशी है परंतु दिल जल रहा है कि आखिर एक साल बाद भी हत्यारे पकड़े जाना तो दूर क्यों अभी तक पहचाने भी नहीं गए? आखिर गगनेजा जी जैसे भले इंसान ने किसका क्या बिगाड़ा होगा कि जो उनके खून का प्यासा हो गया? आखिर किस विचारधारा और किन ताकतों को गगनेजा जी से खतरा या नफतर थी?
मैं मानता हूं कि यह हमला किसी व्यक्ति विशेष से अधिक एक विचार पर ज्यादा फोकस था, वह विचार जो पंजाब में सांप्रदायिक सौहार्द का पक्षधर, हिंदू-सिख एकता की वकालत करने वाला व देश की इस 'खडग़बाहू' को मुख्यधारा के साथ अक्षुण्ण रखने वाला है। वह विचार जो देश के इस सीमावर्ती राज्य को राष्ट्रवाद की मंदाकिनी से पल्लवित करने को कहता है ताकि  यह प्रदेश युगों से चली आरही सीमाप्रहरी की भूमिका और परंपरा निभाता रहे।
केवल आज के युग की ही बात नहीं, सदियों से चला आरहा है कि सीमावर्ती राज्य होने के कारण पंजाब विदेशी षड्यंत्रों की भूमि रहा है। देश के दुश्मन यहां के लोगों को पथभ्रष्ट कर अपना उल्लू सीधा करने की कुचेष्टा करते रहे हैं। चाहे आंभी-अलक्षेंद्र (सिकंदर) का प्रकरण हो या मोहम्मद गौरी व जयचंद का अपवित्र गठजोड़, देश के सीमांत इलाकों में सदैव विदेशी आक्रांता पैर धरने की जगह तलाशते रहे हैं ताकि यहां की धरती को पददलित कर बाकी देश की अस्मिता को रौंदा जा सके। लेकिन षड्यंत्रों के सम्मुख चाणक्य और पृथ्वीराज की परंपरा रूपी चुनौती भी रही है जो शस्त्र और शास्त्र से विदेशियों को पराभूत करती आरही है। राष्ट्र के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाली इसी परंपरा के अनुगामी थे ब्रिगेडियर गगनेजा जो हिंदू-सिख समाज में टकराव पैदा करने वाले हर प्रयासों से विफल करने का काम कर रहे थे। विदेश पौषित कुछ ताकतें हैं जो पंजाब में फिर से आतंकवाद का दावानल देखने की हसरत पाले हुए हैं। समय-समय पर यह ताकतें दोनो समाज में भेद पैदा करने का प्रयास करती रही परंतु उन्होंने सदैव अपने सम्मुख गगनेजा जी के रूप में बड़ी बाधा को पाया। पंजाब में जब भी समाज में टकराव के प्रयास किए गए तो श्री गगनेजा जी के नेतृत्व में संघ व समाज ने इसका तीव्र प्रतिकार किया। अढ़ाई दशक तक चले आतंकवाद और दुश्मनों की लाख कोशिशों के बावजूद भी पंजाब में सांप्रदायिक टकराव की कोई घटना नहीं हुई तो यह उसी राष्ट्रवादी विचारधारा की विजय है जिसके पुरोधा गगनेजा जी थे।
अपने दुश्मन देश को परास्त करने का एक बहुत बड़ा साधन रहा है व्यसन। पंजाब में आतंकवाद फैलाने से पहले पाकिस्तान की ओर से पहले नशे की तस्करी शुरु की गई। आतंकवाद समाप्त होने के बाद पिछले कुछ सालों से इसे पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और इसके चलते सीमापार से फिर से नशे की तस्करी का दौर चल पड़ा। नशों के खिलाफ गगनेजा जी के नेतृत्व में संघ और समाज ने पूरे प्रांत में जो अभियान चलाया उससे दुश्मन के मंसूबों पर पानी फेरने में काफी सहयोग मिला। पंजाब में जब-जब राष्ट्रीय संकट की समस्या खड़ी हुई तब-तब श्री गगनेजा जी ने मार्गदर्शन किया। समाज को विभाजित करने वाली कैंचीनुमा देशविरोधी ताकतें अपना काम करती रहीं तो गगनेजा जी सुईं बन कर समाज की दरारों पर एकता के पैबंद लगाते गए। शायद यही काम पसंद नहीं आया देश विरोधी ताकतों को, विचार व बुद्धि के बल पर गगनेजा जी को परास्त नहीं किया जा सकता था और न ही एक वीर सैनिक होने के कारण उन्हें चुनौती देकर समाप्त किया जा सकता था, सो कायरों ने हथियार चुना छिप कर वार करने का। गगनेजा जी चाहे शहीद हो गए परंतु उनके खून का एक-एक कतरा खाद पानी दे गया उस राष्ट्रवाद को जो कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से कोहिमा तक की पग-पग भूमि को एक अखण्ड राष्ट्र मानता है और इस भू-ख्रण्ड पर निवास करने वालों को एक परिवार की संतान।
अब शासन व प्रशासन की जिम्मेवारी बनती है कि वह मेरी अनुशासित खामोशी का मर्म समझे। अनुशासन से बंधा हुआ स्वयंसेवक धरने-प्रदर्शन नहीं करूंगा परंतु मेरी मांग रहेगी कि हत्यारों को गिरफ्तार कर उन्हें कानून सम्मत सजा मिले। आखिर पूूरा देश जानना चाहता है कि वह कौनसी विचारधारा है जिसे 'भारत के सिद्धांत' से इतनी घृणा है।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

रोहिंग्या विलाप में दबा कश्मीरी पंडितों का दु:ख

कश्मीरी पंडितों को देख कर अनायस ही 1969 में आई हिंदी फिल्म संबंध का वह गीत जिव्हा पर तैर जाता है -

अंधेरे में जो बैठे हैं,                                                             नजर उन पर भी कुछ डालो,                                                   अरे ओ रोशनी वालो

आज देश के सेक्युलर, बुद्धिजीवी, मानवतावादी पूरी ताकत के साथ रोहिंग्याओं के कुछ सच्चे तो कुछ काल्पिनक दु:ख पर अपने आंसुओं से पूरे देश को डुबो देने की जिद्द किए हुए हैं परंतु उन 3 लाख कश्मीरी पंडितों के बारे में एक शब्द नहीं कहा जा रहा जो केवल इसलिए अपने घरों से उजाड़ दिए गए क्योंकि वे हिंदू थे, भारत को अपनी माता मानते थे। 27 साल पहले कश्मीर में हिंदू बहनों की इज्जत को सड़कों पर उछाला गया, दुराचार और हत्या के बाद नग्न शरीरों को पेड़ों से लटकाया गया और लोहे की तारों से मासूम बच्चों के गले रेते गए। बहनों ने अपनी लाज बचाने के लिए घरों की छतों से कूद कर जानें दीं, लोगों जो जबरन धर्म बदलने के लिए मजबूर किया गया या उनकी हत्या कर दी गई। जो बचे वो आज भी जम्मू, दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में लाखों की संख्या में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। रोहिंग्याओं के पक्ष में मानवतावादी तर्क देने वाले इन कश्मीरी पंडितों पर क्यों निशब्द हो जाते हैं।
कश्मीरी पंडितों पर असहिष्णु व अत्याचारी संस्कृति के अत्याचारों की इतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। महर्षि कश्यप की धरती कश्मीर वैदिक संस्कृति का केंद्र थी और शायद यही इसका अपराध भी बन गया। 14वीं शताब्दी में तुर्किस्तान से आये मुस्लिम हमलावर दुलुचा ने 60,000 लोगो की सेना के साथ कश्मीर में आक्रमण किया और कश्मीर में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की। दुलुचा ने नगरों और गाँवों को नष्ट कर दिया और हजारों हिन्दुओ का नरसंहार किया। बहुत सारे हिन्दुओ को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया गया। बहुत सारे हिन्दुओ ने जो इस्लाम नहीं कबूल करना चाहते थे, उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या कर ली और अन्य पलायन कर गए या शहीद कर दिए गए। आज जो भी कश्मीरी मुस्लिम है उन सभी के पूर्वजो को इन अत्याचारों के कारण जबरदस्ती मुस्लिम बनाया गया था।
1947 में ब्रिटिश संसद के 'इंडियन इंडीपेंडेंस एक्ट' के अनुसार ब्रिटेन ने तय किया की मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को पाकिस्तान बनाया जायेगा। 150 राजाओं ने पाकिस्तान चुना और बाकी 500 राजाओ ने भारत। केवल एक जम्मू और कश्मीर के राजा बच गए थे जो फैसला नहीं कर पा रहे थे। इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान को यह गंवारा नहीं था कि एक मुस्लिम बाहुल्य रियासत उसके कब्जे से बाहर जाए। उसने 1948 में कबाइलियों व पठानों के वेष में अपनी सेना भेज दी तो कश्मीर के राजा ने भी हिंदुस्तान में कश्मीर के विलय के लिए हस्ताक्षर कर दिए। भारत ने कश्मीर को बचाने के लिए अपनी सेना भेजी और सेना अभी पाकिस्तानी सेना व कबाइलियों को खदेड़ ही रही थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने संघर्ष विराम की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान में ही रह गया। इसी के साथ चला वहां के हिंदुओं पर पाकिस्तानी सेना व कट्टर इस्लामिक विचारधारा के अत्याचार का दौर। इससे प्रताडि़त हो कर असंख्य हिंदू भारत पलायन करने को विवश हुए।
मेरे खून की कीमत कुछ भी नहीं ?
1990 में कश्मीरी पंडितों पर दोबारा अत्याचार का क्रम चला। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य और जाने माने वकील कश्मीरी पंडित तिलक लाल तप्लू का आतंकियों ने क़त्ल कर दिया। उसके बाद न्यायाधीश नीलकान्त गंजू को गोली मार दिया गया। सारे कश्मीरी नेताओ की हत्या एक एक करके कर दी गयी। उसके बाद 300 से ज्यादा हिन्दू महिलाओ और पुरुषो की नृशंस हत्या की गयी। कश्मीरी पंडित नर्स जो श्रीनगर के सौर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में काम करती थी, का सामूहिक बलात्कार किया गया और बाद में मार-मार कर उसकी हत्या कर दी गयी। 
आफताब, एक स्थानीय उर्दू अखबार ने हिज्ब -उल -मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की, कि सभी हिन्दू अपना सामन पैक करें और कश्मीर छोड़ कर चले जाएं। एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र, अल सफा ने इस निष्कासन आदेश को दोहराया। मस्जिदों में भारत और हिन्दू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। सभी कश्मीरी हिन्दू/मुस्लिमो को कहा गया की इस्लामिक ड्रेस कोड अपनायें। सिनेमा और विडियो पार्लर वगैरह बंद कर दिए गए। लोगों को मजबूर किया गया की वो अपनी घड़ी पाकिस्तान के समय के अनुसार करे लें।
सारे कश्मीरी पंडितो के घर के दरवाजो पर नोट लगा दिया जिसमे लिखा था 'या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ कर भाग जाओ या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ।' पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने टीवी पर कश्मीरी मुस्लिमो को भारत से आजादी के लिए भड़काना शुरू कर दिया। सारे कश्मीर के मस्जिदों में एक टेप चलाया गया, जिसमे मुस्लिमों को कहा गया कि वो हिन्दुओं को कश्मीर से निकाल बाहर करें। उसके बाद सारे कश्मीरी मुस्लिम सड़कों पर उतर आये। उन्होंने कश्मीरी पंडितों के घरों को जला दिया, कश्मीर पंडित महिलाओं का बलात्कार करके, फिर उनकी हत्या करके उनके नग्न शरीर को पेड़ पर लटका दिया गया। कुछ महिलाओं को जिन्दा जला दिया गया और बाकियों को लोहे के गर्म सलाखों से मार दिया गया। बच्चों को स्टील के तार से गला घोटकर मारा गया। कश्मीरी महिलाये ऊंचे मकानों की छतों से कूद-कूद कर जान देने लगीं। कश्मीरी मुस्लिम, हिन्दुओं की हत्या करते चले गए और नारा लगते चले गए की उन पर अत्याचार हुआ है और उनको भारत से आजादी चाहिए।
कल जहां बसती थी खुशियां आज है मातम वहां, घाटी में विरान पड़े कश्मीरी पंडितों का घर
3,50,000 कश्मीरी पंडित अपनी जान बचा कर कश्मीर से भाग गए। कश्मीरी पंडित जो कश्मीर के मूल निवासी हैं उन्हें अपना घर कश्मीर छोडऩा पड़ा। यह सब कुछ चलता रहा लेकिन सेकुलर मीडिया चुप रहा उन्होंने देश के लोगों तक यह बात कभी नहीं पहुंचाई इसलिए देश के लोगों को आज तक नहीं पता चल पाया की क्या हुआ था कश्मीर में। देश- विदेश के लेखक चुप रहे, भारत की संसद चुप रही, सारे सेकुलर चुप रहे।दुर्भाग्य की बात देखो कि आज जो लोग रोहिंग्याओं को भारत में शरण देने की बात करते हैं वही लोग कश्मीर में पंडितों को मकान बनाने के लिए सुरक्षित स्थान देने की बात चलते ही सड़कों पर तोडफ़ोड़ मचाना शुरू कर देते हैं। इन लोगों ने इसी तरह का अभियान अपने ही देश के नागरिक इन कश्मीरी पंडितों के लिए चलाया होता तो आज ये लोग शरणार्थी शिविरों में नहीं बल्कि अपने घरों में रह रहे होते।


राकेश सैन
मो. 097797-14324

Thursday, 21 September 2017

ममता की विभाजनकारी राजनीति

मुहर्रम के चलते दुर्गा विसर्जन पर रोक लगा कर कलकत्ता उच्च न्यायालय की फटकार खाने के बावजूद पश्चिम बंगाल की ममता चुनौती दे रही है कि अगर उनकी राजनीति तुष्टिकरण की है तो वह जीवन के आखिरी क्षण कर इसे करती रहेंगी। ममता बैनर्जी ठीक कह रही हैं, उनकी राजनीति को तुष्टिकरण नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके मस्तिष्क में पल रही यह व्याधि अब विभानजकारी राजनीति का रूप ले चुकी है। जिस तरह अंग्रेजों ने बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन कर हिंदू-मुस्लिम एकता को तोडऩे का प्रयास किया उसी तरह ममता बैनर्जी भी आज केवल बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे देश में सांप्रदायिक सौहार्द के समक्ष चुनौती पेश करती दिखाई दे रही हैं।

दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन और मोहर्रम एक साथ न होने देने के पश्चिम बंगाल सरकार के फैसले पर न्यायालय ने नाराजगी दिखाते हुए इसे खारिज कर दिया है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा, ऐसे मनमाने आदेश नहीं दिए जा सकते। ममता सरकार ने फैसला लिया था कि मुहर्रम के अगले दिन ही दुर्गा प्रतिमा विसर्जन होगा। इस बार दुर्गा पूजा और मुहर्रम एक ही दिन 1 अक्टूबर को पड़ रहे हैं। बंगाल सरकार ने फैसला लिया कि मुहर्रम के दिन को छोड़कर 2, 3 और 4 अक्टूबर को दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन किया जा सकता है। इससे पहले बुधवार को भी कलकत्ता हाइकोर्ट ने राज्य की ममता सरकार के खिलाफ सख्त टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि आप दो समुदायों के बीच दरार क्यों पैदा कर रहे हैं। दुर्गा पूजा और मुहर्रम को लेकर राज्य में कभी ऐसी स्थिति नहीं बनी है उन्हें साथ रहने दीजिए। इस साल दशहरा के अगले दिन ही मुहर्रम है। इसको देखते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रतिमा विसर्जन की तारीख बढ़ाने का फैसला किया था। इसी के विरोध में एक वकील अमरजीत रायचौधरी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।
दुर्भाग्य है कि ममता बैनर्जी अपनी सांप्रदायिक राजनीति धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कर रही है। दुर्गा विसर्जन और मुहर्रम केवल बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक साथ आरहे हैं। जब यह दोनों पर्व पूरे देश में एक साथ मनाए जा सकते हैं तो बंगाल में क्यों नहीं? असल में ममता बैनर्जी ने अपने राजनीतिक हितों की खातिर केवल बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई को गहरा करने का काम किया है। वे शायद नहीं जानती कि माँ दुर्गा की प्रतिमा व दशहरे पर रावण, कुंभकरण व मेघनाद के पुतले बनाने वाले अधिकतर कारीगर मुसलमान ही रहते हैं। इसी तरह मुसलमानों द्वारा निकाले जाने वाले ताजियों में हिंदू भी हिस्सा लेते हैं, जगह-जगह उनका स्वागत किया जाता है। होना तो चाहिए था कि सरकार दोनों समुदायों को यह पर्व अपने-अपने तरीके से मनाने के अवसर उपलब्ध करवाती परंतु दुख की बात है कि एक राज्य की मुखिया के संवैधानिक पद पर बैठी ममता बैनर्जी ने इस अवसर का प्रयोग अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों की खातिर किया।
वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है जब बंगाल की टाइगर कहाने वाली ममता ने पहली बार सांप्रदायिक सौहार्द का शिकार किया हो। कोलकाता के दक्षिणी दमदम नगरपालिका का है जहां 'लेक टाउन रामनवमी पूजा समिति' ने पिछले 22 मार्च को ही पूजा की अनुमति के लिए आवेदन दिया था। लेकिन जब राज्य सरकार के दबाव में नगरपालिका ने पूजा की अनुमति नहीं दी तो याचिकाकर्ता ने इसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाया। याचिका की सुनवाई करते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति हरीश टंडन ने नगरपालिका के रवैये पर नाखुशी जताते हुए पूजा शुरू करने की अनुमति देने का आदेश दिया।
पिछले शारदीय नवरात्रि के दौरान भी ममता ने यही कुचेष्टा की। पंचांग के अनुसार मां दुर्गा की प्रतिमाओं के विसर्जन के लिए तय समय पर रोक लगाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसलिए उसकी समय-सीमा तय कर दी ताकि उसके अगले दिन मुहर्रम का जुलूस निकालने में कोई दिक्कत न हो। बंगाल के इतिहास में इससे बड़ा काला दिन क्या हो सकता है, क्योंकि दुर्गा पूजा बंगाल की अस्मिता से जुड़ा है, इसमें राज्य की पहचान और सदियों की संस्कृति छिपी है। हैरानी की बात तो ये है कि मुख्यमंत्री ने अपने तुष्टिकरण वाले फैसले का ये कहकर बचाव किया कि वो तो सांप्रदायिक सौहार्द के लिए ऐसा करती हैं। लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने उसबार भी राज्य की मुख्यमंत्री के चेहरे पर से कथित धर्मनिर्पेक्षता का नकाब हटा दिया और जमकर फटकार लगाई थी। जस्टिस दीपांकर दत्ता की सिंगल बेंच ने अपने आदेश में कहा था, राज्य सरकार का यह फैसला, साफ दिख रहा है कि बहुसंख्यकों की कीमत पर अल्पसंख्यक वर्ग को खुश करने और पुचकारने वाला है। कोर्ट ने यहां तक कहा कि, प्रशासन यह ध्यान रख पाने में नाकाम रहा कि इस्लाम को मानने वालों के लिए भी मुहर्रम सबसे महत्वपूर्ण त्योहार नहीं है। राज्य सरकार ने लापरवाही से एक समुदाय के प्रति भेदभाव किया है ऐसा करके उन्होंने मां दुर्गा की पूजा करने वाले लोगों के संवैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण किया।

मकर संक्रांति की सभा में डाला था अड़ंगा

इसी साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति के अवसर पर कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक रैली आयोजित की थी। लेकिन सारे नियमों और औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद भी राज्य की सरकार के दबाव में कोलकाता पुलिस इस रैली के लिए अनुमति नहीं दे रही थी। इस रैली को स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक डा. मोहन भागवत को संबोधित करना था। लेकिन ममता सरकार को लग रहा था कि अगर रैली के लिए अनुमति दे दी तो उनका मुस्लिम वोट बैंक बिदक जाएगा। यही वजह है कि उसने सारी कानूनी और संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर रैली की अनुमति देने से साफ मना कर दिया। ममता बनर्जी सरकार के इस तानाशाही रवैये के खिलाफ कलकत्ता हाईकोर्ट में अपील दायर की गई और वहां से आदेश मिलने के बाद ही रैली संपन्न हो सकी।

बंगाल का भयावह जनसंख्या समीकरण

- 1947 में हिंदुस्तान के विभाजन के समय, बांग्ला बोलने वाले मुस्लिमों में कुछ भारत के हिस्से में रह गए और बाकी आज के बांग्लादेश के हिस्से में आए।
- 1947 में पश्चिम बंगाल में 12 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या थी।
- अभी राज्य में मुस्लिमों की संख्या बढ़कर 27 प्रतिशत के पार पहुंच गई है।
- 1947 में आज के बांग्लादेश में 27 प्रतिशत हिंदू थे।
- आज बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या घटकर 8 प्रतिशत रह गई है।

'देशद्रोहियों' पर अजीब खामोशी

हाल के वर्षों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसमें देखा गया है कि पश्चिम बंगाल में भारत विरोधी ताकतें बहुत तेजी से सक्रिय हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार को इन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की भनक नहीं है। वो सबकुछ जानते-समझते हुए भी सच्चाई से आंखें मूंदे हुए है। शायद वो सोच  रही है कि कट्टरपंथी ताकतों पर अगर शिकंजा कसा गया तो उनके हाथ से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक जाएगा। आंकड़े भी बताते हैं कि राज्य में हिंदुओं की जनसंख्या घटती जा रही है, जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या विस्फोटक रूप से बढ़ती जा रही है। आजतक की एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल धीरे-धीरे जेहादियों का अड्डा बनता जा रहा है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

तारिक फतेह का सेमिनार रद्द कर दिया

पिछले 7 जनवरी को 'द सागा ऑफ बलूचिस्तान' विषय पर कोलकाता में सेमिनार आयोजित किया गया था। इस सेमिनार में कई जाने-माने लोगों के साथ पाकिस्तानी मूल के लेखक, चिंतक और विश्लेषक तारिक फतेह को भी बुलाया गया था। लेकिन कट्टरपंथी नाराज न हो जाएं इसीलिए राज्य सरकार के दबाव में आयोजकों ने सेमिनार को ही रद्द कर दिया। दरअसल तारिक फतेह इस्लाम धर्म पर बेबाकी से अपनी राय बताते रहे हैं। लेकिन उनकी ये सच्चाई और सहृदयता कठमुल्लों को पचती नहीं है और वो उनके विरोध में फतबे जारी करते रहते हैं। ऐसे में अपने को मुसलमान से बड़ा मुसलमान साबित करने पर तुलीं मुख्यमंत्री अपने राज्य में तारिक फतेह जैसे बेबाक मुसलमान को अपने विचार की अभिव्यक्ति की अनुमति कैसे दे सकती हैं। ये बात अलग है कि जब यही अभिव्यक्ति की आजादी का नारा देश विरोधी ताकतें उठाती हैं तो दीदी का ममतामयी दिल पसीजने लगता है। लेकिन कोई कठमुल्लों पर सवाल उठाए ,इस बात को वो कैसे हजम कर सकती हैं।

तसलीमा नसरीन के मामले में दोहरा चरित्र

हिंदू विरोध की राजनीति करने वाली ममता बनर्जी खुद को धर्मनिरपेक्ष बिरादरी की अगुवा साबित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। लेकिन उनकी इस छद्म धर्मनिरपेक्षता की पोल-पट्टी खुद मुस्लिम चिंतक और समाज सुधारक ही खोलते रहे हैं। बांग्लादेशी लेखिका और समाज सुधारक तसलीमा नसरीन ने अपने साथ पश्चिम बंगाल में अपनाए जाते रहे दोहरे मापदंडों पर कई बार गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इस्लाम में सुधार की आवाज उठाने के चलते पश्चिम बंगाल के कुछ कठमुल्ले उनकी जान लेने तक का फतवा जारी कर चुके हैं, लेकिन ऐसे मामलों में छद्म धर्मनिरपेक्षा के किसी भी सदस्य की तरह ममता भी चुप्पी साधे रखने में ही भलाई समझती हैं। उस समय सच के लिए आवाज बुलंद करने वाली एक महिला चिंतक के बचाव में दो शब्द बोलने तक की हिम्मत वो नहीं जुटा पातीं। क्योंकि उन्हें पता है कि जो तसलीमा नसरीन के सिर पर इनाम की घोषणा करते हैं, उन्हें खुश रखकर ही तो वो सत्ता में बनी रह सकती हैं। उनकी धर्मनिरपेक्षता तो सिर्फ हिंदुओं के अपमान तक सीमित रह गई है, शायद उन्हें लगता है कि उनकी सियासत मुस्लिमों के प्रति उनकी राजनीतिक दीवानगी पर ही टिकी रह सकती है।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Monday, 18 September 2017

स्वयंसेवकों की हत्याएं गौरी लंकेश के लिए 'क्लीन केरला'


छह माह पहले केरल में 'लाल सलाम' के क्रांतिदूतों ने कम्यूनिस्ट सरकार की शह पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या की थी तो गौरी लंकेश ने ट्वीट कर इसे 'क्लीन केरला' बताया था। किसी की हत्या पर प्रसन्नता कौन व्यक्त करता है? आसान उत्तर है कि वह मानव नहीं। किसी एक खास संगठन के कार्यकर्ताओं को केवल इसलिए मारा जाए कि वह हत्यारों की विचारधारा से सहमत नहीं तो इसे अलोकतंत्र, आतंकवाद, तानाशाही, असहिष्णुता या तीनों ही कहा जा सकता है। अगर कोई इन नृशंस हत्याकांडों को 'स्वच्छता अभियान' कहे तो? एसा व्यक्ति कुछ भी कहलाए परंतु 'इंसान' कहलाने के लायक नहीं है। पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या में दुबले-पतले हुए जा रहे सेक्युलरों व बुद्धिजीवियों को ज्ञात होना चाहिए कि उनकी प्राणप्रिया 'नायिका' इसी श्रेणी में आती हैं। 



गौरी लंकेश इतिहास की कितनी भी घृणित व विभत्स पात्र हो परंतु उसकी हत्या को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह न तो मानव संस्कृति है और न ही हमारी परंपरा। हमारी संस्कृति तो शिशुपाल जैसों को भी सौ बार सुधरने का अवसर प्रदान करती है परंतु वह कौन सी विचारधारा है जो मानव खून के खाद पानी से फलती-फूलती व प्रसन्न होती है। गौरी लंकेश जिस नक्सली समूह में काम करती थी वह अकसर वहां देखती होगी कि किस तरह अपने विरोधियों का खून पानी की तरह बहाया जाता है। हत्याओं के समर्थन के संस्कार अवश्य ही उन्हें इन्हीं नक्सलियों से मिले होंगे। गौरी जिस माक्र्सवादी साहित्य का अध्ययन करती होगी तो हत्याओं पर ताली पीटने की कला वहीं से सीखी होगी जो कहती है कि 'सत्ता बंदूक की नली' से निकलती है। माओ जे त्सुंग, स्टालिन जैसे हत्यारों को क्रांतिकारी बताते-बताते गौरी भूल गई होंगी कि मानव जीवन का भी कोई मूल्य होता है और विरोधियों को भी जीने का अधिकार है। परंतु गौरी लंकेश हमारे मन में तुम्हारे लिए चाहे सम्मान हो या न हो परंतु हम तु्म्हारी मौत पर आंखों में अश्रु लिए हैं।

''लंकेश मामले में यदि निष्पक्ष विचार करें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि सिद्धारमैया सरकार में कोई सुरक्षित नहीं चाहे वामपंथी गौरी लंकेश हों या तर्कवादी एमएम कलबुर्गी, जिनके हत्यारे दो साल बाद भी पकड़े नहीं जा सके। कर्नाटक में पूरी अराजकता है। सवाल है कि जब लंकेश ने अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी, तब राज्य सरकार ने उन्हें सुरक्षा क्यों नहीं दी? दुर्भाग्या है कि कानून-व्यवस्था से जुड़े एक मामले का प्रयोग विश्व पटल पर देश को बदनाम करने में किया जा रहा है।''


अब एक प्रश्न गौरी लंकेश जैसी सोच वाली महिला को लेकर देशभर में हायतौबा मचाने वालों से। हत्या किसी की तर्कसंगत नहीं ठहराई जा सकती और गौरी के हत्यारों को भी उनके अंजाम तक पहुंचाया जाना चाहिए परंतु आपके पास क्या प्रमाण है कि गौरी की हत्या हिंदुनिष्ठ लोगों ने या संगठन ने की है ? यदि इनके पास साक्ष्य हैं तो विशेष जांच दल (एसआईटी) के सामने पेश करें। इसके पूर्व भी कई पत्रकार मारे गए हैं। 2013 में मुजफ्फरनगर में आईबीएन 7 के रिपोर्टर राजेश वर्मा का दंगाइयों ने कत्ल किया। जून 2015 में शाहजहांपुर में सोशल मीडिया पत्रकार जागेंद्र सिंह को कथित रूप से अखिलेश सरकार के एक मंत्री राममूर्ति यादव के उकसावे पर जिंदा जलाकर मारा गया। इन मामलों में यह वर्ग मुखर नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि हिंदुवादियों को बदनाम करने का उन घटनाओं में मौका नहीं था! एक बात और, वामपंथी प्रचारतंत्र लंकेश को बहुत सुलह व अमनपरस्त बता रहा है। उनके ये गुण केवल नक्सलियों के लिए सुरक्षित थे, हिंदू समाज व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के बाबत वे विषैली फुफकार के अलावा कुछ नहीं छोड़ती थीं। छह माह पहले जब एक आरएसएस कार्यकर्ता की केरल में हत्या हुई तब लंकेश ने ट्वीट किया- 'क्लीन केरला' (केरल की सफाई कर दो)। ये शांतिप्रियता है या हिंसा को उकसावा? क्या यही इंसानियत व वामपंथियों की प्रगतिशीलता रही है ?
लंकेश मामले में यदि निष्पक्ष विचार करें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि सिद्धारमैया सरकार में कोई सुरक्षित नहीं चाहे वामपंथी गौरी लंकेश हों या तर्कवादी एमएम कलबुर्गी, जिनके हत्यारे दो साल बाद भी पकड़े नहीं जा सके। कर्नाटक में पूरी अराजकता है। सवाल है कि जब लंकेश ने अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी, तब राज्य सरकार ने उन्हें सुरक्षा क्यों नहीं दी? दुर्भाग्या है कि कानून-व्यवस्था से जुड़े एक मामले का प्रयोग विश्व पटल पर देश को बदनाम करने में किया जा रहा है।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324

पत्रकारिता विरोधी कलम के सिपाही

पत्रकार मृणाल पांडे 
पत्रकार सुप्रतीक

 मोदी के जन्मदिन पर  पत्रकार मृणाल पांडे ने ट्विटर पर गधे की तस्वीर शेयर करते हुए लिखा- 'जुमलाजयंती पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन।' उन्होंने  मोदी का समर्थन करने वालों की तुलना गधे से की जो हर हाल में खुश है। इस ट्वीट का और सरलीकरण करें तो मृणाल पांडे कहना चाहती हैं कि उनके कहे अनुसार देश की हालत खराब है और श्री मोदी के समर्थक फिर भी प्रसन्न हैं। अमेरिका के अखबार हफिंगटन पोस्ट में काम करने वाले भारतीय मूल के पत्रकार सुप्रतीक ने ट्वीट किया कि 'ये जानकर खुशी हो रही है कि मोदी अपने रिटायरमेंट और मौत के एक साल और करीब आ गए हैं।'


चाहे कोई बहुत अच्छा लिख लेता हो, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अच्छी पकड़ हो और लंबे समय तक बड़े मीडिया समूह के संपादक पद को भी गौरवान्वित कर चुका हो इतनी योग्यता के बावजूद कोई गारंटी नहीं है कि वह अच्छा पत्रकार भी हो। इसी तरह अपने अंग्रेजी ज्ञान के बल पर विदेशी पत्रिकाओं के पन्ने भरने वाले भी पत्रकारिता की कसौटी पर खरे उतरें यह कोई जरूरी नहीं। पत्रकारिता का अर्थ है अपनी निजी पसंद-नापसंद को दरकिनार कर तथ्यों को जनता के सम्मुख प्रस्तुत करना और विरोध को भी सम्मान देना परंतु प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को लेकर दो विख्यात पत्रकारों की खीझ उनके जन्मदिन पर जनता के सामने आगई। हिंदुस्तान समाचारपत्र की संपादक मृणाल पांडे और अमेरिका के मशहूर अखबार हफिंगटन पोस्ट में काम करने वाले भारतीय मूल के पत्रकार सुप्रतीक चैटर्जी ने श्री मोदी के जन्मदिन पर ट्वीट कर पत्रकारिता को शर्मसार कर दिया है।
मृणाल पांडे का ट्वीट

 पत्रकार सुप्रतीक का ट्वीट

मृणाल पांडे ने ट्विटर पर गधे की तस्वीर शेयर करते हुए लिखा- 'जुमलाजयंती पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन।' यानि उन्होंने श्री मोदी का समर्थन करने वालों की तुलना गधे से की जो हर हाल में खुश रहता है। इस ट्वीट का और सरलीकरण करें तो मृणाल पांडे कहना चाहती हैं कि उनके कहे अनुसार देश की हालत खराब है और श्री मोदी के समर्थक फिर भी प्रसन्न हैं। मोदीफोबिया से ग्रसित एक अन्य पत्रकार ने तो सारी सीमाएं लांघ दीं। अमेरिका के मशहूर अखबार हफिंगटन पोस्ट में काम करने वाले भारतीय मूल के पत्रकार सुप्रतीक ने ट्वीट किया कि ये जानकर खुशी हो रही है कि मोदी अपने रिटायरमेंट और मौत के एक साल और करीब आ गए हैं। मृणाल पांडे पत्रकारिता की दुनिया का बहुत बड़ा नाम है। मृणाल पांडे हिंदुस्तान अखबार की संपादक रही चुकी हैं। वो प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर भी काम कर चुकी है। इसके अलावा दूरदर्शन के लिए भी उन्होंन काम किया है. मृणाल पांडे को 2006 में पद्म श्री से भी नवाजा जा चुका है।
एक पत्रकार होने के नाते इस तरह के ट्वीट पढ़ कर बहुत दु:ख हुआ। पत्रकार लोकतंत्र की बात करते हैं। आलोचना और विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हैं ..लेकिन लोकतांत्रिक अधिकारों के इस्तेमाल के वक्त मृणाल जैसी पत्रकार /लेखिका और संपादक अगर अपनी नाख़ुशी या नापसंदगी जाहिर करने के लिए असभ्य शब्दों और चित्रों का प्रयोग करेगा .. किसी के समर्थकों की तुलना गधों से करेगा तो कल को दूसरा पक्ष भी मर्यादाओं की सारी सीमाएँ लाँघकर हमले करेगा तो उन्हें गलत किस मुँह से कहेंगे?

विचारनीय पक्ष यह है कि कुछेक लोगों को छोड़ कर मीडिया के एक बड़े वर्ग की खामोशी किस तरफ इशारा करती है। अब कहां है एडीटर्स गिल्डस व प्रेस काउंसिल जिन पर पत्रकारिता के मानदंडों को बनाए रखने की जिम्मेवारी है। अगर यही गलती किसी और से हुई होती तो मीडिया जगत परे राष्ट्र को शोक स्नान करवा रहा होता। अब पूछने वाले तो पूछेंगे ही क्या मृणाल पांडे पद्म पुरस्कार देने वालों का ऋण उतार रही हैं ?


इन ट्वीटों से किसी और को नहीं बल्कि खुद मृणाल व सुप्रतीक को ही नुक्सान हुआ है क्योंकि इनकी वैचारिक दासता का खुलासा हो गया। अतीत में इनके द्वारा किए गए या भविष्य में किए जाने वाले राजनीतिक विश्लेषणों का वजन कम हो गया है। एक संपादक जिसे अपनी निजी भावनाओं, पसंद व नापसंद की इतनी चिंता हो या वो इसे छिपा न सके वह किस तरह अपने पत्रकारिता के धर्म का निष्पक्षता से पालन करता होगा ? इसका जवाब  बहुत मुश्किल बात नहीं है। इससे भी आगे जाते हुए विचारनीय पक्ष यह है कि कुछेक लोगों को छोड़ कर मीडिया के एक बड़े वर्ग की खामोशी किस तरफ इशारा करती है। अब कहां है एडीटर्स गिल्डस व प्रेस काउंसिल जिन पर पत्रकारिता के मानदंडों को बनाए रखने की जिम्मेवारी है। अगर यही गलती किसी और से हुई होती तो मीडिया जगत परे राष्ट्र को शोक स्नान करवा रहा होता। अब पूछने वाले तो पूछेंगे ही क्या मृणाल पांडे पद्म पुरस्कार देने वालों का ऋण उतार रही हैं?
जहां तक सुप्रतीक के ट्वीट का सवाल है वह अत्यंत असभ्य और संस्कारविहीनता का प्रतीक है। दुनिया की किसी भी संस्कृति में अपने दुश्मन की भी मौत की कामना नहीं की जाती। हमारी संस्कृति को सर्वेभवंतु सुखिन: वाली है परंतु कान्वेंट स्कूलों से निकली एक पीढ़ी जब संस्कारों से दूर कर दी गई हो तो वह वही कुछ करेगी जो सुप्रतीक ने किया है।

राकेश सैन
मो. 097797-14324

Sunday, 17 September 2017

सैप्टिकटैंंक नुमा श्रीमुख

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रति कांग्रेस की खिसियाहट सर्वविदित है। उन्ही के चलते साल 2014 में कांग्रेस से उसका एकछत्र राज छिन गया और  इन तीन सालों में कांग्रेस को एक-आध अवसर को छोड़ कर खुशी मनाने का अवसर नहीं मिला। पार्टी चुनाव दर चुनाव हारती जा रही है और भविष्य में भी जीत की संभावना नजर नहीं आरही है। अपने इतिहास के सवा सौ साल के कालखण्ड में कांग्रेस को इतनी दुर्गति का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा जबकि उससे विपक्षी दल होने तक का सौभाग्य छिन गया हो। झुंझलाहट में कांग्रेस सत्तारूढ़ दल भाजपा विशेषकर श्री मोदी के हर कदम का विरोध कर रही है। पार्टी के विरोध को तो समझा जा सकता है और यह उसका संवैधानिक अधिकार भी है परंतु विरोध के लिए कांग्रेस के बड़े नेता अपने श्रीमुख को ही सैप्टिकटैंक बना लेंगे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वित्तीय सरसंघचालक श्रीगुरु जी बैठक को संबोधित कर रहे थे तो एक कार्यकर्ता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लेकर तल्ख टिप्पणी कर दी। इस पर गुरुजी ने उस कार्यकर्ता को न केवल फटकारा बल्कि यह कहते हुए बैठक से बाहर कर दिया कि पंडित जी हमारे प्रधानमंत्री हैं, उनके बारे अपमानजनक शब्द सहनीय नहीं हैं। दूसरी उदाहरण खुद नेहरु जी की है जिन्होंने अपनी सरकार के कटु आलोचक उस समय के युवा सांसद श्री अटल बिहारी वाजपेयी की वाकपटुता व भाषण शैली की न केवल प्रशंसा की बल्कि प्रधानमंत्री बनने तक की भविष्यवाणी कर दी। लेकिन आज उसी कांग्रेस में क्या हो रहा है जहां बड़े-बड़े नेताओं के श्रीमुख सैप्टिकटैंक नुमा बनते जा रहे हैं। वैचारिक प्रतिद्वंद्वी को सम्मान देना तो दूर भाषा की शालीनता भी खोती जा रही है। पार्टी के कुछ नेता जब भी कुछ बोलते हैं तो देश के सामाजिक वातावरण में शाब्दिक दुर्गंध फैल जाती है।
संयुक्त प्रगतिशील सरकार के सूचना प्रसारन मंत्री एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री मुनीष तिवारी ने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के 67वें जन्मदिन पर उनको लेकर जो ट्वीट किया है उसे राजनीति के पतन की ही मिसाल कहा जा सकता है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि अभी तक न तो उन्होंंने और न ही पार्टी ने उनके ट्वीट पर किसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उनसे पहले केवल गाली-गलौच में विशेषज्ञ होने की योग्यता के चलते कांग्रेस में पदवीयां पाने वाले श्री दिग्विजय सिंह भी एक सप्ताह पहले ही प्रधानमंत्री पर अभद्र टिप्पणी कर चुके हैं। तिवारी का या कांग्रेस का यह कोई पहला  व इनके व्यवहार से आशंका होती है कि आखिरी अभद्र ब्यान नहीं है। इससे पहले श्री तिवारी अगस्त 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे व्यक्ति बता कर विवादों में फंस चुके हैं।
वैसे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को लेकर कांग्रेस की मनोदशा किसी से छिपी नहीं है। गुजरात चुनावों में पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी उन्हें 'मौत का सौदागर' बता चुकी हैं। विगत वर्ष पाकिस्तान पर सर्जीकल स्ट्राईक के बाद पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी उनके लिए 'खून की दलाली' करने जैसे शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं। कांग्रेस के एक अन्य अहंकारी नेता श्री मणिशंकर अय्यर तो विगत लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें 'चाय बेचने वाला' कह कर उलाहना देते हुए अपने यहां चाय की दुकान खोलने की अनुमति तक जैसे अपमानजनक जुमलों का प्रयोग कर चुके हैं। इस तरह की निकृष्ठ उदाहरणों की फेरहिस्त काफी लंबी है और बताती है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी जो अपने आप को स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने का भी दावा करती है के नेता जुबान पर नियंत्रण खो रहे हैं। पार्टी के नेता अपने राजनीतिक विरोधियों की तुलना हिटलर, फासिस्टों से करने के बाद जानवरों से भी करने लगे हैं और अपनी अभद्र शब्दावली में गाली का छोंक लगाने लगे हैं।
इस तरह की चर्चाओं में अक्सर दलील दी जाती है कि दूसरे दलों के नेता भी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए यह लोग भाजपा सांसद साक्षी माहाराज, साध्वी निरंजना भारती का नाम लेते हैं परंतु यह दलील देने वाले वक्ता भूलते हैं कि विवादित ब्यानों व अभद्र शब्दावली में काफी अंतर है। विवादित ब्यान भी नहीं दिए जाने चाहिएं परंतु अभद्रता व अश्लीलता तो किसी भी सूरत में सहनीय नहीं है।
यह एक मानवीय स्वभाव है कि भ्रष्टाचार की तरह अभद्रता भी ऊपर से नीचे सफर करती है। जब किसी पार्टी का कार्यकर्ता देखता है कि उनके बड़े नेता इस शब्दों का प्रयोग करते हैं तो वे भी इसका अनुसरन करते हैं। आम समाज में विचरण करते हुए इस तरह के शब्दों का प्रयोग सीधा-सीधा झगड़े को निमंत्रण है। याद रहे किसी भी झगड़े व टकराव का पहला चरण गाली गलौच ही है। बड़े नेता एसी कमरों में बैठ कर सोशल मीडिया के जरिए इस काम को करते हैं और जब कार्यकर्ता समाज में इनका प्रयोग करता है तो सीधा टकराव पैदा होता है और हिंसा होती है। इसका उदाहरण देश की वामपंथी पार्टियां रही हैं जो अपने विरोधियों के लिए फासीवादी, हिटलर समर्थक जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हैं और इससे उनके समथकों में दूसरे दलों के प्रति इतनी कटुता फैलती है कि वे अपने विरोधियों की हत्या तक करने को नहीं चूकते। केरल में यही कुछ हो रहा है और बंगाल में यही काम ममता बैनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रति कांग्रेस की खिसियाहट सर्वविदित है। उन्ही के चलते साल 2014 में कांग्रेस से उसका एकछत्र राज छिन गया और  इन तीन सालों में कांग्रेस को एक-आध अवसर को छोड़ कर खुशी मनाने का अवसर नहीं मिला। पार्टी चुनाव दर चुनाव हारती जा रही है और भविष्य में भी जीत की संभावना नजर नहीं आरही है। अपने इतिहास के सवा सौ साल के कालखण्ड में कांग्रेस को इतनी दुर्गति का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा जबकि उससे विपक्षी दल होने तक का सौभाग्य छिन गया हो। झुंझलाहट में कांग्रेस सत्तारूढ़ दल भाजपा विशेषकर श्री मोदी के हर कदम का विरोध कर रही है। पार्टी के विरोध को तो समझा जा सकता है और यह उसका संवैधानिक अधिकार भी है परंतु विरोध के लिए कांग्रेस के बड़े नेता अपने श्रीमुख को ही सैप्टिकटैंक बना लेंगे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

- राकेश सैन
मो 097797-14324

विपक्ष जी, शहीदों को तो माफ कर दो

विकृत सेक्युलरिजम से सताए हिंदू समाज के पूर्वज व देश के शहीद भी अब इस जमात की जद में हैं। गौरक्षा और इसके लिए बलिदान हमारी गौरवशाली परंपरा रही है परंतु अब धर्मनिरपेक्षता वादी कालिख लिए तैयार हो रहे हैं इसे रंगने को। उत्तराखंड सरकार हरिद्वार स्थित कटारपुर नामक गांव में मौजूद गौरक्षक शहीद स्मारक पर गौतीर्थ बनाने जा रही है। 1918 को हिंदुओं ने गौरक्षा के लिए न केवल यहां संघर्ष किया बल्कि अपने जीवन का बलिदान किया और कईयों को कालापानी की सजा तक भुगतनी पड़ी। इस घटना के सौ वर्ष पूरे होने पर उत्तराखण्ड सरकार इन शहीदों को अपनी ओर से श्रद्धांजलि देना चाहती है परंतु गौरक्षा को गाली और सांप्रदायिकता के रूप में परिभाषित करने वाला विपक्ष इसका विरोध कर रहा है। 
इस जगह को गौ तीर्थ बनाने का प्रस्ताव पिछले महीने हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारियों, मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और पर्यटन सतपाल महाराज के बीच बैठक में रखा गया था। 1918 में हरिद्वार से 10 किलोमीटर दूर ग्राम कटारपुर के मुसलमानों ने बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गौहत्या की घोषणा की। वैसे उस समय गौहत्या सामान्य बात थी परंतु हिंदुओं की धर्मस्थली में कभी ऐसा नहीं हुआ था। हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की। वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह आयोजन हो रहा था। दूसरी तरफ हरिद्वार में शिवदयाल सिंह थानेदार थे। उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया। अत: हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो पर गोहत्या नहीं होने देंगे। 17 सितंबर, 1918 को बकरीद थी। हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ पर अगले दिन मुसलमानों ने पांच गायों का जुलूस निकालकर उन्हें पेड़ से बांध दिया और कत्ल की तैयारी करने लगे। दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों हिन्दू युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ तैयार थे। समाज के बहुत से लोगों ने मुसलमानों को समझाने व प्रशासन की मदद लेने का प्रयास किया परंतु उन्हें सफलता हाथ न लगी। गुस्से में आकर युवाओं ने आयोजन स्थल पर धावा बोल दिया और सभी गाय छुड़ा लीं। इस प्रयास में कई लोग मारे गए व गायों का कत्ल करने वाले सिर पर पांव रख कर भाग लिए। इस मुठभेड़ में अनेक हिन्दू भी हताहत हुए। महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे, अत: वे भी बच नहीं सके।
 
प्रशासन को गऊ हत्यारों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा। हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया। महिलाओं का अपमान किया गया। 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया। फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा। कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री 'वेदतीर्थ' ने वहां जाकर महात्मा गांधी जी को सारी बात बतायी, पर गांधी जी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे। परंतु महामना मदनमोहन मालवीय जी का हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्होंने गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।
जैसा कि अक्सर होता है, पुलिस प्रशासन को जैसे ही गऊ हत्यारों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा। हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया। महिलाओं का अपमान किया गया। 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया। फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा। कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री 'वेदतीर्थ' ने वहां जाकर महात्मा गांधी जी को सारी बात बतायी, पर गांधी जी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे। परंतु महामना मदनमोहन मालवीय जी का हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्होंने गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। इसके बावजूद 8 अगस्त, 1919 को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गोभक्तों को फांसी और हरिद्वार के थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को कालेपानी की सजा दी गयी। 
8 फरवरी, 1920 को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास (45 वर्ष) तथा चौधरी जानकीदास (60 वर्ष) को प्रयाग में, डा. पूर्णप्रसाद (32 वर्ष) को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान (22 वर्ष) को वाराणसी जेल में फांसी दी गयी। चारों वीर 'गोमाता की जय' कहकर फांसी पर झूल गये।  इस घटना ने केवल गौरक्षा को लेकर ही भारतीय समाज को जागृत नहीं किया बल्कि यह घटना स्वतंत्रता संग्राम में आहूति का कारण बनी जिसकी प्रचंड ज्योति 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की प्रखर अग्नि बन कर जली जिससे आज हमारा देश सदियों की परतंत्रता के बाद स्वतंत्र हवा में सांस ले रहा है। इतिहास के इस गौरवशाली पन्ने को कलंकित करने का किसी को अधिकार नहीं है और कम से कम राजनीति करते हुए शहीदों को तो संकीर्णता की लपेट में लेने से बचना ही चाहिए।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

Saturday, 16 September 2017

रोहिंग्या मुस्लिम, पीडि़त या पीड़ देने वाले


अराकान रोहिंग्याज साल्वेशन आर्मी के 
हथियारबंद कार्यकर्ता (ऊपर) घुसपैठिए
म्यांमार से आरहे रोहिंग्या मुसलमानों के बारे बहुत प्रचार किया जा रहा है कि वे पीडि़त हैं, बौद्ध लोग उन पर बहुत अत्याचार कर रहे हैं और वहां की सेना नरसंहार में जुटी इत्यादि इत्यादि। माना कि इन आरोपों को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता परंतु रोहिंग्याओं के खिलाफ वहां पर एकाएक इतनी नफरत पैदा यूं ही नहीं हुई है। रोहिंग्याओं ने बहुत कुछ ऐसा किया है जिससे उनके खिलाफ उस बौद्ध समाज में हिंसा फैली जिस समाज में कीड़े मकौड़ों को मारना भी वर्जित है। म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय का एक वर्ग पिछले कुछ समय से ऐसी गतिविधियों में शामिल रहा है जो प्रश्न खड़ा करती हैं कि ये रोहिंग्या मुसलमान पीडि़त हैं या पीड़ देने वाले।
साऊदी अरब से निकली कट्टरपंथी बहावी विचारधारा वहां काफी समय से अपनी जड़ें जमाने के प्रयास में है। इस विचारधारा को मानने वाले न तो किसी देश की सीमा, न संविधान और न ही दूसरी आस्था के प्रति कोई सम्मान रखते हैं। यह विचारधारा पूरी दुनिया को इस्लाम के हरे रंग में रंगने को वाजिद है। इसी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए साऊदी अरब व अनेक आतंकी संगठनों की मदद से पिछले कुछ सालों में ही म्यांमार के रखाइन प्रांत में मदरसों, मजारों का प्रसार हुआ है।
म्यांमार पर काम करने वाले पश्चिम के विद्वान जिम्स प्लीडेड बताते हैं कि इसी विचारधारा का असर है कि रोहिंग्या मुसलमान एक अलग देश बनाना चाहते हैं और इस काम के लिए आतंकी गतिविधियों का संचालन करते हैं। हरक्का-अल-यकीन न केवल म्यामांर बल्कि भारत में भी आतंकी गतिविधियां चला रहा है। इसके हमले में म्मयांमार के 9 से अधिक पुलिस कर्मी मारे जा चुके हैं। भारत के गृह मंत्रालय को गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनेलाइसेज विंग (रॉ) व अन्य खुफिया एजेंसियों ने एडवाइजरी जारी की है कि वह रोहिंग्याओं को लेकर सावधान रहे। एडवाइजरी के अनुसार, अराकान एंड रोहिंग्या सालवेशन आर्मी (एआरएसए) को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई फंडिंग करती है। इसके तार हाफिज सईद, जमात-उद-दावा, लश्कर-ए-तय्यबा, जाकिर मूसा जैसे आतंकियों व आतंकी संगठनों से जुड़े हैं। तभी तो रोहिंग्यिाओं को लेकर जाकिर मूसा ने दुनिया को धमकाया है कि अगर इनको कुछ हुआ तो बाकी दुनिया की खैर नहीं। इन आतंकियों ने रोहिंग्याओं को भी हथियार उठाने को कहा है। इन रोहिंग्याओं के वकील न भूलें कि बंग्लादेश की प्रधानमंत्री ने अपने भारत दौरे के दौरान डोजियर देकर इन संगठनों के प्रति भारत को सावधान किया है।
रोहिंग्या मुसलमानों के अनेक संगठन म्यामांर में आतंकी गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं और इसी कारण वहां की सेना को इनके खिलाफ अभियान शुरू करना पड़ा। भारत के बंगाल राज्य के बर्धमान जिले में हुए बम विस्फोट के मुख्य आरोपी खालिद मोहम्मद जो वर्मा से ही आया मुसलमान था, ने पूछताछ के दौरान माना है कि पाकिस्तान इस इलाके में आतंक फैलाने के लिए फंडिंग व ट्रेनिंग दे रहा है। म्यांमार में यही आतंकी संगठन स्थानीय जनता पर हमले करते हैं, उन्हें आतंक का शिकार बनाते हैं और रोहिंग्या समाज इनको शरण देता है। इसी कारण काफी समय से म्यामांर में रोहिंग्याओं के खिलाफ नफरत की भावना पैदा होती रही है। कोई भी समाज नहीं चाहता कि उस पर आतंकी हमले हो और कोई एक वर्ग केवल इसलिए देश को तोडऩे की बात करता हो कि उनकी उपासना पद्धति बाकी समाज से भिन्न है।
पिछले दिनों इन रोहिंग्याओं ने म्यांमार की सेना की एक टुकड़ी पर हमला किया था। हमलावरों का आका सऊदी अरब में है। इन हमलावरों और उनके समर्थकों के विरुद्ध म्यांमार की सेना कार्रवाई कर रही है। कहा जा रहा है कि अब तक 200 रोहिंग्या अतिवादी और नागरिक मारे जा चुके हैं। इसलिए वे लोग जान बचाने के लिए बांग्लादेश व अन्य देशों की ओर भाग रहे हैं, लेकिन एक मुस्लिम बाहुल्य देश बांग्लादेश उन्हें अपने यहां आने से रोक रहा है। इसका भी कारण है कि बांग्लादेश के जिस-जिस इलाकों में यह घुसपैठिए रह रहे हैं वहां की बौद्ध आबादी पर हमले कर रहे हैं। इन घुसपैठियों ने कुछ समय पहले ही बांग्लादेशी बौद्ध मठों को आग लगा दी और स्थानीय निवासियों पर हमले किए।
केवल आज की बात नहीं, अतीत में भी रोहिंग्या मुसलमानों द्वारा बौद्धों पर तरह-तरह के जुल्म का लंबा इतिहास रहा है। इसकी बुनियाद मुख्य रूप से 15वीं शताब्दी में पड़ी जब बंगाल के सुल्तान जलालुद्दीन मोहम्मद शाह थे। उन्होंने रखाइन से भागकर आए वहां के शासक सू मून की मदद की थी। जलालुद्दीन से सैन्य मदद पाकर सू मून ने 15वीं सदी के मध्य में रखाइन के राजाओं को हराया, लेकिन सुल्तान ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए रखाइन में बड़ी संख्या में मुस्लिमों को भेज दिया। इसके बाद लगभग 100 साल तक बंगाल में पुर्तगाल के लुटेरों का आतंक रहा और इससे बचने के लिए लोग बर्मा के निकटवर्ती इलाके रखाइन में जमते गए। जैसे ही रखाइन में मुसलमानों की संख्या ठीक-ठाक हुई, उन्होंने बौद्धों पर तरह-तरह के अत्याचार करने शुरू कर दिए। बाद में जब अंग्रेजों का शासन आया तो उन्होंने 'बांटो और राज करो' की अपनी पुरानी नीति पर चलते हुए बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों को आपस में उलझाए रखा। अरसे तक अत्याचार सहने के बाद अब बौद्ध भी हिंसक हो गए थे। अंग्रेजों के जाने के बाद एक बार फिर रोहिंग्या मुसलमानों ने जमकर उत्पात मचाया। एक अनुमान के मुताबिक महीनों तक चले दंगे में हजारों बौद्धों का कत्ल हुआ। भारत में बहस छिड़ी है कि इन घुसपैठिए रोहिंग्याओं को अपने यहां शरण दी जाए परंतु भारत में भी इनके चलते जम्मू-कश्मीर, बिहार, बंगाल में अनेक तरह की हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं। जम्मू-कश्मीर में कई रोहिंग्या आतंकी गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं। अभी हाल ही में मस्जिद के बाहर जेएंडके के जिस पुलिस इंस्पेक्टर को भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला उसके पीछे भी इन्हीं लोगों का हाथ बताया जा रहा है। इन लोगों को देश में शरण देना अपनी खुद की शांति भंग करना और हमारे बच्चों की आने वाली नस्लों को खतरे में डालने जैसा होगा।

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...